शोध आलेख : दादू दिल दरियाव, हंस हरिजन तहँ झूले / प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय

दादू दिल दरियाव, हंस हरिजन तहँ झूले
- प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय

        संत दादूदयाल के कृतित्व और व्यक्तित्व के साथ हिंदी साहित्य की निर्गुण काव्यधारा व्यवस्थित और विद्यासंपन्न बनी। उनकी सम्मोहनकारी संतचर्चा तथा कविछवि ने आमजन के साथ ही राजकुलों को भी आकर्षित किया। दादूदयाल का जन्म विक्रम संवत 1601 अहमदाबाद, गुजरात में हुआ था। उनका निधन विक्रम संवत 1660 में नारायणा ग्राम ( जयपुर से लगभग 70 कि.मी.) में हुआ। उन्होंने गुजरात से प्रारंभ कर उत्तर भारत में कई स्थानों की यात्राएं की लेकिन मुख्य रूप से उनका कार्यक्षेत्र राजस्थान रहा। बड़ी संख्या में साखी और पदों की रचना की। उनके जीवन में ही अनेक शिष्यों ने लिखना प्रारंभ किया। संत दादूदयाल के शिष्यों की संख्या भी बहुत बड़ी है। उनमें से बावन शिष्यों का राघवदास के भक्तमाल में प्रमुख रूप से उल्लेख है। शिष्यों के शिष्य भी रचनाकार थे। दादूपंथ में चार पीढ़ियों तक निर्गुण कविता रचने का क्रम अनवरत चलता रहा। दादूपंथ के कवि संतों ने 'भक्तमाल' के साथ ही 'सर्वंगियों' की रचना की। कविता को एकत्रित कर उसे संपादित स्वरूप में प्रस्तुत करने की एक नूतन अभिनव कला को विकसित किया। ऐसे प्रारंभिक और प्रत्यक्ष दादूदयाल द्वारा बनाए गए शिष्यों में संत रज्जब प्रमुख हैं।

        दादूदयाल ने संतत्व की निर्मिति तथा उसके स्थायित्व के लिए कुछ सूत्र दिए। उन्होंने 'आपा मेटै' से प्रारंभ किया। संत के संतत्व को बनाए रखने के लिए अभिमान के त्याग की चर्चा की। आपा (अभिमान) संत के मार्ग में रोड़ा बनकर खड़ा होता है। गृह, परिजन तथा पत्नी का त्याग या विवाह का न करना तथा उसके बदले यश की कामना भी बड़ा अभिमान है। यह वैरागी के वैराग्य की रक्षा तो नहीं ही करता है, अपितु बातचीत से लेकर सत्संगों तक में प्रकट होता रहता है। इसलिए वे 'आपा मेटै' का उपदेश करते हैं। 'आपा' अनेक रूपों में प्रकट होता है। वह जाति, शारीरिक बल, धन, विद्या आदि के अहंकार के रूप में दिखता है।

        दादूदयाल ने सभी विकृतियों का परित्याग कर तथा गरीब बनकर जीवन जीने का उपदेश किया। आपा शारीरिक, मानसिक संताप का कारण तो बनता ही है, समाज के सुख-शांति में भी बाधक है। त्याग के अभिमान के साथ स्वर्ग प्राप्ति की 'आपा' भी जुड़ती है। स्वर्ग प्राप्ति के पश्चात प्राप्त होने वाले सुख की आकांक्षा के परित्याग की बात दादूदयाल ने की है। स्वर्गिक सुख की कामना अनेक प्रकार की बाधाएं जीवन में लेकर आती हैं और वे लौकिक जीवन को शांति युक्त नहीं बनने देती। इसलिए दादूदयाल ने जीवन - मुक्ति की धारणा को विकसित किया। संत रज्जब ने 'दादूवाणी' का संपादन करते समय ऐसी साखियों को 'जीवन मृतक का अंग' शीर्षक के अंतर्गत एकत्रित किया। दादूदयाल ने बदलाया कि जिसके हृदय में श्रद्धा, सेवा, दीनता, भगवत - भक्ति, प्रीति और निरभिभानिता है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है। उसके लिए 'मरजीवा' बनना बड़ी उपलब्धि है। इसलिए जीवित मृतक कैसे बना जाए, उसकी चेतना का जागरण संत समाज के बीच किया। जो पैदा हुआ है, वह मरता ही है। राजा, रंक सभी को मरना है। संत दादूदयाल ने कबीरदास के आराध्य को अपना उपास्य स्वीकार किया। दादूदयाल ने एक साखी में कहा कि -

       जेथा कंत कबीर का सोइ वर वरहूं।
       मनसा वाचा कर्मना, मैं और न करहूं।।

        संत दादूदयाल ने अपने मत को अध्ययन, अनुभव और सत्संग के आधार पर निरंतर पुष्ट किया। कुछ गिनती के साखी, पदों में ही वे आक्रामक दिखते हैं अन्यथा अपनी बात को तार्किक ढंग से रखते चले जाते हैं। निर्गुणोपासना का उनका पक्ष बहुत स्पष्ट है। वे अनेक संतों की और से कहते हैं कि संतों ने ब्रहम - ज्ञान का विचार करने के बाद ही परब्रह्म के अभेद स्वरूप को स्वीकार किया है। उस परब्रहम को उन्होंने सभी प्रियतमों से प्रिय और अतिश्रेष्ठ बतलाया। अपने आराध्य को सभी पवित्र वस्तुओं से पवित्र कहा। अनेक साखियों में अपनी बात का विस्तार देते हुए वे परब्रहम को स्पष्ट करते चले गए हैं। आमजन और अपने भक्तों को समझाने के लिए सरल शब्दावली और दृष्टांतों का उपयोग किया। उन्होंने कहा कि मैं उसकी उपासना करता हूँ जिसकी आश्रित यह समस्त सृष्टि है। जिसने दृश्य-अदृश्य समस्त वस्तुओं को रचा है :

       चंद सूर चौरासी लख, दिन अरु रैणी, रचले सप्त समंदा।
       सवा लाख मेरु गिरि पर्वत, अठारह भार तीर्थव्रत, ता ऊपर मंडा।।
       चौदह लोक रहैं सब रचना, दादू दास तास घर बंदा।।

        इस विचार प्रक्रिया ने तत्कालीन समाज को झकझोर दिया। उनके आविर्भाव से पूर्व समस्त भारत में अनेक मंदिर ध्वस्त हो गए थे। मूर्तिपूजक समाज के सम्मुख संकट खड़ा था। सगुण-साकार की उपासना के अपने तर्क थे। तीर्थस्थानों और देवप्रतिमाओं के साथ समृद्धि के तार्किक और सरल भाव थे। हजारों वर्षों से मूर्तिपूजा कर रही आस्तिक जनता की भक्ति सगुण-साकार रूप में अपने आराध्य को देखने की थी। एक ओर आचार्य शंकर के अद्वैत की उपस्थिति थी दूसरी ओर रामानुजाचार्य, वल्लभाचार्य जैसे आचार्यों का सिद्धानत था जिसमें वह परब्रह्म ही प्रकट होकर भक्तों की रक्षा के साथ ही विभिन्न प्रकार की लीलाएँ करता है। सनातन धर्मियों की एक बहुत बड़ी जनसंख्या लम्बे समय से मूर्ति, मन्दिर की उपासना से वंचित थी। अनुमति थी भी तो उसके साथ समानता का भाव नहीं था। सैद्धान्तिक 'अद्वैत' आचार्य शंकर के दार्शनिक ग्रन्थों से बाहर आकर सम्पूर्ण भारत के अनेक जातियों से आए संतों की रचनाओं में उनकी भाषा में 14वीं - 15वीं शताब्दी में प्रकट होने लगा। 16वीं - 17वीं शताब्दी में वह अद्वैत जन-जन की जुबान पर अपने आसपास से शब्द ग्रहण कर स्थानीय मुहावरों में रच- बसकर पेशापरक शब्दावली में प्रकट होने लगा। दादूदयाल की वाणी उनमें सर्वाधिक प्रसरणशील थी। वाणी की सहजता तथा संतत्व के आदर्श ने उनकी प्रतिष्ठा को चतुर्दिक प्रसारित किया। उनके शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। उनमें अनेक अच्छे पढ़े-लिखे थे। कुछ बाद में काशी जाकर पढ़े और अपने समय के प्रतिष्ठित विद्वान कवि के रूप में स्थापित हुए।

        संत दादूदयाल के पंथ की समझ और उसके प्रभाव को जानने के लिए इस पंथ द्वारा किए गए कार्यों का ज्ञान आवश्यक है। इनके शिष्यों - प्रशिष्यों ने अकादमिक दुनिया को सजाया-संवारा। स्वयं की रचनाएँ तो निर्गुणमतानुसार लिखी ही, संकलन - संपादन का महत् कार्य किया। वाणियों को लिखने की पद्धति विकसित की तथा उसके लिए कागज - स्याही की व्यवस्था को सुलभ बनाया। इस कार्य को करते रहने के लिए अनेक प्रकार के यत्न किए। गुरु की वाणी के लेखन को पूजाभाव माना तथा इसी कार्य को अपना जीवन लक्ष्य मानकर उसे करते रहे, करते चले गए। वाणियों का लेखन कई पीढ़ियों ने किया। एक के बाद दूसरी, तीसरी, चौथी पीढ़ी आती चली गई। यह क्रम टूटा नहीं। फिर तो अनेक संतों द्वारा लिखी गई वाणियों की भी प्रतियाँ तैयार हुईं। हिंदी संत साहित्य में अनेक संप्रदाय हैं लेकिन वाणियों की प्रति तैयार कर उसके संरक्षण की व्यवस्था का जैसा उपक्रम दादूपंथ ने किया, वैसा किसी पंथ ने नहीं। काशी और उसके आस-पास के संतों- आचार्यों की वाणियाँ भी दादूपंथी संग्रह ग्रंथों में सुरक्षित की गईं। आज जब प्रामाणिकता की चर्चा की जाती हो तो दादूपंथी संग्रह ग्रंथों को स्वीकार किया जाता है।

नागरी प्रचारिणी सभा ने हीरक जयंती के अवसर पर अनेक ग्रंथों के प्रकाशन की योजना बनाई। भारत के प्रथम राष्ट्रपति महामहिम डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी ने शब्दसागर - संशोधन तथा आकर ग्रंथमाला के लिए एक लाख रूपये का अनुदान भारत सरकार की ओर से देने की घोषणा की। इसी क्रम में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने 11.05.1954 को राजाज्ञा निकाली जिसके अनुसार एक सौ उत्तम ग्रंथों के निर्माण के कार्य को नागरी प्रचारिणी सभा को दिया गया। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने नागरी प्रचारिणी सभा के अनुरोध पर 'दादूदयाल ग्रंथावली' का संपादन ‘आकर ग्रंथमाला' के अन्तर्गत किया। प्रकाशन मंत्री, सुधाकर पाण्डेय ने महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदी के संपादन में सन् 1906 में ‘दादूदयाल की बानी तथा दादूदयाल के सबद' के प्रकाशन की सूचना दी हैं। यह भी बतलाया है कि "वह दादू के साहित्य का प्रकाशित आदि उपलब्ध संग्रह है।" पं. सुधाकर द्विवेदी के संपादन में प्रकाशित दादूदयाल की बानी के लगभग 17 वर्ष पश्चात् पं. परशुराम चतुर्वेदी द्वारा संपादित 'दादूदयाल ग्रंथावली प्रकाशित हुई। यह ग्रंथावली हिंदी के पाठकों में अत्यंत लोकप्रिय हुई | आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने इसके संपादन के लिए अनेक हस्तलिखित ग्रंथों का उपयोग किया। कुछ पाण्डुलिपियों की सूचना उन्होंने दी है। वे हैं :

(क) दादू द्वारा नराणे की छातड़ी प्रति लि. का. सं. 1710 वि.
(ख) दादू महाविद्यालय, जयपुर की डीडवाणा प्रति लि.का., सं. 1762 वि.
(ग) काशी नागरीप्रचारिणी सभा की सं. 1406 की प्रति, उदयपुर (1), लि. का. सं. 1797 वि.
(घ) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की सं. 1394 प्रति उदयपुर (2), लि. का., सं. 1836 वि.
(च) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की सं. 1611 प्रति, जोधपुर संवत 1836 वि.
(छ) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की सं. 1393 क प्रति चानसेण, लि.का. 1908 वि.
(ज) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की सं. 1759 की प्रति लि.का. अज्ञात
(झ) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की सं. 1467 की प्रति जिसमें केवल 'कायावेलि' है।
(ण) काशी नागरी प्रचारिणी सभा की पहरावाली प्रति सं. 794, लि.का., सं. 1921 वि.
(ट) श्री राजनाथ पाण्डेय (सागर विश्वविद्यालय) की प्रति

        आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने 'दादूदयाल ग्रंथावली' के संपादन - प्रकाशन के लिए नारायणा की प्रति का उपयोग किया है। यह प्रति सं. 1710 वि. में लिखी गई। इस प्रति को प्रामाणिक मानने का एक आधार उन्होंने लिया कि यह प्रति दादूदयाल के देहांत, सं. 1660 से केवल पचास वर्ष बाद की लिखी हुई है। उन्होंने अपने वक्तव्य में लिखा है, "उसके पाठ में मैंने एक भी सुधार का करना तबतक नहीं उचित समझा है, जबतक वहाँ पर लिपिकार की भ्रांति मुझे स्पष्ट नहीं जान पड़ी है और ऐसी दशा में भी, मैंने ऐसे पाठभेद का उल्लेख पाद टिप्पणी में यथास्थान कर दिया है। इस आदर्श प्रति में मुझे कई स्थानों पर एकाध रचनाओं की पुनरावृत्ति भी दीख पड़ी है, किन्तु मैंने उसे वैसा ही छोड़ दिया है।"

        संत दादूदयाल के शिष्यों ने अपने गुरु की वाणियों के संग्रह और संपादन के साथ ही कुछ अति महत्वपूर्ण ग्रंथों को तैयार किया। इस दृष्टि से रज्जब की 'सर्वंगी', जगन्नाथ का 'गुणनांजनामा', गोपालदास जी का 'सर्वांग सरह चिंतामणि' तथा पंचबानी संग्रह' उल्लेखनीय है। पंचबानी संग्रहों में संत नामदेव, कबीर, दादूदयाल, रैदास तथा हरिदास की रचनाएँ हैं। कुछ संग्रहों में इन पाँच संतों के अतिरिक्त नाथपंथी कवियों की भी रचनाएँ संगृहीत हैं। 'रज्जब वाणी, संत रज्जब की रचनाओं का संग्रह है।

        इस ग्रंथ के साखी भाग में 193 अंगों में 5342 साखी है। पद भाग में 20 रागों में 209 पद हैं। 'सवैया' भाग में 25 अंगों में 116 सवैया तथा कवित्त हैं। इसी भाग में रज्जब के शिष्यों द्वारा लिखे गए रज्जब जी के भेंट के 34 पद्य हैं। 'लघु' ग्रंथ भाग में 15 लघुग्रंथ हैं। ये ग्रंथ हैं- 1. छंद त्रिभंगी ग्रंथ 2. अरिल ग्रंथ 3. बावनी ग्रंथ 4. बावनी अक्षर उद्धार ग्रंथ 5. पंद्रह तिथि ग्रंथ 6. सप्तवार ग्रंथ 7. गुरु उपदेश आत्म उपज ग्रंथ 8. अविगत लीला ग्रंथ 9 अकल लीला ग्रंथ 10. प्राण पारिख ग्रंथ 11. उत्पत्ति निर्णय ग्रंथ 112. गृह वैराग्य बोध ग्रंथ 13. पराभेद ग्रंथ 14. दोष दरीबा ग्रंथ 15. जैन जंजाल ग्रंथ | पंचम भाग - 'छप्पय ग्रंथ है। इसमें 40 अंगों में 89 छप्पय है। रज्जब की सर्वंगी संग्रह ग्रंथ है। यह ग्रंथन कला का अप्रतिम उदाहरण है। इसमें रचनाकारों के नाम सहित रचनाएँ तो हैं ही उनकी भी है जिनके नाम के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है। इस ग्रंथ में 890 पद, 2696 साखी, 173 श्लोक तथा 73 बैत संगृहीत हैं। इस ग्रंथ में प्रसिद्ध संत कवियों के साथ ही रज्जब के शिष्यों तथा गुरु भाइयों के शिष्यों की रचनाएँ भी हैं। अलंकारों की दृष्टि से रज्जब का प्रिय अलंकार दृष्टान्त था। रज्जब के एक शिष्य मोहनदास थे। उन्होंने उनकी प्रशंसा में कई छंद लिखे हैं। ये छंद रज्जब के कृतित्व और व्यक्तित्व की समीक्षा है। 'रज्जब वाणी में संगृहीत एक छंद है:

       तुरक सिरताज पतिशाह दिल्ली तणों,
       हिन्दुवां शीश सिरताज राणो।
       राज सिरताज अधिपति जु आंबेर रो,
       यू पंथ दादू तणें रज्जब जाणों।।

        जगन्नाथ आमेर के चुंगी विभाग में अधिकारी थे। जाति से कायस्थ थे। ये दादू जी का दर्शन करने तथा इनके प्रवचनों को सुनने के लिए आमेर आया करते थे। कुछ दिनों बाद इन्हें वैराग्य हो गया। इन्होंने 'गुणगंजनामा' नाम से एक संग्रह ग्रंथ तैयार किया। इनकी स्वयं की रचनाओं की संख्या भी बहुत अधिक है। राघवदास के भक्तमाल के अनुसार 'गीतासार' और 'वसिष्ठ सार' भी इनकी रचनाएँ हैं। 'गुणगँजनामा' में 179 अंग हैं। इस ग्रंथ में साखी, शब्दी, चौबोला, श्लोक, गाथा, गूढ़ा, अरिल, रेखता, चौमुखी, चौपाई, सोरठा, सिंधी साखी, गाहा, चौपई आदि हैं। इस ग्रंथ में 122 रचनाकारों के नाम के साथ रचनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त भी बहुत से कवियों की रचनाएँ संगृहीत हैं। 'गुणगंजनामा' संग्रह के प्रमुख कवि हैं- संत दादूदयाल, कबीरदास, रज्जब, चैन, जगजीवन, परसराम, जगन्नाथ, मोहन, जैमल, वाजीद, नानक, रैदास, बखना, अग्रदास, तुलसीदास, नामदेव, अहमद, जैमल, मधुसूदन, गरीबदास, क्षेमदास, बुरहान, कासिम, पीपा, हरवंश, श्यामदास, कल्याण, कमाल, भरथरी, कणेरी आदि। जगन्नाथ का परिचय राघवदास के भक्तमाल में इस प्रकार दिया गया है :

       दादू को शिष जगन्नाथ, जुगति जतन जग में रह्यो।।
       प्रेमा भक्ति विशेष, ज्ञान गुन बुद्धि समझ अति।
       शास्त्रज्ञ तत्त्वज्ञ, शील सतवादी मति गति।।
       'गुण - गंजनांमा' किया, सर्व की कविता ता मधि।
       गीता, वशिष्ठ सार, ग्रंथ बहु अवर साधु सिधि।।
       चित्रगुप्त कुल में प्रकट, जो देख्यो सोई कह्यो।
       दादू को शिष जगन्नाथ, जुगति जतन जग में रह्यो।।

        दादूपंथ के जिन कवियों ने स्वयं के लेखन के साथ संग्रह के कार्य को किया उसमें गोपालदास का कार्य उल्लेखनीय है। ये संतदास मारू के शिष्य थे। इन्होंने 'सर्वांग सरह चिंतामणि' नाम से विशाल संग्रह ग्रंथ तैयार किया। वि.सं. 1684, फाल्गुण शुक्ल पूर्णिमा को यह ग्रंथ पूर्ण हुआ था। ग्रंथ 137 अंगों में विभाजित है। इस संग्रह ग्रंथ में ऐसी बहुत सी रचनाएँ हैं जिनमें कवियों के नाम नहीं हैं। इस ग्रंथ में लगभग 250 कवियों की रचनाएँ संगृहीत हैं। संग्रह के प्रमुख कवि हैं- दादूदयाल, रज्जब, नानक, मोहन, हरदास, कबीर, गोरखनाथ, फरीद, पृथ्वीनाथ, खोजी, गरीबदास, भैंरू जैन, नामदेव, जगन्नाथ, जयमल, टीला, बखना, सूरदास, वाल्मीकि, ऋषिकेश, माधवदास, जैदेव, विष्णुदास, सूरदास मदनमोहन, तुलसी, भीम, रंगा, परमानंद, पीपा, विद्यापति, माधवदास, जनगोपाल, रैदास, धना, क्षेमदास, जगजीवन, चैन, मुकुंदभारती, मच्छंद्रनाथ, श्री भट्ट, त्रिलोचन, हालीपाव, सुखानंद, भरथरी, श्यामदास, सुदंरदास, झाझ, हरिसिंह, सिद्ध हरताली, नरसी, राजा गोपीचंद, कणेरीपाव, दत्त, वहबलदास, सधना, शिव श्रमदास, शिव अवधू, नथमल, हरिराय, काजी महमूद, लालगंज मलिक आदि। इस ग्रंथ के परिचय में लिखा है,

       गोपाल सैंतीस वर्ष के जब भये, सरह जोड़ तब किया।
       जीव कहा मति बाहरा, यह गुरु गोविंद दत्त दिया।। 1।।
       या पुस्तक को बांचतां, होय अजान सुजाण।
       भरम कर्म दुविधा मिटे, उलक्ष्या सुलझे प्राण। 12।।
       सब साधुन का ज्ञान मत, किया एकठा आणि।
       को चेतन समझे गुरुमुखी, सतपुरुषों की वाणि | | 3 | |

        संत दादूदयाल के पढ़े-लिखे शिष्यों में मोहन दफ्तरी थे। ये उदयपुर के महाराजा के दफ्तर में कर्मचारी थे। किन्हीं कारणों से इन्हें कैद कर जेल में डाल दिया गया। बताते हैं कि संत दादूदयाल के नाम का स्मरण करने से इन्हें कैद से मुक्ति मिल गई। उन्हें लगा कि संत दादूदयाल के आशीर्वाद से ही वे मुक्त हुए हैं तो वे वहाँ से दादूजी के पास आमेर आ गए। वे संत दादूदयाल के साथ रहने लगे। प्रवचनों में तथा सत्संग के समय उनके मुख से जो पद, साखी आदि स्वतःस्फूर्त निकलते थे वे उन्हें तत्काल लिख लेते थे। कार्यालय में काम करने के कारण उन्हें लिखने का अच्छा अभ्यास था। इनकी गिनती दादूदयाल के प्रमुख 52 शिष्यों में होती है। 'श्री दादूपंथ परिचय- प्रथम भाग, में लिखा है कि "इन्होंने अपना साधन धाम मारोठ ग्राम में बनाया था और वहाँ रहकर निर्गुण राम का भजन करते थे। मारोठ के ठाकुर रघुनाथ सिंह जी ने मोहन जी दफ्तरी से प्रार्थना की थी कि आप मारोठ में ही विराजें। रघुनाथ सिंह जी की श्रद्धा भक्ति देखकर आप वहाँ एक खेजड़े के वृक्ष के नीचे विराजे थे और वहाँ कुछ समय तक भजन करते रहे थे। फिर वहाँ ही रामशाला बन गई थी। स्थान की सेवा के लिए उक्त रघुनाथ सिंह जी ने 189 बीघा भूमि प्रदान की थी।" ये स्वयं भी रचना करते थे। इनकी 24 अंगों में 192 सांखियाँ प्राप्त होती है। 10 सवैया, एक रेखता, एक छप्पय तथा 119 पद भी मिलते हैं। 'ब्रह्मलीला' में 43 दोहें और चौपाई है। 'पंद्रह तिथि ग्रंथ' में 20 दोहा और चौपाई हैं।

        मोहन दफ्तरी की शिष्य परम्परा भी चली। इनके प्रमुख शिष्य चतरदास की वाणियाँ प्रचुर संख्या में प्राप्त होती है। चतरदास रचित कई लघु ग्रंथ हैं। इनकी वाणी के साखी भाग में 54 अंगों में 651 साखियाँ हैं। मोहन दफ्तरी की महंत परम्परा में मोहन दफ्तरी, चतरदास, क्षेमदास, रामदास, चेतनदास, सूरतराम आदि हैं। मोहनदास दफ्तरी के विषय में राघवदास के भक्तमाल में दो पद दिए गए हैं। एक पद में इन्हें दादूदयाल की वाणी का सावधान खजानची कहा गया है। इनके बारे में बतलाया गया है कि दादूदयाल के उपदेश के समय ये लेखनी और दवात लेकर बैठते थे। भक्तमाल का एक पद है :

       दादूजी की वाणी को खजानची खबरदार,
       विगति से लिखत सु मोहन दफ्तरी।
       लेखनी रु द्वात संग कीन्ही नाहीं आज्ञा भंग,
       शब्द उचार भयो लियो लिख तिहिं घरी।।
       जैसे सूत सूत्रधार मंदिर उठावे द्वार,
       तैसे पद साखी प्रख, जहाँ की तहाँ धरी।
       रघवा देदीप्यमान उकति भलो विचार,
       सफल जनम भयो सेवा गुरु की करी।।

        मोहन दफ्तरी सिद्ध योगी थे। उनके संबंध में अनेक किंवदंतियां प्रचलित है। संत दादूदयाल के जीवन में ही उनकी सिद्धियों के दर्शन और चर्चा होने लगी थी। योग साधना के बल पर अनेक प्रकार के शारीरिक, मानसिक कार्यों को वे सफलतापूर्वक अपने संयम-नियम के कारण संपन्न करते थे। MONIKA HORSTMANN ने अपनी पुस्तक “BHAKTI AND YOGA ” में मोहन दफ्तरी के विषय में लिखा है, “ According to the hagiographer's Perception, Mohan was both a formidable yogi and a bhakta. The image of him as a yogi-bhakta is part of Dadupannthi memory, for Dadu is remembered as having disadvised his followers from displaying sectarian emblems. They were rather asked to stay by the apparel that they displayed when they were first drawn into his orbit and hide their Skull-cap (topi), of question identity with the white cap with flaps covering the ears which at some point became part of the attire of Dadupanthi monks, inside of it”

        दादूदयाल की रचनाओं मे योग की प्रचुर शब्दावली है। आत्मसाक्षात्कार की स्थिति में योगी अमृतरस का पान करता रहता है। इनके यहाँ सहजशून्य और शून्य सरोवर अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। सहजशून्य की उपस्थिति सर्वत्र है। उस सहज सरोवर के तट पर हंस मोती चुगता है। उस सरोवर के तट पर वे जप, तप, संयम, करने के लिए कहते हैं। हरि सरोवर सर्वत्र पूर्ण है। उसका साक्षात्कार किसी भी रूप में किया जा सकता है। सरोवर के अनेक घाट हैं। ये उपासना पद्धतियों के मार्ग हैं। किसी भी घाट से सरोवर के तट पर पहुँचकर ब्रहमरस का पान कर सकते हैं। वह शून्य सरोवर सहज का है। वहाँ मरजीवा मन मोती चुनकर लाता है। ध्यान की अवस्था में दादूदयाल ने वहाँ पर सूर्य को देखा जहाँ वह है ही नहीं। जहाँ चंद्रमा नहीं है, वहाँ चांद को देखा। उस ब्रहम का प्रकाश अनंत है। योगी अपनी साधना से उनकी अनुभूति कर सकता है। वह बिना बादल के वर्षा को देखता है और निर्झर की निर्मल धारा के प्रवाहित होने का साक्षात्कार करता है। दादूदयाल कामधेनु को दूहकर दुग्धपान करने के लिए कहते हैं। वह ऐसी गाय है जिसे कोई देख नहीं सकता। सुषुम्ना नाड़ी को सहस्रार मे ले जाकर निरूद्ध करने पर योगी उस दुग्ध का पान करता है। वे उस वृक्ष के फल के रस की चर्चा करते हैं जो सूखता नहीं है। संत ही तरुवर है। लेकिन वह वृक्ष ब्रहम भूमि पर जाकर अवस्थित होना चाहिए। इस भूमि पर स्थित वृक्ष निरंतर हरा-भरा रहता है और फलों से युक्त होता है। दादूदयाल ने साधक के कुछ गुणों के विषय में भी बतलाया है। मोक्ष की चाह रखने वालों के लिए यह आवश्यक है। मोक्ष की इच्छा रखने वालों में अति प्रेमयुक्त ईश्वरोपासना, सेवा का भाव, एकात्मकता का भाव, सभी से मित्रता, दीनों पर दया, संतों से प्रेम, प्रत्येक स्थिति में आनंद की अनुभूति, दैवी गुण, आत्म चिंतन की प्रवृति, परोपकार आदि होते हैं।

        दादूदयाल की साधना में योग और भक्ति का मणिकांचन योग है। योग की बात करते हुए वे भक्ति साधना का महत्व नहीं भूलते। राम सर्वव्यापक हैं। उनकी भक्ति भी ऐसी ही होनी चाहिए। पूर्ण भक्ति, पूर्ण समर्पण, पूर्णता बोध तथा पूर्ण दृष्टि उस व्यापक राम की प्राप्ति में सहायक है। राम की विश्वव्यापकता की तरह ही उनकी भक्ति है। इसलिए वह अमूल्य हैं :

       जैसा पूरा राम है, तैसी पूरण भक्ति समान।
       इन दोनों की मित नहीं, दादू नाहीं आन।।

        दादूदयाल ने राम को सत्य कहा। दादूपंथी 'सत्यराम' कहकर अभिनंदन करते हैं। दादूदयाल ने जब 'सत्यराम' कहा तो उसके पूजा के अधिकारी और पूजा सामग्री की भी बात की। वे आत्म वैष्णव, सुबुद्धि भूमि, संतोष स्थान, मूल मंत्र, मन माला, गुरु तिलक, सत्य संयम, शील शुचिता, ध्यान धोती, काया कलश, प्रेम जल, आत्मा पाती, चेतना चंदन, भावपूजा, शब्द घंटा, सहज समर्पण, पुहुप प्रीति, तीर्थ सत्संग, दान उपदेश, दया प्रसाद, व्रत स्मरण, षड्गुण ज्ञान, अजपा जाप, मर्यादा राम तथा आनन्द आरती का उपदेश करते है |

        संत दादूदयाल ने अपने समय को साधुता से प्रभावित किया। उनका व्याप बहुत बड़ा है। मार्ग कबीर का था लेकिन युगानुरूप चाल उनकी स्वयं की थी। इस चाल के साथ राजा, रंक, किसान, मजदूर, सिपाही, अधिकारी, ब्राह्मण, गैर ब्राह्मण सब चले। शिष्यों ने स्वयं के उद्धार के लिए साधना की तथा भविष्य के लिए वाणियों का संरक्षण- संपादन कर भारतीयता की अजस्रधारा को प्रवहमान रखा। इन साधकों के तप का परिणाम है कि आज विशाल संत साहित्य पाठकों के समक्ष उपलब्ध है।

 

प्रो. नन्द किशोर पाण्डेय
सम्पर्क : 9997659658, nkpandey65@gmail.com


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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