ब्रज में श्री कृष्ण के माहात्म्य के विषय में भक्त कवि सूरदास जी ने लिखा है -
धन्य धन्य सो भूमि, जहाँ बिहरे बनवारी।"
'ब्रज' शब्द संस्कृत तत्सम रूप 'व्रज' से बना है, जिसका अर्थ गतिशीलता से है। डॉ. दीनदयालु गुप्त जी ब्रज के संबंध में लिखते हैं कि, " 'ब्रज' शब्द का अर्थ है, 'ब्रजन्ति गावो यस्मिन्निति ब्रज:' जिस स्थान पर नित्य गायें चलती हैं अथवा चरती हैं, उस स्थान को ब्रज कहते हैं। ब्रज को कृष्णभक्त 'गोलोक' भी कहते हैं।" - 1 वेदों से लेकर पुराणों तक में ब्रज का सम्बध गायों से वर्णित किया गया है। चाहे वह गायों को बांधने का बाडा हो, चाहे गोशाला हो, चाहे गोचर भूमि हो और चाहे गोप-बस्ती हो।
ब्रज संस्कृति के प्रवर्तक श्रीकृष्ण थेI उन्हें गोपाल का नाम दिया गयाI गोपाल ही इसके परमोपास्य हैं । ब्रज में गोपाल-कृष्ण ने गायों के साथ अपना अधिक समय व्यतीत किया I गायों का पोषण करना, वन में विचरण करना, गौ-गोप-गोपियों के साथ अनेक प्रकार की लीलाएं करना I यह संस्कृति मूलतः धार्मिक संस्कृति है तथा इस संस्कृति को साहित्य और कला का विशेष योगदान प्राप्त हुआ है I माधुर्यपूर्ण ब्रज, श्रीकृष्ण की लीलाभूमि है I अनेकानेक संतों व भक्त कवियों ने इस माधुर्य का रसास्वादन कर साहित्य की रचना की है I इनका साहित्य इसका साक्ष्य है I
इस सामान्य विवेचना के उपरांत अब हम उन तत्वों की ओर भी निगाह करते हैं, जिनसे यह ब्रज- संस्कृति बनी है। जब हम ब्रज- संस्कृति का नाम लेते हैं, तो स्वभावतः हम ब्रज की उन क्षेत्रीय परंपराओं को ध्यान में रखते हैं, जिनमें यहाँ के रीति- रिवाज, परंपराएँ, उत्सव, पर्व, वेश-भूषा, विविध कलाएं सभी सम्मिलित हैं, जो ब्रज संस्कृति को स्वरुप प्रदान करते हैं। ब्रज की संस्कृति यद्यपि एक क्षेत्रीय संस्कृति रही है, परंतु यदि इतिहास के आधार पर हम इसके विकास की चर्चा करें तो हमें ज्ञात होगा कि यह संस्कृति प्रारंभ से ही संघर्षशील, समन्वयकारी और अपनी विशिष्टताओं के कारण क्षेत्रीय होते हुए भी सार्वभौमिक व उदात्त रही है।
उत्सव मानव की संस्कृति के मुखर रूप हैं। संस्कृति बाह्य रूप में उत्सव, त्योहार, पर्व, विविध कलाओं के माध्यम से प्रकट तो हो सकती है लेकिन ये मानव का आन्तरिक गुण है। वसुधैव कुटुंबकम' और 'विश्व बंधुत्व' के उदात्त विचार भारतीय संस्कृति की विशेषता उद्घोषित करते रहे हैं। संस्कृति के विषय में अगर रामविलास शर्मा जी के विचारों को देखें तो उनके अनुसार,"संस्कृति एक व्यापक शब्द है। उसके अंतर्गत मनुष्य का आचरण, उसका भावजगत, विचारधारा, साहित्य, कला, विज्ञान - ये सभी आ जाते हैं। ब्रह्म की तरह संस्कृति व्यक्त और अव्यक्त दोनों है। वाल्मीकि और व्यास के महाकाव्य, अजंता और एलोरा का शिल्प, स्थापत्य और चित्रकारी, त्यागराज और तानसेन का संगीत ये सब संस्कृति के अंग हैं और वह 'उल्लास' जो दीपावली के प्रकाश में फूट पड़ता है वह शूरता जो 1857 और 1946 के विद्रोहों में प्रकट हुई थी,J शांति और न्याय का वह प्रेम जो आज कोटि कोटि भारतीय जनता को सोवियत और चीन के साथ विश्व शांति की रक्षा के लिए आगे बढ़ा रहा है यह सब भी संस्कृति के अंग हैं। ...अनेक विभिन्नताओं में एकता की अनुभूति - यह भारत की सांस्कृतिक विशेषता प्रसिद्ध है। " - 2
ब्रज को सांस्कृतिक केंद्र के रूप में देखते हुए आद्याप्रसाद त्रिपाठी जी लिखते हैं कि, "ब्रज प्रदेश अनेक शताब्दियों से धर्म और संस्कृति का केंद्र रहा है। ब्रज संस्कृति अपने समन्वित रूप में मध्य देश की अत्यंत प्राचीन और प्रभावशालिनी संस्कृति है।....अपने इस प्राचीन सांस्कृतिक महत्व को ब्रज ने अपने जीवन के स्पंदन के समान सुरक्षित रखा है। ब्रज संस्कृति क्षेत्रीय संस्कृति है, जिसकी मौलिक विशेषताएं भाषा, धर्म और कला के क्षेत्र में पृथक अस्तित्व बनाती दृष्टिगोचर होती हैं। ब्रज - संस्कृति में सामान्य भारतीय संस्कृति की प्राय: वे सभी विशेषताएं आ गई हैं, जिनके कारण भारतीय संस्कृति को विश्व की संस्कृतियों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। समन्वय-भावना, सहिष्णुता, विनय, विकासशीलता, सर्वांगीण उदारता, प्रेम के प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण, जीवन के प्रति उदात्त भावना और आध्यात्मिक मनोवृत्ति आदि ब्रज - संस्कृति की वे मुख्य विशेषताएं हैं, जो भारतीय संस्कृति के प्रमुख तत्वों से स्पंदन प्राप्त करती रहती हैं।" - 3
ब्रज में पुष्टिमार्ग की सेवा पद्धति में उत्सवों का प्रकार निम्नानुसार है - नित्योत्सव, नैमित्तिक उत्सव, वर्षोत्सव, महामहोत्सव। पुष्टिमार्ग के अंतर्गत बालकृष्ण को जगाने से लेकर सुलाने तक की बड़ी सुंदर व्यवस्था है जिसे 'नित्योत्सव की सेवा' कहते हैं।
१. नित्योत्सव -
नित्योत्सव की आठों झाँकियों के समय निश्चित हैं; और उनमें गाये जाने वाले कीर्तन-पदों के सामयिक रागों की भी निश्चित व्यवस्था है। यहाँ पर उनका उल्लेख किया जाता है -
झाँकी - समय - राग
1.मंगला - प्रात: 6 से 7 बजे तक - ललित, भैरव, विभास
2. शृंगार - प्रात: 7 से 8 बजे तक - बिलावल, रामकली
3. ग्वाल - प्रात: 8 से 9 बजे तक - देवगन्धार, तोड़ी
4.राजभोग - पूर्वाह्न 10 से 12 बजे तक - आसावरी, सारंग
5. उत्थापन - अपराह्न 3 से 4 बजे तक - धनाश्री, भीमपलासी
6. संध्या भोग - सायं 4 से 5 बजे तक - गौरी, पूरिया, पूर्वी
7. संध्या आरती - सायं 5 से 6 बजे तक - श्री, जैतश्री
8. शयन - रात्रि 6 से 7 बजे तक - यमन, विहाग, केदारा
२. नैमित्तिक उत्सव - किसी निमित्त (विशेष कारण) को लेकर जो उत्सव मनाया जाता है उसे नैमित्तोत्सव कहते हैं।
3. वर्षोत्सव (पार्वणिकोत्सव ) - वर्षोत्सव की सेवा में सभी ऋतुओं के आयोजनों, अवतारों की जयंतियों, लोक-त्यौहारों तथा वैदिक पर्वों से संबंधित उत्सवों के पदों का समावेश है। इन उत्सवों में विभिन्न रागों का प्रयोग किया गया। बधाई, नाल छेदन के पद देवगन्धार में। रास, हिन्डोरा, मुरली के पद राग भैरव में। अन्नकूट, गोवर्धन पूजा, गोचारण, ब्याह के - पद राग बिलावल में।
४. महामहोत्सव - इसके अंतर्गत नंद महोत्सव, जन्माष्टमी,अन्नकूटोत्सव आदि उत्सव आते हैं।
ब्रज संस्कृति के अंतर्गत भारतीय संस्कृति के सोलह संस्कार भी अपने प्रादेशिक रूप में देखने को मिलती हैं। पुंसवन, जन्म, नाल छेदन, छठी, नामकरण, अन्नप्राशन, कर्ण छेदन, प्रथम गोचरण, उपनयन, विवाह, अंत्येष्टि आदि अनेक संस्कार तथा प्रथाएं ब्रज संस्कृति की भी महत्वपूर्ण अंग बनी हुई हैं। सोलह संस्कारों में जात-कर्म संस्कार पर सूरदास जी ने श्री कृष्ण के जन्म के पूर्व माता देवकी के शारीरिक परिवर्तन का चित्रण करते हुए लिखा है -
"हरि के गर्भवास जननी को बदन उजारो लाग्यौ"
भारतीय मान्यतानुसार बालक के जन्म से छठे दिन ब्रह्मा जी जीवन भर के सुख-दु:ख का लेख लिख देते हैं। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन मनुष्य के भाग्य का निर्माण होता है जो कि अमिट है। इस दिन शिशु व माता को स्नान कराकर सूर्यदर्शन कराए जाते हैं। शिशु की बुआ नवजात शिशु को आंखों में काजल लगाती है, जिसका उसे नेग दिया जाता है। श्री कृष्ण की छठी पर इसी परंपरा का उल्लेख करते हुए सूरदास जी लिखते हैं -
"काजर रोटी आनहू करो छठी को चार"
पुत्र जन्म पर जिस प्रकार बधाई गाने की प्रथा है उसी प्रकार पुत्री के जन्म पर 'सोहिल' गाया जाता है। श्री राधा के जन्म की खुशी में 'सोहिल' गाने का उल्लेख करते हुए कुंभनदास जी लिखते हैं -
"अरी माई प्रकटी आनंदकली लल्ली जू को सोहिल"
ब्रज संस्कृति में भारतीय संस्कृति के पर्व उत्साह तथा त्योहारों का भी अपनी कतिपय प्रादेशिक विशेषताओं के साथ समावेश हुआ है। पर्वोत्सव के साथ छह ऋतु के आधार पर भी ब्रज में उत्सवों की व्यवस्था है। अनेक पर्व उत्सव के अवसर पर वाद्य और नृत्य का आयोजन ब्रज में होता है। ब्रज के अष्टछाप कवियों ने अपने पदों में षट ऋतुओं का वर्णन किया है। ऋतुओं से रागों का सम्बन्ध -
षटऋतु -
मास - उत्सव - राग
वसंत - चैत्र - बैशाख - डोल - हिण्डोल
ग्रीष्म - ज्येष्ठ - आषाढ़ - फूल मंडली - सारंग
पावस - सावन - भादौ - हिंडोरा - मेघ
शरद - क्वार - कार्तिक - रास - श्री
हेमंत - अगहन - पौष - देव प्रबोधिनी - मालकोस
शिशिर - माघ - फाल्गुन - होली - काफी
इन उत्सवों में ब्रज का संपूर्ण रूप प्रकट होता है। यही उत्सव वे कारण हैं कि विश्व आज भी ब्रज की संस्कृति की ओर निगाह रखता है। ब्रज भूमि की सांस्कृतिक समृद्धि के विषय में प्रभुदयाल मीतल लिखते हैं कि, "किसी भी देश, जाति और समाज की सजीवता समृद्धि और उसके सुखी जीवन का ठीक-ठाक अनुमान उसके उत्सव त्योहार और मेलों से लगाया जा सकता है। समाज जितना अधिक उत्सव प्रिय होगा वह उतना ही अधिक सुखी समृद्ध और संपन्न भी होगा। हमारा देश सदा से अपने उत्सव समारोहों के लिए प्रसिद्ध रहा है। यही बात हमारी सांस्कृतिक समृद्धि की सूचक है।" - 4
उत्सव व विविध कलाएं ब्रज-संस्कृति का अविभाज्य अंग हैं। ब्रज के सांस्कृतिक उपकरणों की ओर ध्यान देने पर ज्ञात होता है कि इसके प्रमुख आधार हैं- ब्रज की गौ-संस्कृति, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, ब्रज जन-जीवन के आचार-विचार, साथ ही साहित्य और कला I इस संस्कृति की उन्नति और समृद्धि में सहायक हैं- वहां के मन्दिर, विविध वैष्णव संप्रदाय, उत्सव, रास लीला व अन्य कलाएंI संस्कृति एवं साहित्य के साथ - साथ कला का भी केंद्र अत्यंत पुरातन काल से ब्रज वसुंधरा ही है। जिस ब्रजभूमि में वेणुधर नटवर नागर कृष्ण जन्में हों, जिस ब्रज में उनकी मुरली के स्वर गूँजे हों, जिस ब्रजधाम के कुँजों में महारास हुआ हो उस ब्रजधरा का प्रभाव भारतीय संगीत पर न पड़ा हो, यह कैसे संभव हो सकता है ? कहना न होगा कि ब्रज तो भारत की सांस्कृतिक आत्मा है। मुकुंद लाठ जी ने संगीत को संस्कृति की पहचान कहा है।
छीत स्वामी के पदों में स्वर, सरगम, रागों आदि का उल्लेख -
ब्रजराज तरुनि गावत री, अति गति यति भेद सहित
ता न न ना न न न न न न न न अति गति असलीने।"
उत्तर भारत में 13वीं-16वीं सदी के भक्ति-आंदोलन के समय ब्रजममंडल में श्रीकृष्ण भक्ति के पांच वैष्णव संप्रदायों का उदय हुआ था। जिनमें से वल्लभ सम्प्रदाय, चैतन्य सम्प्रदाय, निम्बार्क संप्रदाय, हरिदासी सम्प्रदाय तथा राधावल्लभ सम्प्रदाय प्रतिष्ठित हैं और इनके अनुयायियों के मंदिर ब्रजमंडल में विद्यमान है। यद्यपि भक्ति- आंदोलन के अधिकांश आचार्य दक्षिण से पधारे थे, परंतु उन सबने प्रेरणा ब्रज से ही प्राप्त की और अपने केंद्र भी ब्रज में ही बनाए। रामानुज संप्रदाय की पहली गद्दी उत्तर भारत में गोवर्धन में ही स्थापित हुई। वल्लभ ने जतीपुरा और गोकुल को अपना केंद्र बनाया। माधुर्य भक्ति के स्वामी हरिदास, हित हरिवंशजी व बुंदेलखंड को छोड़कर ब्रज में वास करने वाले श्री हरिराम व्यास माधुर्य भक्ति के कर्णधार थे। चैतन्य महाप्रभु तथा उनके शिष्यों ने वृंदावन व राधाकुंड को अपना केंद्र बनाया और इन सभी ने मिल कर अपने- अपने ढंग से ब्रज की भक्ति भावना के विकास, प्रचार और प्रसार में योग देकर पूरे देश के निराशा के वातावरण में प्रेम, आस्था व आशा का संचार करके एक मृत संजीवनी संस्कृति को विकसित किया जो ब्रज- संस्कृति कहलाई। इसी कारण ब्रज की संस्कृति क्षेत्रीय न रहकर एक बार पूरे देश के आकर्षण व प्रेरणा का स्रोत बन गई। इन संतों ने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिए स्थानीय नृत्य ताल एवं सांगीतिक पद्धति का प्रयोग करते हुए कई नाट्य रूपों को जन्म दिया।
आज भी हम कला समृद्धि के सन्दर्भ में मध्यकालीन परम्पराओं व ब्रज की संस्कृति के ऋणी हैं। मंदिर हमारी संस्कृति के केंद्र रहे हैं। वहां नृत्य, गान, रास, चित्रकारी आदि कलाएँ पुष्ट होती थी। Meilu Ho लिखते हैं , "Poetry, theater, dance, painting and not least music have been inspired by stories in primary vaishnava text, the ninth - century Bhagavata purana." - 5
ब्रज की संस्कृति तो वैष्णव धर्म की आधारशिला ही है। आद्याप्रसाद त्रिपाठी जी लिखते हैं कि, "इस प्रदेश की भाषा ब्रजभाषा है, जो अपनी माधुरी के कारण लगभग 400 वर्षों तक हिंदी साहित्य की काव्य - भाषा के रूप में ग्रहीत रही है।.... विष्णु के अवतार कृष्ण की उपासना और भक्ति के रूप में इस वैष्णव धर्म को शताब्दियों से ब्रज में पोषण प्राप्त होता रहा है। सच तो यह है कि ब्रज - प्रदेश वैष्णव संस्कृति का सुदृढ़ केंद्र रहा है।" - 6
रास के पदों का नृत्य- नाट्यात्मक प्रदर्शन 'रासलीला' कहलाता है। वल्लभाचार्य जी के आदेश पर घमंडदेवजी ने रासलीला के नाट्यात्मक प्रदर्शन की परम्परा का प्रवर्तन किया। इस सम्प्रदाय में रासलीला का अभिनय करने के लिये रासधारियों के घराने और उनकी रास-मंडलियाँ गठित हुईं। करहला की रास-मंडलियाँ बल्लभ सम्प्रदायी थीं। उनकी रचनाओं में रास संबंधी अनेक पद उपलब्ध हैं। अभिनेता बालक 'स्वरूप' कहे जाते थे। वे बालक कृष्ण, राधा और गोपियों का रूप बना कर लीला के अनुसार अभिनय करते थे। प्रभुदयाल मीतल लिखते हैं कि, " उसी काल में ' रास' जैसे सशक्त कला रूप का पुनरुद्धार किया गया; जिसमें संगीत ( गान, वाद्य एवं नृत्य ) और नाट्यादि सभी कलाओं का समाहार हो गया।" - 7
रास पर कृष्ण दास का एक पद देखिए -
ता थेई ता थेई ततता थेई थुंगनि तटकित तारी।
श्री राधा एक तरजत मिलवत लेत आलाप सप्त स्वर भरी।
कृष्णदास नट ' नाट्य ' रासिकवर कुशल केलि श्री गोवर्धन धारी।"
वैष्णव कीर्तन मंडलियों में गायन के साथ नर्तन का चलन अब तक बना हुआ है। अष्टछाप व अन्य संप्रदाय के कवि नृत्य-कला में भी पारंगत थे। इनके काव्य में 'रास' और 'तांडव' नृत्य का उल्लेख मिलता है। डॉ. रामविलास जी लिखते हैं कि, "नृत्य का सबसे विस्तृत वर्णन और अनेक प्रकार के नृत्यों का वर्णन सूरदास के पदों में है। ऐसा लगता है, गायन कला की तरह नृत्य कला के संरक्षक भी भक्त कवि थे।" - 8
ब्रज संस्कृति के साथ राजपूत-शैली और मेवाड़ की कला का भी सुन्दर समन्वय हो गया। पुष्टिमार्गीय चित्रों में कृष्ण-लीला के असंख्य चित्र मिलते हैं, जिनमें व्यक्ति चित्रण के साथ प्रकृति चित्रण और लोक-जीवन का अंकन भी है। संप्रदायों के चित्रों में कृष्ण-लीला के असंख्य चित्र मिलते हैं। भगवान श्री कृष्ण कलानिधि थे, चौसठ कलाओं के ज्ञाता थे, अतएव उन्होंने ब्रज के लोगों को कलानुराग का पाठ पढ़ाया। ब्रज एक वन्य प्रदेश, अनेक वृक्ष, लता और पुष्पों से युक्त ललित प्रदेश रहा है। इसी से यहाँ के लोकमानस पर वन और उपवनों में आनंद लेने का स्वभाव रहा है। यहाँ की स्थापत्य कला में बेलबूटेदार जालियाँ, तोरण और द्वार देखने को मिलते हैं। ब्रज की एक ललित कला का नाम 'सांझी' है।
कृष्णोपासना के विभिन्न संप्रदायों के भक्तों ने ब्रज की संस्कृति और कृष्ण के महत्व के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट की है। भक्त कवियों ने ब्रज संस्कृति को उसकी समग्रता में देखा और अपने साहित्य में कृष्ण को केंद्र में रख कर ब्रज की संस्कृति का चित्रण किया है। मंदिरों में विकसित और संवर्धित होने वाली कलाओं के विषय में रामविलास जी लिखते हैं कि, "स्मरणीय है कि इटली की मूर्ति - चित्रकलाएं वहां के भव्य गिरजाघरों में विकसित हुई थीं। प्रोटेस्टेंट यूरोप के पास इनके समकक्ष कुछ भी नहीं है। उनकी तुलना केवल भारत के मंदिरों में विकसित होने वाली कलाओं से की जा सकती है।" - 9
ब्रज में विकसित होने वाले संगीत के स्वरूपों के विषय में guy L. Beck ने लिखा है, "In Braj, Vaishnava groups such as the Vallabha, Radhavallabha, Nimbarka, Haridasi sects fostered music known as 'Haveli - Sangita' and 'Samaj - Gayan' in Braj Bhasha." - 10
वैष्णव संप्रदाय के अंतर्गत श्री कृष्ण की विनय और लीलाओं से संबंधित पदों के गायन की जो पद्धतियां थी उनमें हम देखते हैं कि वल्लभ संप्रदाय में गायन की जो पद्धति थी वह 'कीर्तन' कहलाई। आजकल इस पद्धति के गायन को आकाशवाणी द्वारा 'हवेली संगीत' कहा जाता है। जिस प्रकार 'कीर्तन' शब्द वल्लभ संप्रदाय की गान पद्धति के लिए रूढ हो गया है उसी प्रकार 'संकीर्तन' शब्द चैतन्य संप्रदाय की गायन पद्धति का वाची है। निंबार्क संप्रदाय की रचनाएं गेय हैं और वे राग एवं तालों के नामोल्लेख सहित उपलब्ध होती हैं। राधावल्लभीय और हरिदासी संप्रदायों का धार्मिक संगीत 'समाज' का वाची रहा है इसे 'संगीत - समाज' न कह कर केवल 'समाज' कहा जाता है। हरिदास संप्रदाय के अंतर्गत हम देखते हैं कि स्वामी हरिदास जी के काल में ग्वालियर सहित समस्त ब्रजमंडल में राग संगीत की उस गायन शैली का प्रचार था जिसे ध्रुपद कहा जाता है।
धमार का जन्म ब्रज भूमि के लोक संगीत में हुआ। धमार की गायकी का वर्ण्य -विषय श्री राधा-कृष्ण की होली-लीला होता है, और इसे अधिकतर होली के अवसर पर ही गाया जाता है ; अत: इसके गीतों को 'होरी-धमार' भी कहते हैं। ब्रज की होली सदा से प्रसिद्ध रही है। फाल्गुन के पूरे महीने भर ब्रज के मंदिरों में भक्त गायकों और संगीतज्ञों द्वारा होरी-धमार के पदों का गायन होता था। इस प्रकार संगीत तो ब्रज संस्कृति का प्राण तत्व ही है। आनंद और उल्लासपूर्ण जीवन के लिए संगीत अनिवार्य है। ब्रज का जनजीवन और ब्रज संस्कृति भी इसी संगीत की सरसता से ओतप्रोत है और इसी कारण ब्रज साहित्य में भी संगीतात्मकता का तत्व प्रधान रूप से दिखाई पड़ता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी का कथन पुष्ट होता है जो उन्होंने संस्कृति के विषय में लिखा है- "मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएं ही संस्कृति हैं।" -11
ब्रज की उत्सवधर्मिता के विषय में प्रभुदयाल मीतल जी ने लिखा है, "भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों की अपेक्षा ब्रज में सदा से ही उत्सव समारोहों की अधिकता रही है। इस संघर्षपूर्ण युग में जब प्रत्येक जन का जीवन अनेक झंझटों में उलझ कर अशांत बना हुआ है, तब भी ब्रज की जनता अपने इन उत्सव त्यौहार और मेलों के कारण ही कुछ आनंद और उल्लास का अनुभव कर लेती है। ब्रज में कोई ऋतु और ऋतु का कोई महीना ही नहीं वरन महीने का भी शायद ही कोई दिन हो जब यहां कोई छोटा बड़ा उत्सव मेला और त्योहार न मनाया जाता हो। इसीलिए ब्रज में 'सात वार, नौ त्यौहार' की लोकोक्ति प्रचलित है।" - 12
ब्रजवासी नृत्य, गायन, आमोद-प्रमोद से परिपूर्ण जीवन जीने के आदी रहे हैं। होली को ही लें, तो यहाँ बसंत पंचमी से प्रारंभ होकर होली का उल्लास आधे चैत तक चलता है। रास, रसिया, भजन, आल्हा, ढोला, रांझा, निहालदे, जिकड़ी के पद यहाँ के ग्रामीण जीवन में भरे हैं, तो नागरिक जीवन में ध्रुवपद- धमार, ख्याल, ठुमरी आदि तथा मंदिरों में हवेली संगीत, समाज- संगीत की अनेक परंपराएँ यहाँ पनपी हैं, जो जीवन को निरंतर कलात्मकता, सरसता और जीवंतता से ओतप्रोत बनाए रहती हैं। स्वांग, भगत व रास ब्रज के ऐसे रंगमंच हैं, जो पूरे उत्तर भारत में लोकप्रिय हैं।
डॉ. दीनदयालु गुप्त जी ब्रज और ब्रज में कृष्ण के महत्व को दिखाते हुए लिखते हैं, "कृष्ण - भक्ति के साथ ब्रज भूमि का अटूट संबंध है। जब से कृष्ण - भक्ति का भारतवर्ष में प्रचार हुआ तभी से ब्रज - मंडल का महत्व भी बढा। कृष्णोपासक लाखों यात्री, संपूर्ण भारत से खिंच कर, ब्रज यात्रा को प्रत्येक वर्ष ब्रज में आते हैं। कृष्णभक्तों के लिए ब्रज की रज, ब्रज के वन, नदी, पहाड़, पशु - पक्षी, पुरुष - स्त्री सभी प्रेमभाव की पुनीतता का उद्रेक करने वाले हैं।" - 13 पौराणिक काल से लेकर वैष्णव सम्प्रदायों के आविर्भाव काल तक जैसे-जैसे कृष्णौ-पासना का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे श्रीकृष्ण के लीला स्थलों के गौरव की भी वृद्धि होती गई।
इस प्रकार हम पाते हैं कि संस्कृति की दृष्टि मानव कल्याण की ओर ही उन्मुख रहती है। उसके रोम-रोम से यही ध्वनि नि:स्रत होती रहती है -
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।"
1. डॉ. दीनदयालु गुप्त, 'अष्टछाप और वल्लभ - संप्रदाय' (प्रथम भाग) (तृतीय संस्करण 1999 ई.), हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग : 5
2. डॉ. रामविलास शर्मा, 'हिंदी जाति का इतिहास' (1986), राजपाल प्रकाशन, दिल्ली : 116
3. आद्याप्रसाद त्रिपाठी, 'सूर - साहित्य में लोक संस्कृति' (प्रथम संस्करण 1967), हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग : 72
4. प्रभुदयाल मीतल, ' ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास' (प्रथम संस्करण 1966), राजकमल प्रकाशन : 229
5. Meilu Ho, 'A True Self Revealed: Song and Play in Pushti Marg Liturgical Service, World of Music 51(2) (2009 Edition)', verlag fur wissenschaft and bildung, : 24
6. आद्याप्रसाद त्रिपाठी, 'सूर - साहित्य में लोक संस्कृति' (प्रथम संस्करण 1967), हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग : 73
7. प्रभुदयाल मित्तल, 'ब्रज की कलाओं का इतिहास' (प्रथम संस्करण 1975), मथुरा: साहित्य संस्थान : 516
8. डॉ. रामविलास शर्मा, ' संगीत का इतिहास और भारतीय नवजागरण की समस्याएँ' (प्रथम संस्करण 2010), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली : 113
9. वही : 113
10. guy L. Beck, 'Hinduism and music' (Edition 2014), Oxford University Press, New York : 362
11. हजारी प्रसाद द्विवेदी, 'अशोक के फूल' : 75
12. प्रभुदयाल मीतल, 'ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास' (प्रथम संस्करण 1966), राजकमल प्रकाशन : 230
13. डॉ. दीनदयालु गुप्त, 'अष्टछाप और वल्लभ - संप्रदाय' (प्रथम भाग) (तृतीय संस्करण 1999 ई.), हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग : 5
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक : अजीत आर्या, गौरव सिंह, श्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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