शोध सार : भक्तिकालीन कविता के साथ भारतीय समाज, संस्कृति एवं साहित्य के विकास का एक नया द्वार खुलता है।जिसका प्रभाव धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, भाषा एवं संस्कृति के अन्यान्य रूपों पर पड़ता है। साहित्य के इतिहास में यह कालखण्ड श्रेष्ठ कविताओं के साथ-साथ व्यापक सामाजिक परिवर्तन के लिए भी जाना जाता है। इसलिए साहित्य के इतिहास में इस कालखण्ड को भक्ति काव्य के साथ-साथ भक्ति आंदोलन के नाम से भी अभिहित किया जाता है। इस कालखण्ड की कविता सामंती संस्कृति के विरुद्ध जनसंस्कृति के उत्थान की कविता है। जिसकी सतत् विकास यात्रा में हमारा आज का समय भी सम्मिलित है। आज हम जिसे बहुत गर्व के साथ भारतीय संस्कृति कहते हैं; उसके निर्माण में इस कालखण्ड के कवि एवं कविता का विशेष महत्त्व है। इसके विभिन्न रूपों पर इसकी एक गहरी छाप है। इस काल खण्ड में भाषा और साहित्य तो महत्त्वपूर्ण है ही इसके अलावा संगीत एवं स्थापत्य आदि के साथ धर्म तथा दर्शन की जो सार्थक एवं संवादी परम्परा भारतीय जन-मानस में व्याप्त है; वह भी भक्तिकाव्य की ही देन है।
आज के समय एवं संदर्भ में भक्तिकाव्य की व्यापकता एवं उसके स्थायी प्रभाव के कई कारण हैं; जिसमें एक प्रमुख कारण यह है कि इस कविता में भारतीय संस्कृति की स्मृति का होना है। इसमें अपने समय समाज एवं संस्कृति की अलग चेतना के साथ उसके भविष्य की चिंता भी मौजूद है। यह केवल सांस्कृतिक जागरण न होकर सामाजिक जागरण की भी कविता है। क्योंकि इसके अखिल भारतीय स्वरूप में अखिल भारतीय जनता के सामाजिक जीवन की सच्चाई एवं सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है।रैदास भक्तिकाल के ऐसे ही एक महत्वपूर्ण कवि हैं जिनके यहाँ सामाजिक जीवन के सपने और सच्चाई खुल कर सामने आते हैं ।आचरण की पवित्रता और कर्म के प्रति उनकी निष्ठा के कारण ही वह संतो में संत शिरोमणि कहलाए । व्यक्ति की गरिमा और जातीय अस्मिता को समूचे भक्तिकाल में कबीर के बाद सबसे ताकतवर ढंग से रैदास ने ही गया है।सामाजिक परिवेश में अपनी हैसियतऔर जाति के प्रति ऐसा अकुंठ स्वाभिमान कबीर और रैदास में ही मिलता है । यह इनके लेखन की वह विशेषता है जो इन्हें अन्यों से विशिष्ट बनता है । इसमें भी रैदास का तो कहना ही क्या ! रैदास ने संत की साधुता को श्रम से जोड़ा ।उसे आचरण में उतरा -
रैदास श्रम करि खाइहि,जौ लौ पार बसाय ।
नेक कमाई जउ करई, कबहु न निहफल जाय ।।[1]
बीज शब्द : भक्तिकाव्य, धर्म, दर्शन, कला, साहित्य, भाषा, समाज, संस्कृति, साहित्य, रैदास, बेगमपुर, अमरदेश, रामराज्य, मानुष सत्य, कबीर, श्रमशील, मानवता, चिंतन,आलोचक आदि।
शोध आलेख : भक्ति काव्य का मूल उत्स है-'मानुष सत्य' की प्रतिष्ठा करना। भक्तिकाल के सभी कवि एवं कविताएँ इसी लक्ष्य की ओर उन्मुख हैं। 'मानुष प्रेम भयो वैकुण्ठी' से ऊपर कोई मूल्य नहीं है। यही सबसे बड़ा मूल्य है। इससे बड़ा कुछ भी नहीं है। न जाति, न धर्म, न कुल, न खानदान, न सम्प्रदाय, न स्त्री, न पुरुष, न किसी शास्त्र का भय और न किसी लोक का भ्रम । इन्हीं सब चीजों का महत्त्व एवं आग्रह हमेशा मानवता के विकास का बाधक रहा है, और यह आज भी बाधक है। इसलिए इसकी सर्वाधिक निर्भिक एवं निर्द्वन्द्व आलोचना के स्वर हमें भक्ति काव्य में सुनाई पड़ते हैं। जिसमें सबसे प्रखर एवं संवेदनशील आवाज संत रविदास की है। इनकी कविताओं में समाज में भिन्न-भिन्न प्रकार के भेद-भाव पर टिकी समाज व्यवस्था की जगह मनुष्यता पर आधारित समतामूलक और मानवीय व्यवस्था की कामना निहित है। जिससे आज भी भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा प्रेरणा एवं शक्ति प्राप्त करता है।
रैदास संत कवि हैं। व्यापकता एवं लोकप्रियता में उनकी बराबरी सिर्फ कबीर से है। वाराणसी के आस पास से लेकर रैदास का प्रभाव पंजाब,हरियाणा,गुजरात और राजस्थान तक व्याप्त है। यह बात सर्वविदित है कि रैदास के 41 पदों का संकलन गुरु ग्रंथ साहिब में है।लोक में यह भी कथा विख्यात है कि रैदास मीराबाई के गुरु थे। हालाँकि रैदास और मीराबाई के समय का अंतराल हमें बताता है कि इस लोकश्रुति को लोकश्रुति ही मानना चाहिए,लेकिन उनकी लोक व्यापी प्रसार बहुत विस्तृत है । बनारस,हरियाणा,गुजरात,पंजाब और राजस्थान से होते हुए रैदास बानी का प्रभाव देश के अन्य हिस्सों के साथ-साथ अब विदेशो में भी दिखाई पड़ रहा है।कनाडा,अमेरिका एवं लंदन आदि देशों में आयोजित संगोष्ठियाँ एवं जयंती समारोह इस बात को प्रमाणित करते हैं। बनारस में आयोजित प्रकाश पर्व (जयंती समारोह ) में प्रत्येक वर्ष बढ़ रहे श्रद्धालुओं की संख्या भी इस बात की गवाह हैं ।लेकिन मजे की बात यह है कि बनारस का साहित्यिक समाज इस प्रभाव को नज़र अंदाज करता रहा है । इधर के वर्षों में सदानन्द शाही और श्रीप्रकाश शुक्ल ने कुछ हद तक साहित्यिक तटस्थ को अपने कामों से जरूर तोड़ा है।बावजूद इसके अब भी धर्म और सम्प्रदाय के दायरे से बाहर रैदास बानी की चर्चा कम ही होती है।ठीक वैसे ही जैसे अम्बेडकर की चर्चा एक खास दृष्टीकोण (दलित नज़रिए ) से की जाती है । इस तटस्थता के मूल में कहीं न कहीं हमारी सामाजिक संरचना का योगदान है ,जिसको हम इनकार नहीं कर सकते।
रैदास कबीर के समकालीन हैं। आज उनके हुए सवा छह सौ से ज्यादा वर्ष बीत चुके हैं। फिर भी उनकी बानी लाखों-करोड़ों लोगों को जीने का सम्बल प्रदान कर रही है। उनकी बानी में विनम्रता और दृढ़ता का अद्भुत संगम है। वे अपने कवित्त विवेक के बारे में कोई दावा नहीं करते। अन्य संत कवियों की तरह यह भी कवि होने का कोई दावा नहीं करते। यह साधुता और संतई का भी दावा नहीं है। इन सब के लिए रैदास के पास दावा से अधिक उनका आचरण ही प्रमाण है।उनके यहाँ यदि किसी बात का दावा दिखाई पड़ता है तो वह अपने पेशे का है और अपनी जाति का भी । रैदास ओछी समझी जाने वाली जाति और पेशे का दावा अपनी कविताओं में डंके की चोट पर करते हैं और उसे आत्म गौरव से भर देते हैं । इसी आत्मगौरव और आत्मविश्वास के सहारे वह राम नाम की कमाई करते हैं और उसके रंग में रंग जाते है -
हउ बनजारो राम को सहज करउ ब्यापारु ,
मैं राम नाम धनु लादिया बिखु लादी संसारि ॥
उरवार पार के दानीआ लिखि लेहु आल पतालु ,
मोहि जम डन्डु न लागई तजीले सरब जंजाल ॥
जैसा रंग कुसुंभ का तैसा इहु संसारू ,
मेरे रमईए रंग, मजीठ, का कहु रविदास चमार ॥[2]
इस बात को हम सभी जानते हैं कि रैदास चमड़े का काम करते थे और जूता सिलते थे। तथाकथित छोटी जाति और छोटे पेशे के कारण ही इस कवि के महत्त्व को उस रूप में स्वीकार नहीं किया गया जिस रूप में बहुत पहले ही किया जाना चाहिए था ।
अन्य महापुरुषों के जीवन वृत्त की भांति ही संत रैदास के जीवन के बारे में ठीक ठीक जानकारी नहीं है । अन्तः साक्ष्य और बाह्य साक्ष्य के आधार पर कुछ अनुमान लगाया गया है ।जैसे इनका जन्म काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1377 को हुआ था। इस सन्दर्भ में एक दोहा प्रचलित है -
चौदह सौ तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास।
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।
इनके पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसां देवी था। यह जाति के चर्मकार थे। जबकि कंवल भारती जी का मानना है कि “ रैदास जी का जन्म संवत 1455वि.अर्थात
1398ई.में तथा देहावसान संवत 1575वि. अर्थात
1518ई. में हुआ।”[3] जैसा कि हम जानते हैं कि यही तिथि कबीर की भी है ।आगे भारती जी ने भी माघ पूर्णिमा वाले तिथि पर अपनी सहमति दी है और कबीर के जन्म के तरह ही एक कथा का उल्लेख किया है – “श्री रामचरण कुरील ने 'भगवान रविदास की सत्यकथा' में उल्लेख किया है कि रैदास जी माघ मास की पूर्णिमा के दिन प्रकट हुए थे। यद्यपि इसका भी कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है, परन्तु प्रतिवर्ष माघी पूर्णिमा को रैदास जी के जन्म दिवस के रूप में एक प्रकार से मान ही लिया गया है। इसलिये एक परम्परा की दृष्टि से इसका औचित्य महत्वपूर्ण है।
जन्म स्थान के सम्बन्ध में प्राय: इस बात के लिये तो कोई विवाद नहीं है कि रैदास जी का जन्म सन्तों की नगरी काशी (बनारस) में हुआ था, किन्तु किस ग्राम-स्थान में हुआ था, यह सुनिश्चित नहीं है। जिज्ञासु जी ने काशी के किसी वृद्ध साधु के हवाले से लिखा है कि काशी में रघुराम नाम के एक प्रतिष्ठित चर्मकार का परिवार था, जिसकी पत्नी रघुरानी निस्सन्तान थी। एक दिन रघुराम किसी कार्य से मृगदाय ऋषिपतन (सारनाथ) गये। वहाँ एक योगी महात्मा रैवतप्रज्ञ' से उनका सम्पर्क हुआ। महात्मा ने उनसे खीराहार की इच्छा प्रकट की। दूसरे दिन, रघुराम और उनकी पत्नी ने उनकी इच्छा पूरी की। प्रसन्न होकर महात्मा ने उन्हें आशीर्वाद दिया - "तुम्हारे घर शीघ्र ही एक ऐसा पुत्र जन्म लेगा, जिसके कारण तुम्हारा नाम अमर हो जायगा।"
उस घटना के दस माह बाद रघुरानी ने एक बालक को जन्म दिया। माता-पिता ने महात्मा के नाम पर उस बालक का नाम रैदास रखा।”[4] इसके अनुसार रैदास के माता- पिता का नाम भी बदल गया है । हमें यहाँ इस विवाद में नहीं पड़ना है।इतना तो ज्ञात है कि रैदास का जन्मोत्सव प्रत्येक वर्ष माघ महीने में वाराणसी (सीर गोवर्धन) में बड़ी धूम धाम के साथ मनाया जाता है । इसमें कई बार सम्मिलित होने का मौका भी मिला है । संत कवि रैदास के अध्ययेता पीटर जी फ्रेडलैंडर इस अवसर के संबंध में लिखा है कि –“एक बार मैंने पढ़ा कि सगुण भक्तों में सूर और तुलसी चाँद और सूरज जैसे हैं। उसके बाद मेरे मन में यह विचार आया कि निर्गुण संत धारा में कबीर और रैदास भी संतों की दुनिया में चाँद और सूरज जैसे ही हैं। फिर जब मैंने रैदास के जीवन और कृतियों पर शोधकार्य शुरू किया तो कबीर चौरा मठ में किसी संत ने मुझको बताया कि रैदास और कबीर के रिश्ते को उनकी जयंतियों से जाना जा सकता है। कबीर जयंती गरमी में आती है, और कबीर में उस समय की ऊष्मा के तीव्र लक्षण हैं, लेकिन रैदास जयंती माघ पूर्णिमा को पड़ती है, रैदास में उस समय का शीतल स्वभाव है। दोनों का सन्देश समरस है, लेकिन जहाँ कबीर की बानी में उग्रता है रैदास की बानी में सौम्य रस प्रधान है। मैं अब भी मानता हूँ कि संतों की बानी में संतों का समय और पर्यावरण लक्षित है।”[5]
उपर्युक्त तीनों उद्धरणों को ध्यान में रखते हुए हम यह कह सकते हैं कि रैदास की प्रमाणिक जीवनी हम खो चुके हैं ,इसीलिए उनके जीवन से जुड़ी तथ्यात्मक बातों की जगह चमत्कारिक बाते ही सुनने को मिलती हैं।ऐसे में हमें उनकी कविताओं के महत्त्व से ही उनके व्यक्तित्व का आकलन करना चाहिए।वैसे कबीर दास घोषणा ही करते हैं कि -
जाति न पूछो साध कीपूछ लीजिए ज्ञान ।
मोल करो तलवार का पड़ा रहन दो म्यान ।।[6]
कबीर की तरह ही रैदास के बारे में भी कई ऐसी किंवदन्तियाँ गढ़ी गई जिसमें कवि के अपने दावे के उलट उसे उच्च वर्ण का साबित करने की कोशिश की गई। इन कोशिशों के मूल में कहीं न कहीं यह आग्रह काम कर रहा था कि प्रतिभा और महत्ता तो जाति और वर्ण विशेष में ही संभव है- यदि यह संत कवि को देखते महत्त्वपूर्ण है तो इसका संबंध उच्च वर्ण से होगा ही। ऐसी कहानियाँ लोक कथाओं में भरी पड़ी हैं जिसमें पिछले जन्म की वरीयता दी जाती ।यह कथा थोड़े उलट फेर और चमत्कार के साथ रैदास के साथ भी जुड़ी है,जिसमे वह हनुमान की तरह अपनी चमड़ी चीर कर जनेऊ दिखाते हैं,लेकिन रैदास की महत्ता इस किवंदंति से नहीं है । हां इससे इनकी स्वीकार्यता का अंदाज़ा हम अवश्य लगा सकते हैं।
आज हमारा देश एक विकट संकट से गुजर रहा है। यह संकट जितना सामाजिक एवं राजनीतिक है उससे कहीं अधिक सांस्कृतिक है, क्योंकि आज संस्कृति एवं जाति के हथियार से ही राजनीतिक लड़ाईयां लड़ी जा रही है। विकास तो सिर्फ नारों एवं भाषणों में हैं। असल शक्ति तो जाति एवं संस्कृति की दुहाई है, सांस्कृतिक पुरुष एवं प्रतीकों को अस्त्र-शस्त्र बना कर यह जो राजनीतिक लड़ाई शुरू हुई है, इससे एक नई सांस्कृतिक समस्या उत्पन्न हो गई है। वर्तमान राजनीति जातिवाद, धार्मिक उन्माद, सांप्रदायिक संकीर्णता और मानवीय बैमनस्य को अपना कर सत्ता का सुख भोगने की कल्पना पाले हुए है ऐसे में भक्ति काव्य के उदात्त मूल्य, सामाजिक आदर्श एवं भारतीय संस्कृति की गौरवशाली आकांक्षा धूल- धूसरित हो रही है। ऐसी स्थिति में सकल जन को सुखी देखने एवं मन चंगा रखने' वाले संत शिरोमणि कवि रैदास की याद बरबस आ जाती है।जिन्होंने डंके की चोट पर नेकी की कमाई के गुण को गया था -
नेक कमाई जउ करइ गृह तजि बन नहि जाय ।
रविदास हमारो हरी राम गृह लह मिलहि आय ।।[7]
इन पक्तियों के माध्यम से भक्ति काव्य में रैदास की सार्थकता एवं आज की स्थिति में उनकी अर्थवत्ता स्वतः प्रासंगिक हो उठती है। वर्तमान संकट से उबरने में उनकी वाणी हमारी मदद कर सकती है; क्योंकि रैदास की कविता आज भी भारत में एक वृहद जनसमुदाय के मन के बहुत करीब है। वह भारतीय जन के जीवन में रमी हुई है; इसलिए उसके सहारे भारतीय जन के उस वृहद समुदाय से संवाद संभव है।इस बात को हम सभी जानते हैं कि संत कवि रैदास के समय में भी जाति और वर्ण को लेकर समाज में काफी असमानताएँ मौजूद थी । समाज में जाति को लेकर घृणा की जाती थी। ऐसे में रैदास को महज अपने ईश्वर की उपासना करने के लिए न जाने कितने तरह की हिंसा का शिकार होना पड़ा होगा , न जाने कितनी तरह की परीक्षाएँ देनी पड़ी होंगी। वर्ण एवं जाति के श्रेष्ठ के आग्रही लोगों ने ईश्वर पर भी कब्ज़ा कायम कर रखी थी।ईश्वर को भी छुआ- छूत के प्रपंच में फसाए रखा गया जिससे निम्न वर्ग के लोगों की प्रार्थनाएँ भी प्रतिबंधित थीं। यह इस देश की विडंबना ही कहिए कि यहाँ ईश्वर को प्रेम और करुणा की जगह भय और आतंक का बायस बना दिया जाता रहा है । धर्म को कर्मकाण्डों में फंसाकर मानवता के शृंगार की जगह शोषण और लूट का साधन बना दिया जाता रहा है। ऐसे में संत रैदास और उनके सहयात्री जैसे संतों ने समय-समय पर दुनिया को प्रेम की महत्ता बतायी और घृणा, वैमनस्य और क्षुद्रता का प्रतिपाठ रचा है ।
संत कवि रैदास भारतीय मन की आवाज हैं ,इनका व्यक्तित्व निर्मल भक्ति का प्रतीक है।इनका जीवन और काव्य इस तरह मिला हुआ है जैसे चन्दन और पानी। इनके आचरण की सुचिता और पवित्रता ही काव्य/उपदेश के रूप में प्रस्फुटित हुए हैं । मान,वचन और कर्म की शुद्धता ही रैदास को संत शिरोमणि बनाती है । प्रो सदानन्द शाही जी रैदास की कविताओं पर विचार करते हुए लिखते हैं कि “रैदास की कविताई पर विचार करते हुए ध्यान रखना चाहिए कि अच्छी कविता और महान कविता के अपने-अपने तर्क होते हैं। अपने काव्यात्मक गुणों के नाते कोई कविता अच्छी कविता हो सकती है लेकिन महान कविता वह तभी होगी जब उसका सामाजिक परिप्रेक्ष्य भी बड़ा हो।”[8] रैदास की कविता का सामाजिक परिप्रेक्ष्य बहुत बड़ा है।जिसके जद में समूची श्रमशील मनुष्यता आती है ।भक्तिकाल की कविता इसी मनुष्यता का अमर गान है -
“शुनह मानुष भाई
शाबर उपरे मानुष शत्तो
ताहर उपर नाई ।।”(चंडीदास)[9]
रैदास की कविता की बुनियादी चिंता इसी मनुष्यता को बचाए रखने की है। मानवीय गरिमा की खोज रैदास की कविता का प्राथमिक उदेश्य है। इनकी कविता से रू-ब-रू होते ही हमें सहज रूप से इनके मानवीय बोध के धरातल का अंदाजा लग जाता है। रैदास हमें मनुष्यता से बेहद प्रेम करने वाले कवि दिखाई देते हैं। समाज के लिए इतनी सदाशयता इतनी विनम्रता इतना राग उस काल खण्ड में इनके आलावा कम ही दिखई देता है।
“तोही मोही मोही तोही अंतरु कैसा ।
कनक कटिक जल तरंग जैसा ॥
जठ पै हम पाप न करता अहे अनंता।
पतित पावन नाम कैसा हुंता ॥
तुम्ह जु नाइक आछहु अंतरजामी ॥
प्रभु ते अनु जानीजे जन ते सुआमी ॥
सरीरु आराधे मो कउ बीचारु देहू ॥
रविदास समदलु समझावे कोऊ ॥”[10]
इस प्रकार हम पाते हैं कि रैदास की कविताओं में मानवीप धरातल का भावबोध निरंतर सक्रिय रहता है। इनकी कविता हमेशा सजल प्राणवान और भरोसा दिलाने वाली है। इसी भरोसे के साथ रैदास अपने समय के समाज में व्याप्त कुरीतियों विसंगतियों, विदूपताओं के बरक्स एक बेहतर न्याय संगत शोषण- मुक्त सुंदर समाज का स्वप्न बुनते हैं। उनकी कल्पना में जिस तरह के समाज का ढांचा है वह कुछ इस प्रकार उनकी कविता में अभिव्यक्त हुआ है -
बेगम पुरा शहर को नांउ
दुखू अंदोह नहीं तिहिं ठाँउ
नां तसवीस खिराजु न मालू
खउफु न खता न तरसु जवालु॥
अब मोहि खूब वतन घर पाई,
ऊंहौ खैरि सदा मेरे भाई।
काइमु दाइमु सदा पातिसाही,
दोम न सोम एक सौ आही।।
आबादानु सदा मसहूर
ऊँहाँ गनी बसहि मसहूर।
तिउ तिउ सैल करहि जिउ भावे
महरम महल न को अटकावै।
कहि रैदास खलास चमारा,
जो हम सहरी सुमीतु हमारा।[11]
यह रैदास के सपनों का शहर है। ठीक वैसे ही जैसे तुलसी का रामराज्य या कबीर का अमरदेश है । इस पद में एक ऐसे समाज का ताना-बाना बुना गया है जहा गम नहीं है वह बे-गम है अर्थात जहाँ किसी भी प्रकार के दुःख और क्लेश का नामोनिशां नहीं है। इस शहर में रहने वाले को न कोई दुःख है न ही किसी तरह की चिन्ता है। किसी तरह का टैक्स देने की फिक्र नहीं है। इस शहर में न किसी तरह का अपराध है न ही दण्ड का विधान है । किसी को किसी तरह का भय नहीं है सब निर्भय हैं । यहाँ की शासन व्यवस्था सुदृढ़ है ।यहाँ खौफ के बल पर नहीं, बल्कि प्रेम और सद्भाव के बल चलती है। इस शहर के सभी नागरिक निर्भय होकर रहते हैं। यह ऐसा खूबसूरत वतन है जहाँ खैरियत ही खैरियत है। इस शहर की बादशाहत मजबूत और मुकम्मल है। किसी को संविधान विरुद्ध कुछ करने का साहस नहीं है। इस शहर के सभी रहवासी अव्वल दर्जे के नागरिक हैं। किसी को भी दूसरे या तीसरे दर्जे का नागरिक नहीं समझा जाता है । किसी से भेदभाव नहीं किया जाता है । भरपूर रोजी रोटी और आबोदाना के लिए यह शहर मशहूर है । इस शहर में रहने वाले सुखी और हर तरह से सम्पन्न हैं । किसी पर कोई रोक टोक नहीं है। जिसका जहाँ कहीं भी जाने का मन करेगा वह वहाँ आ जा सकता है । ऐसे शहर की कल्पना संत रैदास ने की है। सभी तरह के मोह और बन्धनों से मुक्त संत रैदास की संगत उसे ही नसीब होगी जो उनके सपनों के शहर बेगमपुर का नागरिक होगा।। जो रैदास के इस भाव को मानने वाला है वही उनका हम शहरी है ,वही उनका मीत है।भक्तिकाल के कवियों को सिर्फ भक्ति और अध्यात्म के दृष्टिकोण से नहीं पढ़ा जा सकता ,उनका एक बृहत्तर सामाजिक सरोकार है । रैदास के बेगमपुर को हम सिर्फ यूटोपिया कह कर उसके महत्त्व को कम नहीं कर सकते । इस सन्दर्भ में प्रो.सदानन्द शाही जी लिखते हैं कि-“यह बेगमपुर क्या है? क्या इसमें रैदास केवल भाव दशा की चर्चा करते हैं। क्या यह केवल कुण्डलिनी के सहस्रार तक पहुँच जाने की स्थिति है ? पूरे पद में लगान अदा करने की चिन्ता से मुक्ति का आश्वासन है, भय से मुक्ति का भाव है। आबोदाना और हर तरह के खैरियत की आसूदगी है। कहीं कोई रोक-टोक नहीं है, किसी तरह की भेद बुद्धि और बन्धन नहीं है। यह सिर्फ आध्यात्मिक अनुभव नहीं है। यहाँ जिन दुःखों और बन्धनों से मुक्ति की बात की गई है वे नितान्त इहलौकिक या कि सामाजिक हैं। सामाजिक और आर्थिक विषमता समाज में भेद-बुद्धि पैदा करती है और यह भेद- बुद्धि विधि-निषेध रचती है। बेगमपुर इन सबसे मुक्त है। बेगमपुर कवि का स्वप्न है। निष्ठुर, अविवेकी अन्याय पूर्ण सामाजिक यथार्थ के बरक्स कवि एक न्याय संगत, मानवीय और उदात्त समाज का सपना प्रस्तावित कर रहा है। पिछली शताब्दियों में आधुनिक दुनिया ने जिस तरह के समता मूलक समाज का सपना देखा, यह वैसा ही सपना है। भविष्य की मानवता यदि समतामूलक समाज की स्थापना कर पायी तो वह रैदास के बेगमपुर जैसा होगा। रैदास की यह कल्पना अमूर्त और अवास्तविक है एक तरह की यूटोपिया । यह ध्यान रहे कि धार्मिक, सामाजिक भेदभाव के आधार भी अमूर्त और अवास्तविक हैं। इसके बावजूद वे ठोस सच्चाई की तरह हमें बंधनों में जकड़े हुए हैं। रैदास की यह कल्पना मिथ्या चेतना द्वारा रचित बन्धनों की जकड़न से मुक्त करने का विधान रचती है।”[12]
उपर्युक्त उद्धरण बताते हैं कि रैदास की कविता मानवीय गरिमा एवं मनुष्य के सरोकारों से गहरे जुड़ी हुई है।जाति-पाति, ऊँच-नीच ,छुवा-छूत के बरक्स वह मनुष्यता की बराबरी के हिमायती है। वह मानते हैं कि मनुष्य से ऊपर कुछ भी नहीं है- ‘ऐसा चाहूँ राज मैं, जहाँ मिले सबन को अन्न। छोट बड़ो सब सम बसे, रैदास रहे प्रसन्न।।’ मानवता के पक्ष में इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है! रैदास ऐसा समाज चाहते हैं जिसमें सबको भरपेट अन्न मिले और सिर्फ मनुष्य होने भर से सम्मान मिले। संत कवि रैदास को मनुष्य की पहचान किसी और रूप (जाति-धर्म-सम्प्रदाय आदि )में नहीं होनी चाहिए ।उन्हें किसी का छोटा बड़ा होना स्वीकार नहीं। रैदास ने विभाजन की ऐसी सभी कोटियों को खारिज कर दिया जिनके होने से मनुष्यता खंडित होती है। हम अपने- पराये बड़े-छोटे के फेर में पड़ते हैं और दुःख भोगते हैं -
जात जाप के फेर मह उरझि रहहि सभ लोग।
मानुषता को खात है रविदास जात का रोग ।।[13]
कबीर की तरह ही रैदास का साहित्य भी जीवन के स्वीकार का साहित्य है। इनके यहाँ भी उद्योग और अध्यात्म का सुन्दर अद्वैत दिखाई पड़ता है । जैसा कि हम सब जानते हैं श्रम मानव जीवन की एक जरूरी और बुनियादी आवश्यकता है; जब वह जरूरी है तो उसका सम्मान भी होना चाहिए लेकिन हमारे समाज की यह एक बहुत बड़ी विडंबना है कि हम श्रम करने वाले वर्ग को हो निम्न समझते हैं। उसे हीनता की दृष्टि से देखते हैं। उसके श्रम को अवमूल्यित करते हैं। जिसका पेशा जितना कठिन है वह हमारे समाज के पायदान की सीढी पर उतना ही ज्यादा नीचे है।वह अछूत है।यही हमारे समाज में दलित जीवन का अभिशाप है,लेकिन संत रैदास ने भी इस व्यवस्था को कबीर की भांति नकारते हुए श्रम को सम्मान की दृष्टि से देखने का प्रस्ताव किया -
रैदास श्रम करि खाइहिं, जौ लौ पार बसाय।
नेक कमाई जउ करइ, कबहुं न निहफल जाय।।[14]
मैंने पहले ही कहा है कि संत कवियों का साहित्य जीवन की स्वीकृति का साहित्य है, इसमें पीड़ित जन का आक्रोश और आवेश, सुखी समाज की आकांक्षा, और शोषक श्रेणी के प्रपंचों पर आघात है, और सबसे बढ़कर समता, स्वतन्त्रता और बन्धुत्व की स्पष्ट अभिव्यक्ति हैं।इसीलिए रैदास ने पराधीनता को मनुष्य जीवन के लिए लिए पाप कहा है-“पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।रविदास दास पराधीन सो कौन करेहै प्रीत”[15]
पराधीनता के विरुद्ध प्रतिरोध, संघर्ष, दृढ़ता, आस्था जैसे गुण मनुष्य को अपने भीतर के विराटत्व से परिचित कराते हैं। रैदास का इन गुणों से बखूबी वास्ता है सिर्फ उपदेश के लिए नहीं अपितु आचरण के लिए।ऐसे ही कोई फौरी तौर पर “कोई मन चंगा तो कठौती में गंगा ” नहीं कह सकता।
रैदास ने अपनी कविता के माध्यम से बहुत विनम्रता और दृढ़ता के साथ यह कहने का साहस किया कि केवल हमें (यानी भक्त को) ही ईश्वर की जरूरत नहीं; बल्कि ईश्वर को भी हमारी जरूरत है। हमारी मौजूदगी के बिना ईश्वर का ईश्वरत्व ही प्रमाणित नहीं हो सकता। इस तरह रैदास भक्त और भगवान के बीच परस्पर प्रेम और विश्वास का लोकतांत्रिक धागा विकसित करते हैं-“नेक कमाई जउ करइ गृह तजि बन नहि जाय/रविदास हमारो हरी गृह लह मिलहि आय।”
निष्कर्ष : अतः हम निष्कर्षतः कह सकते हैं कि संत कवि रैदास की कविताओं में परिवर्तन की अगाध आकांक्षा दिखाई देती है। जिसमें वृहत्तर मानवता को स्थापित करना इनका लक्ष्य है। यह एक ओर जहां जहां बनी-बनाई धार्मिक, सामाजिक मान्यताओं और इन्हें स्थापत्य व स्थापित्व देने वाले धर्म ग्रंथों की व्यर्थता प्रकट करते हैं ,वहीं दूसरी ओर नए जीवन मूल्यों की संरचना भी करते हैं। धर्म के बंटवारे ने शायद मनुष्य जाति को सबसे अधिक पद- दलित किया है। रैदास ने धर्म की एकता स्थापित करने का प्रयास किया है ,जिससे मनुष्यता सुरक्षित रह सके-“रैदास कनक और कंगन माहि जिमि अंतर कछु नाहिं/तैसा ही अंतर नहीं, हिन्दुअन तुरकन माहि।[16] इस प्रकार विभिन्न खाँचे में बंधी और बँटी घृणा और द्वेष पर टिकी दुनिया रैदास को स्वीकार्य नहीं है। इसीलिए वे कबीर के साथ मिलकर एक नयी और वैकल्पिक दुनिया बसाना चाहते थे। इस वैकल्पिक दुनिया का मूलाधार श्रम और प्रेम है। रैदास अपने भक्तों को श्रम करके अपना पालन पोषण करने का सन्देश देते हैं- "रैदास श्रम करि खाइहि जौलों पार बसाय। नेक कमाई जउ करइ कबहुं न निहफल जाय ।।" रैदास अपनी कविताओं के माध्यम से अकर्मण्य साधुता के बरक्स श्रमशील साधुता का आह्वान करते हैं और कहते हैं की ईश्वर किसी एक खास जाति या वर्ण के नहीं है वह हर उस उस व्यक्ति का है जो अपने कर्ममय जीवन के भीतर उसे (ईश्वर को) पूरे मनोयोग से चाहता है।
[1] - भारती,कँवल ,संत रैदास एक विश्लेषण , संस्करण-2000,बोधिसत्व प्रकाशन ,रामपुर, पृष्ठ-166
[2] - शाही,सदानन्द,मेरे राम का रंग मजीठ है रैदास बानी का कव्यांतरण,संस्करण-2021, लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी , पृष्ठ-16
[3] - भारती,कँवल ,संत रैदास एक विश्लेषण , संस्करण-2000,बोधिसत्व प्रकाशन ,रामपुर, पृष्ठ-31
[4] -वही ,पृष्ठ -32
[5] - शाही,सदानन्द,मेरे राम का रंग मजीठ है रैदास बानी का कव्यांतरण,संस्करण-2021, लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी , पृष्ठ- फ्लैप(i)
[6] -पटेल,सुरेश,कहत कबीर,संस्करण-2020,अंतिका प्रकाशन ,गाज़ियाबाद ,पृष्ठ-107
[7] वही- पृष्ठ-163
[8] - शाही,सदानन्द,मेरे राम का रंग मजीठ है रैदास बानी का कव्यांतरण,संस्करण-2021, लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी, पृष्ठ -134
[9] - यादव,निरंजन कुमार,कबीर की विरासत,संस्करण-2022,रचनाकार पिब्लिशिंग हाउस दिल्ली ,पृष्ठ-24
[10] - शाही,सदानन्द,मेरे राम का रंग मजीठ है रैदास बानी का कव्यांतरण,संस्करण-2021, लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी , पृष्ठ-8
[11] - वही, पृष्ठ-12
[12] -वही,पृष्ठ-136
[13] - भारती,कँवल ,संत रैदास एक विश्लेषण , संस्करण-2000,बोधिसत्व प्रकाशन ,रामपुर, पृष्ठ-170
[14] - वही, पृष्ठ-166
[15] - वही ,पृष्ठ-169
[16] - शाही,सदानन्द,मेरे राम का रंग मजीठ है रैदास बानी का कव्यांतरण,संस्करण-2021, लोकायत प्रकाशन ,वाराणसी , पृष्ठ
बहुत सुन्दर।
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