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भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संतों ने अपने आदर्श भक्ति भावना से ओतप्रोत जीवन एवं उपयुक्त रचनाओं से मानव जीवन को परिपूर्ण जीवन के प्रति प्रेरित किया है । उत्तर प्रदेश के कबीर-सूर-तुलसी,राजस्थान की मीरा ,पंजाब के गुरु नानक , गुजरात के नरसी मेहता , बंगाल के चैतन्य महाप्रभु और दक्षिण के आलवार , कर्नाटक के संत बसवेश्वर आदि संत कवियों की तरह ही महाराष्ट्र की भूमि पर भी संतों की अखण्ड परम्परा विकसित होती रही हैं । भक्ति भावों को बहुत दूर तक पहुँचाने की दृष्टि से महाराष्ट्र के सभी संतों ने मराठी के साथ-साथ हिंदी में भी रचनाएँ लिखी हैं ।
मराठी संतों का काव्य सामाजिक अन्याय के विरोध में एवं मनुष्य न्याय के पक्ष में एक विकसित मनुष्य जीवन की मूल्य व्यवस्था के पक्ष में खड़े होने वाला और संघर्ष करने वाला है । प्रमुख मराठी संतों में संत ज्ञानेश्वर,संत नामदेव,संत एकनाथ ,संत तुकाराम ,संत रामदास ,संत गुलाबराव ,संत तुकडोजी महाराजजैसे युगप्रबोधक संतों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
मराठी संत साहित्य को पढ़कर हमें यह पता चलता है की संत और भक्त यह दोनों शब्द पर्यायवाचीके रूप में मिलते हैं क्योंकि मराठी संत साहित्य में सगुणएवं निर्गुण की कोई उपासक विभाजन रेखा खिंची गई नहीं है । हम भक्तिकाल के निर्गुण एवं सगुण भक्ति को देखते हैं तो कुछ ऐसे तत्व मिलते हैं जहाँ कोई भेद मिलता नहीं । इसके संदर्भ में आचार्य द्विवेदी जी कहते है कि “निर्गुण और सगुण भक्ति कविता में भिन्नताओं के बीच कतिपय ऐसे तत्वों को उभारा है जहाँ उनमें कोई भेद नहीं है ।”[1] सभी उपासकों को संत कहा गया है ,चाहें निर्गुण भक्तिप्रधान संत नामदेव हों या सगुण भक्तिप्रधान संत तुकाराम हों । मराठी संतों का महत्वपूर्ण विशेषता यह रही हैं कि निर्गुण प्रधान एवं सगुणोंपासना का समर्थन करते रहें । सगुण-निर्गुण की समन्वयात्नकता निर्मित करने वाले प्रथम संत ज्ञानेश्वर माने जाते हैं , इनके द्वारा कम आयु में गीता–भाष्य ग्रंथ ‘ज्ञानेश्वरी’ रचा गया । इन्होंने आपनी प्रतिभा से ऐसा लोकोद्वार का कार्य किया जो शब्दों से बया नहीं किया जा सकता । यह ग्रंथ जन-मानस में प्रसिद्ध है ,जिस तरह से गोस्वामी तुलसीदास द्वारा लिखित ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ है । महाराष्ट्र में भक्ति-काव्य की ईमारत खड़ी करने वाले संत ज्ञानेश्वर जी का वर्णन वारकरी सम्प्रदाय में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली और स्त्री-मुक्ति आंदोलिका संत बहिणाबाई के शब्दों में-
संतों की कृपा से ही भक्ति के मंदिर का निर्माण हुआ है । संत ज्ञानेश्वर ने इस मंदिर की नीवं डाली और संत नामदेव ने इस मंदिर का विस्तार किया । संत एकनाथ ने भक्ति के मंदिर की ध्वजा फहराई और संत तुकाराम ने इसके कलश के रूप में पूर्णता प्रदान की । ज्ञानेश्वर का महाराष्ट्र के भक्तिकाव्य में दार्शनिक विचारों का अतुलनीय काव्य होने पर भी इनकी कुछ ही पद दिखाई देते हैं ,जो इस प्रकार है -
दुनिया त्यज कर ख़ाक लगाईं,जाकर बैठा बननमों ।। 3
इन पंक्तियों के माध्यम से ज्ञानेश्वर यह बताना चाहते हैं की मेरे ऊपर सद्गुरु की कृपा हुई ,यह हम तभी जान सकते हैं,जब हम अपने आपको पहचान लेते हैं ,नहीं तो गुरु का चेला कच्चा ही माना जाएगा ,भले ही अपने शरीर को योग द्वारा बलिष्ट बनाने लगे, तीर्थ यात्राएं कर रहा हो लेकिन रह्दय के सम्बन्ध से जुड़ा हुई ना हो ।
भक्ति-आंदोलन में मराठी संतों की समन्वयात्मक आरंभ ही सबसे बड़ी उपलब्धि है । इनकी रचनाएँ जन-मानस के रह्दय में प्रतक्ष्य पहुँचती हैं । मराठी के संत ज्ञानेश्वर ही मूल रचनाओं में निहित विचारों को बिना जाने हिंदी में लिखित रचनाओं को नहीं जान सकते । महाराष्ट्र में संत परम्परा को प्रभावित करने वाले प्रमुख संतों में संत नामदेव महाराज का नाम लिया जाता है जो संत ज्ञानेश्वर से प्रेरित थे । संत नामदेव एक ऐसे संत हैं पूरे उत्तरी भारत में प्रचार प्रसार करके हिंदी साहित्य में एक नए दृष्टिकोण को निर्मित किया । सद्गुरु का महत्त्व ,नाम स्मरण एवं बाह्यडम्बर जैसी विशेषताएं नामदेव के काव्य में देखी जा सकती हैं । महाराष्ट्र की यात्रा सफल करने के साथ-साथ पंजाब की भी सफल यात्रा करने वाला सम्प्रदाय ‘महानुभाव’ माना जाता है । इनकी कृष्ण भक्ति पंजाब में ही नहीं बल्कि काबुल तक पहुँचाने का कार्य इन्होंने किया है । नामदेव निर्गुणोन्मुखी भक्त कवि है जिनका एक पद-
माइआ चित्र बचित्र विमोहित बिरला बूझै कोई ।।
सभु गोविन्द है,सभु गोविन्द है,गोविन्द बिनु नहिं कोई ।
सूत एकु मणि सहंस जैसे उतिपोति प्रभु सोई ।।4 [3]
संत नामदेव अपनी दार्शनिक दृष्टि से इस पद के माध्यम से सर्वव्यापक ईश्वर की सत्ता के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए निर्गुणोन्मुखी भक्ति भावना को व्यक्त करते है । अनेक रूपों में अभिव्यक्त होते हुए भी जहाँ देखिये वहां पूर्ण रूप से विद्यमान है । मन को मोहित करने वाली उसकी चित्र- विचित्र माया को बिरला व्यक्ति ही समझ पाता है । हर जगह गोविन्द ही गोविन्द है ,इनके आलावा और कोई नहीं है । मधुर भक्तिभाव का नाम संत नामदेव है । इनका और एक निर्गुणोन्मुख सगुण प्रेमभक्ति का पद है -
बरबिया बरवे पाहता नित्य नवे ,रह्दयों ध्याता निवे त्रिविध ताप” ।5
निर्गुण का ही वैभव भक्ति के वेश में सगुण विट्ठल रूप धारण कर आ गये हैं और वह नित्य नया रूप धारण करते हैं । निर्गुण भक्ति महाराष्ट्र के संतों ने दी हुई अद्भूत देन है । मराठी संतों में प्रमुख संत तुकाराम भी आते हैं , इन्होंने निर्गुणोन्मुख निर्गुण भक्ति परम्परा को अपनाया । इनकी वाणी हिंदी-मराठी रचनाओं से सिद्ध हुई हैं ।
नाथ सम्प्रदाय एवं महानुभाव संप्रदाय से प्रेरित होकर संत नामदेव ने अपना व्यक्तित्व मराठी संत साहित्य के साथ-साथ हिंदी संत साहित्य में भी विकसित किया है । इनका व्यक्तित्व संत ज्ञानेश्वर के व्यक्तित्व से मिलता-जुलता है । दोनों संतों के सहयोग से ही महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय को परिपूर्णता मिल गई है । महाराष्ट्र के काफी संतों का लगाव नाथ संप्रदाय से रहा है इसी के कारण उनका योगसाधना में मन लगा रहता था । इन संतों की रूचि संकीर्तन एवं भजन में है । नामदेव का प्रसिद्ध भजन जो महाराष्ट्र के जन मानस के मुख से सुनाई पड़ता है-
प्रेमे आलिंगन आनंदे पूजिन,भावे ओंवाळीन म्हणे नामा” ।। 6[4]
अर्थात हे ईश्वर ! मेरा आपको साष्टांग नमस्कार ,आपके चरणों को स्पर्श करूँगा ,आँखों से आपका रूप देखूंगा ,प्रेम से आपको आलिंगन दूंगा ,ख़ुशी से आपकी पूजा करूँगा और भक्तिभाव से आपकी आरती करूँगा । मधुर भक्तिभाव का नाम संत नामदेव है । इनके हिंदी पदों का मूल विचार निर्गुणोन्मुख सगुण प्रेमभक्ति ही है ।
वैराग्ययुक्त ज्ञान की पताका लहराने वाले संत एकनाथ राजनितिक,धार्मिक संघर्षो से उत्पन जन-मानस की समस्याओं को समाप्त करने का प्रयास इनके काव्य के माध्यम से किया है । संत एकनाथ का ऐसा समय था जो मुस्लिम शासकों का शासन जो स्थिर चल रहा था,उस समय ना मनुष्य के अस्थिर मूल्यों की ओर ध्यान था न स्थिर मूल्यों की ओर ध्यान था फिर भी अपने काव्यों द्वारा महाराष्ट्र के जन-जीवन को जोड़ने का काफी प्रयास किया गया । इन्होंने भी जनता को निर्गुणोन्मुख भक्ति के प्रकाश की किरण दिखाकर अज्ञान के अन्धकार से दूर करने का प्रयास किया और यह कार्य दत्त सम्प्रदाय द्वारा किया गया और इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक संत ज्ञानेश्वर से लेकर नामदेव-एकनाथ तक रहें हैं । मुस्लिम समुदाय के समन्वय का सांस्कृतिक स्तर पर प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं । मनुष्यों को जो भी अच्छे या बुरे दिन आते हैं वह सब ईश्वर की कृपा से ही आते हैं लेकिन मनुष्य को मानसिक तनावों से मुक्त होकर अल्ला का ईश्वर का नामस्मरण करना चाहिए । इनका एक पद-
एक जनार्दनी करती करतारी ,गाफल क्यों करता मगरुरी” ।। 7[5]
इन पदों के माध्यम से एकनाथ जी कहते हैं कि कभी हम अधिकारी के पद पर रहते हैं तो कभी कंगाल भिखारी होने की बारी आती है । इसलिए जनार्दन कहते हैं कि हे नासमझ इंसान कभी गर्व मत कर । एकनाथ जी हमेशा आदर्श विचारों को लोगों के सामने रखे हैं ।
संत तुकाराम एक ऐसे संत हैं जिन्होंने वारकरी सम्प्रदाय रूप मंदिर के कलश को लगाने का कार्य किया है। संत तुकाराम एक निराकार ईश्वर में विश्वास रखने वाले भक्त है । इनके अनुसार सांसारिकता के साथ-साथ अध्यात्मिक आनंद संभव नहीं है ,इन्होंने संसारिकता को छोड़कर अध्यात्मिकता को स्वीकार किया और भक्तिगीत गाते हुए ईश्वर विठोबा के नजदीक रहकर अपना जीवन व्यतीत किया । उन्होंने ईश्वर की सर्वव्यापकता पर बल देकर तीर्थयात्रा, मूर्तिपूजा और बलिदान आदि को अस्वीकार कर दिया । विट्ठल के साथ-साथ इन्होंने राम की भी आराधना की और कहा कि-
मंत्र यंत्र नहिं मानत साखी । प्रेमभाव नहिं अंतर राखी” ।।8
इन पंक्तियों के माध्यम से संत तुकाराम यह कहते हैं कि जो भी भक्त राम का नाम लेते हैं उसके चरणों की मैं वंदना करता हूँ और जहाँ पर भी कपट एवं अभिमान हो वहां से मैं हमेशा दूर जाना चाहता हूँ । न मैं मंत्र-तंत्र जानता हूँ और न रचना कर सकता हूँ । जहाँ प्रेमभाव हो वहां मैं होता हूँ ,प्रेमभाव में मैं कोई दुरी रखना नहीं चाहता हूँ । संत तुकाराम जन-मानस के मार्ग से कोई संबंध नहीं रखना चाहते हैं लेकिन उनकी पीड़ा से दूर नहीं भागते बल्कि हित एवं अहित को पलेकर हमेशा जागृत करते हैं -
काहे भूमि इतना भार राखे, दुभत धेनु नहिं दूध चाखे” ।। 9 [6]
जो मनुष्य व्यक्तिगत उध्दार चाहता है ,उसका कौनसा बडप्पन है ? दूसरों के बारे में हमेशा जो मनुष्य सोचता है ,भला चाहता है ,वही भला मनुष्य कहलाता है । यह भूमि क्यों दूसरों का इतना भार संभालती है ? अर्थात दूसरों के लिए खुद पीड़ा में रहती है । गाय खुद के लिए दूध न रखकर दूसरों के लिए देती है । संत तुकाराम अत्यंत भावुक होते हुए भी व्यावहारिक जीवन की सफलता की विचार जितने स्पष्टता से रखते हैं शायद ही और कोई रखता हो ।
मराठी संत साहित्य में सामर्थ्य की प्रतिमूर्ति कहीं जाने वाले और जिनकी गिनती राष्ट्रवादी संतों में प्रमुखता से की जाती है ऐसे संत रामदास जी हैं । उन्होंने देश में असंख्य मठ एवं अखाड़े बनाकर नव युवाओं को प्रेरित किया ताकि वे विदेशी शासकों के अत्याचारों का मुकाबला करने में सक्षम बन सकें । इन्होंने मनुष्यों को भक्तिमार्ग पर चलने के लिए कहा है जो जीवन की नकारात्मकता को नष्ट करता है और परमार्थ के साथ-साथ प्रपंच का समन्वय करने में भी सफल होते हैं । यह भक्ति को केवल ज्ञान ही प्रदान नहीं करते हैं बल्कि कर्म से जन सेवा करने की प्रेरणा देते हैं । रामदास का रामदासी सम्प्रदाय समाज जागरण की नजर से अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ और शिवाजी महाराज के महान कार्य में इनका समयोचित सहयोग भी रहा है । संत एकनाथ जी के साथ-साथ संत रामदास जी के रह्दय में केवल राम बैठते हैं, यह उनके काव्य के माध्यम से पता चलता है-
संत रामदास की आँखों में हमेशा रघुवीर बैठते हैं । कोमल शरीर वाले भटनागर की लीला को देखता हूँ तब चकित हो जाता हूँ । कमल नयन राम सचमुच रणधीर वीर हैं ,राम के प्रीति प्रेम में रामदास की आँखों से आंसू झरते रहते हैं । यह व्यवहारिक के स्तर पर एकता को निर्देशित करते हैं और लग भग सभी महाराष्ट्र के सभी संतों का सर्व धर्म पर समभाव रहा है । हिन्दू- मुस्लिम एकता का स्थापित करते हुए रामदास जी कहते हैं कि -
कुबल बखत हिन्दू जायेंगे ,जायेंगे मुसलमान” ।। 11[7]
संत रामदास प्रखर धर्मनिष्ठ होकर भी उज्जवल परम्परा का पालन करते हैं । जिस तरह से हिन्दू नष्ट होंगे तो उसी तरह से मुसलमान भी नष्ट होंगे ।
अंत: संत रामदास का भाव विश्व संत एकनाथ जी से अनुप्राणित हुआ तो इसमें कोई अश्चर्य करने वाली बात नहीं है । इनका महत्वपूर्ण योगदान महापराक्रमी स्वराज्य के संस्थापक शिवाजी महाराज के अलौकिक कार्य में रहा है ।
महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र से एक ऐसे संत का उद्भव हुआ जिन्हें आधुनिक काल के सूरदास की उपाधि देना उचित लगता है । प्रज्ञाचक्षु संत गुलाबराव महाराज हैं,इन्होंने विदर्भ से विशेष रूप से भक्ति को एक ऐसी मिली दिव्या देन है,जो उस समय के युग को ही नहीं बल्कि भविष्य में आने वाले युगों को मार्गदर्शन करती रहेगी । जन्म से ही प्राप्त अंधत्व की सारी सीमाओं को तोड़कर अपने ज्ञान द्वारा एक अलग ही पहचान निर्मित की ,जो अज्ञान के अंधकार को चीरकर जन-मानस के रह्दयों में भक्ति भावना का प्रकाश देती हैं । संत गुलाबराव महाराज संत ज्ञानेश्वर एवं श्रीकृष्ण की भक्ति से प्रभावित थे । इन्होंने ‘ज्ञानेश्वर मधुराद्वैत संप्रदाय’ को साकार करते हुए वारकरी संप्रदाय की विजयपताका फहराने का कार्य किया है ।
संत गुलाबराय महाराज का समय भारतीय स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयासों का समय था । इनके समय काल में मुस्लिम शासकों के स्थान पर अंग्रजों ने शासन स्थापित करके सांस्कृतिक आक्रमण करने के लिए योजनापूर्वक पैर जमा रहे थे । बौद्धिक रूप से गुलाम भारतीय जनता को स्वामी श्रध्दानंद,स्वामी विवेकानंद की तरह संत गुलाबराव महाराज ने भी जागृत करने का प्रयास किया है ।
संत गुलाबराव महाराज सगुणोंपासना के साथ-साथ निर्गुणोंपासना को भी मानते हैं । यह अपने आपको श्रीकृष्ण की प्रियतमा मानते हैं और ज्ञानेश्वर की कन्या यह उनके पदों के माध्यम से देखने को मिलता हैं-
औरन को नित छोर दिया है ,अब नहिं चाहती सुरधामा ।। 1 ।।
जोग जाग अरु ब्रह्मासिद्धि को,नहिं ल्यावति मनकामा ।। 2 । ।
ज्ञानेश्वर कन्या ब्रजवर की ,भई अनमोल सुभामा ।। 3 ।। 12 [8]
इन पदों में कहते है कि प्रियतम के लिए मैंने सभी का त्याग किया है । मुझे अब स्वर्ग प्राप्ति की भी चाहत नहीं है। योग-याग और ब्रह्मा प्राप्ति के सभी वस्तुओं को त्याग दिया है । अब इस ज्ञानेश्वर की कन्या ने ब्रजवर श्री कृष्ण की अनमोल प्रियतमा बनना स्वीकार कर लिया है ।
महाराष्ट्र के संत कवियों द्वारा प्रचारित उदार धर्म को लोकप्रिय रूप से महाराष्ट्र धर्म के रूप में जाना जाता है । महाराष्ट्र राज्य का उत्तर और दक्षिण भारत के जगहों में समानता होने के चलते सांस्कृतिक एवं अध्यात्मिक भावधाराओं का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक कह सकते हैं । इन संतों ने ईश्वर की परिकल्पना द्वारा उत्तर एवं दक्षिण की वैष्णव और शैव दोनों भक्ति को एक साथ अपनाने का प्रयास किया बल्कि इसमें सफल भी रहें हैं,जिसका स्वरुप विट्ठल के सवरूप में हमें दिखाई देता है । संतों के स्वभाव आचरण सिद्धांत, उद्देश्य आदि संत काव्य भक्ति से परिपूर्ण हैं । इन संतों का मराठी भक्ति-आन्दोलन में ही नहीं बल्कि हिंदी भक्ति-आन्दोलन में भी बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहा है । इन संतों के साथ-साथ कुछ ऐसे भी संत हैं जिनके योगदान को नकार नहीं सकते,उसमें महदाइस उपम्बा,मुकुन्दराज,माणिक नामदेव भट्ट, संत तुकडोजी और संत बहिणाबाई आदि ।
सन्दर्भ :
1.
भक्ति-आंदोलन और भक्तिकाल,लेखक-शिवकुमार मिश्र,अभिव्यक्ति प्रकाशन इलाहाबाद,संस्करण- 2005
2.
महाराष्ट्र के संतों का हिंदी काव्य ,लेखक-प्रभाकर सदाशिव पण्डित,उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ,लखनऊ ,संस्करण-1991
3.
हिंदी को मराठी संतों की देन, ले-आचार्य विनयमोहन शर्मा ,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,पटना, संस्करण-2014
4.
महाराष्ट्र के प्रिय संत और उनकी हिंदी वाणी,संपादक-डॉ.विनयमोहन शर्मा,विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी
5.
श्री नामदेव गाथा ,महाराष्ट्र राज्य साहित्य आणि संस्कृति मंडळ,मुंबई,प्रकाशन वर्ष -2008
6.
महाराष्ट्र के संतों का हिंदी काव्य ,लेखक-प्रभाकर पण्डित,प्रकाशक-विनोद चन्द्र पाण्डे,उत्तर प्रदेश संस्थान लखनऊ, प्रथम संस्करण-1991
[1] भक्ति-आंदोलन
और भक्तिकाल,लेखक-शिवकुमार मिश्र,पृष्ठ सं-204
[2] महाराष्ट्र
के संतों का हिंदी काव्य ,लेखक-प्रभाकर सदाशिव पण्डित, पृष्ठ सं-3
3 हिंदी को मराठी संतों की देन, ले-आचार्य
विनयमोहन शर्मा,पृष्ठ सं-93
[3]4 महाराष्ट्र के प्रिय संत और उनकी हिंदी वाणी-संपादक-डॉ.विनयमोहन
शर्मा, पृष्ठ सं-54)
[4]5 श्री
नामदेव गाथा,महाराष्ट्र राज्य साहित्य आणि संस्कृति मंडळ, पृ.सं-320
6 वही, पृष्ठ सं-20
[5]7 महाराष्ट्र
के संतों का हिंदी काव्य ,लेखक-प्रभाकर सदाशिव पण्डित, पृ.सं-59
8 वही, पृ.सं-84
[6]9 महाराष्ट्र
के संतों का हिंदी काव्य ,लेखक-प्रभाकर सदाशिव पण्डित, पृ.सं-86
10 वही,पृ.सं-111
[7]11 महाराष्ट्र
के संतों का हिंदी काव्य ,लेखक-प्रभाकर सदाशिव पण्डित, पृ.सं-113
[8]12 वही, पृ.सं-136
सहायक अध्यापक,हिंदी विभाग, कर्नाटक केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गुलबर्गा
8919512527
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक : अजीत आर्या, गौरव सिंह, श्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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