हिन्दी भक्तिकाव्य की निर्गुण धारा के अन्तर्गत कबीर के बाद जिन संत कवियों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है उनमें रैदास या रविदास अन्यतम है। संतों की परंपरा में उनको रामानन्द के बारह शिष्यों में एक माना जाता है, लेकिन उन्होंने अपने एक भजन में भक्ति का महत्व बताते हुए कहा है कि नामदेव, कबीर, त्रिलोचन, सधना, सेन भगवान की कृपा से तर गए (नामदेव कबीर त्रिलोचन सधना सेन तरै, कह रैदास सुनहु रे संतहु हरि जिउतें सबहि तरै) इसलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का अनुमान है कि वे रामानन्द के शिष्य हुए भी होंगे तो कबीर के बाद। उन्होंने अपने किसी भजन में इस बात का संकेत नहीं किया है कि रामानन्द उनके गुरु थे। कबीर से कभी उनकी भेंट हुई हो तो हुई हो। उन्होंने अपने भजनों में अपने बारे में जो संकेत दिए है उनसे निश्चयपूर्वक इतना ही कहा जा सकता है कि वे जाति व पेशे से चमार थे और काशी में निवास करते थे- जाके कुटुंब सब ढोर बोवंत फिराह, अजहुं बनारसी आसपासा, आचार सहित विप्र करहिं डंडउति तिन तर्न रविदास दासानुदासा। (जिनके कुटुंबी जन आज भी वाराणसी के आसपास मरे हुए पशुओं को ढोते फिरते हैं उन्हीं की संतान यह दासानुदास रविदास है जिसे आचारी ब्राह्मण भी भक्तिपूर्वक दंडवत् प्रमाण करते हैं)। कई जगह उन्होंने अपनी जाति के बारे में 'ओछी', 'कमीनी', 'खलास चमार' और 'चमइया' शब्दों का प्रयोग किया है। अनंतदास ने रैदास परिचई में उन्हें पूर्वजन्म का ब्राह्मण बताया है और नाभादास के 'भक्तमाल' की टीका में प्रियादास ने इस सम्बंध में अनेक कपोल कल्पित कथाएँ भी गढ़ ली है, लेकिन डॉ० धर्मवीर और अन्य विद्वानों ने लक्ष्य किया है कि यह सब परवर्ती मनगढंत कहानियाँ ऐसी मानसिकता की उपज है जिसके अनुसार संत-महात्मा का पूज्य होने के लिए ब्राह्मण जाति में जन्म लेना आवश्यक है। इस प्रकार की कहानियाँ कबीर के बारे में भी बाद में प्रचलित हो गईं। उनके पिता का नाम रग्पू और माता का नाम घुरबिनिया बताया जाता है। (संत-सुधा सारः वियोगी हरि) लेकिन रविदासी या धर्म के सन्त इनके पिता का नाम संतोष दास और माता का नाम कलसी देवी कहते हैं।
मीराबाई के कुछ पदों में रैदास का नामोल्लेख गुरु के रूप में हुआ है- 'गुरु मिलया रैदास जी दीन्हीं ग्यान की गुटकी और 'रैदास संत मिले मोहि सतगुरु दीन्हा सुरत सइदान' इसीलिए कुछ इस अनुमान को बल मिलता है कि मीराबाई रैदास की शिष्या थीं। यह अनुमान तर्कसंगत इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि मीरा ने धन्ना माता का नाम बड़े आदर से लिया है और धन्ना माता ने संत रैदास का उल्लेख एक आदर्श भक्त के रूप में किया है। इस प्रकार कहना चाहिए कि रैदास के बाद धन्ना भगत हुए और धन्ना भगत के बाद मीराबाई हुईं। चन्द्रबली पांडेय और परशुराम चतुर्वेदी मानते हैं कि मीराबाई के गुरु बीठलदास रहे होंगे जिनको नाभादास ने 'भक्तमाल' में 'रैदासी' कहा है। (उत्तरी भारत की संत परंपरा, परशुराम चतुर्वेदी, संस्करण 2010, पृ० 174-175) यह भी कहा जाता है कि चित्तौड़ की झाली रानी ने काशी आकर रविदास का शिष्यत्व ग्रहण किया था और उन्हें चित्तौड़ में निमंत्रित भी किया था। रविदास की चित्तोड़ यात्रा के बारे में कथाएँ प्रचलित हैं।
कबीर की ही तरह गृहस्थ थे और आजीविका के लिए जूते बनाने का घरेलू काम करते थे। उनके निःस्पृह और संतोषी जीवन के बार में एक कथा लोक में अत्यंत प्रसिद्ध है। किसी साधु ने उन्हें। पारस पत्थर दिया ताकि वे लोहे को छू-छूकर मनचाहा सोना बना लें और उनकी गरीबी दूर हो जाय। सालभर बाद वे साधु लौट आए तो देखा कि पारस पत्थर रैदास जी की झोंपडी में जहाँ खोंस कर गए थे वहीं ज्यों का त्यों पड़ा है। वे गंगा में नहाकर बाहर से पवित्र होने के बजाय चित्त की आंतरिक शुद्धि को महत्वपूर्ण मानते थे इसीलिए उनको लेकर यह कहावत चल पड़ी- मन चंगा तो कठौती में गंगा।
कुछ विद्वान उन्हें रामानन्द (संवत् दि. 1356 से सं.दि. 1467 तक) का शिष्य, कबीर का गुरुभाई और मीराबाई का गुरु मानकर उनका जन्म सं0 1433 (1377 ई०) की माघ सुदी पूर्णिमा दिन रविवार को और मृत्यु सं० 1584 (1522 ई0) कृष्ण चतुर्दशी को चित्तौड़ में मानते हैं। परशुराम चतुर्वेदी ने उनका जीवन काल विक्रम की 15वीं से 16वीं शताब्दी तक गंत काव्यधारा, किताव महल, सं० 2005, पृ० 112)। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी मानते हैं कि रैदास ईसवी सन्15 वीं शताब्दी में विद्यमान थे। अनंतदास वैष्णव ने 'रैदास परचई' में रैदास की मृत्यु सं० 1584 में चित्तौड़ में हुई बताया है, इन्हें से ॐ ही धर्मपाल मैनी ने भी स्वीकार किया है। वहाँ रैदास की 'छतरी' उनके स्मारक के रूप में विद्यमान है। रविदासीया धर्म के संत इनकी मृत्यु इसी तिथि को, किन्तु बनारस में मानते हैं। जहाँ तक उनके जन्मस्थान का प्रश्न है, रविदास संप्रदाय के कुछ लोग उनका जन्मस्थान पश्चिमी उत्तर प्रदेश बताते हैं तो कुछ लोग गुजरात और राजस्थान। जो लोग उनका जन्मस्थान काशी मानते हैं उनमें भी डॉ० शुकदेव सिंह सहित एक वर्ग 'रैदास रामायण' में उल्लिखित काशी बिग मांडुर अस्थाना के आधार पर मंडुआडीह को उनका जन्मस्थान बताता है लेकिन ज्यादातर लोग काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के सीर गेट के पास सीरगोवर्धन गाँव को ही उनकी जन्मभूमि मानते हैं जहाँ 1965 में संत सरवन दास द्वारा चिर्जित करने के बाद 1971 में रविदास मंदिर का निर्माण हुआ। वहाँ प्रत्येक वर्ष की माघी पूर्णिमा को देश के कोने-कोने से (तो रविदासी भक्तों का समागम होता ही है, अमरीका, कनाडा आदि में बसे भक्तों की मंडली भी आती है। उनकी एक प्रतिमा पंचगंगा घाट पर स्थित रामानंद पीठ में भी स्थापित हुई है और उनका एक मात्र मंदिर प्रहलाद घाट पर बाबू जगजीवन राम ने बनवाया जिसकी दीवाल के पत्थरों पर डॉ० शुकदेव सिंह द्वारा निर्धारित संपादित रैदास की संपूर्ण वानी उत्कीर्ण और अंकित है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है कि "रैदास का अपना अलग प्रभाव पछांह की ओर जान पड़ता है।" उन्होंने बताया है कि फर्रुखाबाद और थोड़ा बहुत मिर्जापुर में प्रचलित साधो संप्रदाय रैदास की ही परंपरा में है क्योंकि इस संप्रदाय के संस्थापक वीरभान जिन उदय दास के शिष्य थे, वे रैदास के शिष्य बताये जाते हैं। आज दलित जनसम्प्रदाय का एक बड़ा हिस्सा अपनी अस्मिता और आत्मगौरव के बोध से प्रेरित होकर रविदास के नाम और संदेश के इर्द-गिर्द संगठित हो रहा है, विशेष रूप से पंजाब में रविदास को केन्द्र करके लोककल्याण और लोक जागरण का एक उभार दिखाई दे रहा है। यह उस महान संत के व्यक्तित्व और वाणी का सामाजिक महत्व है।
रचनाएँ
संत रविदास की रचनाओं का सबसे प्राचीन संग्रह 'आदि ग्रंथ' में संकलित है जिसमें चालीस पदों और एक श्लोक (दोहा) है। बैलबेडिनर प्रेस ने जो रैदास जी की बानी प्रकाशित की थीं उसमें संकलित 86 भजनों में कुछ 'आदिग्रंथ' में संकलित पदों से मेल खाते हैं और कुछ भजन उनसे भिन्न भी है। जालंधर के डेरा सच्चा खंड बल्लों से प्रकाशित मूल संग्रह में 'आदिग्रंथ' के 40 पद और 1 श्लोक, रविदास वाणी के अंतर्गत 127 पद, साखी के अंतर्गत 40 दोहे और रविदास दर्शन' के अंतर्गत 194 दोहे संकलित हैं। संत सुरिन्दर दास बाबा जी के सटीक संस्करण में उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिकत आरती के पद, पैतीस अक्षरी, वाणी हफ़्तावार, वाणी पन्दरा तिथि, बारह मास उपदेश, सांदवाणी, शाही उपदेश, मंगलाचार और श्लोक (230 दोहे) संकलित हैं। इनमें केवल 'आदिग्रंथ' में संकलित रचनाओं को ही असंदिग्ध रूप से प्रामाणिक कहा जा सकता है। शेष रचनाएँ मुख-परंपरा से ही संकलित की गई हैं, उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है। रैदास के नाम से ऐसी ही एक छोटी-सी रचना 'प्रहलाद-चरित' भी मिलती है, जिसमें लगभग 5-5 पंक्तियों के 18 गुच्छ गुंफित हैं। डॉ० एन० सिंह ने "संत शिरोमणि रैदास वाणी और विचार में’’ 277 साखियों और 177 पदों का संग्रह किया है। डॉ० संगमलाल पांडेय और डॉ० शुकदेव सिंह ने उनकी रचनाओं को सटीक संस्करण निकाले हैं।
संत भाषै रैदास
रैदास की वाणी का प्रभाव उनके जीवनकाल में ही काशी में और काशी के बाहर दिखाई देने लगा था। अनेक संतों ने उनका नाम बड़े आदर से लिया है। नाभादास ने उनकी वाणी का बखान करते हुए लिखा है कि उनकी निर्मल वाणी संदेह की ग्रंथियों को खोलने में समर्थ है, उनके वचन श्रुति और शास्त्र तथा सदाचार के अनुकूल हैं, उन्होंने नीर-क्षीर विवेक से पूर्ण परमहंसों का भाव अपने हृदय में धारण किया था, और भगवान की कृपा से उसी मर्त्य शरीर में परमगति (मोक्ष) को प्राप्त किया था, समाज के श्रेष्ठ वर्ग ने वर्णाश्रम का अभिमान छोड़कर उनकी पदधूलि का वैदन किया था। (भक्तमाल, छप्पय 59) इस छप्पय में वेद- शास्त्र और सदाचार के साथ उनकी वाणी का अविरोध भाव जो संक्षिप्त किया गया है उसका अभिप्राय यही है कि उन्होंने कबीर की तरह खंडन-मंडन में विशेष रूचि नहीं ली और साथ ही पंडितों और मौलवियों को फटकार भी नहीं लगाई। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने बहुत सही साक्ष्य दिया कि "रैदास के भजनों में अत्यंत शांत और निरीह भक्त हृदय का परिचय मिलता है। भक्ति तो हृदय की वस्तु है, उसे बोल बोल कर खोलना व्यर्थ है। बकवादी अक्सर बोलते बोलते झगड़ने लगते हैं, सब अपने ज्ञान का अहंकार लेकर बोलते हैं। मूल वस्तु खो जाती है, स्वयं तो कुछ समझते नहीं और दूसरों को बोल-बोलकर समझाते हैं। जब तक दूसरों को नासमझ समझ कर बोल-बोलकर समझना जारी रहता है तब तक अपनी समझ नहीं बनती- बोलि बोलि औरहि समझाले, तब लगि समझ न भाई। जब तक मन में झूठा अहंकार है तब तक भक्ति नहीं होती। हम बड़ कवि कुलीन हम पंडित हम जोगी संन्यासी, ज्ञानी गुनी सूर हम दाता, याहू कहे मति नासी- हर तरह का अहंकार बुद्धि-विवेक को नाश करने वाला है। भक्ति के आते ही बढ़ाई चली जाती है- आइ भगति तब गई बड़ाई। जब तक यह झूठी बढ़ाई बरकरार। है तब तक मूंढ़ मुढ़ाके और तीर्थ-व्रत करने से कोई लाभ? कोई बड़ा भाग्यशाली ही झूठा अभिमान और मैं- मेरा अपना-पराक्षा का भाव त्याग कर चींटी जैसा चुन चुनकर खाने वाला अर्थात् अकिंचन बन जाता है, उसी को भक्ति मितली है। आपा खोए भगति होत है- आपा खोने से भक्ति होती है। भक्ति में भक्त और भगवान एक हो जाते हैं, 'मैं चत्ता जाता है, तब तु-ही-तू' रह जाता है।
रैदास की भक्ति में ज्ञान और कर्म की भूमिका। है। कर्म के द्वारा सुख और दुःख के अनुभव से गुजरते हुए ज्ञान होता है। ज्ञान हो जाने के बाद कर्म अपने आप उसी प्रकार छूट जाता है जिस प्रकार फल लगाने पर फूल अपने आप लुप्त हो जाते हैं-
फल कारन फूले बनराई, उपजै फल तब पुहुप बिलाई।
ज्ञानहि कारन करम कराई, उपजै ज्ञान त करम नसाई ।।
ज्ञान से समता आती है। ज्ञानी रैदास स्वर्ग और नरक दोनों को समान समझते हैं -
दोजख निस्त दोउ सम कर जानौ। कृष्ण और करीम, वेद और कतेब, कुरान और पुराण सबमें उसी एक को देखते हैं। सहजावस्था में सत्य की उपलब्धि होती है। नाम विशेष और स्थान विशेष को लेकर जो पूजा होती है यह कच्चे भाव की पूजा है, रैदास पक्के भाव में स्थित होकर उसकी पूजा करते हैं जो स्थान और नाम के परे है-
कृस्न करीम राम हरि राघव जब लग एक न पेखा,
वेद कतेब कुरान पुरानन सहज एक नहिं देखा।
जोइ जोइ पूजिये सोई सोई कांची, सहज भाव सत होई,
कह रैदास ताहि को पूजूं जाके ठांव नांव नहि होई।
रैदास ने अपनी भक्ति साधना को 'अनिन भगति' (अनन्य भक्ति), भाव भगति या प्रेम भगति कहा है। इस भक्ति में प्रेम ही सब कुछ है, उसके बिना ज्ञान का कवन, निर्जन वन या गुफा में एकांतवास, इंद्रियसंयम, आहार संयम, योगसाधना, माला जप सब भ्रम है। बाह्याचार से अंतर की ज्योति का साक्षात्कार नहीं होता। साधु वेष ले लेने से ईश्वर के भेद का पता नहीं चलता- भेष लियो पै भेद न जान्यो। तिलक लगाने से जी की तपन नहीं जाती- तिलक दियो पै तपनि न जाई। जिस विराट पुरुष के चरण पाताल में हैं, और मस्तक आकाश में, उसका शालिग्राम की डिबिया में समाना कैसे संभव है चरन पताल सीस असमाना, सो ठाकुर कैसे संपुट समाना। रैदास की भाव भगति में प्रेम ही आरम्भ है और प्रेम ही अंत। सहारा है तो केवल नाम का। नाम ही आसन है, नाम ही चंदन है, नाम ही दिया है, नाम ही तेज है, नाम ही बाती है, भक्त ने नाम की ही ज्योति जगाई और सारा हृदय मंदिर उजाला ही उजाला हो गया- नाम तेरे की जोति जगाई, भयो उजियारा भवन सगरा रे। वे हृदय में अपने राम का सुमिरन करते हैं, आंखों से उनके रूप का अवलोकन करते हैं, कानों से उनकी कथा सुनते हैं, चित्त में उनके चरण कमल धारण करते हैं और मन को भौरा बनाकर रखने से राम का रसायन चाहते हैं-
हृदय सुमिरन करूं नैन अवलोकनो
झवनों हरि कथा पूरि राखूं
मन मधुकर करौ चित्त चरना धरौ
राम रसायन रसना चाहूँ।।
रैदास की भाव भगति का आधार वह गंभीर प्रीति है जो विरह की व्याकुलता के साथ और प्रगाढ़ होती है। समस्या यह है कि उनका आराध्य तो घट-घट में एन रहा प्रीति तो दोनों ओर से होती है-
तू मोहि देखे हो तोहि न देखूं प्रीति परस्पर होई
तू मोहि देखे तोहि न देखूं यह मति सब बुधि खोई।।
वे व्याकुल होकर प्रार्थना करने लगते हैं- नरहरि प्रगटसि ना हो प्रगटसि ना हो। विरह की यह व्याकुलता है। तो उस अभिमानी चातक से मेल खाती है जो सारी धरती जल से भरी रहने के बावजूद स्वाती, नक्षत्र की एक बूँद के लिए तड़पता रहता है या फिर उस कामी पुरुष की तरह जिसके हृदय में कामिनी को देखकर मदन व्यथा उत्पन्न हो जाती है-
जैसे कामी देखि कामिनी हृदय सूल उपजाई,
कोटि बैद विधि उचरै बाकी बिथा न जाई।
कभी राम से प्रार्थना करते हैं- मैं तुम्हारा हूँ, मुझे बिसर न जाना, "तू न विसरि राम मैं जन तोरा" कभी अपनी अनन्य और मैंथ प्रीति का संकल्प दृढ़ स्वरों में सुनाते हैं- मैंने अपना मन हमेशा के लिए हरि से जोड़ लिया है और हरि से जोड़कर सबसे तोड़ लिया है। यक्र प्रीति का संबंध हे राम! तुम भले तोड़ दो, मैं नहीं तोडूंगा, तुम से तोड़कर अब भला किससे जोडूंगा- जो तुम तोरो राम, मैं नहि तोरी, तुम से तोरि कवन से जोरी। रैदास की भगति अधिकतर दास्य भक्ति की भाषा में व्यक्त हुई है- क्योंकि इसमें भक्त हर तरह से निश्चिन्त रहता है- सुत सेवक सदा असोच, ठाकुर पितहिं सब सोच (पुत्र और सेवक सदा निश्चिन्त रहते हैं क्योंकि पिता और स्वामी उनकी सब चिन्ता अपने ऊपर ले लेते हैं)।
कभी-कभी वे कबीर की तरह माधुर्य भक्ति की भाषा में भी बोलते दिखाई देते हैं- मैं वेदनि कासनि आखूं, हरि बिन जिवन रहे कस राखूं... इसी भजन में "विरह तर्प तन अधिक जरावै, नींद न आवै भोज न भार्व" के बाद अपनी पीड़ा इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- मैं रे दुहागनि अघ कर जानी, गया सो जोवन साध न मानी। दुहागिन वह अभागिन है जिसने अपने प्रिय को अनन्य भाव से प्रेम नहीं किया- दुःखी दुहागिनि होइ पिय हीना, नेई निरति करि सेव न कीना। इसका उलटा है सुहागिन जो रैदास की अनन्य भक्ति का आदर्श है-
सुख की सार सुहागिन जानै
तन मन देय अंतर नहिं आनै।
आन सुनाय और नहिं भाशै
राम रसायन रसना चाखै ।।
रैदास की भक्ति इतनी अन्तर्मुखी है कि उसमें पत्र, पुष्प, जल सभी बाहा उपकरण अशुद्ध प्रतीत होते हैं। एक भजन में वे कहते हैं- हे राम, मैं तुम्हारी पूजा में क्या अर्पित करूं? दूध तो बछड़े ने पहले ही जूठा कर दिया है, फूल को भरि और जल को मछली ने बिगाड़ दिया है, चंदन के वृक्ष में विषधर भुजंग लिपटे रहते हैं। इसीलिए मैं मन ही में तुम्हारी पूजा करता हूँ, मन ही में धूप दीप करता हूँ, मन ही में तुम्हारे सहज स्वरूप की सेवा करता हूँ, इसके अलावा और कोई तुम्हारी पूजा-अर्चनर्क में नहीं जानता। एक अवस्था आती है जब आराध्य और आराधक एक दूसरे में हिल-मिल जाते हैं। "अब कैसे छुटै नाम रट लागी वाले प्रसिद्ध भजन में रैदास इसी अवस्था में गाते हैं -
प्रभु जी तुम बंदन हम पानी, जाकी अंग अंग बास समानी।
जी तुम देन बन हम मोरा, जैसे चित्वत चंद चकोरा।
प्रभु जी तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी तुम मोती हम धागा, जैसे सेनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।।
यद्यपि इस भजन के अंत में रैदास सेवक-सेव्य भाव की भक्ति को ऊपरी भक्ति कहते हैं लेकिन ऊपर की पंक्तियों के सभी रूपक रैदास की भाव भगति की मार्मिकता, अंतरंगता, एकांत निष्ठा, समर्पण, परस्पर निर्मसी, निकटता, तल्लीनता और आत्मविभोर भावुकता को इतने मधुर, शांत और सुकुमार ढंग से व्यंजित करते हैं कि लगता है, यहाँ स्वामी और सेवक के बीच का संबंध सख्य भाव को अतिक्रांत करके मधुर भाव की सीमा का स्पर्श करने लगा है। रैदास के ऐसे भजन अपनी मार्मिकता और सरलता में लोकगीतों से होड़ करने लगते हैं। ऐ हैं। ऐसे ही भजनों के लिए आचार्य हजारी प्रदास द्विवेदी ने लिखा था, "इन पदों में एक प्रकार की ऐसी आत्मनिवदेन और परमात्मा बिरह की पीड़ा है जो केवल तत्त्व ज्ञान की चर्चा से प्राप्त नहीं हो सकती। वह ऐसे हृदय की अनुभूति है जो ज्ञान की चर्चा से जटिल नहीं बना है बल्कि प्रेमानुभूति से अत्यंत सहज हो गया है।"
जिसको दुनिया राम समझती है, रैदास के राम उससे भित्र हैं- राम कहत सब जगत भुलाना सो यह राम न होई। यद्यपि वह सर्वव्यापक है, वह सब में है, सब उनमें हैं (सब में हरि है हरि में सब है) फिर भी वह अनिर्वचनीय है। जिसकी उपमा देकर समझाएँ, उसकी कोई साखी नहीं है (साखी नहीं और कोई दूसरा)। उसके वर्ण नहीं, रूप नहीं, वह कर्म-अकर्म, शुभ-अशुभ सबसे परे हैं, योग-भोग-क्रिया से परे एक ऐसी स्थिति जहाँ न चंद्र है न सूर्य, न रात है न दिन, न धरती है न आकाश। जो निरंजन, निराकार, निर्लेप निर्विकार है वह यह आकाश, पृथ्वी, तेज, वायु और जल- इस पंचभूतों की सीमा में कैसे आ सकता है? एक ऐसा अनुभव जो कहने में नहीं आता (ऐसे कछु अनुभौ कहत न ऊठ)। वह सब के भीतर वास्तविक आनन्द और प्रकाश का अधिष्ठान आत्मा है। आदि, मध्य और अंत में वही है। समस्त चराचर जगत् में वही भरा है- थावर जंगम कीट पतंगा पूरि रह्यो हरिराई। सर्वेश्वर, सर्वांगी, सर्वगति, कर्ता-हर्ता सब वही है।
वह धर्म और अधर्म, मुक्ति और बन्धन, जरा और मरण सबके परे हैं। ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान- सब वहीं है। फिर भी उसे कहकर बताना संभव नहीं है। जैसा भी बताया ताय वैसा वह नहीं है- जस हरि कहिए तस हरि नाह, है अस जस कछु तैसा। जैसा है वैसा वही है- जस हूं तस हूँ तस तुही कस उपमा जैसे सागर में आकाश की छाया। है, वायु में गंध है, दर्पण में प्रतिबिम्ब है उसी प्रकार सब उसमें हैं, फिर भी वह सागर, वायु और दर्पण की तरह निर्लिप्त है- दरपन गगन अनिल अमेय जस, गंध जलधि प्रतिबिम्ब देखि तस। ईश्वर को जाना नहीं जा सकता किन्तु प्रेम किया जा सकता है इसीलिए रैदास का असली जोर भक्ति पर है। वियोगी हरि ने जब कहा कि "महात्मा रैदास की बड़े ऊँचे घाट की वाणी है" तो इसीलिए कि "सत्य की शुद्ध निर्मल अभिव्यक्ति ही, अपरोक्षानुभूति ही उनका परम ध्येय था।
रैदास जिस वर्ग में जन्मे और पले-बढ़े थे उसमें शास्त्रों के अध्ययन और अभ्यास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। फिर भी उन्होंने सत्संग किया होगा और अद्वैत वेदांत की गूढ़ तत्त्व चर्चा सुनी होगी। उन्होंने ब्रह्म-जीव की बातें समझाने के लिए जगह-जगह अद्वैत वेदांत के उपमानों (कनक-कुंडल, सूत-पट, रज्जु-सर्प, जल-तरंग, पाषाण-प्रतिमा) का प्रयोग किया है। कहीं- कहीं उन्होंने नाथपंथी और निरंजनी संप्रदाय की साधना के पारिभाषिक शब्दों (सुरति' विरंति, इंगला-पिंगला, सुषुम्ना, सहज, शून्य आदि) का भी प्रयोग किया है। लेकिन कुल मिलाकर उनका भक्त हृदय इस प्रकार की सूखी चर्चा में नहीं रमता। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लक्ष्य किया कि "रैदास की वाणियाँ इन उलझनदार बातों से मुक्त हैं..... उनमें किसी प्रकार की वक्रता या अटपटापन नहीं है और न ज्ञान के दिखावे का आडम्बर ही है।"
उनकी भाषा भी उनके सरल और निश्छल भक्तिभाव के अनुरूप सीधी-सादी, अनलंकृत और सहज है- बिल्कुल चन्दन और पानी की तरह, दीपक और बाती की तरह। उससे फूटने बाली गंध और ज्योति से निर्मलता और स्फूर्ति का, शीतलता और शांति का अनुभव होता है। उनकी भाषा में तत्सम और तद्भव गलबहियां डाले चलते हैं और समझ की राह में कहीं कोई रोड़ा
नही अड़ता या गड़ता। उदाहरण के लिए उनकी ये साखियाँ लीजिए -
हरि सा हीरा छाड़ि के करै आन की आस।
ते नर जमपुर जाहिंगे सत भार्ष रैदास ।।
रैदास कहै जाके हुदै रहे रैन दिन राम।
सो भगता भगवंत सम क्रोध न व्यापै काम।।
जा देखै घिन उपजै नरक कुंड में वास।
प्रेम भगति सों ऊधरै प्रगटत जन रैदास।।
यहाँ हरि, नर, क्रोध, काम, प्रेम, राम, नरक कुंड, वास, जन जैसे संस्कृत तत्लाम जिस प्रकार सहज सुबोध है उसी प्रकार आन (= अन्य), आस (= आशा), जमपुर (= यमपुर), हुदै ( हदय), भगता (= भक्त), घिन (= घृणा), भगति (= पक्ति), छाड़ि कै (= छोड़कर), व्याएँ, ऊपजै जैसे तद्भव शब्द भी हैं। गुरुग्रंथ साहिब में संकलित उनकी रचनाओं में कुछ पंजाबीमेनप जरूर है और कुछ प्रचलित भजनों में भोजपुरी टोन भी है। फिर भी उनकी बानी सब जगह समझी जाती है। सामान्यतः उनकी काव्य भाषा की संरचना ब्रप्रभाषा की है और शब्दावली प्रचलित और परिचित। जिन भजनों में उस समय के शासन-प्रशासन की भाषा का प्रभाव है उनमें फारसी, अरबी के शब्दों की बहुलता है और टोन भी कुछ कुछ खड़ी बोली का दिखाई देता है।
रैदास की बानी में उसकी आध्यात्मिक साधना के ही अनुरूप सत्य, शील, संतोष, संयम, निःस्पृहता आदि नैतिक संदेश और सामाजिक समानता के आदर्श अनुस्यूत हैं। पुरानी पीढ़ी के अध्येताओं और आलोचकों ने प्रायः अपना ध्यान उनकी सामाजिक साधना के रहस्यों को खोलने पर केन्द्रित किया था। इधर उनके सामाजिक आदर्शों की चर्चा ही प्रधान हो उठी है। अस्मितामूलक विमर्शों का चलन बढ़ने से इसमें और भी तेजी आई है। रैदास ने अपनी जाति का उल्लेख बार-बार किया है, जैसे- 'कह रैदास खलास चमारा' या 'जाति भी ओछी जनम भी ओछा, ओछा करम हमारा' या 'करम कठिन मोरी जाति कुजाती' या 'रेम अपराधी है नीच घर जनमे' या 'मोर कुचिल जाति कुचिल में बास' या 'चरन सरन रैदास चमइया' या 'ऐसी मेरी जाति बिख्याति चमारं । अपनी सामाजिक स्थिति का उल्लेख करते हुए रैदास यह कहना नहीं भूलते कि "नीचे से प्रभु ऊंच कियो है।" समाज उन्हें नीच मानता हो लेकिन भक्ति के नाते से भगवान ने उन्हें अपना कर ऊँचा आसन प्रदान किया है। 'हम अपूज्य ते पूज्य भए है' यह पूज्यता भक्ति ने प्रदान की है। परम पद पर जाति के सामान्य बल से नहीं, भक्ति के विशेष बल से पहुँचा जाता है- जाति ते कोई पद नहिं पहुँचा, रामभगति बिसेख रे। मानुखा औतारे दूरलभ मनुष्य का जन्म दुर्लभ है तो इसीलिए कि वह भक्ति के द्वारा जात-पांत, ऊँच- नीच की सीमाओं से ऊपर उठ सकता है। 人
उन्होंने जिस बेगमपुरा शहर का सपना गढ़ा है, उसकी पारंपरिक व्याख्या उस परम पद की ओर संकेत करती है जो भाषा, काल, कर्म, गुण के अतीत है। डॉ० सदानन्द शाही ने उसकी सामाजिक व्याख्या करके बताया है कि रैदास का 'बेगमपुरा हर प्रकार के सामाजिक भेदभाव, अत्याचार और अपमान से मुक्त समानता के आदर्शों पर स्थापित एक नए मानवीय समाज का कवि-कल्पित विकल्प है-
बेगमपुर शहर का नाउ
दुख अंदोह नहीं तिहि ठाउ।
डॉ० चमनलाल ने लिखा है, "इस पद में गुरु रविदास द्वारा एक ऐसे वर्ग-शोषण मुक्त समाज की कल्पना की गई है जिसे उस समय के संदर्भ में यूटोपिया कहा जा सकता है लेकिन इस यूटोपिया से गुरु रविदास की दूर दृष्टि का पता चलता है।" रैदास का सामाजिक संदेश महान है क्योंकि उसकी पृष्ठ भूमि में एक गहरी आध्यात्मिक दृष्टि और साधना है। उनकी धर्मसाधना केवल व्यक्तिगत मुक्ति तक सीमित नहीं है अपितु उसका विस्तार सामाजिक मुक्ति की और लक्षित है।
अवकाश प्राप्त अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
सार्थक और चिंतनपरक लेख के लिए आपका विशेष आभार |
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