शोध आलेख : बुल्लेशाह की कविता में वैचारिक एवं सांस्कृतिक संश्लेषण / मंजना कुमारी

बुल्लेशाह की कविता में वैचारिक एवं सांस्कृतिक संश्लेषण 
- मंजना कुमारी

            भारतीय इतिहास में मध्यकालीन संस्कृति को गंगा जमुना संस्कृति कहा जाता है। भारत के सिंध प्रान्त (उत्तर पश्चिमी) में इस संस्कृति का प्रभाव अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक दिखाई देता है। इतिहासकार ताराचंद इस संबंध में लिखते हैं “It is hardly possible to exaggerate the extent of Muslim influence over indian life in all departments. But nowhere else is it shown so vividly and so picturesquely, as in costoms, in intimate details of domestic life, in music, in the fashions of dress, in the ways of cooking, in the ceremonial of marriage, in the celebration of festivals and fairs, and in the courtly institutions and etiquette of Marathi, Rajput and Sikh princes.1 (सभी क्षेत्रों में भारतीय जीवन पर मुस्लिम प्रभाव की व्यापकता के विस्तार को बढ़ा-चढ़ाकर बताना संभव नहीं है। किन्तु, यह प्रभाव कहीं भी इतने स्पष्ट और चित्र-विचित्र रूप से प्रकट नहीं हुआ, जितना मराठा राजपूत और सिख रजवाड़ों के रीति-रिवाजों, दैनिक जीवन की छोटी - छोटी बातों, संगीत, पोशाक और पहनावे, खाना बनाने की कला, विवाह संस्कारों, तिथि त्योहारों और मेले ठेलों तथा दरबारी तहजीब आदि में”)। डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने इसी को ‘क्लचरल  सिंथीसिस’  कहा है।

भारत में 7वीं से 9वीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन का प्रचार प्रसार हुआ। भारत के प्रत्येक क्षेत्र में अलग - अलग व्यक्तियों ने भक्ति आंदोलन का प्रतिनिधित्व किया। हिन्दी (ब्रज-अवधी) के अतिरिक्त अन्य भारतीय भाषाओं में भी भक्ति साहित्य लिखा गया। 12वीं शताब्दी में नरसी मेहता और प्रेमानन्द तथा अन्य गुजराती कवियों ने वैष्णव कविता रची। कश्मीर में कवयित्री ललद्यद ने कश्मीरी भाषा में भक्ति संबंधी पद लिखे। बांग्ला कवि चंडीदास ने माधुर्य भाव की भक्ति को अपनाया तथा संत श्री चैतन्य ने वैष्णव भक्ति का प्रसार किया। उड़िया के प्रसिद्ध भक्त कवि जगन्नाथ दास ने भागवत (कृष्ण की कहानी) की रचना की। असमी कवि शंकरदेव ने वैष्णवमत का प्रचार करने के लिए नाटकों (अंकिया - नाट) और कीर्तन (भक्ति गीत) का प्रयोग किया।

  अन्य भारतीय भाषाओं की तरह भक्ति साहित्य का विकास पंजाब, सिंध के क्षेत्र में भी हुआ। पंजाब में सूफ़ियों एवं सिख गुरुओं की लंबी परंपरा है। आरंभिक पंजाबी सूफ़ी कवियों में बाबा फ़रीद का नाम आता है। बाबा फ़रीद की वाणी का संकलन गुरु अर्जुन देव ने ‘आदिग्रंथ साहिब’ में करवाया। गुरुमुखी लिपि के विकास ने पंजाबी साहित्य को अधिक समृद्ध किया। पंजाब में सिख गुरुओं की परंपरा  विकसित हुई। गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोबिन्द सिंह तक दस गुरु हुए। इन्होंने प्रशासक की भूमिका भी निभाई और गुरु (आध्यात्मिक व्यक्ति) की भी। इनकी वाणी ‘जपजी साहिब’, ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ में संकलित है। इसके अतिरिक्त गुरुओं ने स्वयं कई रचनाएं लिखीं।

भारत के उत्तर पश्चिमी प्रांत में सूफ़ी कवियों की लंबी परंपरा रही है। इनका साहित्य सिन्धी एवं पंजाबी भाषा में है। पंजाबी सूफ़ी काव्यधारा में दो प्रकार के कवि हैं। एक जिन्होंने अपनी कविता दोहों, काफ़ियों, सीहरफियाँ, अठवारे आदि में की। ये साहित्य प्राय: गेय मुक्तक काव्य है। इस काव्यधारा के प्रमुख सूफ़ी कवि हैं- बाबा फ़रीद, शाह हुसैन, सुल्तान बाहु, शाह सरफ़, अली हैदर, बुल्लेशाह, फरद फ़कीर, सैय्यद वारिस शाह, हाशिम शाह, अहमद यार, गुलाम जिलानी रोहतकी, सचल आदि। इन सूफ़ी कवियों का संबंध सूफ़ियों  के विभिन्न छोटे-बड़े संप्रदायों से है। पंजाबी सूफ़ी कवियों में आदि सूफ़ी कवि शेख फरीदुदीन शकर गंज थे। ये चिश्ती संप्रदाय से संबंधित थे। इनकी वाणी में सदाचार एवं अध्यात्म की शिक्षा है। दूसरे हैं किस्सा कवि। किस्सा कवियों ने प्रेमाख्यान परम्परा को आगे बढ़ाया। कुछ प्रेमाख्यानों का कथानक फारसी  में प्रचलित था और कुछ का पंजाबी लोकवार्ता में। पंजाबी लोक से जुड़कर फारसी प्रेमाख्यानों का रूप थोड़ा बदल गया। प्रमुख प्रचलित किस्से हीर राँझा, सोहनी महीवाल (पंजाबी लोकवार्ता पर आधारित), हाशिम कृत सस्सी पुन्नु (बिलोचिस्तान में प्रचलित), शीरी फरहाद, कादरयार द्वारा रचित पूरन भगत, जूसुफ जुलेखा (मिस्त्र में प्रचलित), पीलू द्वारा रचित मिर्जा साहिबा, लैला मजनूँ थे। इनका कथानक लोक प्रचलित कहानियाँ व राजाओं के प्रेम प्रसंग बने। ये कथाएँ प्रेम के साथ-साथ सम्पूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति भी हैं। इन कथाओं में आध्यात्मिकता, धार्मिक, नैतिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं पर विचार किया गया है।

बुल्लेशाह (सन 1680 -1757 ई०) पंजाबी सूफ़ी काव्यधारा के अंतिम दौर के शिरोमणि सूफ़ी कवि हैं। कुछ हिन्दी आलोचकों ने इन्हें संत कवि के रूप में भी स्वीकार किया है। डा. असलम राणा ने बुल्लेशाह को ‘पंजाबी का बेबाक शायर’ कहा  है। इनका मूल नाम अब्दुल्ला शाह था। इनके पिता सखी मुहम्मद दरवेश मस्जिद में मौलवी थे। कुछ दिन ये भी मौलवी के रूप में रहे। ये औरंगजेब एवं परवर्ती मुग़ल शासकों के समकालीन थे। बुल्लेशाह ने कसूर में हजरत गुलाम मूर्तजा सरीखे ख्यातनाम उस्ताद से शिक्षा पाई। बुल्लेशाह सैय्यद वंश से सम्बंधित थे। ये कादरी शत्तारी संप्रदाय में  दीक्षित हुए। शाह इनायत को इन्होनें अपना गुरु माना। शाह इनायत अराईं  जाति के थे। मुस्लिम समाज में अराईं जाति निम्न समझी जाती है। बुल्लेशाह ने शाह इनायत को गुरु मानकर जाति प्रथा की रूढ़ि को तोड़ने का क्रांतिकारी कदम उठाया। उनके बारे में गुरु को मनाने हेतु कंजरी बन कर नाचने की कथा प्रचलित है।

18वीं शताब्दी के आसपास भारत पर नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमणों से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक जीवन क्षत-विक्षत हुआ। बुल्लेशाह ने इसकी अभिव्यक्ति अपने साहित्य में की है उन्होंने आम जनमानस के दुख-दर्द को उकेरा है। इनकी कविता में तत्कालीन राजनीतिक वर्ग, धर्म (काजी मुल्ला पंडित का वर्चस्व) और साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रति आक्रोश एवं प्रतिरोध है। इन्होंने सामाजिक पितृसत्तात्मक उच्चता के विरुद्ध बात की है तथा स्त्री जीवन के दुख-दर्द को अपनी कविता में जगह दी है। स्त्रियों के सुख-दुख से वे वाकिफ थे। स्त्री जीवन की परेशानियों, उनके हृदय पक्ष को  खूब उभारा है। स्त्री के बेटी, पत्नी, माँ रूप के प्रति  करुणा व्यक्त की है। उदाहरण -

“रंगि बिरंगी सूल अपुने चमड़ि जावण जैनू

इथों दे दुख नाले जांदे, अगले सउपां कैनू,

ससि निणाना देवण ताने, वडी मुसीबत मैनू”।।2  

        भाव यह है कि मेरे जीवन में कई प्रकार के दुख हैं ये दुख ससुराल पहुँचने पर बढ़ जाएंगे। मायके में मेरा दुख समझने वाले लोग हैं पर ससुराल में दुखों को कोई नहीं समझेगा, कोई हमदर्दी नहीं जताएगा। उलटा,  सास और ननद  मुझे ताने देगी।

इस संबंध में विनोद शाही लिखते हैं “बुल्लेशाह का इश्क पितृसत्ता के अंतर्विरोधों से जूझता-टकराता मानव समाज के सभ्यतामूलक इतिहास के मातृसत्ता वाले दौर के बुनियादी रूपों को फिर से जीने लायक बनाने की हद तक गहराता है; लोकजीवन की सहज और संघर्षों पीड़ाओं से भरी दुनिया के भीतर से आत्मवान होने की शिद्दत भरी चाहत के साथ हमारा हमकदम होता है”।3  

बुल्लेशाह ने सूफ़ियों  के भारतीय रूप को अपनाया। उनकी कविता में वैचारिक एवं  काव्य शैली के स्तर पर सूफ़ी विचारधारा के साथ-साथ भारतीय परंपरा का प्रभाव है। बुल्लेशाह की साधना पद्धति सूफ़ियों  की है जिस पर भारतीय योग का प्रभाव है। लेकिन इनका योग हठयोग की तरह जटिल नहीं है, सरल है जो नफ़्स पर नियंत्रण करता है।  उदाहरण के रूप में बुल्लेशाह की काफ़ी है -

“इस वेहड़े दे नौ दरवाजे

दसवां गुप्त रखाती

इस वेहड़े विच चरखा रहंदा

ओलहे  दे विच ताकी”।4   

अर्थात इस गाँव (शरीर) के नौ दरवाजे (दो नेत्र, दो कान, दो नथुने, एक मुख और प्रसव एवं अपनयन अंग) हैं। ये नौ दरवाजे आत्मा के शरीर और संसार में कार्यशील होने के लिए हैं। दसवां द्वार गुप्त है यह दसवां द्वार ही आंतरिक रुहानी जगत की और खुलता है। दसवां द्वार ही आत्मा का वास्तविक द्वार है। नौ द्वारों में भटक रही आत्मा दसवें दरवाजे तक नहीं पहुँच पाती। अत: योग द्वारा देह, मन को नियंत्रित करके दशम द्वार तक पहुंचा जा सकता है। कई काफ़ियों में बुल्लेशाह ने शरीर को ‘ठाकुरद्वारा’ भी कहा है।

इन्होंने मानवीय समता, प्रेम, भाईचारे, सद्भवना पर बल दिया। बुल्लेशाह ने हिन्दू एवं मुस्लिम दोनों धर्मों में प्रचलित कर्मकांडों, रूढ़ियों, मूर्तिपूजा, काजियों, पंडितों के प्रति विरोध जताया है। प्रभु प्राप्ति के लिए पाक रूह तथा साफ नीयत होना आवश्यक है।

 बुल्लेशाह ने सबसे पहले अपने भीतर से जातिबोध, धर्मबोध, लिंगबोध को खत्म किया। ये ऊंची जाति के थे लेकिन इन्होंने जाति की उच्चता के एहसास को अपने भीतर से निकाल दिया और स्वयं को किसी विशेष भी धर्म, जाति की केटेगरी में नहीं रखा। बुल्लेशाह कहते  हैं-

“ना हम हिन्दू ना तुर्क जरूरी

नाम इश्क दी है मंजूरी

आशक ने हरि जीता”।5   

या

“बुल्ला की जाणा मैं कौन,

ना मैं मोमिन विच्च  मसीतां,

ना मैं विच्च कुफ़र दियां रीता,

ना मैं पाक ओं विच पलीता”।6

बुल्लेशाह स्वयं मुस्लिम घराने से थे। उन्होंने पैगंबर मुहम्मद, उनके रसूलों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है। इसके अतिरिक्त उन्होंने हिन्दू देवताओं के प्रति भी श्रद्धा जताई है अपने इष्ट को इन्होंने कृष्ण या श्यामसुंदर कहकर संबोधित किया है। इन्होंने सिख गुरुओं के प्रति भी  सच्ची श्रद्धा व्यक्त की है। बुल्लेशाह की लोक प्रसिद्ध सूक्ति है जो गुरु गोबिन्द सिंह के प्रति महान श्रद्धान्जलि की सूचक है-

“ना कहूँ जब की, ना कहूँ तब की,

बात कहूँ मैं अब की,

अगर ना होते गुरु गोबिन्द सिंह,

सुन्नत होती सब की”।7  (मैं अतीत की बात नहीं करता। मैं तो वर्तमान की बात करता हूँ। यदि गुरु गोबिन्द सिंह नहीं होते तो हर व्यक्ति को इस्लाम में बदल दिया जाता)

बुल्लेशाह ने प्रेम पर सबसे अधिक बल दिया है। प्रेम ही जीवन का सार है। जाति, धर्म, लिंग,  छोटा-बड़ा, अलग मानसिकता, विचारधारा सब कुछ की उलझनों को छोड़कर इंसान को इंसान से प्रेम करना चाहिए। कोई भी धर्म, जाति इंसान की इंसानियत से बड़ी नहीं है। इंसान को एक दूसरे के लिए विनम्र बने रहना चाहिए एक दूसरे के दुख-दर्द को समझना, भावनाओं, सम्वेदनाओं की कदर करनी चाहिए। इंसान दूसरे इंसान से प्रेम करके ही अल्लाह से प्रेम कर सकता है। 

भारत में आकर सूफ़ियों ने जिस चीज़ को अनायास स्वीकार किया वह है संगीत। सूफ़ियों में संगीत सभाओं को ‘समाअ’ कहा जाता था। कुछ सूफ़ी (नक्शबंदी) संगीत को नहीं मानते जबकि अन्य संप्रदायों ने अल्लाह की रहमत, विरह, तादात्मय संबंधी गीत गए हैं। बुल्लेशाह ने कहा कि नाचना भी इबादत बन जाता है अगर नाचने का चज्ज (तरीका) हो। बुल्लेशाह की कविता की लोकप्रियता उसकी संगीतम्यता है। इनके गीतों में मादन भाव की अधिकता है।  इनके प्रेम में भावावेश अधिक है।

भारत आकर सूफ़ियों पर भारतीय लोक संस्कृति एवं लोकदर्शन का प्रभाव पड़ता है। पंजाबी सूफ़ियों की पृष्ठभूमि भारत का उत्तर पश्चिमी प्रांत है पंजाब में सूफ़ी कविता पंजाबी लोक से गुलमिल जाती है। जिस कारण पंजाबी सूफ़ी कविता अन्य भारतीय भाषाओं की सूफ़ी कविता से भिन्न है। बुल्लेशाह की कविता में पंजाबी संस्कृति की अभिव्यक्ति मुखर रूप से हुई है। बुल्लेशाह की कविता लोक जीवन से अधिक निकट है। जन मानस की मान्यताओं, दुख -दर्द, समस्याओं, उनकी खुशिओं का उन्हें ज्ञान व अनुभव था।

बुल्लेशाह की कविता में भाषिक स्तर पर बहुत संश्लेषण हुआ है इनकी भाषा अरबी, फारसी, सिन्धी, मुल्तानी मिश्रित पंजाबी है। काव्यशास्त्र का इन्हें ज्ञान नहीं था लेकिन इन्होंने अपने अनुभवों को इतनी सरलता, सहजता व गहराई से कहा है कि इसी सरलता, सहजता में विद्वता व प्रौढ़ता है। इनकी कविता में मुहावरे, प्रतीक, शब्दावली पंजाबी लोक जीवन से संबंधित हैं। इनकी भाषा व प्रतीकों में गहराई, सूक्ष्मता व अनुभव की व्यापकता है। इस प्रकार पंजाबी भाषा के रूपकों की गहराई ने इनकी भाषा को अधिक प्रभावित बनाया है।

पंजाबी सूफ़ी कवियों की प्रतीक योजना फारसी और हिन्दी सूफ़ी कवियों से भिन्न है। इनमें नायिकाएं प्रेमी का प्रतीक हैं जो नायक (प्रियतम) रूपी रहबर को प्राप्त करना चाहती हैं।  जबकि फारसी एवं हिन्दी  प्रेमाख्यानों में नायिका (रहबर) माना गया है और नायक को प्रेमी। बुल्लेशाह ने पंजाबी लोक को आधार बनाकर प्रतीक रचे हैं। चरखा, त्रिजण (चरखा कातने का स्थान) इनका प्रिय प्रतीक है। लड़की के जीवन को प्रतीक बनाया है। लड़की का मायके से ससुराल जाना लोक से परलोक जाना है। आवश्यक है कि लड़की अपने लिए दहेज (अच्छे कर्म ) सहेजे। ताकि आने वाले समय में उसे चिंता न सताए। जो मौज मायके में है वह उसे ससुराल में नहीं मिलेगी। मायके में उसके अपने लोग है लेकिन ससुराल में बेगाने मिलेंगे जितना हो सके सियाने लोगों से अच्छी मत (शिक्षा) ले।

बुल्लेशाह ने पंजाबी प्रेम कथाओं के पात्रों को प्रतीक रूप में ग्रहण किया है। जो अंतत: अपनी सुधि भूलकर फ़ना (तन्मयता) की स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं। उदाहरण -

“रांझा रांझा करदी नी, मैं आपे रांझा होई।

सद्दो मैनू धीदो रांझा, हीर न आखो कोई।

रांझा मैं विच मैं रांझे विच, होर खियाल न कोई।

मैं नहीं ओ आप है, अपने आप करे दिलजोई”।

रांझा रांझा करदी नी, मैं आपे रांझा होई”।8   

अर्थात हीर कहती है- “राँझे का नाम लेते लेते मैं खुद रांझा हो गई हूँ”। यही आत्मरूपांतर की स्थिति है।

विनोद शाही इस संबंध में लिखते हैं- “रब्ब ही स्त्री है वही पुरुष सूफ़ी विचारधारा में न स्त्री के लिए पुरुष मंजिल है, न पुरुष के लिए स्त्री; अपितु दोनों के लिए उस परम सत्य में फना होने की शर्त है, जिसके बाद दोनों पाते हैं कि वह ईश्वर खुद स्त्री और पुरुष बनकर एक दूसरे को रिझाता है - सस्सी दा दिल लुट्टण खातर, आप पुन्नु बन आया है”।9 बुल्लेशाह की यह प्रतीक योजना या फ़ना की स्थिति हिन्दी निर्गुण कवियों के अधिक निकट है। इनकी कविता में कृष्ण (ईश्वर), गोपी (साधक) और बाँसुरी (प्रेम चिंगारी) प्रतीक रूप में चित्रित है। मंसूर आत्मसमर्पण का प्रतीक है।

निष्कर्ष : भक्ति आंदोलन का प्रचार प्रसार समस्त भारत में हुआ। भारत की कई भाषाओं एवं बोलियों में भक्ति साहित्य लिखा गया। अलग भाषाओं एवं क्षेत्रों के भक्ति साहित्य में दर्शन, साधना पद्धति संबंधी समानता है। बुल्लेशाह की कविता में नीति, प्रेम, भाईचारे संबंधी उपदेशात्मकता है। इन्होंने सभी प्रकार की संकीर्णताओं को मिटाकर प्रेम, परस्पर सहयोग, शांति और भाईचारे का संदेश दिया। इनकी विचारधारा का बहुत अधिक प्रभाव परवर्ती वैष्णव एवं  निर्गुण कवियों पर भी पड़ा है। पंजाबी लोक भाषा में साहित्य सृजन कर इन्होंने पंजाबी भाषा एवं पंजाबी संस्कृति को अधिक समृद्ध किया है। बुल्लेशाह लोकप्रिय सूफ़ी कवि हैं। बड़ी बात, ये भारत एवं पाकिस्तान की साझी विरासत के कवि हैं। जिनकी काफियों, दोहों को पंजाबी, हिन्दी, डोगरी गुजराती, हरियाणवी में अलग अलग धुनों में गया जा रहा है।[1]

 संदर्भ :
1.    [1] Tarachand, Influence of Islaam on Indian Culture, The Indian Press, Allahabad. page141
2.    ‘बुल्ले शाह', बख्शीश सिंह, सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2014, पृष्ठ संख्या 88
3.    ‘बुल्लेशाह समय और पाठ', विनोद शाही, आधार प्रकाशन हरियाणा, संस्करण 2012, पृष्ठ संख्या 68
4.     वही, पृष्ठ संख्या 196
5.    वही, पृष्ठ संख्या 94
6.    ‘बुल्ले शाह’, संपादक आरिफ़ रिज़वी, नेहा पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2022, पृष्ठ संख्या 132
7.    ‘बुल्लेशाह', सुरिन्दर सिंह कोहली, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, संस्करण वर्ष 2015, पृष्ठ संख्या 27
8.    ‘बुल्लेशाह जीवन और रचना’, सं. गुरदियाल सिंह ढिल्लों, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, 2006, पृष्ठ संख्या 129
9.    ‘बुल्लेशाह समय और पाठ', विनोद शाही, आधार प्रकाशन हरियाणा, संस्करण 2012, पृष्ठ संख्या 68

 

मंजना कुमारी
शोधार्थीहिन्दी विभागकाशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
manjnanangla@gmail.com


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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