रसखान : भक्ति और लोकवृत्त- निरंजन सहाय
भक्ति आन्दोलन की आधारभूत विशेषताओं ने भारत के लोकवृत्त में अनेक आयामों को सम्भव किया। प्रकट रूप में भक्ति की खुमारी और अप्रकट रूप में समाज के शुद्धतावादी कंगूरों की ऐसी मजम्मत जिससे नींव तक की संरचना पुनर्संयोजित हो जाय। यह बात दीगर है कि स्त्रियों, अवर्णों और मुसलमानों ने भक्ति के लोकवृत्त को अधिकाधिक मानवीय और विश्वसनीय बनाया। रसखान की आवाज़ भक्ति की लोकव्याप्ति का ऐसा सुन्दर आख्यान है जिसकी मौजूदगी हमें आज भी रससिक्त कर देती है।
भक्तिकाल के प्रसिद्ध कृष्णभक्त कवि
सैयद इब्राहिम रसखान की लोकप्रियता के अनेक किस्से मशहूर रहे हैं। कुछ
बातें बार-बार दर्ज की जाती हैं। मसलन उनकी कविताएँ तुलसीदास और सूरदास की ही
तरह लोगों की जुबान पर चढ़ गयी थीं।
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने लिखा,`इन
मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिये! आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रसखान की
लोकप्रियता के बेहद रोचक पहलू की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया है, उन्होंने
अपने हिंदी साहित्य का इतिहास’ में दर्ज किया,`प्रेम के ऐसे सुन्दर उद्गार इनके सवैयों में
निकले कि जनसाधारण प्रेम या शृंगार सम्बन्धी कवित्त सवैयों को ही `रसखान’
कहने लगे, जैसे कोई रसखान सुनाओ।’ ऐसे
प्रसिद्द कवि की लोकप्रियता का जितना विस्तार अपने जीवन काल में हुआ उतनी ही
व्याप्ति हिंदी कविता की विरासत में भी हुई। कृष्ण
भक्ति शाखा और मध्यकालीन प्रेम की कोई भी व्याख्या इनकी चर्चा के बिना जैसे अधूरी
है। रसखान की कविता में केवल अनन्य प्रेम का मोहक
रूप ही वर्णित नहीं हुआ, लोक के विविध रंग भी अपने विशिष्ट अंदाज़ में
प्रकट हुए हैं । उनकी कविताएँ हमें प्रेम की अनंत गहराइयों के
साथ ही वृन्दावन की कुञ्ज-गलियों, पहाड़ों –पठारों, वन-उपवन, पशु-पक्षी, व्रत-
त्यौहार आदि का सहचर बनने का सुख भी देती हैं। रसखान
की ब्रजभाषा लोकरंग में पगी है, जिसमें संवाद की अद्भुत ललक है। वे
अपने समय में प्रचलित काव्यरूपों का सधा और सटीक प्रयोग करते हैं। उनकी
कविता हमें बेखुदी के उस संसार में ले जाती है,
जहाँ इश्क की खुमारी में फना होने का
जुनून मुखर है। यह बेख़ुदी संक्रामक है, यहाँ
लुभाने वाले खुद लुभ जाते हैं, कान्हा को गाएँ भूल जातीं हैं और राधा को गागर
उठाने की सुधि नहीं रहती -
आज हौं निहारयौ वीर निपट कालिंदी तीर,
दोउन को दोउन सों मुख मुसकायबो।
दोऊ परे पैयाँ दोऊ लेत हैं बलैयां,
उन्हे भूली गईं गैयाँ इन्हें गागर उठायबो।।
प्रेम का यह स्वरूप अपूर्व और उल्लेखनीय है। भाव-भंगिमा, काव्य तकनीक और भाषा के लिहाज से रसखान की कविताओं पर और विस्तार से विचार की ज़रूरत है।
जीवन की दुश्वारियाँ, संकल्प की इबारतें और रसखान
आज हौं निहारयौ वीर निपट कालिंदी तीर,
दोउन को दोउन सों मुख मुसकायबो।
दोऊ परे पैयाँ दोऊ लेत हैं बलैयां,
उन्हे भूली गईं गैयाँ इन्हें गागर उठायबो।।
प्रेम का यह स्वरूप अपूर्व और उल्लेखनीय है। भाव-भंगिमा, काव्य तकनीक और भाषा के लिहाज से रसखान की कविताओं पर और विस्तार से विचार की ज़रूरत है।
जीवन की दुश्वारियाँ, संकल्प की इबारतें और रसखान
रसखान भक्ति काल के ऐसे कवि के रूप में ख्यात
हैं, जिनके जीवन के बारे में परस्पर विरोधी धारणाएँ
मौजूद हैं। उनके जीवन के बहिर्साक्ष्य और अंतर्साक्ष्य
दोनों उपलब्ध हैं। बहिर्साक्ष्य यानी उनके दौर की रचनाओं में उनके
बारे में जो प्रमाण उपलब्ध हैं। और अंतर्साक्ष्य यानी रसखान की रचनाओं से क्या
राय सामने आती है। आवश्यकता इस बात की है कि दोनों तरह के
साक्ष्यों को आधार मानकर तर्कपूर्ण निष्पत्तियों तक पहुँचने का प्रयास किया जाय।
वे दिल्ली के पठान सरदार थे। उनके जीवन की अनेक झलकियाँ उनकी रचनाओं में उपलब्ध है। जैसे प्रेमवाटिका में उनकी उक्ति है-
देखि ग़दर हित साहबी, दिल्ली नगर मसान।
छिनहीं बादसा-वंश की, ठसक छोरि रसखान।।
प्रेमनिकेतन श्रीबनहिं, आइ गोबर्धन धारा।
लह्यो सरन चित चाहिके, जुगलरूप ललाम।।
उल्लिखित पंक्तियों में `ग़दर’ और `दिल्ली के श्मशान बन जाने’ के समय का विशेषज्ञों ने निर्धारण किया है। अनुमान के मुताबिक़ यह वर्ष 1555 ई. है। इसी वर्ष मुगल बादशाह हुमायूँ ने दिल्ली के सूरवंशीय पठान शासकों से अपना खोया हुआ शासनाधिकार फिर से प्राप्त किया था। इस ग़दर के दौरान भारी रक्तपात हुआ था। इस ग़दर का असर रसखान पर हुआ और वे विरक्त हो गए। रसखान ने जिस बादशाह वंश की ठसक का ज़िक्र किया है, वह शेरशाह सूरी का है। सूरी का उदय 1528 ई. में हुआ था, और इस वंश का अंत इब्राहिम खान और अहमद खान के पारस्परिक कलह के चलते 1555 में हो गया। इस ग़दर के समय रसखान की उम्र यदि बीस-बाईस साल मान ली जाय तो उनके जन्म वर्ष 1533 ई. मानी जा सकती है। एक समय यह धारणा बलवती थी कि रसखान पिहानी के सैयद इब्राहिम का ही उपनाम है । बाद के शोधों ने इस पर पुनर्विचार के अवसर उपलब्ध कराया। प्रेमवाटिका के जिस उल्लिखित पद का उल्लेख किया गया है, उसके साक्ष्य पर यह कहना सही है कि जिस तरह वे दिल्ली छोड़कर गोवर्धन जाने का उल्लेख किया है उसके मुताबिक़ उनके जन्म स्थान को दिल्ली मानना चाहिए।
ऐसा मशहूर है कि वे दिल्ली निवासी एक साहूकार के बेटे पर आसक्त हो गए थे। दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के अनुसार भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। आख्यान के अनुसार रसखान ने एक बार दो आदमियों को यह बतियाते हुए सुना कि ईश्वर में ऐसे ध्यान लगाना चाहिए जैसी रसखान की बनिए के बेटे से प्रीत है। एक दूसरी कहानी भी मशहूर है, जिसके मुताबिक़ उनकी प्रेमिका बड़ी मानिनी थी और अक्सर उनका तिरस्कार करती रहती थी। एक दिन जब वे श्रीमद्भागवत का फारसी अनुवाद पढ़ रहे थे तब उसमें गोपियों का कृष्ण के प्रति प्रेम देखकर उनके मन में आया क्यों न उन्हीं कृष्ण के पर लौ लगायी जाय जिनपर इतनी गोपियाँ उत्सर्ग हो रही हैं। फिर वे अपनी तलाश लिए वृन्दावन पहुँच गए। दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता के मुताबिक़ उनकी आसक्ति वैष्णव भक्तों के प्रोत्साहन से बनिए के बेटे से कृष्ण भक्ति में रूपांतरित हो गयी। वैष्णवों ने इन्हें कृष्ण चित्र दी थी, जिन्हें लेकर वे दिल्ली से ब्रज प्रदेश पहुँचे थे। कृष्ण को देखने की चाह लिए वे मन्दिर-मन्दिर भटकते रहे। अंतत: गोविन्द-कुंड में श्रीनाथ जी के मन्दिर में भक्तवत्सल भगवान कृष्ण ने उन्हें दर्शन दिए। कथा के अनुसार, फिर स्वामी विट्ठलनाथ ने रसखान को मन्दिर के अन्दर बुलाया। रसखान के जीवन में भारी बदलाव आया और वे गोपी भाव की भक्ति में निष्णात हो गए। विद्यानिवास मिश्र ने लिखा है, उक्त वार्ता में वर्णित घटना–चक्र सम्बन्धी कुछ संकेत रसखान की रचनाओं में भी मिलते हैं- यथा, `प्रेम-वाटिका’ में छवि दर्शन का उल्लेख तथा `सुजान-रसखान का लीला वर्णन।’ उन्होंने गोस्वामी विट्ठलनाथ का शिष्यत्त्व ग्रहण किया।’
`नव भक्तमाल’ के रचनाकार श्री राधाचरण गोस्वामी और `उत्तरार्ध भक्तमाल’ के रचयिता भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने भी रसखान का उल्लेख किया है। प्रसंगवश भारतेंदु का यह कहना रसखान की प्रसिद्धि का बयान करता है कि इन मुसलमान भक्त कवियों के ऊपर करोड़ों हिन्दुओं को न्योछावर किया जा सकता है। शिवसिह सेंगर ने रसखान को सैयद वंश का माना और निवास स्थान पिहानी ठहराया। मिश्रबंधुओं और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रसखान को दिल्ली के शाही वंश का पठान सरदार माना और विट्ठलनाथ का पट्ट शिष्य स्वीकार किया। इसे सर्वाधिक तार्किक और विश्वसनीय कथन माना जा सकता है।
रसखान की विद्वता और लोकप्रियता का आलम इससे भी आंका जा सकता है कि बेनी माधव द्वारा17 55 -56 ई. में रचित `मूल गुसाईं चरित’ में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्वरचित `रामचरितमानस’ की कथा सर्वप्रथम रसखान को सुनाने का ज़िक्र है-
`जमुनाट पै त्रय वत्सर लौं, रसखानहिं जाइ सुनावत भौ।’
रसखान काव्य के सभी अध्येता इस बात पर सहमति व्यक्त करते हैं कि उनकी अंतिम रचना प्रेम वाटिका’ (1614) है। कुछ ही साल बाद 1618 में उनका देहावसान हो गया।
सृजन का वैभव - रसखान रचित तीन रचनाओं को सभी प्रामाणिक मानते हैं- सुजान-रसखान, प्रेम-वाटिका और दानलीला। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार, नागरी प्रचारिणी सभा के संग्रहालय में उक्त रचनाओं के अतिरिक्त रसखान-दोहावली और रसखान-कवितावली नामक दो रचनाएं रसखान के नाम से मिलाती है। रसखान दोहावली में अरबी-फारसी की मुश्किल शब्दावली शामिल है।
असल में,रसखान की कविताओं की छानबीन लम्बे अरसे
से होती रही है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र के समय इस खोजबीन में
तेज़ी आयी । रसखान की रचनाओं का प्रकाशन सबसे पहले
किशोरीलाल गोस्वामी ने किया। तब से अब तक रसखान की अनेक रचनाओं का प्रकाशन
हुआ, जिनका उल्लेख सम्भव है। किशोरीलाल
गोस्वामी द्वारा संकलित सुजान रसखान, प्रेम वाटिका, रसखान–पदावली-संकलन : प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, रसखान
रत्नावली- संकलन: दुर्गाशंकर मिश्र ; रसखान और घनानन्द, संकलन:
बाबू अमीर सिंह, रसखानि
ग्रंथावली सम्पादन : आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का इस सन्दर्भ में उल्लेख किया
जा सकता है। ज़्यादातर विद्वानों ने अपने-अपने संकलनों में
अपने पहले के संकलनों से एक-दो पदों को अधिक देने का प्रयास किया है। आचार्य
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के संकलन को सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। उनके
संकलन को इसलिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है कि उन्होंने अपने पहले के प्रकाशित
संग्रहों की अपेक्षा अपने संग्रह में कवित्त, सवैयों, दोहों आदि की संख्या में बढ़ोत्तरी की। नागरी
प्रचारिणी सभा की रिपोर्ट और विवरणों को ध्यान में रखकर उपलब्ध पांडुलिपियों का
सहारा लेकर आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने सुजान-रसखान में दो सौ चौदह कवित्त-सवैये, प्रेम-वाटिका
में तिरपन दोहे तथा दानलीला में ग्यारह पदों के साथ-ही-साथ प्रकीर्णक के अंतर्गत
दो पद होली और सगुनौती के भी संकलित किए हैं। पं.
विद्यानिवास मिश्र और सत्यदेव मिश्र के सम्पादन में भी `रसखान
रचनावली का प्रकाशन किया गया, जिसमें रसखान के सम्पूर्ण काव्य को समाहित करने
का प्रयास किया गया। आवश्यकता इस बात की है कि रसखान की रचनाओं पर
थोड़ा और विस्तार से बात की जाय ।
सुजान-रसखान - `सुजान रसखान’ सम्बन्धी सर्वाधिक पद विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की `रसखानि ग्रन्थावली’ में शामिल है। इनके पहले के संकलनों में पदों की संख्या बीस से एक सौ चौतींस तक ही रही। मिश्र जी ने अपने अनथक प्रयास से दो सौ चौदह पदों का संकलन किया। इस ग्रन्थ में कृष्ण के लीला-विलास को शामिल किया गया है। विभिन्न लीलाओं की रचना अलग-अलग समयों में की गयी है, लिहाजा उनमें कोई निश्चित तारतम्य को ढूँढ़ना संभव नहीं। इसमें शामिल काव्य के कथ्यों का उल्लेख करें तो हम इन भावदशाओं से सम्बंधित पद पाते हैं- प्रेम, भक्ति, बाल-लीला, गोचारण, चीरहरण, कुंज-विलास, पनघट-प्रसंग,वन लीला, गोरस लीला, वय:संधि, सुकुमारता, राधा-रूप वर्णन, वंशीवादन, पूर्वराग, अभिलाषा, रूपमाधुरी. चेतावनी, उपदेश, प्रेमलीला, दधिदान, उपालंभ, सपत्नीभाव, मिलन,वियोग, चौपड़, रिझवार, मानवती प्रिया, विदग्धा, सूरत,सुरतांत, होली, भ्रमर, मीत, हरिशंकरी, भक्ति-भावना, अलौकिकत्व, कृष्ण सौन्दर्य, नटखट कृष्ण, कालिय-दमन, फाग-लीला, सखी-शिक्षा, उद्धव-उपदेश आदि। यह सूची इस तथ्य को प्रकट करती है कि रसखान लोक में प्रचलित विभिन्न कृष्ण प्रसंगों को अपनी कविता का उपजीव्य तो बना रहे थे, लेकिन सिलसिलेवार ढंग से प्रबंध योजना सुनिश्चित करना उनकी कविता का उद्देश्य नहीं था।
सुजान-रसखान - `सुजान रसखान’ सम्बन्धी सर्वाधिक पद विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की `रसखानि ग्रन्थावली’ में शामिल है। इनके पहले के संकलनों में पदों की संख्या बीस से एक सौ चौतींस तक ही रही। मिश्र जी ने अपने अनथक प्रयास से दो सौ चौदह पदों का संकलन किया। इस ग्रन्थ में कृष्ण के लीला-विलास को शामिल किया गया है। विभिन्न लीलाओं की रचना अलग-अलग समयों में की गयी है, लिहाजा उनमें कोई निश्चित तारतम्य को ढूँढ़ना संभव नहीं। इसमें शामिल काव्य के कथ्यों का उल्लेख करें तो हम इन भावदशाओं से सम्बंधित पद पाते हैं- प्रेम, भक्ति, बाल-लीला, गोचारण, चीरहरण, कुंज-विलास, पनघट-प्रसंग,वन लीला, गोरस लीला, वय:संधि, सुकुमारता, राधा-रूप वर्णन, वंशीवादन, पूर्वराग, अभिलाषा, रूपमाधुरी. चेतावनी, उपदेश, प्रेमलीला, दधिदान, उपालंभ, सपत्नीभाव, मिलन,वियोग, चौपड़, रिझवार, मानवती प्रिया, विदग्धा, सूरत,सुरतांत, होली, भ्रमर, मीत, हरिशंकरी, भक्ति-भावना, अलौकिकत्व, कृष्ण सौन्दर्य, नटखट कृष्ण, कालिय-दमन, फाग-लीला, सखी-शिक्षा, उद्धव-उपदेश आदि। यह सूची इस तथ्य को प्रकट करती है कि रसखान लोक में प्रचलित विभिन्न कृष्ण प्रसंगों को अपनी कविता का उपजीव्य तो बना रहे थे, लेकिन सिलसिलेवार ढंग से प्रबंध योजना सुनिश्चित करना उनकी कविता का उद्देश्य नहीं था।
प्रेम-वाटिका - प्रेम-वाटिका तिरपन दोहों का संकलन है। इसमें कृष्ण चरित से सम्बद्ध विभिन्न प्रेम-प्रसंगों को आधार बनाया गया है।
दान-लीला - दान-लीला ग्यारह कवित्त-सवैयों का संकलन है। इस रचना का कलेवर लघु है। इसकी शैली सम्वादमूलक है। यह सम्वाद दो रूपों में मिलता है। विद्वानों का एक वर्ग इस रचना को अप्रामाणिक मानता है। अप्रामाणिक मानने के पीछे उनका तर्क है, `रसखान की प्रवृत्ति सवैया-कवित्त की ओर अधिक रही है और इसमें कुल पाँच सवैया ही हैं। रसखान ने प्राय: अपने सभी पदों में अपने नाम की छाप दी है। दान-लीला के ग्यारह पदों में मात्र एक बार (पद संख्या 2 में) उनका नाम आया है।'
रचना की प्रामाणिकता के बारे में फिलहाल यह मानना सही है कि `दानलीला का उल्लेख रसखान की रचना के रूप में काशी नागरी प्रचारिणी की खोज रिपोर्ट में विद्यमान है। यही नहीं, हिंदी की मध्यकालीन स्वच्छन्द काव्य-धारा के अन्यतम अनुसंधायक आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे रसखान की प्रामाणिक रचना मानकर अपने संग्रह `रसखानि-ग्रन्थावली’ में समाविष्ट किया है।
उल्लिखित तीन रचनाओं को आधार मानकर विभिन्न रसखान-ग्रंथावलियों की रचना की गयी है।
या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं
रसखान की कविता का प्रधान उपजीव्य
कृष्ण-प्रेम और भक्ति ही है। उनके बारे में एक किस्सा मशहूर है कि वे दिल्ली
से ब्रजभूमि आए। दिल्ली के युद्ध और रक्तपात से उनका मन उचाट हो
गया और उनके जीवन में एक ही सच बचा – कृष्ण प्रेम और भक्ति। जनश्रुति
है इनकी कृष्ण भक्ति में अतिशय रमणीयता देख इन्हें किसी ने चेतावनी दी कि `तुम्हारी
रियासत छिन जाएगी।’ इसपर जो उन्होंने जवाब दिया, वह
कृष्णभक्ति का बेहतरीन उदाहरण है। उन्होंने कहा, `कहा करै रसखान को को ऊचगुलू लबार, जोपै
राखनहार है माखन चाखनहार।’ यानी राजसत्ता के ऊँच-नीच और झूठ फरेब से रसखान
को क्या लेना-देना। उनके राखनहार तो माखन के चाखनहार हैं। उन्होंने
सांसारिक या पारलौकिक प्रेम पर ऐसी कृष्णभक्ति को तरजीह दी, जिसे
पा लेने पर न बैकुंठ की चाह रह जाती है न बैकुंठनाथ की। रसखान
कहते हैं -
`जेहि पाए बैकुंठ अरु हरिहुँ की नहिं चाहि।
सोइ अलौकिक सुद्ध सुभ सरस सुप्रेम कहाहि ।।’
रसखान की प्रेम और भक्ति के अनेक रंग हैं। उनके कृष्ण प्रेम की व्याप्ति जिस ब्रज में है, उस ब्रज का जैसा चित्रण रसखान ने किया है, वैसा वर्णन शायद ही किसी और कृष्णभक्त कवि ने किया हो। मनुष्य का जन्म हो तो गोकुल में, पशु जन्म हो तो नन्द की गाय के रूप में, पत्थर का जन्म हो तो गोवर्द्धन के पत्थर रूप में जिसे कृष्ण ने इंद्र के कारण अपनी उँगली पर धारण कर लिया था, यदि पक्षी जन्म मिले तो यमुना के किनारे कदम्ब की डाल पर मेरा बसेरा हो। इस अद्भुत सवैये में कृन्ष्ण के प्रति जिस असीम अनुराग का वर्णन है, उसकी रसखान यूँ अभिव्यक्ति करते हैं -
`मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर धारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥
उसी तरह रसखान अपने एक सवैये में तीनों लोक की सम्पदा को उस सम्पत्ति के सामने तुच्छ समझते हैं, जो ग्वाल -
बाल के संग-साथ से बना है, बकौल रसखान,
`या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥‘
`या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥‘
अर्थात् ग्वालों की लाठी और कम्बल के लिए तीनों लोकों का राज भी त्यागना पड़े तो कवि उसके लिए तैयार हैं। नंद की गाय चराने का मौका मिल जाए तो आठों सिद्धि और नवों निधि के सुख वे भुला देंगे। अपनी आँखों से ब्रज के वन उपवन और तालाब को जीवन भर निहारते रहना चाहते हैं। यहाँ तक कि ब्रज की काँटेदार झाड़ियों के लिए भी वे सौ महलों को भी न्योछावर कर देंगे।
कृष्ण के लिए जिस बेखुदी का रसखान ज़िक्र करते हैं, उसके रंगरूप हज़ार हैं, जिनमें प्रभु की प्रभुता के लिए नहीं, बल्कि सम्पूर्ण व्याप्ति के आत्मीय आख्यान हैं। लेकिन उसकी अपनी विशिष्टता है। इस कृष्ण प्रेम की व्याप्ति पर विद्यानिवास मिश्र की नज़र यूँ जाती है-`प्रेम श्रीकृष्ण का वह रूप है जो सबको छूता है। कभी छूकर तपाता है, कभी छूकर हर्षाता है। यह साक्षात कृष्ण हैं। पर ऐसे अलग लगता है जैसे सूरज से धूप अलग लगती है। सूरज की सार्थकता है धूप होने में, श्रीकृष्ण की सार्थकता है प्यार होने में। ऐसे प्रेम को श्रीकृष्ण भी बड़प्पन देते हैं और क्या-क्या नहीं सुनते! कभी तो कोई कहता है -`सब बढ़त प्रानौ नन्द के छौनो’। `कभी छछिया भर छाछ पै नाच नचाता है’, कभी कोई कहता है कि यह बाँसुरी नहीं बजाता, विष बगराता है-
दूध दुह्यौ सीरो परयौ तातो न जमाओ करयौ
जामन दयौ सो धरयौ धरयौइ खटाइगो ।
आन हाथ आन पाइ सबही के तबही ते
जबहीं ते रसखानि तानन सुनाइगो।।
ज्यों हीं नर त्यौं ही नारी तैसी ये तरुन बारी
कहिए कहा री सब ब्रज बिललाइगो
जानिए न आली यह छोहरा जसोमति को
बाँसुरी बजाइगो कि विष बगराइगो।।
इसके मारे सारा ब्रज व्याकुल है। ऐसी बाँसुरी बजाता है कि प्राण खींच लेता है। कभी इन्हें उलाहना मिलता है कि चोर है, बटमार है, बरजोरी करता है। कभी कोई कहता है,`अरे हरि चेरी के चेरो भयो है’, कुबरी दासी के दास हो गए हैं श्री कृष्ण और कभी उसपर इतना प्यार आता है कि `मेरे बनमाली को न काली तें छुड़ावही’ मेरे बनमाली को कालिय नाग से कोई नहीं छुड़ाता।’ भारतीय कविता में जिन भारतीय तत्त्वों की बात की जाती है उसका केन्द्रीय तत्त्व है समग्र और विशिष्ट भारतीय सौन्दर्य दृष्टि। कहना न होगा रसखान की कविता इस भारतीय सौन्दर्य दृष्टि का खूबसूरत आख्यान पेश करती है।
कृष्ण प्रेम की बात तबतक अधूरी रहेगी, जबतक उसमें कृष्ण जीवन के कतिपय प्रसंग शामिल न हों। आइए इसे और बेहतरीन ढंग से देखने का प्रयास करें। सैय्यद इब्राहिम रसखान के काव्य के आधार भगवान श्रीकृष्ण हैं। उनके द्वारा अपनाए गए काव्य विषयों को तीन खण्डों में बाँटा गया है-
कृष्ण-लीलाएँ
बाल-लीलाएँ
गोचरण-लीलाएँ
लीलाओं का अपरूप संसार
लीला का सामान्य अर्थ खेल है। कृष्ण- लीला से
मुराद कृष्ण ( प्रभु ) का खेल है। इसी खेल को सृष्टि माना जाता है। सृजन एवं ध्वंस
को व्यापकता के आधार पर सृष्टि कहा जाता है। कृष्ण- लीला और आनंदवाद एक- दूसरे से
संबंधित है, जिसने लीला को पहचान लिया, उसने
आनंद धाम तक अपनी पहुँच बनायी और हरि लीला के दर्शन कर लिए। रसखान चुँकि प्रेम के
स्वच्छंद गायक थे इसीलिए इन लीलाओं में उन्होंने प्रेम की अभिव्यक्ति भगवान
श्रीकृष्णको आधार मानकर की है।
कृष्ण की अनेक लीलाओं के दर्शन रसखान ने अपने काव्य में कराये हैं। इन लीलाओं में कई स्थानों पर अध्यात्मिक झलक भी पायी जाती है। रसखान की काव्य रचना में बाललीला, गौरचरण- लीला, कुँजलीला, रासलीला, पनघटलीला, दानलीला, वनलीला, गौरस लीला इत्यादि लीलाओं के दर्शन होते हैं।
बाल-लीलाएँ - रसखान ने कृष्ण के बाल- लीला संबंधी कुछ पदों की रचना की है, किंतु उनके पद कृष्ण के भक्त जनों के कंठहार बने हुए हैं। ज़्यादातर कृष्ण भक्त इन पदों को प्रायः गाया करते हैं-
काग के भाग बड़े सजनी हरि
हाथ सौं ले गयो माखन रोटी।
हाथ सौं ले गयो माखन रोटी।
कृष्ण के मानवीय स्वरुप ने रसखान को अधिक प्रभावित किया, लेकिन रसखान ने अपने पदों में उनके ब्रह्मत्व को खास स्थान दिया है। इस बाल- लीलाओं में रसखान ने कृष्ण को एक शिशु के रुप में दिखाया है। उनके लिए छौने शब्द का प्रयोग किया गया है -
आगु गई हुति भोर ही हों रसखानि,
रई बहि नंद के भौनंहि।
बाको जियों जुगल लाख करोर जसोमति,
को सुख जात कहमों नहिं।
तेल लगाई लगाई के अजन भौहिं बनाई
बनाई डिठौनहिं।
डालि हमेलिन हार निहारत बारात ज्यों,
चुचकारत छोनहिं।
एक अन्य पद में रसखान ने श्रीकृष्ण को खेलते हुए सुंदर बालक के रुप में चित्रित किया है -
धूरि भरे अति शोभित श्यामजू तैसी,
बनी सिरसुंदर चोटी।
खलत खात फिरे अंगना पग पैजनी,
बाजति पीरी कछोटी।
वा छवि को रसखान विलोकत वरात,
काम कलानिधि कोटी।
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सौं,
ले गयो माखन रोटी।
रसखान के बाल- लीला के संबंध रखने वाले पद बहुत ही सुंदर एवं भावपूर्ण हैं। कृष्ण धूल भरे आँगन में खेलते- खाते हुए फिर रहे हैं। घुँघरू बज रहे हें। हाथ में माखन रोटी है। कौआ आकर कान्हा के हाथ से रोटी लेकर उड़ जाता है। काग की यह आम आदत है कि वह बच्चों के हाथों से कुछ छीन कर भाग जाता है। इस दृश्य को रसखान ने हृदयस्पर्शी बना दिया है।
गोचरण-लीलाएँ - कृष्ण- जी जब बड़ें होते हैं, वह ग्वालों के साथ गायें चराने वन जाने लगते है। कृष्ण जी की गोचरण की तमाम अदाओं पर गोपियाँ दिवानी होने लगती है। कृष्ण जी धीर सभी कालिंदी के तीर खड़े हो गउएँ चरा रहे हैं। गाएँ घेरने के बहाने गोपियों से आकर अड़ जाते हैं -
गाई दहाई न या पे कहूँ, नकहूँ यह मेरी गरी,
निकस्यौ है।
धीर समीर कालिंदी के तीर टूखरयो रहे आजु,
ही डीठि परयो है।
जा रसखानि विलोकत ही सरसा ढरि रांग सो,
आग दरयो है।
गाइन घेरत हेरत सो पंट फेरत टेरत,
आनी अरयो है।
कृष्णा वंशी बजाते गाय चराते हुए कुंजों में डोलते हैं। गोपियाँ कृष्ण के गोचरण-रुप में प्राण देने को तैयार है। जिस दिन से कृष्ण ने गायें चराई हैं, उसी दिन से गोपियों पर टोना सा हो गया है। केवल गोपियाँ ही नहीं, संपूर्ण ब्रज कृष्ण के हाथ बिक गया है।रसखान ने कृष्ण की गोचरण लीला को मनोहर और चित्रात्मक ढंग से प्रकट किया है।
रहै एक रस चाहि के प्रेम बखानौ सोय
कहते हैं जो लौकिक प्रेम के रास्ते
प्रेम की व्याप्ति का अनंत रूप देखने में सफल होता है उसकी कविता का प्राणतत्त्व
जिस प्रेम दर्शन की साधना करता है, वह लाजवाब होता है। रसखान
इसी प्रेमदर्शन के कायल थे। यह अकारण नहीं है कि उनके प्रेम की अभिव्यक्ति
में जड़-चेतन का समग्र रूप शामिल होता है। जिनकी कुछ बानगी आपने भली-भाँति समझा। अब
यहीं थोड़ा ठहरकर उनके प्रेम दर्शन की कतिपय विशिष्टताओं के आकलन का प्रयास किया
जाय। वे प्रेम के वियोग को जिस गहराई से देखते हैं, वह
अद्भुत हैं। वे प्रेम को एक शिखा(बाती) के रूप में देखते
हैं। एक ऐसी शिखा जो वियोग की ताप में सुलगती रहती
है। खौलते हुए स्नेह में तपती रहती है, थोड़ी-थोड़ी
देर पर भभकती भी रहती है। लेकिन जब प्रियतम के आने की खबर सुनती है तो
जैसे कोई बाती उकसा दे वैसे ही उसमें अंतर्शक्ति आ जाती है, भीतर
की आग रौशनी बन कर बाहर आती है -
`मोहन जू के वियोग की ताप मलीन महा द्युति देह तिया की।
पंकज सों मुख गो मुरझाय लगै लपटैं बिराहागि हिया की।।
ऐसे में आवत कान्ह सुने रसखान सु तनी तरकी आँगिया की।
यों जगि जोति उठी तन की उकसाय दई मनौं बाती दिया की ।।’
रसखान के प्रेम वर्णन में अनन्यता की स्थिरता है। इस अनन्यता के कारण ही रसखान की प्रेमिका को वह बांसुरी बैरिन लगती है जिसे कृष्ण अपने होठों से लगाए रहते हैं। वह दिनरात कृष्ण को अपने बस में किए रहती है। गोपियाँ बांसुरी को सौत कहती हैं। उन्हें लगता है, सौत की साँसत के ज़ुल्म से लगता है, ब्रज छोड़ना पड़ेगा -
`जग कान्ह भये बस बाँसुरी के अब कौन सखी हमको चहिहे।
यह राति दिना संग लागि रहै सौति कि साँसन को साहिहे।।
जिन मोहि लियो मनमोहन को रसखान सु क्यों न हमें दहिहै।
मिलि आऔ सबै कहीं भागि चलैं अब तो ब्रज में बँसुरी रहिहै।।’
रसखान की प्रेयसी को लोक का भय नहीं, भय इस बात का है कि कान्हा कहीं बिसरा न दें। उनके लिए इश्क में फना हने के लिए हर कुर्बानी जायज़ है-
`डरै सदा चाहे न कछु सहै सबै जो होय
रहै एक रस चाहि के प्रेम बखानौ सोय।।’
लेकिन कान्हा प्रेम को बिसराकर मथुरा चले गए। और इधर अहीरन प्रेयसी खुद को ही सज़ा देती है और मन को समझाती है कि ग़लती तो उससे हुई। रसखान की प्रेयसी सोचती है वह माखन सा मन लेकर माखन चोर की ओर ही गयी क्यों? उसे अहसास ही नहीं रहा कि उसका प्रेमी त्रिभंगी है, वह त्रिभंगी प्रेमी उसे बांका क्यों न बनाए -
`सुन्दर स्याम सजै तन मोहन जोहन में चित्त चोरत हैं।
बाँके बिलोकन की अवलोकन नोंकन के दृग जोरत है।।
रसखानि मनोहर रूप सलोने को मारग तैं मन मोरत हैं।
काज समाज सबै कुल सबै कुल लाज लला ब्रजराज के तोरत हैं।।’
रसखान का प्रेम दर्शन तथाकथित मर्यादाओं को अपनी वेगवती धारा में बहा ले जाता है। मर्यादा की शपथ दिलाए वे सारे वचन जिनमें प्रेयसी को बांधा गया था उस समय भोंथरा हो गया जब कान्हा ने मुस्कुराकर देखा, अब यह याद ही नहीं रहा कि किस राह पर चलना था और किसे छोड़ना ! तन की सुधि नहीं रही, दही हांडी फूटी आँखों से लाज का पर्दा भी जाता रहा। अब होना क्या था, वही जिसकी चाहत थी, निर्दयी मनमोहन ने दही खा लिया, मटका फोड़ दिया, तन-मन का सारा गोरस छीन लिया, और वह कान्हा सबकुछ ले गया-
भौंह भरी बहनी सुधरी अति है अधरान रंगयौं रंगरातो।
कुंडल लोल कपोल महाछवि कुंजनि ते निकस्यो मुसकातो।।
रसखानि लाखे मन खोय गयो मग भूलि गई तन की सुधि सातो।
फूटि गयो दधि को सिर भाजन टूटिगो नैनन लाज को नाटो।।
रसखान की कविता में उपस्थित प्रेमदर्शन पर पुष्टिमार्ग की छाया है, जिसमें इस्लाम के एकेश्वरवाद का मणिकांचन योग है। यह भारतीयता की वह विशाल नदी है जिसमें कई धाराएँ आकर सहज ही मिल जाती हैं, और भारत की बहुरंगी दार्शनिक परम्परा का निर्माण करती हैं। पुष्टिमार्ग में कृष्णलीला वर्णन का विशेष महत्त्व है, जिसकी सुन्दर बानगी रसखान की कविता में भी उपस्थित है। कृष्ण समर्पण की यह कविता उस दुनिया की बारम्बार कामना करती है जिसकी सांसों में कृष्ण बसे हैं-
`प्रान वही जु रहैं रिझ वा पर रूप वहीं जिहिं वाहि रिझायो।
सीस वही जिहिं वे परसे पग देह वही जिन ता परसायो।।
दूध वही जो दुहायो री वाही ने सोई दही जु वही ढरकायो।
और कहाँ लौं कहूँ रसखान सुभाव वही जु वही मन भायो।।’
रसखान काव्य की चर्चा तबतक अधूरी रहेगी जबतक उसके भाषायी सरोकारों की दुनिया से बावस्ता न हुआ जाय। उनकी भाषा की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है सम्वाद की अद्भुत ललक। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य का इतिहास में एक अन्य खासियत की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया, वह है शब्दाडम्बर से गुरेज़ और ब्रजभाषा के लोकरूप का काव्यप्र्योग। स्वयं उन्हों के शब्दों में -`इनकी भाषा बहुत चलती सरल और शब्दाडम्बरमुक्त होती थी। शुद्ध ब्रजभाषा का जो चलतापन और सफाई इनकी और घनानंद की रचनाओं में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।’ यह ध्यान देने लायक बात है कि ज़्यादातर कृष्णभक्त कवियों की परम्परा `गीतकाव्य’ की थी, लेकिन रसखान ने इससे अलग दोहों, सवैयों और कवित्त में कृष्ण काव्य का सृजन अपने प्रिय छंदों सवैया और घनाक्षरी में किया। वे शब्द शक्तियों में सबसे ज़्यादा भरोसा अभिधा पर करते थे। ज़रूरत के मुताबिक़ यमक, श्लेष, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का साध्य रूप में इस्तेमाल करते थे। मसलन यमक का उदाहरण देखिए
बैन वही उनको गुन और कान वही उन बैन सों सानी।
त्यौं रसखानि वही रसखानि जु है रसखानि सों है रसखानि।।
यहाँ भिन्न अर्थों के साथ रसखानि शब्द
की आवृत्ति है।
इसी तरह अर्थालंकार उपमा की बानगी का दीदार
कीजिए -
तिरछी बरछी सम मारत है दृग बाण कमान सुजान लग्यौ।
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जाको लसै मुख चंद समान सुकोमल अंगनि रूप लपेटी।
इन काव्य पंक्तियों में `तिरछी बरछी सम मारत है’ और `जाको लसै मुख चंद सामान सुकोमल’ में उपमा अलंकार की रंगत देखने लायक है। जिन्हें भारतीय काव्यशास्त्र प्रसाद गुण कहता है, उसकी उत्कृष्ट झलक रसखान के रचनात्मक संसार में नज़र आती है। उन्होंने अपनी रचनायात्रा में भारत बोध के प्राण तत्त्व लोकवृत्त को अनोखे अंदाज़ में पिरोया जिसमें प्रेम,भक्ति, शृंगार, लीला पदों के अतिरिक्त लोक पर्वों का लाजवाब दीदार है। उन्होंने अपने अनेक पदों में कृष्ण को गोपियों के साथ होली खेलते हुए दिखाया गया है, जिनमें कृष्ण गोपियों को रंग,अबीर और गुलाल से भिंगो देते हैं। गोपियाँ फाल्गुन के साथ कृष्ण के असर को खुद पर तारी होते देखती हैं और कहती हैं- कृष्ण ने होली खेल कर हम में काम- वासना जगा दी है। पिचकारी तथा घमार से हमें आकंठ रस रंग में डुबो दिया है। हमारा हार भी टूट गया है। रसखान अपने पद में कृष्ण को तथाकथित मर्यादाओं के ऊपर प्रेम की जीत के रूप में वर्णित करते हैं। बकौल रसखान -
आवत लाल गुलाल लिए मग सुने मिली इक नार नवीनी।
त्यों रसखानि जगाइ हिये यटू मोज कियो मन माहि अधीनी।
सारी फटी सुकुमारी हटी, अंगिया दरकी सरकी रंग भीनी।
लाल गुलाल लगाइ के अंक रिझाइ बिदा करि दीनी।
वृषभान के गेह दिवारी के द्योस अहीर अहीरिनि भरे भई।
जित ही तितही धुनि गोधन की सब ही ब्रज ह्मवै रह्यो राग भई।
रसखान तबै हरि राधिका यों कुछ सेननि ही रस बेल बई।
उहि अंजन आँखिनि आज्यों भटू उन कुंकुम आड़ लिलार दई।
सन्दर्भ :
- रसखान रचनावली : सम्पादक, विद्यानिवास मिश्र ; संयुक्त सम्पादक, सत्यदेव मिश्र. वाणी प्रकाशन, 2004.
- हिंदी साहित्य का इतिहास –रामचन्द्र शुक्ल
निरंजन सहाय
प्रो. एवम अध्यक्ष, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ वाराणसी
09451777960, drniranjansahay@gmail.com
(‘केदारनाथ सिंह और उनका समय’, ‘आत्मानुभूति के दायरे’, ‘प्रपद्यवाद और नलिन विलोचन शर्मा’, ‘शिक्षा की परिधि’, ‘जनसंचार माध्यम और विशेष लेखन’, ‘कार्यालयी हिन्दी और कंप्यूटर अनुप्रयोग’. महादेवी वर्मा: सृजन और सरोकार, हिन्दी गद्य : स्वरूप, इतिहास एवं चयनित रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक : अजीत आर्या, गौरव सिंह, श्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)
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