भील - नाम संबंधी उत्पत्तिशास्त्र :- भील शब्द की उत्पत्ति किस प्रकार हुई इस विषय में प्रायः सभी लेखकों की मान्यता एवं प्रस्तुति एक समान है। यह माना जाता है कि इस शब्द *की उत्पत्ति मूलतः उच्चारण संबंधी भेद के कारण संस्कृत के मूल शब्द "भिद्” से हुई है। भिद् का भावार्थ है विंधना, भेदना, वेधना (लक्ष्य को वेधना) आदि। उच्चारण सम्बन्धी विशिष्टता के 3 कारण भिद् शब्द ही कतिपय परिवर्तनों के पश्चात् अन्ततः भील शब्द में रूपान्तरित हुआ है।
आर. वी. रसल और रायबहादुर हीरालाल का मत पत है कि द्राविड़ भाषा में धनुष के लिये प्रयुक्त
शब्द " बिल " से ही रूपान्तरित होकर भील शब्द अस्तित्व में आया है।
भील शब्द की उत्पत्ति "बिल" से हुई है जिसका द्रविड़ भाषा में शाब्दिक अर्थ "धनुष" होता है। भील जाति दो भागों में विभक्त है -
(1) क्षत्रिय भील तथा (2) उजलिया भील ।
यह जनजाति मुख्य रूप से गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा राजस्थान के पहाड़ी इलाकों में पाई जाती है। एक अनुमान के अनुसार इनकी जनसंख्या निम्नप्रकार है –
1. गुजरात - 3441945
2. मध्यप्रदेश-4619068
3. महाराष्ट्र -1818792
4. राजस्थान-2805948
इस प्रकार हम देखते है हल्दी घाटी युद्ध लड़ने वाले , स्वाधीनता आंदोलन में मानगढ़ धाम (राज.) पर शहीद होने वाले तथा टंट्या मामा ( इंडियन रॉबिन हुड) जैसे स्वतंत्र योद्धा पैदा करने वाली योद्धा भील जनजाति वर्तमान में भारत के मध्यप्रदेश ,राजस्थान,गुजरात, महाराष्ट्र आंध्रप्रदेश में नायक (भील समूह ) त्रिपुरा के उत्तर पूर्वी स्थानों और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में बहुआबादी के रूप में निवासरत जनजाति है । कि भील जाति के लोग मध्यप्रदेश में अधिकतम रूप से पाये जाते हैं। राजस्थान में भील जाति को धर्नुधर के रूप में जाना जाता है। यह सम्पूर्ण भारत में आदिवासी के रूप में बिखरे हुए है। यह जाति पश्चिमी एशिया की सबसे अधिक आदिवासी जाति के रूप में है।
इन्हें कही पर विशुद्ध भील कहते हैं तथा कहीं पर क्षत्रिय भील भी कह कर पुकारते हैं।
मरदुम शुमारी राज मारवाड़ 1891 ई. जो रायबहादुर मुन्शी हरदयाल सिंह द्वारा लिखित और प्रो. जहूर खां मेहर द्वारा लिखी प्रस्तावना में उल्लेख है -"
"भील अपनी पैदायश मेणों के माफिक भगवान के मैल से बताते हैं। उनकी कई पीढ़ी जिनमें ये 8 कदीम होने का दावा करती है – राबर्ट शेफर ने "निषादों" को भीलों का पुरखा प्रतिपादित किया है। उनके अनुसार 'भील' निशाद माधव (मधु) मूलक हैं।
भीलों की उत्पत्ति के बारे में कर्नल टॉड में लिखा है कि - "भील जाति भारतवर्ष में लम्बे समय में रहती आ रही है। इस कौम के गुण, स्वभाव और रहन-सहन से यही प्रकट होता है कि ये देश के आदिम निवासी है।
वेंकटाचार (1933) ने कहा कि भील आर्यों और द्रविड़ों से पहले भारत में रहते थे। भील मुण्डा आदिवासी समूह का एक भाग है। इस बात का समर्थन शम्भुलाल दोषी (1971) भी करते है।
वर्तमान में प्रयुक्त भील शब्द वस्तुतः अतीत के "निषाद" शब्द का ही पर्याय है, इसे प्राय सभी लेखक और अन्वेषक स्वीकार करते हैं। निषाद शब्द का प्रयोग प्राचीन वाङ्ङ्गमय, वैदिक साहित्य में व्यापक रूप में हुआ है। इस प्रकार के उल्लेख से यह विदित होता है कि निषाद
हिन्दू समाज के अंग क थे तथा उनके व शेष हिन्दुओं के बीच सतत् संपर्क व सहयोग रहा
भील (निषाद्) धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण हैं। इनके धनुष्य से निकला हुआ तीर लक्ष्य तक न पहुंचे यह संभव ही नहीं है। धनुर्विद्या में उनकी यह निपुणता अतीत से चली आ रही है। यह उन्हें विरासत में प्राप्त नैसर्गिक विशेषता है। यह इसी तथ्य से प्रमाणित होता है कि आदिकवि वाल्मीकि के रामायण भील मुख से प्रस्फुटित प्रथम काव्य रूपी निम्नांकित पंक्तियां एक निषाद को ही संबोधित हैं जिसने कि अपने बाण से कामातुर क्रौंच पक्षी का वध किया था -
"मा निषाद ! प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वतीः समाः ॥
यतक्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।
रामायण में और भी प्रसंग हैं जिनसे ज्ञात होता है कि शबरी नामक भीलनी ने भगवान राम की भूख शांत करने के लिए मीठे बेरों का चुनाव खुद स्वाद चखकर किया और उन्हीं शबरी के झूँठे बेरों को बड़े आनंद लेते हुए खाकर अपनी क्षुधा को शांत किया था वनवास के दौरान | तुलसीदास जी भी रामचरित मानस के अरण्य काण्ड में लिखते हैं कि शबरी ने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कंद,मूल और फल लाकर श्री राम जी को दिए । प्रभु राम ने बार बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया ।
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि।
निषादराज ने भगवान राम की सहायता की, भगवान राम ने उसे मित्र की स्थिति प्रदान की, अपने राज्याभिषेक में उसे आमंत्रित किया आदि। इन सब प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि भील (निषाद) शेष समाज के अंग थे केवल इस अन्तर के साथ कि वे वनवासी थे।
भील में अतीत में अनेक ऐसे पुरुष हुए हैं जिन्होंने इस जनजाति का गौरव
बढ़ाया है। मान्यता है कि ऋषि वाल्मीकि स्वयं भील थे तथा उनका मूल नाम वालिया था।
महाभरत में एक आदिवासी तिरंदाज एकलव्य भील के प्रसंग से परिचित हैं। राम का अनुग्रह प्राप्त शबरी भी निषाद् ही थी। एक मिथ यह भी है कि भगवान कृष्ण का वध एक भील के बाण से ही हुआ था।
भीलों की प्राचीनता के विषय में डॉ. शोभनाथ पाठक का मत है कि उनकी प्राचीनता - की परख, भागवतपुराण, अग्निपुराण, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, शिवपुराण सत्यनारायण भगवान आदि से की जा सकती है। इनकी तो यह भी प्राकल्पना है कि ऋग्वेद (5/29/10) में प्रयुक्त अनास शब्द भी भीलों से ही सम्बद्ध है क्योंकि इस नाम की एक नदी आज भी भील बहुल झाबुआ (म. प्र.) में प्रवाहमान।
भीलों का इतिहास
प्राचीन काल से ही भीलों का इतिहास बड़ा गौरवशाली रहा है। छठी सदी में 'कथा सरित सागर' में भील शब्द का उल्लेख भील मुखिया द्वारा विंध्याचल के शासक से कड़ा मुकाबला करने के संदर्भ में मिलता है।
डॉ. देव कोठारी ने लिखा है कि 'मेवाड़ कभी घने वृक्षों से आच्छादित पहाड़ी प्रदेश था। उस समय इस भू भाग का नाम मेवाड़ नही था। 'शिबि' जनपद के बाद का नाम है। तब यहां पर भील जाति का ही बाहुल्य था। इस जाति द्वारा यह क्षेत्र शासित था। शासक और शासित दोनों भील थे। अन्य जातियों का आश्रय स्थल यह क्षेत्र बाद में बना। कालान्तर में जब उत्तरी भारत में विदेशी आक्रमण हुए, तब पंजाब से शिबि और मालव-गणों का दक्षिण की ओर पलायन हुआ, तब यह अरण्य क्षेत्र भी इसके प्रभाव से बच न सका। शनैः शनैः शिबियों ने यहां पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उस समय शिबियों की राजधानी मध्यमिका नगरी रही। मालव गणों ने मध्यप्रदेश के मालव क्षेत्र को अपना आश्रय स्थल बनाया। शिबियों के आधिपत्य के बाद यह प्रदेश शिबि जनपद के नाम से जाना गया। शिबि लोग भीलों से ज्यादा साधन सम्पन्न हो गये। अतः भीलों को घने पहाड़ी क्षेत्र से बाहर निकलना संभव नहीं था। फलस्वरूप उनकी शासन व्यवस्था चरमराने लगी। वे बाहरी प्रभावों से कटते गये और अपनी संस्कृति और विश्वास में सिमटते गये।
छठी शताब्दी में ईडर राज्य पर भीलों का शासन था। उस समय भील मण्डलीक नाम का राजा शासन कर रहा था।" इसी तरह दक्षिणी राजस्थान में कुशला भील का कुशलगढ़ पर शासन था।" बांसवाड़ा का बांसिया भील था तथा डूंगरिया भील का डूंगरपुर पर तथा कोटिया भील का कोटा पर शासन था।
कर्नल टॉड ने भी राजपूताने का इतिहास तीन जिल्दों में लिखा है। टॉड का मानना है कि भारत में भील बहुत दूर से आये। वे इस देश के सबसे पुराने निवासी है। ईसा के कई वर्षों पहिले ये उत्तर-पूर्वी देशों से यहाँ आये। इन्हें आर्य आक्रमण कर्ताओं ने जंगलों में खदेड़ दिया । जंगलों में रहने के कारण टॉड इन्हें वनपुत्र भी कहते हैं।
: ई. 1190 में भीलों का मुखिया राजा तेजसी था। उसने गुजरात के राजा के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस प्रस्ताव में राजा भीमदेव द्वितीय अपनी पुत्री का विवाह राजा तेजसी के साथ करना चाहता था। इस बात को राजा भीमदेव ने अपना अपमान समझा और राजा तेजसी पर हमला कर दिया । इस लड़ाई में तेजसी हार गया। आज भी मेवाड़ में तेजसी के वंशज रहते हैं जिन्हें परमार कहते हैं। एक और घटना ई. 1300 की है। झाबुआ का भील राजा शुकनायक था। जिसने धोलिता के राजपूत सरदार को साथ लेकर गुजरात के एक शासक के पूरे परिवार को मार दिया । अकबर से हारे राणा प्रताप की सुरक्षा भील आदिवासियों ने अरावली की पहाड़ियों में की। प्रताप के परिवार को जंगलों में बचाने का काम भीलों ने किया। ई. 1661 में राजपूतों ने भीलों के सहयोग से ही औरंगजेब की विशाल सेना को हराया। अहिल्याबाई ने भीलों पर काफी अत्याचार किया। लेकिन बहादुर भील जाति ने अहिल्या बाई को सफल नहीं होने दिया। शुरू से ही भीलों और मराठों के सम्बन्ध अच्छे नहीं रहें । पिण्डारी जो लुटेरे थे, उन्होंने भीलों के कई गाँव नष्ट कर दिये। भीलों को बहुत लुटा। पिण्डारियों के अत्याचार से तंग आकर भील अपने खेत खलिहान छोड़कर जंगलों में भाग गये।
मराठों के द्वारा भीलों पर किये गये अत्याचार का वर्णन विलियम हंटर (Willium Hunter) ने बहुत ही मार्मिक रूप से किया है। उन्होंने लिखा है कि - "18वीं शताब्दी में भीलों के साथ राजद्रोहियों का सा बर्ताव किया गया । अधिकारियों को यह आदेश था कि वे बिना किसी प्रकार की पड़ताल के भीलों के प्राण तक ले सकते थे। देश के अंशान्तिपूर्ण वातावरण में जो कोई भील मिल जाता, उसकी हंटरों से पिटाई की जाती और जरूरत समझी जाती तो फांसी पर लटका दिया जाता । भीलों को कई तरह के कष्ट दिये जाते थे। नाक चीरकर और कान फाड़कर ये लोग कड़ी धूप में तपाये जाते थे। तपे हुए लोहे के पारों पर सांकलों से बांधे जाते थे। कई भीलों को तो पहाड़ पर से लुढ़का दिया जाता था। गिरोह के गिरोह (जिनको रिहा करने का वादा किया गया था) कत्ल कर दिये गये। इन भीलों की औरतों के अंग भंग कर दिये गये। धुएँ में गले घोंट दिये गये और बच्चों को पत्थरों पर पछाड़ कर मार दिया। मराठों द्वारा भीलों पर की गई निर्दयता का इतिहास में कहीं मुकाबला नहीं है।"
यह एक बड़ी विचित्र बात है कि जिस भील जाति ने महाराणा प्रताप के परिवार को मुगलों से बचाया, प्रताप के बच्चों की जंगली जानवरों से रक्षा की। अपने बच्चों को भूखा रखकर प्रताप के बच्चों को भोजन दिया। उन्हीं प्रताप के वंशजों ने भील जाति पर अनन्य अत्याचार किये और भील जाति ने ये अत्याचार सहे। जब तक भीलों में दम था, वे अन्याय सहते रहे और जब ब्रिटिश लोग भी इन अत्याचारियों में शामिल हो गये, उन्होंने भीलों को दबाने के लिए अपनी सेना में भील कोर (Bhail Corps) और भील एजेन्सी (Bhil Agency) बनाकर भीलों को कुचल दिया। इन सैनिकों ने जानवरों की जगह भीलों का शिकार करना शुरू कर दिया। भीलों पर कई प्रकार के कर लगा दिये गये। मोरिस कारस्टेयर्स (Morris Carstairs) ने उदयपुर के कुछ जगहों पर शोध कर बताया कि राजपूतों द्वारा भीलों पर किये अत्याचारों की सम्भयता में कोई मिसाल नहीं मिलती।
यह एक कटु सत्य है कि भीलों पर इतने अत्याचार हुए, परन्तु भील जाति ने राजपूत संस्कृति अपनाने का प्रयास किया। भील बदल कर गरासिया बन गये, गरासिया बदलकर मीणा बन गये और मीणा अपने आपको राजपूत कहने लगे। "राजपूतीकरण की यह क्षत्रीयकरण भीलों के सामाजिक परिवर्तन की एक दिशा बन गई।"
वैदिक और कालान्तर का साहित्य ऐसे अनेक प्रसंगों की हमें जानकारी देता है। आदिवासी भारत-भूमि तथा भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने में आदिवासियों का योगदान भी रहा है। उनके शान्त और सरल जीवन में घातक परिवर्तनों का सिलसिला तब शुरू हुआ जबकि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेजों ने वनों के आर्थिक महत्व को समझा। इसके साथ ही अंग्रेजों ने वनों का हस्तगन किया। वहां अपनी प्रशासनिक पकड़ मजबूत की। इसके अतिरिक्त इन्होंने वनों का आर्थिक दोहन भी प्रारंभ किया। इन परिवर्तनों का आदिवासियों पर प्रतिकूल प्रभावं पड़ना सहज ही था।
भील जनजाति के प्रमुख देवी देवता
भयातुर मानव ने अनेक देवी-देवताओं की कल्पना की है और अपने संतप्त मानस को अनेक रूपों में समझाया है। पर्वतों की उन्नत चोटियों की उसने सिर झुकाकर पूजा की और अपने साथियों को बताया कि इन पर बड़े- बड़े देवता रहते हैं । गरजते हुए बादलों को देखकर वह कई बार काँपा और उन्हें आदर भाव से मनाने के लिये पशुओं की बलि दी। कभी-कभी अपने कृतज्ञता-प्रकाशन के लिये भी इस भोले मानव ने कतिपय देवताओं को अपने कल्पना-लोक में बसाया। इस प्रकार विविध देवी-देवताओं के मध्य में यह आदि इंसान न जाने कब से रह रहा है और कब तक रहेगा। श्रद्धा एवं विश्वास के सहारे उसकी देवता विषयक कोमल भावनाएँ पत्थर की लकीरों की भाँति आज भी दृढ़ हैं ।
भील जनजाति के ये देवी-देवता उनकी चिरकाल से सहायता कर रहे हैं और विपत्तिकाल में प्रार्थनाओं को सुनकर उनके विषाद भरे हृदय को उर्लासत करते हैं। इस प्रगतिशील युग में भील भी यह स्वीकार करने में नहीं हिचकता कि उसके बाघ देवता (सिंह) जंगल में उसे एकाकी देखकर कभी नहीं सताते । इनके कुछ देव और देवियाँ ये हैं:-
(1) बड़का देव (2) भिलट देव(3) बाघ देव (4) दुलहा- देव (5) नागदेव (6) मैगी माता(7) लाल आसमानी माता (8) भैंसासुर (१) बाबा देव (10) बिजासन माता (11) सावनी माता (12) कालिका (13) सारदा मैया (14) काली (15) सीतला माता (16) (17) मरी माता (18) बंदरिया (19) भगवान शंकर (20) चंडी (21) अष्टभुजा (22) फूलमती (23) लोढ़ामाई (24) अलोपन (25) , कुबेर (26) नेटिया (27) कौरीम (28) खुसरो (29) टेकमा (30) पोया (31) मरपाची (32) मराई (31) नेताम (34) माता काली (35) सोइया (36) ओइका (37) मराली (38) घुरवा (39) सरपाटिया (40) चिचमा इत्यादि ।
देवी-देवताओं के विषय में इन आदिवासियों (भीलों) का हृदय बड़ा उदार है।
जिस श्रद्धा से ये धरतीमाता के चरणों में पुष्प चढ़ाते हैं उसी विश्वास से ये भगवान रामचन्द्र अथवा श्रीकृष्णचन्द्र के पाद-पद्मों को पूजते हैं। महालक्ष्मी के मन्दिर को देखकर ये सिर नवाते हैं और ज्वार की समृद्ध फसल के लिये हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगते हैं। भक्ति-भाव से विभोर भील वन के रंग- बिरंगे पुष्पों से जब अपने देवता की पूजा करता है तब उसकी अर्द्ध निमीलित भाँखें एक महान श्रराधक की स्मृति को जगा देती है। विद्वानों का कहना है कि श्रार्यों के देवी-देवताओं में अनेक अनार्य देवताओं की भी गणना हो गई है । वस्तुतः वैदिक देवता ये हैं- इन्द्र, अग्नि, वरुण, सोम, सूर्य, उषा और परजन्य । अनार्यों के सम्पर्क से प्रभावित होने के कारण आर्यों ने माता काली, भगवान शंकर, विघ्नविनाशक गणेश, हनुमान, कुबेर आदि को अपना आराध्य माना और इनकी पूजा को विशेष महत्व दिया । पत्र-पुष्प-फलादि से पूजा करने की विधि को विचारक आार्यतर बताते हैं। उनका कथन है कि होम करना तो आर्य ही जानते थे। इनके देवताओं का आकाश में निवास होने के कारण अग्नि के माध्यम से ये उन्हें अपनी प्रिय वस्तुएँ सर्मापत करते थे । पूजा शब्द द्रविड़ भाषा का है। यह पूज धातु से बना हुआ बताया जाता है। "पू" का अर्थ है फूल तथा "जे" का मतलब है करना । पुष्प-पूजन विधि आर्यों के लिये प्रारम्भ में नूतन प्रतीत हुई थी ।
1.भीलटदेव
भीलटदेव इन आदिवासियों(भीलों) के विशेष लोकप्रिय देवता हैं। पर्वतों की ऊंची-ऊंची चोटियों पर इस आराध्य का निवास माना जाता है। आकाश को स्पर्श करने वाली ये शैलमालाएँ प्रत्येक भील के मस्तक को श्रद्धा से भुका देती हैं । सब प्रकार की विपत्तियों को नष्ट करने वाले ये भीलटदेव हैं। साँप इनके वश में हैं । इन्द्रदेव इनकी महती शक्ति से सदैव प्रभावित रहते हैं। शेर इनकी सवारी है। प्रचण्ड वायु वेग इनकी क्रोधमयी साँसें हैं ।
भीलटदेव के पिता का नाम रूपारेला गावली था और माता का नाम महिन्द्रा राज । बचपन में भीलट की बुद्धि विशेष प्रखर नहीं थी । युवक होने पर भी यह मूर्ख रहे । सब लोग इनकी मूर्खता पर हँसा करते थे । हताश होकर भीलट ने घर-त्याग किया और घूमते-घूमते ये गौड़ बंगाल में पहुँचे । यहाँ इन्होंने करिन्दा जोगिन से जादू सीखा और पूर्ण पारंगत होकर ये अपनी जन्मभूमि में ग्राये । एक दिन की बात है हजारों लोग बैठे हुए थे । भीलट महाराज ने वीणा बजाई और एक बड़ा अजगर उनके सामने आकर बैठ गया। यह सर्पराज इतना भयंकर था कि सब लोग उसे देखकर घबराने लगे । जब सर्पराज ने भीलट देव के भाई को डस लिया तो उन्होंने ही इस सर्प के जहर से अपने भाई को उबारा
यह सब देखकर हजारों लोगों ने उनकी शक्तियों पर विश्वास कर लिया । भीलट देव ने हजारों गायों को खरीदा और हजारों
ग्वालों को नौकर रखा श्रौर पर्वतों की ऊँची चोटियों पर उन्हें रहने का आदेश दिया। ग्वालों की देखरेख भीलट बाबा स्वयं करते हैं अतः प्रत्येक पहाड़ की ऊँची-चोटी पर ये रहते हैं। पुत्र-प्राप्ति के लिये भी भील महिलाएँ भीलटदेव की पूजा करती हैं ।
2.बापदेव - जिन्हें भील समुदाय के लोग बूढ़ादेव बड़ादेव या कुलदेवता के नाम से जाना जाता है जिसे भीली बोली में बाबुढा भी कहते हैं यह इनके गावों में लोकदेवता के रूप में अधिकाल से स्थापित हैं
भीलों में विवाह आयोजन पर बापदेव की पूजा की जाती है |
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3.बाघदेव या बाघबरस देव -
भील समुदाय के लोग बाघ को देवता के रूप में पूजते हैं। इनकी मन्यथा है कि ऐसा करने से जंगली बाघ इनके पशुओं बकरी गाय मुर्गी आदि को नहीं खाता और मनुष्यों पर भी हमला नहीं करता और बाघ का शिकार भी नही करने देते ।
4.नागदेव - नागदेव की पूजा भाटी देव के रूप में होती है। प्रत्येक ग्राम में इस देव की स्थापना एक पत्थर के माध्यम से करली जाती है। पूजा के समय इस पाषाण को सिन्दूर से रंग दिया जाता है। जिस वृक्ष की जड़ में इस देव को स्थापित करते हैं उसे काटना पाप समझा जाता है। उसकी शाखा में एक श्वेत झंडी लगा दी जाती है। कहते हैं कि इस सर्पदेव की कृपा से नाग-विष भी अपना प्रभाव नहीं दिखा पाता है
पश्चिमी मध्यप्रदेश एवं दक्षिणी राजस्थान में रहने वाले भील समुदाय के लोग नागदेव की पूजा नागाठे (कृष्ण जन्मष्ठमी) के दिन बड़े धूम धाम से करते हैं ।इनकी मान्यता है कि नागाठे के दिन दूध पिलाने से सांप किसी को नहीं कटता (डसना)और यदि काट ( डस) भी ले तो कोई मरता नहीं क्योंकि सांप जहर नहीं छोड़ता डसे हुए अंग पर ।
5.काली दीवि (चिड़िया ) - पश्चिमी मध्यप्रदेश के भील समुदाय के लोग मकरसंक्रांति उतरन पर्व (मकरसंक्रांति) पर काली दीवि को पड़कर तेल पिलाते हैं उसके बाद उसको छोड़ देते हैं फिर यह काली दीवि (चिड़िया) जिस पेड़ पर बैठती है वैसा ही साल होता है यानी कि दीवि यदि हरे पेड़ पर बैठती है तो इस वर्ष वर्षा खूब होगी और यदि सूखे पेड़ पर बैठती है तो इस साल वर्षा कम होने वाली है ।
6.इन्द्रदेव - भीलों का जीवन कृषि तथा वनों पर निर्भर है। कृषि तथा वनों का सम्बन्ध वर्षा से है। इसीलिये भील भी वर्षा की प्रतिक्षा आतुरता से करते हैं। इसमें जरा भी विलम्ब होने पर वे आतंकित हो जाते हैं। भरपूर वर्षा की कामना के लिये वे इन्द्र की आराधना करते हैं। इन्द्र की अनुकंपा से पर्याप्त वर्षा होने पर ही फसल और फल-फूल, कन्द-मूल उन्हें मिल जाते हैं। उनकी आराधना, प्रार्थना से यदि भरपूर वर्षा हो जाए तो इन्द्र के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना आवश्यक होता है। इसके लिये निर्धारित दिन ग्राम के किसी प्रशस्त मैदान में ग्राम के सभी स्त्री-पुरूष व बच्चे एकत्रित होते हैं। नाते-रिश्तेदारों को भी आमंत्रित किया जाता है। इन्द्र की पूजा-अर्चना की जाती है। बकरों की बली दी जाती है। बली का माँस भोज में प्रयुक्त किया जाता है। भोज का आनंद लेकर, जी भरकर मद्यपान और नृत्य करते हुए सब लोग अपने घरों को लौट जाते हैं। इस पर्व को 'इन्द्र' के अपभ्रंश के रूप में 'इन्दल' कहा जाता है।
देवी-देवताओं की पूजा में ब्राह्मणों की श्रावश्यकता नहीं पड़ती । गाँव का बड़वा ही पुजारी का काम करता है ।
7.हिरकुलियो देव - हिरकुलियो कृषि-देव है। पावस ऋतु में बड़ी धूमधाम से इस देवता की पूजा होती है । बड़वा (पुजारी) पुरोहित के रूप में पूजा की सामग्री को एकत्रित करता है और गाँव के स्त्री-पुरुष नाच-गान से देवता को प्रसन्न करते है। देवता की वेदी पर मिट्टी के बने हुए घोड़े और मटके चढ़ाये जाते हैं। बकरे अथवा मुर्गी की बलि भी दी जाती है ।
8. मौगी माता- यह भील समुदाय की कुलदेवी है जिसकी पूजा फाल्गुल माह में मोगी पर्व पर बहुत धुम- धाम की जाती है विशेषतः पश्चिम मध्यप्रदेश के भील समुदाय के कस्बों में ।
इसे धन की देवी या कहे लक्ष्मी माता के रूप में पूजा जाता है ।
देवी के प्रसन्न होने पर गरीबी नही रहती और घर में धन दौलत की भी कमी नही रहती है।
भील जनजाति के प्रमुख पर्व एवं मेले
पर्व और मेले हमारी संस्कृति के विशिष्ट आयोजन हैं। इनका वैयक्तिक व पारिवारिक की दृष्टि से तो महत्व है ही सामाजिक व सामुदायिक दृष्टि से भी वे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यही माध्य कारण है कि हमारे मूलभूत पर्वो पर काल का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वे सदियों से निरंतर अस्तित्व रंजन में बने हुए हैं। भील जनजाति में आज भी उनका महत्व बना हुआ है। इन लोकपर्वों को भील जनजाति में अभी भी उत्साह के साथ मनाने की परम्परा जारी है। यही स्थिति मेलों की भी है। मेलों और पर्वों में मौलिक अन्तर यह है कि पर्वों का प्रायः कोई आर्थिक लक्ष्य नहीं होता है जबकि मेले क्रय-विक्रय हम के मुख्य आयोजन रहते हैं। प्रत्येक पर्व के साथ कोई न कोई विश्वास, भावना, धार्मिक आस्था घर व अनुष्ठान सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक रूप से जुड़ा रहता है ।
भील जनजाति के प्रमुख पर्व एवं मेले
1.आखातीज पर्व -
आदिवासी भील समुदाय की परंपरा एवं मान्यता के अनुसार आखातीज का चांद जब दिखाई देता है । तब से ही नववर्ष की शुरुआत मानी जाती है । आदिवासी समाज की परंपरा , संस्कृति , जीवन, प्रकृति पर आधारित है । प्रकृति मे मौसम के अनुसार बदलाव के अनुसार ही आदिवासी समाज में तीज , त्यौहार व पर्व मनाए जाते हैं ..!
आखातीज के दिन को इतना शुभ माना जाता है कि इस के दिन किसी भी काम चाहे विवाह हो या अन्य बड़े काम
को करने के लिए किसी मूहर्त की जरूरत नहीं पड़ती ।
इसलिए आदिवासी भील समुदाय में सबसे ज्यादा युवा- युवतियों के शादी विवाह इसी दिन होते हैं और ज्यादातर सामूहिक विवाह का आयोजन किया जाता है।
सभी लाड़ा-लाड़ी (दूल्हा- दुल्हन ) बापदेव की पूजा करके तथा आशीर्वाद लेकर बारात का प्रस्थान हो जाता हैं ।
देवी-देवताओं की पूजा में ब्राह्मणों की श्रावश्यकता नहीं पड़ती । गाँव का बड़वा ही पुजारी का काम करता है ।
2. अषाढ़ी पूजा - उत्तरी मध्यप्रदेश और दक्षिणी राजस्थान के भील समुदाय के लोग इस दिन लाल आसमानी माता और बिजासन माता के मंदिर में बकरों को बलि देकर पूजा की जाती है इनकी मान्यता है कि ऐसा करने से अच्छी बारिश होगी और माता इनके पशुओं को बरसात के दिनों होने वाले रोग जैसे खुरपखा और चेचक आदि से रक्षा करती हैं और बारिश भी अच्छी होती है ।
3. सावनी मावस - जब खेतों में खरीफ की फसल की बुआई हो जाती है तथा खेतों में अंकुर फूटने लगते हैं तथा जंगल हरा - भरा हो जाता है तथा पशुओं के लिए जंगल में हरी भा री घास हो जाती है तथा समस्त वातावरण सुहावना हो जाता है और नव विवाहित कन्या को ससुराल भेजा जाता है ।श्रवण माह की अमावस्या को यह पर्व मनाया जाता है तथा डोंगड़े (बरसात की पहली बारिश )के कारण जो घर की दीवारों पर बनी पिथोरा भित्ति चित्र धुंधले पड़ जाते हैं उन्हें दुबारा गाय के गोबर तथा पांडू (सफेद मिट्टी) से पौतकर
घर की दीवारों को साफ एवं स्वच्छ बनाया जाता हैं फिर इन दीवारों पर प्रत्येक घर में सावनी माता के चित्र भी बनाए जाते हैं जिसमे जोड़े में मक्खन निकलती हुई,घट्टी ( हाथ की चक्की) चलाती हुई ,दूध लगाती हुई ,पानी लाती हुई आदि महिलाओं के चित्र बनाए जातें हैं और उनकी पूजा की जाती है ।
4. नांग आठे - यह पर्व कृष्ण जन्माष्टमी के दिन मनाया जाता है इस दिन भील समुदाय की सबसे पवित्र पिथोरा भित्ति के चित्र बनाएं जाते हैं जिसमे ,नाग ,सूर्य ,चंद्रमा, घोड़ा ,बिच्छू, शेर, हाथी,बाघ ,हिरण ,नीलगाय बकरी, खरगोस ,कछुआ ,गिलहरी,मछली, मोर ,चिड़िया आदि लगभग सभी जंगली पशु पक्षियों एवं पवित्र वृक्ष के चित्र बनाए जातें हैं जिसको बनाने वाले व्यक्ति को निर्जला व्रत रखना होता है और उसकी सहायता के लिए समुदाय के सभी लोग रात्रि जागरण करते हैं जिसमे मांदल (बड़ा ढोल) की थाप एवं गान पर सामूहिक नृत्य होता है जिसमे महिलाएं पुरुष दोनों शामिल होते हैं।इस प्रकार रात 12 बजे सामूहिक रूप से नागदेवता को दूध पिलाया जाता है एवं प्रकृति की पूजा की जाती है।
इसी मान्यता है कि इस दिन यदि नाग देवता (काला कोबरा सांप ) दूध पी लेता है तो बहुत शुभ माना जाता है और प्रकृति में उसकी उपलब्धता की जानकारी भी मिलती है। भील जनजाति में बच्चों के कुशल मंगल के लिये, उत्तम फसल पैदावार के लिये, सुख सम्पन्नता के लिये मनाया जाने वाला एक पर्व है पिठौरा । श्रावण मास में इसे मनाया जाता है। इसे मनाने के लिये पिठौरा चित्रांकन किया जाता है। चूँकि इस चित्रांकन के साथ मंगलकामना, सुख-समृद्धि, धार्मिक आस्था जुड़ी है इसलिये -इसका प्रगटन पिठौरा चित्र में होना आवश्यक है। टुकड़ों में बनाने पर इसके साथ जुड़ी शुचिता -प्रतिकूल प्रभावित हो सकती है। इसलिये कलाकार इसे एक ही बैठक में बनाता है। इस आवश्यकता के कारण पिठौरा पूजा में कलाकार की एक विशिष्ट स्थिति बन जाती है। यह स्थिति कलाकार को अधिक सजग और जागरूक बना देती है। वह तन्मयता से, पूरी गंभीरता से चित्रांकन करता है। इसीलिये उसमें सभी विस्तार स्थान पा लेते हैं। शुचिता भंग न हो, तन्मयता न टूटे, गंभीरता क्षीण न हो इसलिये जब तक चित्रांकन पूर्ण न हो जाए वह न तो अपने स्थान से हटता है और न ही कुछ खाता है। चित्रांकन से पूर्व अवश्य ही वह खा लेता है। इसी आवश्यकता ४ को तथा समर्पण को दृष्टिगत रख कर कहा जाता है कि पिठौरा चित्रांकन के समय कलाकार व्रत रखता है। कलाकार का मनोबल बना रहे, थकावट न आए, निद्रा न आए इसलिये समुदाय भी - अपना योगदान देता है। रात भर भजन चलते रहते हैं। लड़के, लड़कियाँ नाचते हैं। गाते हैं। पिठौरा चित्रांकन अपने आप में बहुत विस्तृत होता है। भील जनजीवन और परिवेश को चित्रकार इसमें पूरे विस्तार के साथ स्थान देने का प्रयत्न करता है। पशु, जीव-जन्तु, प्रकृति और दैनंदिन - उपयोग की अनेक वस्तुएँ इसमें चित्रित की जाती हैं। जिन पशुओं का चित्रांकन किया जाता है, उनमें घोड़े का विशेष महत्व रहता है। भील घोड़े को शक्ति का, ऊर्जा का प्रतीक मानते हैं। इसलिये पिठौरा में मुख्यतः घोड़ों का अंकन किया जाता है। आदिवासी चित्रांकन में वन तो होना ही चाहिये। जीवन निर्वाह के लिये शिकार की परम्परा रही है। इसलिये जंगल, शिकारी और - उसके द्वारा मारा गया पशु पिठौरा चित्रांकन में सम्मिलित रहते हैं। इनके अतिरिक्त चित्रकार समग्र सृष्टि को अपने चित्रांकन में स्थान देने का प्रयास करता है। कुआँ, बावड़ी, पनिहारिन, साँप, बिच्छु, सूर्य, चन्द्र, सिंह, ताड़, ताड़ी, बड़ का पेड़, सेमल का पेड़, मधुमक्खी का छत्ता, खजूर का पेड़, हल-बख्खर आदि सब कुछ रहता है पिठौरा चिन्त्र में। यह सब भीलों के जीवन से संबंधित है। यह दर्शान के लिये इस चित्रांकन की घेराबंदी कर दी जाती है ।
5. नोवाई त्यौहार -
आज के दिन (घिंचरी माता, कंसरी माता, बापदेव, गांवदेव, दुध्या देव, राणी काजल )सबकी पूजा की जाती है साथ ही किसान को फसल पकने की आतुरता से प्रतीक्षा रहती है। फसले पकने पर भील कृषक की प्रसन्नता का पारा वार नहीं रहता ।इसलिए भी उसके किसी पूर्व से कम महत्व रखता है। फसल को काटना और अनाज को घर लाना भी उसके लिए किसी पर्व से कम महत्व नहीं रखता है। फिर भी भील फसल को खेत से काटने के पूर्व एक विशेष आयोजन करते हैं। इसे यद्यपि पारिवारिक स्तर पर मनाया जाता है पर इसका अचलन पूरे भील समाज में है। फसल पकने पर इस आयोजन के लिये परिवार के सभी सदस्य खेत पर एकत्रित होते हैं। वहीं पर वे नई फसल, नए अनाज की पूजा-अर्चना करते हैं।
खेत में ही नए अनाज की खिचड़ी पकाई जाती है। देवों को खिचड़ी का प्रसाद चढ़ाया जाता है। से परिवार के सदस्य भोजन करते हैं। इस प्रकार नई फसल की पूजा-अर्चना करने के पश्चात उत्साह और उमंग के साथ फसल को काटने, साफ करने और घर पर लाने का कार्य किया जाता है। इस पर्व के पार्श्व में आस्था यह है कि अच्छी फसल देवी-देवताओं के अब के बिना प्राप्त नहीं की जा सकती है। अच्छी फसल के लिये जहाँ पर्याप्त वर्षा, धूप तथा मौसम की आवश्यकता होती है वहीं वन्य पशुओं से भी इनकी रक्षा आवश्यक रहती पक्षियों, टिड्डी और कीड़ों से भी फसल नष्ट होने की संभावना रहती है। इन संकटों से फसलों की रक्षा मानव सामर्थ्य से बाहर है। यह रक्षा देवी-देवताओं की दया से ही संभव है। इस यह कैसे संभव है कि फसल पकने पर देवी-देवताओं के प्रति कृतज्ञता प्रगट किये बिना वे फसल को घर ले आएँ ? फसल पर पहला अधिकार तो देवी-देवताओं का ही है। इसी आस्था कार्यरूप देने हेतु नोवाई पर्व मनाया जाता है। इस दिन सामान्य कामकाज से छुट्टी रखी जाती है। दिन-भर खान-पान की मौज-मस्ती के बाद शाम को वे खुले स्थान पर एकत्रित हो जाते पुरूष भी और स्त्रियाँ भी छक कर पीते हैं और फिर माँदल की ताल पर ऐसे नाचते हैं कि भौंर का तारा कब डूब गया पता ही नहीं चलता ।
6. पिथौरा पर्व -
भील जनजाति में बच्चों के कुशल मंगल के लिये, उत्तम फसल पैदावार के लिये, सुख सम्पन्नता के लिये मनाया जाने वाला एक पर्व है पिठौरा । श्रावण मास में इसे मनाया जाता है। इसे मनाने के लिये पिठौरा चित्रांकन किया जाता है। चूँकि इस चित्रांकन के साथ मंगलकामना, सुख-समृद्धि, धार्मिक आस्था जुड़ी है इसलिये -इसका प्रगटन पिठौरा चित्र में होना आवश्यक है। टुकड़ों में बनाने पर इसके साथ जुड़ी शुचिता -प्रतिकूल प्रभावित हो सकती है। इसलिये कलाकार इसे एक ही बैठक में बनाता है। इस आवश्यकता के कारण पिठौरा पूजा में कलाकार की एक विशिष्ट स्थिति बन जाती है। यह स्थिति कलाकार को अधिक सजग और जागरूक बना देती है। वह तन्मयता से, पूरी गंभीरता से चित्रांकन करता है। इसीलिये उसमें सभी विस्तार स्थान पा लेते हैं। शुचिता भंग न हो, तन्मयता न टूटे, गंभीरता क्षीण न हो इसलिये जब तक चित्रांकन पूर्ण न हो जाए वह न तो अपने स्थान से हटता है और न ही कुछ खाता है। चित्रांकन से पूर्व अवश्य ही वह खा लेता है। इसी आवश्यकता ४ को तथा समर्पण को दृष्टिगत रख कर कहा जाता है कि पिठौरा चित्रांकन के समय कलाकार व्रत रखता है। कलाकार का मनोबल बना रहे, थकावट न आए, निद्रा न आए इसलिये समुदाय भी - अपना योगदान देता है। रात भर भजन चलते रहते हैं। लड़के, लड़कियाँ नाचते हैं। गाते हैं। पिठौरा चित्रांकन अपने आप में बहुत विस्तृत होता है। भील जनजीवन और परिवेश को चित्रकार इसमें पूरे विस्तार के साथ स्थान देने का प्रयत्न करता है। पशु, जीव-जन्तु, प्रकृति और दैनंदिन - उपयोग की अनेक वस्तुएँ इसमें चित्रित की जाती हैं। जिन पशुओं का चित्रांकन किया जाता है, उनमें घोड़े का विशेष महत्व रहता है। भील घोड़े को शक्ति का, ऊर्जा का प्रतीक मानते हैं। इसलिये पिठौरा में मुख्यतः घोड़ों का अंकन किया जाता है। आदिवासी चित्रांकन में वन तो होना ही चाहिये। जीवन निर्वाह के लिये शिकार की परम्परा रही है। इसलिये जंगल, शिकारी और - उसके द्वारा मारा गया पशु पिठौरा चित्रांकन में सम्मिलित रहते हैं। इनके अतिरिक्त चित्रकार समग्र सृष्टि को अपने चित्रांकन में स्थान देने का प्रयास करता है। कुआँ, बावड़ी, पनिहारिन, साँप, बिच्छु, सूर्य, चन्द्र, सिंह, ताड़, ताड़ी, बड़ का पेड़, सेमल का पेड़, मधुमक्खी का छत्ता, खजूर का पेड़, हल-बख्खर आदि सब कुछ रहता है पिठौरा चिन्त्र में। यह सब भीलों के जीवन से संबंधित है। यह दर्शान के लिये इस चित्रांकन की घेराबंदी कर दी जाती है।
7. उतरण पर्व -
प्रत्येक वर्ष में रबी की फसल की बुवाई के लगभग एक माह बाद पुर्णिमा के बाद यह पर्व उतरण (मकरसंक्रांति) मनाया जाता है, जिसमें आदिम भील समुदाय के बच्चे दीवी (इंडियन रोबिन) को पकड़कर अपने-अपने गांव में प्रत्येक घर पर घी पिलाया एवं तिल खिलाते है, और वह घूमते समय भीली बोली मे
"दीवी-दीवी घी पो पो" गाते है।
कई पक्षियों को देखकर शकुन देखने की परम्परा सदियों से भारतीय संस्कृति में चली आ रही है।
इसी प्रकार वागढ़ एवं इसके समीपवर्ती मेवाड़, कांठल, मालवा एवं गुजरात के ग्राम्यांचलों में मकर संक्रान्ति के दिन जनजाति समुदाय में दिवी चिड़िया (इण्डियन रोबिन) को पकड़कर घी, तिल एवं खिचड़ा खिलाकर छोड़ने एवं उसके बैठने के स्थान के आधार पर उसके शगुन देखकर आगामी वर्ष, भविष्य एवं मौसम का पूर्वानुमान जानने की सदियों से चली आ रही परम्परा आज भी कायम है। दिवी चिड़िया आदिवासी समाज को काफी प्रिय है और प्रकृति पूजक आदिवासी इस चिड़िया को प्रेम एवं संरक्षण देते आए हैं। वागड ,मेवाड़ एवं गुजरात के भील जनजाति बहुल इस सरहदी क्षेत्र में मकर सक्रान्ति के दिन प्रातःकाल सूर्योदय के साथ ही गांवों एवं पालों में आदिवासी समाज के बालक बालिकाओं एवं युवाओं की टोलियां दिवी होड़ हा दिवी ...होड़ हा.. की आवाज के साथ दिवी चिड़िया को पकड़ने के लिए निकल पड़ते हैं तथा इस चिड़िया को जो सामान्यतया लम्बी व बहुत ऊंची उड़ान नहीं भरती है को दौड़ा-दौड़ा कर पकड़ते है इसके बाद नहलाकर व घी से चमकाकर घर घर लेकर घूमते हैं । इसे हर घर पर घी पिलाया एवं तिल खिलाया जाता है।
इस दौरान बाल टोली को उपहार स्वरूप अनाज व नकद इनाम भी मिलता है। गांव में फले या मोहल्ले में हर घर पर घुमने के बाद गांव के गमेती, मुखिया, परिवार के बुजुर्ग या किसी खास मोतबिर के हाथों छोड़ा जाता है तब यह चिडिया उड़कर जिस स्थान पर जाकर बैठती है उसके आधार पर आगामी वर्ष का भविष्यफल लिया जाता है। इसमें दिवी चिड़िया के किसी हरे-भरे पेड़ पर बैठने पर बारिश व खेती अच्छी होने एवं लोक स्वास्थ्य अच्छा रहने, सूखे पेड़, चट्टान, दरारों पर बैठने पर वर्ष के खराब, सुखा एवं महामारी के प्रकोप तथा मकान आदि पर बैठने पर वर्ष के सामान्य होने का अनुमान लगाया जाता है।
दिवी चिड़िया- इण्डियन रोबिन (सेक्सी कोलोइडस फ्युलीकाटा) रोबिन पक्षियों के सबसे बड़े कूल 'म्युसिकोपिडी' का सदस्य है इसे हिन्दी में कलचुरी, दामा, कालचिड़ी, गुजराती में देवली, काली दिवा तथा वागड़ी में दिवी, देवी या इसकी आदि नामों से पहचाना जाता है। देवी चिड़िया से शगुन देखने की सदियों से चली आ रहीं यह परम्परा मानव और पशु- पक्षियों के प्रेम और संबंधों को तो प्रदर्शित करती ही है साथ ही इनके संरक्षण का भी बोध कराती है।
भील जाति के अपने अलग मेले लगते हैं। इन मेलों में सभी भील स्त्री, पुरुष और बच्चे उत्साह से भाग लेते हैं। मेले प्रायः इनके अराध्य देव या प्रकृति के प्रतीक स्वरूप होते है-
1. बेणेश्वर मेला -
राजस्थान के बेणेश्वर में फरवरी माह में लगने वाले इस मेले को बणेश्वर मेला कहते है। दक्षिणी राजस्थान की सोम, माही और जाखम नदियों के संगम स्थल पर शिवजी का एक मन्दिर है। वही पर मेला लगता है। कहते हैं कि महारावल आसकरण ने संवत् 1510 में यहां महादेव जी का मन्दिर बनाया था। आज भी मन्दिर में खण्डित शिवलिंग है। महादेव जी भील आदिवासियों के पूज्य देवता है। यहाँ पर यह अपने मृत परिवार वालों की अस्थियां विसर्जन और श्राद्ध कार्य भी करते हैं। पहले भील लोग इस मेले पर रातभर भजन कीर्तन करते थे और मन्दिर में महादेव जी की पूजा करते थे। आजकल इस मेले में अश्लील केसेटे बजती है और भील जाति के लोग सट्टा और जुआं खेलते है। ऐसे माहौल में शहरी लोग आदिवासियों के साथ ठगी भी खूब करते है। अश्लील सामग्री और शराब ऊँचे दामों पर खूब बेची जाती है।
2. घोटियां आम्बा -
भीलों का दूसरा प्रसिद्ध मेला घोटियां आम्बा है। बांसवाड़ा क्षेत्र के भील अधिकतर इस मेले में यहाँ आते है। यहाँ पर भी शिवलिंग और पहाड़ी पर शिवजी का मन्दिर स्थित है। इसमें भील जाति के लोग दूर दराज से पैदल चलकर शिवजी के दर्शन करने आते है। यह मेला 28 से 30 मार्च तक तीन दिन तक चलता है। स्त्री पुरुष जत्था बनाकर भजन कीर्तन करते हुए पैदल इस मन्दिर तक आते हैं जो भील आदिवासियों की शिवजी के प्रति आस्था को दर्शाता है। इस समय अत्यधिक संख्या में आदिवासी लोग यहाँ आते है, इसलिये सरकार भी परिवहन के अतिरिक्त साधन उपलब्ध कराती है।
अदिवासियों के देवी-देवता एवम् धर्म प्रकृति के साथ जुड़े भील जनजाति के मानवीय अनुभवों और तदनुरूप प्रकृति के साथ उनकी अन्तक्रियाओं के फलस्वरूप उपजित आचरण है। प्रकृति में होने वाले उतार-चढ़ाव, प्रकृति में उपलब्ध भौतिक वस्तुओं, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों के साथ जीवन-निर्वाह करते हुए इन सबके साथ मनुष्य का विशिष्ट सम्बन्ध विकसित हो जाता है। वह अनुभव करता है कि यह सब उसके जीवन के साथ (न्यूनाधिक रूप में) जुडे हुए हैं। उसके जीवन को आकार प्रदान करने में, उसकी दिनचर्या में, उसकी सफलताओं, असफलताओं, प्रसन्नता, दुख, कष्ट आदि में इनका योगदान अवश्य ही रहता है। इसीलिये उसका भीरू मन कहता है कि कष्टों से बचने के लिये, सुखमय जीवन का यह निर्वाह करने के लिये प्रकृति तथा उसमें तादात्म्य बना रहना चाहिये। इसी उद्देश्य से वह अलौकिक शक्ति की कल्पना करता है। वह मानता है कि यह अलौकिक शक्ति ही सर्जक भी है और संहारक भी। प्रकृति में कब क्या होगा, कौन लाभ पहुँचाएगा और कौन हानि, सुख के क्षण कब आएँगे और कष्ट क्यों कर होगा यह सब उस अलौकिक शक्ति के हाथ में ही है। बिगड़े को बनाना और बने को बिगाड़ने की शक्ति उसमें ही है। इसलिये वह इस अलौकिक शक्ति के प्रति आदर, श्रृद्धा और समर्पण के साथ-साथ भय की भावना भी रखता है। इस अलौकिक शक्ति का मूल वह जन्म और मरण की घटनाओं में खोजता है।
भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति डाक्टर राधाकृष्णन ने ठीक ही कहा है कि हिन्दुत्व ने कुछ गिने हुए सिद्धान्तों में कट्टरता से विश्वास करने के बदले अत्यन्त व्यापक उदारता का विकास किया । आदिवासी जनता के पास जो अनेक देवी- देवता थे तथा बाद को जो देवता दूसरी जातियों के साथ आर्यवृत्त में बाहर से आये, उन सबको हिन्दुत्व ने स्वीकार कर लिया। काल-क्रम में उसने यह भी सिद्ध कर दिखाया है कि वे देवी-देवता हिन्दुत्व के ही हैं ।
हिन्दुओं के 33 करोड़ देवताओं में कई करोड़ तो आदिवासियों के हैं सम्पत्ति का स्वामी कुबेर आर्य-देव न होकर अनार्य देवता ही है। जिसे हिन्दुओं ने प्रगाढ़ भक्ति भावना से अपनाया है । यज्ञादि में इस देवता की भी पूजन होती है। डाक्टर मोतीचन्द्र के अनुसार भी हिन्दू धर्म के बहुत से देवी देवता, जिन्हें हम ग्रार्य मान बैठे हैं वास्तव में वे अनार्य हैं, और उनकी पूजा वैदिक आर्यों के साथ अनार्यों के सम्पर्क बढ़ने पर हिन्दू धर्म में प्रचलित हो गई है। ऐसे ही अनार्य देवताओं में से धनाध्यक्ष कुवेर भी हैं । अथर्ववेद में कुबेर को राक्षस कहा गया है । और उसे दस्युओं और बदमाशों का राजा माना ग़या है । इसका यह अर्थ होता है कि वह देश की आदिम जातियों का एक देवता था । इसका दल बच्चों को सताने वाला था। कुबेर शब्द का अर्थ है कु + बेर = बुरा शरीर । श्रनुश्रुतियों के अनुसार वह अष्ट दन्त, त्रिपाद और हरित नेत्रवाला देवता माना गया है। कुबेर की सभा में शिव और उमा, किन्नर, विद्याधर, किंपुरुष, विभीषण, राक्षसों और पिशाचों का स्थान माना गया है । शोध करने पर यह भी सिद्ध होगा कि हिन्दुओं की पूजा-परिधि में स्थापित बहुत से देवी देवता भीलों के ही आराध्य हैं, जिन्हें अपनाकर हिन्दुओं ने इन वनवासियों के प्रति स्नेह-भाव प्रदर्शित किया है।
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