महाराष्ट्र की संत परम्परा अपने दृष्टिकोण तथा आचरण के कारण विश्व में विशिष्ट स्थान पाती है| भक्ति और समाज दोनों पर समान रूप से चिंतन की एक स्वस्थ परम्परा का निर्माण इन्होंने किया| संत ज्ञानेश्वर और नामदेव के समकालीन संतों में संत चोखामेला एक ऐसे ही संत है, जिन्होंने भक्ति और समाज दोनों पर अपनी वाणी से प्रभाव डाला तथा नयी चेतना की ज्योति से समाज के अंधकार को पाटने में महती भूमिका निभाई| भले ही जन्म से वे दलित थे, फिर भी उनके वाणी की पवित्रता, भावों की शुद्धता और विचारों की उच्चता ने जातीय बन्धनों से ऊपर उठाकर उन्हें श्रेष्ठ संतों की सूचि में शामिल किया| उनको आराध्य विट्ठल के दर्शन से भी अनेक बार रोका गया| वे हमेशा कहते थे, ‘बार बार कितनी लगाऊँ गुहार’| अपनी जाति को लेकर भी वे सीधा विट्ठल से सवाल करते थे| दर्शन न होने पर भी उन्होंने विट्ठल की उपासना को त्यागा नहीं| वे उस ‘दयानिधि’ और ‘कृपासिन्धु’ विट्ठल की सगुण साकार आराधना में ही लीन रहे| प्रगाढ़ विट्ठल भक्ति और स्वयं पर के विश्वास ने उन्हें डिगाया नहीं, उनकी वाणी इसी का प्रमाण है|
जन्म और जन्म स्थान
उनकी जन्म तिथि को लेकर कोई प्रमाणिक मत प्राप्त नहीं है| उस कारण कोई प्रमाणिक तिथि प्राप्त नहीं है| उनके जन्म स्थान को लेकर कई मतमतांतर है| जैसे पहले मत के अनुसार उनका जन्म महाराष्ट्र के विदर्भ प्रान्त के बुलडाणा जिला तहसील देऊळगाव राजा के मेहुणा या मेहुणपुरी ग्राम में हुआ| संत महीपति के अनुसार उनका जन्म पंढरपुर में हुआ था| उनके विदर्भ प्रान्त के जन्म को मानने का चलन अधिक है| विट्ठल भक्ति के कारण वे मंगलवेढ़ा आकर बसें|
नाम
चोखामेला के जन्म को लेकर एक किवदंती प्रचलित है कि एक बार येसकर की पत्नी आम की टोकरी लेकर जा रही थी, तो रास्ते में एक ब्राह्मण ने भूख के कारण खाने के लिए कुछ माँगा, तब उसने एक आम उसे दिया| आम की डाली जिसके पास जानी थी, वहाँ पहुँचने पर 124 आम थे, उसमें एक आम नहीं था| तब स्त्री ने बताया की ब्राह्मण ने आम चखा और खट्टा होने के कारण वापिस किया, जिसे मैंने अपनी ओट में छिपाया है, सभी उसकी पेट की ओर देखते है तो क्या, एक शिशु दिखाई देता है| वे ही चोखामेला है| चखना को मराठी में ‘चोखणे’कहते हैं, इस आधार पर जो चखने और मैले अर्थात ‘अपवित्र’ होने से जन्मा वह ‘चोखामेला’| उससे परे भी उनके माता- पीता होने को भी स्वीकार किया गया है| उनके नाम के सन्दर्भ में एक दूसरा मत भी है कि ‘चोखा’ का अर्थ ‘पवित्र’ और मेला का अर्थ ‘मैला’ या ‘अपवित्र’ अर्थात अपवित्र से पवित्र तक की यात्रा| दूसरा अर्थ आध्यात्मिक तथा दर्शन की दृष्टि से अधिक सार्थक प्रतीत होता है| उनका समस्त जीवन दूसरे अर्थ के अनुरूप रहा|
व्यक्तिगत जीवन, जाति और परिवार
संत चोखामेला जाति से दलित थे , वे महार जाति से थे । अपने अभंग में उन्होंने आत्मनिवेदन दिया है -
“ शुद्ध चोखामेळा । करी नामाचा सोहळा ॥१॥
यातीहीन मी महार । पूर्वी निळाचा अवतार ॥२॥
कृष्णनिंदा घडली होती । म्हणोनि महार जन्म प्राप्ती ॥३॥
चोखा म्हणे विटाळ । आम्हां पूर्वींचें हें फळ ॥४॥” 1
मैं महार जाति में जन्मा हूं और कृष्ण की निंदा के परिणाम स्वरुप मेरा जन्म निचली जाति में हुआ है, ऐसा कहकर वे निचली जाति में अपने पूर्व कर्म के कारण जन्मे होने को भी स्पष्ट करते हैं| स्वयं को दीन और आराध्य को परम मानने की संतों की विशेषता के कारण ही चोखा महार जाति में अपने जन्म को पूर्व जन्म का ‘विटाळ’ अर्थात् पाप स्वीकारते हैं| इस आत्मस्वीकृति में किसी सिद्धान्त की अपेक्षा दास्य भक्ति का बोध अधिक है|
उनका परिवार पत्नी- सोयराबाई (मराठी की ख्यात संत), बहन निर्मला, बेटा कर्ममेला (संत) तथा साला बंका(संत) इसप्रकार है | इनके परिवार के अनेक सदस्य संत परम्परा के निर्वाहक रहे, जैसे की महाराष्ट्र के परिवारों में वारकरी परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है|
चोखामेला के पिता का नाम खंडोबा और माता का सावित्रीबाई था । जिन्हें मंगलवेढ़ा के निवासी माना जाता है । इसी के साथ सुदामा येसकर को उनके पीता माननेवाला एक वर्ग है| अर्थात उनके माता–पिता और जन्म तिथि को लेकर विवाद है , लेकिन व्यक्ति के जन्म और स्थान से अधिक उसके कार्य और साधना का महत्त्व कई अधिक महत्त्वपूर्ण होता है, इस आधार पर चोखामेला दलित संत या कवि न होकर मानव धर्म के ‘वारकरी- ध्वजा’ के प्रहरी है|
अपने जीवन के सूत्र वे अनुभूति के पक्ष के रूप में अपने अभंगों में दर्ज कराते हैं| पंढरपुर का सामाजिक परिवेश और ईश्वर भक्ति पर लगायी जाती पाबंदियों के साथ - साथ ईश्वर को निजी सम्पति मानकर भक्तों पर किये जाते अन्याय को अपने अनुभव के हवाले से कहते हैं –
“धांव घाली विठु आतां चालुं नको मंद । मज मारिती बडवे कांहीतरी अपराध ॥1॥
विठोबाचा हार तुझ्या कंठी कैसा आला । शिव्या देऊनी मारा म्हणती देव कां बाटला ॥2॥
तुमचे दारीचा कुतरा नका मोकलूं दातारा । अहो चक्रपाणी तुम्ही आहां जीमेदारा ॥3॥
कर जोडोनी चोखा विनवितो देवा । बोलिलो उत्तर याचा राग नसावा ॥4॥” 2
आपकी सेवा हमारे हाथों से कैसी संपन्न हुई , इसे अपराध मानकर ‘बडवे’ जिन्हें विट्ठल सेवा का अधिकार इस समय प्राप्त था, उन्होंने मुझे पीटा है और गाली-गलौज भी कर रहे हैं| मुझे बचाने जल्द आवें| और चोखा विट्ठल को उलाहना भी दे रहे हैं कि आप इस संकट में मुझे अकेला छोड़ें हैं| प्रस्तुत अभंग में चोखा ‘बडवों’ के धार्मिक आतंक को स्पष्ट करते हैं| स्पष्ट है कि विट्टल की भक्ति पर किन्हीं सामाजिक वर्गों का आधिपत्य था, जिसकारण समस्त अन्य जातियां ईश्वर-भक्ति के विकल्पों को स्थापित कर रही थी| वारकरी संप्रदाय की यहीं विशेषता भी रही|
अपने जीवन की यातनाओं को भी वे वाणी देते हैं-
“ काय हें दु:ख किती ह्या यातना । सोडवी नारायणा यांतोनियां ॥1॥
जन्मावें मरावें हेंचि भरोवरी । चौर्यांशीची फेरी भोगाभोग ॥2॥ ” 3
जीवन की पीडाएं व्यक्तिगत भी है और मनुष्य जीवन के भोग के रूप में पारमार्थिक भी है| व्यक्तिगत पीडाएं सामाजिक दंश और नकार की रही, वहीं पारमार्थिक के रूप में जन्म-मरण के फेर की| इसीलिए वे अपने विट्ठल से बार-बार निवेदन करते हैं की मुक्ति प्रदान करें| एक प्रकार से सामाजिक और धार्मिक आडम्बर से मुक्ति की पुकार भी यहाँ ध्वनित है|
चोखा अपने व्यक्तिगत जीवन में बडवों से ही पीड़ित थे ऐसा नहीं; बल्कि उस समय की सामाजिकी भी तटबंद थी| जिसका सामना हर संत हो करना पड़ा| समाज तथा धर्म के तथाकथित ठेकेदारों ने चोखा पर भी निर्बंध लगाये| इसी भाव की अभिव्यक्ति करते हुए चोखा कहते हैं-
“कर्मातें वाळिलें धर्मातें वाळिलें । सर्व हारपलें जेथिचें तेथें ॥१॥
विधीतें वाळिलें निषेधा गिळिलें । सर्व हारपले जेथिंचें तेथें ॥२॥
वेदातें वाळीलें । शास्त्रातें वाळीलें । सर्व हारपलें जेथिचें तेथें ॥३॥
चोखा म्हणे माझा संदेह फिटला । देहीच भेटला एव आम्हां ॥४॥ ” 4
चोखा का कहना है कि उच्च वर्ण कर्म, धर्म, वेद, शास्त्र आदि में अन्य जातियों के दखल को अमान्य करता है| हम उनके लिए ‘विटाळ’ है| अर्थात् हमें उन सब में नकारा गया है| अत: हमारी कोई सामाजिक मान्यता नहीं हैं, हम समाज और धर्म आदि से कटे हैं| चोखा इन सब को स्वयं अनुभव कर रहे थे, इसीलिए वे इन सब का मुखर विरोध भी अपने वाणी में करते हैं| चोखा ईश्वर के प्रति अनन्य थे; किन्तु सामाजिक संरचना उनके प्रतिकूल थी| इसी प्रतिकूलता ने उन्हें नई संरचना गढ़ने के सूत्र उन्हें प्रदान किये| उस नई सामाजिक संरचना और दृष्टि को चोखा की रचनाओं में आधुनिक विचारक प्रेरणा के रूप में पाते हैं|
गुरु
उनके गुरु संत नामदेव थे| स्वयं चोखामेला अपने अभंग में कहते हैं –
“धन्य धन्य नामदेवा| केला उपकार जीवा||
माझा निरसिला भेवो| दाखविला पंढरीरावो||” 5
भागवत धर्म में नामदेव जी के आशीर्वाद से भय और दुःख से दूर श्रद्धामय शांति की खोज वे कर सके| इसी उपकार का वर्णन उपर्युक्त पंक्तियाँ स्पष्ट कराती है| इसप्रकार की स्वीकारोक्ति से विवाद उत्पन्न नहीं होता कि उनके गुरु कौन थे|
एक दूसरा उदाहरण भी देखें-
“माझे सुख माज दाखविले| पावन केले तीहिं लोकी||
नवलाव झाला नवलाव झाला| हृदयिच दाविला देव माझा||
निवारोनी भावताप| दाविले रूप प्रत्यक्ष||
चोखा म्हणे नामदेवा| चुकविला हेवा जन्म मरण||” 6
मेरी अपवित्रता और भय और ताप का हरण तथा हिय में इश्वर का दर्शन मुझे नामदेव के कारण हुआ अर्थात् वे ही मेरे गुरु है| उन्होंने अपने गुरु को माता रूप में स्वीकारा था| मनुष्य जन्म- मरण के 84 लाख योनियों के फेर से गुरु के कारण ही मुक्ति प्राप्त कर सकता है, इस धारणा को वे स्वीकारते थे और गुरु को उस मुक्ति का आधार मानते थे| नामदेव के आशीर्वचनों को अपने चिंतन का केंद्र वे मानते थे | संत नामदेव ने भव, भय और संशय से रिक्त मन चोखा को प्रदान किया, जिसमें विट्ठल का नाम जाप अनहद की तरह गूंजता रहा|
चोखामेला अपने गुरु की महिमा का गान गाते हुए कहते हैं -
“भाकसमुद्रीं भरियेलीं केणें । आणियेलें नाणें द्वारकेचें ॥1॥
बाराही मार्गाची वणीज्ज करी । पंढर हे पुरी नामदेव ॥2॥
चोखा म्हणे लोटांगणीं जाऊं । नामदेव पाहूं केशवाचा ॥3॥” 7
अपने वचन में वे पंढरपुर के नामदेव के कारण ही केशव अर्थात् अपने इष्ट के दर्शन होने को स्वीकारते हैं । चोखा का यह दर्शन देह रूप का न होकर अदेह था । यहाँ वे सगुण नहीं बल्कि निर्गुण ईश्वर प्राप्ति को भी इस पद में स्वीकारते हैं| इसीलिए वे पहले अपने गुरु को दंडवत प्रणाम करेंगे, यह भाव ‘चोखा म्हणे लोटांगणीं जाऊं’ में ध्वनित है ।
चोखा का साहित्य
‘तुका म्हणे तुम्ही विचाराचे ग्रन्थ| तारिले पतित तेने किती||’ यह पंक्ति संत तुकाराम ने चोखोबा के प्रति कही थी| जिसमें वे कहते हैं की चोखा हमारे लिए पतित उद्धार का पवित्र- विचार ग्रन्थ अर्थात् ‘वैचारिक आधार’ है| यहाँ स्पष्ट है की तुकाराम चोखोबा को वारकरी संप्रदाय के सामाजिक चिंतन का मूल आधार और आत्मा स्वीकारते हैं| वे मात्र संतों के लिए नहीं अतएव महाराष्ट्र तथा अनंतर भारतीय नवजागरण के लिए वैचारिक आधार सिद्ध होते हैं|
संत चोखामेला अक्षर ज्ञान से शून्य थे, लेकिन जीवन और समाज ने उन्हें समृद्ध किया था| उनकी वाणी अनुभव की नींव पर खड़ी थी| उनके वर्तमान में केवल 349 अभंग ही प्राप्त होते हैं| जो मंगलवेढ़ा के निवासी अनंत भट के कारण उपलब्ध हुए है| उन्होंने ही उनके अभंगों का लेखन किया और संरक्षण भी|
रवींद्र गोळे, सिद्धराम पाटील आदियों ने चोखामेला पर मराठी में गंभीर अनुसन्धान किया है| पुना में 27 जुलाई, 2018 को विधिवत रूप से एक अनुसन्धान केंद्र भी आरम्भ किया गया है| जिसमें ‘चोखोबा से तुकोबा’ शीर्षक से कार्य जारी है|
संत चोखा पर लिखी कुछ विशेष पुस्तकें : अरुणा ढेरे – ‘महाद्वार’ उनके जीवन पर लिखा उपन्यास, ‘चोखोबाचा विद्रोह’ - शंकरराव खरात, ‘श्री संत चोखामेळा : समग्र अभंगगाथा व चरित्र’ - प्राचार्य डॉ. आप्पासाहेब पुजारी|
सगुण-निर्गुण
वारकरी संप्रदाय में विट्ठल के सगुण-साकार रूप की भक्ति की जाती है| विट्ठल पुंडलिक नामक भक्त के दुःख परिमार्जन हेतु कर्णाटक से पंढरपुर आये और अट्ठाईस युगों से ईंट पर खड़े हैं| भक्तों के लिए विट्ठल का ईश्वर के रूप में यह त्याग और समर्पण ही वारकरी संप्रदाय महती विशेषता है| अतः वारकरी संत परम्परा में सगुण विट्ठल की आराधना प्रति एकादशी विशेष होती है| प्रति दिन संध्या समय मंदिरों में ‘हरी-पाठ’होता है|
चोखा निर्गुण विट्ठल के सगुण रूप में प्रकट होने की बात कहते हैं- “निर्गुण होतें तें सगुण पैं झालें । विसरोनी गेलें आपआपणा ॥3॥”8 अर्थात् चोखा की धारणा है कि विट्ठल निर्गुण रूप में ही थे, लेकिन वे सगुण रूप अर्थात अवतार रूप में आये, अपने अनन्य भक्तों के लिए और अपने मूल रूप को ही भूल गए | चोखोबा की इस धारणा से यह तथ्य सामने आता है की संतों ने इष्ट के निर्गुण रूप को भी अपने ज्ञान चक्षु के देखा था, नहीं तो चोखा निर्गुण से सगुण होने की बात क्यों कहते| यहाँ वारकरी मत शंकराचार्य के निर्गुण के सगुण प्रकटन के मत से सहमत होते या जुड़ते दिखते हैं|
सगुण की आराधना का आधार सदेह होना है और साकार रूप का महिमामंडन तथा रूप सौन्दर्य वर्णन करके अपने प्रिय का स्मरण भक्त करता है| वारकरी संप्रदाय में वारी, पंढरपुर और विट्ठल तथा रुक्मिणी का वर्णन प्रखर रूप से होता हम देख सकते हैं| यथा विट्ठल के सगुण रूप का वर्णन चोखा की वाणी में –
“आपुलिया सुखा आपणचि आला । उगलाचि ठेला विटेवरी ॥1॥
तें हें सगुण रूप चतुर्भुज मूर्ति । शंख चक्र हातीं गदा पद्म ॥2॥
किरीट कुंडलें वैजयंती माळा । कांसे सोनसळा तेज फाके ॥3॥
चोखा म्हणे सर्व सुखाचें आगर । रूप मनोहर गोजिरें तें ॥4॥”9
अपने सुख की प्राप्ति के लिए विट्ठल ईंट पर उगा| भक्त का दुःख मार्जन ही विट्ठल का सुख हैं| उसके चार हाथ है और उनमें शंख, चक्र, गदा और पद्म है|सिर पर किरीट और गले में तुलसी की माला शोभायमान है| पीत रंग की धोती और सोने की सांकल कटी में पहनी है| इस मनोहारी रूप को वे सब सुखों का आगर यानी स्थली मानते हैं| इसप्रकार के अनेक अभंग चोखा ने गाये है|
लेकिन जब समाज और धर्म क्षेत्र के स्थापितों ने मंदिर -प्रवेश और ईश्वर के दर्शन का अधिकार नकारा तब चोखा विट्ठल की निर्गुण अवस्था को अपनाने लगे “आकार तितुका नासे । निराकार विठ्ठल दिसे ॥3॥”10 जिस रूप में विट्ठल प्रथम दृष्टि में दिखाई देते हैं, वे उतने या वे वही है मानना मिथ्या है; बल्कि वे निराकार होकर सम्पूर्ण विश्व में समाते हैं , यह इन पक्तियों का भाव है| चोखा को जब विट्ठल दर्शन से नकारा गया तब वे अपने साध्य को व्यापक रूप में देखने लगे| संतों की यह दृष्टि सकारात्मक तो थी ही साथ ही साथ उन सब नकारे गए लोगों के लिए नए मार्ग का संधान भी थी |
फिर अपने निर्गुण को परिभाषित करते हुए चोखोबा ने अनेक अभंग रचे तथा अपने निर्गुण निराकार की साधना में लीन हुए| यह निराकार ईश्वर उनकी पहुँच में था, किन्हीं बडवों के हाथ बंदी नहीं| वे ऐसे विट्ठल का वर्णन करते हैं –
“देवा नाहीं रूप देवा नाहीं नाम । देव हा निष्काम सर्वांठाई ॥1॥
निर्गुणीं सगुण सगुणीं निर्गुण । दोहींचें कारण तेच ठाई ॥2॥
चोखा म्हणे पाहतां पाहणें लपावे । ह्रदयीं बिंबले ह्रदयचि ॥3॥ ”11
न वे नाम धारण करते हैं, न देह| वे निष्काम हैं| निर्गुण भी और सगुण भी| वे कहते हैं कि देखे तो न दिखे और देखना चाहे तो अपने अंतर में ही देखे| अर्थात् निर्गुण का गुण ह्रदय में वास करता है और उसे केवल अंतर्दृष्टि से देखा जा सकता है| सगुण के साथ निर्गुण की यह मान्यता आगे चलकर अखिल भारत में प्रचारित एवं प्रसारित होती दिखाई देती है|
ऐसे विट्ठल जो दयालु और करूणानिधि है, वे जगत में व्याप्त है| संतों ने इसीलिए सृष्टि के कण कण में ईश्वर की स्थापना होने के तर्क को माना और ज्ञानेश्वर (‘भूता परस्परे मैत्र घडो’) से लेकर तुकाराम (‘वृक्ष वल्ली आम्हा सोयरे’) तक सभी ने भूत-तत्व (सकल प्राणी जगत) और लता- बेलों तक को जीव के रूप में परमात्मा का अंश माना| नामदेव के समकालीन तथा उनके शिष्य चोखोबा ने भी विट्ठल की व्यापकता को स्वीकारा- “व्यापला व्यापला तिहीं त्रिभुवनीं| चारी वर्ण खानी विठू माझा|| 1|| 12 त्रिभुवन अर्थात स्वर्ग, पृथ्वी और पातल लोक सभी स्थानों पर उस परम का आवास है या वे सब उसके लीला स्थल है| चोखा विट्ठल की सर्वव्यापकता को सामाजिक आवश्यकता के रूप में प्रस्तुत करते हैं| दलितों तथा अन्य जातियों के लिए निर्गुण विट्ठल सहज और बंधनों से मुक्त है|
निर्गुण भक्ति की लहर जो अनेक पिछड़ी जातियों में भारत भर में विस्तार पाती है, उसकी जड़े दक्षिण में थी और विकास महाराष्ट्र में हुआ| हरिनारायण ठाकुर का मानना है कि “ जाति और वर्ण- व्यवस्था पर अपने पदों से प्रहार करनेवाले संतों का संप्रदाय था ‘विट्ठल संप्रदाय’ । ‘विट्ठल संप्रदाय’ देश का वह महत्त्वपूर्ण संप्रदाय है, जिससे भक्तिकाल का प्रसिद्ध ‘निर्गुण संप्रदाय’ निकला । आठवीं शताब्दी के शैव धर्म से ग्यारहवीं शताब्दी के वैष्णव धर्म का समझौता दक्षिण में ‘विट्ठल संप्रदाय’ के रूप में हुआ । इसके सबसे बड़े संत नामदेव हुए । इसके प्रसिद्ध संतों में संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, नामदेव, चोखामेला का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है” ।13 उनकी मान्यता के अनुसार शैव और वैष्णव धारा दोनों से वारकरी संप्रदाय उपकृत है । इससे भी आगे वारकरी या विट्टल - संप्रदाय ने सामाजिक भेदहीनता को भी चिंतन के केंद्र रखा । हरिनारायण जी उत्तर भारत के निर्गुण भक्ति आन्दोलन के बीज महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय में स्वीकारते हैं, यह इस संप्रदाय की बड़ी उपलब्धि थी । नामदेव और ज्ञानेश्वर की उत्तर भारत की यात्रायें इसी कारण विशेष रही अर्थात् ‘सामाजिक एकता’ या ‘बहुजन विचार’ को भारत में बीजरोपित करने की भूमिका मराठी संतों की रही । नामदेव और ज्ञानेश्वर के समकालीन चोखामेला उन पहले संतों में थे, जो जाति और भेद की नीति की खुलकर अभिव्यक्ति करते हैं और आलोचना भी ।
चोखा की भक्ति
वारकरी संप्रदाय में भक्ति की लोक से जुड़ीं परम्परा का विकसित रूप दिखाई देता है| शास्त्र बनाम लोक में विट्ठल भक्त या वैष्णव लोक के अधिक समीप थे| आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के मतानुसार ‘वैष्णव धर्म शास्त्रीय धर्म की अपेक्षा लोकधर्म अधिक है’| डॉ. सिंह राजदेव भक्ति और महाराष्ट्र के योगदान को लेकर लिखते हैं - “आजकल निर्विवाद रूप से माना जाता है कि भक्ति दक्षिण में उत्पन्न हुई थी और वहाँ से उत्तर भारत में आई थी । ‘श्रीमद्भागवत महात्म्य’ में भक्ति के मुख से कहलवाया गया है कि “मैं (भक्ति) द्रविड़देश में उत्पन्न हुई, कर्नाटक में बढ़ी, कहीं कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई, किन्तु गुजरात में पहुँच बूढी हो गई ।” 14 ( उत्पन्ना द्रविडे साहं वृद्धिं कर्णाटके गता । क्व्चित्वचिन्महाराष्ट्रे गुर्जर जीर्णतां गता ।।- ‘श्रीमद्भागवत महात्म्य’, 1, 48 , 50 ) इसीलिए कर्मकांड और बाह्याडम्बर पर कुठराघात करते हैं| वहीं विधि-विधानों से टूटकर नाम जाप जैसे सहज भाव को केंद्र में रखते हैं| संत तुकाराम का समस्त चिंतन आडम्बरियों की खबर लेता है| वारकरी अपने कथन में बिलकुल साफ और स्पष्ट थे| वेद और शास्त्र को नकारते हुए चोखा कहता है-
“आम्हां न कळे ज्ञान न कळे पुराण । वेदांचे वचन न कळे आम्हां ॥1॥
आगमाची आठी निगमाचा भेद । शास्त्रांचा संवाद न कळे आम्हां ॥2॥
योग याग तप अष्टांग साधन । न कळेची दान व्रत तप ॥3॥
चोखा म्हणे माझा भोळा भाव देवा । गाईन केशवा नाम तुझें ॥4॥ 15
हमें ना तो वेद, शास्त्र, पुराण आदि का ज्ञान है, न हमें वे स्वीकार हैं| ना आगम – निगम तथा योग- याग, दान, तप, व्रत आदि का अनुभव| केवल विट्ठल का नामस्मरण ही हमारी भक्ति का आधार है| जिन शास्त्रों का हवाला देकर अन्यों को विट्ठल से अलगाया जाए ऐसे शास्त्रों, पुरानों का हमें क्या लाभ ? यह एक सहज प्रश्न चोखा के मन में था| इसीलिए चोखा अपने ईश के गुण कथन को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं|
नाम-जाप ही एक ऐसा साधन है, जिसे अपनाकर समाज के वंचित अपने आराध्य को प्राप्त कर सकते हैं| चोखा अपने अभंगों में राम, केशव, राया, राणा, यादवराजा, विठु, माऊली आदि अनेक नामों का उल्लेख करते हैं| उनकी भक्ति सगुण से आरम्भ होकर निर्गुण तक की यात्रा करती है| उन्हें विट्ठल दर्शन से नकारा था, इसकारण नाम -जाप का आश्रय उनके लिए श्रेष्ठ साबित हुआ| इसीलिए वे कहते हैं – “नामाची आवडी उच्चार हा कंठी । करी कृपा दृष्टी मजवरी ॥2॥” 16 वारकरी गृहस्थ जीवन के साथ भक्त थे, संसार या परिवार की विरक्ति का भाव उनमें न था| इसकारण नाम-जाप इनके लिए उचित माध्यम था| गुरु नामदेव से उन्होंने नामस्मरण का ही मन्त्र पाया था|
विट्ठल संप्रदाय में भक्ति और भक्त पर उसके संस्कार के लिए संत-संग को अनन्य महत्त्व रहा| चोखोबा के गुरु नामदेव को संत संग के बाद ही यह कहा गया की आप कच्चा घड़ा हो, तब जाकर उन्होंने गुरु खोजा (गोरा कुम्हार द्वारा उन्हे कच्चा गढ़ा कहा गया और ज्ञानेश्वर ने गुरु खोजने का मार्ग बताया तब जाकर उन्हे वीसोबा खेचर की प्राप्ति हुई : महाराष्ट्र के तेर-ढोकी में यह दंतकथा आज भी विद्यमान हैं| ) और वे भक्ति के लिए पात्र हो गए| उनके शिष्य चोखा इसी संत्संग का महिमा गान करते हैं, “ चोखा म्हणे घडेल संतांची संगती । सहज पंगती बैसेन मी ॥5॥” 17 संत का संग एक संस्कार है, इसीलिए चोखोबा उनके साथ रमने की इच्छा रखते हैं | संत्संग में उनके साथ प्रत्यक्ष और वाणी के रूप में कौन-कौन साथ है, उसका वर्णन वे इसप्रकार करते हैं –
सप्रेम निवृत्ति आणि ज्ञानदेव । मुक्ताईचा भाव विठ्ठल चरणीं ॥1 ॥
सोपान सांवता गोरा तो कुंभार । नरहरी सोनार प्रेम भरित ॥2 ॥ 18
यह सब गोपालों का मेला है, जहाँ नाम, जाप, गायन, नर्तन, कीर्तन होता है और अंत में काला के रूप में सभी की ओर से भोग जमाया जाता है, जैसे भगवान कृष्ण गोपालकों के साथ खाना खाते थे| विचार, भाव और भक्ति का समागम संत्संग है, इसीलिए हर वारकरी इसे एक महत्त्वपूर्ण अंग मानता है|
विट्ठल संप्रदाय में ‘वारी’ का विशेष महत्त्व है| आषाढ़ और कार्तिक मास में वारी के लिए महाराष्ट्र के हर गाँव से ‘वारकरी’ पंढरपुर की ओर प्रस्थान करते हैं| वारी संत्संग का व्यापक रूप मानने में कोई परहेज नहीं होना चाहिए| गोविन्द रजनीश लिखते हैं, “यह भक्ति का ऐसा उन्मेष था जिसमें दर्जी, कुम्हार, माली, भंगी, दासी, धेड और वेश्या-पुत्री सामान रूप से भक्ति के अधिकारी और अधिकारिणी थे । इन्होंने सदाचार, ईश्वर-निष्ठा और नैतिक मूल्यों पर बल देकर समाज की पुर्नरचना में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया । सामजिक अस्मिता के साथ आत्मिक उन्नयन इस संप्रदाय का प्रमुख लक्ष्य रहा ।” 19 वारकरी संप्रदाय शास्त्र से अधिक लोक में आस्था रखता है, इसीलिए वेद, पुराण, आगम- निगम से अलग होने का दावा हर वारकरी भक्त करता है । जिन जातियों के लिए मंदिर प्रवेश निषिद्ध था, उन सब पिछड़ी जातियों के संतों ने सगुण और निर्गुण दो रूपों को अपना आराध्य माना । यह वारकरी (वैष्णव संप्रदाय) की अनोखी विशेषता रही । और सभी जातियों के संतों ने एकता और समभाव के बोध को समाज का पाथेय बनाया । आगे चलकर यहीं आंदोलन महात्मा फुले, आम्बेडकर, शाहू महाराज आदि के लिए वैचारिक आधार बना । महाराष्ट्र की प्रगतिशील प्रतिमा के निर्माण में वारकरी संप्रदाय की भूमिका इन्हीं कारणों से अनन्य रही और आज भी है । किसी बाहरी न विचार से प्रभावित वे आंदोलन नहीं रहे| कुम्भ मेले के सामान वैष्णव मेले के रूप में आषाढ़ और कार्तिक मास की वारी और सहज भक्ति का उत्सव महाराष्ट्र ही नहीं भारत के लिए प्रेरणा का उत्स है ।
“ टाळी वाजवावी गुढी उभारावी । वाट हे चालावी पंढरीची ॥1॥
पंढरीचा हाट कउलांची पेठ । मिळाले चतुष्ट वारकरी ॥2॥
पताकांचे भार मिळाले अपार । होतो जय जयकार भीमातीरीं ॥3॥
हरिनाम गर्जतां भय नाहीं चिंता । ऐसे बोले गीता भागवत ॥4॥
खट नट यावें शुद्ध होउनी जावें । दवंडी पिटी भावें चोखामेळा ॥5॥ ” 20
गाँव से जब भक्त वारी के लिए जाते हैं तो गुढी (ध्वज) को खड़ा करते हैं| गेरू रंग की पताकाएं और विठू नाम का जाप करते हुए आगे बढ़ते हैं| कई वारकरी इस मेले में एक-दूसरे से मिलते हैं| इसे ‘वैष्णव सोहला’ कहा जाता है| जो भी अशुद्ध होगा, वह पवित्र बन जायेगा| इसप्रकार का वर्णन प्रस्तुत अभंग में चोखा करता है|
इतना ही नहीं, अगर किन्हीं कारणवश अगर मैं वारी में नहीं गया तो जो वारी को जाते हैं, उनके पाँव छुकर उनके चरणों की रज को ही विट्ठल मानने की परम्परा का मैं पाईक हूं| महाराष्ट्र में आज भी यह परम्परा प्रचलित है की वारी जाते या आये हुए व्यक्ति के चरण स्पर्श में विट्ठल चरण स्पर्श की अनुभूति मानी जाती है| वारी वारकारियों के लिए अपने मैंके जाने का अवसर है| बुलढाना से मंगलवेढ़ा चोखोबा नियमित वारी के लिए ही आ बसे थे|
‘जोहार’ नामक काव्य प्रकार में दास्य भाव की भक्ति चोखोबा ने की| इस जोहार को आध्यात्मिक काव्य प्रकार के रूप में संत एकनाथ ने बाद में स्थापित किया| चोखा का जोहार देखें –
“विठु पाटलाचा महार चोखामेळ्याचा जोहार ।
सकळ संतांचा कारभार ।
मज नफराचे शिरीं की जी मायबाप ॥7 ॥ 21
जोहार में भक्त स्वयं को हीन, निम्न और दास रूप में स्वीकार करके ईश्वर को मालिक, श्रेष्ठ आदि रूपों में वर्णित करता है| यहाँ विट्ठल पाटिल अर्थात् मालिक है और चोखा उनका महार (महाराष्ट्र में पाटिल के घर निम्न काम करने की जिम्मेदारी महार पर किसी ज़माने में हुआ करती थी)| और वे उन्हें जोहार माने राम राम करके उन्हें मायबाप के रूप स्वीकृति देते हैं|
चोखा विट्ठल के अनन्य भक्त होने के बावजूद भी उनपर उनकी दया दृष्टि कम ही रही| इसी की शिकायत उनके निम्न अभंग में हमें दिखाई देती है -
वारंवार किती करूं करकर । माझा तंव आधार खुंटलासे ॥1॥
न बोलावें आतां हेंचि शहाणपण । होउनी पाषाण पडो द्वारीं ॥2॥ 22
इस अभंग में चोखा की विट्ठल मिलन की आस और प्रतीक्षा के कारण उपजी करुणा भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है| यहीं भाव तुलसीदास में भी जन्मा था, तब उन्होंने ‘ विनयपत्रिका’ में सीता के माध्यम से इष्ट राम के सम्मुख अपनी करुण कथा सुनाई| अब विट्ठल और रुक्मिणी पंढरपुर में साथ-साथ नहीं है, इस कारण चोखा कहता हैं की अब कुछ न बोलना ही उचित होगा| अब तो किसी प्रस्तर की तरह महाद्वार पर मुक्ति आस में बिताना ठीक होगा|
प्रासंगिक चिंतन
चोखामेला का अनुभव जगत किताबी नहीं था; बल्कि जीवन के ताप ने उन्हें जीने के नए रिवाज सिखाएं थे| इसीलिए भक्त के साथ-साथ एक समाज और व्यक्ति विश्लेषक के रूप में उनके विचार पथदर्शी है| इन्ही विचारों पर यहाँ दृष्टि डाली जा रही है|
चोखा बाह्य और अन्तरंग भेद को जानते थे| जिस समाज में वे जी रहे थे, उनकी खोखली मान्यताओं और धारणाओं ने उनके सामने जो यथार्थ रखा था, वह दोमुहां और छल-छद्म से भरा था| इसीलिए वे बाह्य और अन्तरंग के विभाजन को सटीक वर्णित करते हैं|
वे लिखते हैं –
“ ऊंस डोंगा परी रस नोहे डोंगा । काय बुललासी वरलीया रंगा ॥१॥
कमान डोंगी परी तीर नोहे डोंगा । काय भुललासी वरलीया रंगा ॥२॥
नदी डोंगी परी जळ नव्हे डोंगें । काय भुललासी वरलीया रंगा ॥३॥
चोखा डोंगा परी भाव नव्हे डोंगा । काय भुललासी वरलीया रंगा ॥४॥ ” 23
गन्ना, कमान, नदी के कुल, मानव भौतिक या लौकिक रूप से बंकिम हो सकते हैं, लेकिन गन्ने का रस, कमान से निकला तीर, नदी का जल और चोखा का भाव किसी में भी वक्रता या दोष नहीं होगा| उपमानों के प्रयोग से चोखा बाह्य रूप का चित्र तथा अंतर की स्थिति को सोदाहरण बताते हैं| ठीक उसी प्रकार जीवन में बाह्य की कुरूपता के कारण अंतर की शुद्धता को नकारा न जाय; क्योंकि बाह्य का प्रभाव लौकिक जगत का यथार्थ है, जिसे लोग स्वीकारते हैं, किन्तु अन्तर का बोध ही सर्व श्रेष्ठ है| वर्तमान समय में हमारी यहीं त्रासदी है की हम बाह्य रूप को सजाने में हमारी पूरी क्षमता लगा रहे हैं| बाह्य की चकाचौंध और रंगरूट का विशाल बाजार बिखरा पड़ा है और अनेक प्रलोभन बाहें पसारे इंतजार में है , ऐसे समय में अंतर को केंद्र मानते चोखा किसी पुरखा से कम नहीं है, जो मनुष्य के अस्तित्व को बचाना चाहते हैं|
व्यक्ति के साथ- साथ परिवार के यथार्थ और व्यक्ति की स्वार्थ भावनाओं को भी चोखा अपने अभंगों में रखते हैं| परिवार के लिए जी जान से धन कमाई करते व्यक्ति को आगाह करते हुए एक युग सत्य को सामने रखा है –
“ तुटला आयुष्याचा दोरा । येर वाउगा पसारा ॥1॥
ताकोनी पळती रांडा पोरें । अंती होती पाठमोरे ॥2॥
अवघे सुखाचे सांगती । कोणी कामा नये अंती ॥3॥
चोखा म्हणे फजितखोर । माझें माझें म्हणे घर ॥4॥ ” 24
जब जीवन की डोर टूट जाती है तब परिजन पीछे विलाप आवश्य करते हैं; किन्तु जलते प्रेत का साथी केवल वहीं है जो स्वयं जल रहा है| लेकिन जीवित व्यक्ति सुख के भोग में अपना- अपना करके जोड़ने में जुट जाता है और मृत्यु के बाद सब छूट जाता है| साथ ही प्रियजन भी अलविदा कहके भूल जाते हैं| इसीलिए चोखा कहते हैं की जीवित समय में ‘मेरा-मेरा’की रट कहाँ तक उचित है| देह और संसार नश्वर है| इस सत्य को जानकार जो अपने व्यवहार को संचालित करता है, वही सही मार्ग का अनुकरणकर्ता है| जीवन के इस सत्य को चोखा ने पारिवारिक जीवन और स्वार्थ के केंद्र में रखकर कथन किया है| वर्तमान मनुष्य का वही दोष है| अंत में पश्चाताप करने से बेहतर है की समय रहते स्वयं को सुधारा जाए|
जाति-भेद को लेकर अपनी स्वानुभूतियों के साथ चोखा बोल उठते हैं| वेद और शास्त्रों को आधार बनाकर शोषण कराती एक पीढ़ी को उनके साथ उनके ग्रंथों को भी वे नकारते हैं| चोखा लिखता है-
“ भेदाभेद कर्म न कळे त्याचें वर्म । वाऊगाचि श्रम वाहाती जगीं ॥1॥
नामापरता मंत्र नाहीं त्रिभुवनीं । पाप ताप नयनीं न पडेचि ॥2॥
वेदाचा अनुभव शास्त्रांचा अनुवाद । नामचि गोविंद एक पुरे ॥3॥
चोखा म्हणे मज कांहींच न कळे । विठ्ठलाचे बळें नाम घेतों ॥4॥ ” 25
चोखा का कहना है की वेद और शास्त्र अगर समस्त सृष्टि के हेतु लिखे गए है तो फिर हम नीच जात के लोगों के लिए इतने प्रतिबन्ध आखिर किस लिए ? इसलिये भेद पर आधारित हर ज्ञान को वे नकारते हैं| जहाँ समानता है, वहीं पूर्ण समाज की उपस्थिति है| चाहे वह भक्ति हो या सामाजिक आचार| भक्ति में बहिष्कार का आधार जाति होने के कारण ही वे नाम और निर्गुण के साथ संलग्न हो जाते हैं| बहुजन हित की ओर संकेत करते हुए भेद का नकार और उसे पीढ़ी दर पीढ़ी ढोने की प्रवृत्ति को वे ख़ारिज करते हैं| समता युक्त समाज के निर्माण हेतु वारकरी संप्रदाय का योगदान इसी कारण अनन्य रहा और आज भी वे प्रासंगिक लगते हैं| सामाजिक समरसता का इतना सहज बोध और कहाँ मिलेगा ?
अगर यह सृष्टि ब्रह्मा द्वारा रची है, तो सब उनकी संताने हैं, फिर यह भेद किस लिए ? चोखा हर जाति और धर्म में स्थित ऊँच- नीचता का अस्वीकृत करते हैं – “कोणत्याही कुळीं उंच नीच वर्ण । हे मज कारण नाहीं त्याचें ॥2॥” 26
किसी भी कुल में भेद की स्थिति है, इसका मतलब है की यह ईश्वर द्वारा नहीं; बल्कि मनुष्य ने निर्माण किये हैं| इसलिये ऐसे जातीय परिवेश की वे घृणा करते हैं और उन जैसों की भी निंदा करते हैं| चोखा जाति द्वेष के दंश को स्वयं भोग चुके थे, इसीकारण उनके प्रखर विचार शब्दबद्ध हुए है|
जाति और रंग भेद को लेकर विश्व भर में अनेक महात्माओं ने काया, वाचा, मनसा इन स्तरों पर काम किया| महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय ने विश्व के सामने एक माडल को रखा| जो व्यवहार और चिंतन दोनों स्तरों पर सामान रूप से स्थापनाएं देता है| इसी भक्ति आन्दोलन को लेकर अमरकांत जी लिखते हैं कि - “इतना ही नहीं, इस भक्ति आन्दोलन के प्रभाव के कारण भारत के सांस्कृतिक इतिहास में पहली बार शूद्रों, अन्त्यजों और सताये हुए वर्गों ने अपने संत दिए और इन संतों ने पहली बार जाति, धर्म, वर्ण तथा संप्रदाय की चाहरदीवारियों को तोड़ते हुए एक मानवधर्म तथा मानव संस्कृति का नारा बुलंद किया ।” 27 लोकाश्रित भक्ति - आन्दोलन ने समाज में व्याप्त जातिय द्वेष और घृणा पर विजय पाने का मार्ग प्रशस्त किया । सामाजिक एकता तथा समरसता की पहल करके नई संरचना की स्थापना का वैचारिक बीजवपन भी किया । अर्थात् भक्ति आंदोलन के सभी संत प्रथम सामाजिक अभियंता थे । महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय ने भक्ति का मार्ग सभी के लिए न मात्र खोला; बल्कि नए मानव धर्म की संस्कृति को विश्लेषित भी किया ।
बडवों ने संतों को ठुकराने की कई योजनायें बनाई| जिसमें उनको निम्न और हेय मानना, भक्ति के अधिकारी न स्वीकारना आदि| इसी के साथ ‘विटाळ’ को साधन बनाकर दलितों को विट्ठल से दूर करने की हरकतों पर भी चोखा कटाक्ष करते हैं| चोखा कहता है –
“ नीचाचे संगती देवो विटाळला । पाणीये प्रक्षाळोनि सोंवळा केला ॥1॥
मुळींच सोंवळा कोठें तो वोवळा । पाहतां पाहाणें डोळा जयापरी ॥2॥
सोंवळ्यांचे ठाईं सोंवळा आहे । वोवळ्या ठाईं वोवळा कां न राहे ॥3॥
चोखा म्हणे देव दोहींच्या वेगळा । तोचि म्यां देखिला दृष्टीहभरी ॥4॥ ” 28
नीच की सेवा से ईश्वर अपवित्र (विटाळ) होता है| यह तर्क बडवे देकर चोखा को विट्ठल दर्शन से रोका जाता था| ‘विटाळ’ से बचने हेतु पानी से भागवान को जल से स्नान करवाया जाता| चोखा कहते हैं कि यह सब आडम्बर है| विटाळ या अपवित्रता तो मन का मैल है| ‘सोवळे’ (पवित्रता) “वोवळे” (अपवित्रता) इन सब से परे उनके विट्ठल हैं, ऐसा दावा चोखोबा करते हैं| अर्थात् चोखा बाह्य जगत से अधिक आंतरिक शुद्धता को महत्त्व देते हैं| अन्तर की शुचिता न होने के कारण ही वर्तमान में संबधों में टकराहट और समाज में असामाजिकता कोढ़ की तरह फ़ैल रही है| जो तथ्य चोखा भक्त और ईश्वर को लेकर बता रहे हैं, वहीं तथ्य जब हम वर्तमान पर चस्पाकर देखते हैं, तो वर्तमान समाज के अनेक रोग उन्ही कारणों की उपज होने के प्रमाण हैं| समय बदल गया पर बदलते समय के साथ केवल तरीका बदला- विचार की आत्मा वहीं रही, जिसकारण हम आवरणों को महत्त्व देकर अन्तर का हनन कर रहे हैं|
महाराष्ट्र की वारकरी परम्परा ने नए समाज- विज्ञान का निर्माण आरम्भ किया था| उन्होंने पीड़ित और दुखी जनता को संबल प्रदान किया| वे देव और संत की पहचान पीड़ित की पीड़ा और दुखी के दुःख को अपनानेवाले व्यक्ति में मानते हैं| इसप्रकार समस्त जगत की वेदना जिनके चिंतन का आधार है, वे परम के प्रिय ही होंगे| कान्होंपात्रा जैसे वेश्या का उद्धार किया, वैसे ही चोखा अजामेला गणिका को लेकर कहते हैं कि-
“ केला अंगीकार । उतरिला भार ॥1॥
अजामेळ पापराशी । तोही नेला वैकुंठासी ॥2॥
गणिका नामेंची तारिली । चोखा म्हणे मात केली ॥3॥” 29
ईश्वर की महिमा का गुणगान करते हुए चोखोबा अजामेला जैसी गनिका के पापों का नाश करके उसे संत अर्थात् सत रूप में स्थापित करते हैं| एक ओर चोखा अपने आराध्य का माहिमा मंडण भी कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर गणिका उद्धार से धर्म और संप्रदाय की सामाजिक उपादेयता वाले प्रारूप को भी सोदाहरण स्पष्ट कर रहे हैं ; क्योंकि धर्म के क्षेत्र में निचली जातियों के उद्धार को नकारा गया था| इसलिये वारकरी संतों ने उसे विशेष रूप से कहा| पतित को पावन करने की विट्ठल की क्षमता वास्तव में उनके भक्तों के विचारों में थी, उस तथ्य को भी समझा जाए |
निर्गुण का गुण वहीं है कि वे दो टुक बात करते हैं| संतों की वाणी, विचार और आचरण में ‘रचनात्मक विद्रोह’ है| इसी का अनुभव चोखा के अभंगों में भी आपको मिलेगा| तीर्थाटन की व्यर्थता को चोखा यों बयान करता है –
“ तैसा नव्हे माझा पंढरीचा राजा । न सांगता सहजा इच्छा पुरे ॥2॥
न लगे आटणी तपाची दाटणी । न लगे तीर्थाटणी काया क्लेश ॥3॥” 30
ईश्वर सच्चे भक्त को पीडाएं नहीं पहुंचता है , वह जीवन की रह सुकर करता है| मेरे विट्ठल भी ऐसे ही है| वे न तो सेवा की मांग पर अड़ जाते हैं और न ही तीर्थयात्रा का मोह रखते हैं| विट्ठल के हवाले से चोखा कहते हैं कि देव का वास तीर्थों में नहीं अंतर में है| तीर्थाटन से काया को क्लेश ही मिलाता है, ईश्वर नहीं| चोखा का तर्क है कि तीर्थ यात्रायें देह के क्लेश के लिए नहीं वरन सत्संग के लिए होती है| वारी कोई तीर्थाटन न होकर संत्संग है| और एक ऐसा संत्संग जिसमें समाज की सभी जातियां शामिल है| वैष्णव -मेला| तीर्थ यात्रा मात्र बाह्य स्वांग न हो; बल्कि आंतरिक शुद्धता से वह युक्त हो|
सामाजिक विषमता पर भी संत बराबर बोलते रहे| चोखा अपने स्वानुभूति के आधार पर जातिय भेद और आर्थिक विपन्नता को अपने वचनों में लाते रहे| समाज में उभर रहे अनेक आर्थिक स्तरों की शिकायत अपने आराध्य से करते हुए चोखोबा लिखते हैं –
“ कांहो केशिराजा दूजे पैं धरितां । हें तों आश्रर्यता वाटे मज ॥1॥
एकासी आसन एकासी वसन । एक तेचि नग्न फिरताती ॥2॥
एकासी कदान्न एकासी मिष्टान्न । एका न मिळे कोरान्न मागतांचि ॥3॥
एकासीं वैभव राज्याची पदवी । एक गांवोगांवीं भीक मागे ॥4॥
हाचि न्याय तुमचें दिसतो कीं घरीं । चोखा म्हणे हरी कर्म माझें ॥5॥ ” 31
धरा पर स्थित सम्पन्नता और विपन्नता के भेद को लेकर विट्ठल के पास शिकायत करते हुए चोखा कहता है कि किन्ही के पास सुखोपभोग के समस्त साधन है और किसी को न आवास, ना अन्न उपलब्ध है| कोई नग्न है तो कोई वस्त्र- आभूषणों से लदा| हे भगवन ! यह विषमता ही मनुष्य- मनुष्य में भेद को ओर बढ़ा रही है| इस शिकायत में भेद मिटाने के भाव प्रमुख है| चोखा यहा संत और भक्त से भी आगे समाजसेवी की भूमिका में आते हैं| यह समाज-बोध ही उन्हें अमर और प्रासंगिक बनाता है| जब समाज में अन्यों या अन्त्यजों का न कोई चेहरा और ना कोई आवाज थी| ऐसे समय में वारकरी - संप्रदाय कीर्तन और प्रवचनों के माध्यम से जन में इन बातों को रख रहा था| इसीलिए महाराष्ट्र में सामाजिक विषमता के खिलाफ आन्दोलन भारत में सबसे पहले शुरू होता है, जिसकी जड़े हम वारकरी परम्परा में पाते हैं|
नश्वर संसार का सत्य कथन करना संत अपना परम कर्तव्य मानते थे| चोखोबा भी इस सत्य को हमारे सामने इसे उद्घाटित करते हैं -
“ घरदार वोखटें अवघें फलकटें । दु:खाचें गोमटें सकळही ॥1॥
नाशिवंतासाठी रडती रांडा पोरें । काय त्याचें खरें स्त्री पुत्र ॥2॥
लावूनियां मोह भुलविलें आशा । त्याचा भरंवसा धरिती जन ॥3॥
सकळही चोर अंती हे पळती । चोखा म्हणे कां न गाती रामनाम ॥4॥” 32
मनुष्य घर- परिवार में तथा धन संचय में आवश्कता से अधिक उलझा रहने के कारण जीवन में सुख और शांति कभी प्राप्त नहीं कर सकता| इस स्थिति पर प्रकाश डालते हुए संतों ने जन को जगाने के प्रयास अपने वचनों से किये| देह नष्ट होनेवाली है, इस सत्य को जानते हुए भी परिजन किसी के जाने का दुःख मानते हैं| मनुष्य आशा- आकांक्षा के अमर जाल में फंसकर बुरे कर्म में लिप्त होता है| माया का संचय करता है और सब यही छोड़कर चला जाता है| जाना निश्चित है , तो फिर संचय के तर्क क्यों गढ़े जाते हैं| नश्वर जीवन और शाश्वत जगत को जताकर चोखा मनुष्य को उचित कर्म और धर्म की शिक्षा प्रदान कर रहे हैं| लोक-शिक्षा के दृष्टिकोण से अगर इन रचनाओं को देखा जाएगा, तो भारतीय भक्ति साहित्य विश्व के श्रेष्ठ लोक-शिक्षा साहित्य में शुमार होगा| व्यक्ति कर्म की प्राथमिकताएं और क्रम की समझ जो चोखा ने बताई है, जिसमें निरर्थक और सार्थक को व्याख्यायित करते हुए सत्य को कहा है , उसे अपनाने के बाद लोभ और अपराध जैसे रोगों का नाश करने के लिए कानून का सहारा लेने की जरुरत नहीं पड़ेगी|
‘आता विश्वात्मके देवे’ कहकर जो नींव ज्ञानेश्वर ने वारकरी संप्रदाय की दृष्टि में डाली थी,| उसका विस्तार चोखा में भी दिखाई देता है – “सर्वांभूती दया संतांची ते सेवा । हेंचि देई देवा दुजें नको ॥3॥” 33 ‘सर्वांभूती’अर्थात् अखिल प्राणिमात्र के प्रति समभाव का बोध जरुरी है| इस भाव की प्राप्ति में सहिष्णुता और धैर्य की आवश्यक होता है| इसकी प्राप्ति में श्रद्धा और दया काम आते हैं| इसीलिए उनकी भक्ति में उन भावों का प्रवाह दिखाई देता है
चोखा की मृत्यु
मंगलवेढ़ा में किले के निर्माण में दबकर उनकी मृत्यु हो गयी| तब नामदेव वहां पहुंचे| उन्होंने देखा की मलबे से नाम जाप की आवाज सुनाई दे रही है| वे ही चोखोबा थे| अर्थात् चोखा अपनी मृत्यु के पश्चात् भी अपने इष्ट के नाम जाप में लीन थे| यह एक चमत्कार भी उनके सन्दर्भ में कहा जाता है| फिर उनकी देह को नामदेव पंढरपुर लाकर महाद्वार के पास समाधी बनवाई गयी| उनकी मृत्यु ई. सवी. 1338 में हुई थी| संत नामदेव का यह अभंग उसका प्रमाण है -
“चोखा माझा जीव चोखा माझा भाव। कुलधर्म देव चोखा माझा ।।
काय त्याची भक्ति काय त्याची शक्ति । मोही आलो व्यक्ति तयासाठी ।।
माझ्या चोखियाचे करिती जे ध्यान। तया कधी विघ्न पडो नदी।।
नामदेवे अस्थि आणिल्या पारखोनी। घेत चक्रपाणी पितांबर।।” 34
उनके गुरु नामदेव ने उनकी समाधी बनवाई|
निष्कर्ष : अतः हम कह सकते हैं कि चोखामेला का जीवन और भक्त के रूप में कार्य महाराष्ट्र और वर्तमान सन्दर्भों में राष्ट्र के निर्माण में सहायक है| एक अनन्य विट्ठल भक्त , समाज सुधारक और चिन्तक के स्तर पर वे वारकरी संप्रदाय के ध्वज वाहक है| सामाजिक बहिष्कार और धिक्कार में बावजूद वे सगुण- निर्गुण भक्ति और अपने समय के समाज पर बेबाक टिप्पणियां करते हैं| व्यक्ति, जाति, धर्म और समाज में जिन स्थानों पर सुधार की संभावना वे देखते हैं, उसे अपने वचनों में उतरते हैं| दलित जीवन के अनेक स्थल और उस समय का सामाजिक , आध्यात्मिक और सांस्कृतिक इतिहास उनके अभंगों का प्रतिपाद्य रहा|
उनके भेद और ‘विटाळ’ को लेकर जो विचार है, उनकी गूंज सम्पूर्ण भारत भर में हमें देखने को मिलती है| वारकरी सम्प्रदाय की समरसता और समता में दलित अनुभवों को चोखा ने ही सर्वप्रथम दर्ज किया| सगुण से निर्गुण और निर्गुण से ही सगुण के जन्म को वे अपने विवेचन में आधार रूप मानते हैं| चोखा सख्य, दास्य, नाम महिमा, गुरु महिमा आदि रूपों में स्वयं को वैष्णव परम्परा में न केवल स्थापित करते हैं; बल्कि ने समाज के निर्माण हेतु आवश्यक तत्व भी अपनी और से प्रदान करते हैं|
संत नामदेव और ज्ञानेश्वर के बाद मराठी संतों में शीर्षस्थ स्थान पानेवाले चोखा को उच्च वर्ण के शोषण का सामना करना पड़ा, लेकिन वे उन सब से लढ़े और अपनी भक्ति और विचारों को महाराष्ट्र और राष्ट्र को विरासत के रूप में देकर अमरता पा गए|
सन्दर्भ :
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क्रं. 42
2.
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3. वहीं, अभंग क्रं. 69
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6.
https://m.facebook.com/abhangwani/posts/1514672835227194
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https://www.santsahitya.in/abhang-gatha/chokhoba-abhang-191to300/, अभंग क्रं. 219
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9.
वहीं, अभंग
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अमरकांत, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण,
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28. https://www.santsahitya.in/abhang-gatha/chokhoba-abhang-191to300/, अभंग 282
29. अभंग क्रं. 242
30. https://www.santsahitya.in/abhang-gatha/chokhoba-abhang-1to108/
अभंग 5
31. वहीं, अभंग
क्रं. 71
32. https://www.santsahitya.in/abhang-gatha/chokhoba-abhang-109to190/, अभंग 149
33. https://www.santsahitya.in/abhang-gatha/chokhoba-abhang-1to108/
अभंग क्रं. 80
34. https://marathisky.com/sant-chokhamela-information-in-marathi/#_____8211
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