यद्यपि नवजागरण की अवधारणा की निर्मिति आधुनिक काल के दौरान हुई तथापि जागरण की कोई समय-सीमा तय नहीं की जा सकती। क्योंकि, जब इंसान अपने तत्कालीन समाज, युग और परिस्थितियों में जकड़ी हुई मानसिक रूढ़ियों से स्वतंत्र होकर आत्मविवेक से निर्णय लेता है, तो वह अवश्य जागरण कहलाएगी। वस्तुतः भारतीय नवजागरण एक क्रमिक विकास की दीर्घकालीन प्रक्रिया है; जो बुद्ध, महावीर आदि से आरंभ होकर भक्त कवियों की भक्तिभावनापरक कविताओं में गोते लगाते हुए, 1857 की क्रान्ति से गुजरते हुए आधुनिक युग में प्रवेश करती है। नामवर सिंह का कथन इस संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है – “यूरोप के पास सिर्फ एक रिनेसां है तो भारत में नवजागरणों की एक लंबी शृंखला है।”[3]
सारांश यह है कि भारत के इतिहास में नवजागरणों की एक लंबी फेहरिस्त रही है, जो अपने तत्कालीन समय की सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक क्षेत्रों में व्याप्त कुरीतियों, अंतर्विरोधों आदि से न्यूनाधिक संघर्ष करती रही है।
भारतीय उपमहाद्वीप के मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में छठी शताब्दी ई. पू. के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक अंतर्विरोधों तथा कुरीतियों ने बौद्ध धर्म के उदय का मार्ग प्रशस्त किया। उत्तर वैदिक काल की धार्मिक व सामाजिक विकृतियों यथा पुरोहितवाद, ब्राह्मणवाद, अंधविश्वास, कर्मकांड, वर्ण व्यवस्था, पितृसत्तात्मकता, बलिप्रथा इत्यादि ने आम जनता पर हद से अधिक नैतिक और आर्थिक बोझ डाल दिया था। इसके अलावा वैदिक धर्म भारत की एक बड़ी जनसंख्या जिनमें शूद्र, दलित व स्त्रियाँ शामिल थीं; उनके भावनाओं और विश्वासों के अनुरूप व्यावहारिक और आसान नहीं था। ऐसी स्थिति में बुद्ध द्वारा करुणा, दया, अहिंसा, समानता व स्वतन्त्रता के मूल्यों पर आधारित सरल, व्यावहारिक व मानवतावादी धर्म को आम जनता ने सहृदयता से स्वीकार किया। बुद्ध के सहज करुणामय वचनों ने आम जनता को बौद्ध धर्म के प्रति अत्याधिक आकर्षित किया। फलस्वरूप हजारों पुरुष व स्त्रियाँ बौद्ध धर्म के अनुयायी बनते गए। “इस तरह बुद्ध ने मानव इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी धार्मिक क्रान्ति कर दिखाई, जिसमें कहीं पर भी और कभी भी किसी भी प्रकार का बल, लोभ, लालच का इस्तेमाल नहीं किया गया था।”[4]
कहना न होगा कि सामाजिक, राजनीतिक और मानसिक चेतना सभी के संदर्भ में बुद्ध ने समाज व व्यक्ति को नई राह दिखाई। अतः बुद्ध काल को भारतीय इतिहास का प्रथम नवजागरण कहना अतिशयोक्ति न होगा। तब प्रश्न उठता है कि जब बुद्ध युग ही प्रथम नवजागरण काल है तो फिर उसी काल के अंतर्गत आने वाली बौद्ध भिक्षुणियों की गाथाओं यानि ‘थेरीगाथा’ को आधी आबादी का प्रथम नवजागरण कहना कितना तर्कसंगत है?
दरअसल ‘आधी आबादी’ से यहाँ तात्पर्य समाज की आधी आबादी यानि ‘महिलाओं’ से है। कोई कह सकता है कि नवजागरण को स्त्री व पुरुष में विभाजित करना आवश्यक नहीं है। परंतु, नवजागरण की अवधारणा को भी स्त्री-पुरुष के दृष्टिकोण से विश्लेषित करना आवश्यक है। हम सभी पितृसत्ता के इतिहास से वाकिफ हैं। भारतीय समाज सदियों से एक पितृसत्तात्मक समाज रहा है। वस्तुतः “पितृसत्ता स्त्री पर पुरुष नियंत्रण कायम रखने की सामाजिक व्यवस्था का नाम है। यह ऐसी व्यवस्था है जो निर्णय और सामाजिक उत्पादन, मुनाफ़े और संपत्ति से स्त्री को बाहर करती है। लिंगों के बीच वह ताकत का ऐसा असमान बँटवारा करती है कि स्त्री की देह, अर्थ और श्रम अधीन किए जा सकें।”[5]
आधुनिक नवजागरण अन्य सामाजिक सुधारों की तरह स्त्री-सुधार का युग था, परंतु इन सुधारों की लगाम पुरुष सुधारकों के हाथों में ही थी। जिसका परिणाम यह हुआ कि 19वीं सदी के नवजागरण के अंतर्गत स्त्री-सुधार पितृसत्तात्मक मूल्यों से ही संचालित होते रहें। अन्य क्षेत्रों की तरह साहित्य में अभी भी स्त्री का स्वतंत्र रूप विकसित नहीं हुआ था, बल्कि व पुरुषों की ‘अन्या’ के रूप में ही चित्रित हो रही थी। ये स्थिति तब तक नहीं बदलनी शुरू हुई जब तक पंडिता रमाबाई, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे इत्यादि स्त्री लेखिकाओं ने पितृसत्ता की जड़ों को अपने तर्कों से खोदना आरंभ नहीं किया। “दिक्कत यह रही कि सुधारकों द्वारा उस स्त्री रूप के सुधार की कल्पना की गई जो उनके इतिहास में थी। सती, वीरांगना, मेधावी, अनुपम त्यागमयी और सौन्दर्यशालिनी। उस स्त्री के आदर्श को सामने रखा गया जो उनकी स्मृति में थी। स्त्रियों की तत्कालीन अवस्था को देखते हुए यह आदर्श कुछ अधिक ही ऊँचा था, फिर भी स्त्री के उद्धार की चर्चा आरंभ हुई।”[6]
19वीं सदी के नवजागरण के मुख्य स्त्री-प्रश्नों में सती प्रथा निषेध, बाल विवाह निषेध, विधवा पुनर्विवाह, स्त्री शिक्षा इत्यादि महत्वपूर्ण थे। परंतु, बौद्ध कालीन महिला संतों का स्त्री प्रश्न इनसे भिन्न था। बौद्ध भिक्षुणियों की गाथाएँ किसी विचारधारा से संचालित नहीं है, बल्कि उनके अपने जीवनानुभवों के आधार पर पितृसत्तात्मक समाज में भोगे गए अंतहीन पीड़ा की आत्माभिव्यक्ति है। और मज़ेदार बात है कि उनके जीवनानुभव आज के कई स्त्री-प्रश्नों से टकराते हैं। तात्पर्य है कि आज लगभग ढाई हज़ार सालों के बाद भी बौद्ध महिला संतों के स्त्री प्रश्न कई रूपों में विद्यमान हैं। जबकि हमारे साहित्य व समाज में इतने वर्षों में कई नवजागरण हुए, कई क्रांतियाँ हुईं, पर स्त्रियों की स्थिति वही की वही क्यों है? इसका उत्तर विभिन्न क्षेत्रों में स्त्रियों के प्रतिनिधित्व के प्रश्नों में ढूंढा जा सकता है। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज के अंतर्गत संसाधन से लेकर उत्पादन, साहित्य, राजनीति, अर्थव्यवस्था इत्यादि सभी क्षेत्रों में पुरुषों का एकाधिकार रहा है। पितृसत्ता ने स्त्रियों के ऊपर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए चिरकाल से साम, दाम, दंड, भेद सबका सहारा लिया। कभी उसे देवी बनाया तो कभी मातृशक्ति – कभी उपहार दिया तो कभी उसकी तारीफ में क़सीदे गढ़े। पुरुषों ने स्त्रियों के लिए चाँद-सितारे तक तोड़ लाने की कसमें खायीं, पर उन्हें मानवोचित सम्मान कभी न दिया। वह त्याग, करुणा, दया के ऊँचे-ऊँचे आदर्शों पर बैठायी गई, पर वास्तव में वह पुरुषों के हाथों की कठपुतली बनी रही। फलस्वरूप स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में अंतर्विरोधों का सैलाब उमड़ता रहा। आज का स्त्री विमर्श इन्हीं अंतर्विरोधों की जड़ों पर प्रहार करता है और स्त्री को एक मनुष्य के रूप में गरिमा प्रदान करने के लिए संघर्षरत है।
आधुनिक स्त्रीवाद स्त्रैण लेखन (एक्रिचर फ़ेमिनाइन) और स्त्री का आनंद की अवधारणा प्रस्तुत करता है। जिसके अनुसार “स्त्रियों को भाषा से वैसे ही बाहर किया गया है जैसे उन्हें उनकी देह से। ऐसी स्थिति में स्त्री का स्त्री होकर लिखना न सिर्फ अपनी आवाज़ पाना है, बल्कि अपनी देह पर पुनः अपना कब्जा पाना है।”[7]
इस संदर्भ में थेरीगाथा विश्व का सबसे प्राचीन स्त्री लेखन है। थेरीगाथा हमें न केवल स्त्री लेखन के प्राचीन समय में लेकर जाता है, बल्कि बौद्धकालीन स्त्रियों के जीवन के विभिन्न पहलुओं, उनके स्त्री अनुभवों, अवसाद, पीड़ा और पितृसत्तात्मक समाज में भोगे गए यथार्थ से भी परिचित कराता है। थेरीगाथा प्राचीन भारत का एकमात्र धर्म द्वारा संरक्षित साहित्य है जिसे स्त्रियों ने अपने जीवन के मृदुल-तिक्त अनुभवों के आधार पर रचा है। आज यह बात सामान्य लग सकती है, पर बौद्धकाल के पितृसत्तात्मक सामंती समाज में, स्त्रियों का, स्त्रियों के द्वारा, स्त्रियों के लिए समर्पित गाथा स्वयं में एक विलक्षण दस्तावेज़ है। बौद्ध साहित्य के सुत्तपिटक के खुद्दक निकाय के अंतर्गत थेरीगाथा और थेरगाथा नामक दो स्वतंत्र उद्गार हैं। थेरीगाथा में कुल 73 बौद्ध भिक्षुणियों के आत्मिक उद्गार 522 सूक्तों में संकलित हैं। जिनमें उन्होंने कथाओं व नाटकीय परिस्थितियों के वर्णन द्वारा अपने अतीत के अवसाद, मातृत्व, स्त्री-दु:ख, शोषण, अन्याय, अनादर, मृत्यु इत्यादि दु:खों की अभिव्यक्ति की है और इन दु:खों के कारणों पर उनके द्वारा जीत हासिल करने की घोषणा भी है।
चूँकि, बौद्धकाल का समाज भी पितृसत्ता से अछूता न था। तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद बौद्ध धर्म स्त्रियों के मामले में कई स्तरों पर रूढ़िवादी दिखाई पड़ता है। तभी तो समानता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों का वहन करने वाला बौद्ध धर्म संघ में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर पुरुषों की अनुमति अनिवार्य मानता था। हालाँकि, इसके बावजूद बौद्ध धर्म स्त्रियों के प्रति वैदिक धर्म की अपेक्षा उतना कट्टर नहीं था। जिसके कारण बड़ी संख्या में स्त्रियाँ बौद्ध धर्म में प्रव्रज्या ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त कीं। “वस्तुतः थेरीगाथा स्त्रियों के अनुभव संसार का अनूठा संकलन है जो उनके सुख-दु:ख, इच्छा-अनिच्छा, महत्वाकांक्षाओं-संवेदनाओं का परिचय हमें देता है। थेरीगाथा नारीवाद से अनभिज्ञ ऐतिहासिक चरण का स्त्री विमर्श प्रस्तुत करने वाला महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।”[8]
थेरीगाथा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र सभी वर्णों तथा विवाहित, अविवाहित, विधवा, वेश्या, दासी, धनी, निर्धन इत्यादि सभी वर्गों की भिक्षुणियों के उद्गार शामिल हैं। इनमें अंबपाली, अभयमाता, विमला और अड्ढकासी गणिकाएँ थीं तो पूर्णिका नामक दासी भी थी। कहने का तात्पर्य है कि थेरीगाथा की भिक्षुणियों की अपनी बहुमुखी पहचान है। जिसमें सबसे पहली पहचान है – स्त्री होने की। स्त्री अस्मिता थेरीगाथा को थेरगाथा से अलग करती है। “थेरगाथाएँ प्रकृति-सौन्दर्य में रची बसी हैं जबकि थेरीगाथाएँ अपने भीतर की यात्राएँ हैं, जिसमें उनकी पूर्वस्मृतियाँ भी जुड़ी है।”[9]
इसके अलावा आत्म-अभिव्यंजनाएँ थेरियों की दूसरी प्रमुख पहचान है। वे भले ही संन्यासी बन चुकी हैं परंतु बार-बार अपने अतीत की तरफ मुड़कर पुराने जीवन को याद करने लगती हैं। थेरी संघा के हृदय के उद्गार देखें – “प्रव्रज्या लेकर मैंने घर छोड़ा, अपनी प्रिय संतान को छोड़ा, अपने प्रिय पशुओं को छोड़ा। राग और द्वेष को छोड़ा, अविद्या को छोड़ कर विरक्त हुई। निर्वाण का अनुभव करके मैं परम शांत हूँ।”[10]
थेरगाथा में थेरीगाथा की अपेक्षा आत्माभिव्यक्ति के अंश कम है। उनका संबंध बुद्ध के आध्यात्मिक वचनों व उनकी शिक्षा से अधिक है। परंतु, थेरीगाथाओं में बौद्ध चिंतन उतना गहरे ढंग से नहीं आया है, भिक्षुणियाँ होने के बावजूद वे अपने अतीत के स्त्री अनुभवों को भुला पाने में असमर्थ हैं। थेरियों की मुक्ति भी थेरों से अलग है। थेरों के लिए निर्वाण का आशय है – दु:ख के कारणों को जान लेना व आष्टांगिक मार्ग का पालन करते हुए उन कारणों पर विजय प्राप्त करना। पर थेरियों के लिए, “निर्वाण क्या है – मुक्ति। और यह मुक्ति उन भौतिक संबंधों और दु:खों से है जो स्त्री के ‘स्व’ को नष्ट कर देते हैं। . . . . . . लगातार अनादर, अपमान और शोषण।”[11]
पितृसत्तात्मक परिवार में पति द्वारा निरंतर अपमान और अनादर झेलने की तिक्त स्मृति को सुमंगलमाता नामक थेरी की गाथा में देखा जा सकता है –“अहो! मैं मुक्त नारी हूँ। मेरी मुक्ति कितनी धन्य है! मेरी दरिद्रावस्था के वे छोटे-छोटे भांडे बर्तन, जिनके बीच में मैं मैली-कुचैली बैठती थी, और मेरा निर्लज्ज पति मुझे उन छातों से भी तुच्छ समझता था, जिन्हें वह अपनी जीविका के लिए बनाता था।”[12]
इसी तरह एक गरीब ब्राह्मण की पुत्री मुत्ता नामक थेरी की गाथा उसके गृहस्थ जीवन के परित्याग के बाद अनुभूत मुक्ति के आह्लाद का वर्णन है। वह तीन टेढ़े चीजों से मुक्ति को भव्य मानते हुए कहती है– “अब मैं मुक्त हूँ/ तीन वक्र वस्तुओं से/ मुझे चक्की से मुक्ति मिल गई/ खरल-ओखल मुझसे अब दूर हैं/ वक्र पृष्ठ वाले कुबड़े स्वामी से/ अब मैं स्वाधीन हूँ।”[13]
कहना न होगा इन दोनों थेरियों की मुक्ति आध्यात्मिक ना होकर भौतिक है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों ने हर संभव श्रम किया, परंतु पुरुष की नज़र में वह हमेशा कमतर ही रही। पितृसत्ता द्वारा बनाए गए कठोर नियमों और मर्यादाओं ने उसके हृदय पर इतने गहरे घाव किए जो संन्यासी बनने के बाद भी नहीं भर पाए। यही कारण है कि ऐसी मुक्ति की घोषणा हमें थेरीगाथा में देखने को मिलती है, थेरगाथा में नहीं। इसलिए भी थेरीगाथा अपने आप में विशिष्ट है।
थेरगाथा और थेरीगाथा के बीच ‘जेंडर’ का जो अंतर था, उनके लेखन में वह अंतर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। इस जेंडर आधारित अंतर को समझ कर स्त्री-भाषा, स्त्री-पहचान व स्त्री-लेखन को समझने में मदद मिलेगी। बौद्धकालीन समाज भी जेंडर मुक्त समाज नहीं था यानि उसमें भी अन्य समाजों की तरह लैंगिक भेदभाव विद्यमान था। अतः थेरियों ने प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद भी पितृसत्तात्मक शोषण व स्त्री की दयनीय दशा के अपने तिक्त स्त्री अनुभवों को स्त्री-भाषा में चित्रित किया है। कृशा गौतमी नामक थेरी द्वारा नारी जीवन की पीड़ा का चित्रण उसके इस उद्गार में देखा जा सकता है –
“स्त्री होना दु:ख है/ कहा गौतम बुद्ध ने/ सपत्नियों के साथ/ एक घर में रहना दु:ख है/ तीव्र पीड़ा में बच्चों को जनना दु:ख है/ जनने वाली माताएँ/ चाहती हैं मृत्यु/ काट लेती हैं अपना गला/ सहना न पड़े दु:ख/ सुकुमारियाँ कुछ करती हैं विषपान/ जनता नहीं जब बच्चा/ रुक जाता है गर्भ बीच राह/ बन जाता है भ्रूण मातृघातक”[14]
ये पुरुष जीवन के नहीं बल्कि स्त्री जीवन की नितांत निजी पीड़ा है। उपर्युक्त पंक्तियों की भाषा से स्पष्ट है कि ऐसी भाषा कोई स्त्री ही लिख सकती है। इनमें एक विशिष्ट स्त्री अस्मिता परिलक्षित हो रही है, जो स्त्री के स्वयं के अनुभवों से सम्बद्ध है। इसी प्रकार थेरी इसीदासी की गाथा स्त्री जीवन की त्रासदी का आख्यान है। गाथा में उसके तीन बार विवाह करने व परित्यक्त होने का उल्लेख मिलता है। भेदभावमूलक पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था में स्त्री हमेशा वस्तु समझी गई है। फलस्वरूप पुरुष विभिन्न साधनों द्वारा उसका शोषण करता आया है। गाथा में वर्णित है कि इसीदासी के दोष न रहने के बावजूद उसके तीनों पतियों ने उसे त्याग दिया। पितृसत्तात्मक समाज में सदा पुरुषों के निर्णय का ही सम्मान होता है, स्त्रियों को तो निर्णय लेने का अधिकार ही नहीं है और अगर विद्रोह करके कोई स्त्री निर्णय ले भी लेती है, तो उसे कमतर ही आँका जाता है। ससुराल में पति, सास-ससुर सबकी सेवा करने के बावजूद इसीदासी की पीड़ा है- “मैं- जिसने किया अंतहीन कठोर श्रम/ और विनम्रता से दी निरंतर सेवा/ शीघ्र उठी प्रातः/ परिश्रम अच्छी गुणी/ पर न भायी उसके(पति) मन को।”[15]
पुरुष भिक्षुओं के प्रव्रज्या ग्रहण के पीछे कुछ विशेष कारण नहीं था, अधिकतर भिक्षु सांसारिकता से मोहभंग तथा बुद्ध के उपदेश से प्रेरित होकर संन्यासी बने। परंतु, बौद्ध भिक्षुणियों के संबंध में उनके प्रव्रज्या ग्रहण करने का एक विशिष्ट कारण है, जो शत-प्रतिशत उनके स्त्रीत्व से संबंधित है। कई थेरियाँ ऐसी थीं जो संतान वियोग में मानसिक विक्षिप्त होकर भटकने के उपरांत बुद्ध के वचनों से प्रभावित होकर संघ में शामिल हुईं। इनमें उब्बरी, पटाचारा, वाशिष्ठी और किसा गौतमी उल्लेखनीय हैं। “माँ का संतति से नैसर्गिक लगाव होता है, अतः दु:ख स्वाभाविक है किन्तु संतान खोने की स्थिति में जीवन को त्रासद मान लेना एवं उससे विमुख हो जाने की अवधारणा पितृसत्तात्मक समाज ने स्त्री में रूढ़ की। ऐसे समाज में स्त्री की पहचान और प्रतिष्ठा परिवार, पति और संतान के संदर्भ में तय होती है। इसलिए वह स्त्री के लिए पुरुष की तुलना में अधिक मूल्यवान होते हैं जिनको खो देने पर असंतुलन स्वाभाविक है।”[16]
सोणा नामक थेरी की कहानी कुछ अलग है। दस संतानों की माता होने के बावजूद वृद्धावस्था में संतानों द्वारा प्रताड़ित होने के कारण अपने दुर्बल शरीर के साथ वह संघ में प्रवेश करती है। उसकी गाथा में संतानों द्वारा किए जाने वाले दुर्व्यवहार और अपमान का संकेत मिलता है – “मैंने रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान के मिलन क्षेत्र इस शरीर से, दस पुत्रों को पैदा किया है। फिर दुर्बल और जीर्ण होकर मैं एक भिक्खुनी के पास आई।”[17]
इस प्रकार अधिकांश बौद्ध भिक्षुणियों की गाथाएँ वस्तुतः उनकी भीतरी यात्राएँ ही अधिक हैं। निर्वाण प्राप्ति के बाद भी पितृसत्तात्मक व सामंती समाज के शोषण से संतप्त उनके शांतचित्त में बार-बार दर्द की लहरें हिलोरें मारने लगती हैं। “मूलतः ये कविताएँ एक ऐसा कण्ट्रास्ट रचती हैं जिसमें बोध और संवेदना एक-दूसरे के बरक्स दिखाई देते हैं। बल्कि कई जगह पर भावनाएँ और अंतर्दृष्टि बेहद प्रबल हैं।”[18]
बौद्ध काल की प्रसिद्ध गणिका अंबपाली, जो बाद में भिक्षुणी बनी; उसकी गाथा में यह बोध और संवेदना का कण्ट्रास्ट साफ तौर पर देखा जा सकता है। अम्बा ने अपने अतीत और वर्तमान के सौन्दर्य का जो नखशिख वर्णन किया है, उसे सुमन राजे ‘सौन्दर्य का असौंदर्यशास्त्र’ कहती हैं। बतौर सुमन राजे- “अपने ही अंगों का इस तरह विरूपीकरण करना और उसका यथार्थ चित्रण संभवतः विश्व साहित्य में दूसरा नहीं। यह न तो सामान्य कथन है, न कथित कथन। यह अपने ही अहं को तोड़कर फूँक-फूँक कर उड़ाना है।”[19]
अंबपाली द्वारा स्वयं का सौन्दर्य वर्णन सिर्फ बुद्ध के अनस्थिरता और परिवर्तन के दर्शन का उपदेश मात्र नहीं है, बल्कि अपने अतीत और देह पर चिंतन भी है –
“रूपवान आकर्षक था/ पहले मेरा शरीर/ जर्जर है अब/ और दु:खों का आलय/ जैसे लीपन टूट-टूट कर/ गिरती जर्जर घर से/ जरा का घर यह शरीर/ शीघ्र ही गिर जाएगा/ बुद्ध है सत्य समान/ कभी न कहें मिथ्या वचन”[20]
ध्यातव्य हो देह पर थेर-थेरियों दोनों ने विचार किया है, पर थेरों ने स्त्री देह को हिकारत भरी दृष्टि से देखते हुए उसे दु:खों का खान बताया। वह स्त्री देह को मार्ग का बाधा स्वीकार करते हैं। परंतु, थेरियों ने अपनी देह को केंद्र में रखा और उससे ऊपर उठने का संघर्ष भी किया। आधुनिक स्त्री चिंतन में भी देह-विमर्श एक मुख्य मुद्दा है।
नवजागरण के संदर्भ में तर्क को आस्था या विश्वास की अपेक्षा अधिक महत्व दिया जाता है। शंभुनाथ के अनुसार- “भक्ति आंदोलन विश्वास और नवजागरण तर्क बुद्धि पर आधारित था। दोनों ने औजारों की भिन्नता के बावजूद अपनी सीमाओं में सत्ता की संस्कृति को ज़बरदस्त चुनौती दी।”[21]
ठीक इसी प्रकार बौद्धकालीन भिक्षुणियाँ उस समय पितृसत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती दे रही थीं, जब स्त्री चिंतन की कोई विचारधारा विकसित नहीं हुई थी। भक्ति काल की तरह थेरियों के औज़ार भी आधुनिक नवजागरण से भिन्न थे, परंतु उन्होंने अपनी गाथाओं के द्वारा अपने शोषक समाज की जड़ें खोदने का भरसक प्रयास किया। इस दृष्टिकोण से वे आधुनिक स्त्रियों के समकक्ष खड़ी दिखाई पड़ती हैं। चूँकि दर्शन के अंतर्गत तर्क व जिज्ञासा महत्वपूर्ण अवयव है। थेरी पूर्णिका एक दासी थी। ‘स्नानशुद्धि से पापमुक्ति होती है’ जैसे अंधविश्वास का खंडन करते हुए वह एक ब्राह्मण को अपनी तर्कबुद्धि से पराजित करती है। वह सहज तर्क प्रस्तुत करती है –“यदि गंगा जल से ही शुद्धि होती, तब तो मेढक, कछुए, जल के सर्प मगर और अन्य जलचरों का स्वर्ग में जाना सुनिश्चित है। . . . . . . . यदि नदी में नहाने से पापकर्म धुल जाते हैं, तो क्या फिर उनके साथ ही तेरे पुण्यकर्म भी न धुल जाएँगे? फिर तेरे पास क्या शेष रहेगा?”[22]
बौद्धकालीन भिक्षुणियों के स्त्री लेखन को आधी आबादी का प्रथम नवजागरण कहते हुए यह प्रश्न स्वाभाविक है कि वैदिक काल में भी तो स्त्रियाँ लिख रही थीं; तो वैदिक ऋषिकाओं के लेखन को कालक्रम के अनुसार प्रथम नवजागरण क्यों नहीं कहा जा सकता? वस्तुतः वैदिक स्त्री लेखन की तुलना में बौद्ध भिक्षुणियों का लेखन सर्वथा अलग भूमिका में है। “यह अंतर केवल भाषाओं का नहीं है, भिन्न सामाजिक स्तरों, वर्गों और विचार-सारणियों का है। महिला लेखन की दृष्टि से यह अंतर रेखांकित करने योग्य है। वैदिक ऋषिकाएँ प्रायः सभी ऋषिकुलों की हैं, कुछ को छोडकर। उसमें अतीत और वर्तमान जैसा विभाजन नहीं है। अन्यों की तरह, किसी विशेष अवसर पर किसी विशेष अभिप्राय से, किसी विशेष देवता के स्तुतिगान हैं, प्रार्थनाएँ हैं, अपेक्षाएँ हैं।”[23]
अर्थात् वैदिक ऋषिकाओं की न तो अपनी स्त्री-भाषा है न ही अपनी स्त्री-पहचान। वे लिख भी रही थीं तो पितृसत्तात्मक मानकों के अनुरूप ही। वहीं थेरीगाथा में भिक्षुणियाँ अपनी विशिष्ट स्त्री-पहचान के साथ विभिन्न वर्गों और जातियों की पहचान के साथ उपस्थित हैं। वैदिक ऋषिकाओं का एक विशेष वर्ग और वर्ण था, परंतु बौद्ध भिक्षुणियाँ उच्च-निम्न, वेश्या-दासी सभी वर्ग की थीं, और उन्हें अर्हता प्राप्त करने का समान अवसर भी मिला था। कहना न होगा यह बुद्ध के समतावादी विचारों का प्रतिफल था। इस कारण थेरीगाथा “एक गहरे कण्ट्रास्ट का सृजन करती है, राग से वैराग्य, शोक से करुणा की ओर प्रस्थान करती है। वैदिक ऋषिकाएँ गृहस्थ हैं, कहीं-कहीं अविवाहिताएँ भी हैं; परंतु, उनके हृदय में विवाह संस्था के लिए विरोध नहीं है, जबकि थेरियाँ उसे छोड़कर, ठुकराकर या विद्रोह करके अपनी मुक्ति का मार्ग तलाश करती हैं, उपलब्ध करती हैं।”[24]
हिन्दी नवजागरण की विशेषताओं में ‘स्वभाषा’ एक खास विशेषता है। बौद्ध भिक्षुणियाँ भी अपनी रचनाएँ स्त्री-भाषा और लोकभाषा में कर रही थीं। उनकी गाथाएँ पालि भाषा में होने के साथ-साथ स्त्री-भाषा, स्त्री-पहचान आदि से सम्बद्ध है। इसके अलावा इनकी प्रकृति ‘लोकगीतात्मक’ भी है, जिसकी पुष्टि इसकी रचना-प्रक्रिया से भी होती है। लोकगीत की खास विशेषता है- सामूहिकता। यह समूह द्वारा रचे व गाए जाते हैं। इस संदर्भ में पटाचारा की तीस और 500 शिष्याओं द्वारा स्त्री अनुभवों की सामूहिक अभिव्यक्ति उल्लेखनीय है – “सुन कर पटाचारा का ये ज्ञान/ बैठ गए हम सब लगाके ध्यान।”[25]
थेरीगाथा के संबंध में एक सनातन प्रश्न और उठाया जाता रहा है कि थेरीगाथा जैसे धार्मिक उद्गार का साहित्यिक महत्व क्या है? यद्यपि थेरीगाथा का संरक्षण एक धर्म विशेष के अंतर्गत किया गया तथापि यह महज़ धार्मिक गाथाएँ नहीं हैं। इसमें ऐसे तमाम प्रसंग मिलते हैं, जो सीधे-सीधे थेरियों के भावपूर्ण जीवनानुभवों से संबंधित हैं। माताओं का संतानों का खोना, सामाजिक सम्मान का खोना, श्रम का अनादर, परित्यक्ता स्त्री की पीड़ा, वेश्या जीवन की दयानीय दशा व विरक्ति इत्यादि स्पष्ट रूप से धर्म से इत्तर इन भिक्षुणियों की अपनी भीतरी यात्राएँ हैं। “जहाँ थेरगाथाओं की विशेषता चिंतन और प्रकृति चित्रण है, वहीं थेरीगाथाओं की शक्ति यथार्थ चित्रण, वैयक्तिक अनुभूति और भावनाओं की गहनता है, जिसका पर्यवसान एक करुणामयी शांति में होता है।”[26]
[1] रामविलास शर्मा, महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2012, पृष्ठ 19
[2] शंभुनाथ, दूसरे नवजागरण की ओर, ज्ञानभारती प्रकाशन, दिल्ली, 1993, पृष्ठ 02
[3] महेंद्र राजा जैन (संपादक), नामवर विचार कोश, नयी किताब, दिल्ली, 2012, पृष्ठ 280
[4] आनंद श्रीकृष्ण, गौतम बुद्ध और उनके उपदेश, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, आठवाँ संस्करण, 2022, पृष्ठ 152
[5] सुजाता, आलोचना का स्त्री पक्ष, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ 21
[6] रूपा गुप्ता, भारतीय नवजागरण और स्त्री प्रश्न, स्त्री दर्पण ब्लॉग, अगस्त 2022
[7] सुजाता, आलोचना का स्त्री पक्ष, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ 72
[8] नीलिमा पाण्डेय, थेरीगाथा, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण, 2018, पृष्ठ 191
[9] सुमन राजे, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2022, पृष्ठ 90
[10] डॉ. विमलकीर्ति, थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पंचम संस्करण, 2018, पृष्ठ 56
[11] सुजाता, आलोचना का स्त्री पक्ष, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ 153
[12] डॉ. विमलकीर्ति, थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पंचम संस्करण, 2018, पृष्ठ 63
[13] नीलिमा पाण्डेय, थेरीगाथा, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण, 2018, पृष्ठ 23
[14] वही, पृष्ठ 116
[15] वही, पृष्ठ 165
[16] वही, पृष्ठ 194
[17] डॉ. विमलकीर्ति, थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पंचम संस्करण, 2018, पृष्ठ 117
[18] सुजाता, आलोचना का स्त्री पक्ष, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2021, पृष्ठ 151
[19] सुमन राजे, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2022, पृष्ठ 95
[20] नीलिमा पाण्डेय, थेरीगाथा, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण, 2018, पृष्ठ 129
[21] शंभुनाथ, दूसरे नवजागरण की ओर, ज्ञानभारती प्रकाशन, दिल्ली, 1993, पृष्ठ 188
[22] डॉ. विमलकीर्ति, थेरीगाथा, सम्यक प्रकाशन, नई दिल्ली, पंचम संस्करण, 2018, पृष्ठ 203-204
[23] सुमन राजे, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2022, पृष्ठ 100
[24] वही, पृष्ठ 101
[25] नीलिमा पाण्डेय, थेरीगाथा, बोधि प्रकाशन, जयपुर, प्रथम संस्करण, 2018, पृष्ठ 83
[26]सुमन राजे, हिन्दी साहित्य का आधा इतिहास, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2022, पृष्ठ 107
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, झारखण्ड केंद्रीय विश्वविद्यालय
Jagdish.saurabh@cuj.ac.in, 9971141868
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