शोध आलेख : स्वाधीनता आंदोलन पर भक्तिकाव्य का प्रभाव / डॉ. अखिल मिश्र

स्वाधीनता आंदोलन पर भक्तिकाव्य का प्रभाव
- डॉ. अखिल मिश्र


शोध सार : स्वाधीनता शब्द का अर्थ ही होता है कि व्यक्ति अपनी आत्मा के अधीन रहे और आत्मा का अधीनता ही उसे शेष अधीनताओं से मुक्त करती है चाहे वह राजा की अधीनता हो, चाहे पद की अधीनता हो, चाहे इन्द्रियों के भोग की अधीनता हो, यहां तक की चाहे देह और प्राण की अधीनता से भी, आत्मा की अधीनता, मनुष्य को मुक्त कर देती है।

            हिन्दी का भक्ति-साहित्य 13वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक, लगभग चार सौ वर्षों तक फैला व्यापक साहित्य है, यह साहित्य चाहे निर्गुण पंथ का हो, चाहे सगुण पंथ का हो, यह संदेश तो जरुर देता है कि किसी राज्य की गुलामी से बेहतर, ईश्वर की गुलामी और फिर राजा अगर विदेशी है तो उसकी गुलामी करने में आत्मा को बहुत ज्यादा कष्ट मिलता है। कहने में तो यह संदेश ऊपर-ऊपर किसी महत्व का नहीं है किन्तु गहरे में इसका फलीतार्थ यह होता है कि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए अपनी अस्मिता की मुक्ति के लिए प्राणों का उत्सर्ग भी कोई बड़ा उत्सर्ग नहीं है।

            गांधी के आगमन के बाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सत्य, त्याग, अहिंसा,सादगी, लोभ-लाभ रहित जीवन का महत्व बढ़ा। वह अकारण नहीं था उसकी एक बड़ी वजह भक्ति-साहित्य के आदर्शों का गांधी के जीवन पर प्रभाव था। गांधी के एक हाथ में कबीर का चरखा था तो दूसरे हाथ में तुलसीदास का रामचरितमानस। चरखा के माध्यम से वे भारत को स्वावलंबन और श्रम की शिक्षा दिए। दूसरी तरफ रामचरितमानस से राम-राज्य की अवधारणा ली जो समतामूलक समाज-रचना का स्वप्न देखता है।

            भक्त कवियों को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का प्रेरणास्रोत मानना चाहिए। वे भारतीय ढंग के पहले आधुनिक हैं। पूरे निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति के सरोकारों में दुर्बुद्धि और दुष्टता के साकार आचार को चुनौती देने का व्यापक संसार भक्ति चेतना के काव्य में स्पष्ट है। शहीद भी वही हो सकता है जिसे परलोक और ईश्वर का भरोसा हो। आत्महत्या नास्तिक करता है। आस्तिक, अन्यायी के विरुद्ध आत्मबलिदान इसलिए करता है कि वह केवल शरीर को सत्य नहीं मानता।

            सम्पूर्ण भारतीय वांग्मय में ईश्वर और भक्ति केवल अरण्य-प्रवास नहीं है, जीवन के असद् और अन्याय के प्रति युद्ध है। स्वाधीनता के सन्दर्भ में भक्तिकाव्य को इस रुप में समझना चाहिए

बीज शब्द : मूल्यवत्ता, वांग्मय, व्यहृत, मातृ-अस्मिता, अंतर्मुखी, स्वावलंबन , दुर्बुद्धि, अरण्य-प्रवास, असद आदि।

मूल आलेख :स्वाधीनता शब्द का अर्थ ही होता है कि व्यक्ति अपनी आत्मा के अधीन रहे और आत्मा का अधीनता ही उसे शेष अधीनताओं से मुक्त करती है चाहे वह राजा की अधीनता हो, चाहे पद की अधीनता हो, चाहे इन्द्रियों के भोग की अधीनता हो, यहां तक की चाहे देह और प्राण की अधीनता से भी आत्मा की अधीनता, मनुष्य को मुक्त कर देती है हि आत्मारामं विषयतृष्णा भ्रमयति अर्थात् विषयों से परे वही हो सकता है जो अपनी आत्मा में भ्रमण करता है और उसी के मन में मुक्ति या आजादी का स्वप्न पैदा होता है। बंधन की जंजीरे उसी को दिखती है। आजादी की लड़ाई दुनिया के किसी भी देश में हो, इसी सैद्वान्तिक मूल्यवत्ता की जमीन पर पैदा होती है क्योंकि कोई भी पिजड़ा, कोई भी बंधन चाहे सोने का हो, चाहे लकड़ी का वह बंधन ही होता है, वह पिजड़ा ही होता है। भारतीय संदर्भ में जब-जब भारतीय अस्मिता पर विदेशियों के आक्रमण हुए तब-तब भारतवासियों ने अपने-अपने ढंग से अपनी आत्मा की पुकार पर प्रतिरोध करना आरम्भ किया। मुगलों के शासनकाल में यह प्रतिरोध अन्तर्मुखी था इसलिए वह भक्ति और अध्यात्म की ओर उन्मुख हो गया। उस समय का प्रतिरोध इतना क्रियात्मक भी नहीं था क्योंकि मुगल इस देश को उपनिवेश नहीं बनाना चाहते थे। वे इस देश को अपना ही देश/निवास बनाना चाहते थे। हाँ, अपनी धार्मिक संस्कृति के प्रभाव का विस्तार करना जरुर चाहते थे लेकिन वे यहां अपनी संस्कृति और संपदा को लूटना नहीं चाहते थे, जैसे कि यूरोपिय लोगों की प्रवृत्ति थी। इसलिए भारतीय लोगों ने तो उन्हें खदेड़ा और वे अंग्रेजों से हार के कहीं बाहर गए। वे यहीं के होकर रह गए, उनका रंग-ढंग अलग था, भले ही वे मुगल शासन का छिटपुट विस्तार करते थे, परन्तु उनके विरोध में राष्ट्रीय आंदोलन या संगठन का स्वरुप नहीं बन पाया। उन्होंने अरबी-फारसी और बाद में उर्दू भाषाओं का इस देश में विकास तो किया लेकिन वे दूसरी भारतीय भाषाओं में  उन्नति के लिए भी प्रयत्न किए। इसके विपरीत अंग्रेजों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों ने केवल राजनीतिक बल्कि सांस्कृतिक एवं धार्मिक रुप से इस देश को गुलाम बनाने का प्रयत्न किया। यहां कि संपदा को लूटके विदेश पहुचाया और यहां के लोगों को गुलाम की तरह व्यहृत (ACTIVE ) किया। इसलिए स्वतंत्रता-आंदोलन की चिंगारी फैलने लगी और यह चिंगारी आग की तरह फैलकर अंग्रेजों को भागने के लिए बाध्य किया और देश स्वतंत्र हो गया।

            हिन्दी का भक्त-साहित्य 13वीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक, लगभग चार सौ वर्षों तक फैला व्यापक साहित्य है, यह साहित्य चाहे निर्गुण पंथ का हो, चाहे सगुण पंथ का हो, यह संदेश तो जरुर देता है कि किसी राज्य की गुलामी से बेहतर, ईश्वर की गुलामी और फिर राजा अगर विदेशी है तो उसकी गुलामी करने में आत्मा को बहुत ज्यादा कष्ट मिलता है। कहने में तो यह संदेश ऊपर-ऊपर किसी महत्व का नहीं है किन्तु गहरे में इसका फलीतार्थ यह होता है कि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए अपनी अस्मिता की मुक्ति के लिए प्राणों का उत्सर्ग भी कोई बड़ा उत्सर्ग नहीं है। यह अकारण नहीं है कि जितने भी क्रान्तिकारी इस काल में हुए हैं, उन्होंने गीता के उपदेश के अनुसार अपने शरीर को छोड़ा और हंसते-हंसते फांसी पर लटक गये। विद्यार्थियों ने शिक्षा और नौकरी का मोह छोड़ा, वकीलों ने अपनी कमाई का मोह छोड़ा, छोटे-छोटे राजाओं ने अपने राज्य का मोह छोड़ा, व्यापरियों ने अपनी तिजोरी का मोह छोड़ा, विद्वानों ने अपनी विद्वता का मोह छोड़ा, किसानों ने अपने लाभ-हानि की चिंता नहीं की और 1857 से लेकर 1947 तक आज के व्यापक समाज में त्याग और बलिदान को महत्वपूर्ण मूल्य मानकर लोग आजादी की लड़ाई में शरीक हुए। इसका कारण यह था कि संतो ने, भक्तों ने जिस पारलौकिकता के मूल्य के स्थापित किया था, उस पारलौकिकता के मूल्य में धीरे-धीरे तुच्छ, लाभ-हानि की मानसिकता से भारतीय समाज को मुक्त कर दिया। जब कबीर यह कहते हैं कि- जो घर जारे आपनौ, चले हमारे साथतो इसका अर्थ केवल यह नहीं है कि उनके साथ चलने और राम की मंजिल पाने का इशारा ही इसमें निहित है बल्कि यह बात भी निहित है कि राम का रास्ता, अपनी आत्मा का रास्ता है और इस रास्ते पर चलने के लिए चाहे इन्द्रियों की गुलामी हो, चाहे किसी की गुलामी हो, वह एक बड़ा भारी रास्ते का रोड़ा है। भक्ति और ईश्वर का परिवेश बनाने वालीगीतायह संदेश देती है किस्व धर्मो निधनम्श्रेयः, पर धर्मों भयावहः,‘संतन को कहां सीकरी सो कामजैसी सूक्तियां स्वतंत्रता आंदोलन में काम करती रहीं और थोड़े से लोग भी अंग्रेजों के पिठ्ठू बने, बाकी भारत के लोग गोखले, तिलक एवं गांधी के प्रभाव में देश की मुक्ति के लिए आन्दोलन के रास्ते पर चलने लगें। ध्यान देने की बात है कि गोखले, तिलक एवं गांधी ये सभी किसी किसी रुप में, परमात्मा के सरोकार से जुड़े हुए हैं। इसलिए जितने भी आन्दोलन भारत में चले, उनका सम्बद्ध आगे चलकर आजादी की लड़ाई से हुआ। उसमें देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना और भक्त की प्रेरणा थी। महाराष्ट्र में गणेश पूजा, बंगाल में काली पूजा, उत्तर-भारत में राम-कृष्ण की आराधना, गुजरात में नरसीदास की भक्ति की प्रेरणा, बहुत सारी ईश्वरीय भक्ति के परिवेश से बने हुए दिमाग में स्वाधीनता-आंदोलन को पुष्ट किया। इसी धर्म के आधार पक्ष ने भी स्वाधीनता-आंदोलन को जन्म दिया। कोई याद कर सकता है कि 1857 में मंगल पांडे जैसे लोगों में जो विद्रोही भावना जगी, उसमें यह बात भी कि किसी ने अफवाह उड़ा दी थी कि उस समय के बंदूक में  लगने वाले कारतूस के ऊपरी परत पर गाय के चमड़े का इस्तेमाल हुआ है, यह क्या था? गो, गंगा, गीता और वैष्णव धर्म तथा भक्ति के आचार के प्रतिफलन से बने मस्तिष्क का ही यह विद्रोह और विस्फोट था। गांधी जी नेरामराज्यको पकड़ा तो बंगाल केआनंदमठके वातावरण ने प्रकरान्तर से मातृ-अस्मिता की रक्षा की। वंदेमातरम् का वातावरण बनाया जो अपनी धरती को दूसरे के अधिकार से मुक्त करने की चेतना पर आधारित है। इसलिए चार सौ वर्षों के भक्ति साहित्य में, ऊपर से तो लगता है कि कोई विशेष योगदान, स्वाधीनता के आंदोलन में नहीं किया। पलायनवादी बनाया, सबको उसने अर्न्तमुखी बनाया, लेकिन यह लोग भूल जाते हैं कि भक्तों और संतो के आचार-विचार ने वह विवेक पैदा किया जो विवेक तत्कालीन छुद्र स्वार्थों से, समाज को मुक्त करता है क्योंकि अतिशय-लाभ-लोभ का गणित किसी व्यक्ति को जेल जाने, फांसी पर लटक जाने का भावपैदा ही नहीं कर सकता, जो भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में घटित होता रहा।

            भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के जननायक महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा मेंरामायणनामक पाठ की चर्चा करते हुए लिखते हैं, ‘‘बचपन में जो बीज बोया गया, वह नष्ट नहीं हुआ। आज राम नाम मेरे लिए अमोघ शक्ति है। उस समय मेरी उम्र 13 साल की रही होगी, पर याद पड़ता है कि उसके पाठ में खूब रस आता था।‘‘1

            गांधी जी के मन पर जो उस समय असर हुआ वे उसकी चर्चा करते हुए लिखते हैं, ‘‘एक चीज ने मन में जड़ जमा ली-यह संसार नीति पर टिका हुआ है। नीति मात्र का समावेश सत्य में है। सत्य को तो खोजना ही होगा।‘‘गांधी जी की प्रार्थना सभा में बहुत सी प्रार्थनाए गाई जाती थी। उनमेंरामधुनके साथ गुजराती भक्त कवि नरसी मेहता का प्रिय भजन- ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे3 गांधी के वैष्णव संस्कार का सामाजिकीकरण होता था। वैष्णव वह है जो किसी दीन-दुखी का दर्द समझता है। गांधी के आगमन के बाद भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सत्य, त्याग, अहिंसा,सादगी, लोभ-लाभ रहित जीवन का महत्व बढ़ा। वह अकारण नहीं था उसकी एक बड़ी वजह भक्ति-साहित्य के आदर्शों का गांधी के जीवन पर प्रभाव था।

            गांधी के एक हाथ में कबीर का चरखा था तो दूसरे हाथ में तुलसीदास का रामचरितमानस। चरखा के माध्यम से वे भारत को स्वावलंबन और श्रम की शिक्षा दिए। दूसरी तरफ रामचरितमानस से राम-राज्य की अवधारणा ली जो समतामूलक समाज-रचना का स्वप्न देखता है। 1926 मेंयंग इण्डियामें गांधी जीचरखे के संगीतनामक अध्याय में लिखते हैं, ‘‘मैं जितनी बार चरखे पर सूत निकालता हूँ उतनी बार भारत के गरीबों पर विचार करता हूँ 4 यूरोपीयन रहस्यवाद की विशेषज्ञ और अंग्रेजी की कवियत्री एवलिन अंडरहिल नेपोयम्स ऑफ कबीर‘ (रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा अनूदित) की भूमिका में लिखा है कि कबीर अध्यात्म और उद्योग का मेल करते हैं और एक नई संस्कृति को जन्म देते हैं।5 गाँधी  जी कबीर के चरखे के माध्यम से आर्थिक एवं रोजगार की नीति को प्रस्तावित करते हैं। वे जानते हैं बड़े बांध, बड़े कारखाने, बड़ी पूंजी के खेल हैं जो समाज में भयंकर असमानता पैदा कर सकते हैं।

            रामराज्यकी अवधारणा से गांधी समतामूलक भारत का स्वप्न देखते हैं। वे जातिगत भेदभाव के विरुद्ध थे। जाति, धर्म, अमीरी-गरीबी आदि का जो भेदभाव है, उसकी समाप्ति का स्वप्न ही वेरामराज्यके रुप में देखते हैं। भारत की आजादी का स्वरुप केवल राजनीतिक ही नहीं था बल्कि सामाजिक भी था। भारत का स्वतंत्रता-संघर्ष राजनीतिक स्वतंत्रता और सामाजिक स्वतंत्रता दोनों मोर्चा पर काम कर रहा था। गांधी, अंबेडकर इसके सजीव उदाहरण है। स्वतंत्रता-आंदोलन को भक्ति काव्य से ऊर्जा मिल रही थी और भक्ति काव्य उसे संचालित भी कर रहा था।

            भक्तिकाल के प्रत्येक बड़े कवि ने एक स्वप्न-लोक रचा है। कबीर के पासअमरपुरहै, जायसी के पाससिंहलद्वीप‘, सूरदास के पासवृंदावन‘, तुलसीदास के पासरामराज्यऔर रैदास के बारे में कहना ही क्याबेगमपुरा शहर को नाउ‘-जब वे कहते हैं तो एक ऐसे दुनिया की प्रस्तावना रखते हैं जो दुख रहित है ही, इतना अनुशासित है कि वहां किसी थानेदार की जरुरत नहीं है। ऐसा स्वप्न गांधी ने, अंबेदकर ने समतामूलक राज्य के जरिये देखा था जो किसी भी तरह के भेदभाव से रहित था। राजनीतिक आजादी के साथ-साथ सामाजिक आजादी की लड़ाई समानान्तर चल रही थी।

            भक्तिकाल में निर्गुण-सगुण में अंतर है, लेकिन वह भक्ति-काव्य का केन्द्रीय भाव नहीं है। भक्ति आंदोलन का स्वरुप अखिल भारतीय एवं वैविध्यपूर्ण है। असम में शंकरदेव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, ओडिशाके पंचसखा, महाराष्ट्र के वारकारी आंदोलन और दक्षिण के भक्तिकाव्य के माध्यम से अभेदमूलक मानवीय संसार की रचना होती है, वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की ऊर्जा एवं उष्मा दोनों है। अवध के किसान-आंदोलन मेंरामचन्द्र बाबारामचरितमानस की पंक्तियों के माध्यम से किसानों को जाग्रत करते हैं, और एक बड़े आंदोलन की रुपरेखा बनाते हैं। भक्तिकाव्य का प्रभाव उस समय से लेकर आधुनिक काल तक हमारे व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन पर है और उसे बनाए रखने की आवश्यकता है। मराठी लेखक भालचंद नेमाड़े ने वारकरी आंदोलन के संदर्भ में जो लिखा है वह सम्पूर्ण भक्ति-आंदोलन पर लागू होता है। भालचंद नेमाड़े लिखते हैं- ‘‘ साहित्यिक संस्कृति का कोई अध्येता वारकारी आंदोलन में विकसित हुई असाधारण अभिव्यक्त शैली की उपेक्षा नहीं कर सकता। भारतीय मन की सर्जनशीलता का पिछले एक हजार वर्ष में सर्वाधिक अर्थपूर्ण उद्रेक ही भक्ति-मार्ग का आंदोलन है। 17वीं सदी की शिवा जी की राजनीति से लेकर 20वीं सदी के महात्मा गांधी तक के भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न सामाजिक और राजनैतिक विद्रोही आंदोलन पर इन सम्प्रदायों का सर्जनशील प्रभाव कम अधिक हुआ है।‘‘6

            रेमंड विलियम्स ने भविष्यवाणी की थी कि समाजवादी व्यवस्था में कला की अलग से जरुरत नहीं रह जाएगी, कारण यह है कि लोग स्वयं की कला हो जाएंगे। पता नहीं, उनकी भविष्यवाणी सही होगी या नहीं। पर एक बात तो स्पष्ट दिखती है कि भारत में रचे गए भक्ति साहित्य की गूंज-अनगूंज जीवन, समाज, राजनीति आदि अनेक क्षेत्रों में बनी है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन 20वीं सदी में भक्ति कविता का सजीव उदाहरण है। यह कहना अधिक समीचीन होगा कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, 20 वीं शताब्दी में भक्तिकाव्य का आधुनिक भाष्य था।

            भक्त कवियों ने निजि मुक्ति को सामाजिक मुक्ति में बदल दिया था।कबीरा सोई पीर है जो जानै पर पीरयापरहित सरिस धरम नहीं भाईका भाव उसका सर्वोपरि संदेश था। गांधी जी ने जिसरामनामका सहारा लिया वह दशरथ पुत्र नहीं थे- ‘मेरा राम खुद भगवान ही है।7 गांधी मूर्तिपूजा नहीं करते थे, वे कहते हैं,  ‘मैं खुद मूर्तियों को नहीं मानता, मगर मैं मूर्तिपूजकों की उतनी ही इज्जत करता हूँ।8 गांधी जी जिस रामनाम को जपते थे, वह राष्ट्रसेवा का ही परिचायक है। गांधी जी ने गरीब की सेवा को देशसेवा माना। वे मानते थे कि रामनाम से अनासक्ति एवं समता आती है। यही कारण था कि भक्ति आंदोलन में निम्न जातियों के समूह का सक्रिय योगदान एवं सहभागिता थी। उसी प्रकार भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी वायकोम आंदोलन, मंदिर प्रवेश आंदोलन, छुआछूत के विरुद्ध आंदोलन भी चलते रहे। भक्ति आंदोलन से वे ऊर्जा एवं प्रेरणा ग्रहण कर रहे थे।

            भक्त कवियों को भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का प्रेरणास्रोत मानना चाहिए। वे भारतीय ढंग के पहले आधुनिक हैं। यह ध्यान में रखना चाहिए कि बीसवीं शताब्दी की हमारी मॉडर्निटी और 15वीं-16वीं सदी की हमारी विचार परंपरा में सीधा संबंध है। भारतीय राष्ट्रीय जागरण में भी भक्त कवियों की प्रेरणा रही। 1920 के दशक में अवध प्रांत में बाबा रामचन्द्र ने रामचरितमानस के दोहे-चौपाइयों का बड़ा रचनात्मक उपयोग किया है। बाबा रामचन्द्र ने रामचरिसमानस के अच्छे-बुरे पात्रों एवं नायक तथा खलनायकों को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति दे रहे थे। इसकी विस्तृत जानकारी इतिहासकार कपिल कुमार ने अपने शोध-आलेख ‘‘रामचरितमानसका एक विद्रोही ग्रंथ के रुप में प्रयोगः अवध में बाबा रामचंद्र 1920-1950‘‘  में दी 10 कपिल कुमार ने अपनी पुस्तकपीजेन्ट्स इन रिवोल्टमें इसकी विस्तृत जानकारी दी है। उन्होंने ठोस साक्ष्यों के आधार पर बताया है कि 1920-1922 में अवध के किसान आंदोलन में बाबा रामचंद्र धार्मिक भावना को राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ने वाले अकेले नहीं थे। इनके अतिरिक्त मदारी पासी, फारुख अहमद, रहमत अलिशाह, जानकीदास जैसे दूसरे लोग भी थे जिन्होंने गीता, सतनारायण-कथा, कुरान और मिलादशरीफ जैसे धर्मग्रंथ का उपयोग किसान आंदोलन को संगठित करने के लिए किया था। हिन्दीतर भारतीय भाषाओं में हिन्दी के निर्गुणपंथी संतों  के वैकल्पिक समाज और धर्म का स्वप्न पहले से मौजूद था। वैकल्पिक धर्म और समाज रचना का स्वप्न कुछ आगे-पीछे सम्पूर्ण देश के निम्नवर्गीय समाज ने देखा। इसे देखने के लिए कन्नड़ के प्रसिद्ध कवि वसवन्ना (12वीं सदी) कीमंदिर और देह‘, शीर्षक, कविता की यात्रा करनी होगी-

            धनी लोग तुम्हारे मंदिर बनवाएंगे
            मैं क्या करुँगा?
            मैं एक गरीब आदमी?
            मेरे पैर ही स्तम्भ है।
          शरीर मंदिर
       और सिर सोने का गुंबद
        हे भगवान! हे कूडल संगम देव!
              सुनो!
             स्थावर चीजें मिट जाएंगी
      किन्तु जंगम चीजे सदा बनी रहेंगी।11

            इस प्रकार, भक्ति आंदोलन ने समूचे भारतीय काव्य को प्रभावित किया है। भक्ति काव्य के गर्भ से आंदोलनों का जन्म हुआ। भारत में स्वतंत्रता आंदोलन से पूर्व और उसके समानान्तर भी अनेक आंदोलन/विद्रोह होते रहे। जिसकी ऊर्जा का स्रोत भक्तिकाव्य है। आजादी मिलने के बाद जो दूसरी आजादी की लड़ाई है- भूख, गरीबी, असमानता से मुक्ति का स्वप्न भी भक्तिकाव्य से मिलता है। यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। भक्तिकाव्य भारतीय भाषा का ऐसा काव्य है जो मनुष्य मात्र की मुक्ति का स्वप्न रचता है। मनुष्य हमेशा से मुक्त (आजाद) रहना चाहता है, उसकी यही कामना उसे नई-नई सृष्टि का अवसर प्रदान करती है। जिससे जीवन के प्रति ललक रहती है और जीवन अलभ्य है, सुंदर है।

            भक्ति की प्रवृत्ति भले ही संसार से विरक्त और ईश्वर से अनुरक्ति है पर जो सिद्धान्त में सत्य है वह सम्पूर्ण व्यवहार में  सत्य नहीं है। भक्त व्यास थे पर जो उन्होंने पुराण रचे, उसमें अन्याय अनाचार से लड़ने की अनेक युद्ध भी वर्णित है। गीता के कृष्ण केवलमन्मनाभव मद्भक्तःका संदेश नहीं देते वरन् यह भी कहते हैं कि कौरवों का वध करो, उस भीष्म का भी वध होना चाहिए जो धर्मपुरुष हैं, पर अन्याय के पक्ष में खड़े हैं। पूरे निर्गुण भक्ति और सगुण भक्ति के सरोकारों में दुर्बुद्धि और दुष्टता के साकार आचार को चुनौती देने का व्यापक संसार भक्ति चेतना के काव्य में स्पष्ट है। बहुत पृष्ठभूमि में जाने के बजाय यह देखना चाहिए की जितने भी लोगों ने आजादी की लड़ाई लड़ी वे सब के सब या तो स्वयं भक्त थे या उन्होंने भक्ति काव्य को अपने लिए इस रुप में चुना कि वह आंदोलन और संघर्ष का काव्य बन सके। गोखले, गांधी और उसके पहले तिलक ने अध्यात्म और भक्ति को पूरे समाज के लिए प्रेरणाप्रद उपजीव्य बनाया। मुक्त रहने, मुक्त करने का चैतन्य आगे चलकर रामराज, स्वराज के रुप में सामने आया।

            शहीद भी वही हो सकता है जिसे परलोक और ईश्वर का भरोसा हो। आत्महत्या नास्तिक करता है। आस्तिक, अन्यायी के विरुद्ध आत्मबलिदान इसलिए करता है कि वह केवल शरीर को सत्य नहीं मानता। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की एक कविता है -

कुछ है जो महान है हमसे भी,

जिसके लिए हम मर जाते हैं।12

            सम्पूर्ण भारतीय वांग्मय में ईश्वर और भक्ति केवल अरण्य-प्रवास नहीं है, जीवन के असद् और अन्याय के प्रति युद्ध है। स्वाधीनता के सन्दर्भ में भक्तिकाव्य को इस रुप में समझना चाहिए।


सन्दर्भ :

  1. वागर्थ (पत्रिका) अंक 272, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 95
  2. वही।
  3. वही।
  4. वागर्थ (पत्रिका) अंक 272, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 94
  5. ठाकुर रवीन्द्रनाथ टैगोरः पोएम्स ऑफ कबीर, मैकमिलन, न्यूयार्क, 1915  पृष्ठ संख्या 13
  6. सिंह गोपेश्वरः भक्ति आंदोलन और काव्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृष्ठ संख्या 31
  7. गांधी जी, हिन्द स्वराज (अनुवादक- अमृतलाल ठाकोरदास नाड़ावटी) नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, संस्करण 2005, पृष्ठ संख्या 39
  8. वही, पृष्ठ संख्या 37
  9. हौली जॉन स्ट्रेटन : भक्ति के तीन स्वर (अनुवाद- अशोक कुमार) राजकमल प्रकाशन, 2019, पृष्ठ संख्या 79
  10. सांचा (पत्रिका) अंक जून-जुलाई 1988, पृष्ठ संख्या 73
  11. सिंह गोपेश्वरः भक्ति आंदोलन और काव्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृष्ठ संख्या 57
  12. तिवारी विश्वनाथ प्रसाद, कुछ है, प्रतिनिधि कविताएं, राजकमल प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 47

 

डॉ0 अखिल मिश्र
सहायक आचार्य, हिन्दी विभाग, दीनदयाल उपाध्याय, गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर।
 
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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