शोध आलेख : कबीर की विरासत और शैलेंद्र / रजनीश कुमार

कबीर की विरासत और शैलेंद्र
- रजनीश कुमार

शोध सार : हिंदुस्तान में जिन जन-आंदोलनों ने बड़े सामाजिक बदलाव किए उनमें भक्ति-आंदोलन प्रमुख है। इसने समूचे हिंदुस्तान को अपने साथ लिया और मानवीय मूल्यों को स्थापित किया। कविता इसका प्रमुख संबल रही है, इस काल की कविता की सबसे बड़ी ख़ासियत ये रही है कि कविता सीधे लोक से संवाद करती है कबीर, रैदास, मीरा, सूरदास सरीखे कवियों के दोहे, पद लोक-कण्ठ में आज कई सदियों बाद भी मौजूद हैं। इन कवियों की साझी विरासत को आधुनिक काल में जिन कवियों ने आगे बढ़ाया उनमें जनकवि शैलेंद्र प्रमुख हैं, ये भले ही सिनेगीतकार हैं, लेकिन इन्हें जहां भी मौक़े मिले हैं वहां ऐसे गीत लिखे हैं जिनका तेवर भक्तिकालीन कवियों मीरा और कबीर जैसा है, यही कारण है कि उन्हें सिनेमाई कबीर कहा जाता है। इस शोधालेख में हमने कबीर, मीरा और रैदास आदि कवियों की विरासत को आगे बढ़ाने वाले कवि शैलेंद्र को इनके बरक्स रख कर मूल्यांकन करने की कोशिश की है।

बीज शब्द : भक्ति-आंदोलन, जन-आंदोलन, निर्गुण, सगुण, सिनेगीत, लोक, दलित, आज़ादी, लोकतंत्र, स्त्रीमुक्ति, सामंती वर्चस्व।

मूल आलेख : हिंदी अदब की तारीख़ में कई आंदोलन हुए हैं, उनमें दो बहुत अहम हैं एक है भक्ति-आंदोलन और दूसरा आज़ादी का आंदोलन जो वैश्विक फ़लक़ पर जाने गए। दोनों जन-आंदोलन थे आज़ादी के आंदोलन ने कहने को तो क़ामयाबी पाई, लेकिन ये जिन मसअलों को लेकर चला था वो हल न हो सके। आज़ादी के नाम पर केवल सत्ता का हस्तांतरण हुआ बाक़ी जनजीवन वैसा ही रहा जैसा पहले चल रहा था, इससे कुछ पूंजीपतियों और नेताओं को फ़ायदा हुआ। यही अंजाम भक्ति आंदोलन का भी हुआ ये एक बड़ा जन-आंदोलन था जिसमें समाज के निचले से निचले तबके के लोग शरीक़ हुए यही लोग इसके नेता थे। ये सामंती मूल्यों को तोड़कर लोकतंत्र की ज़मीन तैयार कर रहे थे, लेकिन इससे पहले कि आमूल-चूल बदलाव होता ये आंदोलन भी सामंती वर्चस्व के दोबारा बढ़ने से ख़त्म हो गया।

            ये एक ऐसा आंदोलन था जिसका स्वरूप अखिल भारतीय था। इसके दो धड़े थे एक निर्गुण और दूसरा सगुण इसमें एक ख़ास बात ये थी कि अधिकतम  निर्गुण मार्ग पर चलने वाले लोग तथाकथित निचले तबक़ों से आते थे मसलन कबीर जुलाहा, रैदास चमार, दादू बुनकर,  सेना नाई, नामदेव दरजी थे। इसकी सबसे बड़ी वज़ह ये भी थी कि इनको मंदिरों में जाने की इजाज़त नहीं थी। ये संत जात-पाँत , कर्मकाण्ड और बाह्याडम्बर व धर्म के नाम पर होने वाले शोषण के विरोधी व सहज जीवन के अनुयायी थे। निर्गुण धारा के संतकवियों में इन बातों के ख़िलाफ़ जो आक्रोश है वो सगुण धारा के संतकवियों में नहीं मिलता है, चाहे वह कृष्ण भक्ति शाखा के कवि हों या रामभक्ति शाखा के कवि रहे हों। इसमें ध्यान देने वाली ये बात ये भी है कि सगुण भक्तिमार्गियों में अधिकतम तथाकथित उच्चवर्गीय थे। ये भी इस आंदोलन के इस तरह ख़त्म होने के प्रमुख कारणों में से एक माना जाता है। शिवकुमार मिश्र इस तथ्य पर विचार करते हुए लिखते हैं “जनसाधारण की आकांक्षाओं से सगुण रामभक्ति भी जुड़ती है, पर उच्च वर्ग की मजबूती के नाते वह इस निम्नवर्गीय जनवादिता का विरोध न करते हुए भी, पुरानी व्यवस्था अर्थात वर्णव्यवस्था का समर्थन करती है। धीरे-धीरे उस निम्नवर्गीय जनवादी रुझान को एकदम समाप्त कर देती है। (1)

            भक्तिकाल को लोकजागरण काल की संज्ञा दी गई है, भारतीय लोकमानस का गीतों से गहरा संबंध है। जीवन के हर एक मौक़े के लिए लोकगीत मौजूद हैं, यही कारण है कि भारत को गीतों का देश कहा जाता है। कविता और जन-आंदोलनों का आपस में बड़ा गहरा रिश्ता रहा है चाहे यहां पर होने वाला भक्ति-आंदोलन हो, आज़ादी का आंदोलन हो या फिर दलितों, मजदूरों के आंदोलन हों सभी में कविता एक प्रमुख साधन रही है। जन-आंदोलन और कविता के संबंध पर बात करते हुए मैनेजर पांडेय ने लिखा है “आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास गवाह है कि जब-जब जन-आंदोलन हुए हैं और कविता जन-आंदोलनों की ओर मुड़ी है, तब-तब गीत रचना की गति में तेज़ी आई है। जन-आंदोलन गीत-रचना की उर्वर भूमि होते हैं और गीतों को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। (2) समस्त भक्तिकालीन कविताएं लोक से गहरी जुड़ी हुई हैं ये कवि लोक में गहरे पैठे हुए हैं, उनकी चेतना का दायरा बहुत बड़ा है यही कारण है कि वे इस काल को एक बड़े आंदोलन का स्वरूप देने में क़ामयाब हुए। भले ही वे पूरी तरह परिवर्तन करने में नाक़ाम रहे।

            आधुनिक काल में शैलेंद्र ने उस विरासत को संभाला। कविता निर्गुण से सगुण और फिर रीतिकाल की ओर मुड़ गई थी। उन्होंने बहुत सहज सरल ज़बान में गीत लिखे जो आमलोगों की ज़बान पर चढ़े हुए हैं। उनके अधिकतम गीत लोकगीतों की तरह लगते हैं या लोकगीत ही हैं, जिनमें बड़े फ़लसफ़े को बहुत आसान से शब्दों में पिरोया हुआ है मसलन -


सजन रे झूठ मत बोलो ख़ुदा के पास जाना है

न हाथी है न घोड़ा है वहां पैदल ही जाना है

तुम्हारे महल चौबारे यहीं रह जाएंगे सारे

अकड़ किस बात की प्यारे ये सर फिर भी झुकाना है (3)


            ये गीत आमलोगों में लोकगीत की तरह गाया जाता है ऐसे ही कई गीत हैं जिनका प्रयोग लोक में मुहावरों के रूप में होता है।  इनके गीतों की भाषा भक्तिकालीन कवियों की भाषा से मिलती-जुलती है एक सिनेगीतकार होने के बावजूद भी उन्होंने लोक की मुहावरेदानी का प्रयोग किया है। उनके गीतों में लोक और मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है उनके गीत जन-आंदोलनों से निकले हैं मूल रूप से उनके गीतों को तेलंगाना आंदोलन से निकला माना जाता है वे स्वयं एक मजदूर थे और जन-आन्दोलनों में भागीदारी किया करते थे और गीत लिखते थे उनके गीत उन आंदोलनों के नारे बनते थे। जिस तरह कबीर, रैदास और नानक आदि संतकवि लोक में गहरे पैठे हैं उसी तरह शैलेन्द्र भी लोक से गहराई से जुड़े हैं, इस कारण उनकी कविताओं में व्यंग्य की भाषा मिलती है। शैलेंद्र के गीतों और उनकी भाषा पर बात करते हुए एक साक्षात्कार में मैनेजर पांडेय ने कहा है कि “ ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’ ये गीत है शैलेंद्र के इस गीत को पढ़कर ही लगता है कि जैसे कबीर का गीत हो ‘चिठिया हो तो हर कोई बांचे हाल न बांचे कोय’ ये लगभग उसी अंदाज़ का गीत है जो कबीर का है, मीरा का है। (4) शैलेंद्र के गीतों का तेवर भक्तिकालीन कविता से बहुत मिलता-जुलता है उसमें भी विशेष रूप से कबीर की कविताई से, कबीर के यहाँ जिस तरह कर्मकाण्ड, पाखण्ड और अंधविश्वास पर तीखे व्यंग्य मिलते हैं वैसे ही शैलेंद्र के गीतों में भी मिलते हैं कबीर एक दोहे में कहते हैं -

हम भी पाहन पूजते, होते रन के रोझ।

सतगुरु की कृपा भई, डारया सिर तें बोझ।। (5)


इसी पृष्ठभूमि पर शैलेंद्र कहते हैं-


पंडित जी मंतर पढ़ते हैं

वे गंगा जी नहलाते हैं

हम पेट का मंतर पढ़ते हैं

जूते का मुँह चमकाते हैं

पंडित की पांच चवन्नी है

अपनी तो एक इकन्नी है

फिर भेदभाव ये कैसा है

जब सबको प्यारा पैसा है (6)


            इन दोनों कवियों की पंक्तियों में एक समानता है दोनों पाखण्डियों और अंधविश्वास पर व्यंग्य करते हैं और जीवनराग से जुड़ते हैं, जो कर्म  से जुड़ा है और उसकी उपयोगिता पर बल देते हैं। कबीर गृहस्थ संत थे और जीविका के लिए जुलाहे का काम करते थे, रैदास एक चर्मकार का काम करते थे उनके पदों में बार-बार ये उल्लिखित हुआ है वे कहते हैं ‘मन चंगा तो कठौते में गंगा नामदेव दरजी थे ये सभी अपनी जीविका ख़ुद कमाते थे। शैलेंद्र भी एक दलित पृष्ठभूमि से थे, वे एक सिनेगीतकार बनने से पहले एक रेलवे वर्कशॉप में बेल्डर का काम करते थे उनकी कविताएं उनके कर्मक्षेत्र से उपजी हैं इसी से जुड़ी एक घटना का ज़िक्र शैलेंद्र ने अपने एक लेख में किया है, जब वे कॉलिज छोड़कर इंजीनियरिंग करने जा रहे थे तब उनके एक प्राध्यापक ने उनसे पूछा “ तो अब क्या मशीनों पर कविता लिखोगे ? ” वे लिखते हैं “मशीनें गाती हैं-यह मुझे भी उस समय नहीं मालूम था, हाँ-हाँ-आ-आ-सा और मशीनों के साथ गाया जा सकता है। तानपूरे की तरह मशीनें भी स्वर क़ायम कर सकती हैं। (7)  इन सभी कवियों की कविताओं में जीवनराग है।

            भक्तिकालीन संत कवियों की ख़ूबी रही है कि वे लोक की बात करते-करते उसे लोकोत्तर बना देते हैं, सूफ़ी कवि भी इश्क़-ए-मजाज़ी से इश्क़-ए-हक़ीक़ी की बात करते हैं और ये बात गीतकार शैलेंद्र के गीतों में भी पाई जाती है। भक्तिकाल की इस विरासत को वे लेकर चले हैं जिस तरह के मिथकों और प्रतीकों का प्रयोग भक्तिकालीन कवियों ने किया है शैलेंद्र ने भी उनका प्रयोग किया है। कबीर ने राम के मिथक का प्रयोग कई बार किया है, कई मायनों में शैलेंद्र कबीर से आगे जाते हैं भक्तिकाल के संतकवियों का स्त्रियों को देखने का नज़रिया बहुत प्रगतिशील नहीं रहा है कबीर ने भी स्त्री को माया आदि कहकर संबोधित किया है और एक हेय दृष्टि से देखते हैं परंतु शैलेन्द्र का स्त्रियों को देखने का नज़रिया बहुत स्वस्थ और संवेदनात्मक है। कबीर राम का ज़िक्र कभी पति के रूप में कभी अन्य अलौकिक रूपों में करते हैं जैसे दुल्हन गावहु मंगलाचार। हमि घर आए राजा राम भरतार।। लेकिन शैलेंद्र जब रामायण के मिथकीय करेक्टर लेते हैं तो इस तरह के संवेदनशील गीत रचते हैं -


जुलम सहे भारी जनकदुलारी

फिरे है मारी मारी राम की प्यारी

गगन महल का राजा देखो कैसा खेल दिखाए

सीप से मोती गंदले जल में सुंदर कँवल खिलाए

अजब तेरी लीला है गिरधारी (8)


            जिस तरह मीरा अपनी आज़ादी को लेकर समाज से लड़ती हैं, उस दौर में स्त्रीमुक्ति को लेकर इतनी मुखरता से किसी ने बात नहीं की थी। उनके लिए भक्ति एक साधन थी उनका साध्य आज़ादी ही थी, एक सामंती वातावरण में जब स्त्रियों को अपने पति की चिता के साथ सती होने पर मजबूर किया जाता था वे इस चली आ रही परम्परा का पुरजोर विरोध करती हैं और अकेले ही पूरी सामंती सोच के ख़िलाफ़ मजबूती से लड़ती हैं और स्त्री आज़ादी के गीत गाती हैं उनकी परंपरा को आधुनिक काल में महादेवी वर्मा एवं अन्य कवि कवयित्रियों ने आगे बढ़ाया है। जिस तरह मीरा कहती हैं -


राणा जी थें  ज़हर दियो म्हे जाणी।

जैसे चंदन दहत अगिन में, निकसत वारावाणी।

लोक लाज कुल काण जगत की, दई बहाए जस पाणी

 ‘अपणे घर में परदा करले मैं अबला बौराणी। (9)


इसी ज़मीन पर शैलेंद्र ने फ़िल्म गाइड में एक गीत लिखा है -


कांटों से खींच के ये आँचल

तोड़ के बंधन बाँधी पायल

कोई ना रोको दिल की उड़ान को दिल वो चला…

आज फिर जीने की तमन्ना है

आज फिर मरने का इरादा है (10)


            इस गीत को सिनेमा में स्त्री आज़ादी की अभिव्यक्ति करने वाला पहला गीत माना जाता है। इस गीत का तेवर मीरा के गीतों से मिलता है, इसमें शैलेंद्र ने एक स्त्री के मन की उमंगों को ऊंचाई दी है। इस गीत पर टिप्पणी करते हुए फ़िल्म निर्देशक कमलेश पांडेय ने कहा है “मेरे विचार से ये गीत स्त्रियों का एंथम होना चाहिए। ” (11)

            संसार की निस्सारता, क्षणभंगुरता पर संतकवियों ने बहुत लिखा है, जिसमें वे लोक को इससे परिचय कराते हुए बेदार करना चाहते हैं। इस बात पर विशेष ज़ोर दिया गया है कि अधिक समय नहीं है न जाने कब यह शरीर नष्ट हो जाए ज़ल्द से ज़ल्द ईश्वर भक्ति में लग जाइए और ईश्वरत्व को प्राप्त करके मुक्त हो जाइए। जिसमें नाम सुमिरन को अधिक महत्व दिया गया है। जैसे कबीर के दोहे जो ‘सुमिरन को अंग’ सीरीज के तहत रखे गए हैं उनमें ये चिंताएं मिलती हैं -


कबीर सूता क्या करे उठि किन रोवे दुक्ख

जाका बासा गोर में, सो क्यों सोवे सुक्ख (12)


            इसी तरह की अभिव्यक्ति शैलेंद्र के कई गीतों में मिलती है जिसमें जीवन की क्षणिकता की चिंता है ऐसा ही एक गीत है फ़िल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ का -


भाई रे

गंगा और जमुना की गहरी है धार

आगे या पीछे सबको जाना है पार

धरती कहे पुकार के

बीज बिछा ले प्यार के

मौसम बीता जाए (13)


            उनके गीतों में गीता, पुराणों और उपनिषदों का दर्शन समाहित है, वे एक ऐसे अनोखे सिनेगीतकार हैं जो एक ऐसी ज़बान ईज़ाद करने में क़ामयाब हुए जिसमें (चूंकि सिनेगीत लेखन में पटकथा व बाज़ार आदि तमाम तरह की बंदिशें रहती हैं) साधारण रूप से देखने पर एक अभिधात्मक अर्थ है लेकिन गहराई से देखने पर कई गहरे मानी निकल कर सामने आते हैं।  भारत में अध्यात्म में जो बैकुण्ठ का कॉन्सेप्ट है उसे ससुराल माना जाता है और ईश्वर को प्रियतम और साधक ख़ुद को दुल्हन के रूप में प्रस्तुत करता है। कबीर के कई पद इस संकल्पना पर मिलते हैं मसलन -


कबीर रेख सिंदूर की, काजल दिया न जाइ।

नैननि रमइया रमि रहा, दूजा कहाँ समाइ।। (14)

 

शैलेंद्र ने इस पृष्ठभूमि पर कई गीत लिखे हैं-


चली कौन से देश गुजरिया तू सजधज के

जाऊं पिया के देश ओ रसिया मैं सजधज के (15)

या

प्यारे बाबुल से बिछड़ के, घर का आंगन सूना करके

गोरी कहाँ चली, घूँघट में चाँद छुपाए (16)


            वे कबीर से बहुत प्रभावित थे, उन्हें कबीर की समस्त कविताई कंठस्थ थी। उनकी पूरी फ़िल्मी नग्मानिगारी में कबीर का प्रभाव फिलॉसफी और ज़बान पर साफ़ दिखाई देता है। जहाँ भी उन्हें फ़िल्मी गीतों में मौक़े मिले हैं उन्होंने इनका अच्छा प्रयोग किया है जिससे वे लोक से गहराई से जुड़ सके हैं। कबीर इस संसार को भवसागर के रूप में देखते हैं और जो कि प्रतीकात्मक है और इससे पार जाने के लिए साधना करते हैं जिसमें सुमिरन, लगन और प्रेम का मार्ग प्रमुख है। ये प्रेम के मार्ग के पथिक हैं और ये मार्ग बहुत लंबा और कठिनाई भरा है इस पर खुसरो से लेकर अब तक के कवियों की एक लंबी परम्परा मिलती है  जो इस मार्ग पर लिखते रहे हैं कबीर कहते हैं -


लंबा मारग दूरि घर, विकट पंथ बहुमार।

कहौ संतौ क्यों पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।। (17)


इस ज़मीन पर सिनेमाई कबीर शैलेंद्र लिखते हैं -


घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेक़रार

पंख हैं कोमल आंख है धुंधली जाना है सागर पार

अब तू ही इसे समझा राह भूले थे कहाँ से हम (18)

या

 ऊपर नीचे नीचे ऊपर लहर चले जीवन की

नादां हैं जो बैठ किनारे पूछें राह वतन की (19)

या

ओ मेरे मांझी मेरे साजन हैं उस पार

मैं मन मार हूँ इस पार

अबकी बार ले चल पार (20)

 

            उलटबांसी साहित्य की एक ऐसी विधा रही है जिसका भक्तिकालीन कवियों में ख़ासकर कबीर ने ख़ूब प्रयोग किया है इसमें कवि अपनी बातों को गूढ़ तरीक़े से कहते हैं जो शब्दों के मान्यता प्राप्त अर्थों से अलग अर्थ रखते हैं। जिन्हें समझना थोड़ा मुश्किल होता है कई बार आलोचकों द्वारा कहा जाता है कि कबीर की उलटबासियां बहुत दुरूह होती हैं और साधारण पढ़े लिखे लोग इन्हें समझ नहीं पाते परंतु ज़मीनी हक़ीक़त ये है कि कबीर के भजन गांवों में ख़ूब गाए जाते हैं और लोग उनके मानी भी समझते हैं। इनके भजनों की सही-सही व्याख्या करते हुए गाँवों में लोग देखे जाते हैं, आमतौर पर ये लोग बहुत पढ़े लिखे नहीं होते हैं और बहुत से लोगों को कबीर कंठस्थ भी होते हैं। आलोचकों द्वारा उनकी भाषा के दुरूह कहने की विडंबना पर बात करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी के विषय में डॉ. धर्मवीर ने लिखा है “डॉ. द्विवेदी के ब्राह्मण घर में जन्म लेने की वजह से उन्हें कबीर जुलाहे के घर की भाषा अंजानी हो सकती है। लेकिन इस दुर्बोधता का एक दूसरा कारण डॉ. द्विवेदी की हठधर्मिता भी हो सकती है। इसका मतलब यह निकलता है कि कबीर किसी बात को साफ़-साफ़ कहना चाह रहे हों परंतु डॉ. द्विवेदी का ब्राह्मण उसे साफ़-साफ़ न समझना चाह रहा हो।… ख़ुद कबीर को अहसास था जब उन्होंने ब्राह्मण को संबोधित करते हुए कहा है कि ‘मैं कहता सुरझावनहारी तू रहता उरझाई’।” (21) कबीर की भाँति शैलेन्द्र ने भी कुछ ऐसे गीत लिखे हैं जो उलटबांसियों की शैली पर आधारित हैं। जिस तरह कबीर कहते हैं -


सो नैय्या बीच नदिया डूबति जाए

एक अचंभा देखा रे भाई,ठाढ़ा सिंध चरावै गाई

पहले पूत पीछे भई माई, चेला के गुरु लागे पाई (22)


लगभग इसी अंदाज़ में शैलेंद्र लिखते हैं -


मैं नदिया फिर भी मैं प्यासी

भेद ये गहरा बात ज़रा सी (23)

या

तूने तो सबको राह बताई तू अपनी मंज़िल क्यों भूला

सुलझाके राजा औरों की उलझन क्यों कच्चे धागों में झूला

क्यूँ नाचे सपेरा (24)

 

निष्कर्ष इस तरह हम देखते हैं कि गीतकार शैलेंद्र ने भक्तिकालीन कवियों द्वारा विरसे में मिली अनमोल थाती को आगे बढ़ाया है, वे न सिर्फ उस काल के कवियों की परंपरा से जुड़ते हैं बल्कि समय के अनुसार इसमें सुधार करते हैं, ज्यों का त्यों नहीं अपनाते हैं। उनके कितने ही गीत हैं आधुनिक जन-आंदोलनों में नारा बने हैं, उनके गीत स्कूलों की प्रार्थना में गाए जाते हैं बहुत से ऐसे गीत हैं जो भजन-कीर्तन की तरह गाए जाते हैं। उनके गीतों की भाषा ऐसी है कि वे लोकगीत बन गए हैं जिस तरह शैलेंद्र को लोक ने अपनाया और किसी सिनेगीतकार को लोक द्वारा इस तरह नहीं अपनाया गया है।

संदर्भ :

  1. शिवकुमार मिश्र ;भक्ति-आंदोलन और भक्ति काव्य, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, प्रथम संस्करण द्वितीय आवृत्ति-2015, पृष्ठ 24
  2. मैनेजर पांडेय, जन-आंदोलन और जनवादी गीत, जनाधार भारती प्रवेशांक, जुलाई 1991, पृष्ठ 34
  3. फ़िल्म : तीसरी क़सम, 1966
  4. मैनेजर पांडेय : साक्षात्कार कर्ता : प्रियंका, सहित्यकुंज द्वितीय अंक, 2016 में प्रकाशित
  5. संपादक : श्यामसुंदर दास ; कबीर ग्रंथावली, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2011, 82
  6. फ़िल्म : बूट पॉलिश, 1954
  7. शैलेंद्र :  मैं, मेरा कवि और मेरे गीत :धर्मयुग, 16 मई 1965, पृष्ठ 37-39
  8. फ़िल्म : आवारा, 1951
  9. संपादक : आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, मीराबाई की पदावली,  हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, तेरहवाँ संस्करण, 1966, पृष्ठ 111
  10. फ़िल्म : गाइड, 1965
  11. संपादक : इंद्रजीत सिंह, तू प्यार का सागर है  वी. के. ग्लोबल पब्लिकेशन प्राइवेट लिमिटेड, संस्करण – 2020 पृष्ठ 60
  12. संपादक : डॉ. जयदेव सिंह, वासुदेव सिंह, कबीर वाङ्गमय : खंड 3 साखी ;  विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, तृतीय संस्करण 2000 ई., पृष्ठ 23
  13. फ़िल्म : दो बीघा ज़मीन, 1953
  14. संपादक : डॉ. जयदेव सिंह, डॉ. वासुदेव सिंह, कबीर वाङ्गमय : खंड 3 साखी ; विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, तृतीय संस्करण 2000 ई., पृष्ठ 95
  15. फ़िल्म : बूट पॉलिश, 1954
  16. फ़िल्म : बालहठ, 1956
  17. संपादक : डॉ. जयदेव सिंह, डॉ. वासुदेव सिंह, कबीर वाङ्गमय : खंड 3 साखी ;  विश्विद्यालय प्रकाशन वाराणसी, तृतीय संस्करण 2000 ई., पृष्ठ 28
  18. फ़िल्म : सीमा, 1955
  19. फ़िल्म श्री 420, 1955
  20. फ़िल्म : बंदिनी, 1963
  21. संपादक : डॉ. धर्मवीर, कबीर के आलोचक ;  वाणी प्रकाशन, संस्करण-2015, पृष्ठ 77
  22. संपादक : श्यामसुंदर दास ; कबीर ग्रंथावली, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण-2011, पृष्ठ 120
  23. फ़िल्म : मधुमती, 1958
  24. फ़िल्म : गाइड, 1965

रजनीश कुमार
शोधार्थी हिंदी-विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय, हैदराबाद

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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