शंकरदेव के काव्य का स्त्रीपक्ष
- डॉ. अंजू लता
शोध सार : मानवतावाद और सामाजिक समानता के संदर्भ में स्त्री अनादि काल से ही संघर्षरत दिखाई देती है। न्याय-अन्याय के कटघरे में हमेशा से स्त्री को संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा है। यदि हम इतिहास के पन्ने को पलटते हैं तो अलग-अलग दिशाओं में स्त्री प्रताड़ित रही है। समय- समय पर हो रहे सामाजिक परिवर्तनों के साथ ही स्त्री की दशा और दिशा में परिवर्तन हुआ है। इसक्रम में हिंदी साहित्य के स्वर्ण युग के हकदार भक्तिकाल में भी स्त्री को लेकर असंतोषजनक स्थिति देखने को मिलती है। उनकी भवनाओं को सदैव पितृसत्तात्मक दृष्टिकोणों से परखने के कोशिश की गई। भक्तिआंदोलन में प्रारंभ से लेकर अंत तक किसी भी महान हस्ताक्षरों का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ। इस काल में जितने भी कवि हुए या तो वह समाज सुधारक रहे हैं या फिर भक्ति के प्रचार- प्रसार में व्यस्त दिखाई देते हैं। मीरांबाई जैसी कवयित्री ने अपने कविताओं के माध्यम से भक्ति भावनाओं के साथ साथ समाज और परिवार में हो रहे स्त्री जीवन के संघर्ष को दर्शाया है। इनके अतिरिक्त सूर, तुलसीदास, कबीर आदि के काव्य में स्त्री को अस्मिता व सामाजिक स्थिति को लेकर कोई व्यवस्थित विचार प्रस्तुत नही किया गया। इसी तरह भारतीय भक्ति आंदोलन से जुड़े जितने भी कविगण रहे, वह स्त्री जीवन के यथार्थ को उजागर करने में असफल रहे। भक्ति आंदोलन से जुड़े श्रीमंत शंकरदेव ने भक्ति के प्रचार प्रसार के साथ ही स्त्री जीवन संघर्ष व उसके सामाजिक स्थिति को अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं। शंकरदेव अपने प्रिय शिष्य माधवदेव के सहयोग से असम में नव वैष्णव धर्म का प्रचार किया। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन जिसतरह से पूरे भारतवर्ष में एक संगठित विचारधारा का विस्तार कर रहा था उससे कोई भी क्षेत्र अधूता नहीं था। असम के सामाजिक , सांस्कृतिक और धार्मिक परिप्रेक्ष्य में नव वैष्णववाद का प्रभाव परिलक्षित होता है जिसका स्पष्ट स्वरूप हमें शंकरदेव की विभिन्न कृतियों व्यक्त होता है। यह समाज में व्याप्त रूढ़ियों एवं कुरीतियोंदूर करने के साथ ही स्त्री की समानता एव स्वतंत्रता पर भी अपने विचारों को क्रियान्वयित करने का प्रयास किया।श्रीमत शंकर देव का जन्म असम में एक निराशाजनक युग में हुआ था। असम का समाज राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से विघटन के दौर से गुजर रहा था। जिसके परिणामस्वरूप असम की जनता के मध्य अतार्किकता और अवास्तविक मान्यताओं का विस्तार हो रहा था। शंकरदेव ने असम के समाज को मुक्त करने के लिए कठिन परिश्रम किया। इस शोधालेख में नव वैष्णववाद के जनक के रूप में उनके उल्लेखनीय कार्यों को विस्तार से समझने का प्रयास किया गया है। इन्होंने ईश्वर की भक्ति के नये अर्थ तलाशने का कार्य किया। शंकरदेव की भक्ति पद्धति के अनेक अनुयायी बने जिनमें पुरूषों के साथ- साथ स्त्रियों की भागीदारी महत्वपूर्ण है। इस शोधालेख में शंकरदेव के काव्य तथा भक्ति के विविध रूपों को स्त्री – दृष्टि से समझने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : मानवतावाद,स्त्री, भक्तिकाल, पितृसत्तात्मक, भक्तिआंदोलन, मीरांबाई, श्रीमंत शंकरदेव, माधवदेव, नव वैष्णव धर्म, असम, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक।
मूल आलेख
: ईश्वर, समाज और व्यक्ति के अंतर्संबंधों की अभिव्यक्ति भारतीय भक्ति साहित्य परंपरा के विविध रूपों में देखा जा सकता है। कभी ईश्वर को पराभौतिक माना गया और कभी निर्गुण और मनुष्यत्व से भरा हुआ। भारतीय समाज की विविधता ने ईश्वर के स्वरूप और उसके सामाजिक योगदान को अलग –अलग रूपों में चित्रित करने के लिए विवश किया। यही कारण है कि भारतीय भक्ति साहित्य ने भक्ति के लिए जिस ईश्वर का चुनाव किया वह समाज बदलने के साथ अपना रूप बदल देते हैं। ऐसा लगता है कि ईश्वर की सत्ता को मनुष्य जानता है लेकिन उसे पहचान नहीं पाता। ईश्वर को पहचानने और उसे महसूस कर लेने की इच्छा लगातार बनी हुयी है। ईश्वर को महसूस करने के क्रम में वह उसके सगुण और निर्गुण रूपों का निर्माण करता है। इसी परम सत्ता को समझ लेने की चाह में भटकती सामान्य जनता उसके अलग अलग रूपों को गढ़ लेती है। इस तरह भक्तिकालीन साहित्य में हमें ईश्वर के विविध रूपों तथा उनके इन रूपों का महिमा मंडन करने वाले संतों का पता चलता है। भक्ति के क्रम में इन संतों का प्रमुख उद्देश्य अलग- अलग था। सगुण- निर्गुण और राम – कृष्ण की परंपरा में बटाँ हुआ संत साहित्य लगातार इसकी सामाजिकता के लिए कार्य कर रहा था। निश्चित रूप से इस क्रम में सामाजिक जागरण की प्रक्रिया आरंभ होती दिखाई देती है। जनता का एक बड़ा हिस्सा ईश्वर और सत्य की तलाश में संगठित होता दिखाई देता है।
इस सामान्य जन के अर्थ को स्त्री –पुरूष के रूप में समझा जाता हैं। भक्तिकालीन सामंती और पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों को समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिलता था। सामाजिकता का न होना स्त्रियों को एक व्यक्ति के तौर पर लगातार कमजोर बनाता चला गया। उनकी स्वतंत्रता की सीमा परिवार को चलाने तक सीमित कर दी गयी थी। यही कारण था की हिंदी साहित्य के भक्ति कवियों ने स्त्रियो को भक्ति के मार्ग में एक बाधा के रूप में चित्रित किया। किसी भी समाज की स्त्रियों की दशा उस समाज की प्रगति का सूचकांक होता है। इससे पता चलता है कि उस समाज ने कितनी उन्नति की है। यही कारण है कि इस समय में हिंदी साहित्य में मीरां के अतिरिक्त कोई कवयित्री नहीं दिखाई देती हैं। साहित्य में यह स्थिति आधुनिक काल तक बनी हुयी है। भक्तिकालीन साहित्य में कोई भी संत कवि स्त्रियों की भावनाओं और समतामूलक समाज के निर्माण उनकी महत्ता को अपनी कविता में अभिव्यक्त नहीं करता है। ऐसा लगता है कि यह कवि ईश्वर और समाज निर्माण की प्रक्रिया से स्त्रियों को एकदम अलग कर देना चाहते हैं। इसी समय में असम का भक्ति कालीन साहित्य भारतीय साहित्य के पटल पर अपना एक अलग छवि निर्मित करता दिखाई देता है। असम के भक्ति आंदोलन के प्रमुख कवि श्रीमंत शंकरदेव के साहित्य का स्त्री विषयक दृष्टि से अवलोकन कई महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर कर देता है।
श्रीमंत शंकरदेव
(1449-1568 ई.) असम की जनता के लिए केवल एक साहित्यकार या कवि नहीं है वरन् उसके साथ साथ उन्हें एक समाज सुधारक की उपाधि भी प्रदान की जाती है। वह एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने महत्वपूर्ण आध्यात्मिक साहित्य को सामान्य जनता को समझ में आने लायक बनाया । इसके माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में एक ऐसे जन समूह को संगठित करने का प्रयास किया जो लैंगिक विभेद से मुक्त था। इनके साहित्य में गीत, काव्य नाटक ( अंकिया) तथा अनुवादमूलक साहित्य प्राप्त होते हैं।इन्होंने अपने साहित्य तथा भक्ति मूलक सामग्री के माध्य से असम के भक्ति आंदोलन को एक नया स्वरूप प्रदान किया। इन्होंने लिखा कि-
तीरथ, बरत, तप, जप, भोग ,योग, सुगुति।
मंत्र परम धरम करम करत करत नाहि मुकुति ।।
(https://assignment.ignouservice.in/2023/06/blog-post_56.html)
एक ऐसे समय में जब सारा समाज ईश्वर भक्ति में लीन होकर कर्मकांड को प्रमुखता दे रहा था उस समय में शंकर देव तीर्थ, तप, व्रत, जप तथा योग आदि को असार्थक सिद्ध करते हुए बाह्य आडंबर त्याग देने पर बल देते हैं। भक्ति के सरल , सहज और व्यवहारिक मार्ग का निर्माण इनका प्रमुख उद्देश्य था। देखा जाए तो कवि जिस प्रकार की भक्ति की सहजता की पैरवी करते हैं उसी प्रकार स्त्री और पुरूष के विषय में भी सहज विचार रखते हैं। खासतौर से भक्ति के संदर्भ में दोनों को बराबरी का अधिकार प्रदान करते दिखाई देतें हैं।इस संदर्भ में प्रो. चौथीराम यादव लिखते हैं कि- जाति-पात और ऊँच –नीच के भेद भाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था से नारी की अधीनता का गहरा संबंध है। (चंद्रदेव राय, अभिनव कदम, पृ. 91) इस तरह यदि शंकरदेव समाज में धर्म कर्म के कर्मकांडी स्वरूप का विरोध करते है जो निश्चित रूप से जो खास जाति तथा वर्ग इन कर्मकांडों से जुड़ा हुआ है उसका भी निषेध करते हैं। इसक्रम में समाज में धर्म और ईश्वर को सबके लिए और सबके द्वारा सुलभ बनाने का मार्ग भी प्रशस्त करते हैं। जिससे समाज में स्त्रियों की मुक्ति का मार्ग स्वयं ही खुल जाता है।
शंकरदेव का समय असमिया साहित्य एवं समाज में स्त्रियों की दशा और दिशा की दृष्टि से समता का पोषक था इस संदर्भ में संजीब बरकोतकी लिखतें हैं कि- The time of SrimantaSankaradeva’s advent was a horrible time. Women
had no honor in those days. A woman could be taken by the Bhogi (a man
selected for sacrifice before the deity) at any time. That situation arose
from the Tantriks. Making woman the object of enjoyment in the name of the
Sahajiya path of the Tantrik cult gave rise to adultery among some people.
SrimantaSankaradeva redeemed woman from that degraded state and elevated her
to equal status with man in the performance of the religion of devotion.( SjrimatShankerdev
As a Feminist, page no 02,) शंकरदेव के साहित्य ने तत्कालीन समाज में व्याप्त स्त्री विरोधी अप्रगतिशील प्रवृत्तियों से मुक्त भक्ति परंपरा का विकास किया। स्त्रियों के लिए घर में एक सुरक्षित वातावरण निर्मित किया। जिसमें ईश्वर की आराधना के लिए किसी बाह्य आडंबर की आवश्यकता नहीं थी। स्त्रियों के प्रति शंकरदेव की प्रगतिशील दृष्टि को इनके साहित्य में देखा जा सकता है। प्रमुख रूप से इसके नाटक कालिया दमन, केलि गोपाल, रूक्मणि हरण, पत्नी प्रसाद तथा पारिजात हरण आदि में देखा जा सकता है। यह अंकिया नाटक सामान्य जन में अत्यधिक प्रचलित थे। इन नाटकों में स्त्री के स्वतंत्रत चरित्र को अभिव्यक्त करते दिखाई देते हैं। उदाहरण-
स्त्रीक दुर्बल करे कोननो निस्खले
ज्वलंतबह्निक बांधे बस्तर आंचले
खानितेक रह आजि चेद करो शिर
मुर धीर शरे पीवे तपत रूधिर
( शंकरदेव संदीपिकापद सं. 75, पेज 185)
यहाँ स्त्री को मानसिक और शारीरिक रूप से सक्षम एक सक्रिय बताया गया है। वह विकट परिस्थिति में अपनी सक्रिय चेतना के बल पर अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए हर प्रतिकूल तत्वों का नाश कर सकती है। जिस समय में शंकरदेव के यहाँ भक्ति की प्रक्रिया में स्त्रियों का योगदान प्राप्त हो रहा था उसकी समय में उत्तर भारत की भक्ति परंपरा में तुलसी, कबीर और सूरदास के यहाँ स्त्रियों के प्रति एक अलग दृष्टि दिखाई देती है। हिंदी साहित्य के इतिहासकारों ने भी इस संदर्भ में विचार किया है। डॉ. नगेद्र लिखते हैं कि- तुलसीदास के रामचरितमानस तथा अन्य ग्रंथों में, विभिन्न प्रसंगों में ऐसी अनेक उक्तियां हैं जो किसी भी देश काल की नारी के प्रति किसी भी रूप में न्याय नहीं करती । उन्होंने नारी की प्रवृत्ति, उसके चरित्र, बद्धि, विवेक आचार व्यवहार सभी की निंदा की है। ( डॉ. चद्रभान रावत, तुलसी साहित्य बदलते प्रतिमान, पृ. 168, 1971 , जवाहर पुस्तक भवन, मथुरा) कई मायनों में यह वास्तविकता तुलसी के काव्य में परिलक्षित होती है वह लिखते हैं कि-कत, बिधि सृजीं नारि जग मांही।
पराधीन सपनेहूँ सुख नाहि।।
(तुलसीदास, रामचरितमानस, बालकांड, पृ, 88संस्करण सं. 2028, गीताप्रेस, गोरखपुर)
ऐसा ही उदाहरण कबीर की कविता में भी दिखाई देता है। वह लिखते हैं कि-
एक कनक अरू कामिनी, दोऊ अगनि की भाल।देखै ही तन प्रजलै, परस्यौ ह्वै पैमाल।।
(श्याम सुंदर दास, कबीर ग्रंथावली, पृ. स. 30, राजकमल प्रकाशन , दिल्ली )
भक्तिकालीन महत्वपूर्ण कवियों के द्वारा स्त्रियों को भक्ति के मार्ग में एक बाधा के रूप में चित्रित किया गया। तुलसी जैसे कवि स्त्री की पराधीनता से वाकिफ होने के बावजूद कवि के यहाँ उसकी स्वतंत्रता के कोई निश्चित मार्ग नहीं सुझाते हैं। इसके दो कारण हो सकते हैं पहला या तो कवि को स्त्रियों की पराधीनता अच्छी लगती है या उनके पास इसका कोई हल नहीं हैं इस स्थिति के प्रति वह अनुकूलित हो चुके हैं। ख़ैर, कारण जो भी हो कवियों की इस प्रवृत्ति ने स्त्रियों का बहुत नुकसान किया। तुलसी भक्ति की जिस धारा से संबंध रखते हैं वह प्रमुख रूप से त्याग और ब्रहमचर्य पर जोर देता है इसीलिए स्त्री की पराधीनता का दर्द तो समझते हैं लेकिन सामाजिक मर्यादा को तोड़ने पर उन्हें अपने प्राणों से हाथ तक धोना पड़ सकता है। जिस प्रकार से सूर्पणखा तथा ताड़क के चरित्रों के माध्यम से देखा गया है।वहीं शंकरदेव के काव्य में सामाजिक स्त्रियों के लिख निर्मित सामाजिक मर्यादा का स्वरूप एकदम अलग दिखाई देता है। यहाँ मर्यादा को ब्रहमचर्य तथा वैराग्य के अव्यवहारिक और अतिवादी मानको के द्वारा नहीं आंके गया। इनके रूक्मणी हरण नाटक में इसकी सहज अभिव्यक्ति की गयी है।
उदाहरण - है स्वामी! भिक्षुक मुखे तव गुण शुनिये कायवाक्य मने तोहाक पति भावे बरइछि। तथि पापी शिशुपाल हामाक विवाह करिते आवल थिक। यैचे सिंहक भाग निते श्रृगाल चुम्पि रहय थिक। तहे देखिए मये दण्डे युग याई। जानि हामु निज दासीक सत्वरे नेव जानिया स्वामी।
शंकरदेव ने अपने रूक्मिणी हरण नाटक में नारी के स्वाभिमान और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मुखर किया है। रूक्मिणी श्रीकृष्ण से प्रेम करती है और अपने प्रेम की अभिव्यक्ति व कुशल मंगल के लिए कृष्ण से अनुराग निवेदन करती है। रूक्मिणी के मन में कृष्ण के प्रति प्रणय सौहार्द्य है। कृष्ण को वह अपना पति मान चुकी है, वह कृष्ण से अपने प्रेम की स्वीकृति और प्रेम लंबी आयु की कामना के लिए कहती है कि रूक्मवीर उसे अपनी इच्छा के विरूद्ध विवाह के लिए बाध्य कर रहे हैं लेकिन वह इस अनचाहे विपत्ति से मुक्त होकर कृष्ण के प्रति अनुराग में विलीन होना चाहती है। वह स्वतंत्र भाव से अपने प्रेम की अभिव्यक्ति मुखर कर रही है कि कृष्ण किसी प्रकार उसे रूक्मवीर की छत्रछाया से मुक्त करके ले जाए। पत्र के अंत में रूक्मिनी कृष्ण के अनुराग को अपनाती है और कृष्ण के साथ अपने प्राणों के त्याग का प्रण लेती है।
कवि मीरांबाई की कविताओं में कृष्ण के प्रति उनका प्रेम भाव भक्ति की अलग परिभाषा रचता दिखाई देता है। जिसके लिए उन्हें अत्यधिक सामाजिक तिरस्कार का सामना तरना पड़ता है वह लिखती हैं कि- राणा जी म्हाने या बदनामी लागे मीठी कोई निंदो कोई बिंदो , मैं चलूंगी चाल अनूठी। इस अनूठी चाल का वरण करने के क्रम में मीराँ को जहर का प्याला तक स्वीकार्य हो गया तो निश्चित रूप से स्त्रियों के लिए दमघोंटू सामाजिक परिवेश का पुनर्मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
रोहिणी अग्रवाल लिखती हैं कि – चारित्रिक दृढ़ता एवं ईमानदारी के कारण पारदर्शिता मीरा की पहचान है और उनकी मानवीय रक्षा का प्रमुख घटक भी। मीरा ने छल या विश्वासघात नहीं किया तो लोकापवाद क्यों ? संतन के ढीग बैठने से और हरि भक्ति में भाव विभोर हो नाचने से कुल मर्यादा का हनन कैसे ?(( रोहिणी अग्रवाल, 2011, मीराबाई हिंदी की पहली स्त्री विमर्शकार , स्त्री लेखन स्वप्न और संकल्प, पृ. 21 राजकमल) कृष्ण भक्ति धारा से जुड़े संतों की कविताओं में व्यक्त प्रेम के स्वरूप में एक उन्मुक्तता की भाव निहित है। ईश्वर के लीन होने का रास्ता उन्हें रास के मार्ग से जाता दिखाई देता है। यही कारण है कि सूरदास के यहाँ रासलीला का वर्णन है। सामूहिक रूप गोपियों की कृष्ण के प्रति प्रेम व आकर्षण भक्ति के एक रूप को दर्शाता है। इससे पारिवारिक बंधनों से तो मुक्ति मिलती ही है साथ ही सामाजिक व जाति पात के बंधनो से भी विमुख होने का समय मिलता है । इस संदर्भ में विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं कि-सूरदास का रास चित्रण सुख विभोर मानवता का सजीव , सरूप, गतिमय स्पंदित चित्रण है । यहाँ मनुष्य सृष्टि के साथ ताल, लय ,गति ,प्राण , अनुभूति सभी दृष्टियों से एकमेव हो गया है। ( विश्वनाथ त्रिपाठी , मीरा का काव्य , पृ. स. 49, वाणी प्रकाशन, दिल्ली)
शंकरदेव की भक्ति साधना में रास एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिसके द्वारा वह अमानवीय और असमाजिक सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति की परिकल्पना निर्मित करते हैं। समूह में एकत्रित गोपियों का रूप धारण करने वाले स्त्री और पुरूष दोनों ही कुछ समय के लिए अपने शरीर और आत्मा से कृष्ण के साथ लीन होते दिखाई देते हैं। जहाँ सिर्फ उनकी सामाजिकता प्रमुख होती है। जीवन का राज, उल्लास और उत्सव उन्हे आध्यात्मिकता की जटिलता से दूर व्यवहारिका के धरातल पर विकसित करता दिखाई देता है। उदाहरण -
शरत काले चन्द्रबलि राति। दिव्य रासक्रिड़ा करिला आति।।
पंचमरागे गीत हाइला हरि । हुनि मोह भैल गोप सुंदरी ।।
घर बाड़ी एड़ी लवड़े भोले। तन हल फल कुण्टल डौले ।।
बाइलाहा बांशी पशि बृंदाबन । चौपाशे बैठि नाचौ गोपी गणे।।
(कीर्तन घोषा और नाम घोषा पद सं. 1008-1009 , पेज 210)
अर्थात शरद ऋतु की चांदनी रात कृष्ण संगीत मग्न होकर रासलीला करते हैं जिसको सुनकर गोपियाँ उनपर मोहित और रसमग्न हो जाती हैं। गोपियाँ कृष्ण के अनुराग में ऐसे आत्म विभोर हो जाती हैं । वो घर- द्वार छोड़कर कृष्ण को मन में बसा लेती हैं और वृंदावन में कृष्ण की बांसुरी की धुन में उनको घेरकर नृत्य क्रीड़ा करने लगती हैं। इस तरह भक्तिकाल के संत कवियों कृष्ण भक्ति धारा के कवि सूरदास की गोपियों के समाज शंकरदेव की गोपिया भी भक्ति के माध्यम से स्त्रियों के लिए उन्मुक्त समाज के निर्माण में सहायता कर रही हैं। उनकी मर्यादा आत्माभिव्यक्ति में निहित है वह कुंठा मुक्त है। शंकरदेव का साहित्य कृष्ण भक्तिधारा से जुड़े रहे और सूरदास के साथ इन अर्थों में मिलते-जुलते दिखाई देते हैं।
निष्कर्ष : महापुरूष श्रीमंत शंकरदेव मध्यकालीन भारतीय भक्ति आंदोलन के तमाम हस्ताक्षरों में से अन्यतम संत कवि हैं। इनकी विचारधाराओं को ध्यान में रखते हुए महापुरूष का दर्जा प्रदान किया गया। अतः यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि शंकरदेव के यहाँ केवल भक्ति का प्रचार प्रसार में ही महान नहीं थे बल्कि समाज, धर्म और संस्कृति को लेकर स्पष्ट विचारधारा रखते हैं। असम में शंकरदेव ने नव वैष्णववाद (
जिस एकशरणीय नाम धर्म भी कहा जाता है) के माध्यम से ना केवल पतनोमुख समाज का उद्धार करने का प्रयास किया बल्कि के अन्य क्षेत्र में फैले भक्ति आंदोलन के साथ असम को जोड़ने का कार्य किया। इसी तरह पूरे भारत में भक्ति आंदोलन के साथ असम जुड़ता हुआ दिखाई देता है। शंकरदेव द्वारा परिचालित भक्ति आंदोलन का मुख्य उद्देश्य एक आदर्श समाज और संस्कृति की स्थापना करना। इसके अलावा इन्होंने रूढ़िवादी सामाजिक मान्यताओं से ऊपर उठकर एक समन्वयात्मक समाज की स्थापना की। शंकरदेव ने स्त्री और पुरूष दोनों को ही सामाजिक परिवर्तन में प्रमुख भूमिकाएं प्रदान की हैं। धार्मिक कट्टरता और पितृसत्तात्मकता की जड़ों को इन्होने अपनी भक्ति अभ्यास के माध्यम से कमजोर करने की कोशिश की। एक समाज सुधारक के रूप में यह अत्यंत सफल रहे और एकात्मक दर्शन का विस्तार कर सके। भक्तिकाल में संत कवियों द्वारा स्त्रियों की जो छवि गढ़ी गया वह अव्यवहारिक थी। शंकरदेव ने इसमें मूलभूत परिवर्तन किया। इन्होंने उदात्त जीवन मूल्यों के साथ भक्ति को स्त्री एवं पुरूष दोनों के लिए सुलभ बनाया।
शंकरदेव भक्ति के मार्ग का निर्माण करते समय स्त्री हृदय विचारक की भांति दिखाई देतें हैं। हांलाकि वह जिस समाज में रहते थे वह पितृसत्तात्मकता का ही पोषक था। जहां स्त्रियों को पुरषों के अधीन स्वीकार किया जाता था। उन्होंने अपनी कृष्ण भक्ति के प्रचार प्रसार में पितृसत्तामक मूल्यों को कोई विशेष स्थान नहीं दिया। जिस समाज का हवाला देते हुए हिंदी के भक्त कवि अपनी स्त्री विरोधी विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त कर लेते हैं या कहें की उनको आलोचना की तीखी तलवार से बचा लिया जाता है इसी समय में शंकर देव अपने समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। एक सभ्य समाज बनाने के लिए सदियों की रूढ़िगत मान्यता को भी संशोधित करने की आवश्यकता होती है। लैंगिक विभेद पैदा करते, पितृसत्तात्मकता की जड़ों को मजबूत करते हो सकता है कोई समाज आर्थिक रूप से संपन्न हो जाए लेकिन सामाजिक विकास के पैमाने पर बर्बर ही कहा जाएगा। यहां बर्बरता से तात्पर्य स्त्रियों की भावनाओं की हत्या से लिया जा सकता है।रामायण के उत्तराकांड में सीता राम को संबोधित करते हुए कहती हैं कि-
दुर्जनर बोले मोक करिला निकार
जानो मोर मने राम स्वामी यमकाल
मइ येवे जाना राम एनुवा निर्दय
लंका तेजिलो हन्ते प्राणक निश्चय
(उत्तराकांड, पद सं. 7019 -20)
यहाँ सीता आत्म मर्यादा एवं स्वाभिमान के प्रति सतर्क हैं। अपने दुःख को अभिव्यक्ति प्रदान कर रही है। यहाँ सीता कहती है कि यह कैसा पति है जो अपनी पत्नी के विपत्तिकाल में सहभागिता नही दिखाते और लोक मर्यादा की अग्नि में उसे बार बार जलने के लिए विवश करती है। वह कहती है कि यदि मुझे पता होता कि तुम मेरी अग्निपरीक्षा लोगे तो मैं लंका में ही अपने प्राण त्याग देती। हिंदी साहित्य के भक्तिकालीन साहित्य की विवेचना करते समय शंकरदेव के साहित्य को सम्मिलित करना आवश्यक है। ब्रजावली मे लिखी इनकी कविताएं भक्ति को व्यवहारिकता के साथ अपनी कविता के माध्यम से समझाने की कोशिश करते हैं।
संदर्भ :
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स. देव गोस्वामी, केशवानन्द(2014). गुवाहाटी: अन्वेषा पब्लिकेशन
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https://ijrcs.org/wp-content/uploads/IJRCS202203031.pdfअपराह्न 2.05 pm, 29.09.2023
डॉ. अंजू लता
सह- आचार्य, हिंदी विभाग, तेजपुर विश्वविद्यालय, तेजपुर, असम- 784028
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