इतना सुनना था कि रज्जब घोड़ी से उतरे और बारात छोड़कर दादू के साथ चले गए और फिर नहीं लौटे। उस कन्या के साथ रज्जब के छोटे भाई का विवाह हुआ। आचार्य रजनीश ने इस प्रसंग का अत्यन्त मार्मिक वर्णन किया है। इस प्रसंग के एक अन्य संस्करण में ऐसी कथा आती है कि विवाह के लिए जाते हुए रज्जब की इच्छा संत दादू की दर्शन की हुई। जब वे आश्रम में पहुँचे तो दादूदयाल ध्यानमग्न थे। रज्जब वहीं बैठकर ध्यान टूटने की प्रतीक्षा करने लगे। जब संत का ध्यान टूटा तो उन्होंने अपने समक्ष एक मुसलमान नवयुवक को दूल्हे के वेश में प्रतीक्षारत पाया। युवक की उत्कट जिज्ञासा को देखते हुए संत दादूदयाल ने मात्र एक दोहे में यह उपदेश किया-
अर्थात् ईश्वर ने जिस शुभ कार्य के संपादन हेतु तुम्हारे जीवन की सृष्टि की है, उस बंदगी को भूलकर तुम जिस कार्य (विवाह) को करने जा रहे हो उससे तुम्हारा तनिक भी कल्याण होने की संभावना नहीं है। दादूदयाल के इस एकमात्र वचन का रज्जबजी पर ऐसा चमत्कारी प्रभाव पड़ा कि उन्होंने आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करते हुए ईश-भजन में अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया। रामसनेही संप्रदाय के महात्मा रामचरणदासजी ने इस प्रसंग पर ठीक ही कहा है-
अर्थात् एक बार में ही गुरु की वाणी सुनकर रज्जब के मन का द्वन्द्व जाता रहा। किसी तरह का संशय या विपर्यय निःशेष हो गया। एक बार रज्जब की परीक्षा लेने के लिए दादूदयाल जी ने उन्हें प्रवृत्ति मार्ग का अनुसरण करते हुए गृहस्थ आश्रम मे प्रवेश लेने की सलाह दी। दादू की इस तरह की बातों को सुनकर संत रज्जब ने बड़ी विनम्रता एवं दृढ़ता के साथ उत्तर देते हुए कहा-
अर्थात् जिस प्रकार सर्प अपनी केंचुली त्यागने के बाद उसे दुबारा धारण नहीं करता, उसी तरह मैंने अपनी स्त्री का त्याग कर दिया है अब मैं किसी भी परस्त्री का स्पर्श नहीं कर सकता। मेरे लिए संसार की सभी स्त्रियाँ माँ की तरह हैं-जितनी जनमी जगत में, सब रज्जब की मात।
संत रज्जबजी ने विपुल साहित्य की रचना की है। उनके नाम से तीन ग्रंथ प्रचलित हैं- 1. रज्जब बानी 2. सर्वंगी या सर्वांग योग तथा 3. अंगबधू । रज्जब बानी जहाँ संत रज्जब की मौलिक कृति है वहीं सर्वंगी और अंगबधू उनके द्वारा संपादित हैं। सर्वंगी में पूर्ववर्ती संत कवियों तथा अंगबधू में रज्जब ने अपने गुरु दादूदयाल की बानियाँ संकलित की हैं। अंगबधू पर आचार्य परशुराम चतुर्वेदी का मत है, “रज्जबजी की यह तीसरी कृति ‘अंगबधू’ के नाम से प्रसिद्ध है जो वास्तव में दादूदयाल की रचनाओं का एक संग्रह मात्र है। यह सिक्खों के प्रसिद्ध पूज्य ग्रंथ ‘आदिग्रंथ’ से प्रायः दस वर्ष पहले संगृहीत हुआ था जिस कारण यह अपने ढंग के ग्रंथों का प्रथम आदर्श स्वरूप भी कहा जा सकता है।”13. रज्जब बानी रज्जब की रचनाओं का विशाल संकलन है। इसके साखी भाग के अंतर्गत 193 अंगों में 5352 छंद सम्मिलित हैं, पदों की संख्या 209 है तथा 26 अंगों में 117 सवैये सम्मिलित हैं। इसके अलावा चौपाई छंद में निबद्ध 15 लघु ग्रंथ तथा 40 अंगों में कुल 89 छप्पय भी रज्जबजी द्वारा रचे गए हैं।
यद्यपि अन्य निर्गुण संतों की भाँति संत रज्जब की भी कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई थी। कृपाराम जी साधु ने रज्जब बानी की भूमिका में यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि रज्जबजी संस्कृत के पूर्ण विद्वान थे, किन्तु यह धारणा भ्रामक प्रतीत होती है और इसकी पुष्टि रज्जब द्वारा बानी के आरंभ में लिखे गुरु-वंदना के श्लोक से स्पष्ट हो जाता है-
रज्जब के काव्य में अधिकांश वर्ण्य-विषय वेदान्त से गृहीत हैं और आरंभ गुरु-उपसदन से होता है। वेदान्त में गुरु की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है। मानसोल्लासकार ने तो ईश्वरो गुरुरात्मेति कहकर तीनों में समन्वय स्थापित कर दिया है। छान्दोग्य उपनिषद की श्रुति स्पष्ट कहती है कि गुरुप्राप्त व्यक्ति ही तत्त्व के रहस्य को जान सकता है- अचार्यवान् पुरुषो वेद (6.14.2)। इसे रज्जब अपने शब्दों में कहते हैं -
रज्जब गुरु कूँची बिना, कबहूँ खूँटे नाहिं ॥ (गुरुदेव का अंग)
पूर्वकृत् सभी कर्म ताला हैं और उनमें जीव निबद्ध है, बिना गुरुकृपा की कुंजी के जीव की मुक्ति असंभव है। इसलिए रज्जब गुरु के प्रति श्रद्धा आवश्यक बताते हैं। वे कहते हैं कि जब तक शिष्य अपने भीतर पात्रता विकसित नहीं कर लेता तब तक गुरु उसे चाह कर भी कुछ नहीं दे सकते। परंपरा में यह प्रसिद्ध तथ्य है कि श्रद्धा ही पात्रता है- श्रत्+धा अर्थात सत्य को धारण करने की क्षमता इसीलिए श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है- श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्। इस तथ्य को रज्जब यूँ कहते हैं-
जब लग लक्षन लेण के, जुगति न उपजे आय॥ ( गुरुदेव का अंग )
जब तक शिष्य को लेने की युक्ति न आएगी तब तक गुरु के संग्रह में स्थित अपार धन वह नहीं ले सकता। और वह युक्ति क्या है, इसका प्रतिपादन मुंडकश्रुति ने इस प्रकार किया है- तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् (1.12 ) और श्रीमद्भगवद्गीता में इसका विस्तार करते हुए व्यास ने लिखा है-
तत्त्वदर्शी गुरुओं के समीप जाकर श्रद्धापूर्वक प्रश्न पूछते हुए सेवा करने पर ही ज्ञान की प्राप्ति होती है। श्रद्धा के इस महत्व को रज्जबदास जी प्रतिपादित करते हैं-
रज्जब श्रद्धा सीख सूं दूजा कदे न होय॥ ( गुरुदेव का अंग )
लेकिन रज्जब अंधभक्ति के प्रति सचेत भी हैं। वे कहते हैं कि गुरु का चयन सोच-समझकर करना चाहिए, अन्यथा विभूतिविहीन गुरु न केवल स्वयं की हानि करता है अपितु साथ ही शिष्य को भी ले डूबता है। अविद्या के कूप में धँसा हुआ गुरु शिष्य को और गहरे तमस में धकेल देता है। श्रुति कहती है -
अंधा अंधे ठेलिया के इस न्याय को रज्जब इस तरह व्यक्त करते हैं-
कूपमयी यह कुंभनी क्यूँ पावहिं प्रभु पंध ॥
अर्थात् श्रद्धा का वरण करते हुए भी विवेक का तिरस्कार नहीं। श्रद्धा और विवेक की सम्यक युति का निर्वाह करते हुए साधक संसार-सागर पार हो जाता है।
ब्रह्म एवं आत्मतत्त्व को अभिव्यक्त करते हुए संत रज्जब को दुहरे संकट से गुजरना पड़ा है। प्रथमतः यह कि जो अनुभव और तत्त्व भाषा की परिधि में नहीं आ सकता, केवल अपरोक्ष रूप से अनुभूति का विषय भर बन सकता है और जिसे अनिर्वचनीय और ‘गूंगे केरी शर्करा’ कहकर मौन हो जाना पड़ता है, उसका संकेत कैसे किया जाय? और दूसरा संकट यह है कि यह संकेत करते हुए अभिव्यक्ति बोझिल न बन जाय, शास्त्रीयता के भार से दबकर उसकी काव्यात्मकता नष्ट न हो जाय। क्योंकि अंततः वे ऐसा काव्य रच रहें हैं जो सामान्य एवं निरक्षर जनता के मध्य संप्रेषणीय बना रहे। इन दोनों काव्य-संकटों से उत्तीर्ण होने के लिए संत रज्जब जगह-जगह पर बेहद सटीक दृष्टांतों एवं रूपकों का प्रयोग किया है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने कहा है कि “दृष्टांतों के प्रयोग में तो ये इतने कुशल थे कि इनकी बराबरी का कोई कदाचित् ही मिलेगा।”18. रज्जब के लिए उनके शिष्य संत मोहनदास ने कहा भी है कि उनके समक्ष सभी दृष्टांत हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं- ऐसी ही भाँति सबै दृष्टांत हो आगे खड़े रहैं रज्जबजी के। वस्तुतः संप्रदाय में शिक्षण की जो विधि है, वह सिद्धांत, युक्ति और दृष्टांत के भेद से उत्तम, मध्यम और सामान्य अधिकारी को ध्यान में रखते हुए प्रचलित है। रज्जब इससे भली भाँति परिचित हैं। उदाहरण के लिए लिए जब उन्हें ब्रह्म की निर्लेपता का आख्यान करना होता है तो वे दर्पण का दृष्टांत देते हुए समझाते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार दर्पण स्वयं में प्रतिबिंबित हो रहे वस्तुओं से सदैव अस्पृष्ट बना रहा रहता है, उसी प्रकार ब्रह्म स्वयं में भास रही सृष्टि से असंपृक्त रहा करता है -
यूं गुण रहित स अंतरजामी, ता माहैं खेलें सब कामी॥
इसी तरह वे सृष्टि को समझाने के लिए ब्रह्मवृक्ष के रूपक की कल्पना करते हैं-
वे कहते हैं कि यह पृथ्वी ब्रह्मवृक्ष में ही स्थित है। यह वृक्ष ऐसा है कि इसका वर्णन सुनकर कोई इस पर विश्वास ही नहीं करेगा, यह वृक्ष जड़ और शाखा विहीन है अर्थात् यह न तो किसी का कारण है, न ही किसी का कार्य है। ब्रह्मवृक्ष के इस रूपक की विस्तृत व्याख्या कठवल्ली एवं भगवद्गीता के 15 वें अध्याय में आचार्य शंकर ने ‘ब्रह्मवृक्षः सनातनः’ ऐसा पौराणिक उद्धरण देते हुए की है, इससे स्पष्ट है कि संत रज्जब न केवल नवीन रूपकों के निर्माण में सिद्धहस्त थे, अपितु वे पारंपरिक एवं सांप्रदायिक रूपकों से भलीभाँति परिचित थे।
संत रज्जब की एक सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है, उनकी समन्वय-भावना। इसके दो बड़े ठोस एवं महत्वपूर्ण प्रमाण उनके काव्य में प्राप्त होते हैं। यह जगजाहिर बात है कि ये संत निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे और अवतारवाद का खंडन करते थे लेकिन रज्जब जब नवधा भक्ति को व्याख्यायित करते हैं तो वे जो उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, वे सब के सब सगुण भक्तों के हैं। नवधा भक्ति के सिद्धांत का मूल स्रोत श्रीमद्भागवत का यह श्लोक बताया जाता है -
श्रवण परीक्षित रूप, शबद शुकदेव सु गावैं।
पवन भजन प्रहलाद सु, मनसा श्रीपद ध्यावैं॥
पूजा अरच पृथु प्रेम, अंकुर अकुर सु वंदन।
हेत दास हनुमंत, प्राण पारथ सु प्रीति पन॥
बलि ज्यूँ बल बलिहारि कर, रज्जब रामहिं दीजिए।
इहि प्रकार नौधा भगति, सु आतम अंतर कीजिए॥ 20.
सूची में वर्णित सभी भक्त सगुण परंपरा के ही हैं, उस समय जबकि सगुण और निर्गुणपंथियों के मध्य संघर्ष जारी था, तब निर्गुण संत होते हुए भी रज्जबजी द्वारा सगुण भक्तों को उदाहरणस्वरूप उद्धृत करना उनकी विराट दृष्टि का सूचक है। उनकी समन्वय भावना का दूसरा उदाहरण निम्नलिखित छंद में दिखाई देता है, जहाँ वे यह उद्घोष करते हैं कि ईश्वर की उपासना चाहे किसी भी मार्ग से की जाय, अंततः वह उसी अद्वय निर्विकार ब्रह्म के पास पहुँचती है। जिस प्रकार अनेकानेक मार्गों से आने वाली नदियाँ समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी तरह साधना के सभी मार्ग उसी परम् तत्त्व में समा जाते हैं। वे कहते हैं -
यह छंद मूलतः शिवमहिम्नस्तोत्र के उस प्रसिद्ध श्लोक का समयानुकूल निर्वचन है, जिसे शिकागो धर्म-सम्मेलन के दौरान स्वामी विवेकानंद ने उद्धृत किया था और समन्वय का हेतु स्वीकार किया था। वह श्लोक है-
विवेकानंदजी ने इसका अनुवाद यूँ किया था कि जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां, अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं, ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है। ये रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हैं, लेकिन ये सब ईश्वर तक ही जाते हैं। ठीक यही बात रज्जबदास जी ने अपने सवैये में कही है।
इस तरह यदि देखा जाय तो संत रज्जब भारतीय संस्कृति की महाधारा के स्नातक हैं, जो श्रुति से होती हुई आधुनिक काल में स्वामी विवेकानंद और श्रीअरविन्द तक अबाधित प्रवाहित होती चली आई है, जिसमें सबको सम्मिलित कर लेने का महाभाव विद्यमान है। आधुनिक काल में जब तकनीक और विज्ञान के संयोग से एक विचित्र किस्म का मनुष्य पैदा हो गया है, जो शुष्कता और अजनबीयत की व्याधि से ग्रस्त है तो ऐसे में संत रज्जब की वाणी वह औषधि है जो उसे पुनः मनुष्यत्व की गरिमा में पुनर्प्रतिष्ठित कर सकती है। संत रज्जब की वाणी एक प्रेरणा, एक चुनौती है और उनका चरित्र एक आदर्श है, जिसे देखकर हम अपनी आत्मछवि सुधारने का प्रयत्न कर सकते हैं।
सन्दर्भ :
- Ardor,
Roberto Calasso, Penguin Random House, United Kingdom, 2015, p. 25
- तैत्तिरीय उपनिषद, शीक्षाध्याय, नवमोऽनुवाकः, प्रथम मन्त्र.
- श्रीमद्भगवद्गीता, 4.7
- हिंदी साहित्य का इतिहास, रामचन्द्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, 2012, पृ. 62
- The
Bhakti Movement : Renaissance or Revivalism, P. Govind Pillai, Routledge,
London, 2023, p. 234
- निर्गुण काव्य दर्शन, सिद्धिनाथ तिवारी, अजंता प्रेस लिमिटेड, पटना, 1953, पृ. 206
- दादूपंथ के शिखर संत, नन्द किशोर पाण्डेय, सामयिक पेपरबैक्स, नई दिल्ली, 2021, पृ. 61
- राघवदास कृत भक्तमाल, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर, 1965, पृ. 185
- हमारे मुस्लिम संत कवि, कृष्ण गोपाल वानखड़े गुरुजी, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1984, पृ. 51
- भारत के महान संत, बलदेव वंशी, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, डिजिटल संस्करण, पृ. 64.
- हमारे मुस्लिम संत कवि, कृष्ण गोपाल वानखड़े गुरुजी, प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, 1984, पृ. 51
- संत रज्जब, नंदकिशोर पाण्डेय, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2014, पृ. 72
- उत्तरी भारत की संत परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020, पृ. 301
- रज्जब बानी, संपादक- व्रजलाल वर्मा, उपमा प्रकाशन, कानपुर, 1963, पृ. 1
- उत्तरी भारत की संत परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020, पृ. 303.
- हिन्दी साहित्य की भूमिका, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016, पृ. 103.
- कठोपनिषद, 2.5, कैलास आश्रम, ऋषिकेश, 2020
- उत्तरी भारत की संत परम्परा, परशुराम चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज, 2020, पृ. 300
- श्रीमद्भागवत, 7/5/23-24
- रज्जब बानी, कबित्त उपदेश का अंग
- शिवमहिम्नस्तोत्र, पुष्पदन्त, गीताप्रेस, गोरखपुर
916777864
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक : अजीत आर्या, गौरव सिंह, श्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
एक टिप्पणी भेजें