भारत के मध्ययुगीन साहित्य चिन्तन पर पुरुषों का एकाधिकार रहा और स्त्रियों की सीमा केवल जनानखाना तक तय कर दिया गया था। जहां से वे एक कैदी की तरह चिलमनों के पीछे से केवल ताक-झांक कर सकती थीं, वे पुरुष बैठकों में आने की अधिकारी तक नहीं थीं। यही अहं प्रवृत्ति साहित्येतिहासकारों ने भी स्त्री-साहित्य-चिन्तन लेखन से जुड़ी प्रतिभाओं के प्रति दिखाई। हालांकि महिला-लेखन की एक अविच्छिन्न धारा भारतीय भाषाओं में मिलती है। स्वतन्त्रता के पश्चात् सन् 1950 से भारतीय-साहित्येतिहास अध्येताओं की प्रवृत्ति में अन्तर तो दिखाई पड़ता है पर इससे पूर्व की भारतीय साहित्य, लेखिकाओं की खोज-खबर लेने की बात कम ही दिखाई देती है। साहित्येतिहास के पुनर्लेखन की यह बड़ी विशिष्टता है कि आज समुद्र में खोये इन अमूल्य मोतियों को महिला रूपी गोताखोरों ने खोजना शुरू कर दिया है।
मध्यकाल से पूर्व की कुछ दलित संत कवयित्रियां हैं जिनमें संत ललदेह, जनाबाई, रामी चन्डीदास, सहजोबाई, दयाबाई इत्यादि नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने मध्यकाल में जाति-प्रथा, धार्मिक-कट्टरता, छुआछूत तथा सामाजिक रूढ़ियों और पितृसत्तावादी व्यवस्था पर प्रहार किया। चौदहवीं शताब्दी में कश्मीर में संत ललदेह हुईं, जिन्हें कश्मीरी कविता का जनक भी कहा जाता है। कश्मीरी साहित्य का प्रारम्भ सन्त कवयित्री ललदेह से होता है, परन्तु उनके समकालीन इतिहासकारों ने उनके और उनके साहित्य को नज़रअन्दाज किया। अठारहवीं शताब्दी के मध्य में इतिहासकारों ने ललदेह के बारे में लिखा जिससे उनके रचित सामग्री का पता चल पाता है। सर्वप्रथम फ्रांसीसी इतिहासकार ग्रियर्सन ने 1920 में पं. मुकन्दराम शास्त्री की सहायता से ‘ललवाक्यानि’ नाम से ललदेह के वाखों का संग्रह किया था। कुछ स्त्री साहित्यकारों और आलोचकों ने ललदेह को अपनी रचनाओं में जगह दी है। जिनमें से सुमन राजे और अनिता भारती के नाम प्रमुख हैं। सुमन राजे उनकी साम्यता सन्त कबीर से बताती हैं क्योंकि ललदेह के पदों में निर्गुण भक्ति का पुट देखा जा सकता है। सुमन राजे ‘डॉ. शिबनकृष्ण रैणा’ (द्वारा रचित ‘कश्मीरी कवयित्रियां और उनका रचना संसार, भूमिका; 3’) का हवाला देते हुए लिखती हैं कि- “ललदेह पर भी गंगायमुनी छायाएं पड़ी हैं। कबीर से इनकी अद्भुत समानता बार-बार दिखती है। भक्त कवयित्रियों में कोमल अनुभूतियां अधिक होती हैं लेकिन ललदेह के सम्बन्ध में यह रेखांकित किया जाना चाहिए कि उनमें प्रखर सामाजिक सरोकार मौजूद हैं। ‘दीन वटा दीवर वटा’ में वे कहती हैं, देव भी पत्थर देवल भी पत्थर। रे पण्डित तू किसे पूजता है ? मन और प्राण को एकीकृत कर उसी में जीवन का सार है।’ कबीर की तरह, वे भी अक्षर ज्ञान को निरर्थक मानती हैं। ‘परान-परान ज्यव फोजिम’ में उनका कथन है, पढ़ते-पढ़ते मेरी जीभ व तालु फट गये, सुमिरिनी फेरते उंगलियां घिस गयीं, पर मन की द्वैत अवस्था दूर न हुई।”[1] कबीर की ही तरह ललदेह हिन्दू और मुसलमानों दोनों में सम्मानित हैं। ललदेह की कविताओं में सूफियों का समर्पण और सादगी तथा शैवमत के त्रिकदर्शन का समन्वित रूप मिलता है।
ललदेह के जीवन के संबंध में विचारकों के विभिन्न मत हैं। कुछ विचारकों का मानना है कि वे ब्राहमण कुल से थीं और कुछ विचारकों का कि वे निम्न जाति से थीं। सुमन राजे ने ‘आधा इतिहास’ में उन्हें पाम्पोर के निकट सिमरापुरगांव में एक ब्राह्मण किसान के यहां से बताया है। उनका विवाह भी बचपन में उसी गांव के सोन पण्डित नामक व्यक्ति के साथ हुआ था। बहुत से विचारकों का भी मानना है कि ललदेह ब्राह्मण कुल की थीं। इसके विपरीत परशुराम चतुर्वेदी (उत्तरी भारत की परंपरा, पेज 101-103) का मानना है कि- ‘‘लल्ला या लाल कश्मीर की रहने वाली एक ढेढवा मेहतर जाति की स्त्री थी जो सामाजिक दृष्टि से निम्न स्तर वाले परिवार की होकर भी बहुत उच्च विचार रखती थी। इनके विषय में प्रसिद्ध है कि यह शैव सम्प्रदाय का अनुसरण करने वाली एक भ्रमणशील भंगिन थी।”[2] ललदेह का जीवन भी थेरियों के प्रारम्भिक जीवन की तरह कष्टकारी था। उनके संबंध में ऐसा बताया जाता है कि उनका पारिवारिक जीवन सुखी नहीं था, पति और सास दोनों उन्हें प्रताड़ित करते थे, जिसकी वजह से उन्होंने घर त्याग दिया। बचपन से ही उनका जीवन वैरागियों जैसा था। अपने गुरू सिद्धमोल से उन्हें अक्षर ज्ञान के साथ आध्यात्मिकता भी मिली थी। उनको लेकर विवाद चाहे जो भी हो किन्तु उनके वाखों से यह ज्ञात होता है कि वह बहुत प्रगतिशील कवयित्री थीं, जिन्होंने जाति-प्रथा, धार्मिक कट्टरता, छुआछूत के ख़िलाफ़ बहुत ही स्पष्ट, सरल व सीधी भाषा में वाख (पद) लिखे हैं। उन्होंने मूर्ति-पूजा तथा स्वर्ग और नरक की अवधारणा को एक सिरे से खारिज किया। अपनी अस्मिता तथा अस्तित्व को वह पुरजोर शब्दों में बयां करती हैं-
“हम ही थे, होंगे हम ही आगे भी
अविगत कालों से चले आ रहे हम ही
जीना मरना न होगा समाप्त प्राणी का
आना और जाना सूर्य का धर्म है यही”[3]
सन्त ललदेह का यह वाख दलित महिलाओं की उच्च जीवनी-शक्ति का द्योतक है। जिस अविगत काल की तरफ कवयित्री संकेत करती है उससे स्त्रियों की सत्ता और महत्व का पता चलता है। मध्यकालीन सन्त स्त्रियों में ललदेह कबीर की ही तरह धर्माडम्बर और जातिगत भेदभावों पर कटाक्ष करती हैं। इस प्रकार वे मध्यकालीन स्त्री सन्त साहित्य में अपनी एक विशिष्ट छाप छोड़ती हैं।
मध्यकाल में मराठी भाषा की एक प्रख्यात दलित सन्त कवयित्री हुई जिनका नाम है- जनाबाई। यह सन्त नामदेव की दासी थीं। महान दलित सन्त कवयित्रियों के विषय में उल्लेख करते वक्त सुमन राजे ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास’ में जनाबाई का भी उल्लेख किया है। वे ‘कृष्णलाल शरसोदेजी के “मराठी साहित्य का इतिहास’ से हवाला देते हुए जनाबाई को दलित सन्त कवयित्री नहीं मानती। सुमन राजे के अनुसार– ‘‘जनाबाई का जन्म गोदावरी के किनारे बसे गंगाखेड़ नामक गांव में एक गरीब परिवार में हुआ था। अनाथ हो जाने के बाद उन्होंने नामदेव के परिवार में आश्रय लिया। नामदेव का पालन-पोषण उन्होंने ही किया था। इसी परिवार में उन्हें भक्ति और काव्य के संस्कार मिले। उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था और वे जीवनभर अविवाहित रहीं। उनके अभंगों में नामदेव की आर्तता और ज्ञानेश्वर की योगानुभूति का सुन्दर संगम है। जनाबाई की काव्य-सरिता के एक तट पर भक्ति का माधुर्य दूसरे तट पर योग का गुन्जन और दोनों तटों के बीच प्रासादिक प्रेम का प्रवाह है।’’[4] उक्त वक्तव्य से जनाबाई के काव्य के महत्व का तो पता चलता है किन्तु कहीं भी यह नहीं पता चलता कि वो एक दलित सन्त कवयित्री हैं। हालांकि इस वक्तव्य से पहले सुमन राजे ने नामदेव के परिवार उनके वंश तथा उनके शिष्यों के विषय में विस्तार से बताया है किन्तु जनाबाई के विषय में बहुत कम। सुमन राजे लिखती हैं- ‘‘नामदेव ज्ञानेश्वर के शिष्य थे और उन्होंने समाज और साहित्य पर एक व्यापक प्रभाव छोड़ा। उनका पूरा परिवार ही कवि था। उनके चार पुत्र जो कि सभी कवि थे-नारायण, बिठोवा, गोविन्द, महादेव। उनकी पत्नियां भी सभी कवयित्रियां थीं। माँ गोमाई और पत्नी राजाई भी कविता लिखती थीं। दासी जनाबाई भी कवि, नामदेव की बहन आऊबाई भी कवि थीं, यद्यपि उनकी अधिक रचनाएं उपलब्ध नहीं हैं। संसार के साहित्येतिहास में यह बेजोड़ कुटुम्ब था।’’[5]
यहां नामदेव की वंश-परम्परा और उनके परिवार का जितने सधे ढंग से सुमन राजे ने वर्णन किया है उतना जनाबाई के विषय में नहीं किया है जबकि जनाबाई मध्यकाल की ऐसी मराठी भाषी दलित सन्त कवयित्री हैं जिन्होंने उस समय के भक्तिकाल की धारा के ख़िलाफ़ जाकर अलग तरह की भक्ति धारा को चलाया। ऐसी धारा जिसमें ईश्वर ईश्वर नहीं रह जाता वरन् वह एक साधारण मनुष्य बन जाता है। जनाबाई कहती हैं –
“जनी फर्श बुहार रही है
और भगवान कूड़ा इकट्ठा कर रहे हैं
अपने सिर पर रखकर दूर ले जा रहे है
भक्ति से विजित
ईश्वर नीचा काम कर रहे है
जनी बिढोबा से कहती है
मैं तुम्हारा कर्ज कैसे उतारूंगी।”[6]
यहां दलित सन्त कवयित्री ईश्वर को पारलौकिक सत्ता से लौकिक धरातल पर खींच लाती है। उनके यहां भगवान कोई असाधारण व्यक्ति नहीं महज एक साधारण मनुष्य है। अनिता भारती ने अपनी पुस्तक ‘समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध’ में उनके पद को बहुत ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया है। क्या कारण है कि सुमन राजे के ‘हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास’ में जनाबाई आधा पेज भी जगह नहीं घेर पाई हैं ? सवर्ण महिला रचनाकार बहुतायत दलित स्त्री रचनाकारों को अपने साहित्य में जगह ही नहीं देती हैं। साथ ही जब वे जगह देती भी हैं तो उन पर ज़्यादा बात नहीं करना चाहती हैं। यह हम सुमन राजे के साहित्येतिहास में देख सकते हैं। इसके इतर दलित आलोचक अनिता भारती ने जनाबाई पर विस्तृत चर्चा करते हुए उनके काव्य और व्यक्तित्व के महत्व को बखूबी रेखांकित किया है।
जनाबाई ने मध्यकाल में सामाजिक रूढि़यों, कुरीतियों तथा धार्मिक अन्धविश्वास, आडम्बरों के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ी। उन्हें एक ऐसी सन्त कवयित्री के रूप में देखा जा सकता है जिन्होंने भक्ति को अधिकार के रूप में देखा। उनकी भक्ति उपकार, मोक्ष-स्वर्ग की अवधारणा से कोसों दूर थी। भक्ति के सन्दर्भ में जनाबाई की मान्यता थी कि यह उपकार या स्वर्ग पाने का माध्यम नहीं है। यदि ऐसा कोई सोचता है तो वह रूढ़िवादी और अज्ञानी कहलायेगा। उनके अनुसार ईश्वर की भक्ति पर किसी एक जाति या व्यक्ति का विशेष अधिकार नहीं है। मध्यकाल में जनाबाई ने स्त्रियों के ऊपर लादे गये तमाम शिकंजे और वर्जनाओं को दूर फेंक कर स्वतन्त्र जीवन जीने का मार्ग दिखाया। ईश्वर की भक्ति-आराधना के अधिकार के साथ-साथ वह समाज द्वारा बनाये गये अभेद्य दीवार को तोड़कर पूरे अधिकार और साहस के साथ बिना किसी लोक-लाज के निर्भयता पूर्वक बाहर निकलना चाहती हैं। उनके अनुसार –
‘‘सारी शर्म छोड़ दो और बेच डालो खुद को भरे बाजार
केवल तभी
तुम उम्मीद कर सकते हो
ईश्वर को पाने की
जाऊंगी भरे बाजार
हाथ में मंजीरा
और कन्धे पर वीणा लिए
मैं जाऊंगी भरे बाजार
कौन रोक सकता है मुझे
मेरी साड़ी का पल्लू गिरता है
तब भी मैं जाऊंगी भीड़ भरे बाजार
बेपरवाह, बिना सोचे, बिना विचारे।” [7]
एक पूरे स्वतन्त्र व्यक्तित्व और प्रगतिशील विचार के साथ सामाजिक वर्जनाओं की चौहद्दियों को लांघते हुए सन्त जनाबाई बाजार में प्रवेश करती हैं। दलित सन्त कवयित्रियां मन्दिर में प्रवेश की लड़ाई के साथ-साथ ईश्वर के उस छिपे रूप को पहचान गई थीं जिसमें वह केवल सवर्णों को मन्दिर में प्रवेश का अधिकार देता है। जनाबाई के अतिरिक्त ज्ञानेश्वर की बहिन मुक्ताबाई, संत चोखामेला की पत्नी- राजाई, माँ-गोणाई, बहन-आडवाई तथा कन्या-लिबाई ने अपनी वाणी में जाति प्रथा, वर्ग-भेद आदि का विरोध कर सच्ची मानवता के आदर्श को लोकमानस के सम्मुख प्रस्तुत किया। मुक्ताबाई ने अभंगों के माध्यम से सद्विचारों का प्रचार किया। जनाबाई के भी लगभग तीन सौ अभंग छन्द मिलते हैं जिनमें माधुर्य भाव से उपास्य को प्राप्त करने का सन्देश दिया गया है।
मराठी सन्त कवयित्रियों में प्रेमा बाई, बहिणाबाई, कान्होपात्रा, वेणाबाई, सखू बाई, बया बाई का नाम भी आता है। इन सभी संत कवयित्रियों ने समाज की उपेक्षा को झेला था। डॉ.पद्मजा घोरपड़े का कहना है कि इन सभी सन्त कवयित्रियों के काव्य में “भावना के विस्फोट, कारूण्य, वात्सल्य, दीन-जीवन से उद्धार की माँग का सुर मुखर हुआ है।”[8]
इन सन्त कवयित्रियों की वाणी में आध्यात्मिक गूढ़ता जनभाव के साथ स्पष्ट की गई है।
महाराष्ट्र के साथ-साथ गुजरात में भी जन-भक्ति आंदोलन हमें एक नये रूप में मिलता है। गुजरात में जैन धर्ममत अधिक हावी था। यहां की भक्त कवयित्रियों में मीरा की गणना अधिक होती है। इस क्षेत्र में जैन साध्वी हेमश्री ने सोलहवीं शती में अपनी मान्यताओं से जनमानस को प्रभावित किया। जनमानस से जुड़ी सन्त परम्परा में यहां रमाबाई, गंगा बाई, जनी बाई, नानी बाई, रतन बाई का नाम आता है। गुजरात की गवरी बाई का सन्त परम्परा में विशेष योगदान है। गवरी बाई ने चित्त, शुद्धि, सत्संग, संयम, नाम जप के उपदेश को महत्ता देते हुए अपनी वाणी में पाखंडों का विरोध किया है।
मध्यकालीन सन्त कवयित्रियों की तरह ही बंगाल के धोबी समाज की रामी चण्डीदास भी एक प्रसिद्ध दलित कवयित्री थीं। रामी चण्डीदास के संबंध में सुमन राजे लिखती हैं कि ‘रामी राजकिनी महाकवि चण्डीदास की प्रिया कही जाती हैं, वे स्वयं भी कवि थीं।’[9] बंगाल के ही वैष्णव कवि चण्डीदास से रामी विवाह करना चाहती थीं। उस सामन्ती समाज में रूढ़िवादी और जातिगत भेदभाव कम न था। रामी विवाह मण्डप में न पहुंच सके इसलिए समाज के लोगों ने उनके सामने अनेक रूकावटें और अड़चने डालीं ताकि उनका विवाह चण्डीदास से न हो सके किन्तु तमाम बाधाओं को पार करते हुए रामी वैष्णव कवि चण्डीदास से विवाह करने में सफल हो जाती हैं। रामी समाज द्वारा हुए अत्याचार और दुर्व्यवहार तथा अपनी पीड़ा को बहुत ही मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त करते हुए कहती हैं -
“तूफ़ान को उन लोगों के सिर पर गिर जाने दो
जो अपने घरों में छिपे, अच्छे लोगों को कोसते हैं
मैं और ज़्यादा इस अन्याय की भूमि पर
नहीं रह सकती
मुझे वहां जाना है
जहां यातनाएं न हों।”[10]
इस धरती पर स्त्री और ऊपर से दलित स्त्री को जीने का अधिकार नहीं है। इसका आकलन हम वर्तमान समय में हो रही नृशंसनीय घटनाओं से लगा सकते हैं। मध्यकालीन युग में दलित स्त्रियों पर अत्याचार अधिक हिंसक और उत्पीड़नकारी होते होंगे इसकी जानकारी हमें रामी के पदों में अभिव्यक्त मार्मिक वेदना से मिलती है। उनकी चिन्ता यह थी कि कोई ऐसा देश हो जहां अन्याय न हो। वे ऐसे देश में जाना चाहती हैं जिनके शरीर में हृदय हो। इस भारत भूमि में तरह-तरह के अमानवीय लोग बसते हैं जिनके ऊपर रामी चण्डीदास का करूण हृदय चित्कार कर उठता है और उन्हें धिक्कारते हुए कहता है-
‘‘अन्याय की इस भूमि पर
अब नहीं रहूंगी मैं
उस देश जाऊंगी मैं, जहां नहीं होंगे हृदयहीन धूर्त
जो दूसरों को नकटा कहने के लिए
काटते हैं
अपनी ही नाक
कोई डर नहीं रामी को
वह वफ़ादार है अपने खुद के प्रति।”[11]
सामाजिक विषमताओं का दंश रामी चण्डीदास ने बहुत ही गहरे स्तर पर झेला था जिसकी पीड़ा उनके गीतों में सुनाई देती है। उन्होंने अधिकतर अपनी बात को ‘राधा’ के माध्यम से कही है किन्तु कभी-कभी कहीं पर वो अपनी ही आवाज़ में अभिव्यक्ति करती नजर आती हैं। चण्डीदास सामाजिक भय से रामी को छोड़कर अपने ब्राह्मणवर्ग में वापस पलायन कर जाते हैं, तब रामी राधा का सहारा लेकर ‘मादुर’ गाती हैं:-
“कहां चले गये तुम मेरे प्रियतम
अपनी दासी को छोड़
तुम्हारा मुखड़ा न देख
मेरा हृदय फटता है
अब और नहीं सहा जाता मुझसे।’’[12]
दलित सन्त कवयित्री रामी चण्डीदास का दुर्भाग्य यह है कि उनके दुर्लभ पद आज उनके नाम से नहीं मिलता यदि कहीं मिल भी जाते हैं तो वह उनके पति वैष्णव कवि चण्डीदास के पदों में समाहित हैं।
जन-भक्ति आंदोलन की इस यात्रा में हिन्दी भाषी संत कवयित्रियों का भी महत्वपूर्ण योगदान है। यह आंदोलन सम्पूर्ण लोक शक्ति का आलोड़न करते हुए और सामाजिक विडम्बनाओं से उसे सावधान करते हुए मानवता का मार्ग प्रशस्त करता है। इस रूप में योग और ज्ञान से परिचित ‘उमा’ का नाम आता है जिन्होंने सतगुरू के महत्व को स्पष्ट करते हुए मानवीय चेतना को आगे बढ़ने का संकेत दिया। स्वामी रामानंद के बारह शिष्यों में ‘पद्मावती’ नामक एक शिष्या भी थी जिनका उल्लेख ‘रहस्यमयी’ में मिलता है। सन्त कवयित्री पद्मावती ने कबीर, रैदास आदि की परम्परा में समाज सुधार के लिए भक्तिभाव को माध्यम बनाया।
हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल की संत परम्परा में पुरुष संत ही नजर आते हैं महिला संत में केवल एक मीरा का ही नाम आता है वह भी सगुण काव्यधारा के अन्तर्गत। जबकि साहित्य के पुनर्लेखन के बाद ऐसी बहुत सी महिला भक्त हैं जिनका मुख्यधारा के साहित्य में कहीं नाम नहीं मिलता। हाशिए के साहित्य लेखन ने ऐसी साधिकाओं को खंगालने का अभियान शुरू कर दिया है और उनका सही मूल्यांकन करने का प्रयास भी हो रहा है।
स्वामी रामानंद के बाद उत्तरी भारत में संतमत के विविध सम्प्रदायों का विकास हुआ। प्रायः इन सभी में संत साधकों के साथ-साथ साधिकाओं ने भी मत-प्रचार व मानवीय संवेदना को पुष्ट करने के लिए समर्थ-वाणी द्वारा योगदान दिया है। कबीर पंथ में ‘कमाली’ का नाम आता है। प्रसिद्ध है कि ‘कमाली’ ने ‘सरायकी’ (पंजाबी) में ‘काफियों’ की रचना की, जिसमें समाज को उचित दिशा में चलने का संकेत दिया गया है।
चरणदासी सम्प्रदाय में सहजोबाई और दयाबाई का नाम प्रसिद्ध है। सहजोबाई और दयाबाई दोनों के सतगुरु चरनदास थे। दोनों ने अपने गुरु के चलाए गये निर्गुण भक्तिधारा के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। सहजोबाई ने 18 वर्ष की उम्र में ही ‘सहज प्रकाश’ की रचना की। सहजोबाई ने दिल्ली क्षेत्र में सतगुरु के उपदेश को आगे बढ़ाने का कार्य किया, लेकिन दयाबाई का कार्यक्षेत्र उत्तर-प्रदेश था। दयाबाई की बानी दो भागों में है-‘दयाबोध और विनय मालिका’। चरनदासी संप्रदाय में इन दोनों सन्त कवयित्रियों को विशेष स्थान प्राप्त है। सहजोबाई की वाणी में जहां प्रेम-भावना प्रधान है वहीं दयाबाई की वाणी में वैराग्य भाव प्रधान है। सिख पंथ की उदासी परम्परा में संत सुवचना दासी का उल्लेख भी मिलता है।
संत-साधना में बावरी साहिब के उपदेशों में नारी हृदय की सहज सुकुमारता, शील, संकोच तथा संत जीवन के प्रति अटूट श्रद्धा का भाव मिलता है। इस परम्परा में आगे चलकर ‘भुड़कुड़ा’ सम्प्रदाय की अलग से स्थापना हुई। उत्तर-प्रदेश के फैजाबाद जनपद में सांई-पंथ/ सम्प्रदाय की स्थापना मानवता के कल्याण के लिए मोहनशाह द्वारा हुई। इनकी शिष्या विजनशाह ने नौली दमौली को अपनी साधना का क्षेत्र बनाया। उनके उपदेशों में मानव चेतना के उद्धार का संकेत मिलता है। इसी परम्परा में मीठेगांव की धोबिन सचनाशाह का नाम भी आता है। इनकी वाणी में गुरू-निष्ठा के साथ-साथ सहज जीवन को पाखंडों से मुक्त करने का सन्देश मिलता है।
राजस्थान के परची साहित्य में भी फूलांबाई और पुली बाई की परची मिलती है। ‘इनकी वाणी से स्पष्ट होता है कि दोनों ने बड़ी स्पष्टवादिता से सांसारिक माया जन्य आड्म्बरों से मुक्त हो सच्चे मानवीय भावों के माध्यम से कल्याण मार्ग पर चलने का संकेत दिया है।’[13]
भारत के प्रत्येक भाग की भांति आन्ध्र प्रदेश में भी समय-समय पर दलित स्त्री संत हुईं हैं। यहां संत दोतुलम्मा बंजारा जाति की थीं। वह अपने पति की आज्ञा लेकर अवधूत बन गयी। ऐसे रूप में उन्होंने समाज कल्याण के लिए जो ज्ञान बोध दिया वो मौखिक परम्परा में आज भी बन्जारा समाज में प्रचलित है। महार जाति की लखम्मा श्रमिक परिवार की कन्या थीं। इन्होंने योग साधना करते हुए अपने गांव में विपत्तियां आने पर सेवा द्वारा सामाजिक जीवन को सुस्थिर बनाया और समाज में सेवा के महत्व को स्थापित किया।
इस प्रकार मध्यकाल में और भी अनेक दलित सन्त कवयित्रियां हुई हैं जिनमें बहुत सी अपने नाम से नहीं जानी जाती हैं और वे इसी तरह अतीत में गुमशुदा हैं। आज हाशिए के साहित्य तथा दलित स्त्री विमर्श के अथक प्रयासों द्वारा ऐसी दलित सन्त कवयित्रियों को अतीत के गर्भ से खोज कर निकाला जा रहा है और जो बची रह गयी हैं उनके लिए प्रयास जारी है। मेहनतकश दलित लेखिकाएं मध्यकाल की दलित स्त्री साहित्यकारों को काल के गर्त से ढूंढने में प्रयासरत हैं। वो दिन दूर नहीं जब दलित स्त्री विमर्श का मध्यकाल का समृद्ध लेखन हिन्दी दलित साहित्य के ऐतिहासिक पटल पर छा जायेगा।
[1]राजे, सुमन (2006) हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, तीसरा संस्करण, पेज नं.216
[2] भारती अनिता, समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली, पेज नं.289
[3] वही, पेज नं.289
[4] हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, कृष्णलाल शरसोदेजी के मराठी साहित्य का इतिहास, पेज नं.92
[5] वही, पेज नं.213
[6] समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध, पेज नं.290
[7] सं. भारती अनिता, तिवारी बजरंग बिहारी, (2013) यथास्थिति से टकराते हुए : दलित स्त्री जीवन से जुड़ी कविताएं, लोकमित्र प्रकाशन, पेज नं.11
[8] भारतीय चिन्तन में अल्पचर्चित महिलाएं, कश्फ़’, विभोर प्रकाशन, वर्ष सम्पूर्ण-11/ पंजी-2 अंक-2 दिसम्बर-2012, मार्च-2013, पेज नं.76
[9] हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, पेज नं.22
[10] समकालीन नारीवाद और दलित स्त्री का प्रतिरोध, पेज नं.291
[11] हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, पेज नं.220
[12] वही, पेज नं.-220
[13] तनेजा विनोद : भारतीय संत परम्परा की साधिकाएं- कश्फ़, विभोर प्रकाशन, पेज नं.79-78
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