आस्था के स्थल अर्थात ऐतिहासिक मंदिरों में नँगे पाँव चलना मेरी बौद्धिकता में एक नया आयाम जोड़ गया। दरअसल कोरोना काल के शुरू होने के ठीक चंद दिनों पहले मार्च महीने के हर इतवार को सुबह चार बजे से शाम छह बजे तक मैं और इतिहासकार डॉ. टी. प्रसाद राव मंदिरों की यायावरी कर रहे थे। तीखी धूप में मंदिर प्रांगणों में काले पत्थरों पर नँगे पाँव चलना मेरे लिए अनचाहे कर्म में पसीना बहाने, खुद को दैहिक दुःख देने और समय का जाया करने के अलावे कुछ नहीं लग रहा था। वहीं भक्तों के हँसते चेहरों को देखकर मन कुफ्त रहा था। दर्शन पाने के लिए घंटों खड़े रहना, ऊपर धूप तो नीचे बहुत गर्म काले पत्थरों पर पाँव जलाना, पसीने से तर-बतर भीड़ में लोगों का धैर्य मेरे मन में खुद के प्रति लघुता का बोध भी करा रहा था। लेकिन मंदिर के भीतर दर-दीवारों से लेकर स्तंभों तक में बनी शिल्पकारी, मंदिर निर्माण में राजाओं की भूमिका से लेकर ऐतिहासिक आलवार और नयनार संतो की मूर्ति स्थापना को देखकर मेरा नँगे पाँव आना सार्थक हो गया। मंदिर में होने वाली एक-एक गतिविधि मेरे लिए इतिहास में चलने के समान लग रही थी।
मंदिरों की यायावरी के दरम्यान कोरोना महामारी की खबर भारत को भी तेजी से भयभीत करने लगी थी। विदेशी सैलानियों को देखकर मन में डर आने लगा था। लेकिन फिर भी सभय होकर हमने तंजावुर का विशाल बृहदेश्वर मंदिर, गोंगै चोलापुरम शिवमंदिर, स्वामीनाथ स्वामीनाथ मुरुगन मंदिर; कुंभकोणम का सुब्रमण्यम मंदिर, दिव्य देशम रुलमिगु सारंगपानी मंदिर, आदिकुबस्वरा स्वामी मंदिर ; चिदम्बरम का नटराज शिव मंदिर, गोविन्दराजा मंदिर; काँचीपुरम (7वीं से लेकर 12 वीं सदी तक यह भक्ति का बहुत बड़ा संस्थान था) का वरदराज पेरुमल (विष्णु) मंदिर, शिवकांची मंदिर, एक्मवरेश्वर शिव मंदिर, कामाक्षी अमन मंदिर, चित्रगुप्त मंदिर, वामनावतार मंदिर; मामलापुरम (महाबलीपुरम) का शोर मंदिर, आदिवराह गुफा मंदिर इत्यादि ऐतिहासिक धार्मिक शहरों के चुनींदा मंदिरों का भ्रमण किया। बगैर इन मंदिरों को घूमे द्रविड़ भक्ति आंदोलन को ठीक से नहीं समझा जा सकता है।
‘भक्ति द्रविड उपजी, लाए रामनन्द’ पद को पढ़ते-पढ़ाते हुए हम उत्तर भारतीयों को बताया जाता था कि दक्षिण भारत में भक्ति का मात्र उद्भव हुआ था अर्थात भक्ति का स्वरूप आंदोलन के रूप में नहीं था। पिछले छः वर्षों से मैं पुडुचेरी में पेशारत हूँ। यहां के समुद्रतटीय क्षेत्र महाबलीपुरम से लेकर तंजावुर के मंदिरों का यात्रा करने, अलवार-नयनार संतों के साहित्य को देखने से मात्र उद्भव वाली समझ आंदोलन वाली समझ में बदल जाती है। यही समझ इस लेख का कारण बनी है।
प्रस्तुत लेख में दक्षिण भारत में सातवीं से नौवीं शताब्दी में हुए नए धार्मिक आंदोलन, जिसे भक्ति आन्दोलन कहा जाता है, के उभार पर समाजिक सुधार सम्बन्धी पहलू पर विचार करने के लिए मुख्य रूप से तीन बिंदुओं पर विचार किया गया है। एक, भक्ति सिद्धांत का उद्भव किस तरह हुआ, दूसरे, नयनारों (शैव संतों) और अलवारों (वैष्णव संतों) ने भक्ति आंदोलन का नेतृत्व कैसे किया? और तीसरे, भक्ति आन्दोलन में मंदिर और राजाओं की कैसी भूमिका रही?
द्रविड़ भक्ति-आन्दोलन में विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमि से संत आये थे। बेशक ब्राह्मण संत ज्यादा थे। लेकिन अन्य सामाजिक पृष्ठभूमि के लोग भी थे, जिनमें किसान, धोबी, चरवाहे, बुनकर, कुम्हार, शिकारी, मछुआरे और अछूत भी शामिल थे। इनमें से वैष्णव संत तिरुप्पन आलवार और शैव संत नंदनार को अछूत बताया गया है।[1] निचली जाति के संतों ने एक प्रमुख जगह बनाई थी। इस आन्दोलन में लगभग 75 संत थे जिनमें से तिरसठ नयनार थे और बारह अलवार। नयनार शैव थे और नयनारों में सर्वाधिक प्रसिद्ध थे- अप्पार, संब्ंदर, सुंदरार और माणिक्कवसागार।[2] उनके गीतों के दो संकलन हैं- तेवरम् और तिरुवाचकम्। तेवरम के कई अर्थ हैं। तेवर का साम्य ‘देवग्रह’ से है अर्थात देवता का घर और ‘वरम’ एक देवता को संबोधित गीत है। ‘तेवरम का एक अर्थ 'निजी अनुष्ठान पूजा' भी है और इसमें भजनों का महत्व है, जो मुख्य रूप से मंदिर की पूजा से जुड़े थे।’[3] आलवार वैष्णव थे और आलवारों में से सर्वाधिक प्रसिद्ध थे- पेरियअलवार, उनकी पुत्री अंडाल, तोंडरडिप्पोडी आलवार और नम्मालवार। इनके गीत चार हजार पाशुरों यानी छन्दों में हैं, जो नालियार दिव्यप्रबंधम् के नाम से प्रसिद्ध है। इसका संकलन नवीं सदीं के उत्तरार्ध में त्रिचनापल्ली के श्रीरंगम में रहने वाले नाथमुनि ने किया। इसे तमिल वेद भी कहा जाता है। आलवार तमिल शब्द है जिसका अर्थ है- ‘भगवान में डुबा हुआ’। दक्षिण भारत के अनेक मंदिरों में देव मूर्तियों के साथ-साथ अलवारों एवं नायनारों की मूर्तियाँ भी स्थापित की गई हैं और उनका भी विधिवत पूजन होता है।
चिदंबरम के नटराज शिव मंदिर में स्थापित 74 नयनार संतों की मूर्तियाँ (हालांकि 63 नयनार संतों की ही गणना की जाती है।)
संगम साहित्य में भक्ति या भक्ति के विचार को आलवारों-नायनारों ने अपने गीतों में जो अभिव्यक्त किया, उनमें प्रमुख बातें थी- एक, तमिल धार्मिकता को अभिव्यक्ति मिली; दूसरे, सरल भक्ति और भक्ति के लिए मंदिर में ईश्वर को पाने में आसानी हुई और तीसरे, भारतीय पौराणिक मिथक और एक पारलौकिक निरपेक्ष की ब्राह्मणवादी अवधारणा बनी। आलवारों-नयनारों ने भक्ति के ढांचे के भीतर स्थानीय देवताओं को ब्राह्मणवादी सार्वभौमिक देवताओं में अवशोषित कर दिया। जैसे कि कुछ आलवारों ने दिन-प्रतिदिन के जीवन से कई प्रकार की छवियों का उपयोग किया और उन छवियों को वैष्णव मिथकों से जोड़ दिया। जैसे- पेरियालवर (नौवीं सदी) ने मां और बच्चे की छवियों का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करते हुए इसे यशोदा और कृष्ण से जोड़ा। नयनारों ने शिव को बुराइयों को दूर करते हुए योद्धा देवता के रूप में माना। शिव की स्थानीय पहचानों को विशिष्ट स्थलों के साथ जोड़ दिया। इस तरह आठवीं शताब्दी तक आते-आते तिरूजनानकंपर (एक नयनार) के भजनों में शिव की स्थानीय पहचान लौकिक पारलौकिक के साथ विलीन हो गई और मंदिर के परिदृश्य और तीर्थयात्रा के विचार में संस्थागत हो गई।
भक्ति का सिद्धांत
भक्ति का सिद्धांत किस प्रकार विकसित हुआ और यह विष्णु या शिव की उपासना का महत्पपूर्ण सिद्धांत कैसे बन गया? इसकी जानकारी ‘भक्ति’ शब्द के इतिहास पर एक नज़र डालने पर ही मिल सकती है। इस शब्द ने इतिहास के दबाव में कई अर्थ ग्रहण किये हैं, इसलिए इसका कोई ठीक-ठीक पर्याय संभव नहीं हो पाया है। यही वज़ह है कि यह शब्द किसी भाव विशेष को लक्षित न करके भावों के एक पूरे समुदाय के साथ एक धार्मिक सिद्धांत को लक्षित करता है। ‘भगवत’, ‘भक्ति’ तथा ‘भक्त’ शब्द परस्पर जुड़े हुए हैं और ‘भगवत’
शब्द
का
मतलब
वह
आदिम
जनजातीय समूह था
जो
समस्त जनजातीय संपत्ति का स्वामी होता था।
‘भक्ति’ का अर्थ
उस
संपत्ति का एक
भाग
या
हिस्सा था और
‘भक्त’
वह
व्यक्ति था, जिसे
वह
भाग
प्राप्त होता था।
आगे
चलकर
भगवत
को
एक
देवता माना जाने लगा और भक्त को उसके आश्रित या उपासक के रूप में।
भक्ति की मूलभूत धारणा भौतिक और मूर्त थी अर्थात शुरू में देवताओं के अनुग्रह को सांसारिक वस्तुओं के अर्थ में ग्रहण किया जाता था। इसलिए अपने शुरूआती प्रयोगों में ‘भक्ति’ शब्द कभी-कभार ‘प्रसाद’ के पर्याय के रूप में है और आगे चलकर, ‘भक्ति’ और ‘भगवत’ के बीच सगोत्रता के भाव में ‘प्रेम’ भाव समाहित हो गया है। प्राचीन महाकाव्यों के कुछ अवतरणों में भक्ति शब्द का प्रयोग देवताओं और मनुष्यों दोनों के लिए हुआ है। यानी देवता भी मनुष्य के प्रति वैसा ही भक्ति-भाव रखते हैं जैसा मनुष्य देवताओं के प्रति। किंतु बाद के महाकाव्यों तथा पुराणों में हम पाते हैं कि भक्ति पर केवल मनुष्य का अधिकार है, जिसका अर्थ देवता की प्रेमपूर्ण आराधना मात्र नहीं अपितु अनुराग या लगन के साथ देवता की सेवा करना है। इस शब्द के अर्थ में ये परिवर्तन तत्कालीन समाज में हो रहे परिवर्तन का प्रतिबिम्बन है तथा यह सूचित करते हैं कि सामाजिक संबंधों से हमारी धार्मिक विचारधारा किस सीमा तक प्रभावित थी।[4]
प्रारंभिक वैदिक साहित्य में ‘भक्ति’ शब्द का प्रयोग य़द्यपि आराधना के अर्थ में तो नहीं हुआ है। लेकिन आत्मीय रिश्तों के अर्थ में जरूर हुआ है। वैदिक कवि इंद्र से प्रार्थना करता है- ‘तू जो हमारे सम्बन्धी के रुप में अभिज्ञात है, जो एक मित्र, पिता तथा पिताओं में सर्वाधिक पितृ स्नेह रखने वाले पिता के रुप में हमारी देखभाल करता है तथा हम पर दया करता है, हमारा रक्षक बन’। देवताओं के साथ प्रेम और घनिष्ठता की यह भावना आदिम सामुदायिक जीवन की ओर संकेत करती है। यह भावना उत्तर वैदिक युग में जाकर लुप्त हो जाती है। भक्ति सिद्धांत से जुड़ा ईश्वरीय अनुग्रह और साकार ब्रह्म की धारणा के कुछ बिंदु उपनिषदों में भी खोज सकते हैं किंतु इस सिद्धांत की स्पष्ट विवेचना पहली बार भगवद् गीता में मिलती है।[5] लेकिन द्रविड़ भक्ति-आन्दोलन का मूल ग्रन्थ भागवत नहीं, दिव्य-प्रबन्धम् है। हालाँकि भागवत और प्रबन्धम् दोनों ग्रंथों का समय एक ही हैं, फि़र भी प्रबन्धम् की बहुत-सी कविताएँ, दूसरी-तीसरी सदी से चली आ रही थी। प्रबन्धम् की कविताएँ जनता की भक्ति साधना की सीधी अभिव्यक्ति है। किन्तु भगवत-गीता की रचना पांडित्य के स्तर पर गयी है। प्रबन्धम् भक्ति आन्दोलन का मूल ग्रन्थ क्यों माना जाय इसका संकेत भी भागवत ही देता है क्योंकि उसका भी मत है कि भक्ति का जन्म दक्षिण भारत में हुआ था।
‘भगवद गीता’ में भक्ति का तात्पर्य परमात्मा के प्रति विशुद्ध प्रेम से है, जो य़द्यपि अपने भीतर संपूर्ण विश्व को धारण किए हुए है, अकल्पनीय है तथापि एक ऐसा साकार एवं अर्चनीय रुप रखता है जिसके साथ उपासक वैसी घनिष्ट आत्मीयता के भाव का अनुभव कर सकें जैसी आत्मीयता हमारे घनिष्ठ रिश्तों में होती है। दरअसल, गीता में दैवीय कृपा का वर्णन ‘एक उग्र एवं क्रियाशील शक्तिशाली अधिपति के कृपा भाव रूप में किया गया है और यह कहा गया है कि उसकी महिमा ‘एक सम्राट की महिमा है, जिसकी कल्पना एक साधारण मनुष्य कर ही नहीं सकता’।[6] वैष्णवधर्म की प्रारंभिक विकासावस्थाओं में भक्त के भीतर अभिमान हीनता या विनम्रता का भाव भक्ति की धारणा का एक आवश्यक अंग था, जो शासक वर्गों की विचारधारा को प्रतिबिम्बित करता है। गुप्तकालीन शासकवर्ग भगवान के प्रति अपनी भक्ति को सेवा-भाव से व्यक्त करते थे जिसे परवर्ती धर्मशास्त्रियों ने दास्यभाव के रूप वर्णित किया था, जिसमें भगवान और भक्त के बीच सामन्यतः स्वामी और सेवक का संबंध आवश्यक था।
किंतु गीता में भक्ति नितांत विनयपूर्वक भगवान की उपासना मात्र नही, अपतिु बौद्धिक विश्वास एवं श्रद्धा भी है। गीता में उपासना और श्रद्धा पर जो विशेष बल दिया गया है, वह उस युग की आवश्यकताओं के सर्वथा अनुरुप है। मौर्यकाल के अंत तक आर्यों का वर्ण भेद पर आधारित सामाजिक ढांचा सुदृढ़ रुप से स्थापित हो चुका था। जैसे-जैसे नई व्यवस्था कायम हुई और जनजातीय ढांचे कमजोर होते गए और वर्ण-व्यवस्था पर आधारित सुदृढ़ शासन सत्ताएं स्थापित होती गई, वैसे-वैसे अशांति और आशंका की वह पुरानी भावना जो जनजातीय संगठनों के छिन्न-भिन्न होने से उत्पन्न हुई थी, लुप्त होने लगी और उसके स्थान पर सुरक्षा और आशा के भाव उदित हुए। समाज के इस रुप को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए भक्ति और निष्ठा वे आवश्यक विशेषताएँ थीं, जो प्राचीन जनजातीय ढांचों का स्थान ले सकती थीं तथा राज्य के सुचारू रुप से संचालन में सहायक हो सकती थी। उपासना के लक्ष्य की उपयुक्तता खोजना आवश्यक था क्योंकि शासक मानवीय दुर्बलतओं से ऊपर नहीं हो सकते किंतु दूसरी ओर वे सुरक्षा और स्थायी शासन प्रदान करने में समर्थ थे। इसलिए अपनी प्रजा की निष्ठा पर भी अधिकार रखते थे। ऐसी परिस्थितियों में भक्ति और श्रद्धा पर आधारित एक ऐसा धर्म, जो जनता के लिए सर्वाधिक आकर्षक हो सकता था और ई. सन के तुरन्त पूर्व और बाद की प्रारंभिक शाताब्दियों में प्रायः सभी संप्रदायों का धार्मिक चिंतन इस आशापूर्ण भक्तिभाव में डूबा हुआ था। बौद्धधर्म के निराशावादी अनीश्वरवाद ने भी (यह सामाजिक उथल-पुथल के समय की देन था और तब जनजातीय समाज छिन्न-भिन्न हो रहा था) महायान बौद्ध मत के अंतर्गत एक आशावादी मोड़ लिया और एक करुणाशील उद्धारक बुद्ध की भक्ति का प्रचार किया। किंतु इस भाव की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति भगवद गीता में हुई। गीता ने एक ऐसे भगवान की आराधना की शिक्षा दी, जो अपने भक्तों के कल्याण के लिए बार-बार अवतार ग्रहण करता तथा सामाजिक एवं धार्मिक मर्यादाओं का पोषण करता था। भक्ति के उसी अवतारी रूप को आलवारों एवं नयनारों ने विराट रूप में अभिव्यक्त किया।
इस प्रकार भक्ति का सिद्धांत सदैव तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों में हुए परिवर्तनों के अनुरुप ढलता रहा और इसी तरह उसका विकास होता रहा। यही वजह है कि यह निरंतर आकर्षक बना रहा।[7]
आलवारों और नयनारों के भक्ति की सामाजिक चेतना
आलवारों और नायनारों ने भक्ति-मार्ग के प्रचार को व्यापक रूप देने के लिए जनभाषा तमिल के सहारे अपनी विचारधारा का प्रचार किया था। वैदिक धर्म के कट्टर अनुयायियों ने अपने धार्मिक साहित्य को, जो संस्कृत भाषा में था, जनमानस से दूर रखा था। दरअसल आलवारों और नयनारों ने भक्तिपरक तमिल भाषा में जिस साहित्य का निर्माण किया था, वह पूरी तरह गेय था। इन भक्त कवियों के गीतों ने जनमानस को बहुत प्रभावित किया। भक्ति आन्दोलन को व्यापक रूप प्रदान करने में वैष्णव और शैव भक्तों के गीतों के गेयत्व को बड़ा सहयोग दिया था। दोनों ही संतों ने अपने गायन में विशेषकर लोकगीत की शैलियों को अपनाया था। हालाँकि नयनार और आलवार समकालीन थे, लेकिन इनकी पवित्रता के तरीके में अंतर था। इनके तरीके आठवीं-नौवीं शताब्दी तक शैव और वैष्णववाद के अलग-अलग धार्मिक समुदायों में परिणत होने के लिए दोनों को एक अलग पहचान दे रहे थे। नयनारों और आलवारों के भजनगीत तमिल में पहली बार धार्मिकता की ठोस अभिव्यक्ति के रूप में उभरा। इन दोनों ने भजन गीतों में एक-दूसरे की निंदा भी की और विभिन्न स्रोतों के माध्यम से यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया कि उनके देवता दूसरे से श्रेष्ठ हैं।
भक्ति आन्दोलन को जन-आन्दोलन का रूप इसलिए भी मिल सका कि आलवारों और नयनारों ने जाति-पाँति और ऊँच-नीच के भेद भाव को मिटाकर सबको समान रूप से भक्ति करने की वकालत की थी। भक्ति का अधिकार सबके लिए घोषित किया था। केवल घोषणा से नहीं बल्कि अपने स्वयं के जीवन के आदर्शों से उन्होंने ऐसी सामाजिक चेतना का निर्माण किया है कि कोई उच्च वर्ण के कारण श्रेष्ठ नहीं होता है। बल्कि भगवत भक्ति से वह श्रेष्ठ हो सकता है और तब यह किस्सा भी लोकप्रिय था कि ऊँच जाति के भक्त निचली जाति के भक्तों को जब तक गले नहीं लगाएंगे, अपने बराबर का नहीं समझेंगे, तब तक भगवान उनकी पूजा और प्रसाद को स्वीकार नहीं करेंगे।
संगम युग में भी सोशल हैयरार्की थी लेकिन ‘उच्च’ और ‘निम्न’ जाति की धारणा नहीं थी। भक्ति आन्दोलन के दौरान सामाजिक हैयरार्की की कई धारणाएं थी। लेकिन भक्ति-आन्दोलन के उन्नायकों ने इन सब धारणाओं/विषमताओं को भुलाकर सबको समान मानने की घोषणा की थी। यह भारतीय सामाजिक जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना थी। भक्ति दरअसल, आम लोगों के रोजमर्रा के कार्यों के अनुकूल थी। इसके लिए तीर्थयात्रा, तपस्या और पवित्र ग्रंथों को सीखना जरूरी नहीं था। एकमात्र आवश्यकता थी- ईश्वर के प्रति हर पल मन लगाना।
एक समुदाय की छवि कास्ट हैरार्की (जातीय सोपान) के प्रति भजनों के दृष्टिकोण से जुड़ी थी। इन प्रारंभिक संतों के भजनों में वैदिक ब्राह्मणों के अनुष्ठान प्रभुत्व के प्रति शत्रुता दिखाई देती थी। जैसे कि चतुर्वेदी। चतुर्वेदी कास्ट हैयरार्की में अपनी उच्च स्थिति के आधार पर पूजा पर एकाधिकार रखते थे। संतों ने इस एकाधिकार की आलोचना की और इस बात की पुरजोर वकालत की- चाहे कोई भी हो, अपनी जाति, लिंग और आर्थिक स्थिति की परवाह किए बगैर परमात्मा तक समान पहुंच रखता है। भक्तों की गैर-ब्राह्मणवादी पृष्ठभूमि ने ब्राह्मणों के प्रभुत्व की धारणा पर चोट किया। जैसे, कुछ आलवार और नयनार वेलाला (किसान), चारण–भाट, आदिवासी कुलों के सरदार वगैरह थे। हालाँकि, इनमें से कुछ संत ब्राह्मण थे और कास्ट हैयरार्की के खिलाफ उनके असंतोष ने स्वयं ब्राह्मणों के बीच एक हैयरार्की की उपस्थिति को प्रतिबिंबित किया। शैव और वैष्णव आस्था में स्थानीय पंथ केंद्रों का रूपांतरण स्थानीय पुजारियों के आत्मसात होने के साथ हुआ।
हालाँकि, यह जाति व्यवस्था की पूर्ण रूप से अस्वीकृति नहीं थी। यह केवल शैव संत तिरुनावुक्करकर (अप्पार के नाम से प्रसिद्ध) के भजनों में है, इनके यहाँ कोई भी जाति की प्रत्यक्ष अस्वीकृति को पढ़ सकता है।[8] इनका स्वभाव ऐसा था कि ‘मेरा जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआ, न मैं चारों वेदों को मानने वाला हूँ, मैं अपनी इन्द्रियों को भी नहीं जीत पाया हूँ, इस कारण हे भगवान! मुझे तुम्हारे चरणों के अतिरिक्त अन्य किसी भी शक्ति का भरोसा नहीं है।’
इनके यहाँ कास्ट हाइरार्की का एक विकल्प ‘भक्तों के समुदाय’ की अवधारणा में रूप में आया। भक्तों के इस समुदाय का हिस्सा बनने के लिए, सबसे महत्वपूर्ण मापदंड भगवान की भक्ति थी और जाति माध्यमिक थी। इसलिए जाति को दर्जा कभी नहीं दिया गया। भजन गीतों में माना गया है कि शिव और विष्णु की भक्ति वैदिक पाठ से बहुत बेहतर थी और एक चतुर्वेदी शिव या विष्णु के एक निम्न जाति के भक्त से नीच था। इसके अलावा, नयनारों और अलवारों ने ‘समुदाय में एकता’ पर बल दिया, भक्त (चाहे किसी भी जाति का हो) की सेवा को भगवान के लिए प्रत्यक्ष सेवा की तुलना में अधिक उद्धारकारी लाभ माना जाता था। मसलन, वैष्णव संत मधुरकवि ने एक अन्य वैष्णव संत को (नम्मलवार) यानी अपने शिक्षक और भगवान के रूप में माना, जो जन्म से वेलाला थे। तेवरम में, भक्त समुदाय को यानी साथी भक्तों के लिए ‘नाम’ (हम) के रूप में अभिव्यक्त किया गया। एतियार कुट्टम (भक्तों का समुदाय) में केवल तमिल शैव ही नहीं थे, बल्कि अन्य शैव संप्रदायों के अनुयायी भी थे।
भक्ति आन्दोलन को जन-आन्दोलन का रूप इसलिए भी मिल सका कि अंडाल, करिकाल अम्मारयार[9], मंगयारकारसियार जैसे स्त्रियों ने पितृसत्तात्मक समाज को चुनौती दिया। तत्कालीन धर्मों में स्त्रियां मोक्ष के योग्य नहीं थीं और उन्हें निम्न दर्ज़ा मिला था। अलवार अंडाल का कविता और जीवन में कृष्ण की पत्नी के रूप में प्रस्तुत करते हुए समाज का सम्मान पाना यह दर्शाता है कि भक्ति अपने प्रकृति में लोकतान्त्रिक है। एक कविता में वह प्रभु के लिए अपनी कामुक इच्छा व्यक्त करती है। अंडाल कृष्ण की प्रेमिका हैं और वह खुद को अपने दिव्य प्रेम में समा जाना चाहती हैं। नायनार करिकाल अम्मैय्यर का साहस भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने अपनी शादी इसलिए तोड़ दी क्योंकि पति से उत्पीड़न मिला था। उन्होंने अपनी कविता में अपने अनाकर्षक शरीर का वर्णन किया है। वो कविता के जरिये अपनी कुरूपता का जश्न मनाती हैं और आध्यात्मिकता से उस कुरूपता को दूर करने की कोशिश करती हैं। इन्हें शुरुआती नारीवादी कहना चाहिए। भगवान शिव के प्रति अपनी गहरी भक्ति एवं प्रेम का वर्णन करती हैं -
मैंने तुम्हारे चरणों में खुद को समर्पित कर दिया है,
वह खुले तौर पर अपने प्यार के इजहार और देवता के लिए तरसने से नहीं डरती हैं। ईश्वर की आराधना उनके लिए मुक्ति का मार्ग था।
हालाँकि कुछेक विद्वानों ने इस भक्ति आन्दोलन के जातिवाद और लैंगिकता के बारे में निष्कर्ष निकाला है कि भक्ति आंदोलन रूढ़िवादी सामाजिक मानदंडों के खिलाफ कट्टर विरोधी नहीं था। बेशक, विरोध के तत्व मौजूद थे, लेकिन वे जातिवाद के उतने कट्टर विरोधी नहीं थे, जितना मध्यकालीन निर्गुण संत थे।
भक्ति-आन्दोलन में मंदिर की भूमिका
भक्ति-आन्दोलन को व्यापक जन-आन्दोलन का रूप देने में दक्षिण के मंदिरों का पर्याप्त योगदान रहा है। भक्ति का विचार पहली बार मंदिर को शुरू करने का आधार बना। मंदिर में देवता थे, जो लोगों के कष्ट निवारण के लिए इस धरती पर ईश्वर की उपस्थिति के प्रतीक थे। हालांकि, मंदिर (कोइल) औपचारिक पूजा की संस्था के रूप में नहीं उभरा था। इसलिए मंदिर के बारे में विचार विकसित हुए, जो सातवीं शताब्दी से विभिन्न सामाजिक-धार्मिक आंदोलनों के लिए मंदिर केंद्रीय हो गया।
मंदिरों का लोकप्रिय सामाजिक आधार और राजाओं के संरक्षण का नयनारों और अलवारों ने भरपूर इस्तेमाल किया। मंदिर राजनीतिक केंद्र भी था। क्योंकि पल्लव, पांड्या और चोल राजाओं ने अपने-अपने इलाकों में खूब मंदिर बनवाये और उनका गान भी करवाया। भजन-गान करने वाले संतों ने अपने धर्म को लोकप्रिय बनाने के लिए मंदिर की थीम को कई तरीकों से लागू किया। इनकी पूजा की विधि भजन-गीतों में वर्णित भगवान की स्तुति गायन और नृत्य के माध्यम से होती थी। मंदिर सेवा एक सच्चे भक्त के लिए जीवन का एक आदर्श तरीका था। नयनारों और आलवारों के लिए मंदिर का एक विशेष (आध्यात्मिक) धार्मिक महत्व था। मंदिर और उसके देवता एक जगह पर नहीं, बल्कि कई जगहों पर स्थित इस धरती पर स्थिर (सौलभ्य) और पारलौकिक (परत्व) देवता के प्रतीक थे। अपने साथी भक्तों के साथ कवि-संत एक स्थान से दूसरे स्थान[11] पर (भजन में) यात्रा करते थे, भजन गाते और अर्का (देवता) की पूजा करते थे, जिनकी स्थानीय पहचान पारलौकिक शिव या विष्णु से होती है। भगवान के अवतारों को उनकी लीला के रूप में समझा गया यानी भगवान भी भक्तों के करीब रहना चाहते हैं। संतों के भजनगीतों में विष्णु एवं शिव के आइकोनोग्राफिक विवरणों में वीरता और शक्ति के राजनीतिक रूपकों की भरमार है, जो एक ईश्वर की श्रेष्ठता को उजागर करते हैं और परमात्मा की लौकिक श्रेष्ठता को उजागर करने के लिए मिथकों का खूब इस्तेमाल करते हैं।
भक्ति और मंदिर को लेकर मुख्य रूप से दो विचारधाराएँ दिखाई देती हैं। डी.डी. कोसंबी, के.ए. नीलकंठ और केसवन वेलुथाट जैसे विद्वानों का मामना है कि मंदिर सेवा का तरीका और भगवान तथा भक्त के बीच का रिश्ता सामंती संबंधों की प्रतिकृति की ओर इशारा करता है, जिसने मकान मालिक-किरायेदार, राजा और प्रजा के प्रभुत्व संबंधों को और अधिक वैध बनाया।[12] लेकिन आर. चंपकलक्ष्मी का मानना है कि इस तरह के एक दृश्य को नजरअंदाज कर दिया जाता है कि 'प्रारंभिक मध्ययुगीन तमिलनाडु में संसाधन जुटाने और पुनर्वितरण के माध्यम से जटिल प्रक्रियाएं, जिसमें मंदिर शाही और मुख्य रूप से परिवार स्थापित करने के लिए राजनीतिक उपस्थिति और सामाजिक प्रभुत्व को किसान क्षेत्रों में घुसपैठ के रूप में जाना जाता है, जिसे नाडूस कहा जाता है।[13]
निष्कर्ष : इस तरह हम छठी-नौवी शताब्दी के बीच भक्ति आन्दोलन की प्रेरणा से धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में हुए आमूल-चूल परिवर्तन को समझ सकते हैं। इस आंदोलन के भक्तों के जीवन में झाँकने पर पता चलता है कि भक्ति आन्दोलन में समाज के लगभग सभी जातियों का प्रतिनिधित्व था। इसलिए भक्ति सभी जातियों को अपनी तह में ले जाने में समर्थ समझी गई। लेकिन भक्त मूलतः बौद्धों और जैनों के कटु आलोचक थे क्योंकि उन्हें ब्राह्मण धर्म को नए सिरे से लागू करना था। इस प्रक्रिया में समाज के सभी वर्गों के लिए अपने वैदिक धर्म को उदार करने के सिवा कोई और चारा नहीं था। धर्म के उदारवादी विचार में उन्होंने विष्णु तथा शिव के प्रति सच्चे प्रेम का खोजा, जो मुक्ति का मार्ग था। आम लोगों के लिए यह सीधा, सहज और सरल मार्ग था। हालाकिं यह प्रश्न महत्वपूर्ण है और आज के सन्दर्भ में यह प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है कि ब्राह्मण अलवार-नयनार संतो और गैर-ब्राह्मण आलवार-नयनार संतों की भक्ति का मनसूबा एक ही था या उनके अलग-अलग मनसूबे थे? यह प्रश्न अलग से शोध की मांग करता है। फिर भी, कुछ बिंदुओं में इसे रेखांकित किया जा सकता है कि ब्राह्मणवादी परंपरा से अलग शुरुआती संतों ने जाति पर कोई जोर नहीं दिया। जाति के कारण भक्त बनने से किसी को रोका नहीं जा सकता था। दरअसल भक्ति आंदोलन का मुख्य लक्ष्य ईश्वर के प्रति लोगों को भावविभोर करना था, न कि सामाजिक परिवर्तन करना। लेकिन गैर-ब्राह्मणवादी नयनारों एवं स्त्री संतों की भक्ति भावना सामाजिक परिवर्तन का सन्देश जरुर देती है।
नयनार और आलवार घुमक्कड़ साधु-संत थे। वे जिस किसी स्थान या गाँव में जाते थे, वहाँ के स्थानीय देवी-देवताओं की प्रशंसा में तमिल में सुंदर कविताएँ रचकर उन्हें संगीतबद्ध कर दिया करते थे। घुमक्कड़ी के दौरान वे भक्ति के विचार, समर्पण, समानता और सामाजिक समावेशन का प्रचार करते और खुद राजाओं के सहयोग से मंदिरों का निर्माण भी करते थे। मंदिरों में देव मूर्तियों के साथ-साथ इन संतों की मूर्तियाँ भी स्थापित की गई हैं और उनका भी विधिवत पूजन होता है।
अंडाल, कारिकाल अम्मारयार जैसी स्त्री संतों की उपस्थिति तत्कालीन पितृसत्तात्मक समाज और धर्म में स्त्री को दोयम दर्जे एवं मोक्ष के अयोग्य मानने की धारणा को भक्ति चुनौती देती है।
[2] स्वामी सिवानन्द, (संपा. 1999), सिक्सटी थ्री नयनार्स सेंट्स, द डीवाइन लाइफ ट्रस्ट सोसाइटी (द नयनार्स मैसेज फॉर अस)
[3] आर. चम्पकलक्ष्मी (1996), “फ्रॉम डीवोसन एंड डिसेंट टू डोमिनांस: द भक्ति ऑफ़ द तमिल अल्वार्स एंड नयनार्स,” ट्रेडिशन, डिसेंट एंड आइडियोलॉजी: एसेज इन ऑनर ऑफ़ रोमिला थापर, सम्पा. आर. चम्पकलक्ष्मी एंड एस. गोपाल, नई दिल्ली: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 153-163, पृ. सं.-141
[4] सुवीरा जायसवाल, ओरिजिन एंड द डेवलपमेंट ऑफ़ वैष्णविज्म, (दिल्ली: मुंशी मनोहरलाल, 1967), पृ. सं.- 110-113
[5] वही, पृ. सं- 116-117
[6] वही, पृ. सं- 116-117
[7] वही, पृ.सं- 120
[8]आर. चम्पकलक्ष्मी (1996), “फ्रॉम डीवोसन एंड डिसेंट टू डोमिनांस: द भक्ति ऑफ़ द तमिल अल्वार्स एंड नयनार्स,” ट्रेडिशन, डिसेंट एंड आइडियोलॉजी : एसेज इन ऑनर ऑफ़ रोमिला थापर, सम्पा. आर. चम्पकलक्ष्मी एंड एस. गोपाल, नई दिल्ली: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 153-163, पृ.सं.- 145
[9] इन्हीं महिला संत के नाम पर पुददुचेरी का एक जिले का नामकरण हुआ है- करिकाल, जहां इनका प्रसिद्ध मंदिर भी है।
[10] वही, पृ. सं- 145
[11]‘He (मनिक्क्वासहरा नयनार संत) spent the rest of his life wandering from temple to temple confronting Buddhists and Jains and defeating them in arguments. देखिये, Sisir Kumar, ‘A History of Indian Literature: From Courtly to the Popular’, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, 2005, पृ. सं- 44
[12] ऐसे ही एक दृश्य के लिए, देखें, केशवन वेलुदत, (1993), पृ. सं- .26-27 और एम. जी.एस नारायण, भक्ति मोवमेंट इन साउथ इंडिया, संपा. डी.एन. झा, फ्यूडल फार्मेशन इन अर्ली इंडिया, नई दिल्ली, 1987, पृ. सं.- 347-375
[13] आर. चम्पकलक्ष्मी (1996), “फ्रॉम डीवोसन एंड डिसेंट टू डोमिनांस: द भक्ति ऑफ़ द तमिल अल्वार्स एंड नयनार्स,” ट्रेडिशन, डिसेंट एंड आइडियोलॉजी: एसेज इन ऑनर ऑफ़ रोमिला थापर, सम्पा. आर. चम्पकलक्ष्मी एंड एस. गोपाल, नई दिल्ली: ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 153-163, पृ. सं.-155
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