- डॉ.जितेन्द्र थदानी एवं डॉ. प्रिया आडवानी
बीज शब्द : भक्ति, नवधाभक्ति, श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्यभाव, सख्यभाव, आत्मनिवेदन|
संसार में जन्म लेने वाले प्रत्येक जीव का महत्त्पूर्ण व एकमात्र लक्ष्य भगवत्-प्राप्ति है। भगवत्-प्राप्ति का सबसे सरल साधन भक्ति है, तथा प्रत्येक मनुष्य का इसमें समान अधिकार है। महर्षि वेदव्यास ने स्कन्द पुराण में अपने शास्त्रों के विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि भगवान् की भक्ति ही कल्याणकारिणी है।
आलोड्य सर्व शास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः।
इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणो हरिः।1
वह भक्ति क्या है?, कैसे की जाती है?, किसकी करनी चाहिए?, तथा भक्ति किसका नाम है? इस विषय में अनेकानेक विद्वानों ने अपने मत प्रस्तुत किये है। नारद कहते हैं-
सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा।।2
अर्थात् उस परमेश्वर में अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है। शाण्डिल्याचार्य ने भी कहा-
सा परानुरक्तिरीश्वरे।।3
अर्थात्- भगवान् के प्रति परम अनुराग ही भक्ति है। व्याकरणिक दृष्टि से भी देखा जाए तो भक्ति शब्द का अर्थ सेवा होता है, क्योंकि भक्ति शब्द भज् सेवायां धातु से निष्पन्न है। अतः यह कहना गलत नहीं होगा कि स्वतः उत्पन्न होने वाला यह प्रेम सेवा का ही फल है। जिस प्रकार किसी वृक्ष की पूर्णता उस पर फल आने से होती है, उसी प्रकार भक्ति की पूर्णता भगवान् में परम प्रेम व अनुराग से होती है। भक्ति का अर्थ है- समस्त इन्द्रियों के स्वामी उस ईश्वर की सेवा में अपनी समस्त इन्द्रियों को लगाना। इन्द्रियों द्वारा इन्द्रियों के स्वामी की सेवा करना ही भक्ति है। भक्ति भी उसी के प्रति सम्भव है, जिसके प्रति प्रेम हो, अनुराग हो। व्यक्ति चाहे निष्काम हो या अनेकों कामनाओं से युक्त हो यदि वह मोक्ष की इच्छा रखता है तो उसकी प्राप्ति के लिए एकमात्र साधन भक्ति मार्ग ही है। भक्ति किस प्रकार से एवं कैसे की जाए इस विषय में श्रीमद्भागवद्पुराण में नवधा भक्ति का वर्णन किया गया है। श्रीमद्भागवत् में ही प्रहलाद ने भी अपने पिता दैत्यराज हिरण्यकशिपु के पुछने पर सर्वश्रेष्ठ शिक्षा के रूप में इसी नवधा भक्ति का वर्णन किया है।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।4
इसी नवधा भक्ति को तुलसीदास जी ने अपने ग्रन्थ रामचरितमानस के अरण्य काण्ड में प्रस्तुत किया है। भगवान् श्रीराम के मुखारविन्द से माता शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश इस प्रकार से किया है-
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।।
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।
दोहा-गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।
मंत्र जाप मम दृढ बिस्वासा। पंचम भजन सेा बेद प्रकासा।।
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा।।
सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा।।
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।
नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना।।5
इस प्रकार नवधा भक्ति के विषय में महर्षि वेदव्यास एवं महाकवि तुलसीदास दोनों ने ही अपनी-अपनी दृष्टि से प्रकाश डाला है। नवधा भक्ति वस्तुतः साधनस्वरूपा भक्ति है, मीरा मूलतः प्रणय के पंथ की अनुगामिनी थी, जहां विधि विधानों का विशेष महत्त्व नहीं है। फिर भी, मीरा ने सामान्य विधि विधानों का सदैव पालन किया। एक पद में उन्होने कहा है-
माई म्हा गोविन्द गुण गास्यां।
चरणाम्रतरो णोम शकारे नित उठ दरसण जास्यां।
हरि मन्दिर मा निरत करावां घूंघरयां घमकास्यां।
श्याम नाम रा झाझ चाड़ास्यां सौ सागर तर जास्यां।।6
भक्ति में प्रेम की परिपूर्णता और दोषों के निवारण लिए नवधा भक्ति के जिन साधनों को अपनाने पर बल दिया गया, उन साधनों को मीरा ने भी अभिव्यक्त किया है। आत्मनिवेदन तो उनके अधिकांश पदों में है ही। प्रायः सख्य को छोडकर उनमें नवधा के लगभग सभी प्रकारों के दर्शन हो जाते है फिर भी मीरा की भक्ति इन नवविधाओं के विधान तक सीमित नहीं थी।
श्रवणम् - भगवत् प्राप्ति में सहायक साधन नवधा भक्ति में प्रथम भक्ति है श्रवण। भगवान् का पवित्र नाम सुनना ही भक्ति का शुभारम्भ है। यह श्रवण ही भक्ति को प्राप्त करने का प्रथम सोपान है, और यह श्रवण भक्ति महापुरूषों की संगति के बिना प्राप्त होना संभव नहीं है। कबीर दास जी ने भी कहा है - भक्ति रूपी अनमोल वस्तु भी तब ही मिलती है जब यथार्थ सद्गुरु मिले और उनका उपदेश प्राप्त हो। ‘‘भक्ति पदारथ तब मिलै जब गुरु हो सहाय।।‘‘ श्रवण भक्ति से ही भगवत् प्राप्ति के अनेकों प्रमाण उपनिषद् पुराणादि ग्रंथों में मिलते हैं।
श्रवणं सर्वधर्मेभ्यो वरं मन्ये तपोधनाः।
वैकुण्ठस्थो यतः कृष्णः श्रवणाद् यस्य लभ्यते।।7
अर्थात्- हे तपस्वियों! में भगवान् के गुणानुवाद श्रवण को सब धर्मो से श्रेष्ठ मानता हूँ क्योकि भगवान् के गुणानुवाद सुनने से ही वैकुण्ठ स्थित भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार हमें भगवान् के नाम-रूप-लीला-गुण-धाम-भक्त-भक्ति तत्त्व की कथाओं, गाथाओं को सुनने में अपना सम्पूर्ण जीवन लगाना चाहिये और मनुष्य जीवन को सफल बनाना चाहिये।
राम नाम रस पीजै मनुआं, राम नाम रस पीजै।
तज कुसंग सतसंग बैठ नित, हरि चरचा सुण लिजै।।
काम क्रोध मद लोभ मोह कूं, वहा चित से दीजै।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, ताहि के रंग भीजै।।8
अर्थात्-हे मनुष्य! राम-नाम का रसपान करो। बुरे लोगों की संगति छोड कर नित अच्छी संगति में बैठो। नित भगवान्के गुण की चर्चा सुनो। काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह को अपने चित से निकाल कर बाहर कर दो। मन शुद्ध कर लो और मीरां के प्रभु जो गिरधर नागर है, उनके रंग में डूब जाओ।
बांसुरी सुनूगीं मैं तो बांसुरी सुनूगीं। बंसी वाले को जाने न दूंगी।
वह बंसी वाला मुझे एक कहेगा, एक की लाख सुनाऊँगी।। 9
श्रवण में भक्त अपने भगवान् के नाम, गुण, लीला आदि का श्रवण करता है। किन्तु मीरा तो भक्ति में इतनी परम व्याकुल है के वो भगवान् के बंसी का श्रवण मात्र चाहती है।
कीर्तनम्- भगवान् के नाम रूप गुण यश धाम भगवत्-भक्त भगवत्-संत, तथा लीला का श्रद्धा व प्रेम पूर्वक गुणगान करते रहने से हृदय में जो प्रसन्नता उत्पन्न होती है उसी को कीर्तन कहते हैं। यह भक्ति केवल भगवान् व सद्गुरु की कृपा से प्राप्त होती है। अतः इस विषय में उनकी कृपा ही एकमात्र करण है। भगवत् भक्त की भक्ति करने से तथा उनके द्वारा निर्दिष्ट शास्त्रों को पढनें व सुनने से भगवान् में श्रद्धा उत्पन्न होती है। और भगवान् में यही श्रद्धा कीर्तन भक्ति का आधार बनती है। नारदभक्तिसूत्र में भी कहा गया है -
लोकेऽपि भगवद्गुणश्रवणकीर्तनात्।।10
लोक समाज में भी भगवद् गुण श्रवण और कीर्तन से भक्ति (साधन) सम्पन्न होता है।
कोई कहियौ रे प्रभू आवन की, आवन की मन भावन की।
आप न आवै लिख नहि भेजै, बाँण पड़ी ललचावन की।।
कहा करूँ कछु नहिं बस मेरो, पाँख नहीं उड़ जावन की।।
मीराँ कहै प्रभु कब रै मिलौगे, चेरी भई हूँ तेरे दावन की।।11
गोविन्द का गुण गास्यां ।
राणोजी रूसैला तो गांम राखैला, हरि रुठ्यां कुमलास्यां।। 12
मीरा के हर पद में कीर्तन भक्ति का स्वरूप देखने को प्राप्त होता है। हर जगह मीरा भगवान् के रूप और सौन्दर्य का गुणानुवाद और कीर्तन करती है। यत्र तत्र सर्वत्र प्रायः मीरा मोहन की रूप माधुरी का कीर्तन करती है।
स्मरणम्- श्रवण तथा कीर्तन विधियों को नियमित रूप में सम्पन्न करने तथा अन्तःकरण को शुद्ध कर लेने के बाद स्मरण के विषय में कहा गया है। भगवद् नाम स्मरण की शक्ति तभी मिलती है जब मनुष्य निरंतर भगवान् के उस साकार स्वरूप के चरण कमलों का चिन्तन करता है। वह स्मरण किसी भी प्रकार का हो सकता है, चाहे वह मानसिक हो या वाचिक हो। इसका मूल उद्देश्य ईश्वर में अनन्य प्रेम उत्पन्न करना तथा ईश्वर की प्राप्ति है। महर्षि वेदव्यास ने कहा है-
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्ष स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।13
अर्थात्- अपवित्र हो पवित्र हो किसी भी अवस्था में क्यो न हो जो कोई पुरुष भगवान् का स्मरण करता है। वह बाहर और अन्दर से शुद्ध हो जाता है। गीता में भी कहा गया है-
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।14
इस श्लोक में जगद्गुरु श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी भली भांति उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे रहते हैं , उन भक्तों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
अरे मैं तो ठाडी जपूं राम माला रे।
मैं जपती नांव मेरे सायब का, आंण मिलो नँदलाला रे।
हाथ सुमरणी कांख कूबडी, ओढ रही मृगछाला रे।।15
ज्यों चित ल्याय हरि जप करै, ज्यो मन लाय हरि जप करै।
अमर होय मरे न कबहूँ, काल जासै डरै।
भक्ति को परताप ऐसो, कुटिल गनिका तरै।
दास मीराँ लाल गिरधर, शरण हरि की परै।16
भज मन चरण कमल अविनासी|
इस देही का गरब न करना, माटी में मिल जासी।
यो संसार चहर की बाजी, सांझ पड्या उठ जासी।।17
भज मन श्री राधे गोपाल।
मेर मुकुट पीताबंर सोहै, गल बैजन्ती माल।।18
मीरा ने जीवन की क्षणभंगुरता को जानकर श्याम सुन्दर के स्मरण का न केवल अपने पद्यों में उपदेश दिया है अपितु स्वयं भी प्रतिक्षण श्याम सुंदर का स्मरण करती है।
पादसेवनम्- भगवान् के चरणकमलों के चिन्तन और अनन्यभाव से आसक्ति होने को ही पादसेवनम् कहते हैं। भगवान् के साकार मंगलमय स्वरूप की मूर्ति या चित्र का श्रद्धा भाव के साथ दर्शन करना चिन्तन करना तथा नित्य पूजन और सेवन करते हुए भगवान् के प्रेम में तल्लीन हो जाना ही पादसेवनम् हो जाता है। तुलसीदास जी ने अपने ग्रन्थ रामचरितमानस में कहा है-
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।19
मीरा ने पादसेवन को इस रूप में प्रकट किया है-
नंद नंदन सूं मन मान्यौ मेरो, कहा करैगो कोय री।
अब तो चरण कमल रुचि बाढी, जो भावै सोई होय री।।20
भजमन चरण कमल अविनासी।
जेताइ दीसे धरनि गगन बिच, तेताइ सब उठि जासी।
कहां भयो तीरथ व्रत कीन्हे, कहा लिये करवत कासी।।21
मन मेरे परसि हरि के चरन।
सुभग सीतल कमल कोमल, त्रिबिधि ज्वाला-हरन।।
अधम-तारन तरन-तारन, सब के पोषन भरन।।
सो चरन प्रहलाद परसे, दुःख दारिद्र हरन।।
सोई चरन ध्रुव अटल कीने, इन्द्र पदवी धरन।
जिन चरन वलि बाँध पठये विप्र रूपज धरन।
जिन चरन ब्रह्माण्ड बेध्यो, नख सुर सुरीय झरन।।
जिन चरन बन गऊ चारी, गोपलीला करन।
सोई चरन काली के मस्तक, कूबरी आभरन।
दासि मीराँ लाल गिरधर राखो अपनी सरन।।22
नवधा भक्ति में से पादसेवन भक्ति मीरा को सर्वाधिक प्रिय है। बार बार मीरा चरणों की दासी कह कर के स्वयं को संबोधित करती हैं एवं स्वयं ही श्याम सुंदर के चरणारविंद के मकरद का मधुकर बनकर रसपान करना चाहती है। अपने जीवन की सार्थकता श्यामसुंदर के चरणों की दासी बनकर जीवन व्यतीत करने में मानती है।
अर्चनम्- श्रीमद्भागवत मे कहा गया है -
स्वर्गापवर्गयोः पुसां रसायां भुवि सम्पदाम्।
सर्वासामपि सिद्धिनां मूलं तच्चरणार्चनम्।।23
अर्चन- भगवान् के अर्च विग्रह की पूजा। इसका एक अन्य अर्थ यह भी निकलता है कि प्रत्येक मनुष्य जीव जन्तुओं को भगवान् का स्वरूप समझकर तथा यथा आवश्यक , यथाशक्ति, श्रद्धा एवं सत्कारपूर्वक सभी को भगवत् तुल्य मानकर सेवा करना भी भगवान् की भक्ति का एक प्रकार है।
कृष्ण मेरे नजर के आगे ठाडे रहो रे|
मैं जो बुरी श्याम और भली है, भली कि बुरी मोरे दिल रहोरे।।
प्रीत को पैन्डो बहुत कठिन है, चार कही दस और कहो रै।।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, प्रीत करो तो मेरा बोल सहो रै। 24
म्हारा जनम मरण का साथी, थाँने नहिं बिसरूं दिनराती।
तुम देख्यां बिन कल न पड़त है, जानत मेरी छाती।
ऊँची चढ़ चढ़ पंथ निहारूँ, रोय रोय अँखियाँ राती।।
यो संसार सकल जन झूँठो, झूँठा कुल रा नाती।
दोऊ कर जोड़याँ अरज करत हूँ, सुन लीजो मेरी बाती।।
पल पल तेरा पंथ निहारूँ, निरख निरख सुख पाती।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, हरिचरणाँ चित राती।।25
ऊभी राधा प्यारी अरज करत है सुणज्यो कृष्ण मुरारी |
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर चरण कमल बलिहारी।26
मीरां ने बार बार श्याम सुंदर के चरणों में निवेदन कर करके, अर्चन कर करके अर्चन भक्ति को पुष्ट किया है। अनके पदों में अरज शब्द इनके अर्चन का ही बोध करवाता है।
वन्दनम्- वन्दनम् का अर्थ है, भगवान् की वन्दना या स्तुति करना। भगवान् के विग्रह को या भगवत् अंश रूप में व्याप्त भगवत् भक्तों, आचार्य, गुरुजन, माता-पिता को परम आदर सत्कार के साथ श्रद्धापूर्वक नमन करना या उनकी सेवा करना ही वन्दना है।
जो तुम तोड़ो पिया मै नहिं तोडू, तेरी प्रीत तोड़ि प्रभु कौन सँग जोडू।
तुम भये तरुवर मैं भई पँखियाँ। तुम भये सरवर मैं तेरी मछियाँ।।27
मन्दरिये पधारो श्याम! मन भगती मै।
सोने की थाली में भोजन परोसो, धीरे धीरे जीमो श्याम! मन भगती में।
सोने कीझारी में गंगाजल पानी, धीरे धीरे पीवो श्याम! मन भगती मैं।
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, शरण मैं लीज्यो श्याम! मन भगती में।।28
मीरा ने प्रायः प्रत्येक पद में श्याम सुन्दर की वन्दना की है। श्याम सुंदर से प्रीत की रीत निभाने की प्रार्थना की है। पुनः पुनः गिरधर के चरण में शरण की प्राप्ति हेतु वन्दना की है।
दास्यम्- भगवत्-तत्त्व के नाम रूप, यश , सगुण स्वरूप को जानकर श्रद्धा पूर्वक भगवान् की सेवा करना तथा उनकी द्वारा निर्दिष्ट आज्ञाओं-आदेशों का शब्दशः अनुसरण करना ही दास्य भक्ति है। गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं कि दास्य भाव के बिना भवसागर को पार नहीं किया जा सकता है।
सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि।
भजहु रामपद पंकज अस सिद्धान्त विचारि।।29
शास्त्रों में अनेक दास्य भाव के भगवत् भक्तों के आदर्श उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं जैसे हनुमान्, लक्ष्मण, अंगदादि।
श्री जी महाराज, छोड मत जाजो,
मैं अबला बल नांही गुसांई, तुमही मेरे सिरताज।
मैं गुनहीन गुन नांही गुसाई, तुम समरथ महाराज।।
रावलि होइकै किनरै जाऊं, तुम हो हिवड़ा रो साज।।
मीराँ के प्रभु और न कोई, राखै अब सब को लाज।।30
गिरधर म्हारा साँचा पति छै, मै गिरधर री दासी है माय।
राणोजी म्हासू रूस रह्यो छै, कूड़ा बचन निकासै हे माय।।31
म्हारा हरिजी, चाकरी री चाह म्हारे मन राखोला सरण हजूरी।
बैल बँधावो भावें घोड़ा बँधावो चाहै करावो मजूरी।
खाबा पीबा की म्हांकी चिन्ता मत कीज्यौ, कंगनी दीज्यो भाँवैं कुरी।
ओढनकूं कारी कामरिया दीज्यो और चटाई खजूरी।।
जो थे देषी सो म्हे लेषी योई मत म्हारे पूरी।।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर निज चरणन की धूरी।।32
मीरां को प्रभु सांची दासी बनाउ। झूठे धंधाँ रे मेरा फंदा छुड़ाउ।
लूटेहि लेत विवेक का डेरा, बुद्धिबल यदपि करूं बहुतेरा।।
हाय राम नहिं कछु बस मेरा, मरत हूँ विवस प्रभु धाउ
सवेरा धरम उपदेश नित प्रति सुनती हूँ।
मन कुचाल से भी डरती हूँ सदा साधु सेवा करती हुँ
सुमरन ध्यान में चित करती हूँ।।
भक्तिमार्ग दासी को दिखाउ मीराँ के प्रभु साँची दासी बनाउ।।33
वै न मिले जिनकी हम दासी।
पात पात वृन्दावन ढूंढ्यौ ढूंढि फिरी सगरी मैं कासी।34
भक्ति मार्ग के दास्य भक्ति में हनुमान के बाद अगर कोई उदाहरण देखने को मिलता है, तो वह मीरा की दास्य भक्ति है। वस्तुतः मीरा की भक्ति कान्ता भाव की है जिसमें मीरा गिरधर को अपना पति मानती है और स्वयं को उनकी दासी मानकर पद-पद पर अपने आप को अत्यन्त दीन-हीन बताती है। मीरा अपने जीवन का प्रत्येक क्षण श्याम सुन्दर की दासी बनकर व्यतीत करने में ही जीवन का साफल्य मानती है निश्चय ही मीरा के पद्यों में विद्यमान दास्य भक्ति अत्यन्त ही स्तुत्य एवं श्लाघ्य है।
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सख्यम्- सखा शब्द प्रगाढ़ प्रेम का सूचक है। हमें ईश्वर को अपना घनिष्ठ सखा समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना चाहिये। परमात्मा के लिए अपने आवश्यक से आवश्यक कार्य को भी छोड देना, तथा उनकी सेवा कार्य के समक्ष अपने कार्यों को तुच्छ समझना ही सख्यभाव है। सख्यभक्ति की प्राप्ति के लिए भगवान् के प्रेमी अर्थात् भगवत्-भक्तों का साथ तथा उनके द्वारा कहे गये भगवान् के गुण और लीला का श्रवण करना चाहिए। स्वयं श्री कृष्ण ने अर्जुन की इसी भक्ति को सखा भाव नाम देते हुए गीता में कहा है-
भक्तोऽसि मे सखा चेति 35
अहो काँई जाणें गुवालियो बेदरदी पीड़ पराई|
जो जनमत ही कुल त्यागन कीनों, बन बन घेनु चराई।।
चोर चोर दधि माखन खायो, अबला नार सताई।।
सोला सैंस गोपी तज दीनी, कुबजा संग लगाई।।
मीरा के प्रभु गिरधरनागीर, कुण करै थारी बड़ाई।।36
आवो मनमोहना जी, जोऊँ थारी बाट|
खान पान मोहि नेक न भावे, नैणा न लगे कपाट।।
तुम आयां बिन सुख नहिं मेरे, दिल में बहोत उचाट।।
मीरां कहे मैं भई रावरी, छाँडो नाहि निराट।।37'
मीरा ने अपने आप को कृष्ण की दासी मानकर के जीवन व्यतीत किया। सख्य भाव भक्ति ऐसी भक्ति है जिसका मीरा के पदों में स्पष्ट विवेचन नहीं मिलता। क्योंकि मीरा ने कृष्ण को कभी भी सखा नहीं माना। उन्होंने कृष्ण को प्राणप्रिय, प्राणाधार एवं प्रियतम ही माना। अतः कहीं कहीं पर जहां मीरा श्याम सुंदर को उलाहना देती है वहां आंशिक रूप सें प्रियतम रूप सखा भाव दृष्टिगोचर होता है।
आत्मनिवेदनम्- जब भक्त अपना सर्वस्व भगवान् को समर्पित कर देता है। और हर कार्य भगवान् को प्रसन्न करने को उद्देश्य से ही करता है यहां तक की अपने आप को भी उन्हीं को समर्पित कर देता है, वह अवस्था ही आत्मनिवेदनम् है।
यच्छे्यः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।38
करिष्ये वचनं तव।।38
केवल वे ही भक्त आत्मनिवेदनम् की इस अवस्था को पाते हैं जो लोक हानि की चिन्ता नहीं करते तथा अपने लौकिक और वैदिक सभी कर्मो को भगवान् को अर्पण कर देते हैं। नारदभक्ति सूत्र में कहा गया है-
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात्।। 39
अब तो मेरा राम नाम, दूसरा न कोई |
माता छोडी पिता छोडे, छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ-बैठ, लोकलाज खोई।।
संत देख दौड पडी आई, जगत देख रोई।।
प्रेम आंसु डार-डार, अमर बेल बोई |
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीष राखू, राम हृदय होई।
अंत में से तंत काढी, पीछे रही सोई |
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई।
अब तो बात फैल गई, जाणे सब कोई।
दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई।40
अब मै शरण तिहारी जी मोहि राखो कृपानिधान|
अजामील अपराधी तारे, तारे नीच सदान।
जल डूबत गजराज उबारे, गणिका चढी विमान।।
और अधम तारे बहुतेरे, भाखत संत सुजान।
कुबजा नीच भोलनी तारी, जाणैं सकल जहान।।
कहँ लग कहूँ गिनत नहिं आवै, थकि रहे वेद पुरान।
मीराँ कहै मैं शरण रावरी, सुनियो दोनों कान।।41
आत्मनिवेदन भक्ति में जो स्थान मीरा का है वह स्थान अन्य कोई भी प्राप्त नहीं कर सकता है। मीरा के उक्त पदों में तो आत्मनिवेदन, अपनें आप को सौपने का शरणागति का जो भाव स्फुरित हुआ है उसकी चरम परिणति द्वारकाधीश के मंदिर में अपने आप को समर्पित कर देने पर दिखाई दी जहां मीरा मंदिर में जाकर के श्याम सुन्दर के विग्रह के समक्ष अपने आप को प्रस्तुत कर देती है और श्याम सुन्दर भी उस आत्म निवेदन को स्वीकार उसे अपना लेते है। बाद में पंडितो और जन साधरण के द्वारा मीरा के अन्वेषण करने पर वहां कोई प्राप्त नहीं होता है। ऐसा आत्मनिवेदन का उदाहरण इस भक्ति मार्ग में सुदुर्लभ है। मीरा ने न केवल नवधा भक्ति में अपने प्राणधार कृष्ण की वंदना की है अपितु अनेक स्थानों पर अपने गुरु रैदास के प्रति भी अपनी भक्ति शब्दों के माध्यम से प्रकट की है। मीरा अपने गुरु की कृपा से ही श्याम सुन्दर की प्राप्ति मानती है।
मोहे लागी लगन गुरु चरनन की।
चरन बिना कछुवै नहिं भावै, जग-माया सब सपनन की।
भव सागर सब सूखि गयौ है, फिकर नहिं माही तरनन की।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर, आस वही गुरु सरनन की।। 42
गुरु कृपा से संत पधार्या, संतां स्याम मिलाया |
मीराँ की प्रभू आस पुराई गिरधर सेजाँ आया।।43
भक्ति में भक्त की शरणागति प्रथम सोपान मानी गई है। बिना शरणागति और समर्पण के भक्त न तो भक्ति कर सकता हे, न ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। यह शरणागति परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण, भगवान् के प्रति राग और संसार की बातों के विराग के रूप में परिलक्षित होती है।
मोहन लागत प्यारा राजाजी, मोहन लागत प्यारा।
जिन की कला से हालत चालत धरण अकास अधारा।
जिन को कल में सब जग भूल्यो ये ही पुरुष है न्यारा।।
तुम भी झूँठे, हम भी झूँठे, झूँठे सब संसारा।
नारि पुरुष के सम्बन्ध झूँठे तो फट्या हिया तुम्हारा।
हरि के भजन बिन जो दिन खोये, धिक मनषा जनम जमारा।
मीराँ के प्रभु गिरधर नागर शरण को विरध संभारा।44
मीरा कृष्ण के प्रेम में इतनी डूब चुकी हैं कि उन्हें संसार के किसी भी व्यवहार की परवाह नहीं है।
कछु लेना न देना मगन रहना |
नांहि किसी की कांनां सुणनी, नांहि किसी कूं कहना।
गहरी नदियां नाव पुरानी, खेवटिये सूँ मिलता रहना।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, साँवरिया चरणं चित देना।45
मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई|
मीराँ हरि लगन लगी होनी हो सो होई ||46
श्याम सुन्दर के प्रति अनन्यता इतनी बढ चुकी है कि वे श्याम सुन्दर के वरण के निश्चय को संसार की बातें सुनकर भी विचलित नहीं होती हैं और अपनी मां से कहती है कि हे! मां मेने आंखे खोलकर के अपने प्रियतम का वरण किया है। अब मैं संसार की बातों से विचलित होने वाली नहीं हूँ।
माई मैं तो लियो है सांवरियो मोल |
कोई कहै सोंघो कोई कहै महँगो, लियो है हीरा सूं तोल।
कोई कहै हळको कोई कहै भारी, लियो री बाजताँ ढोल।।
कोई कहै छाने कोई कहै चोडे, लियो री बाजताँ ढोल।।
कोई कहे घटतो कोई कहे बढतो, लियो है बराबर तोल।
कोई कहे काळो कोई कहे गोरो, देख्यो है घूँघट पट खोल|
मीराँ कहे प्रभु गिरधर नागर, पूरव जनम रो कोल।। 47
मीरा की भक्ति की परिपक्वता कान्ता भाव में परिणत हो चुकी है। एक क्षण भी श्याम सुन्दर के बिना मीरा अपने आप को निष्प्राण मानती है। श्याम सुन्दर के बिना न नींद आती है, न चेन मिलता है, न भोजन ही अच्छा लगता है विरह की व्याकुलता इतनी बढ जाती है, कि मीरा कहती है कि अगर उन्हे पहले पता होता कि श्याम सुन्दर से प्रीत करने पर इतने कष्ट मिलेंगे तो वह कभी भी श्याम सुन्दर से प्रेम नहीं करती।
घडी एक नहिं आवडे, तुम दरशण बिन मोय।
तुम हो मेरे प्राण जी, कासूं जीवन होय|
धान न भावै नींद न आवै, विरह सतावै मोय।
घायल सी घूमत फिरूँ, मेरा दरद न जाणे कोय।
दिवस तो खाय गमाइयो रै, रैण गमाई सोय।
प्राण गमायो झूरतां रै, नैण गमाया राय।
जो मै ऐसा जानती रै, प्रीत किये दुख होय।
नगर ढिंढोरा फेरती रे, प्रीत करो मत काय।
पंथ निहारूँ डगर बुहारूँ, ऊभी मारग जोय।
मीरां के प्रभु कब रे मिलोगे, तुम मिलियाँ सुख होय।।48
शास्त्रों में भगवान् को प्राप्त करने के अनेक साधन बताए हैं। वे सभी भगवान् की प्राप्ति के लिए उत्तम तीन मार्गों को प्रदर्शित करते हैं। ये तीन मार्ग ज्ञान भक्ति व कर्म है। किन्तु भक्ति मार्ग शास्त्रों में सर्वाधिक प्रशंसनीय है। भक्ति के कई प्रकारों में से नवधा भक्ति भी एक है। मीरा ने इस नवधा भक्ति को अत्यन्त सरल रूप में प्रस्तुत किया है। उनका अधोलिखित पद प्रत्येक इन्द्रिय के द्वारा भक्ति करने पर बल देता है। और बिना भक्ति के जीवन को निष्फल बताता है।
रटता क्यों नहिं रे हरिनाम, तेरे कौडी लगे नहीं दाम।
नर देह सुमिरन कूं दीन्ही, बिन सुमिरे बेकाम |
बालपणो हँस खेल गुमायो, तरुण भयो बस काम।
पाँव दिया तोहे तीरथ करने, हाथ दिये कर दान।
नयन दिये तोहे दरसन करने, श्रवण दिये सुन ज्ञान|
दाँत दिये तेरे मुख की शोभा, जीभ दिई भज राम |
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, है जीवन बेकाम।49
तुलसीदास जी की राम भक्ति से हनुमानचालीसा व रामचरितमानस की रचना हुई। अर्जुन की कृष्ण के प्रति सच्ची भक्ति से गीता का निर्माण हुआ। ऐसे ही कृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति व प्रेम से मीरा के द्वारा अनेक पदों की रचना की गई। ऐसे कई उदाहरण हैं जो आज भी हमें भगवान् भक्ति करने को प्रेरित करते हैं और सच्चे हृदय से की गई नितान्त आवश्यक है। बिना भक्ति के मनुष्य का जीवन निरर्थक है। गोस्वमी तुलसीदास विरचित रामचरित मानस में अरण्य काण्ड में भगवान् श्री राम ने कैकई भक्ति की महत्ता बताते हुए कहते हैं -
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिइ जैसा।।50
इसी संदर्भ में मीरा भी मानव जीवन में भक्ति की अनिवार्यता को इस प्रकार इन शब्दों में व्यक्त करती है-
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, हरी भक्ति बिना सब फीको रे।।51
संदर्भ:-
1. स्कन्दपुराण 2. नारदभक्तिसूत्र-2
3. शाण्डिल्यभक्तिसूत्र-2
4. श्रीमद्भागवतपुराण 7/5/23
5.
श्रीरामचरितमानस 3/35 6. काशी पद 101
7. श्रीमद्भागवतपुराण महातम्य/6 /76
8. मीरा पदावली 200
9. मीरा बृहत्पदावली 319 10. नारदभक्तिसूत्र 37
11. मीरा बृहत्पदावली 109 12. मीरा बृहत्पदावली 129
13 गरुड पुराण 3/37 14. गीता 9/22
15. मीरा बृहत्पदावली 19 16. मीरा बृहत्पदावली 183
17. मीरा बृहत्पदावली 339 18 . मीरा बृहत्पदावली 340
19. श्रीरामचरितमानस 3/ 33
20. मीरा बृहत्पदावली 246
21. मीरा बृहत्पदावली 339 22. मीरा बृहत्पदावली 363
23. श्रीमद्भागवतपुराण10/81/19 24. मीरा बृहत्पदावली 102
25. मीरा बृहत्पदावली 402 26. मीरा बृहत्पदावली 33
27. मीरा बृहत्पदावली 164 28. मीरा बृहत्पदावली 370
29. श्रीरामचरितमानस 7/119क 30. मीरा बृहत्पदावली 60
31. मीरा बृहत्पदावली 121 32. मीरा बृहत्पदावली 405
33. मीरा बृहत्पदावली 428 34. मीरा बृहत्पदावली 564
35. गीता 4/3 36. मीरा बृहत्पदावली 21
37. मीरा बृहत्पदावली 36 38. गीता 2/7
38.
गीता 18/73 39. नारदभक्ति सूत्र 61
40. मीरा बृहत्पदावली 10 41. मीरा बृहत्पदावली 17
42. मीरा बृहत्पदावली 487 43. मीरा बृहत्पदावली 122
44. मीरा बृहत्पदावली 486 45. मीरा बृहत्पदावली 65
46. मीरा बृहत्पदावली 443 47. मीरा बृहत्पदावली 385
48. मीरा बृहत्पदावली 132 49. मीरा बृहत्पदावली 495
50. श्रीरामचरितमानस 3/34 51. मीरा बृहत्पदावली 46
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