भारत के दक्षिणी प्रायद्वीप स्थित दक्षिणी भाग जिसे 'कृष्णा' एवं ‘तुंगभद्रा' नदियों के मध्य स्थित' तमिलकम् प्रदेश' कहा जाता था, में ईसा की प्रारम्भिक शताब्दी से बहुत पहले (लगभग 500 ई० पू०), अनेक छोटे-छोटे राज्य थे। इनमें चेर,चोल तथा पाण्ड्य राज्य विशेष उल्लेखनीय हैं।उपलब्ध साक्ष्यों से संकेत मिलता है कि ईसा पूर्व तृतीय शताब्दी में सर्वतन्त्र राज्य थे।अशोक के शिलालेखों (शिलालेख, 2,5 तथा 13 ) में भी उन्हें दक्षिणी बाह्य सीमावर्ती राज्यों में परिगणित किया गया है।इन राज्यों के साथ उसके मैत्रीपूर्ण राजनयिक सम्बन्ध थे।शिलालेखों के पूर्व मेगस्थनीज तथा कौटिल्य ने भी उपर्युक्त राज्यों का उल्लेख किया है।हाथीगुम्फा-अभिलेख के अनुसार कलिंग-नरेश खारवेल ने अपने शासन के ग्यारहवें वर्ष (ई० पू० 165 ) में,तमिल राज्यों के प्राचीन संघ (त्रमिरदेश संघातकम् )को विनष्ट किया था। परन्तु उपर्युक्त उल्लेखों के बावजूद इन राज्यों के इतिहास की विशेष जानकारी नहीं हो पाती। तमिल देश के इतिहास पर सर्वाधिक प्रकाश ईसा की तृतीय एवं चतुर्थ शताब्दियों में संकलित ‘संगम-साहित्य’ से पड़ता है। 'संगमम' अथवा 'संघम्' तमिल कवियों तथा विद्वानों की सुव्यवस्थित परिषदें थीं। जिनमें मुख्यतः बुद्धिजीवी ब्राह्मण-कवियों का वर्चस्व था।
इन परिषदों अथवा संगमों ( संघों ) के गठन के अनेकानेक प्रमाण मिलते हैं। यद्यपि उनमें प्राचीन चेर, चोल तथा पाण्ड्य राज्यों के राजनीतिक गतिविधियों के कालानुक्रम आदि की यथेष्ट सूचनाओं के प्रमाण का अभाव है, तथापि तत्कालीन आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक जीवन पर प्रचुर प्रकाश डाला गया है। सम्पूर्ण भारतवर्ष में दक्षिण से उत्तर तथा पूर्व से पश्चिम तक पूरे भारतीय वांग्मय को देखें तो कर्म-ज्ञान-भक्ति योग के रूप में भावात्मक, सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक विचारधारा की त्रिवेणी सी प्रवाहित है। भारतीय संस्कृति का निर्माण आध्यात्मिक चेतना की आधारशिला पर हुआ है। जिसके प्रमाण हमारी भारतीय संस्कृति में एकात्म चेतना के रूप में आज भी अनेकानेक रूप में विद्यमान हैं।जबकि अनेक प्रकार से संरचनागत विभेद होने के बावजूद जैसे खान,पान ,बोली ,भाषा ,वेशभूषा ,रंग, संस्कृति, संस्कार आदि में भिन्नता होने के बाद भी उनको प्रमुख रूप से ज्ञान की दर्शन की आतंरिक चेतना की प्रज्ञा ने एक सूत्र में बांध रखा है। इसका श्रेय युगों से चली आ रही ज्ञान वैराग्य की त्रिगुणमयी भक्ति-धारा है। यदि पूर्व का अवलोकन करें तो दक्षिण भारत में लोग द्रविड़ प्रथाओं से संबंधित लोक संस्कृति का स्वतंत्र रूप से पालन करते थे। जिससे पूरा दक्षिण भारत धार्मिक व अध्यात्मिक दर्शन से युक्त सांस्कृतिक रूप से संगठित और विकसित समाज स्थापित था।
तीसरी शताब्दी ईसा के आसपास दक्षिण भारत समाज में उथल-पुथल होता है और उसके परिणामस्वरुप शनैः शनैः जैन और बौद्ध धर्म का प्रवेश होना प्रारंम्भ होता है। सर्वप्रथम जैन धर्म ने कोडुंगल्लूर तालुक के मथिलाकोम में एक मुख्य जैन केंद्र बनाया। जिसका परावर्ती परिणाम ऐसा हुआ कि इस क्षेत्र के कई हिंदू मंदिर मूल रूप से जैन मंदिर में परिवर्तित होने लगे थे। इरिंजलाकुडा में कूडल माणिक्यम मंदिर, वाडक्कनचेरी के पास इरुनिलाक्कोड में गुफा मंदिर और ओल्लूर के पास थ्रीक्कूर जैन मंदिर थे। वहाँ का अध्ययन करने पर उद्धरण मिलते हैं कि राज्य के दक्षिणी भाग में बौद्ध धर्म ने उतना अधिक प्रभाव नहीं डाला जितना अधिक प्रभाव जैनधर्म ने डाला। किन्तु कुछ समय पश्चात् ही आर्यों के विद्रोह और हिंदू धर्म के पुनर्स्थापना के परिणामस्वरूप जैन और बौद्ध धर्म दोनों का पतन हो गया।
इतिहासकार रामशरण शर्मा का मत कि संगम (परिषदों) अथवा (संघों) का गठन सर्वप्रथम पाण्ड्य राजाओं के राजकीय संरक्षण में किया गया था। संगम से सम्वद्ध बुद्धिजीवी सदस्यों (कवियों) को पाण्ड्य शासकगण सम्मान के साथ-साथ समय-समय पर प्रचुर पारितोषिक राशि भी प्रदान किया करते थे। उक्त साहित्य से ज्ञात होता है कि प्रतापी चोल शासक करिकाल ने ऐसे ही एक कवि को 16,00,000 स्वर्ण-मुद्रायें प्रदान किया था। रत्न एवं मुद्रा दानों के अतिरिक्त संगम कालीन कवियों को समय-समय पर भूमि-खण्डों, अश्वों तथा रथों आदि उपहारों से भी सम्मानित किया जाता था। तमिल साहित्य का प्राचीनतम् उपलब्ध अंग संगम साहित्य है। यह साहित्य संप्रति मुख्य रुप से 9 संग्रह-ग्रन्थों में संकलित मिलता है, जिनके नाम हैं—(1) नट्रिणै (2)कुरंदोगै (3) ऐंगुरुनूर (4) पदिट्रपत्तु (5) परिपाडल (6) कलित्तोग (7) अहह्नानुरु (8)पुरनानुरु तथा (9) पत्तुप्पाट्टु। इन संग्रहों में 2279 कविताओं तथा 102 अनाम लेखों को संकलित किया गया है। इनकी रचना अधिकांशतया विद्वान् कवियों तथा कवयित्रियों ने की है जिनकी संख्या 473 के आस-पास है। इन कविताओं के पादतल में प्राय: कवि का नाम, रचना-अवसर तथा स्थान विशेष को भी निर्दिष्ट किया गया है। नीलकण्ठ शास्त्री की धारणा है कि पाद-टिप्पणी संभवतः संपादकों ने तैयार की थी। इस युग की एक अन्य उल्लेखनीय कृति 'तोलकप्पियम्' है। जिसे परम्परानुसार अगस्त्य के विशिष्ट द्वादश शिप्यों में प्रमुख 'तोल्काप्पियर' ने प्रणीत किया था। उपर्युक्त आठ अथवा नौ संग्रह-ग्रन्थों में संकलित साहित्य से ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में विकसित तमिल समाज, संस्कृति तथा साहित्य का ज्ञान प्राप्त होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि संगम-युग के विद्वानों ने संतों ने प्राथमिक चरणों में ही तमिल वाङ्मय का विशाल भण्डार तैयार किया। जिन्हें पाण्ड्य शासकों का राजकीय संरक्षण प्राप्त था। प्रो० शर्मा ने अपने ऐतिहासिक विश्लेषणों के आधार पर संगम-साहित्य की प्रारम्भिक तिथि को ईसा की प्रारम्भिक सदी के आस-पास प्रस्तावित किया है। विगत दशकों में पुरातात्त्विक खोजों में मदुराई क्षेत्र में प्रारम्भिक तमिल तथा स्फुट प्राकृत शब्दों का प्रयोग मिलता है | इन अभिलेखों की तिथि ई० पू० की प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी प्रतिपादित की गई है। अस्तु, संगम-साहित्य का आरम्भिक विकास ईसा की प्रथम शती से तृतीय शती के मध्य मानना ही तर्कसंगत प्रतीत होता है।
'रामायण' तथा 'महाभारत' में चोलों एवं पाण्ड्यों के साथ चेरो (केरलों) का भी वर्णन मिलता है। कात्यायन कृत 'वार्त्तिक' में भी केरलों को उद्धृत किया गया है। अशोक के शिलालेखों में चोल, पाण्ड्य आदि धुर दक्षिणी मौर्य साम्राज्य के वाह्य राज्यों में केरल राज्य को भी शामिल किया गया है। कालिदास विरचित 'रघुवंश' में केरल प्रदेश का विशद् वर्णन मिलता है। इन संघा (संगम) को पाण्ड्य राजाओं का आश्रय अवश्य प्राप्त था।
इस ऐतिहासिक तथ्य के प्रमाण में संघकालीन संगम साहित्य जो मिलता है उसमें धार्मिक समाज का उल्लेख मिलाता है जैसे 'तिरुमाल' शब्द नारायण के लिए अभिहित, जगत की सृजन,पालन और संहार इन तीनों कार्यों के कारणभूत भगवान नारायण ही बंदनीय है, वेद-प्रतिपाद्य है। समस्त स्थावर-जंगम वस्तुओं के आधार हैं। नानाविध रूपों से युक्त भगवान के विभिन्न शस्त्र सबकी रक्षा करते हैं। परब्रह्म नारायण ही सबके आदि देव हैं। समस्त जड़ स्थावर-जंगम वस्तुओं के आधार हैं।इस प्रकार के काव्य जिसमे ईश्वर की स्तुति उनकी कृपा का गायन वाचन मुख्य से मिलाता है। उस समय केरल के गुरुवयूर का श्री कृष्ण मंदिर न केवल जनपद में ही नहीं बल्कि पूरे केरल में साहित्य, संस्कृति शिक्षा और भक्ति आंदोलंन का केंद्र था। उस समय के साहित्यिक अभिलेखों के उद्धरणों से पता चलता है कि जनपद में जन्मे कुंचन नांबियार ने सबको जोड़कर आंदोलन की रूपरेखा तैयार की, वहीं थुंचथ रामानुजन, एज़ुथाचन, मेलपाथुर, नारायण भट्टथिरिपाद और पूनथनम नंबूदिरी आदि इन मनीषियों के योगदान को पूरे राज्य में भक्ति आंदोलन का सूत्रपात करने का श्रेय दिया जाता है। कोडुंगल्लूर, कुन्हिकुट्टन थंपुरम, वेमोनी, सीवोल्ली और नट्टुवम नंबूदरीज जैसी प्रतिष्ठित हस्तियों ने भी अपने साहित्यिक योगदान के माध्यम से आंदोलन को समृद्ध किया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्धदर्शन का आत्मवादी वैदिक दर्शन से विरोध है। वैदिक धर्म के विरुद्ध क्रांति के रूप में ही ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का उदय हुआ था। अनेक कारणों से ईसा की छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा। कुमारिल और शंकराचार्य ने वैदिक धर्म के दोनों पक्षों की प्रतिष्ठा की। आदि शंकराचार्य के प्रयास और भक्ति आंदोलन ने हिंदू धर्म की पुनर्स्थापन कर पूरे भारतीय समाज को संघटित कर एक सूत्र में बांधने के लिए अद्वैत दर्शन की स्थापना कर सनातन वैदिक धर्म के तत्त्व को दर्शन के मर्म को समाज के समक्ष रख हिन्दू धर्म के विस्तार के लिए देश के चारो कोनो के प्रमुख धामों में मठों की स्थापना ,प्रस्थानत्रयी की मीमांसा, विवेक चूड़ामणि, वेदों के भाष्य ब्रह्मसूत्र की मीमांसा ,अनेक प्रकरण ग्रंथों की रचना कर पूरे देश के कोने-कोने में विभिन्न मतावलंबियों से शास्त्रार्थ कर सनातन वैदिक धर्म की स्थापना हेतु दिग्ग्विजय यात्रा , देश के चारों भागों में मठों की स्थापना, आदि आदि के माध्यम से पूरे भारतीय समाज को चाहे वो वैष्णव ,शैव ,शाक्त, और गाणपत्य हों सभी को एकसूत्र में बाँधने की कोशिश की.उसी समय कोडुंगल्लूर, कुन्हिकुट्टन, थंपुरम, वेमोनी, सीवोल्ली और नट्टुवम नंबूदरीज जैसी प्रतिष्ठित हस्तियों ने भी अपने साहित्यिक योगदान के माध्यम से आंदोलन को समृद्ध किया। यदि इस समय को तमिल साहित्य का स्वर्ण काल कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी। मदुरै नगर में भी विद्वानों के संघ हुआ करते थे जिसमे सभी समाज के लोगों के साथ विश्रुत विद्वान ज्ञानियों की सभा या गोष्ठी होतो थी। इस प्रकार संगम के विद्वत परिषद् द्वारा तमिल कृतियों का परीक्षण होता था और ग्रन्थ की सर्वग्राह्यता श्रेष्ठता और उपादेयता का संघ अर्थात संगम द्वारा निर्णय लिया जाता था और संगम की विद्वत्परिषद द्वारा स्वीकृत होने पर ही किसी भी कृति को उत्कृष्ट की श्रेणी में प्रतिष्ठा मिलती थी।
उसी काल क्रम में नौवीं शती उत्तरार्द्ध के और दसवीं शती के पूर्वार्द्ध के बीच दक्षिणी वैष्णव सम्प्रदाय के प्रधान आचार्य नाथमुनि ने कालक्रम का उल्लेख किया है।उन्होंने बारह आषवार(अलवार)संतों के पदों का संग्रह तथा सम्पादन किया जो ‘नालायिर दिव्य प्रबन्धम’ के नाम से विख्यात है। आलवारों के पदों में सर्व सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि जीव प्रकृत, कर्म, बंधन, मुक्ति उसके साधन भक्त के आचरण एवं तत्वों का विवेचन है। इसमें उनके अपने जीवन के भी वैयक्तिक भक्त्यानुभव का वर्णन है। वस्तुतः नालियार दिव्य प्रबन्धम् भक्ति ज्ञान, प्रेम, सौन्दर्य तथा आनन्द से ओतप्रोत अध्यात्म-ज्ञान की निधि है। वैष्णव सम्प्रदाय का यह आकरग्रन्थ प्रबन्धम् आध्यात्मिकता तथा पावनता की दृष्टि से वेदों के समकक्ष स्वीकृत है। इस गौरवपूर्ण ग्रन्थ की भाषा प्राचीन तमिल है। मध्यकालीन वृन्दावनी भक्तिधारा के उद्गम स्रोत के रूप में विद्यमान आलवार साहित्य भारतीय मूलभूत आध्यात्मिक एकात्मता का प्रमाण है। इसमें प्रथम तीन आषवार संतों का तथा उनकी कृतियों का संक्षिप्त परिचय जीवन-वृत्त आदि के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से कोई प्रामाणिक सामग्री एकसाथ उपलब्ध नहीं है। आषवार संतों द्वारा रचित ‘दिव्य सूरि चरित’ गुरु परम्परा प्रभावम् प्रपन्नामृतंम् ,गुरु परम्परा आदि ग्रन्थों पर आषवारों के जीवन सम्बन्धी विवरणों के लिए निर्भर रहना पड़ता है। उन्हीं के आधार पर आगे प्रथम तीन आषवारों भक्तों में प्रथम तीन आषवारों- पोय्कै आष्वार्, भूतत्ताष्वार् और पेयाष्वार को मुदलाष्वार् (प्रथम आषवार या आदि भक्त) कहा जाता है। इनमें से प्रत्येक आषवार ने सौ-सौ पदों की रचना की है। इस प्रकार इन तीन आधारों के कुल तीन सौ पद है और वे तिरुवन्तादि (दिव्य अन्तादि) के नाम से है और प्रबन्धम् में मुदल (प्रथम) तिरुवन्तादि इरण्डाम् (द्वितीय) तिरुवन्नादि और मूनराम् (तृतीय) तिरुवन्तादि शीर्षकों के अधीन संगृहीत हैं। तिरुयन्तादि (तिरु अन्तादि) का अर्थ है दिव्य अन्तादि अन्नादि काव्य की एक शैली है ,जिसमें एक पद के अन्तिम शब्द या ध्वनि का प्रयोग अगले पद के प्रथम शब्द या ध्वनि के रूप में किया जाता है। इन अन्तादि ग्रन्थों के अध्ययन से यह विदित होता है कि उक्त तीनों आलवार श्रेष्ठ ज्ञानी थे वेद-उपनिषद् - गीता का उन्हें विशेष ज्ञान था और वैष्णव भक्ति का प्रचार मात्र उनका ध्येय था। उनके पदों के प्रमुख प्रतिपाद्य विषय भगवद्गुण-कीर्तन भक्ति की महिमा प्रपत्ति यानि शरणागति तत्व आदि है। उनमें भगवान विष्णु अर्थात् नारायण के विभिन्न अवतारों को विशेष रूप से वराहावतार, वामनावतार एवं कृष्णावतार ‘नालायिर दिव्य प्रबन्धम’ में विवरण है। तीनों आषवार परम भागवत थे और उन्होंने साधना के समस्त मार्गों में केवल भक्ति को सर्वोत्तम घोषित किया है ये तीनों आषवार पांचवी-छठी सदी में क्रमश: कांचीपुरम कांचीपुरम् तिरुक्कड मल्ले (महाबलिपुरम्) में जन्मे थे। उनके जीवन के बारे में केवल इतना ज्ञात है कि वे समाज से दूर रहते थे।उनके जीवन की एक घटना भक्तों के बीच अत्यन्त प्रसिद्ध है। वह घटना इस प्रकार है -
एक शाम तूफ़ानी वर्षा के समय पोय्क्के के आषवार घूमते-घामते तिरुवण्णामले (तमिलनाडु में स्थित केरल के तिरुक्कोवलूर गाँव में पहुँचे। तेज वर्षा के कारण वहाँ उन्होंने एक मकान के बन्द कमरे में शरण ली और सोने के लिए लेटे। उनके लेटते ही थोड़ी देर में भूतत्तावार वहीं आ पहुँचे और अन्दर झाँक कर देखा तो जगह छोटी थी पर उन्होंने सोचा "यदि एक व्यक्ति लेट सकता है तो दो व्यक्ति बैठ सकते हैं। पोके आपवार ने उन्हें अन्दर आने दिया।थोड़ी ही देर में पेयावार भी वहीं आ पहुँचे। वे उस छोटी-सी जगह को देखकर कहने लगे यदि दो आ सकते हैं तो तीन खड़े रह सकते हैं। फिर वे भी अन्दर आये। तीनों आषवार खड़े हो गये और वर्षा बंद होने की प्रतीक्षा करने लगे। तीनों भगवद् भक्त खड़े-खड़े भगवान नारायण और उनकी गुणातिशयता आपस में बातें करने लगे, तब अचानक उन तीनों को महसूस हुआ कि कोई चौथा व्यक्ति और आया है। पर वे यह समझ नहीं सके कि वह कौन है। अंधकार था ये किसी को देख नहीं सके। कोई दीप भी नहीं थाः दीप होता भी तो उसे जलाते कैसे ? पोय्के आषवार गाने लगे, "भूमि को दीया बनाकर, सागर जल को घी के रूप में लेकर और तब बनाकर में अजनबी का पता लगाऊँगा।" भूतत्तावार ने उत्तर में बताया, "उन्होंने स्नेह अथवा भक्ति को दीया बनाकर, परा भक्ति को घी में लेकर और प्रेमातुर हृदय को बत्ती बनाकर भगवान नारायण के दर्शनों के लिए परम ज्ञान से प्रज्वलित किया है। उसके बाद पेयाषूवार ने प्रफुल्लित मुद्रा में गाया, “में दर्शन कर रहा हूं श्रीदेवी समेत भगवान अर्थात् नारायण के देख रहा हूँ उनका सुन्दर तन और सूर्य-सम प्रकाश तथा उनके हाथों में चक्र। अन्त में तोनों भक्तों ने देखा कि उनके बीच और कोई नहीं; भगवान नारायण श्रीदेवी समेत स्वयं विष्णु थे। फिर उन तीनों ने सौ-सौ पदों में भगवान की प्रशस्ति गायी; उन पदों का संग्रह ही प्रथम, द्वितीय और दिव्य अन्तादि (मुदल, इरण्डाम् और मूनाम् तिरुवन्तादि) के नाम से अभिहित है। दक्षिण और उत्तर में कई सामान्य विशेषताएँ रेखांकित की जा सकती हैं। मसलन, दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलनों में समतावादी धर्म की तो वकालत की गई, पर जाति व्यवस्था को कभी नकारा नहीं गया, ब्राह्मण ग्रंथों और ब्राह्मण विशेषाधिकारों को कभी चुनौती नहीं दी गई।परिणामस्वरूप, दक्षिण भारतीय भक्ति आंदोलनों के समान उत्तर भारत के अधिकांश वैष्णव आंदोलन अंततः ब्राह्मण धर्म में विलीन हो गए, पर इस प्रक्रिया में ब्राह्मण धर्म में भी कई परिवर्तन आए। पर इसके आगे दोनों आंदोलनों में कोई समानता नहीं है। भक्ति आंदोलन कभी भी एक आंदोलन नहीं रहा, इन आंदोलनों को एक दूसरे से जोड़ने वाला सूत्र भक्ति और धार्मिक समता का सिद्धांत था। मध्यकालीन भारत का भक्ति आंदोलन अपेक्षाकृत पुराने दक्षिण भारतीय आंदोलन से विशिष्ट ही नहीं था, बल्कि इन आंदोलनों की अपनी-अपनी निजी विशेषताएँ थीं। इन सभी आंदोलनों की अपनी क्षेत्रीय पहचान थी और इनका अपना सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार था। अतएव लोकप्रिय एकेश्वरवाद पर आधारित निरीश्वरवादी आंदोलन निश्चित रूप से विभिन्न वैष्णव भक्ति आंदोलनों से भिन्न था। कबीर की भक्ति की अवधारणा और चैतन्य या मीराबाई जैसे मध्यकालीन वैष्णव संतों की भक्ति की अवधारणा में आधारभूत अंतर था। वैष्णव आंदोलन के अंतर्गत भी महाराष्ट्र प्रदेश की भक्ति बंगाल के वैष्णव आंदोलन से भिन्न थी, इसी प्रकार उत्तर भारत के रामानंद, वल्लभ, सूरदास और तुलसीदास के भक्ति आंदोलन का अपना अलग स्वरूप था।
14वीं और 17वीं शताब्दी के बीच पनपे सभी भक्ति आंदोलनों में कबीर, नानक, सूरदास और अन्य वर्णाश्रम के अनुसार 'निम्न जातियों के संतों के नेतृत्व में हुए लोकप्रिय एकेश्वरवादी आंदोलन मूलतः अन्य से अलग और विशिष्ट थे। लोकप्रिय एकेश्वरवादी आंदोलन और वैष्णव भक्ति आंदोलन उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना और इस्लाम के आगमन के बाद ये दोनों आंदोलन एक साथ उभरे। अतएव, यह कहा जाता है कि दोनों आंदोलनों के उद्भव में कुछ समान कारण कार्यरत थे, हिंदू धर्म पर इस्लाम का प्रभाव इनमें से एक है। पर यथार्थ यह है कि दोनों आंदोलनों के उदय के कारण और स्रोत ही अलग नहीं हैं, बल्कि उन पर जिन कारकों का प्रभाव पड़ा वे भी बिल्कुल एक दूसरे से विपरीत हैं। आगे आने वाली परिचर्चा से यह स्पष्ट हो जाएगा कि एक आंदोलन के मूल में कार्यरत शक्तियों के आधार पर दूसरे आंदोलनों का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। शायद यही कारण है कि दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन के प्रसार में ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाले मंदिरों की प्रमुख भूमिका रही। चूँकि दक्षिण भारत के संत-कवियों ने जाति व्यवस्था के वैचारिक और सामाजिक आधार पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया, परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन के दौरान जाति व्यवस्था कमजोर होने के बजाय मजबूत हुई। अंततः यह आंदोलन 10वीं शताब्दी में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचा और शनैः शनैः परंपरागत ब्राह्मण धर्म में विलीन हो गया। इन सीमाओं के बावजूद अपने उत्कर्ष काल में दक्षिण भारतीय भक्ति आंदोलन ने धार्मिक समानता के सिद्धांत का प्रचार किया, परिणामस्वरूप ब्राह्मणों को ‘वर्णाश्रम’ के अनुसार निम्न जातियों को पूजा का अधिकार देना पड़ा।ये 'वर्णाश्रम के अनुसार निम्न जातियाँ' पूजा के माध्यम के रूप में भक्ति को अपना सकती थीं और यहाँ तक कि वेद का अध्ययन करने का अधिकार भी इन्हें प्राप्त हो गया। भक्ति और दक्षिण भारतीय आचार्य जब दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता क्षीण हो रही थी, तब कई विद्वान ब्राह्मणों (आचार्यो) ने दार्शनिक स्तर पर भक्ति का समर्थन किया। सर्वप्रथम आचार्य रामानुज( 11वींशताब्दी) हुए। उन्होंने भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया। उन्होंने कट्टर ब्राह्मणवाद और लोकप्रिय भक्ति आंदोलन, जिसके द्वार सबके लिए खोले समाज के सभी वर्गों के बीच संतुलन कायम किया।हालांकि ‘वर्णाश्रम के अनुसार निम्न जातियों द्वारा वेद पढ़ने के सिद्धांत का उन्होंने समर्थन नहीं किया, पर इस बात को स्वीकार किया कि भक्ति को पूजा की पद्धति के रूप में सबको, यहाँ तक कि शूद्रों और अस्पृश्यों को भी अपनाने का अधिकार होना चाहिए। भक्ति का प्रचार करते समय उन्होंने जाति का बंधन स्वीकार नहीं किया और अस्पृश्यता को समाप्त करने की कोशिश की। एक तेलुगु ब्राह्मण निंबार्क, रामानुज के समकालीन माने जाते है। उन्होंने अपना अधिकांश समय उत्तर भारत में मथुरा के निकट वृंदावन में बिताया। वे राधा और कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण में विश्वास रखते थे। दक्षिण के एक अन्य वैष्णव भक्ति दार्शनिक थे माधवाचार्य। इनका काल 13 वीं शताब्दी का माना जाता है। रामानुज के पथ का अनुसरण करते हुए उन्होंने भी शूद्रों द्वारा वेदों को न पढ़ने की परंपरा को तोड़ने की कोशिश नहीं की। उनके अनुसार भक्ति ने शूद्रों को पूजा का एक विकल्प प्रदान कर दिया। उनका दर्शन भागवत् पुराण पर आधारित था। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने उत्तर भारत का भ्रमण भी किया था। वैष्णव आचार्यों की श्रृंखला में अंतिम दो आचार्य रामानंद (14वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और 15वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध) और वल्लभ (15वीं शताब्दी का उत्तरार्द्धऔर 16वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध) उल्लेखनीय हैं।
तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में सामन्यतय: वेदों में स्थापित दर्शन को दो पक्षों में व्यवहृत होता देखा जाता है- प्रथम पूर्व मीमांसा और द्वितीय उत्तर मीमांसा।पूर्वमीमांसा का मुख्य लक्ष्य वैदिक कर्मकांड की व्यवस्था करना है। उत्तर मीमांसा वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) पर आश्रित है। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग हैं, अतः वे 'वेदान्त' कहलाते हैं। उत्तर मीमांसा का अधिक प्रसिद्ध नाम "वेदांत" ही है। ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों की व्याख्याओं के द्वारा वेदांत का विस्तार हुआ है। अनेक आचार्यों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से ब्रह्मसूत्रों और उपनिषदों की व्याख्या की है। आचार्यों के विभिन्न मतों के आधार पर वेदांत के अनेक संप्रदाय बन गए। ये अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। वेदांत के ये संप्रदाय सांख्य आदि की भाँति दार्शनिक नहीं है। सभी संप्रदायों के धार्मिक पीठ देश के विभिन्न स्थानों में प्रतिष्ठित हैं। इन पीठों की आचार्य-परंपरा आज तक अक्षुण्ण चली आ रही है।इसीप्रकार छांदोग्य उपनिषद में ही भक्ति को सबसे उत्कृष्ट और सर्वोत्तम रस कहा गया है- ‘स एवं रसानां रसतमः परम परार्धे। मनुष्य की प्रपत्ति के लिए ज्ञान के साथ भक्तितत्त्व को स्थापित किया गया है। छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है 'सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शांत उपासीत।' अर्थात् ‘जगत की सभी वस्तुएं ब्रह्म हैं, क्योंकि सभी ब्रह्म से ही उत्पन्न होती हैं, ब्रह्म में ही अवस्थान करती है तथा ब्रह्म में ही विलीन हो जाती है। उपनिषदों के बाद भक्ति की प्रबल धारा भागवत धर्म के रूप में प्रकट हुई। भागवत धर्म के प्रवर्तन के साथ ही अवतारवाद की अवधारणा का जन्म हुआ बहुदेवोपासना और लीलागान का प्रचलन हुआ। इसमें ईश्वर को ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति और तेज-इन 6 गुणों से युक्त माना गया, जिनके द्वारा वह सृष्टि का निर्माण, भरण-पोषण और संहार करता है। अवतारवाद एवं भक्ति का पुराणों में विस्तृत वर्णन है। इनमें भागवत पुराण मुख्य है। दक्षिण के आलवार नयनारभक्तों ने भक्ति तत्व का प्रचार प्रसार किया, आठवीं सदी में शंकराचार्य के अद्वैत एवं मायावाद के कारण भक्ति का प्रवाह थोड़ा अवरूद्ध होता है। किंतु कालांतर में रामानुजाचार्य, निम्बाकाचार्य, विष्णुस्वामी, मध्वाचार्य, व वल्लभाचार्य ने राम-कृष्ण की भक्ति को लोकप्रिय ही नहीं बनाया उसे एक सैद्धांतिक आधार प्रदान करते हुए दर्शन की सैद्धांतिक गरिमा भी दी। इस प्रकार भक्ति का तत्व, वेद, उपनिषद महाभारत, पुराण आदि से होते हुए सतत् प्रवाहमान और निरंतर विकसित होता रहा। वैष्णव आचार्यों द्वारा प्रतिपादित भक्ति संबंधी विभिन्न दार्शनिक सिद्धांत स्थापना भक्ति आंदोलन की देन है। इस प्रकार दक्षिण भारत की बड़ी समृद्ध परंपरा थी और जितने भी दर्शन हैं उनकीं उत्पत्ति, भक्ति आन्दोलन के आचार्य हों या समाज में एकता-समरसता की स्थापना करने वाले महापुरुष हों ,ज्ञान मार्ग हो या भक्तिमार्ग सभी के उद्घोष के स्वर वहीं से निकले। वहां के मंदिर हों या गुरुकुल हों, विद्यालय साहित्य हो, दर्शन हो, ज्ञान हो, उपासना पद्धति हो, कला हो, स्थापत्य कला हो, संगीत हो, विज्ञान की नवीन खोजें या उपासना पद्धति हो, हमारे वेदों की की मीमांसा आदि आदि ज्ञान की या तकनीक की, इन सबकी बृहद समृद्ध परंपरा का श्रेय दक्षिण भारत की गौरवमयी भूमि को जाता है।
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