कबीर की कविता का ‘देस’ : जाति बरन कुल नाहिं
- डॉ. कृष्ण कुमार सिंह
कबीर यह तन जात है, सकै तो लेहु बहोड़ि।
नागे हाथूँ ते गए, जिनके लाख करोड़ि ॥
कागद केरी नाँव री, पाँणी केरी गंग।
कहै कबीर कैसे तिरूं, पंच कुसंगी संग ॥
कालजयी संत कवि कबीरदास ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सामाजिक जकड़बंदी को तोड़ने की सार्थक कोशिश की। मध्यकालीन भारतीय समाज में व्याप्त अनेक तरह की जकड़बंदियों को लक्ष्य कर विभिन्न लोक भाषाओं में असाधारण रचनात्मक क्षमता से संपन्न अनेक कवि और चिंतक सामने आए थे। कबीर उनके अगुआ थे। वे भक्तिकालीन हिंदी साहित्य के लोकजागरण के अद्वितीय व्यक्तित्व और रचनाकार हैं। ‘मसि कागद’ से दूर रहने वाला कवि कहता है –
पंडित मुल्ला जो लिखि दिया।
छाड़ि चले हम कछु न लिया ॥
ऐसी घोषणा मामूली नहीं। सामान्य कवि के वश की बात तो कतई नहीं। सबको झटककर आगे बढ़ जाने के लिए जो साहस और अक्खड़पन चाहिए, वह कबीर के व्यक्तित्व में कूट-कूटकर भरा था। उपर्युक्त पंक्तियाँ उनके काव्य का प्रस्थान बिंदु हैं और इनको हृदयंगम किए बिना उन्हें समझने का प्रयास बेमानी होगा।
कबीरदास के काव्य में मध्यकाल के सामाजिक जीवन के सत्य की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति हुई है। वे भक्तिकाल के अत्यंत सतर्क-बुद्धि कवि हैं। गहरी संवेदनशीलता से संपन्न उनके सतर्क और जागरूक व्यक्तित्व से निष्पन्न उनका कवि कर्म इस बात का साक्षी है कि उसमें जीवन जगत के तीक्ष्ण पर्यवेक्षण से प्राप्त अनुभूतियों और अनुभवों की विश्वसनीय अभिव्यक्ति हुई है। एक ओर अपने समकालीन सामाजिक स्तर पर उसकी गहरी पकड़ है तो दूसरी ओर अपनी सदाशयता में वे सर्वकालिक बनने की क्षमता से संपन्न है। वे सच्चे अर्थों में कालजयी कवि हैं, जिनकी कविता की चमक न केवल कायम है, बल्कि वर्तमान वैश्विक धरातल पर अपनी सार्थकता के नए – नए आयामों का उद्घाटन कर रही है।
कबीर ने अपने एक पद में कहा है –
कहे कबीर सुनो सखि मोरि,
प्रेम होय सो जाने।
निज प्रीतम की आस नहीं है,
नाहक काजर पारै।
अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसार आज भी ‘नाहक काजर पारै’ की स्थिति से बहुत आगे नहीं बढ़ पाया है। प्रीतम का पता नहीं, उससे परिचय नहीं लेकिन आस लगाए बैठे हैं। ऐसी मिलनेच्छा कितनी निरर्थक है, कहने की जरूरत नहीं। प्रेम के बिना उसे जानने का कोई उपाय नहीं। स्मरणीय है कि प्रेम की महिमा से हिंदी भक्ति साहित्य भरा पड़ा है। तुलसीदास का स्मरण होता है –
रामहि केवल प्रेम पियारा।
जानि लेहु जेइ जाननिहारा ॥
कबीर का दृढ़ विश्वास है कि प्रेमतत्व का अभाव मनुष्य जीवन को नारकीय बना देता है। चाहे वह किसी भी देश-काल का मनुष्य जीवन क्यों न हो। इसका परिणाम हर काल में सामने आता है। ध्यातव्य है कि आज समाज में ‘नाहक काजर’ पारनेवाले तथाकथित महात्माओं और भक्तों की भरमार हो गई है। उनका यह मुहावरा तत्कालीन संदर्भ से आगे आकर आज के सामाजिक-धार्मिक जीवन की एक कड़वी सचाई को व्यक्त करती है। कलह-कोलाहल के अलावा इसका कोई दूसरा परिणाम हो भी क्या सकता है ? नासमझ लड़ें तो बातें कुछ समझ में भी आती हैं। ज्यादातर लड़ते ऐसे लोग पाए जाते हैं जो अपने को ज्ञान मार्ग और साधना मार्ग का अनथक पथिक समझते हैं और विलक्षण होने का दावा करते हैं। ऐसे दावेदार ज्ञानियों-साधकों की असलियत कबीर से ज्यादा कौन जानता है ? एक पद में वे कहते हैं -
जोगी जती तपी संन्यासी, आप आपमें लड़ियाँ।
कहै कबीर सुनो भई साधो, राग लखै सो तरियाँ ॥
‘जोगी जती तपी संन्यासी’ की आपसी कलह तत्कालीन सामान्य जनता के बीच कैसा संदेश देती होगी, अनुमान लगाया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि मध्यकाल में योगमत बहुत प्रभावशाली था। वैष्णव मत के प्रचार प्रसार से पहले समस्त उत्तर भारत में शैव मत की प्रबलता रही है। उससे जुड़े योगियों की जनता के बीच अच्छी-ख़ासी प्रतिष्ठा थी। तरह-तरह के चमत्कारों से वे जनता को अपने मोहपाश में बांध लेते थे। उनके यहाँ ईश्वर के प्रति सच्चे भाव के लिए कोई जगह नहीं थी। ‘गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग’ – इस उक्ति का मर्म इसी पृष्ठभूमि में समझा जा सकता है। ऐसे परिवेश में लोकधर्म की प्रतिष्ठा का संकल्प लेकर सामने आए कबीरदास जैसे जागरूक संत और कवि के निशाने पर योगियों का आ जाना अत्यंत स्वाभाविक है। बाह्याडंबरों से घिरे योगियों और संन्यासियों की वास्तविकता से उनका गहरा परिचय था, वे उनकी लोकविमुख भूमिका से भली-भाँति परिचित थे। इसलिए वे जमकर उनसे लोहा लेते हैं, उन पर करारी चोट करते हैं और जनसामान्य को ऐसे तथाकथित महात्माओं से बचने की सलाह देते हैं। हृदय में प्रेमतत्व का अभाव होने के कारण ऐसे लोग स्वयं भ्रमित हैं और भोले-भाले लोगों को भी भरमा रहे हैं। इसी विश्वास के बल पर कबीर उनकी जमकर खबर लेते हैं। उनका दृढ़ मत है कि समाज-जीवन राग से ही चल सकता है, विराग से नहीं। स्मरणीय है कि कबीर स्वयं गृहस्थ थे और गृहस्थी में आनंद पाते थे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि तथाकथित संसारत्यागी महात्मा कौन हैं और उनके माहात्म्य का राज क्या है। एक पद में वे कहते हैं -
अन्नहि छाड़ि एक पीवहिं दूध।
हरी न मिलै बिन हिरदै सूध ॥
अन्नत्यागी और दुग्धग्राही संन्यासियों की कमी न मध्यकालीन समाज में थी, न आज है। ऐसे लोग वस्तुतः एक तरह से सुविधाभोगी बने रहते हैं। अपनी तथाकथित सिद्धि के अहंकार में कैद ये महात्मा अन्य लोगों को मोक्ष का मार्ग दिखते घूमते हैं। ऐसे वेशधारी योगियों और संन्यासियों की कलई खोलते हुए कबीर कहते हैं -
जोजन एक परिमित नहिं जानै।
बातनि ही बैकुंठ बखानै ॥
जब लग मन बैकुंठ का आसा।
तब लग नहिं हरि चरन निवासा ॥
तत्कालीन समाज में, योगियों, वैरागियों और संन्यासियों की प्रतिगामी भूमिका के कारण ही कबीर उनके प्रति कठोर हैं। अवसर मिलते ही वे उन पर आक्रमण करते हैं। योगियों पर तीव्र प्रहार देखें –
मन ना रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा
आसन मारि मंदिर में बैठे
ब्रह्म छाँड़ि पूजन लागे पथरा ॥
कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले
दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गेलै बकरा।
जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले
काम जराय जोगी होय गेलै हिजरा ॥
जीवन-जगत से मुँह मोड़कर साधना-सिद्धि के मार्ग पर जानेवाले ‘जोगी जती तपी संन्यासी’ को वह कवि किसी भी सूरत में कैसे बर्दाश्त करता जो स्पष्ट रूप से घोषणा करता है -
अवधू भूले को घर लावै।
सो जन हमको भावै ॥
घर में जोग भोग घर में ही
घर तज बन नहीं जावै ॥
घर में युक्त, मुक्त घर में ही
जो गुरु अलख लखावै ॥
समाज-जीवन से दूर जाकर जंगल में धूनी रमाने वाले योगियों की हैसियत दढ़ियल बकरे से अधिक नहीं। कबीरदास का आक्रोश आकस्मिक नहीं, उसके गहरे सामाजिक कारण हैं। जीवन के प्रति कबीर का दृष्टिकोण कितना संतुलित और व्यावहारिक है, यह एकदम स्पष्ट है।
एक अन्य पद में कबीर कहते हैं -
का नांगे का बांधे चाम।
जौ नहीं चीन्हसि आतम राम ॥
नांगे फिरै जोग जे होई।
वन का मृग मुकुति गया कोई ॥
मूँड़ मुड़ायें जौ सिधि होई।
स्वर्ग ही भेड़ न पहुँची कोई ॥
व्यंद राखि जे खेलै है भाई।
तौ खुसरै कौंण परँम गति पाई ॥
दूसरों को भरमाने में लगे ऐसे योगियों और संन्यासियों को अपनी साधना और ज्ञान का बहुत अहंकार होता है। आत्म तत्व से पूरी तरह अपरिचित ऐसे महात्माओं को कबीर जरा भी छूट देने को तैयार नहीं हैं। उनकी राय में वे स्वयं मरणशील हैं, क्योंकि उन्हें राम नाम की महिमा का बोध नहीं है और इसी कारण वे बाहरी विधानों-कर्मकांडों में ही उलझकर रह गए हैं। उनके शब्दों में –
जोगी तजी तपी संन्यासी बहु तीरथ भ्रमना।
लुंजित मुंजित मौनि जटा धरि अंत तऊ मरना ॥
ताते सेविए ले रामना।
कबीरदास की रचनाओं में अपने आराध्य के प्रति अपूर्व समर्पण-भाव बराबर मिलता है। गहरी आस्था, विश्वास और प्रेम में पगा ऐसा समर्पण उच्चकोटि के भक्त का लक्षण है। गौरतलब है कि उनके यहाँ जिन चीजों पर सबसे अधिक प्रहार मिलता है, उनमें अहंकार एक है। वे अहंकार को जीवन की सर्वाधिक विनाशकारी चीज मानते हैं। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि अहंकार का गहरा संबंध व्यक्ति की सामाजिक-आर्थिक स्थिति से होता है। इन दोनों स्तरों पर जो लोग गए-बीते हैं, उन्हें किस बात का अहंकार होगा ? कहने की आवश्यकता नहीं कि यदि कबीरदास ने अहंकार पर सबसे अधिक चोट की है, तो उनके निशाने पर कौन लोग और कैसी शक्तियाँ रही हैं। अपने एक पद में उन्होंने मदांध लोगों की छोटी-सी सूची प्रस्तुत की है। उनके शब्दों में –
सब मदमाते कोई न जाग, ताथे संग ही चोर घर मुसन लाग ॥
पंडित माते पढ़ि पुरान, जोगी माते धरि धियान ॥
संन्यासी माते अहंमेव, तपा जु माते तप के भेव ॥
यह अहंकार अज्ञानता का परिणाम है। इसी अज्ञानता के तमस को दूर करने की चिंता मध्यकाल के सभी संत कवियों की सबसे बड़ी चिंता है। उस युग के अग्रणी कवि कबीर सही जगह पर उंगली रखते हैं और सबको अपने ढंग से चेतावनी देते हैं। उन्हें पता है कि यह कवि का दायित्व है। स्मरण रखना चाहिए कि कबीर मध्यकाल के सर्वाधिक संवादधर्मी कवि हैं। उनका सारा काव्य मानव-समाज के साथ गंभीर संवाद की विराट् चेष्टा का काव्य है। जीवन का कोई प्रसंग, कोई मामला हो, वे हमेशा संवाद के लिए तैयार रहते हैं। साधो, संत, भाई, अवधू सब इस दायरे के अंदर आते हैं। विचारणीय है कि संवाद की जरूरत क्यों पड़ती है। जो कवि मानता है कि –
पार ब्रह्म के तेज का कैसा है उनवान
कहिबे को सोभा नहीं, देख्या ही परमान
वह क्यों बेचैन है लोगों को इतना कुछ बताने के लिए ? यह स्वाभाविक सवाल है। इसका उत्तर तलाशा जाना चाहिए – यह जानते हुए भी कि ऐसे सवालों के जवाब स्याह-सफेद रेखाएँ खींचकर नहीं दिए जा सकते हैं।
कवि कबीरदास की समस्याएँ व्यापक जन समुदाय की समस्याएँ हैं, उनके समय के मामूली लोगों की चिंताएँ हैं। व्यक्तिगत स्तर पर उनके यहाँ खाने-पहनने की कोई चिंता नहीं मिलती है। सामान्य गृहस्थ का जीवन जीनेवाले कवि की जीविका झीनी चदरिया तैयार कर और बेचकर चल जाती थी। इससे अधिक की न उन्हें आवश्यकता थी, न चाह। उनकी समस्या उस व्यक्ति की समस्या थी, जिसके पास दोनों शाम भोजन का ठिकाना नहीं था। ऐसी स्थिति में अगर उन्हें आराध्य से शिकायत भी करनी पड़े, तो कोई हर्ज नहीं। वे बेहिचक कहते हैं –
माधो कैसी बनी तुम संगे
आपि न देहु न लेवउ मंगे ॥
दुइ सेर मांगउ चूना।
पाउ घीउ संग लूना ॥
अध सेर मांगउ दाले।
मोकउ दोनउ बखत जिवाले ॥
खाट मांगउ चउपाइ।
सिरहाना अवर तुलाइ ॥
उपर कउ मांगउ खीधा।
तेरी भगति करै जनु बिधा ॥
जीवनरक्षा के लिए अनिवार्य वस्तुओं की माँग कितनी जायज है ! आटा, दाल, नमक, चटाई, कम्बल आदि रोजमर्रा की जरूरतों की पूर्ति की चिंता अत्यंत मानवीय चिंता है। अपने आस-पास के सामाजिक जीवन से जुड़ी ऐसी चिंता कबीरदास के साथ-साथ भक्तिकाल के अन्य महत्वपूर्ण कवियों की रचनाओं में भी बराबर अभिव्यक्त हुई है। स्पष्ट है कि भक्तिकालीन लोकजागरण कबीरदास जैसे महान समाजचेता कवियों के कवि-कर्म से संभव हुआ है।
कबीर को तत्कालीन समाज के वर्गों की समझ है और गहरी समझ है। उनकी रचनाओं से गुजरते हुए बार-बार हमारा ध्यान इसकी ओर आकृष्ट होता है। हम जानते हैं कि सभी संत कवि निम्न वर्ग से आये हैं। वे सामान्य जनता से, उनके कष्टों से, उसकी समस्याओं से पूरी तरह से जुड़े हुए हैं। ऐसी स्थिति में जन जीवन से अत्यंत गहराई और आत्मीयता से जुड़े हुए संत कवियों के काव्य में यदि वर्गों की चर्चा न रहती, तो यह एक अस्वाभाविक बात होती। संत कबीर के शब्दों में -
कुँभरा एक कमाई माटी, बहु बिधि जुगति बणाई।
एकनि मैं मुकताहल मोती, एकनि ब्याधि लगाई ॥
एकनि दीना पाट पटम्बर, एकनि सेज निवारा।
एकनि दीना गरै गूदरी, एकनि सेज पयारा ॥
एक तरफ मुक्ताहल मोती तो दूसरी तरफ व्याधि अर्थात् दुख, तकलीफ; एक ओर पाट-पटम्बर और पलंग की सेज तो दूसरी ओर गरी-गूदरी और ‘सेज पयारा’ अर्थात् पुआल का बिछौना। कबीर दोनों वर्गों को आमने सामने खड़ा करके ‘कंट्रास्ट’ की सृष्टि करते हैं। एक वर्ग मोती धारण करने वाला है, रेशमी वस्त्र धारण करने वाला है, गद्देदार पलंग पर सुख की नींद सोने वाला है, तो दूसरा कष्टों का घर है, फटे-चिटे कपड़े लपेटने वाला है। प्रसंगात् इस बात की चर्चा अपेक्षित है कि मध्यकाल में उच्च वर्ग कैसे कपड़ों का इस्तेमाल करता था तथा उनमें रेशम की क्या स्थिति थी। प्रख्यात इतिहासकार मोरलैण्ड ने अकबर के युग के बारे में लिखा है कि उस समय सबसे अधिक महंगा रेशम था, उसके बाद ऊनी और सूती कपड़े आते थे। अन्यत्र मोरलैण्ड रेशम को ‘विलास की वस्तु’ कहते हैं। स्पष्ट है कि रेशम का प्रयोग उच्च वर्ग अर्थात् सामंत वर्ग ही करता था, निम्न वर्ग उसकी बात सोच भी नहीं सकता था। इसी तरह पलंग भी उच्च वर्ग के पास ही होता था। इसके विपरीत निम्न वर्ग के पास आवश्यक कपड़े भी नहीं होते थे। वे लंगोटा, लुंगी आदि पहनते थे। यहाँ तक कि स्त्रियाँ जो साड़ी पहनती थीं, उसी को उनके शरीर के ऊपरी भाग को ढँकने के लिए पर्याप्त माना जाता था। इसके अतिरिक्त अधिक की आशा उन्हें नहीं रहती थी, उसे पूरा करने के लिए साधन उनके पास नहीं होता था। स्पष्ट है कि वैसी हालत में वे गरी गूदरी पहनते ही थे। इस प्रकार, कबीर की पूर्वोक्त पंक्तियाँ इस बात का ठोस प्रमाण प्रस्तुत करती हैं कि उन्हें दोनों वर्गों की बिल्कुल स्पष्ट समझ है। अन्यत्र कबीर कहते हैं –
तहाँ जाहु जहाँ पाट पटम्बर, अगर चन्दन घसि लीनाँ।
आइ हमारे कहाँ करौगी, हम तौ जाति कमीनाँ ॥
यहाँ कवि माया को संबोधित करके उसे ‘पाट पटम्बर’ धारण करने वाले तथा अगर चन्दन का लेप करने वाले लोगों के पास जाने की सलाह दे रहा है। स्पष्ट है कि ऐसे के लिए तो सबसे उपयुक्त जगह वही है। वहाँ उसे फलने-फूलने की पूरी गुंजाइश है। वैसे संपन्न लोगों के ठीक विपरीत स्थिति में हैं कमीनी जातियाँ – ‘हम तौ जाति कमीनाँ’। कमीनी जातियों के पास माया के लिए जगह कहाँ हैं ? वस्तुतः तत्कालीन समाज में कमीनी जातियाँ सबसे अधम मानी जाती थीं – सामाजिक, आर्थिक , धार्मिक सभी दृष्टियों से। वे उत्पादक जातियाँ थीं, शारीरिक श्रम करने वाली। ‘कमीना’ शब्द से कहीं-न-कहीं इस बात का संकेत मिलता ही है। यह निम्न वर्ग का सूचक है। ध्यातव्य है कि कबीरदास पाट-पटम्बर धारी लोगों के संदर्भ में ‘अगर चंदन’ की बात करते हैं। वस्तुतः पाट पटम्बर धारी लोग ही ‘अगर चंदन’ भी लगाते हैं, जो निश्चय ही, कीमती होता था। ‘अगर चंदन’ का लेप वस्तुतः बाह्य विधानों के अंतर्गत आता है और कबीर की दृष्टि में इसका भक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। भक्ति के लिए इन बाह्य विधानों की कोई जरूरत नहीं होती। कबीर का संकेत स्पष्ट है कि जो वर्ग आर्थिक दृष्टि से समृद्ध है, वही ‘अगर चंदन’ का लेप करता है। ऐसा कर वह स्वयं को गौरवशाली तथा अन्य को हीनतर मानता है।
कबीरदास को अपने समकालीन समाज का गहरा ज्ञान था। उसे उन्होंने अपनी पैनी निगाह से देखा ही नहीं, उसकी धड़कनों को सुना भी था। अपनी आँखों से देखना और अपने कानों से सुनना जैसे मुहावरे अपनी अर्थवत्ता इसी संदर्भ में हासिल करते हैं। ‘आँखिन देखी’ पर विश्वास करने वाले कवि ने अपनी रचना में ऐसे मार्मिक तथ्यों का उल्लेख किया है कि उन्हें नकारना किसी के वश की बात नहीं। एक जगह वे कहते हैं –
को है लरिका बेचई, लरिकी बेचई कोइ।
साँझा करै कबीर सिउ हरिसंगि बनजु करेइ ॥
मध्यकाल में अपनी दयनीय हालत से परेशान होकर संतान को बेच देने की बात इतिहास से प्रमाणित है। जीवित रहने की इतनी बड़ी कीमत चुकनी पड़े, यह बात दहशत पैदा करती है। कबीर की रचना में आकर यह तथ्य कितना मार्मिक प्रभाव उत्पन्न करता है, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। कबीर जिस युग में थे, वह गहरे आर्थिक वैषम्य का युग था। एक ओर कनक कामिनी से सुशोभित ऊँचे-ऊँचे महल और दूसरी ओर ऐसा दारुण यथार्थ किसी भी सहृदय व्यक्ति को दहला सकता है। कबीर ने अपनी गहरी संवेदना के धरातल पर ऐसे सामाजिक सत्य का साक्षात्कार कर और उसे प्रामाणिक रूप में उपस्थित कर अपने कवि-कर्म को विश्वसनीय बना दिया है।
कबीरदास का काव्य यथार्थ और आदर्श दोनों को अपने साथ बराबर लेकर चलता है। अपनी बाँह के बल पर भरोसा रखने वाला और जीवन के संघर्ष-पथ पर सहज भाव से आगे बढ़ाने में विश्वास करने वाला कवि अच्छी तरह से जनता है कि उसे जाना कहाँ है। जयशंकर प्रसाद के शब्दों में “पहुँचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं।” कवि ‘बेहद्दी मैदान’ की बात यों ही नहीं करता है। वह उसको भी छोड़कर आगे बढ़ जाने का हौसला रखता है। उसकी घोषणा है -
हम वासी उस देश के जहां जाति बरन कुल नाहिं।
शब्द मिलावा होइ रहा, देह मिलावा नाहिं ॥
‘जाति, बरन, कुल’ को एक झटके में हटा देना बहुत बड़ी बात है। भारतीय समाज में इनकी ताकत का एहसास कबीर को भली-भाँति है। इसे जाने बिना उनसे लड़ना संभव नहीं होता। हजारों वर्षों से चले आ रहे इन संकीर्ण घेरों में बंद रह जाने वाले लोग दूसरे होंगे, कबीर के आसपास भी ऐसा तत्वों का टिका रहना कठिन है। उनका पूरा जीवन इस बात का अनन्य उदाहरण है। गौरतलब है कि कबीर का काव्य आदर्शहीन नहीं है। भूलना नहीं चाहिए कि आदर्शहीन काव्य दीर्घजीवी नहीं होता। वह काल का ग्रास बनकर जनता की स्मृति से गायब हो जाता है। जिस कवि के पास आदर्श है, वह किसी तरह की विफलता को स्वीकार नहीं कर सकता। प्रेम समन्वित मंगलमय आदर्श से अनुप्राणित कवि शब्द की ताकत को बखूबी जानता है। शब्द ब्रह्म को साधने वाला व्यक्ति ही श्रेष्ठ कवि का दर्जा प्राप्त कर पाता है। उपर्युक्त पंक्तियों में प्रयुक्त पद ‘देह’ भौतिकता का व्यंजक है, जिसके परे जाने की बात कवि अत्यंत विश्वास और सहजता के साथ कर रहा है।
कबीर के काव्य को समझना जितना आसान है, उतना ही कठिन भी। मनुष्य मात्र की एकता का प्रतिपादक उनका काव्य जीवन से गहरे लगाव का काव्य है। स्मरणीय है कि जीवन-जगत की परिस्थितियों के अनुसार मनुष्य के अंदर सामाजिक भावों का जागरण होता है और रचनाकार के दृष्टिकोण के निर्माण में उनकी भूमिका होती है, लेकिन बड़ा रचनाकार इसकी सीमाओं से अच्छी तरह अवगत होता है। इसलिए वह उसमें बँधकर नहीं रह जाता। उनसे बँधा रह जाने वाला लेखन स्थिर जल से भरा तालाब बनकर रह जाता है, निर्मल, वेगवान जलप्रपात बनने की सामर्थ्य उसमें नहीं आ सकती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि सच्चा साहित्य न तो सामयिकता की उपेक्षाकर लिखा जा सकता है और न ही उसमें चिपककर रह सकता है। वह वर्तमान की आँख से अतीत और भविष्य दोनों को अविचल भाव से देखता है। सभी तरह के कर्मकांडों, बाह्य आडंबरों को निर्ममतापूर्वक हटाने के बाद ही कवि को वह दृष्टि मिलती है, जिसके सहारे वह गहरे विश्वास से कह सकता है –
आँख न मूँदों कान न रूँधों, तनिक कष्ट नहिं धारों।
खुले नैन पहिचानौं हँसि-हँसि, सुंदर रूप निहारों ॥
‘खुले नैन’ से देखने का ही परिणाम है कि कवि में ऐसा साहस आ पाता है -
अलह राम का गम नहीं
तहाँ कबीर रहा ल्यौ लाय।
राम को अपना सर्वस्व मानने वाला और राम नाम की महिमा का निरंतर गान करने वाला कवि उससे भी आगे निकाल जाता है, उसकी सीमा का भी अहसास उसे बखूबी है। यह आकस्मिक नहीं है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं – “मस्ती, फक्कड़ाना स्वभाव, संस्कार और सब कुछ को झाड़-फटकार चल देने वाले तेज ने कबीर को हिंदी-साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है। उनकी वाणियों में सबकुछ को छाकर उनका सर्वजयी व्यक्तित्व विराजता रहता है।” ध्यान देने की बात है कि सब कुछ को छोड़-छाड़कर आगे बढ़ जाने वाला व्यक्ति ही सब कुछ पर छा जाता है। कबीरदास भारत के उन गिने-चुने कवियों और मनीषियों में अग्रगण्य हैं जिन्होंने अपनी वाणी और कर्म दोनों में उसे प्रतिष्ठित किया है जो भाषातीत माना जाता है। ‘साधौ, सहज समाधि भली’ का उद्घोष सुदीर्घ साधना का ही सुपरिणाम है। सामाजिक जीवन और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में ऐसा सहज साधक युगों के संचित पुण्य-प्रताप से ही सामने आता है। संत कबीरदास इस बात के ज्वलंत प्रमाण हैं।
बाहरी आडंबर से ग्रस्त धर्म का विरोध करके कबीर ने धर्म के वास्तवविक स्वरूप का प्रचार-प्रसार किया, उस धर्म की प्रतिष्ठा का सार्थक प्रयास किया जिसमें सभी मनुष्य सामाजिक धरातल पर बराबर हैं। किसी तरह के भेदभाव को सिरे से नकार कर कबीर ने सही अर्थों में लोकतांत्रिक समाज का सपना देखा। ऐसे समाज में मनुष्य को आत्मसम्मान और आत्मविश्वास तो प्राप्त होगा ही, एक दूसरे के प्रति विश्वास, सम्मान और प्रेम का भाव भी होगा। सामाजिक स्तर पर तमाम तरह के भेदभाव से ग्रस्त समाज में अपने कर्मों और वचनों से ऐसा संदेश देना एक बड़े कवि के बड़प्पन का परिचायक है। कबीर जैसे जागरूक और कर्मशील संत और कवि की उपस्थिति किसी भी भाषा-समाज के लिए गौरव की बात है। इस अर्थ में हिंदी समाज को यह गौरव सहज ही प्राप्त है
डॉ. कृष्ण कुमार सिंह
प्रोफेसर, हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र 442001
kks5260@gmail.com, 9404354261
प्रोफेसर, हिंदी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र 442001
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चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक : अजीत आर्या, गौरव सिंह, श्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
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