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विद्यापति अपने समय और समाज के गंभीर तथा सहृदय निरीक्षक थे। ऐसा कहते हुए मुझे 'मैला आंचल' उपन्यास का यह प्रसंग बरबस याद आ रहा है, जहाँ डॉ. प्रशान्त के सामने एक प्रश्न उपस्थित होता है- "विद्यापति कवि के गान कहाँ?" और बहुत दिनों बाद मन में उलझे हुए उस प्रश्न का उत्तर उसे मिलता है- "जिन्दगी भर बेगारी खटने वाले अपढ़-गंवार और अर्द्धनग्नों में।" वह कह उठता है- "कवि! तुम्हारे गान हमारी टूटी झोपड़ियों में जिन्दगी के मधुरस बरसा रहे हैं?” इस भूमि पर विद्यापति की 'पदावली' हमसे यह अपेक्षा करती है कि उसका मूल्यांकन निरे-आस्वाद और शब्दार्थ सीमित व्याख्या से आगे बढ़कर किया जाए, उसे कविता की तरह पढ़ा जाए और उसके पाठ को सर्जनात्मक आस्वाद की तरह समझा जाए। इस प्रक्रिया में हमारे समक्ष पदावली का वह वैशिष्ट्य उभरकर आता है जिसके बल पर सदियों से अभावग्रस्तता, भीषण प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त, रूढ़ सामाजिक मान्यताओं में आबद्ध एवं जीवन में 'दुखों का ओर' नहीं पाने वाली मैथिल जनता 'भनय विद्यापति न कर उदास’ का गायन करते हुए अपनी जिजीविषा बचाए रख सकी है।
विद्यापति की पदावली के संकलनकर्ताओं में ग्रियर्सन द्वारा किया गया आरंभिक संकलन; जस्टिस शारदाचरण मित्र, नगेन्द्रनाथ गुप्त, खगेन्द्रनाथ मित्र, विमान बिहारी मजूमदार अथवा चारुचन्द्र बंद्योपाध्याय जैसे बांग्ला विद्वानों का संकलन; शिवनन्दन ठाकुर, उमेश मिश्र, चन्दा झा एवं सुभद्र झा जैसे मैथिल विद्वानों का परिश्रम और बाबू ब्रजनन्दन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, शिवप्रसाद सिंह, नागार्जुन, महेन्द्रनाथ दूबे जैसे हिन्दी के विद्वानों के प्रयत्न से विद्यापति की पदावली को जहाँ यथोचित महत्व मिला है, वहीं शिवप्रसाद सिंह का यह कहना भी एक सीमा तक सही है कि इनका अधिकांश श्रम विद्यापति को इस या उस भाषा का कवि प्रमाणित करने, शैव या वैष्णव घोषित करने और श्रृंगारिक या भक्त के खानों में बाँटने का अनावश्यक प्रयत्न ही साबित हुआ है। इस बात की आवश्यकता आज भी बनी हुई है कि लोक-संस्कृति के विशिष्ट प्रेक्षक की दृष्टि से विद्यापति को पढ़ा जाए। विद्यापति द्वारा तात्कालिक जीवन के अधिग्रहण और फिर उसे विद्यापति के काव्य लोक ने किस रूप में अभिगृहीत किया है, दोनों ही दृष्टिकोण से विद्यापति पर विचार करने की आवश्यकता है। विद्यापति की भाषा, धार्मिक मान्यता एवं उनकी भक्ति सम्बन्धी वाद-विवाद के अब तक अनसुलझे रह जाने का एक बड़ा कारण लोक संस्कृति के इस अहम् पक्ष की विद्वानों द्वारा की गई उपेक्षा ही है।
इसी कारण से केवल गेयता तथा श्रृंगार एवं भक्ति की अनमिल धारा के कारण प्रायः जयदेव, विद्यापति और सूरदास का नाम एक साथ लिया जाता है और विद्यापति का निजी वैशिष्ट्य एवं उनकी प्रखर सांस्कृतिक भूमिका उभरकर सामने नहीं आ पाती। विद्यापति को 'अभिनव जयदेव' कहा गया है। अभिनव विशेषण का प्रयोग इस बात का परिचायक है कि विद्यापति की पदावली और 'गीत गोविन्द' में विषय-वस्तु और अभिव्यक्ति सम्बन्धी भिन्नताएँ हैं। 'गीत गोविन्द' में सम्पूर्ण प्रेमलीला का आयोजन श्रीकृष्ण की मनोकामना का परिणाम है। उसमें प्रेमी कृष्ण का ही पक्ष प्रबल है, प्रिया राधा का नहीं-
“यदि हरिस्मरणे सरसं मनो
यदि विलासु कालासु कुतूहलम्
मधुर कोमलकांत पदावली
श्रृणुं तदा जयदेव सरस्वतीम्"
'गीत गोविन्द' के इस आरम्भिक पद से यह भी ध्वनित होता है कि उनका काव्य मूलतः श्रृंगारी ही है। यही कारण है कि जयदेव का सारा ध्यान श्रृंगारिक चेष्टाओं और केलि-कथाओं पर ही है, वयस-विकास आदि स्वाभाविकताओं पर नहीं। इसके विपरीत विद्यापति की पदावली में राधा-कृष्ण प्रेम के समान धरातल पर स्थित हैं, दोनों के हृदय में प्रेम का प्रकाश समान है। जहाँ राधा के लिए 'चानन भेल विषम सर रे भूषण भेल भारी' जैसी स्थिति है, वहीं कृष्ण भी 'विरह व्याकुल' है-
"विरह व्याकुल वकुल तरुतर पेखल नन्दकुमार रे
नील नीरज नयन से सखी ढरई नीर अपार रे।"
प्रायः विषय-वस्तु एवं अन्यान्य समानताओं को आधार बनाकर सूरदास और विद्यापति का नाम भी एक साथ ही लिया जाता है। निस्संदेह सूर एक विराट्र व्यक्तित्व के कवि हैं, उनका काव्य फलक बहुत विस्तृत है। नारी के विभिन्न रूप, स्वभाव और व्यवहार का जैसा विशद् चित्रण 'सूरसागर में हुआ है, यह अन्यत्र दुर्लभ है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'सूरसागर की इस विशेषता को देखकर ही इसे 'स्त्री चरित्र का विशाल काव्य' कहा था। सूर की तुलना में विद्यापति का काव्य फलक अवश्य ही न्यून है। विद्यापति में मातृत्व का वैसा छलछलाता रूप, प्रेयसी की वह भावाभिव्यक्ति, गोपियों के सहज आत्म-विस्मरण का भाव नहीं है जो सूरदास के यहाँ है। इस प्रसंग में यद्यपि हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि सूरदास भक्तिकाल के लगभग मध्य के कवि हैं। भक्तिधारा में अवस्थित होने के कारण उन्हें लोकाभिमुख भावभूमि अनायास ही प्राप्त हो गई थी। यह वह दौर था जबकि लोकभाषा की रचनाओं को सम्मान मिलने लगा था। विद्यापति राजपंडित थे, उनके युग की शिष्ट भाषा संस्कृत या अपभ्रंश थी। इसलिए विद्यापति को लोकजीवन के निकट आकर उसे अपनाने और फिर उसे लोकभाषा में अभिव्यक्त करने के लिए कहीं अधिक संघर्ष करना पड़ा था।
विद्यापति को यह श्रेय भी जाता है कि अपनी सहृदयता एवं सरसता के बूते दरबारों के चाकचिक्य, भोग-वैभव और दमघोंटू वातावरण में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा को मरने नहीं दिया। यही कारण है कि प्रायः छह सौ वर्ष बाद भी विद्यापति को लोक अपने ढंग से बचाए हुए है। विद्यापति जनजीवन के संस्कार में भीतर तक समाहित हैं। मिथिला की जनता के दैनंदिन जीवन के भरोसेमंद साथी हैं विद्यापति और 'विदापत' नाच आज भी अपनी विशिष्ट भंगिमा के साथ उपस्थित है। विद्यापति के इस दुर्लभ वैशिष्ट्य के उद्घाटन हेतु उनके सामाजिक प्रेक्षण को गंभीरता से परखने की आवश्यकता है।
लोक तत्वों का प्रयोग शैली और वस्तु दोनों ही दृष्टियों में काव्य को उन्नयनशील, कृत्रिमताहीन तथा जनमानस के साथ सम्बद्ध बनाने में सक्षम होता है। लोक-तत्वों का अभिग्रहण साहित्य की रूढ़ प्रवृत्तियों से प्रभावित विचार-सरणि को भी बदलने में सहायक होता है। विद्यापति ने लोक तत्वों के ग्रहण में काफी पटुता का परिचय दिया है। उन्होंने गीतों के छन्द, धुन, स्वर तथा शब्द-विन्यास आदि तो लोक जीवन से लिए ही, विरह और संयोग के वर्णनों में भी लोक-जीवन की ही मान्यताओं का प्रयोग किया। सूरदास ही नहीं वरन् विद्यापति के गीतों के पीछे लोकगीतों की प्रेरणा को सबसे पहले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ही रेखांकित किया था और उसे स्त्रियों के बीच चले आते हुए बहुत पुराने गीतों का साहित्यिक रूप कहा था। विद्यापति ने संयोग और वियोग के गीतों में अभिजात प्रयोगों की जगह सामान्य प्रेमी-प्रेमिका के लोक-जीवन में संयुक्त प्रेम व्यापार का मनोहारी वर्णन किया है-
“के पतिया लय जायत रे मोरा पियतम पास
हिय नहि सहय असह दुख रे भेल सावन मास
एकसरि भवन पिया बिनु रे मोरा रहलो न जाय
सखि अनकर दुख दारुण रे जग के पतियाय ।“
कहीं-कहीं तो उनके गीत इतने अधिक लोकतत्व ग्राही हैं कि वे बिल्कुल लोकगीत मालूम पड़ते हैं-
“मोरे रे अंगनवा चनन कर गछिया,
ताहि चढ़ कुररय काग रे
सोने चोंच बाँधि देबो तोयें वायस,
जो पिय जयतु आज रे ।“
विद्यापति की एक बहुत बड़ी विशेषता है उनकी आशावादिता। लोक कभी भी निराशावादी प्रवृत्तियों को प्रश्रय नहीं देता। विरहिणी नारी के दुख को कवि समझता है, इसलिए लोकगीतों की आशावादी प्रवृत्तियों के अनुरुप ही वह अपने पदों में कहता है कि धनि, तू अपने हृदय में धैर्य धारण कर, तेरे प्रिय शीघ्र ही आएँगे
“विद्यापति कवि गाओल रे धनि धरू मन आस
आओत तोर मनभावन रे एहि सावन मास”
विद्यापति के संबंध में एक अनूठी बात प्रायः सभी विद्वानों ने लक्ष्य की है कि उन्होंने विरहिणी नायिका के दुख का चित्रण करते समय उसे रानी या राजकुमारी की भूमिका में नहीं रखा है, जो उनके लिए ज्यादा अनुकूल होता। कवि ने नायिका के रूप में एक ऐसी नारी की कल्पना की है, जिसके चारों तरफ शील और मर्यादा की बाड़ लगी है, परिवार है, सास-ननद की पहरा देती आँखें है। ऐसी अवस्था में नायिका अपने पति से मिलने के लिए जो कुछ कहती है, यह भारतीय गृहस्थ जीवन की मर्यादा के भीतर ही
“हे हरि, हे हरि सुनि श्रवन करि
अब न विलासक बेरा
चकवा मोर सोर कए चुप भेल
उठिअ मलिन भेल चन्दा
मुख केर पान सेहो रे मलिन भेल
अवसर भल नहि मन्दा
विद्यापति भन एहो न उचित थिक
जग भरि होयत निन्दा”
विद्यापति के कृष्ण भी नन्दराजा के राजकुमार नहीं, अहीरों के नाथ थे, ग्वाल थे। इसलिए विद्यापति ने जिस वातावरण में उन्हें उपस्थित किया है, वह उसी के उपयुक्त है-
“कउड़ि पठउले पाव नहि धोर,
धीव उधार माँग मति मोर
बास न पावए माँग उपाति,
लोभक रासि पुरुष थिक जाति
कि कहब आज कि कौतुक भेल
अपदहिं कान्हक गौरव गेल
आयल बैसल पाँव पोआर,
सेजक कहिनि पुछए विचार
ओछाओन खंडतरि पलिया चाह
आओर कहब कत अहिरि नाह।”
विद्यापति की रचनाओं में यथार्थ के अन्य रूपों का भी बड़ा बारीक चित्रण हुआ है। तत्कालीन कुरीतियों पर कवि ने तीखा व्यंग्य किया है। वृद्ध वर के साथ तरुणी का विवाह तथा तरुण के साथ बालक का विवाह अदूरदर्शिता पूर्ण लोक रुड़ियों के ही अन्तर्गत आता है। विद्यापति के गीतों में लोकजीवन की इस विषमता की तीखी आलोचना मिलती है-
“पिया मोर बालक हम तरुणी,
कौन तप चुकलौह भेलौह जननी हे
पहिर लेल सखि एक दछिनक चीर,
पिया के देखैत मोरा दगध शरीर
पिया लेली गोदी के चललि बजार,
हटिया के लोग पूछे के लाग तोहार
नहि मोर देवर कि नहि छोट भाई,
पुरुब लिखल छल बालम हमार
बाटरे बटोहिया कि तुहु मोरा भाई,
हमरो समाद नैहर लेने जाई
कहिहनु बाबा के किनए धेनु गाय,
दूधवा पियाई के पोसथु जमाय
नहि मोर टाका अछि नहि धेनु गाय,
कौन विधि पोसब बालक जमाय।”
विद्यापति की पदावली में पहली बार एक ऐसी कविता से साक्षात्कार होता है, जो भाषाशास्त्र की शब्दावली में पहली बार 'प्रथम भाषा' में रची गई। 'प्रथम भाषा' वह है जो बचपन की भाषा है; परिवार की भाषा है. लोक-कथाओं की भाषा है। विद्यापति की इस प्रथम भाषा' को शक्ति मिली है, लोक प्रचलित मुहावरों के प्रयोग से। मुहावरों के प्रयोग से विद्यापति ने अपने कथ्य को और अधिक जीवन्त तथा लोक संपृक्त बनाया। विशेष रूप से ये प्रयोग यथा तथा अन्य गोपियों की बातचीत में दिखाई पड़ता है। लोक प्रयोग प्रायः स्त्रियों के वार्तालाप में ज्यादा रहते भी है। गोपी जब अपनी एक रात का अनुभव सुनाती है, तो मुहावरों का ही प्रयोग करती है-
“कि कहब हे सखि रातुक बात
मानिक पहल कुबानिक हाय।
काँच कंचन नहि जानय मूल, गुं
जा रतन करए समतूल।
तान्हि सौ कहाँ पिरीत रसाल,
वानर कंठ कि मोतिम माल
भनइ विद्यापति इह रस जान,
वानर मुँह कि सोभए पान”
लोक अपने प्रिय कवि को बारम्बार रचता है, कई-कई रूपों में मिथिला का प्राकृतिक सौन्दर्य, सरस मसृण भूमि अनायास ही हृदय को उद्वेलित और उच्छवसित कर देती है। ऐसी स्थिति में किसी भी सहृदय का कवि बन जाना सहज है। मिथिलांचल की जनता अपने दैनिक जीवन में जहाँ भी अवसर मिलता है, विद्यापति के पदों को तो गाती ही है, पदावली को आधार बनाकर मित्र-मित्र अवसरों पर अनुकूल गीतों की रचना भी करती रहती है। इन लोक-सृजित पदों के माध्यम से हम विद्यापति से सम्बन्धित अनेकानेक विवादों के समाधान की दिशा में बढ़ सकते हैं।
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