असम में हिंदी लेखन कार्य श्रीमंत शंकरदेव की ब्रजावली भाषा से माना जा सकता है। अनेक विद्वानों ने ब्रजावली को हिंदी माना है। यदि हम ब्रजावली रचना को हिंदी की रचना मान लें, जो बहुत कुछ है भी, तो असम में हिंदी रचना का विपुल भंडार पड़ा है। उसका भाषा वैज्ञानिक अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि वह हिंदी के उतने ही करीब है, जितना असमीया के। यह स्वीकार किया जाएगा कि आज तक जो कुछ भी लिखा गया है उसके क्रमिक विकास के संधान के लिए अभी भी वैज्ञानिक दृष्टि से काफी काम करना बाकी है।
भाषाविदों के अनुसार भारतीय आर्य भाषा प्रारंभ से ही उदीच्य, मध्यदेशीय और प्राच्य में विभक्त रही है। उदीच्य के अंतर्गत पश्चिमोत्तर की बोलियाँ और प्राच्य के पूर्वांचल की बोलियाँ आती हैं। दोनों के बीच की भाषा मध्यदेशीय है। सूरसेन प्रदेश और उसके आस-पास बोली जाने वाली शौरसेनी मध्यदेशीय के अंतर्गत ही है। सातवीं शती के यात्री हवेनसांग ने कामरूप की भाषा को मध्यदेश से थोड़ा भिन्न पाया था। वैसे उस समय भाषागत वैषम्य की अपेक्षा उनमें साम्य अधिक था। कई कारणों से अपभ्रंशों में शौरसेनी और मागधी अधिक महत्त्वपूर्ण हुई। शौरसेनी द्रविड़ देशों को छोड़कर लगभग संपूर्ण भारत में प्रचलित थी। मागधी का क्षेत्र पूर्वांचल था। डॉ. कृष्ण नारायण प्रसाद ‘मागध' के शब्दों में कहा जा सकता है कि- “मागधी क्षेत्र से आकर शौरसेनी को अपना किंचित रूप परिवर्तन करना पड़ा था। मागधी के पश्चिमी रूप से भोजपुरी, पूर्वी रूप से असमीया, ओड़िया और बंगला एवं परिनिष्ठित रूप से मगही एवं मैथिली के विकसित होने की प्रारंभिक अवस्था 12-13वीं शती तक पूर्ण हो चुकी थी। एकाध लोक भाषाओं के प्रयत्नों को छोड़कर इन भाषा क्षेत्र की मानक काव्य भाषा शौरसेनी ही थी।”[1] इस तरह जहाँ मागधी से मगही, मैथिली, असमीया इत्यादि का विकास हो रहा था, वहीं उसी के साथ शौरसेनी का थोड़े स्थानीय प्रभावापन्न मध्यदेशीय रूप का भी विकास हो रहा था। वास्तव में पूर्वांचल की ब्रजावली, सूरसेन प्रदेश की ब्रजी और पश्चिम की ग्वालियरी एवं पिंगल शौरसेनी का ही विकसित रूप है।
अनेक प्रमाणों से यह पुष्ट होता है कि उत्तर भारत से विभिन्न समयों में मानव टोलियाँ आकर यहाँ बसती रही हैं। अनेक राजाओं ने भी कान्यकुब्ज, मगध, मिथिला आदि से ब्राह्मणों, कायस्थों आदि को बुलाकर बसाया।[2] उन क्षेत्रों से आये हुए लोगों के साथ वहाँ की भाषा, संस्कृति तथा अन्य परंपराएँ भी समय-समय पर असम में आती रही है। उदाहरण के लिए असम के महापुरुष शंकरदेव और माधवदेव के पूर्वज भी कान्यकुब्ज से ही यहाँ आये थे। उनके व्यक्तित्व का अधिकांश अंश वहाँ की परंपराओं से निर्मित था। फिर उनकी देशाटन प्रवृत्ति ने इसे और दृढ़ और विस्तृत बनाया होगा। शंकरदेव एवं अन्य वैष्णव कवियों द्वारा असमीया के साथ-साथ ब्रजावली में भी रचना करना इसका प्रमाण माना जा सकता है। भाषा, संगीत और संस्कृति इन तीनों बिन्दुओं को मिलाने वाली एक सीधी रेखा यदि खींची जाये तो उसकी गति स्पष्टत: पश्चिम से पूर्व ब्रज से असम की ओर प्रतीत होती है।
एक और महत्त्व की बात है कि असमीया और बंगला लिपियों के प्राचीनतम शिलापटों के नमूने राजगृह (मगध) में ही मिलते हैं। असमीया की वर्तमान प्रचलित लिपि 'बामुनिया' (बंगाल के ब्राह्मणों द्वारा प्रयुक्त जो आहोम राजदरबारों से संबंध थे, ब्राह्मणिक) है जबकि इससे प्राचीन और बहुत दिनों तक इसके समानांतर प्रयुक्त होने वाली लिपि कैथाली (कैथी, कायस्थों द्वारा प्रयुक्त, सत्रों में संरक्षित प्राचीन पोथियों में यही लिपि अधिक प्रयोग में थी)। लिपि का साम्य मगध, मिथिला और पूर्वी में उत्तर प्रदेश में अभी हाल तक प्रयुक्त होने वाली कैथी से देखा-पहचाना जा सकता है। असम की राजधानी गुवाहाटी के निकट प्रसिद्ध तीर्थ स्थान हाजो के हयग्रीव माधव के मंदिर में उत्तकीर्ण शिलालेख की लिपि कैथाली यही प्रमाण प्रस्तुत करती है।[3]
असम में हिंदी साहित्य के मौलिक लेखन के इतिहास को मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- (क) आदि एवं मध्यकालीन और (ख) आधुनिक कालीन।
असम में वैष्णवकाल के हिंदी के संबंध में हमें महापुरुष श्रीमंत शंकरदेव और माधवदेव की रचनाओं से ज्ञात होता है। आज भी असमीया समाज उन्हीं के आदशों से अनुप्राणित है। ऐसे महामना व्यक्ति द्वारा अपनी रचनाओं में ब्रज-भोजपुरी-मैथिली से संपर्कित ब्रजावली नामक भाषा का उद्भव विकास तथा प्रयोग किया जाना एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है। श्रीमंत शंकरदेव ने बारह वर्षों तक देश के पवित्र तीर्थस्थानों का भ्रमण किया था। उनकी तत्त्वग्राहिणी दृष्टि ने देश के व्यापक फलक से असमीया जनजीवन के लिए उपयुक्त तत्त्वों का आहरण कर उसे नव-रूप में असम में प्रतिष्ठित किया था। उस समय गीत-गोविंद की परंपरा में विद्यापति के गीतों की अनुगूंज हिंदी प्रदेशों में गूंज रही थी। ब्रज और मिथिला में रचित पदों के माधुर्य ने बंगाल में ‘ब्रजबुलि’ और असम में ‘ब्रजावली' की रचनाएँ करने के लिए समर्थ कवियों को प्रेरित किया। इस मिश्रित भाषा को श्रीमंत शंकरदेव एवं उनके अनुयायियों ने अपनाया, उसमें असमीया भाषा का पुट हो उसे ब्रजावली के रूप में अभिनवत्व प्रदान करता है। अंकीया नाटकों के अलावा ब्रजावली में रचित गीत एवं भटिमाएँ भी मधुर एवं सुश्राव्य हैं।
विभिन्न शासकों के शासन के साथ-साथ असम की सीमाएँ परिवर्तित होती रही है। सन् 1533-1584 में कोचराज विश्व सिंह के पुत्र नरनारायण के समय राज्य की पश्चिमी सीमा बिहार के पूर्णिया जिले तक फैली थी। उसके दरबार में अनेक क्षेत्रों के विद्वान और कवि समादृत हुए थे। पिछले डेढ़ सौ वर्षों में भी असम राज्य की सीमाएँ फैलती सिमटती रही है। इसके बावजूद यह केवल हिंदी क्षेत्र से ही नहीं संपूर्ण भारत की अंतरंगता से आबद्ध है। खान-पान, रहन-सहन, नाटक प्रहसन, रीति-नीति, धर्म-संस्कृति में यह समग्र भारत, मूलतः हिंदी क्षेत्र से जुड़ा होकर भी अन्य राज्यों की तरह ही सभी क्षेत्रों में अपनी निजता और विशिष्टता की गरिमा से मण्डित है।[4]
भाषिक दृष्टि से असमीया भाषा मुख्यतः मगही, मैथिली और किंचित भोजपुरी से अधिक निकट है, मध्यदेश से भी इसका संबंध रहा है।
अनुमान किया जाता है कि उदारमना श्रीमंत शंकरदेव ने अपने सिद्धान्तों को वृहत्तर भाषाई आधार प्रदान करने के लिए ब्रजावली भाषा का प्रयोग किया है। शुद्ध असमीया रूप न होने पर भी ब्रजावली भाषा को समझने में असमवासियों तथा उत्तर भारतीयों को कोई कठिनाई नहीं होती थी। श्रीमंत शंकरदेव के पश्चात् माधवदेव, गोपाल आता, रामचरण ठाकुर, भूषण द्विज, दैत्यारि ठाकुर, श्रीराम आता, रामानंद द्विज, हरिकांत, दीनगोपाल, कैवल्यानन्द, महेन्द्र द्विज, लक्ष्मीनाथ दास, विश्वम्बर द्विज आदि प्रमुख नाटककारों के अलावा जाने-अनजाने और भी सैकड़ों नाटककार हैं, जिन्होंने ब्रजावली भाषा का प्रयोग किया है।
माधवदेव के संबंध में कहा जाता है कि-
“शंकरे भकटि प्रकाश करिल
माधवे प्रचारिला
माधवर-प्रसारत व्यभिचारी अज्ञानी
सबे बुजिला।”[5]
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