- निम्मी सलोमी किन्डो
शोध सार : प्रारंभ से ही स्त्री-चेतना के निर्माण में सामाजिक और साहित्यिक आंदोलनों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है भारत में स्त्री-चेतना का प्रश्न प्रारंभ से ही विमर्श का विषय रहा है। विभिन्न साहसी,विदुषी,कवयित्रियों व लेखिकाओं ने इस काल में स्त्री-चेतना को अभिव्यक्त किया. इस तरह प्रचीन युग से ही स्त्री-चेतना की शुरुआत हुई। भारतीय साहित्य में स्त्री-विमर्श की शुरुआत के साथ स्त्री-अभिव्यक्ति को नया स्वर और नई दिशा मिली। स्त्रियों ने अपने ऊपर होने वाले सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक रूप से मानसिक एवं शारीरिक दबाव डालने वाली पारंपरिक रूढ़ियों और मान्यताओं का विरोध किस प्रकार किया? प्राचीन से लेकर भक्तिकाल तक अपने को किस प्रकार प्रतिष्ठित करते हुए अपनी उपस्थिति दर्ज की? उस समय उनकी दशा और दिशा क्या थी? उन्होंने अपने अस्तित्व एवं अस्मिता की पहचान किस प्रकार कराया? इस शोध आलेख में इन्हीं प्रश्नों की पड़ताल की गई है।
बीज शब्द : प्राचीन काल,स्त्री, वैदिक, मनुस्मृति, भारतीय समाज,ऋग्वेद, पर्दा प्रथा,सती प्रथा।
मूल आलेख : प्राचीन काल से पूर्व स्त्री का इतिहास पाषाण युग से प्रारंभ होते हुए देखा जा सकता है। पाषाण युग में मनुष्य आदिमानव की तरह जीवन यापन करता था। पाषाण युग के बाद सिंधु घाटी सभ्यता आयी, इस युग में स्त्री का अपना महत्व था, क्योंकि उस समय का समाज मातृसत्तात्मक था। वंश को माँ के नाम से चलाया जाता था।
शुरुआत से ही भारतीय साहित्य में स्त्री भारतीय सभ्यता और साहित्य का केन्द्र बिन्दु रहीं हैं, भारतीय समाज एवं साहित्य में स्त्री की स्थिति हमेशा से बदलती रही है। उतार-चढ़ाव के दौर हमेशा से देखने को मिले हैं।
प्राचीन भारत में मौर्य साम्राज्य, मगध साम्राज्य, महाजन दशक, कुषाण आदि का समय रहा है । वैदिक और उत्तर वैदिक युग में स्त्री जीवन का नया स्वरूप दिखाई देने लगा।
वृहदारण्यकोपनिषद में याज्ञवल्क्य की दोनों पत्नियों मैत्रेयी और कात्यायनी में मैत्रेयी ब्रह्मवादिनी थी। उसने तर्क द्वारा ऋषि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश देने को बाध्य किया। इन्हीं ऋषि की शिष्या गार्गी भी तत्त्ववेत्ता तथा परम तार्किक थी। गार्गी वृहदारण्यक के अष्ठम ब्राह्मण में अपने दो प्रश्नों द्वारा याज्ञवल्क्य को चरम सत्य के अन्वेषण में फंसा देती हैं। अन्त में स्वयं उसका प्रतिपादन कर श्रोताओं को चकित करती हैं। गार्गी द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर याज्ञवल्क्य के पुरुषत्व पर ठेस लग जाती है वे गार्गी को चेतावनी देते हुए कहते हैं-
"गार्गी, मातिप्राक्षीर्मा ते मूर्द्धा न्यपतत्…(री गार्गी मुझसे बहुत सवाल पूछेगी, तो तेरा सिर नीचे गिर जायेगा)"1
भास्काराचार्य की कन्या लीलावती को आज पूरा संसार जानता है, जिसको गणित शास्त्र पर इतना अधिकार प्राप्त था कि गणना के आधार पर वृक्ष की पत्तियां तक गिन कर सामने रख देती थी। कालिदास की पत्नी प्रियंगुमंजरी ने कालिदास को आज संसार के सामने कवि के रूप में प्रदर्शित कर दिया।
विक्रमकालीन भारत में भारतीय स्त्रियां 14 विधाओं और 64 कलाओं में पूर्ण दक्ष होती थीं।2
जिस ऐतिहासिक काल में वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों और आरण्यकों की रचना हुई उस समय भारतीय प्रागैतिहासिक काल में महिलाएँ मंत्रों की रचना कर रही थीं उनमें से कुछ की तो, वैदिक संहिताओं में सम्मिलित होने की भी संभावना है।
"रुढ़िवादी परम्पराओं के अनुसार श्रवणक्रमणिका सिद्धांत में ये संगृहीत है कि ऋग्वेद के रचयिताओं में बीस महिलाएँ भी सम्मिलित थीं। आंतरिक प्रमाण दर्शाते हैं कि ऋग्वेद के
I.179, V.28, VII-I 91, IX 81, II-20 एवं 40 आदि की रचयिता लोपामुद्रा, विश्ववारा, सिकता, निवावरी एवं घोषा वास्तविक रूप में हिन्दू समाज का हिस्सा थीं। X.
145, 159 तथा 150 निर्विवाद रूप से महिलाओं द्वारा रचित है, हालाँकि इस बात में सन्देह हो सकता है कि उनका वास्तविक नाम इन्द्राणी अथवा शची था। ब्राह्मण काल में विद्वानों एवं रचयिताओं के अतिरिक्त कुछ महिलाएं, यथा-सुलभा, मैत्रेयी, वाक् एवं गार्गी आदि सम्मान प्रदान करने को बाध्य करती हैं।"
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सामाजिक व्यवस्था आर्यों द्वारा प्रारंभ की गई थी, उसका मूल ढाँचा पितृसत्तात्मक था। इस दौर में पितृसत्तात्मक परिवारों में प्रचलित परंपरा के अनुसार पुरुष ही परिवार का मुखिया बन गया।
युगों-युगों से स्त्रियाँ भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक विषमताओं, अंधविश्वासों और निरक्षरता के कारण उपेक्षित होती रहीं हैं। वैदिक युग में देखा जाए तो,स्त्री को पूजा करने, यज्ञ करने और शिक्षा ग्रहण करने जैसे अनेक अधिकार प्राप्त थे। आदिकाल तक आते-आते स्त्री पुरुष की सम्पत्ति बनकर रह गई । आदिकालीन काव्य से ज्ञात होता है कि आदिकाल में स्त्री को स्वयंवर चुनने का अधिकार तो दे दिया गया था परन्तु समाज में स्त्री की स्थिति कठपुतली की तरह रह गयी थी। पुरुष जैसे चाहे स्त्री का शोषण कर सकता था। एक ओर नाथों ने स्त्री को निन्दा का पात्र बनाया तो दूसरी ओर सिद्धों ने उसे सिर्फ वासनात्मक दृष्टि से देखा। भक्तिकालीन कवियों ने स्त्री की निन्दा और प्रशंसा दोनों की है। संयमशील और मर्यादित स्त्री को ईश्वरीय अवतार मानते हुए उसको पूजनीय बताया है तो वहीं भक्ति में बाधा उत्पन्न करने वाली और वासना से लिप्त स्त्री को संसार के लिए त्याज्य माना है। स्त्री की पराधीनता का प्रारंभ 'मनुस्मृति' के कारण हुआ है। 'मनुस्मृति' और अन्य धार्मिक ग्रंथों में स्त्रियों के लिए कई नियम बना दिए गये जैसे अविवाहित स्त्री का कुंवारापन, विवाहित स्त्री के शील की शुद्धता, और स्त्री को पुरुष के अधीन रहने और उनकी सेवा करते रहने की मानसिकता आदि। 'मनुस्मृति' में विवाह का धार्मिक महत्व इस तरह रखा गया है कि स्त्री को एक आदर्श के रूप में बताया जाता है। इस आदर्श के तहत पति को परमेश्वर की उपाधि देकर पत्नी को पति की पूजा करने का पाठ पढ़ाया जाता है। विधवाओं के लिए सती प्रथा का नियम बना दिया गया है। एक तरह से स्त्रियों को पुरुषों पर पूरी तरह से निर्भर बना दिया गया है। पति की मृत्यु के बाद पत्नी का जीवन निरर्थक मानने वाले समाज के विचारकों ने अपनी मान्यताओं और रिवाजों आदि को अपनी सुविधानुसार परिवर्तित किया है। जिस समाज में सतीत्व को सम्मान दिया जाता था वहाँ पुनर्विवाह पर विचार करने का सवाल ही नहीं उठता है। मनु ने विधवाओ का विरोध करते हुए लिखा था - 'पुनर्विवाह करने वाली स्त्री मरने के बाद परलोक में पतिलोक को नही पाती।' विधवाओं के लिए जो नियम बने वे अति कठोर और संवेदनहीन थे।
प्राचीन काल में महिलाएं इस समय से अधिक स्वतंत्रतापूर्वक अपना व्यक्तित्व विकसित कर सकती थीं, अपनी शक्ति का सम्पूर्ण परिचय दे सकती थीं तथा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में प्रसिद्ध होती थीं। प्राचीनकालीन भारतीय समाज में कन्या अथवा पुत्री को काफी स्नेह, सम्मान व आदर की दृष्टि से देखा जाता था। प्राचीनकाल में पुत्री को परिवार में सभी अधिकार प्राप्त थे परन्तु पुत्र के समान सम्पति में बराबरी का अधिकार उसे प्राप्त नहीं था। प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में स्त्रियों का महत्वपूर्ण योगदान एवं स्थान रहा है। स्त्री एक पत्नी के रूप में, माता के रूप में और पुत्री के रूप में अपने आप को पुरातन काल से ही जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे अपनी श्रेष्ठता एवं विशिष्टता को सिद्ध करती रही हैं। उदाहरण स्वरूप- कैकेयी ने पति राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा की, सावित्री ने पति सत्यवान को यमराज के मृत्युपाश से मुक्त कराया, द्रौपदी ने अपने पतियों पंच पाण्डवों का दुर्दिन में साथ दिया। गांधारी, सीता एवं अनुसुइया जैसी स्त्रियों ने पातिव्रत्य धर्म निभाया। माँ के रूप में कैकेयी, कौशल्या, यशोदा, सीता, द्रौपदी, शकुन्तला,महामाया,सुनीति व अशिज बनकर , राम, कृष्ण, लव-कुश, अभिमन्यु, भरत,महात्मा बुद्ध, ध्रुव व कक्षिवान जैसे सुसंस्कारित वीर योद्धाओं को अपनी कोख से जन्म दिया। पुत्री रूप में गार्गी, मैत्रेयी, विश्ववारा, घोषा, लोपामुद्रा, उर्वशी, अपाला, सिकता व निवावरी बनकर भारतीय वेदान्तों को सुशोभित किया है। वैदिककालीन भारत में भी स्त्रियों को घर में प्रतिष्ठित -स्थान प्राप्त था । वे पतियों की गुलाम नहीं थी। घर के किसी महत्वपूर्ण कार्यों में उनसे भी सलाह मशविरा लिये जाते थे।
प्राचीन भारत में स्त्री लेखिकाओं व कवयित्रियों की कई रचनाएँ मिलती है। स्त्री-साहित्य सृजन की लम्बी परंपरा रही है, वैदिक युग में पुरुष-शिक्षा की तरह ही स्त्री-शिक्षा अपनी उच्च अवस्था में थी। वे बुद्धि समेत, ज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी तथा सह शिक्षा के जरिये वेद-वेदान्त, ज्योतिष, दर्शन व साहित्य में पारंगत हो गयी थीं। स्त्रियाँ न केवल सभाओं व गोष्ठियों में ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं का गान करती थीं, बल्कि कई विदुषी स्त्रियों ने ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं के प्रणयन में भी काफी सहयोग व योगदान किया था। ऋग्वेद में ब्रह्मवादिनी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है। इनमें अदिति, इन्द्राणी, उर्वशी, सरमा, रात्री, सूर्या दैवीय, श्री, मेधा, दक्षिणा, श्रद्धा, विश्ववारा, अपाला, घोषा, गोधा, लोपामुद्रा, साश्वती, रोमशा और वाक् प्रमुख हैं। सूर्या ने ऋग्वेद के दशम मंडल के 85 वें सूक्त की रचना की थी। इसने 47 ऋचाएँ लिखी थीं, ऐसा प्रमाण मिलता है। संस्कृत काव्यधारा में सूर्या का रचनाकाल ईसा पूर्व 1000
वर्ष माना गया है। घोषा ने दशम मंडल के 39 वें और 40 वें सूक्त की रचना की थी। विश्ववारा ने ऋग्वेद के पाँचवें मंडल के द्वितीयक अनुवाक के अट्ठाईसवें सूत्र षटऋकों की रचना की थी। अपाला ने ऋग्वेद के अष्टम मंडल के 91 वें सूक्त की एक से लेकर सात तक की ऋचाएँ लिखी हैं। साश्वती ने ऋग्वेद के अष्टम मंडल के प्रथम सूक्त की 34 वीं ऋचा की रचना की थी। दीर्घतमा ऋषि की पत्नी उशिज ने ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 116 से 121 तक के सूक्त की रचना की थी। प्राचीन भारत के संस्कृत कवयित्रियों व लेखिका में से एक वाक् ने ऋग्वेद संहिता के दशम मंडल के 125 वें सूक्त में देवी के नाम से आठ मंत्रों की रचना की है। रोमशा, जिन्हें स्त्री चेतना का विकास करने वाली प्रथम स्त्रीवादी ब्रह्मवादिनी कहा जाता है उन्होंने भी ऋगवेद संहिता के प्रथम मंडल के 126 वें सूक्त की सात ऋचाओं को लिखा था। सुप्रसिद्ध कवयित्री विज्जा सन् 610 ई. अर्थात् 7वीं शताब्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री थी। शीला भट्टारिका नवीं शताब्दी (670
ई.) मुख्यतः श्रृंगार रस लेखिका थी। मरुला 12 वीं शताब्दी
(1150 ई.) संस्कृत की सुविख्यात श्रृंगार रस की कवयित्री थी। इनकी कविता कल्हण द्वारा संपादित व संकलित 'सुभाषित मुक्तावली' व 'शार्ङ्गधर पद्धति' में 13 वीं शताब्दी
(1247 ई.) में उद्धृत है | कवि धनददेव ने कवयित्री व लेखिका मरुला के लिए प्रशंसात्मक पंक्तियाँ उद्धृत किया है -
चिनम्मा की कविताएँ कवि भोजदेव रचित 'सरस्वती कंठाभरणम्' में संकलित है, जो 10वीं शताब्दी में 'उद्धृत की गयी थी। चिनम्मा रचित कविताएँ दामोदर पुत्र शार्ङ्गधर द्वारा लिखित 'शार्ङ्गधर पद्धति' में भी संकलित है जो 14वीं शताब्दी
(1363 ई.) में लिखा गया था। इसमें कुल 4689
पद्य हैं जिनका वर्गीकरण 163 खण्डों में किया गया है। चिनम्मा स्मृति पुराणों की भी ज्ञाता थी, ऐसा उनकी रचनाओं से ज्ञात होता है।
"चांडाल विद्या महानतम् कवि कालिदास की समकालीन थी। इनका रचना काल चौथी शताब्दी माना जाता है। इन्होंने सुप्रसिद्ध कवि विक्रमादित्य समेत कालिदास के साथ भी इनकी संयुक्त रचनाएँ देखने को मिलती है। कालिदास व विक्रमादित्य जैसे महान् कवियों के साथ चांडाल विद्या का संयुक्त लेखन इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि चांडाल विद्या इन दोनों के समकालीन श्रेष्ठ लेखिका व कवयित्री थी।"5
राजनीति में भाग लेने वाली अनेक योग्य महिलाएं भी उस काल में हो चुकी हैं। वे आज की बहनों की तरह पर्दा नहीं करती थीं। वे पुरुषों के साथ बातचीत में भाग लेती थीं। उनमें कार्य कुशलता थी, हिम्मत थी, अपने आदर्श के साथ ही पुरुषों की प्रेरणा भी उन्हें मिलती थी। कैकेयी (वैदिक काल
) भारतीय जनमानस में राम के वनवास व भरत को राजगद्दी के कारण एक कलंकिनी स्त्री के रूप में चित्रित की गयी है परन्तु पौराणिक महाकाव्यों से ज्ञात होता है कि कैकेयी आध्यात्मिक, दार्शनिक, साहसी एवं वीर होने के साथ राष्ट्रप्रेमी भी थी -
"चक्रवर्ती राजा दशरथ दिग्विजय पर निकलने वाले हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य भारत की पश्चिमोत्तर सीमा को जीतना है तथा अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए चक्रवर्ती महाराज दशरथ अपनी विशाल सैन्य वाहिनी को लेकर कुरुक्षेत्र के निकट पहुँची हुई है तो वह सिंहगर्जना कर उठी-
"केकय देश की आन-बान की रक्षा के लिए हम अपने प्राणों की आहुति देने के लिए कृतसंकल्प हैं। हमारा यह दृढ़ संकल्प है कि चाहे चक्रवर्ती कोशलाधीश हों या फिर देवाधिदेव इन्द्र हम अपने देश की मिट्टी के कण-कण की रक्षा के लिए अपने शरीर का एक-एक कतरा लहू बहा देंगे। हमें अपने देश की सुरक्षा के लिए दृढ़ संकल्पित होकर प्राण हथेली पर रखकर शत्रुओं से मुकाबला करने के लिए तैयार रहना होगा। हम अपनी धरती की एक इंच जमीन भी शत्रु के हवाले नहीं करेंगे और न ही शत्रु सेना को एक पग भी अपनी सीमा के अन्दर प्रवेश करने देंगे।"
कैकेयी का यह वीरतापरक संकल्पित उद्घोष यह प्रमाणित करता है कि कैकेयी एक राष्ट्रप्रेमी भी थी।"6
विदुला (महाभारत काल) के वीरत्व, शौर्य व पराक्रम से भरे उपदेशात्मक शब्द उसके व्यक्तित्व को प्रदर्शित करते हैं -
"पुत्र, तुम क्षत्रिय सन्तान हो। भूसे की आग की तरह धीरे-धीरे मत जलो। अधिक नहीं कर सको, तो सिर्फ एक मुहूर्त के लिए ही दावाग्नि की तरह अपनी शिखा फैलाकर दिखा दो कि तुम क्षत्रिय-सन्तान हो। यदि तुम वीरता का प्रमाण नहीं दे सकते, तो तुम्हारी मृत्यु ही उत्तम है। जिस पुत्र में शौर्य-वीर्य कुछ भी नहीं है, उसे पुत्र कहकर बुलाने में भी शर्म आती है।"7
कर्मदेवी (मेवाड़ के राजा समरसिंह की पत्नी) राजा समरसिंह की मृत्युपश्चात् मध्ययुग में मुहम्मद गोरी के सेनापति कुतुबुद्दीन द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण किए जाने पर कर्मदेवी स्वयं मोर्चा संभालते हुए सैनिकों का हौसला बढ़ाते हुए उनके साथ यह हुँकार करते हुए युद्धभूमि में कूद गई- “राजपूतों के लिए युद्ध कर्मभूमि-धर्मभूमि है। मरो या फिर मारो यही राजपूतों समेत सैनिकों की आन-बान व शान का प्रतीक है। आज मेवाड़ के राजपूतों में मातृभूमि की रक्षा करने के लिए प्रतिक्षण मर मिटने वाले वीर राजपूतों का रक्त पानी हो गया है क्या? राजा समरसिंह की वीर पत्नी अभी जीवित है। मैं शत्रुदल का संहार करने के लिए चण्डी बन जाऊँगी। जाओ, युद्ध की तैयारी करो।
"8
गांधारी (महाभारत काल) ,द्रौपदी (महाभारतकाल), रूपसुन्दरी (सातवीं सदी), रानीबाई (8वीं सदी), पन्ना धाय, महारानी करुणावती, राणा उदयसिंह की उपरानी वीरा, ताराबाई, रानी दुर्गावती, हाडा रानी, सुन्दरबाई, ताजकुँवरि, देवलदेवी, और रानी साहबकुँवरि (18वीं सदी) स्त्रियों की तरह अनेकों साहसी वीरांगनाओं की उपस्थिति देखने को मिलती है।
इसी सुनहरे काल में लिखा गया कि जिस स्थान पर स्त्रियों की पूजा की जाती है और उनका सत्कार किया किया जाता है,उस स्थान पर देवता सदा निवास करते हैं और प्रसन्न रहते हैं, जहाँ ऐसा नहीं होता है,वहाँ सभी धर्म और कर्म निष्फ़ल होते हैं।
पूजा मतलब चौकी पर बैठाकर उसकी आरती करना नहीं, परंतु उसका सच्चा सम्मान करना है।
भारत के इतिहास में मुस्लिम शासकों के आगमन और शासक के रूप में स्थापित होने का काल मध्यकाल के नाम से जाना जाता है। इस दौर में भारतीय स्त्रियों की स्थिति बिगड़ती चली गई। इस मध्ययुग में प्रगतिमूलक विचारों का भी अभ्युदय हुआ था जिसमे भक्ति संप्रदाय ने स्त्रियों और दलितों के भीतर एक नई चेतना जगाई । भक्तों और संतो ने सीख दी कि स्त्री और पुरुष दोनों ही ईश्वर के सामने समान हैं। स्त्रियों के संदर्भ में विवाह आदि को लेकर जो प्रथाएँ आरंभ हुई थी, वह स्त्री विरोधी रही हैं। युद्ध के बाद औरतों को बंदी बनाकर उनके साथ जबरदस्ती विवाह करने का प्रचलन भी था।
भक्ति आन्दोलन की पूर्वपीठिका में यह देखने को मिलता है कि स्त्रियों की दशा दयनीय एवं विचारणीय थी । दास प्रथा प्रचलन में थी। खोजकर्ता एवं विद्वान - इब्नबतूता के अनुसार
-"इन दिनों
(1304-1369) दास प्रथा भी प्रचलित थी। हिंदू - कन्याओं को संपन्न मुसलमान अधिकाधिक संख्या में क्रय करके अपने घरों में रख लिया करते थे। कुलीन नारियों का अपहरण कराके अमीर लोग अपना मनोरंजन किया करते थे। मुहम्मद बिन तुगलक
(1325-1351) ने चीन के सम्राट के पास भारतीय काफिरों में से एक - एक सौ स्त्री-पुरुषों को सौगात के रूप में भेजा था। इसके साथ ही ऐसे हिंदू राजाओं का भी अभाव न था, जो मुस्लिम महिलाओं विशेषत: सैयद स्त्रियों को दासी के रूप में अपने यहां ला कर नृत्य-गीत की शिक्षा दिलवाया करते थे।10
विदेशी पर्यटकों ने तत्कालीन सतीप्रथा का भी विवरण दिया है। ओडरिक
(1321 - 1322) नामक पादरी ने दक्षिण भारत में प्रचलित सती-प्रथा का उल्लेख किया है जिसके अनुसार पुत्रवती विधवा को 'सती' बनने का अधिकार नहीं था। इब्नबतूता ने लिखा है कि "सती होने के लिए सुल्तान की पूर्व-स्वीकृति अनिवार्य थी। स्त्रियों को पुरुषों जैसा स्तर तथा सम्मान प्राप्त न था। परदा प्रथा उन दिनों की आवश्यकता बन गई थी । फिर भी स्त्री- शिक्षा की व्यवस्था थी और कला - साहित्य के निर्माण में स्त्रियों का योगदान रहा करता था।"
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राजपूतों में तो मुस्लिम शासकों के आतंक से बचने के लिए स्त्रियों द्वारा जौहर और सती हो जाने की प्रथा का प्रचलन शुरू हो गया था। मुस्लिम समाज में पर्दा पद्धति भी थी जो एक सम्मान सूचक पद्धति बनती चली गई। लड़कियों का विवाह बहुत कम उम्र में करने का प्रचलन भी इसी दौर में प्रारंभ हुआ, जिससे बाल विवाह की कुप्रथा शुरु हुई। इन सभी परिस्थितियों के मद्देनजर हिन्दुओं और मुस्लमानों में कन्या के जन्म को एक अभिशाप की तरह माना जाने लगा और परिणामस्वरूप जन्म के साथ ही नवजात शिशु कन्या की हत्याएँ बढ़ने लगी। बहुविवाह की प्रथा को भी बढ़ावा दिया गया विधवाओं पर अनेक पाबंदियाँ लगायी जाने लगी। विधवाओं की स्थिति इतनी दयनीय हो गयी कि जिंदा रहने के बजाय वे सती हो जाना पसंद करने लगी।
मुगल काल में पर्दा प्रथा के साथ स्त्रियों को दासत्व का जीवन मिला । दासत्व स्वीकार करने के साथ उनकी बुद्धि भी संकुचित हो गयी । स्त्रियों में शारीरिक और मानसिक दुर्बलताएं बढ़ गयी । अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों को समझते-बूझते हुए व अपनी हीनता का कारण जानते हुए भी अपने सम्मान एवं अस्तित्व की रक्षा हेतु आगे नही आ पाती थी। या यों कहें उन्होंने स्वयं ही अपने विकास के मार्ग को पुरुष की अधीनता स्वीकार कर, बन्द कर लिया। पुरुषों को इस प्रकार स्त्रियों का गुलाम बनकर दासत्व का जीवन व्यतीत करना अच्छा लगा और उसी स्थिति का लाभ उठाकर स्त्रियों के लिए अनेक अहितकर कानून और नियम बनाये। पर्दा-प्रथा ने स्त्री के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक सभी प्रकार के विकासों पर कुठाराघात किया | उनकी शिक्षा-दीक्षा रुक गई। घर की चहारदीवारी के बाहर का सभी ज्ञान और अनुभव रुक गया। स्त्रियों के लिए शिक्षा प्राप्त करना असंभव बना दिया गया, जबकि उच्चवर्णीय स्त्रियाँ कुछ हद तक पढ़ती थी लेकिन वह भी मानसिक शांति और धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने हेतु। इस काल में स्त्रियों की स्थिति दिन-प्रतिदिन गिरती चली गई। सती प्रथा, पर्दा प्रथा, शिशु कन्या हत्या, वेश्यावृत्ति, विधवा विवाह पर पाबंदी, अशिक्षा और बहुविवाह जैसी प्रथाएँ और कुरीतियाँ इसी काल से प्रारंभ हुई।
यह सर्वज्ञात है कि भक्ति का उदय दक्षिण में हुआ। दक्षिण से बहते हुए भक्ति की धारा उत्तर में आयी । उत्तर भारत में आने पर वह शान्त और स्निग्ध नहीं रह सका। उत्तर भारत के निर्गुण पंथ का सान्निध्य पाकर वह आक्रामक, विद्रोही और खरा हो गया। भक्ति आन्दोलन के उदय होने का मुख्य कारण विदेशी आक्रमणकारियों एवं शासकों को ठहराया जाता है, हालांकि ऐसा नहीं है पहले से ही भक्ति आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी, तत्कालीन समाज में नाथ- सिद्धों का आत्मविश्वासी और वर्णव्यवस्था विरोधी तेवर पहले से विद्यमान था। नाथों की हठयोग साधना और कबीर की अक्खड़ता का मेल पहली बार उत्तर भारत में हुआ। भक्ति आन्दोलन उत्तर भारत में ही आकर इस्लाम और सूफी मत के सम्पर्क में आया और विस्तार पा सका । भक्ति आन्दोलन के पुरोधाओं ने भक्ति के लिए वर्णाश्रम व्यवस्था को व्यर्थ बताकर उसके सामंत विरोधी रूप को प्रकट किया। यह आन्दोलन सभी प्रकार की संकीर्णता से ऊपर उठकर इतना व्यापक था कि इसमें हिन्दू-मुस्लिम, अमीर-गरीब, स्त्री- पुरुष एवं दलित सभी समा गए। उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन को लोक एवं लोक भाषा से जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य रामानन्द ने किया।
साहित्यिक क्षेत्र में प्राचीन व मध्ययुगीन स्त्रियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भक्ति आन्दोलन एवं भक्ति आन्दोलन पूर्व में कवयित्रियों व लेखिकाओं की अहम भूमिका रही है। कवयित्रियों ने अपनी अद्भुत लेखन क्षमता के बल पर न केवल रूढ़िवादी, मनुवादी व सामन्तवादी परम्पराओं पर हमला किया बल्कि अत्याचारी, स्त्री स्वतन्त्रता विरोधी पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था पर कड़ा प्रहार भी किया। स्त्री आजादी, समानता व अधिकार के लिए संघर्षात्मक विचारों का अभ्युदय, प्रस्फुटन व प्रकटीकरण स्त्री-साहित्यिक सृजन के जरिये ही हुआ।
भक्तमाल के एक छप्पय में 'कलियुग युवतीजन भक्त' की सूची दी गई है, जिसका उल्लेख विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक 'मीरा का काव्य' में किया है। इसमें सीता, सहचरी, झाली, सुमति, शोभा, भटियानी, गंगा, गौरी, उनीठा, गोपाली, गनेशदेई, मानमती, सत्यभामा, यमुना, कोली, रामा, मृगा, जुगजेवा कीकी, कमला, देवकी, हीरा, हरिचेरी का उल्लेख है - सीता, झाली, सुमति, शोभा, प्रभुता, उमा, भटियानी गंगा, गौरी, कुंवरि उनीठा, गोपाली, गणेश दे रानी कला, लखा, कृतगढ़ौ, मानमती, शुचि, सतिभामा यमुना, कोली, रामा, मृगा, देवा, दे भक्तन विश्रामा जुगजेवा, कीकी, कमला, देवकी, हीरा, हरिचेरी पोधे भगत कलियुग युवती जन भक्त राज महिमा सब जानै जगत। (भक्तमाल, 1.4)12
भक्ति आन्दोलन की कवयित्रियों में हिन्दी-प्रदेश की मीराबाई, कश्मीर की ललद्यद, हब्बाखातून, अरणिमाल कर्नाटक की अक्कमहादेवी व तमिलनाडु की आण्डाल का नाम अग्रणी है। संस्कृत लेखिका व कवयित्री- मरुला, चिनम्मा, इन्दुलेखा, भावदेवी, जघनचपला, केरली(दक्षिण भारत), कुटला, लक्ष्मी, मदालसा, मधुरवरर्णी, मदीरिक्षणा, मोरिका, फल्गुहस्तिनी, रसवती प्रियंवदा, सीता, त्रिभुवन सरस्वती, विक्रान्त नितम्बा, कामलीला, कनकवल्ली, मधुरंगी, सुनन्दा, विमलन्तरि गंधदीपिका आदि प्रमुख हैं।
आण्डाल जिन्हें गोदा नाम से भी जाना जाता है तमिलनाडु की सुप्रसिद्ध भक्ति आन्दोलन की कवयित्री थीं। बारह आलवार भक्तों में आण्डाल अकेली स्त्री थी। इनकी रचनाओं में कृष्णभक्ति का रूपायन मिलता है। इनकी कविताओं में कृष्ण का अद्भुत रूप-वर्णन मिलता है। आण्डाल ने कृष्ण-प्रेम की विस्तृत चर्चा करते हुए अपने रूप-यौवन की भी जमकर प्रशंसा की है जो नर-नारी में समानता व एकरूपता का परिचायक है। उस समय घर गृहस्थी की मर्यादा तोड़कर बाहर मार्ग में स्वतंत्र होकर आगे बढ़ना एक स्त्री के लिए मामूली बात नहीं थी । आण्डाल वैसे समय में सामाजिक बंधनों की परवाह किए बिना तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को चुनौती देते और ललकारते खड़ी दिखाई देती हैं।
राजशेखर गुजरात की सुप्रसिद्ध सिद्धांतवेत्ता कवयित्री प्रभुदेवी लाटी और कर्नाटक की कवयित्री विजयांका (10वीं शताब्दी) को उल्लिखित करते हुए लिखते हैं-
प्रभुदेवी कविलांटी गताऽपि हृदि तिष्ठति।।"
अक्कमहादेवी 12वीं सदी की कर्नाटक की सुप्रसिद्ध कवयित्री थीं। उन्होंने कन्नड़ भाषा में अपनी रचनाओं को लिखा। महादेवी का रचना सृजन उस समय हुआ जब शूद्र की तपस्या की तरह स्त्री को भी घर छोड़ भक्ति का अधिकार प्राप्त न था। समाज में ऊँच-नीच व भेदभाव चरमोत्कर्ष पर था। सामाजिक जड़ता व स्त्री परतन्त्रता से मुक्ति कठिन था। वैसी स्थिति में स्त्री साहित्य लेखन कार्य अति प्रशंसनीय व साहसिक कदम माना जाएगा। अक्कमहादेवी की रचनाएँ भी आण्डाल की ही तरह कृष्णभक्ति प्रेम से ओतप्रोत हैं।
कश्मीरी लेखिका ललद्यद भी भक्ति आन्दोलन की प्रमुख कवयित्री थी। उसकी कविताओं में दार्शनिक तत्त्व का समावेश मिलता है।
" आत्मज्ञान के समान कोई अन्य प्रकाश नहीं व ईश भय के समान और कोई सुखद वस्तु नहीं है ।" 15
रामविलास जैसे लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार ने ललद्यद की रचनाओं को दार्शनिक विचारों से ओतप्रोत होने की वजह से उसका मूल्यांकन वैदिक ऋषियों व कालिदास के समकक्ष किया है। ललद्यद की काव्य रचनाएँ मौलिक परम्परा पर आधारित थी। कबीर की तरह उसने भी 'मसि - कागद' का इस्तेमाल नहीं किया। सर्वप्रथम ग्रियर्सन व बरनेट ने ललद्यद के वाखों को संकलित किया एवं ग्रियर्सन ने इतिहासकार महामहोपाध्याय पं. मुकुन्दराम शास्त्री की सहायता से ललद्यद के 109 वाख को एकत्रित कर 'ललवाक्यानि' नाम से सन् 1914 में संपादित किया जो 1920 में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, लंदन से प्रकाशित हुई। एक अन्य इतिहासकार श्री. आर. सी. टेम्पल लिखित पुस्तक 'द वर्ड ऑफ लला' में भी ललद्यद के काव्य- पदों का संकलन मिलता है। इस पुस्तक का प्रकाशन सन् 1924 में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस से प्रकाशित हुई।16
कवयित्री ललद्यद के 'वाख-पद ' दार्शनिकता व आध्यात्मिक चिंतन से ओत-प्रोत है। ललद्यद के निर्गुण पदों में संत-कवियों, सूफी चिन्तकों व वेद-वेदान्तों की स्पष्ट झलक देखने को मिलता है। ललद्यद ने अपनी काव्य रचना के माध्यम से तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक धार्मिक व राजनीतिक परिदृश्यों का काफी मार्मिक व हृदयविदारक शब्दों में जीवंत वर्णन किया है। उनकी पद रचना-संसार प्रकृति प्रेम, धार्मिक कट्टरता, बहिर्जगत्-अन्तर्जगत, आध्यात्मिक चिन्तन, निश्छल पातिवर्त्य निष्ठा शंकर के अद्वैतवाद, मध्ययुगीन समाज-व्यवस्था के पूर्वग्रहों व जकड़नों के इर्द-गिर्द चक्कर काटता है।
कश्मीरी साहित्य का इतिहास पृष्ठ 42 में उल्लिखित कि ललद्यद ने अपनी मौलिक पद रचना में मध्ययुगीन शोषणयुक्त सामाजिक व्यवस्था पर भी जमकर प्रहार किया है जो कश्मीरी समाज का मार्गदर्शन व पथप्रदर्शक साबित हुआ। ललद्यद ने मूर्तिपूजा, धार्मिक आडम्बरों, पुस्तकीय ज्ञान, तीर्थाटन व जीव बलि पर भी खुलकर प्रहार किया और समरस समाज की स्थापना पर जोर दिया। इनकी पद रचना कबीर के काव्य रचना से पूर्णतया मेल खाती है।
'कश्मीरी साहित्य का इतिहास पृष्ठ 41 में लिखा गया है - "सामाजिक विषमता के खिलाफ ललद्यद जैसा सचेत व मुखर कवयित्री शायद ही मध्ययुग में कोई रहा होगा।"17
हब्बाखातून का जन्म सोलहवीं शताब्दी में सन् 1541 से 1559 के मध्य श्रीनगर के दक्षिण पांपोर के पास चंदहार में हुआ था। हब्बाखातून का आविर्भाव उस समय हुआ जब कश्मीर राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक, दृष्टिकोण से संक्रमण काल से गुजर रहा था।
मध्ययुगीन संत कवयित्रियों की श्रृंखला में एक प्रमुख नाम अरणिमाल है। उनका जन्म सन् 1737 में श्रीनगर से 30 किलोमीटर दूर दक्षिण में पलहालन नामक गाँव में हुआ था। कवयित्री अरणिमाल की रचनाएँ हैं- 'खिली मैं चमेली थी ज्यों श्रावण की ', 'बालपन के मेरे मीत रे','यार के लिए मन के प्याले ' 'सौतें ताने कसती हैं,'इस सुंदरी को चैन कहाँ',व 'सखी री, अब तू ही बता'।
भक्ति आन्दोलन की प्रमुख कवयित्रियों में मीराबाई का नाम अग्रणी है। कवयित्री आण्डाल की तरह ही मीराबाई ने भी भगवान कृष्ण को अपना आराध्यदेव व पति मानकर कविताओं का सृजन किया। मीरा मध्ययुगीन भारत की पहली कवयित्री हैं जिन्होंने योग के स्थान पर प्रेम की परम्परा का विकास किया। मीरा की रचनाओं में अभिजन वर्ग के सामाजिक जड़ता व भेदभाव समेत लिंगीय बन्धन का विरोध स्पष्ट रूप से झलकता है। वह अपनी रचनाओं में स्त्री अस्मिता के निर्माण व स्त्री अधिकारों को लेकर भी गम्भीर दिखती हैं। मीरा के काव्य में अपूर्व भाव विह्वलता और समर्पण समेत धार्मिकता व प्रेम-भक्ति की सृजनात्मकता का भी आत्मबोध होता है।
मीरा सामाजिक समानता व धार्मिक सद्भावना की भी प्रतीक थी। वह श्रीकृष्ण की उपासक भी थीं और रैदासजी की सत्संगों व प्रवचनों समेत भजन-कीर्तन की प्रेमी भी। राजघराने की मीरा को नीची जाति दलित (चमार) की बस्ती में जाकर साधुओं के साथ बैठना यह प्रमाणित करता है कि वह छुआछूत, जातिवाद व ऊँच-नीच की घोर विरोधी थीं। मीरा का गन्दी बस्ती में जाना और चमड़े का काम करने वाले चमार जाति के रैदास नामक व्यक्ति को अपना गुरु बनाये जाने पर,उनके सास, ससुर, देवर, ननद समेत कुटुम्बजन ने मीरा का जमकर विरोध किया,उसे विष देकर मारने की और उन्हें बदनाम करने की कोशिश तक की गयी, परन्तु इसकी परवाह किये बिना कृष्णभक्ति व सत्संग के रंग में डूबी रहकर कविता का सृजन करना यह स्पष्टतया उजागर करता है कि मीराबाई भक्ति आन्दोलन की सर्वोत्कृष्ट कवयित्री थी। मीरा के भजन गीत सैकड़ों वर्षों बाद आज भी भारत की भक्ति परम्परा को जीवन्त बनाये हुए हैं। जो राष्ट्रीय गर्व का विषय है।
निष्कर्ष : अतः निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि प्राचीन व मध्यकालीन भारत की स्त्रियों ने भारतीय चिंतनधारा के विकास में अनेक कड़ियों को जोड़कर ज्ञान-परंपरा को आगे बढ़ाया। उनका योगदान सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में व्यापकता से दिखाई देता है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था भले ही सामंती मूल्यों से युक्त रहा हो फिर भी स्त्रियों ने अपनी बेड़ियों को तोड़-फेककर पुरुषों से कंधा मिलाकर अपने अस्तित्व को बचाए रखा। प्राचीन व मध्यकाल की स्त्रियों का समाज केंद्रित यह चेतनापरक कार्य आज भी स्त्रियों के लिए प्रेरणास्रोत बना हुआ है।
शोधार्थी हिन्दी विभाग, हैदराबाद विश्वविद्यालय हैदराबाद
nimmikindo.ranchi99@gmail.com, 7320049860
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