दक्खिनी पूरी तरह से न तो हिंदी है और न ही उर्दू, बल्कि यह मिश्रित भाषा है, जो कि सभी बोलियों एवं भाषाओं से युक्त है। इसकी लिपि फारसी है। पं. राहुल सांकृत्यायन ने 'दक्खिनी हिंदी काव्यधारा' में दक्खिनी हिंदी काव्य को तीन भागों में विभक्त किया है- आदिकाल, मध्यकाल और उत्तरकाल। दक्खिनी का मध्यकाल अत्यंत ही समृद्ध रहा है। पं. सांकृत्यायन ने इसके मध्यकाल का समय 1500ई. से 1657ई. तक माना है। इस तरह देखें तो यही समय हिंदी साहित्य के भक्तिकाल का भी रहा है। 14वीं सदी के आसपास से दक्खिनी हिंदी का विकास माना जाता है। इसके शुरुआती कवियों में बंदे नवाज, एकनाथ, शाह मीराँजी आदि का नाम आता है। पं. राहुल सांकृत्यायन ने तो दक्खिनी हिंदी से ही खड़ी बोली का आरंभ माना है। उन्होंने अमीर खुसरो से भी पहले दक्खिनी हिंदी में खड़ी बोली का पुट देखा है। उनके शब्दों में- "दक्खिनी हिंदी साहित्य की ऐसी कड़ी है जिसको भुलाया नहीं जा सकता। खुसरो को खड़ी(कौरवी) हिंदी का प्रथम कवि बतलाया जाता है, पर इसमें संदेह है। खुसरो के समय अर्थात् 13वीं सदी का अंत अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं का संधिकाल था। उस समय प्राकृत तत्सम शब्दों का प्रयोग ज्यादा होता था। खुसरो के समकालीन फारसी इतिहासकार राजपूत के लिए 'राउत' शब्द का प्रयोग करते हैं, जो स्पष्ट राउत का ही अरबी लिपि द्वारा भ्रष्ट लेख है। ऐसे शब्दों का खुसरो की कविता में अभाव है। दूसरे, खुसरो की कविताओं का कोई भी समकालीन या उससे तीन चार सौ वर्ष बाद के हस्तलेख नहीं मिलते। इस प्रकार खड़ी हिंदी के सर्वप्रथम कवि यही दक्खिनी कवि थे।”[2]
दक्खिनी में अवधी, हरियाणवी, ब्रजभाषा, तेलुगू, मराठी आदि से मिश्रित शब्दावलियाँ हैं। मध्यकाल में इसमें अरबी, फारसी का भी प्रयोग देखने को मिलता है। 14वीं सदी में दक्खिनी हिंदी का केंद्र दौलताबाद, तब का देवगिरी रहा। मुहम्मद बिन-तुगलक ने जब अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद किया तो वहाँ कई प्रांतों से विभिन्न भाषा-भाषी लोग आए। यहीं से दक्खिनी हिंदी का आविर्भाव माना जाता है। इसके विकास में बच्चन सिंह आदेलशाही वंश और कुतुबशाही वंश के योगदान को प्रमुखता से देखते हैं- “14वीं सदी के अंत में दक्षिण केन्द्र से कट गया और वहाँ बहमनी राज्य की स्थापना हुई। बहमनी राज्य 1526 ई. तक कायम रहा। बाद में विघटित होकर यह पाँच राज्यों में विभक्त हो गया। इनमें से बीजापुर के आदिलशाही वंश और गोलकुंडा के कुतुबशाही वंश में दक्षिणी हिंदी की उन्नति हुई। इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय इन दोनों में एक आदेलशाही वंश के हैं।”[3]
'किताबे नौरस' की रचना बीजापुर के सुल्तान इब्राहीम आदिल शाह द्वितीय ने की। इसका रचनाकाल 1008 हिजरी(1600 ई.) के आसपास माना जाता है। इसकी लिपि फारसी है। इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय का काल 1627 ई. तक रहा। वह कला प्रेमी था तथा संगीत, काव्य आदि का मर्मज्ञ था। अब्दुल देलहवी इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय का दरबारी कवि था। उसने 'इब्राहीमनामा' की रचना की। इब्राहीमनामा में उसने इब्राहीम कृत नौरस की चर्चा भी की है। किताबे नौरस की भूमिका में डॉ. सुरेशदत्त अवस्थी ने इसका उल्लेख किया है -
"कियों शाह दरबार बाजे आनंद
नौरस, बुद्धिप्रकाश गांवों अघाए।"[4]
(इब्राहीमनामा),
इब्राहीम आदिलशाह के संबंध में कहा जाता है कि संगीत में डूबे रहने के कारण उन्होंने किताबे नौरस की रचना की। यह नौ रसों पर आधारित एक मुक्तकनुमा काव्य है। इसमें संगीत के राग- रागिनियों का प्रयोग हुआ है। नौरस में इब्राहीम ने विभिन्न रागों की व्याख्या भिन्न-भिन्न तरह की है। इन सब के वर्ण्य विषय के आधार भी अलग हैं। इसमें 17 रागों पर लिखित 59 गीत हैं तथा 17 दोहरे हैं। ये राग निम्नलिखित हैं- भोपाली, मारू, मल्हार, केदारा, रामकरी, देशी, गौरी, नौकर, असावरी, पूरिया, कल्याण, भैरव, बरारी, धनाश्री, हजीज, टोड़ी, कन्नड़ और कर्नाटकी। मध्यकालीन रचना होने के कारण इसमें भक्तिपरकता के तत्व खूब हैं। आदिलशाह हिंदू धर्म से भी गहरे रूप में प्रभावित था। इस कारण इसमें हिंदू देवी-देवताओं की वंदना की गई है। इसमें सरस्वती और गणेश की वंदना करता हुआ आदिलशाह उन्हें अपना पाथेय मानता है। इनकी भक्ति से संबंधित इसमें कई पद हैं। इसका एक उदाहरण निम्नलिखित पंक्तियों में देखा जा सकता है -
कीनो धन्य ऐसो रास।”[5]
सरस्वती को इब्राहीम शब्दगुरु कहता है। उसके अनुसार सरस्वती की कृपा जिसपर होती है वह सौभाग्यशाली है, फिर चाहे वह हिंदू हों या मुसलमान -
सबदगुरु सेवा जप कर एक मन।”[6]
मध्यकालीन कविताओं में प्रेम का स्वर काफी मुखर है। हिंदी के भक्तिकालीन कवियों ने प्रेम की उदात्तता का जो चित्रण किया है, वह अवर्णनीय है, गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में ‘समुझत जाइ, न जाइ बखानी’ वाली बात है। कबीरदास, मल्लिक मुहम्मद जायसी से लेकर अन्य भक्त कवियों ने अपने पदों में प्रेम की महता पर प्रकाश डाला है। मध्यकाल के प्रेममार्गी कवियों के लिए प्रेम दुनिया की सबसे विशिष्ट और खूबसूरत चीज है। इसमें ही वह जीवन के पूर्ण सौंदर्य और उल्लास को देखता है। प्रेम की विशिष्टता का बखान करते हुए जायसी कहते हैं-
पेम छाड़ि किछु और न लोना जौं देखौं मन बूझि।।”[7]
प्रकारांतर से किताबे नौरस में प्रेम की उत्कृष्टता का चित्रण इब्राहीम आदिलशाह करता है। इसमें वह प्रेम को जीवन की ज्योति के रूप में देखता है। वह कहता है कि इसके बगैर जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है -
वही सुलगाये जीव को नहीं तो जावेगा बुज।”[8]
दक्खिनी मध्ययुगीन काव्य में वियोग वर्णन पूरे मनोयोग से हुआ है। वियोग का यह तत्व सूफी काव्यों में देखने को मिलता है। दक्खिनी के मुहम्मद कुली कुतुब के यहाँ भी यह वियोग का स्वर दिखाई देता है -
“तुमन बिन देस मुँज निस है, तुमन सों रैन मुँज दिन है।”[9]
इसके तत्व किताबे नौरस में भी विद्यमान हैं, किंतु यहाँ वियोग का कैनवास व्यापक है। वियोग केवल प्रेमी- प्रियतम अथवा पति-पत्नी का ही नहीं होता, बल्कि यह किसी से भी हो सकता है, जिससे की हम प्रेम करते हों। इसमें मोती खाँ एक तंबूरा है, जो इब्राहीम का था। उस तंबूरे के मीठे गीतों को याद करते हुए इब्राहीम वियोग में है। वह ईश्वर से प्रार्थना करता है कि हे प्रभु मुझे उससे शीघ्र मिलन करा दे, उसके बिना मुझे खाया-पीया भी नहीं जाता है -
इब्राहीम बिरहे मोतीखान।”[10]
यहाँ इब्राहीम के अंदर एक सच्चे कलाकार का रूप दीखता है, जो यह बताता है कि वह अपनी कला के प्रति कितना समर्पित है। वियोग रस की छटा एक अन्य पद में भी है, जहाँ उसके प्रियतम के रूठने से उसका हृदय टुकड़ा-टुकड़ा हो गया है। किंतु उसने उन टुकड़ों को चुनकर माला बना डाली है तथा फिर से अपने रूठे प्रियतम को मनाने का जाप शुरू कर दिया है, इसके कारण अब वह वियोग में मर भी नहीं सकती -
तेरा ध्यान अमृत अब मरना मुश्किल।”[11]
इस रूप में भी किताबे नौरस महत्वपूर्ण रचना है। इसके साथ ही इसमें रहस्यात्मक पंक्तियाँ भी देखने को मिलती हैं। इसमें कवि उस अज्ञात परमात्मा को खोजने का प्रयत्न करता है जो उसके भीतर है, जो कि उसके समीप तो है किंतु आँखों से ओझल है। यहाँ प्रकारांतर से वह अपने मूल को पहचानने की बात करता है जो दुनियावी मोह-माया में फँसा हुआ है। संत कबीरदास ‘मोको कहाँ ढूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में’ में जिसकी बात करते हैं। शंकराचार्य ‘अहं ब्रह्मास्मि’ के माध्यम से जिस स्वयं को जानने की बात करते हैं। उसी की बात किताबे नौरस में इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय करता हुआ दीखता है -
मुंज गुनाह अजाब न छोड़े रे।”[12]
मध्यकाल में भक्ति साहित्य के साथ कथात्मक साहित्य भी देखने को मिलता है। यह कथात्मक साहित्य तत्कालीन शासकों की प्रशंसा में लिखे जाते थे। इनमें हसन शौकी द्वारा लिखित 'मस्नवी फतहनामा', अब्दुल देलहवी द्वारा लिखित 'इब्राहीमनामा' आदि प्रमुख हैं। किताबे नौरस में भी कथात्मक काव्य लिखे गए। इब्राहीम ने इसमें सूफी संत हजरत शाह गेसूदराज, जिसे सैयद हुसैनी नाम से जाना जाता था उसका भी उल्लेख किया है। इनका उल्लेख मार्गदर्शक के रूप में हुआ है। इनके संबंध में वह लिखता है -
ज्यों रसूल कर लिखे अरश ठाँव।”[13]
इब्राहीम एक उदारवादी शासक था। उसने किताबे नौरस में एक पत्नीत्व की बात की, उसने बहुपत्नीत्व को ठीक नहीं माना है। संभवतः मध्यकाल का वह पहला मुसलमान प्रगतिशील कवि था, जिसकी दृष्टि इतनी पाक थी। इसके संबंध में वह कहता है -
इब्राहीम रीझा पल पल लोचन पग कर चल मैं आँव।”[14]
मध्ययुगीन काव्य में नारी के सौंदर्य का वर्णन मुहम्मद कुतुब, मुल्ला वजही सहित अन्य कवियों ने किया। किंतु किताबे नौरस में नारी चित्र का जो उदात्त रूप दिखाई देता है वह अन्यत्र नहीं मिलता। यहाँ सुंदर नारी की उपमा शुद्ध वर्षा ऋतु से दी गई है। इब्राहीम ने स्त्री, वर्षा के माध्यम से प्रकृति और मल्हार राग के माध्यम से कला का जो एक ही पद में समन्वय किया है, वह अन्यतम है -
इब्राहीम मोर रीझे नीचे पुकार।”[15]
बारिश में धूप के खिल जाने को वह असावरी राग से जोड़कर देखता है -
आसावरी समेत भई आनंद कर।”[16]
भक्तिकाल के संत कवि कबीरदास राजा राम ‘भरतार’[17]
के आगमन से पूर्व सखियों से मंगलगान गाने को कहते हैं। वहाँ निर्गुण ब्रह्म के लिए वेदियाँ बनायी जाती हैं तथा उनका मंगलगान मस्तानेपन का चोला पहन लेता है। उनका मन अजपा सुमिरन करता है। ये सब होता है, किंतु सबकुछ अंदर ही अंदर, गान भी और मस्ती भी। दूसरे अर्थों में ठीक इसी तरह किताबे नौरस में इब्राहीम असावरी राग को एक सुंदरी का रूप देता है, जिसमें असावरी रागरूपी स्त्री का रंग चमेली के समान है तथा वह लाल साड़ी सहित नीली चोली पहने हुए है। इसमें कवि मस्त नजरों से उसे देख रहा है। इस गीत का नाम उसने असावरी नौरस दिया है -
यो लच्छन आखें इब्राहीम कवित कार।”[18]
यहाँ देखें तो आधुनिक हिंदी काव्य के छायावादी युग में ‘संध्या सुंदरी’[19]
नामक कविता में सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने प्रकृति का जो मानवीकरण 20वीं सदी में किया, वही दक्खिनी काव्य में इब्राहीम ने कला का मानवीकरण 16वीं सदी में ही कर दिया था।
मध्ययुगीन दक्खिनी काव्य में हमें मुसलमानों के त्योहारों के साथ हिंदुओं के त्योहार, जैसे बसंत, होली, दिवाली आदि पर कविताएँ देखने को मिलीं। इसकी कुछ पंक्तियाँ निम्नलिखित हैं-
कुसुम चोला...।।”[20]
किताबे नौरस में भी होली खेलने का एक दृश्य है। यहाँ सहेलियाँ एक-दूसरे पर रंग फेंककर उससे तरबतर है। वहीं भांग-मदिरा के नशे में मस्त लोग ढोलक आदि वादयंत्र के साथ नौरस गीत गा रहे हैं -
इब्राहीम बसंत खैलैं समुद्र गंग।।”[21]
संदर्भ :
[1]
संपा. डॉ. घनश्याम : साहित्य सेतु, अप्रैल-दिसंबर, 2020 ई., पृ. 22.[2]
पं. राहुल सांकृत्यायन : दक्खिनी हिंदी काव्य-धारा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना,
1958 ई., पृ. 5.[3]
बच्चन सिंह : हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड,
नई दिल्ली, 2014 ई., पृ. 170.[4]
इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय : किताबे नौरस, संपा. डॉ. सुरेश दत्त अवस्थी, आंध्रप्रदेश
हिंदी अकादमी, हैदराबाद, 2001 ई.,पृ.6[5]
वही, पृ. 35[6]
वही, पृ. 41[7]
मल्लिक मुहम्मद जायसी : पदमावत, संपा. वासुदेवशरण अग्रवाल, साहित्य सदन, चिरगाँव, झाँसी,
संस्करण- 1961 ई., पृ. 108.[8]
इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय : किताबे नौरस, संपा. डॉ. सुरेश दत्त अवस्थी, आंध्रप्रदेश
हिंदी अकादमी, हैदराबाद, 2001 ई., पृ. 30[9]
पं. राहुल सांकृत्यायन : दक्खिनी हिंदी काव्य-धारा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना,
1958 ई., पृ. 109[10]
इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय : किताबे नौरस, संपा. डॉ. सुरेश दत्त अवस्थी, आंध्रप्रदेश
हिंदी अकादमी, हैदराबाद, 2001 ई., पृ. 31[11]
वही, पृ. 41[12]
वही, पृ. 29[13]
वही, पृ. 27[16]
वही, पृ. 24[17]
दुलहिन गावहु मंगलाचार, हम घरि आये राजा राम भरतार।तन
रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत बराती।।- कबीर ग्रंथावली : संपा. डॉ. पारसनाथ तिवारी,
हिंदी परिषद, प्रयाग,1961 ई., पृ. 5[18]
इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय : किताबे नौरस, संपा. डॉ. सुरेश दत्त अवस्थी, आंध्रप्रदेश
हिंदी अकादमी, हैदराबाद, 2001 ई., पृ. 15[19]
दिवसावसान का समय, मेघमय आसमान से उतर रही हैवह
संध्या- सुंदरी परी-सी, धीरे- धीरे- धीरे।– पं. सूर्यकांत त्रिपाठी निराला : परिमल,
गंगा पुस्तकमाला, लखनऊ, 1929 ई, पृ. 109.[21]
इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय : किताबे नौरस, संपा. डॉ. सुरेश दत्त अवस्थी, आंध्रप्रदेश
हिंदी अकादमी, हैदराबाद, 2001 ई., , पृ.20
नवनीत कुमारशोधार्थी, हिंदी साहित्य विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा।navjamui@gmail.com, 9661778099
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