मध्यकालीन
काव्य-भाषा
विमर्श
- नीतेश यादव
शोध सार : भाषा का विकास इकहरा नहीं होता। ख़ासकर, जब मध्यकालीन भाषा विमर्श के सन्दर्भ में भाषाई परिवेश का मूल्यांकन करते हैं तब अनेक सिरे इस युगीन भाषा से जुड़ते हैं ।
किस प्रकार मध्यदेशीय भाषाओँ में से एक ब्रज भाषा मध्यकाल की जातीय भाषा के रूप में उभर कर आती है उसका अवलोकन इस शोधालेख में किया गया है । लोक और शास्त्र की जो बहस भक्तिकाल के सन्दर्भ में उठायी जाती रही है उसका भाषिक दृष्टि से मूल्यांकन और साथ ही, मध्यकाल में जनपदीय भाषाओँ की व्याप्ति के आधार का विवेचन भी इस शोधालेख में मौजूद है ।
कुछ ऐसे तथ्यों पर भी प्रकाश डाला गया है जो बताते हैं कि अहिन्दी प्रान्तों में शैक्षणिक स्तर पर ब्रजभाषा का अध्ययन अध्यापन हेतु पाठशालाओं का निर्माण राजसत्ता के संरक्षण में होता था जिससे ब्रजभाषा न सिर्फ ब्रज प्रांत में ही काव्य भाषा बनी अपितु अखिल भारतीय स्तर पर उसने काव्य भाषा का प्रतिनिधित्व किया।
ब्रजभाषा काव्य से पूर्ववर्ती साहित्य की जिन शैलियों का प्रभाव (भाषा त्रय, षटभाषा रूपक, उलटबाँसी) मध्ययुगीन कविता पर पड़ा, उनकी शिनाख्त भी इस शोधालेख में मौजूद है।
प्राच्यवादी भाषा चिन्तन ने भाषा के क्षेत्र में बाइनरी खड़ी कीं जिससे भाषा सांप्रदायिकता का रुख अख्तियार करने लगी। मध्ययुगीन कवियों की काव्यभाषा इस आरोपित भ्रान्ति को निर्मूल कर देती है। नजीर, रहीम आदि की काव्यभाषा इस प्रवृत्ति को रेखांकित करती है । इस शोधालेख में इन बिन्दुओं पर भी चर्चा की गयी है।
बीज शब्द : जनपदीय चेतना, मध्यदेशीय भाषा, अर्ली मॉडर्न, आरंभिक आधुनिकता, लोक जागरण, देशज आधुनिकता, षटभाषा रूपक, भाषा त्रय, सन्धाभाषा, उलटबाँसी।
मूल आलेख : मानव जीवन और भाषा अन्योन्याश्रित संकल्पनाएँ हैं।
सभ्यता के विकासक्रम में भाषा के स्वरुप में बदलाव स्वाभाविक है। समाज में जब भी धर्म,कला,चिंतन,मूल्य आदि स्तरों पर परिवर्तन आता है तो भाषा को भी उस समकालीनता और समसामयिकता की चुनौती को स्वीकार कर खुद के कलेवर को अभिव्यक्ति की दृष्टि से सक्षम और सशक्त बनाना पड़ता है ।
भाषा के स्वरुप में आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता।
बड़ी से बड़ी ऐतिहासिक क्रांति भी भाषा के ढाँचे में त्वरित परिवर्तन लाने में असमर्थ होती है ।
जो भाषाएँ आधुनिक आर्यभाषा कहलाई उनका ठीक ठीक स्वरुप मध्यकाल के आरंभिक पड़ाव में बेहतर स्थिति में हमारे सामने उपस्थित होने लगता है । अपभ्रंश का परवर्ती स्वरुप जिसे अवहट्ठ कहा गया, देश भेद के कारण इसके तीन रूप विकसित हुए – पश्चिमी, पूर्वी और मध्यदेशीय। इसी मध्यदेशीय अपभ्रंश का सम्बन्ध आज की हिंदी पट्टी से रहा जिससे खड़ीबोली, ब्रजभाषा और अवधी का प्रादुर्भाव हुआ । ब्रजभाषा और अवधी प्रमुख रूप से मध्यकालीन काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हुयीं। इसी कालखंड में राजस्थानी, ब्रजभाषा, मैथिली, गुजराती, बांग्ला आदि बोलियाँ अपनी निजी विशेषताओं के साथ उपस्थित होती हैं । लेकिन साहित्यिक या काव्यभाषा के रूप में जिन जनपदीय बोलियों का विकास शीघ्र हुआ उनमें गुजराती, मराठी और बँगला मुख्य हैं । नामवर सिंह इसके पीछे के कारण की शिनाख्त करते हैं और लिखते हैं कि, “ यदि इन प्रदेशों अथवा जनपदों के इतिहास पर विचार किया जाये तो पता चलेगा कि अनेक छोटे-मोटे राजनीतिक परिवर्तनों के बावजूद इनकी भौगौलिक सीमायें शताब्दियों पहले से बहुत कुछ अपरवर्तित रहती आईं हैं...शासन की दृष्टि से इन जातियों की भौगौलिक सीमाओं में एकसूत्रता स्थापित हुयी और राजवंशों ने संस्कृत की अपेक्षा लोकबोलियों को अधिक प्रश्रय और प्रोत्साहन दिया ।”
(1) कहने का तात्पर्य यह है कि जिन भौगोलिक इकाइयों में राजनीतिक हलचल कम रही और जातीय संगठन मजबूत रहे वहां साहित्यिक भाषा का रूप जल्दी स्पष्ट हो गया एवं उसके स्थानीय स्वरूपों में भी एकरूपता रही । मराठी, बांग्ला और गुजराती के साहित्यिक भाषा के रूप में उदय के पीछे प्रमुख कारणों में एक यह महत्वपूर्ण कारण रहा । मध्यदेश या कहें उत्तर भारत की स्थिति भिन्न थी । उस लहजे से इस प्रांत में एक साहित्यिक भाषा अथवा काव्यभाषा का विकास न हो सका।
यहाँ कई बोलियाँ साहित्यिक रूप में उभर कर आईं, कारण था राजनीतिक अनिस्थिरता । जातीय रूप से ये बोलियाँ संगठित नहीं हो पायी जिस तरह से बांग्ला या मराठी हो गयी।
गुजरात के सोलंकी,देवगिरि के यादव और बंगाल के पाल राजाओं ने अपने अपने राजनैतिक-भौगौलिक क्षेत्रों में सांस्कृतिक कार्यों द्वारा जातीय लोक तत्वों को संगठित होने का अवसर प्रदान किया यही कारण रहा कि गुजराती ,बंगाली या मराठी आदि भाषाएँ विस्तृत भौगौलिक इकाई की प्रतिनिधि साहित्यिक भाषा के रूप में उदित हुयीं। “ऐतिहासिक दृष्टि से राजस्थानी और मैथिली बोलियों का उदय पहले हो गया, इसके बाद अवधी का उदय हुआ। ब्रजभाषा और खड़ीबोली का उदय लगभग साथ ही साथ हुआ । लेकिन साहित्यिक दृष्टि से ब्रजभाषा खड़ीबोली से पहले ही लोकप्रिय और प्रौढ़ हो गयी ।”
(2) खड़ीबोली काव्यभाषा या साहित्यिक भाषा के रूप में उत्तर भारत की बजाय दक्षिण भारत में दक्किनी के रूप में विकसित हुई ।
ब्रजभाषा अपनी मिट्टी में ही संस्कारित होती रही, संस्कृत ज्ञान परम्परा का और वैष्णव भक्ति का सान्निध्य ब्रजभाषा को प्राप्त हुआ । तुलसीदास के समय तक तक आते आते अवधी भी ब्रजभाषा में अपना अस्तित्व मिला देती है । अवधी मिश्रित ब्रजभाषा ही मध्य प्रांत की काव्यभाषा के रूप में उभर कर आती है। १६वी सदी में अकबर के शासन काल तक आते आते राजनीतिक हलचल कम हुयी। विकेन्द्रित मध्यप्रांत संगठित होने लगा । आगरा दिल्ली के आस पास का क्षेत्र; मूलत ब्रज प्रदेश प्रशासकीय केंद्र रहा । वाणिज्य, व्यापार, विशाल छाबनियों आदि के निर्माण जैसे कुछ निर्णायक समाजशास्त्रीय कारण रहे जिनकी वजह से जातीय संगठन को बल मिला और फलस्वरूप ब्रजभाषा अलग अलग स्थानों पर काव्यभाषा के रूप में विकसित हुयी । “इस तरह उस मध्ययुग में भी जातीय भावना के लिए पृष्ठभूमि तैयार हुयी । एक ओर ये आर्थिक और राजनीतिक आधार निर्मित होते रहे और दूसरी ओर भक्ति-आन्दोलन के द्वारा सम्पूर्ण मध्यदेश में सांस्कृतिक एकता की लहर फ़ैल रही थी। इन दुहरे प्रयत्नों ने जातीय भाषा के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया।” (3)
भक्तिकाल जनपदीय चेतना के उत्थान का काल है । भक्ति काव्य में मौजूद विविधता और स्थानीय भाषा प्रेम भारतीय चेतना में एक निकष बना देता है । मध्यकाल में कवि प्राय: अपनी काव्यभाषा को केवल ‘भाषा’ या ‘भाखा’ कहते थे । इन दोनों शब्दों से जो अर्थ ध्वनित होता था उसका आशय है कि वह भाषा जो संस्कृत या प्राकृत नहीं है। जैसे कबीर लिखते हैं ‘संस्कीरित है कूप जल,भाखा बहता नीर’, अवधी में तुलसी लिखते हैं ‘ भाषा भनिति,भोरी मति मोरी’, डिंगल के पृथ्वीराज राठोड लिखते हैं ‘भाखा प्राकृत संसकिरित भणतान मुझ भारती अ मरम’ । अभिप्राय यह है कि वह देश भाषा जिसमें कवि रचना कर रहा है वह भाखा या भाषा कहलाई। ठीक इसी प्रकार अवधी प्रेमाख्यानों के कवि अपनी भाषा को ‘हिन्दुकी’ या ‘हिन्दवी’ कहते हैं तो उनका आशय होता है वह काव्यभाषा जो अरबी फ़ारसी से भिन्न है ।
भाषा के शास्त्रीय रूप संस्कृत के बरअक्स मध्यदेश में काव्य भाषा के रूप में जनपदीय भाषाओँ ब्रज,अवधी का उदय होता है। कविता जिस ज़मीन पर प्रस्फुटित हुयी, उसकी भाषा लोक भाषा रही । अब ईश्वर भी संस्कृत के स्थान पर लोक बोली में संवाद करता नजर आता है। तुलसी के राम को अवधी आती है और कृतिवास के राम को बांग्ला । यह एक खूबसूरत पहलू है जो मध्यकालीन काव्य में भाषा के माध्यम से प्रस्फुटित हुआ। क्योंकि जब शास्त्र या शास्त्रीय भाषा की बात होगी ईश्वर की व्याप्ति और उसका केनवास अभिजन वर्ग तक ही सीमित रहेगा, आम जन एवं लोक से धरातल से वह पृथक रहेगा। “ भक्ति की कवितायें लोकभाषाओं- ब्रज,अवधी या सधुक्कड़ी भाषा में लिखी गईं, क्योंकि संस्कृत और फ़ारसी पर साम्प्रदायिक पंडितों- मौलवियों का कब्ज़ा था । यह काम लोकजीवन के तत्वों को लेकर हो रहा था, ताकि शास्त्रों पोथियों का प्रभुत्व मिटे। इस तरह भक्ति काव्य विविधता और सार्वभौमिकता के साथ स्थानीय जातीय अखंडता की तीव्र होती चेतना से जुड़ा।” (4)
मध्यकाल में सामंती मूल्यों में दरार आने लगती है। लोकजागरण के रूप में भक्ति आन्दोलन अपने मूल्यगत वैशिष्ट्य के साथ सामंती मूल्यों को चुनौती देता है, इसी जागरण में काव्य भाषा भी पुनर्परिभाषित होती है । कई विद्वानों ने मध्यकाल की अवधारणा को भी प्रश्नांकित किया है। “किसी समाज को मध्यकालीन कहने से केवल कालक्रम का ही बोध नहीं होता बल्कि यह अर्थ भी निकलता है कि वह समाज रूढ़िबद्ध और धर्मान्ध है, वहाँ विचारों का आदान प्रदान नहीं होता...कविओं आदि में मौलिकता का अभाव होता है या कहें तो पूरा समाज एक ‘जबदी हुयी मनोवृत्ति’ से ग्रसित होता है।’’(5) और जिस आधुनिकता को यूरोप से आयातित अवधारणा माना जाता रहा, दरअसल वह भारत में मध्यकाल में अपने कलेवर में विकसित हो रही थी, जिसे रामविलास शर्मा लोक जागरण कहते हैं। पुरुषोत्तम अग्रवाल और दलपत राजपुरोहित क्रमश: देशज आधुनिकता और आरंभिक आधुनिकता पदबंध का प्रयोग करते हैं। मध्यकाल ‘अर्ली मॉडर्निटी’ का चरण है। रामविलास शर्मा ने यूरोपीय आवरण में लिपटी हुयी आधुनिकता की अवधारणा पर कई सवाल उठाये। प्राय: अंग्रेजी राज के आगमन से आधुनिक काल को जोड़ा जाता रहा है। 14 वीं-15 वीं सदी में लगातार व्यापार वृद्धि, नगरों के उद्भव और कामगार जातियों की सामाजिक हैसियत को मजबूती मिलने से भारतीय समाज का विकास हुआ और उसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति भक्ति काव्य में हुयी । “ कबीर और हिंदी के अन्य कवि ही नहीं तुकाराम, नामदेव आदि की कविता में भी आधुनिक सी लगने वाली संवेदना प्रकट होती है । इन कवियों का अपने समय और समाज की लोकप्रिय आवाज बनना प्रकारांतर से भारत की अपनी ‘देशज’ आधुनिकता (vernacular modernity) की अभिव्यक्ति थी।” (6) संत परम्परा के माध्यम से एक अलग ही अलख अखिल भारतीय स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ती है । स्थानीय बोलियों को माध्यम बनाकर जन जन तक जागरण की व्याप्ति, संवाद आधारित ज्ञान की अनुगूँज विशिष्ट थी । व्यापार आधारित समाज और संवाद आधारित ज्ञान की प्रक्रिया किसी भी समाज के ‘आधुनिक’ होने का आधार थी। बाजार एक ऐसी इकाई है जो सामंती ढाँचे को सामने से चुनौती देता है।
मध्यकाल में ब्रजभाषा की व्याप्ति न सिर्फ उत्तर भारत में थी अपितु देश के अलग अलग हिस्सों में काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा की स्वीकृति थी। ब्रजभाषा न केवल कृष्ण काव्य की ही भाषा थी अपितु काव्यशास्त्र, धर्मशास्त्र, शिक्षा, ज्योतिष, नीति, वीर रस प्रधान काव्य की भी भाषा बनी । इसका दायरा बृहत्तर और व्यापक था । मुग़ल साम्राज्य के अलग अलग केन्द्रों में और देशी राज रजवाड़ों ( मारवाड़, आमेर,बूंदी, बुंदेलखंड, दकन, आदि ) में इसकी काव्यभाषा के रूप में प्रतिष्ठा हुयी। भिखारीदास के ‘काव्यनिर्णय’ में ब्रजभाषा की व्यापकता को रेखांकित करते हैं -
‘सूर केसौं मंडन बिहारी कालिदास ब्रह्म, चिंतामणि मतिराम भूषण सु ज्ञानिये।
लीलीधर सेनापति निपट नवाज निधि, नीलकंठ मिश्र सुखदेव देव मानिए।।
आलम रहीम रसखानि सुन्दरादिक, अनेकन सुमति भए कहाँ लौं बखानिये ।
ब्रजभाषा हेत बृजबास ही न अनुमानों, ऐसे ऐसे काबिन की बानी हूँ सो जानिये ।।‘ (7)
आशय यह है कि अब केवल ब्रज में रहें वाले ही ब्रजभाषा का प्रयोग नहीं करते हैं अपितु अनेक भौगौलिक क्षेत्रों के कवि भी ब्रजभाषा में संवेदनाओं अभिव्यक्त कर सकते हैं। दलपत राजपुरोहित इसी प्रकार एक अन्य तथ्य का उल्लेख करते हैं । ‘उत्तर भारत के दरबारों में ब्रजभाषा की प्रतिष्ठा और उसमें विकसित काव्य ज्ञान को अगली पीढी के कवियों तक पहुंचाने के लिए ही उत्तर भारत से दूर गुजरात में ब्रजभाषा पाठशाला की नींव पड़ी । कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला की स्थापना में मुख्य भूमिका तपागच्छ शाखा जैन यति कनक कुशल और कुंवर कुशल ने निभाई थी जिनको महाराव लखपतिसिंह अपना काव्य गुरु मानते थे।'
(8) कनक कुशल इस पाठशाला के पहले आचार्य रहे । देश के विभिन्न हिस्सों से (कच्छ, सिंध, सौराष्ट्र, काठियावाड़, राजस्थान) विद्यार्थी यहाँ ब्रजभाषा की तालीम लेने आते थे । इस पाठशाला से जो विद्यार्थी पढ़कर निकलते थे वे या तो कहीं राज्याश्रय में कविता करने लगते थे या संत सम्प्रदायों में दीक्षित हो जाते थे । ‘पूर्व औपिनिवेशिक काल में जहां शिक्षा का माध्यम साधारणतया संस्कृत या फ़ारसी हुआ करती थी, ब्रजभाषा जैसी जनभाषा में रचित काव्य के महत्त्व को समझकर, उसे औपचारिक शिक्षा का अंग बनाना वाकई कच्छ दरबार का एक युगांतकारी कदम था।’ (9) नीति, युद्ध-कला, चिकित्सा और ज्योतिष के साथ साथ व्याकरण, अलंकार, छंद, कोश आदि विषयों से जुड़े देशभाषा में रचित ग्रन्थ इस पाठशाला के पाठ्यक्रम का हिस्सा थे। सुन्दरदास, तुलसी , बिहारी, मतिराम आदि मध्यकालीन कवियों की रचनाएँ यहाँ के पाठ्यक्रम में सम्मिलित थीं। यहाँ वाचिक परम्परा और स्मृति को महत्त्व दिया जाता था । विशिष्ट शैली से छंद आदि का ज्ञान कराया जाता था -
‘पहिले दस दीजे, दूजे तीजे आठो लीजे, खट चतुरा
नागाके ईसं, जुगति काहीसं, विश्वेवीसं, एव तरा’ (10)
उपर्युक्त पद ‘त्रिभंगी’ छंद को सिखाने की एक विधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता था । इस पाठशाला के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण तथ्य जो ध्यान आकृष्ट करता है वह यह कि भक्तिकालीन कवियों में से सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा यहाँ सुन्दरदास को मिली । सुन्दरदास भक्ति और रीति कविता, मठ और दरबार, ब्रज और अन्य देशभाषाओँ के बीच की आवाजाही को सुदृढ़ करने वाले सेतु हैं।
ब्रजभाषा अपनी लचीली प्रकृति के कारण क्षेत्रीय भाषाओँ की विविधता को अपने भीतर समाविष्ट करने की क्षमता रखती थी। इसी कारण से ब्रजभाषा को व्यापक स्वीकृति मिल पाना संभव हो सका। ब्रजभाषा में जब सूफी काव्य लिखे गए और मुग़लिया दरबार के सान्निध्य में काव्य लिखे गये तब उसमें अरबी फ़ारसी के अल्फाज आना लाजमी था । साथ ही ब्रजभाषा में ‘तत्सम’ और ‘तद्भव’ शब्दों का अतिशय प्रयोग हुआ क्योंकि रीति ग्रंथो के विषय संस्कृत काव्यशास्त्र से लिए गये। साथ ही, स्थानीय भौगौलिक भेद के चलते तुक,आतंरिक लय, मुहावरे आदि लोक के प्रभाव आदि के कारण बदलती रही। ब्रजभाषा में जो प्रबंध काव्य लिखे गये वे संस्कृत से प्रभावित रहे इसलिए उनमें प्रयुक्त मंगलाचरण, नगर वर्णन आदि में प्रयुक्त ब्रजभाषा संस्कृत से प्रभावित है । ब्रजभाषा की सर्वसमावेशी प्रवृत्ति उसका गुण है । लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल इसी प्रकृति के कारण ब्रजभाषा को ‘च्युतसंस्कृति दोष’ से ग्रसित मानते हैं क्योंकि उसमें सर्वमान्य व्याकरणिक व्यवस्था का अभाव है और उसका रूप स्थिर नहीं है । वे लिखते हैं कि, “भाषा को वह स्थिरता न प्राप्त हो सकी जो किसी साहित्यिक भाषा के लिए आवश्यक है । रूपों के स्थिर न होने से यदि कोई विदशी काव्य की ब्रजभाषा का अध्ययन करना चाहे तो उसे कितनी कठिनता होगी।” (11) आचार्य शुक्ल ब्रजभाषा की इस प्रकृति को दोष मानते हैं जबकि यही वैविध्य उसकी खूबसूरती है। भारतीय आर्यभाषाओं में शुद्धतावादी आग्रह भाषा के फलक को संकुचित कर देता है। खड़ीबोली हिंदी भी इसी सर्वसमावेशी प्रवृत्ति से उपजी भाषा है।
संस्कृत काव्य परम्परा में ‘भाषा त्रय’ और कालान्तर में ‘षटभाषा’ में काव्य सृजन की परम्परा थी । यानी जो कवि काव्य रचते समय छः भाषाओँ (संस्कृत, प्राकृत, मागधी, पैशाची, शौरसेनी और अपभ्रंश) का प्रयोग करेगा वह प्रवीण समझा जाएगा। इससे पहले यह परम्परा भाषा त्रय की थी। इस भाषा त्रय में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश शामिल थीं। ‘ब्रजभाषा की इस लचीली भाषाई प्रकृति और संस्कृत से चले आ रहे षटभाषा के रूपक को देशभाषा का कवि कैसे प्रयोग कर रहा था इसका उदाहरण जानने के लिए भिखारीदास के रीतिग्रंथ ‘काव्य निर्णय’ को देखना पड़ेगा।’ (12)
‘भाषा ब्रजभाषा रुचिर, कहैं सुमति सब कोई।
मिले संस्कृत पारस्यो, पै अति प्रगट जु होई।।
बृज मागधी मिलै अमर,नाग जमन भाषानी।
सहज पार्सीहूँ मिले, षटविधि कवित बखानि।।’ (13)
भिखारीदास उसी षटभाषा की परम्परा को ब्रजभाषा में जीवंत बनाने की बात करते हैं। इन भाषाओँ में संस्कृत, फ़ारसी, ब्रज, मागधी, अवधी और पूर्वी भाषाएँ शामिल हैं। उपर्युक्त पद से भिखारीदास स्पष्ट करना चाहते हैं कि ब्रजभाषा की कविता अधकार छहों साहित्यिक परम्पराओं का आभास पाया जा सकता है। मध्यकाल में ब्रजभाषा के काव्यभाषा बनने की प्रक्रिया को जानना समझना सम्पूर्ण उत्तर भारत के भाषा विमर्श से रूबरू होना है।
काव्य भाषा के सन्दर्भ एक और बिंदु जो ध्यान आकृष्ट करता है वह है संत कविता में उलटबाँसी का प्रयोग । यह परम्परा नाथ पंथ और सिद्ध साहित्य से संत कविता में आती है । ये उलटबाँसी उन रचनाओं में मिलती हैं जिनमें किसी बात को विपरीत ढंग से वक्रता या उटपटांग ढंग से कहा गया हो,और इनमें अलंकार विधान आदि नहीं ढूंढा जाता। गूढ़ता से यदि उन पदों का दृष्टिपात किया जाए तो अर्थ स्पष्ट हो जाता है । काव्य के प्रति शुद्धतावादी आग्रह रखने वाले काव्यशास्त्रियों ने इसे ‘अधम काव्य’ तक कह दिया है। लेकिन ये उलटबाँसियाँ जीवन के व्यापक अनुभव, उसके सार तत्व का नवनीत हैं। इसी तरह के उदाहरण सिद्धों के चर्यापदों में भी मिलते है। ‘उलटबांसियों की चर्चा करते समय कुछ लोग उन्हें ‘संध्याभाषा’ अथवा सन्धाभाषा’ नाम से भी सूचित करते हैं । संध्याभाषा का अभिप्राय उस अस्पष्ट भाषा से है जो गोबूलि रेला की भांति कुछ प्रकाश एवं अन्धकार से मिश्रित रहा करती हैं।’ (14) संधाभाषा का प्रयोग प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद और ब्राह्मण ग्रंथों में देखने को मिलता है। इनके पीछे के रहस्यों का उदघाटन एवं उनकी अर्थ छबियां मीमांसक लोग विविध रूपकों के माध्यम से स्पष्ट किया करते थे । कबीर ग्रंथावली में अनेक पद उलटबाँसी सम्बन्धी हैं । कबीरदास इस प्रकार के पदों को ‘उलटा वेद’ कहते हैं वहीं सुन्दरदास उसे ‘उलटी’ अथवा ‘विपर्जय’ नाम से अभिहित करते हैं। इनसे पूर्व गोरखनाथ ने इस ख़ास शैली के लिए ‘उलटी चरचा’ पदबंध का प्रयोग किया है । इनके अलावा दादुजी, रज्जब, पलटू, शिवदयाल आदि संत कवि काव्य भाषा के रूप में इस शैली का प्रयोग करते हैं. उदाहरणार्थ -
‘समंदर लागी आगि, नदियाँ जली कोइला भई
देख कबीरा जागि, मंछी रुषा चढ़ी गई’ (15)
साधना और अनुभूति के सन्दर्भ में संत कवियों ने उलटबाँसियों का प्रयोग किया है। साथ ही ये उलटबांसियाँ मायाजनित दुरावस्था का परिचय भी देती हैं। मध्यकालीन काव्यभाषा अपने से पूर्ववर्ती काव्य शैलियों के साथ संवादी भूमिका में दिखाई पड़ती है। प्राकृत और अपभ्रंश के काव्य रूपों को ग्रहण भी करती है और उनमें परिष्कार भी।
मध्यकालीन कविता को पढ़ते समय आपको काव्यभाषा में साम्प्रदायिक दरारें देखने को नहीं मिलेंगीं जोकि उस कविता की खूबसूरती है । कालान्तर में प्राच्यवादियों द्वारा बाइनरी खड़ी की गयीं। रहीम, नजीर, सौदा, मीर की काव्यभाषा साम्प्रदायिक सौहार्द को संपोषित करने वाली है। नजीर की काव्यभाषा इसी गंगा जमुनी तहजीब को और गाढ़ा करती है उसे समृद्धि प्रदान करती है । उनकी एक नज्म है ‘गणेश जी की स्तुति’ । नजीर हिन्दू जन जीवन के तमाम पक्षों को अपनी कविता में उसी तल्लीनता के साथ अभिव्यक्त करते हैं जितने की मुस्लिम जगत के विविध आयामों को । उदाहरणार्थ -
‘सनकादि सूर्य चन्द्र खड़े आरती करें
और शेषनाग गंध की ले धुप को धरें
नारद बजावें बीन चंवर इंद्रा ले धरें
चारों बदन स्तुति ब्रह्मा जी उच्चरें’ (16)
कंस का मेला, जनम कन्हैया का, हरी की तारीफ़ जैसे अनेक विषय नजीर की कविताओं में देखने को मिलते हैं । ये विषय तत्कालीन सामासिक और साँझी संस्कृति को व्यक्त करते हैं । काव्यभाषा के रूप में भी खड़ीबोली और ब्रज का प्रयोग इनकी रचनाओं में देखने को मिलता है । ‘काव्यभाषा का अपने प्रयोगकर्ताओं की संस्कृति से प्रत्यक्षत: या परोक्षत: एक जुड़ाव और सम्बन्ध रहता ही है, जो काव्यभाषा के स्वरुप को एक हद तक उस सांस्कृतिक आधार पर आकार देती है, प्रतीकों तथा भावचित्रों के विधान में काव्यभाषा अपने सांस्कृतिक परिवेश की चेतना का प्रतिफलन है।’ (17)
यह कहा जा सकता है कि ओरिएंटललिज्म आधारित ज्ञान की शाखा ने बहुत हद तक कला साहित्य के अविरल प्रवाह तोड़ा और मरोड़ा भी । आधुनिक काल में जितनी ‘बाइनरीज’ निर्मित की गयीं उतनी मध्यकालीन साहित्य में नहीं थीं।
निष्कर्ष: काव्यभाषा की अवधारणा को एक किसी निश्चित और नियोजित ढांचे में नहीं समझा जा सकता। भाषा जब जातीय स्वरुप ग्रहण करती है तब उसकी दरकार और उसके प्रयोगधर्मी क्षेत्र बढ़ जाते हैं। भाषा की बानगी को प्रभावित करने वाले कारकों में बाजार एक महत्वपूर्ण इकाई है। रामविलास शर्मा इस तरफ संकेत करते हैं मध्यकाल में अनेक जनपदीय भाषाओँ का उदय हुआ। मध्यदेश में उदित हुयीं भाषाओँ में ब्रजभाषा प्रधान भूमिका में दिखती। मध्यकाल में ब्रज क्षेत्र में बड़े बाजार स्थापित हुए और अर्थ व्यवस्था सुदृढ़ हुयी और साथ ही राजनीति में भी ठहराव आया। सम्पर्क भाषा के रूप में ब्रजभाषा की व्याप्ति के ये प्रमुख कारण थे। मध्यकाल में अनेक जनपदीय भाषाओँ का उदय हुआ। मध्यदेश में उदित भाषाओँ में ब्रजभाषा प्रधान भूमिका में दिखती है। साहित्यिकता की दृष्टि से अवधी का विलय ब्रज भाषा में हो जाता है और खड़ीबोली दक्कन क्षेत्र की प्रवासी हो जाती है और दक्खिनी हिंदी के रूप में अपनी पहचान बनाती है और उत्तर भारत में ब्रजभाषा जातीय भाषा के रूप में उभर कर एक विशिष्ट पहचान बनाती है। ब्रजभाषा का स्वभाव लचीला है यानी स्वीकार्यता बोध की क्षमता उसमें बहुत है। इसलिए उसमें स्थानीय भेदों की झलक भी देखने को मिलती है। यही उसकी खूबसूरती भी है। चूँकि ब्रजभाषा को पूर्ववर्ती काव्य परम्पराओं का एवं ज्ञान परम्पराओं को सान्निध्य प्राप्त हुआ इसलिए उसका एक रिश्ता पूर्ववर्ती धाराओं से मेल खाता था। इस रूप में ब्रजभाषा की व्याप्ति दरबारों तक हुई और सर्जना के उद्देश्य से भी उसकी पहुँच विविध क्षेत्रों में हुयी। इसलिए 15 वीं सदी से 19 वीं सदी तक ब्रजभाषा के साहित्य की प्रधान काव्यभाषा बनाने की प्रक्रिया को समझना उत्तर भारत के पूरे भाषा विमर्श को समझना है। काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा की स्वीकृति मध्यकाल में होती है और विविध शैलियों का समन्वय इस काव्यभाषा में प्रकट होता है ।
सन्दर्भ :
1.
सिंह, नामवर, हिंदी के विकास में अपभ्रंश का
योग, प्रयागराज, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण वर्ष 2022, पृष्ठ सं. 90, मुद्रित ।
2.
वही,पृष्ठ सं. 91
3.
वही, पृष्ठ सं. 93
4.
सिंह, शम्भुनाथ (सं),
वागर्थ पत्रिका, कोलकाता, भारतीय भाषा
परिषद, मार्च 2018, पृष्ठ सं. 9, मुद्रित।
5.
सिंह राजपुरोहित, दलपत,
सुन्दर का स्वप्न, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2022, पृष्ठ सं. 23, मुद्रित।
6.
अग्रवाल, पुरुषोत्तम, अकथ कहानी प्रेम की, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, पांचवा संस्करण 2023, पृष्ठ सं. 69, मुद्रित।
7.
मिश्र, विश्वनाथ प्रसाद (सं.), भिखारीदास ग्रंथावली (भाग 2), काशी, नागरी प्रचारिणी सभा,
1957, पृष्ठ सं. 5 (पूर्वोद्धृत)
8.
सिंह पुरोहित, दलपत,
सुन्दर के स्वप्न, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2022, पृष्ठ सं. 178, मुद्रित ।
9.
वही, पृष्ठ सं. 180
10. पुष्पदान गढ़वी,
नीतुभाई जेठीदान झीबा
(सं.), लघु संग्रह, भुज,
श्री शम्भुदन गढवी
जन्मशताब्दी समारोह समिति, 2010, पृष्ठ सं. 106 (पूर्वोद्धृत)
11. शुक्ल, रामचंद्र, हिंदी साहित्य का
इतिहास, दिल्ली, वाणी
प्रकाशन, आवृत्ति संस्करण 2015, पृष्ठ सं. 201, मुद्रित।
12. सिंह
पुरोहित, दलपत, सुन्दर का
स्वप्न, दिल्ली, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2022, पृष्ठ सं. 192
13. मिश्र, विश्वनाथ प्रसाद, भिखारीदास ग्रंथावली (भाग 2), काशी, नागरी प्रचारिणी सभा,
1957, पृष्ठ सं. 5 (पूर्वोद्धृत)
14. चतुर्वेदी, परशुराम, संत
काव्य, प्रयागराज, किताबमहल, प्रथम संस्करण 1952, पृष्ठ सं. 52, मुद्रित ।
15. दास, श्यामसुंदर (सं.),
कबीर ग्रंथावली, प्रयागराज, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण 2013, पृष्ठ सं. 148, मुद्रित ।
16. नजीर,
मोहम्मद (सं.), नजीर ग्रंथावली, प्रयागराज, उतर प्रदेश हिंदी संस्थान, पृष्ठ सं. 75 (पूर्वोद्धृत)
17.
भदौरिया, संतोष (सं.), अनुसंधान, प्रयागराज, हिंदी एवं आधुनिक भाषा
विभाग (इलाहाबाद विश्वविद्यालय), संयुक्तांक 17-18, जनवरी-दिसम्बर, 2021, पृष्ठ सं. 216, मुद्रित ।
एक टिप्पणी भेजें