हम देखते हैं कि कबीर के अध्ययन की समस्याएं भक्ति संवेदना के भारतीय सांस्कृतिक
इतिहास के अध्यन की भी समस्याएं हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि कबीर के सामाजिक और
विद्रोही चेतना के केंद्र में अध्यात्म है जो तब के समय के केंद्र में भी था। कबीर
जिस ज्ञान की आँधी की बात करते हैं उसे कोई ऐहिक दर्शन और तर्क नहीं समझा सकता है।
वह भौतिकवादियों का मुहावरा नहीं है बल्कि एक संत का विस्फोट है। जिसकी परिणति आँधी के बाद बरसने वाला पानी है।
“आँधी पीछे जो जल बरसै, ताहि तेरा जन बिना।’’ यानि की आँधी के बाद जो बारिश होती है
उससे मन के और लोक के भी सारे अंधकार मिट जाते हैं। कबीर क्यों जीवन भर आँधी उठाते
रहे, आखिर वह क्या चाहते थे? यही बारिश, प्रेम की बारिश, राग का उदात्तीकरण। पुरुषोत्तम
अग्रवाल इस विषय में लिखते हैं कि-“कबीर की काव्य संवेदना रामभावना, कामभावना और समाजभावना
को एक साथ धारण करती है। इन तीनों के सर्जनात्मक सह अस्तित्व को पढ़े बिना कबीर को
पढ़ने के दावे व्यर्थ हैं।’’[1]
वे आगे कबीर की कविता के सरोकारों की बात करते हुए कहते हैं कि- जन्मजात सामाजिक पहचान
के स्थान पर कबीर समान संवेदना और मूल्यबोध पर आधारित पहचान की खोज करते हैं, अपने
लिए भी और अपने स्रोताओं, संवादियों के लिए भी। इस ‘सामाजिक’ खोज में लगे होने के कारण
‘आध्यात्मिक’ खोज उन्हें बेमानी नहीं लगने लगती। उनके लिए यह खोजें विरोधी नहीं, परस्पर
निर्भर हैं। कबीर सामाजिक व्यवस्था, परंपरा और मान्यताओं के रूपांतरण का प्रस्ताव करते
हुए अपनी वैयक्तिक सत्ता को लगातार रेखांकित करते हैं इसीलिए वे ‘आधुनिक’ मनुष्य को
अपने चित्त के अधिक निकट लगते हैं।’’[2]
आरंभिक आधुनिककालीन भक्ति के लोकवृत्त में उस समय
प्रचलित पारिभाषिक अर्थ में कवि शब्द का प्रयोग न तो तुलसी के लिए और न तो कबीर के
लिए ही बहुत आग्रहपूर्वक किया जाता था लेकिन वह लोकवृत्त ऐसा भी नहीं करता था कि तुलसी
को तो सहज रूप से कवि माने और कबीर को कृपापूर्वक। जैसा कि औपनिवेशिक आधुनिकता के बाद प्रचलित हुए
साहित्य बोध में हुआ है। यह गौर करने वाली बात है कि कबीर से पहले भी संत हुए हैं और
कबीर के अपने समय में भी कई संत हुए। आखिर उनमें और कबीर के कथन में अंतर क्या है?
इसको हमें काव्यत्व की विरलता में देखना चाहिए। पुरुषोत्तम अग्रवाल की प्रस्तावना है
कि कबीर की कविता कोरा उपदेश नहीं, जबरदस्त भावोन्मेष करती है। भावोन्मेष जीवन की आलोचना
का भी, जीवन के पार की कल्पना का भी। भावोन्मेष प्रेम के अत्यंत निजी क्षणों की अनुभूतियों
और स्मृतियों का। उल्लास, कामना, अधिकार, आशंका, ईर्ष्या, मादकता, वेदना, मान, मनुहार,
खीझ, विश्वास, अविश्वास सभी का। अलग-अलग कौंध का भी, और इन सबसे बनने वाले कोलाज का
भी। प्रेमानुभव का कौन सा पहलू है, जिसका स्वर कबीर की कविता में नहीं गूंजता। फिर,
भावोन्मेष सामने मौजूद जिंदगी के परे भी झांकने की हिम्मत का। मौत की आँखों में आँखें
डालकर बात करने का साहस का। उन्मेष जीवन के बहुरंगी उत्सव का और उसके अंत का देह के
होने में रोमांचक मादक अहसास का, और उसकी अनिवार्य नश्वरता का। उन्मेष जमकर बोलने के
उत्साह का, और अंततः मौन की ओर जाने वाली विवशता का। पाखंड को पांडित्य के दुर्ग से
बाहर खींच लाने की ताकत का, अन्याय को हरि-इच्छा बताने वाली सोच से जिरह करने वाली
प्रखरता का।
कबीर की आलोचना के निशाने पर वे सभी हैं जो आत्मविवेक
को तिलांजलि देकर जड़ता को अपने वक्त के फैशनों की शरण में छुप जाना चाहते हैं। कबीर
की बेचैन कविता अपने जैसे लोगों को कोई छूट देने वाली नहीं है। कबीर के निशाने पर केवल
‘वेद कतेब’ पढ़ने वाले ही नहीं हैं बल्कि वह भी लोग हैं जो ‘साखी सबदी गाते भूले, आतमखबरि
नहीं जाना’। पुरुषोत्तम अग्रवाल का विचार है कि- “कबीर की कविता की सबसे बड़ी ताकत,
उसकी कालजयिता यही है कि वह आपको संबोधित ही
नहीं करती, आपको विषय भी बनाती है। शर्त यही है कि आत्मतुष्टता की बजाय थोड़े आत्मबोध
के साथ पढ़ी जाए। वैसे तो कबीर भी झिंझोड़ ही रहे हैं-
‘आतमखबरि नहीं जाना’। अपने आत्म को विवेक को मारकर पूजा केवल पत्थरों की नहीं
और प्रकार की वैचारिक संवेदनात्मक जड़ताओं की भी की जाती है।’’[3] कबीर आत्मसंबोधन
के नहीं बल्कि लोक संबोधन के कवि हैं। कबीर का काव्य मात्र सिद्धांत कथन या आत्मकथन
न होकर पूरी तरह लोकोनुमुखी है। कबीर के काव्य में जितना संबोधन मिलता है उतना शायद
हिंदी साहित्य में कहीं और नहीं दिखाई देता। कहीं वे काजी को संबोधित करते हैं, कहीं
मुल्ला को, कहीं दरवेज को, कहीं साधु को, कहीं जोगी को, कहीं सन्यासी को यानि पूरा
काव्य संबोधन का एक विराट चरित्र है। “कबीर
सुनने और सुनाने के कवि हैं। लगभग पचास फ़ीसदी पदों में, आता है- ‘कहै कबीर’। जो पांडे
और मौलाना, राजा और सामंत समझते रहे हैं कि उनका काम है, कहना और बाकी सबका सुनना और
मानना, उन्हें चुनौती देती कासी के जुलाहे की, दस्तकार की आवाज कदम-कदम पर सीना ठोंक
कर कहती है- ‘कहै कबीर’। दो साधारण शब्द और असाधारण चुनौती देते हैं सत्ता तंत्र को,
ज्ञान पर एकाधिकार के दावे को। जिन्हें संबोधित करते हैं उनमें से कुछ को तो कबीर चुनौती
या तिरस्कार के लहजे में ही संबोधित करते हैं-
‘पांडे कौन कुमति तोहि लागी।’ या ‘जौरे खुदाइ तुरक मोहि करता,आपै किन कट जाई।’ जिस
श्रोता को वे अपनेपन के साथ, लगाव के साथ संबोधित करते हैं, जिसे सुनना चाहते हैं,
वह साधु है, कबीर का ‘भाई’ है जात भाई नहीं- सुनो भई साधो...’।[4] कवि जब अपने सृजन की पराकाष्ठा पर पहुंचते हैं
तो ऐहिक अनुभव भी उसके साथ होते हैं। अतः यह कहना कि एक संत कवि का समाज के प्रपंचों
से क्या लेना-देना है। वह कवि शब्द से ही अपनी अनभिज्ञता प्रकट करेगा। कोई संत शून्य
महल में अकेला जा सकता है लेकिन एक कवि तो वहाँ भी अपने पूरी गृहस्थी के साथ जाता है। कबीर की कविता का सरोकार भी यही है। यानि स्वयं
की मुक्ति कामना नहीं बल्कि समाज की मुक्ति कामना के साथ।
कबीर और उलटबाँसी
कबीर दास की उलटबाँसियों पर विचार करते हुए हजारी
प्रसाद द्विवेदी ने कहा है- “कबीरदास के नाम पर बहुत से योगपरक और उलटबाँसियों का पाया
जाना बड़े भारी भ्रम और विवाद का विषय बन गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से न देख सकने के
कारण अनेक पंडित इसके वास्तविक रहस्य को नहीं समझ सके। कबीरदास जिस वंश में उत्पन्न
हुए थे उसमें योग-चर्चा अत्यंत मामूली धर्म-चर्चा के समान थी। बाहर भी योगियों का बहुत
जबरदस्त प्रभाव था। इन योगियों की अद्भुत क्रियाएं साधारण जनता के लिए आश्चर्य और श्रद्धा
का विषय थी, परंतु इन योगियों की किसी भी विषय में साधारण जनता से साम्य नहीं था। बल्कि
ये लोग गर्वपूर्वक घोषणा करते फिरते थे कि वे तीन लोक से न्यारे हैं। सारी दुनिया भ्रम
में उलटी बही जा रही है, सही रास्ते पर वे ही लोग हैं, जो हठयोग के सिद्धांतों और व्यवहारों
को मानते हैं।’’[5] यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि सिद्धों और
नाथों की वाणी से कबीर की वाणी का अटूट संबंध रहा है। इनके गोला-बारूद से कबीर ने इन्हीं
के गढ़ पर चढ़ाई की है। ये युक्तियां कबीर की गहरी अनुभूति का परिचय देती है। इनको पढ़ने
और समझने से ऐसा नहीं लगता कि कबीर कुछ छुपाना चाहते हैं और न ऐसा ही लगता है कि कबीर
को अपने ज्ञान का गर्व है। जहाँ गर्व-सा लगता है वहाँ भी वास्तव में गर्व नहीं है।
उनकी गहन अनुभूति जब उदगीर्ण होती है तब वह किसी भी शब्दों में निकल पड़ती है और उद्गारों
की गहनता का प्रभाव भाषा पर ही नहीं, श्रद्धा या पाठक पर भी पड़ता है।
पुरुषोत्तम
अग्रवाल को कबीर की उलटबांसियों की आवाज में अत्यंत रोचक और विचारोत्तेजक स्वर सुनाई
देता है। इस विषय में वे लिखते हैं कि "इन कविताओं से जाहिर होता है कि कबीर जागने
और रोने के कवि तो हैं ही (दुखिया दास कबीर है, जागे और रोवे), देखने और हँसने के कवि
भी हैं। यहाँ चीजे उलट-पुलट जाती है। गधे चोलना पहन कर नाचते हैं। मछलियां पेड़ों पर
चढ़ जाती हैं। सिंह कहीं चूहों के व्याह में पान लगाते हैं, तो कहीं गायों की रखवाली
का दम भरते हैं।’’[6]
पुरुषोत्तम अग्रवाल इस बात पर काफी बल देते हैं कि कबीर किस तरह पारिभाषिक को संवेदनात्मक
बनाते हैं। जिस पर हिंदी साहित्य में ध्यान नहीं दिया गया है। आलोचक उन सूचियों को
भी अस्वीकार करता है, जिनका अनुसरण कर कबीर की उलटबांसियों को पढ़ने का प्रयत्न किया
गया है । उन्होंने पी.सी बागची का उल्लेख करते हुए इस बात को स्पष्ट किया है कि “इस
काव्यरूप को कबीर ने तांत्रिक परंपरा से पाया था। उस परंपरा में संधाभाषा एक कोड समय
संकेत थी। पी.सी बागची ने सातवीं से ग्यारहवीं सदी के बीच सभी रचित हेवज्रतंत्र से
संधाभाषा की परिभाषा उद्धृत की है ‘संधाभाषां महाभाषां समयसंकेत विस्तरम।[7]
पुरुषोत्तम अग्रवाल का विचार है कि इस तंत्र के तेरहवें अध्याय में संधाभाषा के समय
संकेतों कोड्स की पूरी सूची दी गई है। ऐसी सूचियों का अनुसरण करते हुए ही कबीर की उलटबाँसियों को पढ़ने के प्रयत्न किए गए हैं। इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया है कि
कबीर पारिभाषिक को संवेदनात्मक बनाते हैं। इसी संदर्भ में सरनाम सिंह शर्मा के विचारों
का यहाँ देखा जा सकता हैं कि “कबीर की उलटबाँसियों में कभी-कभी ‘बूझै’ अथवा ‘बूझहु’
तथा ‘बिचारै’ जैसे शब्दों के प्रयोग से उनके सही मूल्यांकन में बाधा हो सकती है और
उनके संबंध में अनेक मत बनाये जा सकते हैं।
मर्मज्ञान के अभाव में कोई उनकी भाषा को ‘संध्या’ या ‘संधा’ भाषा कह सकता है,
कोई उनको कूट संज्ञा दे सकता है और कोई पहेली या मुकरी तक कह सकता है।’’[8]
उलटबांसियों के संदर्भ में पुरुषोत्तम अग्रवाल के
अनुसार लोग पारिभाषिक शब्दावली की शरण में शायद इसलिए जाते हैं कि ऐसा हर पद अर्थ को
बुझने की चुनौती के साथ समाप्त होता है। जैसे-
कहै कबीर सुनौ
हो संतो, जो यह पद अर्थावै।
सोई पंडित सोई ज्ञाता, सोई भक्त कहावै। (पद 55 बीजक,पृ.सं.129)
औपनिवेशिक आधुनिकता में रचे बसे पंडितजन कबीर को भी,
उनके श्रोता समाज को भी निरक्षर, भोले-भाले मानते हैं, सो यह भूल जाते हैं कि भक्ति
के लोकवृत्त में विचरण करनेवाले के लिए संधा भाषा वैसी ‘एग्जॉटिक’ वस्तु नहीं थी, जैसी
इन पंडितों के लिए। ऐसी स्थिति में, कबीर अपने पाठकों को संधा भाषा की समय संकेत सूची
याद करने का सुझाव दें-यह गैरजरूरी ही था। बाघ को परमात्मा और बकरी को आत्मा बताने
वाला कबीर से पंडित, ज्ञाता या भक्त होने का प्रमाण पत्र निश्चय ही नहीं पता। यह अर्थ
कबीर के लोकवृत्त में सभी बूझते थे। वे आगे इसी संदर्भ को स्पष्ट करते हैं- कबीर
की जिन उक्तियों को कूट परंपरा में रखा जाता है वे वास्तव में उसमें फिट नहीं बैठती।
यह ठीक है कि उनके शब्दों में एक पारिभाषिक अर्थ अवश्य निहित है जो ‘नव गज, दस गज’
आदि से प्रकट होता है, किंतु वह मानसिक अभिव्यक्ति के लिए है। अभिव्यक्ति की ओर कबीर
का ध्यान रहा है, वह अपेक्षित हो गई है, बस उसमें कूट का इतना-सा लक्षण आ गया है। कबीर
की शुद्ध उलटबाँसी का लक्षण इससे भिन्न है।
पुरुषोत्तम अग्रवाल उलटबाँसी को कबीर के हाथों, अर्थ-व्यर्थ के सतत संवाद के
खुले आकाश में रचने के रूप में देखते हैं जहां वह लाजवाब काव्य प्रविधि में बदल जाती
है। इस संदर्भ में पुरुषोत्तम अग्रवाल का विचार है कि- “उलटबांसियों की ‘रहस्यपरक’
व्याख्याएं करने का मोह छोड़, सहजयान, तंत्र की समय संकेत सूचियों,डिक्शनरियों की सहायता
से इनका अर्थ बूझने की बजाय, यदि इन्हें सहज रूप से कविता की तरह पढ़े, तो निश्चय ही
आपकी पहली प्रतिक्रिया बेतुकेपन पर हँसने की होगी। यह बेतुकापन कबीर के अपने निजी अनुभव
से जुड़ा हुआ तो है ही, क्या वह आपका अपना निजी अनुभव नहीं है? क्या आप अपने आस-पास
सिंहों को गायों की रखवाली का दावा करते नहीं देख रहे हैं? उलटबाँसी कविताओं को सर्जनात्मक
शब्द की तरह पढ़ने वाले पाठक को इस जगत के बेतुकेपन की सच्चाई को निश्चय ही सूझने लगेगी,
हो सकता है कि त्रिभुवन की तुक (या बेतुक) भी वह बुझ ही ले।”[9]
कबीर की कविता में स्मृति और कल्पना का रूपक
महान कवि वह है जो मनुष्य की संपूर्ण आत्मा को सक्रिय
कर देता है। जहाँ उसकी अन्य इंद्रियां गौण और शांत हो जाती हैं। कल्पना का कार्य परस्पर
विरोधी अथवा विसंवादी गुणों में सामंजस्य और संतुलन उत्पन्न करना भी है। वह सदृशता
और असमानता, समीम और असीम, सामान्य और विशिष्ट विचार और बिम्ब, व्यक्ति और वर्ण, नवीनता
और प्राचीनता, विवेक और आत्म-निग्रह तथा उत्साह और प्रखर भावना का समंजन करती है। कल्पना
का कार्य आत्मा और मन से है। जैसे स्वप्न में मनुष्य अनेक विचारों को एकत्र तो कर लेता
है, पर उन्हें क्रमबद्ध नहीं कर पाता, उनमें अन्विति नहीं ला पाता, इसी प्रकार ललित
कल्पना पदार्थों का एकत्रीकरण मात्र कर पाती है। ललित कल्पना एक प्रकार से स्मरण की
एक रीति है। पुरुषोत्तम अग्रवाल के अनुसार सारे भक्त कवि फैंटेसी और यूटोपिया के कवि
हैं। वे लिखते हैं- “भक्त कवि फैंटेसी और यूटोपिया के कवि हैं। वे निर्गुण या सगुण
राम या श्याम से नितांत निजी रिश्ते की फैंटेसी रचते हैं। वास्तविक जीवन में जो अकेलापन
उसकी नियति है, जिसमें ऐसा कोई मिलना मुश्किल हो गया है, जिससे अपने मन की बात निःशंक
भाव से कही जा सके,उस अकेलेपन के समानांतर भक्त रचता है, अपने प्रभु,सखा,बालम के संग
साथ निरंतर चलने वाले प्रेमालाप की फैंटसी।
प्रिय को रिझाकर आंख की पुतली में मूँद लेने की निजी फैंटेसी के साथ, वह एक
कल्पना लोक भी रचता है। वैयक्तिक और सामाजिक यथार्थ के समानांतर एक यूटोपिया।’’[10]
कल्पना ही पदार्थ तथा मन, विचार और भावना तर्क एवं राग के बीच की अभेध दीवार को तोड़ती
है। वही बाह्य को आंतरिक तथा आंतरिक को बाह्य बनाती है, उसी के द्वारा काया मस्तिष्क
बन जाती है। उसी की सहायता से प्रकृति के बाह्य रूपों को कवि अपने आदर्श के अनुरूप
कर लेता है। कबीर के स्व्प्नों से बहुत लोग प्रेरणा लेते रहे हैं तो कुछ लोग उन्हें
विकृत भी करते रहे हैं। कबीर के स्व्प्नों के स्रोतों, परिणतियों और विकृतिकरणों का
अध्ययन भक्ति संवेदना के ही नहीं भारत के सामाजिक इतिहास के बारे में भी हमें बहुत
कुछ बताता है। पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं- कबीर की कविता सपना देखती हैं, ऐसे अमरलोक
का, जिसमें मनुष्य की मनुष्यता ही महत्वपूर्ण है। कबीर के देखे सपने में न ब्राह्मण
है, न क्षत्रिय। न सैयद है,न शेख। न शूद्र है, न वैश्य। कबीर का सपना न तो सिर्फ सामाजिक
‘मुक्ति’ तक सीमित है, न सिर्फ आध्यात्मिक ‘मुक्ति’ तक सीमित है। उनके सपने में ये
दोनों मुक्तियाँ एक दूसरे का विरोध नहीं, पोषण करती हैं।
एक प्रसंग में वे माया से बातचीत करते हैं- ‘मेरी
बहन (माया) तुम घर जाओ तुम्हारी आँखें जहरीली हैं। मैंने ‘अंजन रूप’ संसार छोड़कर ‘निरंजन’ अपना लिया है,
मेरा किसी से लेना-देना नहीं है, मैं उसकी बलि जाता हूँ, जिसने तुम्हें भेजा है, हम
दोनों तो भाई-बहन हैं।’ तो माया कहती है ‘अरे, मेरी इस लाल तलवार (कटीली, रतनारी आँखों)
को देखो, मैं स्वर्ग से उतरकर आई (अप्सरा) हूँ और तुम्हें पति बनाना चाहती हूँ।’ तो
कबीर पूछते हैं कि आपको वहाँ क्या तकलीफ थी कि यहाँ चली आई?
सरगलोक में क्या दु:ख पड़िया, तुम आई कलि माँही।
जाति जुलाहा नाम कबीरा अजहूँ पतीजौ नाहीं।
तहाँ जाहु जहाँ पाट-पटम्बर अगर चंदन घिस लीना।
आई हमारे कहा करौगी हमतौ जात कमीना॥ [11]
यह पूरा पद अत्यंत काव्यात्मक है। यहाँ कच्चे धागे
से बंध जाना, पानी में आग लगाना, मालिक का लेखा माँगना, ईश्वर को मछेरा और खुद को मछली,
माँ और मौसी एक होना जैसे कितने ही मुहावरे, कहावतें, उपमा, प्रतीक महीन और सघन कौशल
में गुथे हैं। एक पूरा विषम या वर्ग-भेदी संसार है; लोभ, आकांक्षा और रिझाने का तामझाम
है। कबीर की काव्यात्मकता के लिए अक्सर कोमल और रगात्मक उदाहरण दिए जाते हैं, लेकिन
विकृतियों और बाह्यचारों के लिए फटकारते हुए
भी उनका काव्य एक महीन कौशल से अनायास ही मर्म को छू लेता है।
इस प्रकार
के कबीर में पाए जाने वाले पद डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल की दृष्टि में कल्पना और स्मृति
के विस्तार का ही संकेत है। वे ऐसे पदों पर विचार करते हुए लिखते हैं- स्मृति व्यक्तिगत
भर नहीं; किसी एक सांस्कृतिक परंपरा तक सीमित भर भी नहीं, मनुष्य-मात्र की चेतना में
बद्धमूल स्मृति। मनुष्य के ‘प्रजाति-सार’ की स्मृति। कबीर का ‘घर’
अमरलोक-स्मृति और कल्पना के जी संयोग का रूपक है उसमें सामाजिक सरोकार और आध्यात्मिक
आकांक्षा एक दूसरे को काटते नहीं। अपने घर की याद और अमरपुर की कल्पना में कबीर जिन
‘डॉयकाटॉमीज’ जिन द्विभाजनों के परे जाते हैं, उन्हीं के सामाजिक, संस्थाबद्ध रूपों
से कविता में लोहा लेते हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल इस बात पर भी विचार करते हैं कि कबीर
एक घर जलाते हैं तो एक घर बनाते भी हैं ऐसे शिखर पर जिसकी राह पर चींटी तक के पाँव
फिसलते हैं-
“जन कबीर सिखरि घर,बाट सलैली गैला
पाँव न टिकै पिपीलिका,लोगन लादे बैल ॥” [12]
कबीर और दूसरे निर्गुण कवि घर को व्यक्तिगत खोज के
साथ, समूची सांस्कृतिक परंपरा में व्याप्त खोज का भी रूपक बना देते हैं। उनका प्रेम
और घर अलौकिक इस अर्थ में है कि वह सारी मानवता और इन संतों की अपनी सामाजिक स्मृति
में विन्यस्त खोज को धारण करता है। राम से उनके नितांत निजी रिश्ते की फैंटेसी को भी
धारण करता है, और अमरपुर के यूटोपिया को भी। ‘प्रिय’ को रिझा कर आँख की पुतली में मूँद
लेने की निजी फैंटेसी के साथ, संत कवि एक कल्पना लोक भी रचता है, वैयक्तिक और सामाजिक
यथार्थ के समानांतर एक यूटोपिया। कबीर की कविता में चाहे वह घर का रूपक हो या अमरदेश
का, यह सपना आने वाले वक्त की कल्पना से अधिक पीछे छूट गए घर की स्मृति का रूप लेकर
आता है। पुरुषोत्तम अग्रवाल को वह यूटोपिया कम ‘नास्टेल्जिया’ ज्यादा लगता है- “नारी
रूप में पीहर याद करते कबीर की कविता, यूटोपिया को ‘नॉस्टेल्जिया’ बनती कबीर की कविता
जो पीछे छूट गया, उसकी दर्द भरी यादों को तो स्वर देती ही है, उसे फिर से पा लेने के
आत्मविश्वास को भी रेखांकित करती है। वर्तमान में नजर भले न आए, वह स्मृति और कल्पना
में मौजूद है। आने वाले कल की कल्पना में बीत चुके कल की वेदना भी है। स्मृति और कल्पना
के इस अनपेक्षित संबंध से कबीर की कविता को अद्भुत मार्मिकता मिलती है। उसकी कविता
में बारंबार आने वाले घर और पीहर कल्पना और स्मृति के इस संबंध के रूपक हैं। कविता
में नारी रूप धारते कबीर को सताने वाली पीहर की याद यूटोपिया और नॉस्टेल्जिया के वेदनापूर्ण
संयोग को हमारे सामने मूर्त कर देती है। स्वाभाविक है कि नारी-निंदा के लिए विख्यात
कवि की सबसे मार्मिक कविताएँ उसके नारी रूप में ही संभव हुई है।”[13]
कबीर ने निराला की तरह किसी प्रियजन की मृत्यु पर
कविता नहीं रची लेकिन उनकी कविता में मृत्यु इतनी बार आया है, इतने रूपों में है कि
वह जीवन का प्रथम और अंतिम सत्य बन जाता है। लेकिन बाकायदा पुरुषोत्तम अग्रवाल के शब्दों
में कहा जाए तो कबीर की कविता मृत्यु से कतराने के बजाय उससे जुड़ी अनेक भाव दशाओं
को शब्दबद्ध करती है। कबीर की रूपाशक्ति, प्रेमाशक्ति और जीवनशक्ति ही उन्हें मृत्यु
के साथ संवाद का साहस देती है। इस संदर्भ में पुरुषोत्तम अग्रवाल कबीर की एक साखी को
उद्धृत करते हैं जहाँ मृत्यु के पार जाने की कल्पना का साहस कबीर करते हैं-
जहाँ जुहा मरन त्यापै नहीं,मूवा न सुणियै कोई।
चलि कबीर तिहि देसडै,जहाँ बैद विधाता होई ॥ [14]
पुरुषोत्तम अग्रवाल की व्याख्या है- कितना बड़ा आश्वासन
है; ऐसे देश का होना, भले ही केवल कल्पना में जहाँ किसी के मरने की बात तक सुनने में
नहीं आती। इस आश्वासन और मृत्यु की अटलता के बीच ही फैला है वह बेहद का मैदान जिसका नाम जीवन है। अमरता
की चाह और मरने की सच्चाई के बीच की रस्साकशी से ही सार्थक जीवन की तलाश का, ‘हमहुँ सुमिरे हुई बोल’ की कामना का जन्म होता है। जीवन
की सार्थकता जो पा लेते हैं, वे सचमुच बार-बार नहीं मरते, बार-बार नहीं जन्मते।’’[15] पुरुषोत्तम अग्रवाल की वैचारिकता में खास बात यह
है कि उनके यहाँ कबीर की कविता में स्मृति और कल्पना का जो मणिकांचन संयोग देखने को
मिलता है वह भक्ति के लोकवृत में ही तैयार किया गया है। डॉ. अग्रवाल कबीर की कविता
में कल्पना और स्मृति के रूपक को सांस्कृतिक परंपरा के साथ जोड़कर देखते हैं जो उन्हें
कबीर के अन्य अध्येताओं से अलग स्थान देता है। प्रभात त्रिपाठी का यह कहना बहुत ही
सटीक है कि-पुरुषोत्तम द्वारा कबीर की रचनाओं की इस भूमिका का मुख्य प्रयोजन, कबीर
के ‘टेक्स्ट’ का तन्मय अध्ययन है। ऐसा अध्ययन एकाग्र अनुराग के बिना संभव ही नहीं हो
सकता था और ‘टेक्स्ट’ पर आधारित कबीर की वैचारिक संवेदना की व्याख्या के सिलसिले में
पुरुषोत्तम अग्रवाल ने एकाधिक बार यह स्पष्ट किया है कि स्वयं की केंद्रीय सृजनात्मक
प्रेरणा भी प्रेम ही है। इसी प्रेमानुभूति के कारण एक ओर वे निज ब्रम्ह विचार के ऐसे
मार्ग पर चढ़ते हैं,जहाँ किसी भी एकल वैचारिकता युक्त धार्मिक सामाजिक संप्रदाय का प्रवेश
निषेध है और भाव-भगति का यही रास्ता कबीर के
प्रेम को,सामाजिक आलोचना के लिए प्रेरित करता है।
1.पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ-38
2. पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ-20
3. पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ-399
4. पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ-406
5.हजारी प्रसाद द्विवेदी ,कबीर-पृ-93
6. पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ-410
7.पी.सी. बागची,स्टडीज़ इन तंत्राज खंड एक,पृ -27
8.संपादक विजयेन्द्र स्नातक,कबीर, पृ-185
9. पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ-411
10. पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ- 39
11.वागर्थ, मार्च /अप्रैल 2000(संदर्भ )
12.सुषिस मारग कौ अंग,7 , ग्रंथावली -54
13. पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ-414-415
14.श्याम सुंदर दास,कबीर ग्रंथावली, पृ-125
15. पुरुषोत्तम अग्रवाल, ‘अकथ कहानी प्रेम की’- पृ- 419
अच्छा है!
जवाब देंहटाएंजीवन की पूरी व्याख्या एक संतुलित लेख में बहुत ही सुंदर तरीके से की गई है
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर👏
bahoot achaa
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंअद्भुत
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंपुरुषोत्तम अग्रवाल की आलोचनात्मक पुस्तक अकथ कहानी प्रेम की कबीर को समझने और परखने के लिए बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक है। इस आलेख के बहुत बहुत बधाई डॉ.वर्षा जी।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं
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