शोध आलेख : हे री मैं तो दरद दिवाणी - मीराँबाई / रेखा पाण्डेय

हे री मैं तो दरद दिवाणी - मीराँबाई
- रेखा पाण्डेय


भारतीय साहित्य की महान कवयित्री और क्रान्तिकारी नेता मीराँबाई की काव्य-यात्रा तथा ऐतिहासिक भूमिका को साहित्य और इतिहास में जितना संक्षिप्त और सरल बनाकर उद्धृत कर दिया जाता है, संभवत: वह उतना संक्षिप्त और सरल है नहीं। यदि कुछ देर के लिए हम मीराँबाई को भक्त के रूप में न देखकर एक स्त्री चिंतक के रूप में देखने की कोशिश करें तो समझ में आएगा कि मीराँबाई का नाम कई अर्थों में विश्व की पहली पंक्ति की स्त्री चिंतकों में लिया जा सकता है। यहाँ तक कि अनेक दृष्टियों से कबीर से बड़ी समाज सुधारक नज़र आती हैं। भारतीय परिवार और समाज में स्त्रियों की दयनीय स्थिति को देखकर क्षुब्ध थीं। मीराँबाई  समझ नहीं पा रही थीं कि यह कैसा परिवार और समाज है जहाँ एक स्त्री पर सबका; पिता, भाई, पति, पुत्र यहाँ तक कि चाचा, ताउ, श्वसुर, जेठ और देवर का भी अधिकार है, यदि नहीं है तो उसका स्वयं का अधिकार नहीं है। इसीलिए जब वह कहती हैं कि मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोय तो कृष्ण के अतिरिक्त अन्य सभी सत्ताओं को अस्वीकार करती हैं या चुनौती देती हैं।

कोई व्यक्ति या समाज जब अपने स्व को पहचानता है तभी उससे संबंधित मुश्किलों और खतरों को पहचान पाता है। मीराँबाई ने स्त्री के ‘स्व’ को पहचाना और यह कोशिश की कि समाज की अन्य स्त्रियाँ भी उसे पहचान सकें। एक स्त्री होने के कारण मीराँबाई को समकालीन संतों में सबसे अधिक विरोधों का सामना करना पड़ा। पुरुष संतो को कहीं भी जाकर भक्ति करने अथवा संतों की संगति करने में कोई बाधा नहीं थी पर मीराँबाई के लिए वह भी आसान न था। एक साम्राज्य को नतमस्तक कर देना सहज नहीं था। उसके लिए जिस निडरता और साहस की आवश्यकता होती है वह मीराँबाई में थी, तभी तो गांधी भी उन्हें अपना राजनीतिक गुरु मानते हैं।

किसी ऐतिहासिक घटना को जानने के लिए मुख्यत: तीन स्रोत होते हैं - कला, साहित्य तथा इतिहास। लेकिन मीराँबाई के संदर्भ में ये सभी स्रोत कभी-कभी आधारहीन लगने लगते हैं। मीराँबाई के संबंध में एक से बढक़र एक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। उन किंवदन्तियों को हम सब सुनते और पढ़ते रहे हैं। चाहे बचपन में मीराँबाई की माता द्वारा कृष्ण को उनका पति बता देना हो, कृष्ण के प्रति उनकी अनन्य भक्ति हो अथवा स्वयं मीराँ द्वारा जीवन भर कृष्ण को ही अपना पति मानना हो, साधु संतों के आगमन से राणाओं का नाराज होना हो अथवा अंत में कृष्ण की मूर्ति में मीराँ समाहित हो जाना। उपर्युक्त सभी कथाओं को जिस तरह सुनाया जाता है, उसे सुनकर आश्चर्य होता है। बचपन में ये बातें बड़ी अद्भुत और चमत्कारपूर्ण लगती थीं। पर अब वही कुछ बातें परेशान करने लगती हैं। मीराँबाई को फिर, और फिर से पढ़ते हुए अनेक सवाल मन में उठने लगते हैं क्योंकि जो बातें कभी अद्भुत लगती थी वे अब हास्यास्पद और तर्कहीन लगती हैं।

पहली बात तो यह कि बचपन में मीराँबाई की माता ने यह कह दिया कि कृष्ण (मूर्ति) ही तुम्हारे पति हैं और उन्होंने मान लिया। चूँकि हम लोग यह मान लेते हैं कि बच्चे तर्कशील नहीं होते हैं, उनसे जो कह दिया जाता है वही मान लेते हैं। अतः मीराँबाई ने भी वैसा ही मान लिया होगा। अर्थात मीराँबाई को कृष्ण की एक मूर्ति और चलते-फिरते दूल्हे में कोई अन्तर नजर नहीं आया।

इस बात को यदि कुछ इस तरह समझा जाय कि इतिहास और अन्य साक्ष्यों के अनुसार विवाह के समय मीराँबाई की उम्र बारह से लेकर पंद्रह वर्ष के आस-पास थी। लेकिन हुआ यह कि विवाह के उपरान्त भी मीराँबाई ने अपने वास्तविक पति को अपना पति नहीं माना क्योंकि पांच वर्ष की उम्र में माँ ने कह दिया था कि कृष्ण तुम्हारे पति हैं, और आश्चर्य की बात यह है कि पांच वर्ष की उम्र में उन्होंने पति का अर्थ समझ भी लिया था। तेरह या पंद्रह साल की मीराँ भी कृष्ण (मूर्ति) को ही अपना पति मान रही थीं। तो इसका अर्थ तो यह हुआ कि मीराँबाई बुद्धि और विवेक से कभी बड़ी हुई ही नहीं! वे जैसी पाँच वर्ष की उम्र में थीं वैसी ही पंद्रह वर्ष की उम्र में भी रह गई थीं। मीराँबाई जैसी प्रखर और तर्कशील बालिका के लिए ऐसी अतार्किक कथा!

सबसे ज्य़ादा परेशान करने वाली बात - मीराँबाई का कृष्ण की मूर्ति में समा जाना है। यह किसी द्वापर, त्रेता या देवलोक की बात नहीं, बल्कि सोलहवीं शताब्दी की बात है, जहाँ एक जीती-जागती स्त्री को भगवान की मूर्ति में समाहित कराकर एक षणयंत्र को भक्ति के पवित्र एवं खूबसूरत आवरण से ढककर महिमा मण्डित कर दिया गया। कमाल की बात तो यह है कि अब तक लिखी गई इतिहास पुस्तकों को देखें तो कुछ एक को छोड़कर ज्यादातर में मीराँबाई को मूर्ति में ही समाहित करवाया गया है।

मीराँबाई क्या मात्र एक भक्त थी, जिससे पूरा राजपूत समाज भयभीत हो रहा था? आख़िर मीराँबाई की वह कौन-सी बात थी, वह कौन-सा स्वरूप था जिससे प्रेरणा लेकर महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति अन्याय के विरूद्ध खड़ा हुआ। किन कारणों से गांधी ने मीराँबाई को दुनिया का पहला सत्याग्रही कहा होगा।

ऐतिहास साक्ष्य और मीराँबाई -

यह कोई नई बात नहीं है कि इतिहास से ऐसी स्त्रियों की भूमिका या चरित्रों को गायब कर दिया जाता है जो विद्रोही या बहादुर होती हैं। और यदि कहीं उनका नाम आता भी है तो वह उनकी मूल प्रकृति से भिन्न होता है। उन्हें भक्त, त्यागी, बलिदानी, पवित्र, पतिव्रता आदि विशेषणों से महिमा मण्डित कर दिया जाता है ताकि आगे आने वाली स्त्रियाँ उनके उन्हीं रूपों का अनुकरण करें। कुछ ऐसी ही स्थिति मीराँबाई के साथ भी रही। मीराँबाई के लोकतांत्रिक और विद्रोही व्यक्तित्त्व को भक्त, साध्वी, देवी आदि अलंकरणों से विभूषित करके उसके बोझ तले ऐसे दबा दिया गया कि स्वयं मीराँबाई का चीत्कार ‘हेरी मैं तो दरद दिवाणी, मेरो दरद न जाणे कोय’— भी उसे चीर न सका और एक लम्बे समय तक हम मीरांबाई को उसी रूप में देखते, समझते और स्वीकारते रहे जो हमें दिखाया गया।

हिन्दी साहित्य के इतिहास, राजपूताने (राजस्थान) के ऐतिहासिक दस्तावेज़ों, छतरियों, कीर्तिस्तंभों पर नजर डालें तो मीराँबाई के संबंध में कोई संतोषजनक आधार या प्रमाण नहीं मिलते हैं। ‘मिश्रबंधु विनोद’ से लेकर अब तक लिखी गई हिन्दी साहित्य की इतिहास-पुस्तकों को देखें तो पता चलता है कि ‘मिश्र बंधु विनोद’ के बाद लिखी गई पुस्तकों की अपेक्षा ‘मिश्रबंधु विनोद’ में ही मीराँबाई पर कुछ ठीक-ठाक सामग्री है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भले ही हिन्दी साहित्य का एक प्रामाणिक इतिहास लिखा और अनेक कवियों की प्रतिभा को पहचान कर उन्हें साहित्य के इतिहास में स्थान दिया किन्तु मीराँबाई की प्रतिभा को वे भी नहीं पहचान पाए। ऐसा कहने का कारण और आधार यह है कि मीराँबाई के बारे में जो कुछ ‘मिश्र बंधु-विनोद’ में लिखा हुआ है उसमें से कुछ पंक्तियाँ और पद हटाकर शुक्ल जी ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में प्राय: ज्यों-का-त्यों उद्धृत कर दिया है।

‘मिश्र बंधु विनोद’ में मीराँबाई के संबंध में कई महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख मिलता है। पहली बात यह कि मीराँबाई के पति भोजराज एक बार स्वयं उनसे मिलने और क्षमा प्रार्थना करने गए थे। दूसरी- तुलसीदास और मीराँबाई के मिलने की कथा का भी खण्डन है और तीसरी और  सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि मिश्र बन्धुओं ने मीराँबाई को किसी मूर्ति में विलीन नहीं कराया है, बल्कि; उसके स्थान पर लिखा है कि राणा द्वारा भेजे गए ब्राह्मणों ने मीराँबाई को द्वारिका से चित्तौड़ लौटा लाने के लिए द्वारका में जाकर धरना दिया और उसी समय इनका ‘शरीरपात’ हो गया। इसके अतिरिक्त मिश्र बंधु यह भी मानते हैं कि मीराँबाई के काव्य में उत्तम कविता के सभी लक्षण विद्यमान हैं। (मिश्रबंधु विनोद-पृ. 133-135) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी तो मीराँबाई के प्रसंग में आचार्य रामचंद्र शुक्ल से भी दो कदम आगे चले गए। द्विवेदी जी ने ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’ में भक्ति साहित्य के विकास,  भक्तों की परंपरा, भक्तिकाल के प्रमुख कवि आदि विषयों पर विस्तार से लिखा है, परन्तु मीराँबाई पर दो पंक्ति लिखना भी मुनासिब नहीं समझा। एक स्थान पर संयोग से मीराँबाई का नाम आया भी है तो रैदास के प्रसंग में। (हिन्दी साहित्य की भूमिका, पृ. 56)

बाद के इतिहास लेखकों में रामस्वरूप चतुर्वेदी, जो कि हिन्दी साहित्य को संवेदना का विकास मानते हैं, किन्तु; मीराँबाई को लेकर उनकी संवेदना भी संकुचित ही दिखाई देती है। उन्हें लगता है कि ‘‘मीरा का काव्य सूर द्वारा विस्तार में चित्रित गोपियों की विरहोन्मुखता का ही ‘डिटेल’ या ब्यौरा है।’’ ‘‘सूर के काव्य में गोचारण वातावरण की जो स्वच्छंदता, तन्मयता है, उसकी जगह मीरा में राजस्थान से ब्रज की प्रणय यात्रा की उदग्रता है।’’ तथा ‘‘नारी होने के कारण मीरा की तन्मयता और विरह-भावना कुछ अपने आप से प्रामाणिक लगती है।’’ (हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 50-52)

यदि हम ‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’ के अंतिम हिस्से में दिए गए तिथि-क्रम को देखें तो रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार मीराँबाई का समय 1498 से 1562 ई. है तथा सूरदास का समय 1479 से 1582 ई. है, अर्थात मीराँबाई, सूरदास से 19 वर्ष छोटी ठहरती हैं। ज्य़ादातर विद्वान मानते हैं कि मीराँबाई मात्र 30 से 35 वर्ष ही जीवित रहीं, परन्तु चतुर्वेदी जी के अनुसार मीराँबाई 64 वर्ष जीवित रहीं जबकि सूरदास को 103 वर्ष की आयु प्राप्त हुई थी। ऐसी स्थिति में यह कैसे संभव है कि मीराँबाई से पूर्व सूरदासस ने अपने सभी ग्रंथ लिख दिए और मीराँबाई ने उन्हें पढ़ और समझ कर उनका विस्तार किया। संभव है कि चतुर्वेदी जी ने मीराँबाई का यह पद ‘राणाजी मैं तो गिरधर के मन भाई।.........पुरब जनम की होती गोपिका चूक पड़ी मुझ माहीं।’ पढ़ लिया होगा और इसी आधार पर उन्हें मीराँबाई में सूर की गोपियाँ दिखने लगीं हो।

विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है कि मीराँबाई से राणा रुष्ट थे, क्योंकि ‘‘मीराँबाई सवर्ण समाज की तो थीं फिर राणा कुल की विधवा पुत्र-वधु। इसलिए उनका सामान्य लोगों के बीच उठना-बैठना उस सामाजिक व्यवस्था को असह्य था जिसमें नारी पति के मरने पर या तो सती हो सकती थी या घर की चारदीवारी के भीतर वैधव्य झेलने के लिए अभिशप्त थी।......... मीराँबाई को भक्त होने के लिए लोक-लाज छोडऩी पड़ी और राणा को यही बात खलती थी।’’ (हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 44)

इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो मीराँबाई के विशेषज्ञ माने जाते हैं। उनमें एस.एन.समदानी, विजेन्द्रकुमार सिंघल, कल्याण सिंह शेखावत, माधव हाड़ा आदि का नाम उल्लेखनीय हैं। नि:संदेह इन लोगों ने मीराँबाई की जीवनी, उनके इतिहास पर बहुत काम किया है, उनके पदों का संकलन किया है । परन्तु उन्हें यह स्वीकार्य नहीं है कि मीराँबाई के जीवन में कोई दु:ख या संघर्ष था। सिसोदिया परिवार क्या, किसी भी राजपूत ने मीराँबाई के साथ कोई ज्य़ादती की थी। बल्कि माधव हाड़ा तो यहाँ तक कहते हैं कि मीराँबाई पूरी सुख-सुविधाओं के साथ जीवन व्यतीत करती थीं।

यदि विजेन्द्रकुमार सिंघल की बात मानें तो ‘‘मीराँबाई के मेवाड़ में प्रवेश से लेकर मेवाड़ त्यागने तक ‘मेवाड़पाट’ पर निम्नलिखित राणा, महाराणा विराजमान हुए व रहे (1) रायमलोत राणासांगा जो वि.सं. 1584 तक जीवित रहा (2) रतन सिंह सांगावत जो वि.सं. 1588 तक सजीवित रहा (3) विक्रमादित्य सांगावत वि.सं. 1593 तक जीवित रहा (4) कुँअर पृथ्वी सिंह रायमलोत का अनौरस पुत्र बणवीर वि.सं. 1597 तक और महाराणा उदयसिंह संगावत वि.सं. 1629 तक।’’ लेकिन इनमें से किसी ने भी मीराँबाई के साथ कोई अन्याय या दुर्व्यवहार नहीं किया। ‘‘मीराँबाई को जितने भी कष्ट चित्तौड़ में दिए गए वे सभी विक्रमादित्य के शासनकाल में वि.सं. 1588 से 1590-91 के मध्य दिए गए।’’  (मेरे तो गिरधरगोपाल पृ. 67 तथा 70) पर उसके ठीक नीचे ही वे लिखते हैं कि वि.सं. 1590-91 में वीरमदेव, मीराँबाई को अपने साथ मेड़ता ले गया, जहाँ वि.सं. 1593 तक वह सुखपूर्वक रहीं।

यदि उपर्युक्त बातों को मान भी लिया जाए तब भी कुछ सवालों पर विचार करना आवश्यक है। जब मीराँबाई यह कहती हैं कि -

हेरी म्हासूं हरि बिन रह्यो न जाय।
सास लड़े मोरी ननद खिजावै रमणा रह्या रिसाय। 
पहरो राख्यो चौकी बिठार्यो तालो दियो जड़ाय। (मीरा की पदावली पद स. 42)

इसके अलावा वे कहती हैं - ‘राणा जी थे क्यांनैं राखो म्हांसूं बैर।’

सभी जानते हैं कि यहाँ ‘राणा’ किसी एक व्यक्ति के लिए किया गया संबोधन नहीं है, बल्कि एक पूरे समाज के लिए किया गया संबोधन है। ऐसी स्थिति में किसकी बात को अधिक प्रामाणिक माना जाए, विद्वानों की अथवा स्वयं मीराँबाई? यदि मीराँबाई से किसी का कोई विरोध था ही नहीं तो उन्हें उपर्युक्त पदों को रचने की क्या आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त कुछ और तथ्यों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। राजपूताने के अनेक ऐतिहासिक दस्तावेज़ आज भी सुरक्षित हैं और प्राप्त हो रहे हैं परन्तु- 1. मीराँबाई की कोई ‘हस्तलिपि क्यों प्राप्त नहीं होती? 2. राजस्थान में आज भी और विशेषकर राजपूत घरों में लड़कियों का नाम मीराँ नहीं रखा जाता है। और 4. मीराँबाई की मृत्यु आज भी एक रहस्य बनी हुई है?

मीराँबाई पर महत्वपूर्ण शोध कार्य करने वालों में एक नाम परिता मुक्ता का है जिन्होंने सन् 1986 में मीराँबाई पर एक ऐतिहासिक शोध की शुरुआत की। आठ सालों की कड़ी मेहनत के बाद 1994 में उनकी पुस्तक ‘अपहोल्डिंग द कॉमन लाइफ: द कम्यूनिटि ऑफ मीराँबाई’ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित होकर आई। मीराँबाई पर काम करने के दौरान परिता मुक्ता के सामने भी ऐसे अनेक सवाल थे। इसलिए परिता मुक्ता ने अपनी यात्रा मीराँबाई के जन्मस्थान से शुरू की। परिता उन सभी स्थानों पर गईं जिनका संबंध मीराँबाई के जीवन से है। उन्होंने एक ओर राजस्थान के पुस्तकालयों, ऐतिहासिक दस्तावेज़ों, छतरियों और हस्तलिपियों से साक्ष्य जुटाना प्रारंभ किया जिनका संबंध राजपूताने के इतिहास से है और दूसरी ओर, राजस्थान के कुडक़ी, मेड़ता, मेवाड़, चित्तौड़, उदयपुर, अजमेर के साथ-साथ वृन्दावन और गुजरात होते हुए द्वारिका तक की यात्रा की। परिता लगातार राजपूत स्त्री-पुरुषों, किलेदारों, भाटों और उनके परिवारों से बातचीत भी करती रहीं। इसके अतिरिक्त परिता मुक्ता ने मीराँबाई के भजन गाने वाली मंडलियों से बातचीत करके मीरा के जीवन से जुड़े लोक पक्षों को भी उजागर करने की कोशिश की है। परिता मुक्ता ने साक्ष्य के साथ कई बेहद चौंकाने वाले तथ्यों का उल्लेख किया है।

जब परिता मुक्ता चित्तौड़ गईं थीं तब उनकी मुलाकात चितौड़ दुर्ग की देखभाल करने वाले एक भटनागर परिवार से हुई, जिनके बुजुर्गों को राणा परिवार बिहार के गया जिले से सन् 1299 के आस-पास मेवाड़ लेकर आया था। भटनागर के पूर्वज हमेशा ही चित्तौड़ दुर्ग के किलेदार रहे। उनके परिवार के रहने की व्यवस्था किले की चारदीवारी के अन्दर ही होती थी, साथ ही जागीर भी मिलती थी। उन्होंने परिता को बताया कि पूरे मेवाड़ में मीराँबाई का नाम लेने से लोग आज भी डरते हैं। परिता ने जब उनसे पूछा कि क्या आप लोगों को ऐसा कोई आदेश दिया गया था? तब उत्तर में उन्होंने कहा कि लिखित में तो नहीं दिया था पर हमें या हमारे पूर्वजों को पता था कि राणा परिवार ने मीराँबाई को केवल निष्कासित ही नहीं किया बल्कि वे उनके नाम तक से घृणा करते रहे हैं। तो आप ही बताइए जिन लोगों ने हमारे पूर्वजों को शरण दी थी, जागीर दी थी, उनके विरूद्ध जाकर मीराँबाई के बारे में कोई बात कैसे की जा सकती थी? (परिता मुक्ता, पृ. 69) क्या आप लोग मीराँ के भजन गाते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में भटनागर ने कहा कि-‘‘आप स्वयं बताइए कि उन (मीराँ) के भजन वहाँ कोई कैसे गा सकता है जहाँ उनके नाम का उच्चारण तक करना वर्जित हो? मीराँबाई का जैसा यहाँ विरोध था उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकती हैं। उसे अब तक लोग ढो रहे हैं और ग्रामीण क्षेत्रों में तो लोग आज भी उस आतंक से मुक्त नहीं हो पाए हैं। लेकिन अब धीरे-धीरे स्थितियाँ बदल रही हैं। मैं स्वयं भी उनका प्रशंसक रहा हूँ। अब मैं सरकारी कार्यालय में नौकरी करता हूँ। किले की नौकरी और राजपरिवार से मुक्त हूँ। अत: उन (मीराँ) के बारे में बात कर सकता हूँ। आश्चर्य की बात तो यह थी कि बातचीत के दौरान चाहकर भी भटनागर मीराँबाई का नाम नहीं ले पा रहे थे।’’ (परिता मुक्ता पृ.70)

उम्मीद है कि भविष्य में मीराँबाई पर और शोध होंगे, कुछ और तथ्य भी सामने आएंगे।

विद्रोह : राजसत्ता के बरक्स ईश्वर की सत्ता -

मीराँबाई अपने समय की सबसे बड़ी ‘सोशल एक्टिविस्ट’ हैं। मीराँबाई के भजन तो उस पत्र, डायरी या संपादकीय की तरह हैं जो कोई क्रांतिकारी या देशभक्त कालकोठरी में रहकर अत्याचारी शासन के विरुद्ध लिखता है। ज़ाहिर है मीराँबाई ने इस बात को भलीभांति समझ लिया था कि किसी बड़ी शक्ति का विरोध करने के लिए उससे भी बड़ी शक्ति की आवश्यकता होती है। जिस तरह एक बुद्धिमान बच्चा अपने सामने खींची लकीर को मिटाए बिना उसके सामने दूसरी बड़ी लकीर खींचकर अपनी जीत दर्ज करता है। ठीक उसी तरह मीराँबाई ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामंती व्यवस्था एवं अत्याचारों का विरोध करने के लिए उनके समक्ष एक ऐसी शक्ति को खड़ा किया, जिसे स्वीकार कर पाना यदि उनके लिए कठिन था, तो अस्वीकार कर पाना उससे भी ज्य़ादा मुश्किल था। उसी शक्ति के सहारे मीराँबाई ने खुद को खड़ा किया और तत्कालीन समाज में परम्परा के नाम पर होने वाले अनेक अत्याचारों का विरोध किया।

मीराँबाई का पहला विरोध भारत की उस संस्था से था, जिसे भारतीय समाज में ‘विवाह संस्था’ कहा जाता है। इस संस्था की अनेक खामियों को मीराँबाई ने अपने भजनों में व्यक्त किया है। इस संस्था के अनुसार एक बार विवाह हो जाने के बाद पुरुष सर्वसम्मति से यह अधिकार पा लेता है कि वह अपनी स्त्री के साथ कुछ भी कर सकता है। मीराँबाई संभवत: वह पहली स्त्री होंगी, जिन्होंने ‘विवाह संस्था’ के इन अधिकारों पर प्रश्न चिह्न लगाया और स्त्री की पसंद-नापसंद को महत्व दिया। उनके अनुसार स्वतंत्रता का अर्थ-स्व का तंत्र है यानी स्व पर स्व का शासन है। मीराँबाई ने यह सिद्ध किया कि एक स्त्री को भी उसके स्व पर शासन का अधिकार होना चाहिए।

इसी तरह उनका दूसरा विरोध विवाह से जुड़ी उस व्यवस्था से था, जिसके तहत स्त्रियों की भावनाओं की चिन्ता किए बिना उन्हें वस्तु की तरह उपयोग किया जाता था। उस समय राजपूत, युद्ध और संधि दोनों में स्त्रियों का लेन-देन किया करते थे। राजपूतों में एक ‘दोवड़ा-संबंध प्रथा’ प्रचलित थी जिसका उल्लेख ‘वीर विनोद’ में मिलता है। उसी से संदर्भ लेते हुए ब्रजेन्द्रकुमार सिंघल ने राजपूतों की विवाह संबंधित तथ्यों का विवरण दिया है- ‘‘इतिहास में अनेकों ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि राजपूत लोग अपनी लड़कियों को बड़े ठिकानों में देने के लिए लालायित रहते थे। उनमें लालच इतना था कि कभी 50-60 वर्ष के बूढ़े राजा-महाराजा के साथ अपनी नौयौवना लडक़ी का विवाह कर देते थे। कई बार तो राजपूत स्वयं न जाकर मात्र अपनी पगड़ी और तलवार भेज दिया करता था और लडक़ी उसी के साथ फेरे लेकर जन्म-जन्मान्तरों की उसकी हो जाती थी।... कभी-कभी राजपूत लोग अपनी रंजिश मिटाने के लिए भी अपनी बहन बेटियों का विवाह शत्रु या अदावत रखने वाले से कर देते थे।...कभी-कभी खून माफी में भी बहन बेटियों का विवाह करना पड़ता था।’’ (मेरे तो गिरधर गोपाल, पृ. 43-44) यहाँ तक कि कभी-कभी तो युद्ध में हुए खर्च की भरपाई के रूप में अपनी बहन-बेटियों को दे दिया करते थे। जाहिर है कि मीराँबाई बचपन से इस तरह की घटनाओं को देखत-सुनती रही होंगी। उन स्त्रियों की पीड़ा को महसूस कर पा रही होंगी, जिनके लिए ‘स्व’ का कोई अर्थ नहीं था। जबरन व्याह दी गई, या जीतकर लाई गई, या युद्ध की भरपाई में भेज दी गई बेटियों की क्या स्थिति होती होगी, यह आज कल्पना कर पाना कठिन है।

लोग आज भी जिन बातों का विरोध करने से घबराते हैं अथवा जिन वस्तुओं को विवाहित स्त्रियों का प्रतीक बनाए बैठे हैं, मीराँबाई ने उन्हें शताब्दियों पहले उतारकर फेंक दिया था। मीराँबाई का मानना था कि कोई प्रतीक किसी स्त्री को पतिव्रता नहीं बनाते; बल्कि यदि प्रेम सच्चा और पवित्र हो तो वह अपने आप पतिव्रता रहती है। इसके साथ ही वह उन स्त्रियों को भी भला-बुरा कहती हैं कि जो स्त्रियाँ पति से सम्मान पाने की अपेक्षा कुछ कपड़े और गहने लेकर खुश हो जाती हैं। वे साफ कहती हैं कि ये सब चीजें तो नौकरों को भी दी जाती हैं।

किसी व्यवस्था को लेकर समाज में तीन स्थितियाँ होती हैं। (1) कुछ लोग उस व्यवस्था को सही मानते हैं। (2) कुछ लोग उसे ठीक नहीं मानते पर उस व्यवस्था का विरोध भी नहीं करते हैं। और (3) वे जिन्हें वह स्वीकीर्य नहीं होती और वे समय-समय पर उसका विरोध भी करते हैं। मीराँबाई के ईर्द-गिर्द तीसरे प्रकार के लोग न के बराबर थे। इसलिए मीराँबाई के सामक्ष एक बड़ी चुनौती थी। स्त्रियों में अनेक बाल और वयस्क विधवाएँ भी रही होंगी जिन्हें सती किया जाता रहा होगा। मीराँबाई ने उनकी विवशता, छटपटाहट और तड़प देखा होगा। मीराँबाई जैसी संवेदनशील मनुष्य के लिए सबकुछ कितना मुश्किल रहा होगा।

मीराँबाई का तीसरा विरोध सती प्रथा को लेकर था। एक मृत व्यक्ति को भी जलता हुआ देखकर सहज रह पाना मुश्किल होता है तो जब किसी जीवित स्त्री को पीट-पीट कर जलाया जाता होगा तब वह दृश्य कितना विभत्स होता होगा। मीराँबाई ने न जाने कितनी स्त्रियों की वह दुर्गति देखी होगी। भोजराज की मृत्यु के बाद वह सती नहीं हुईं जिसके कारण पूरा राजपूत समाज उनके विरुद्ध था, इस बात का जिक्र अनेक विद्वानों ने किया है। उसे यहाँ पुन: दोहराने की आवश्कता नहीं है। परन्तु इस बात पर चर्चा करने की आवश्यकता है कि कुछ विद्वान यह मानते हैं कि भारत में उस समय सती प्रथा जैसी कोई परंपरा नहीं थी। और यदि थी भी तो मीराँबाई पर उसके लिए किसी ने दबाव नहीं डाला था। उन सभी तथ्यों को इस पद में देख सकते हैं -

मीराँ के रँग लग्यो हरी को, और रंग सब अटक परी।। 
गिरधर गास्यां सती न होस्यां, मन मोह्यो धन नामी।
जेठबहू को नातो नहीं राणाजी, म्हैं सेवग थे स्वामी।। 
चूड़ो दोवड़ो तिलक जु माला, सील बरत सिंगार। 
और बरत भावै नहीं राणाजी, यौं गुर ग्यान हमार।। 
कोई निंदो कोई विंदो, गुण गोविन्द रा गास्यां। 
जिण मारग वै संत पहूंता, तिण मारग म्हें जास्यां।। 
चोरी करां न जीव सतावां, कांई करसी म्हारो कोई। 
हसती चढि गधैं नहीं चढ़ां, या तो बात न होई।। 
राज करंता नरक पडेसी, भोगीड़ा जम कै लीया।
भगत करंता मुक्त पहूंतां, जोग करंता जीया।।  
गिरधर धणी कडूम्बो गिरधर, मात पिता सुत भाई।
थे थांहारे म्है म्हांहारे हो राणाजी, यौं कहैं मीरांबाई।। (मेरे तो गिरधर गोपाल पृ.390)

प्रो. लिंजी वी. हरलान ने अपनी पुस्तक ‘रिलिजन एण्ड राजपूत वुमन: द एथिक्स ऑफ प्रोटेक्शन इन कन्टेम्परेरी नरेटिवस’ में राजपूत लड़कियों को बचपन से दी जानेवाली शिक्षा-दीक्षा के संबंध में कुछ बड़ी ही दिलचस्प बातों का उल्लेख करती हैं। उनमें पहला है-नारीधर्म। वे लिखती हैं कि उस समय राजपूत घरों में बचपन से ही लड़कियों को नारीधर्म, पत्नीधर्म और सतीधर्म की ट्रेनिंग दी जाती थी और उनके मन को उन क्रूरताओं के लिए इस तरह तैयार कर दिया जाता था कि वे उसी को अपना सौभाग्य समझने लगती थीं। दूसरा था-पूजाधर्म, उन्हें बचपन से ही दो प्रकार की भक्ति की ओर झुकाया जाता था- पहली कुलदेवी की पूजा जो कि पति की विजय यात्रा, स्वास्थ्य और सुख के लिए होती थी और दूसरी सती माता की पूजा, जिसमें वे सती माता से आवश्यता पडऩे पर स्वयं के सती हो जाने की शक्ति माँगती थीं। इसी पुस्तक के एक अध्याय ‘द भक्त पैराडामस: मीराँबाई’ में हरलान ने लिखा है कि यही कारण है कि मीराँबाई के नाम से राजपूत पुरुषों से अधिक राजपूत स्त्रियाँ घृणा करती हैं। (पृ. 205-222 तक) क्योंकि मीराँबाई ने उन तथाकथित परंपराओं का विरोध किया था।

मीराँबाई की मूर्ति में समा जाने वाली किंवदन्ती के प्रसंग में प्रो. हरलान ने एक मार्मिक घटना का उल्लेख किया है। उपर्युक्त पुस्तक को लिखने के दौरान वे लगातर राजस्थान की यात्रा कर रही थीं। वे राजपूत स्त्रियों से बात करना चाहती थीं। वह बहुत कठिन था। लेकिन विदेशी होने के कारण कुछ लोगों की मदद से यह संभव हो पाया। बातचीत के दौरान हरलान ने जानबूझकर मीराँबाई का जि़क्र किया। वह लिखती हैं कि उन स्त्रियों ने मीराँबाई के संबंध में जो कुछ कहा वह मेरे लिए दुनिया के आठवें आश्चर्य से कम नहीं था। उन स्त्रियों का कहना था कि ‘‘मीराँ ने जीवन भर जिन परंपराओं का विरोध किया तथा जिन्हें तोडक़र भागीं, अंतत: वे स्वयं उसी का शिकार हुईं। अर्थात् मीराँ का कृष्ण की मूर्ति में समा जाना या विलीन हो जाना भी वास्तव में सती हो जाने के समान ही था। वे कृष्ण को अपना पति मानती थी। अत: कृष्ण के साथ एकाकार हो जाना भी एक प्रकार से सती हो जाने के समान ही है।’’ (दूसरा संस्करण पृ. 226)

कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि भारत में सती प्रथा की शुरुआत मुगलों के आक्रमण के बाद हुई। लेकिन ऐसा नहीं है, भारत में सती होने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इसके प्रारंभिक प्रमाण नेपाल के चाँगुनारायण मंदिर के स्तंभों पर मिले हैं जिसका निर्माण 5वीं शताब्दी ई. पूर्व या उससे और पहले हुआ है। इसके अतिरिक्त बंगाल, मध्यप्रदेश और विशेषकर राजस्थान में इसका इतिहास काफी पुराना है। इतिहास की अनेक घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है। कई साक्ष्यों से पता चलता है कि राजा हर्ष ने अपनी बहन राजश्री को सती होने से बचाया था। जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘राजश्री’ नाटक में भी इसका उल्लेख मिलता है। (राजश्री, पृ. 50-51)

अरविन्द सिंह तेजावत ने अपनी पुस्तक ‘मीराँ का जीवन’ में कुछ पुरातात्त्विक स्रोंतों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट किया है कि तत्कालीन राजस्थान में सती प्रथा कितना वीभत्स रूप ले चुका था। उदयपुर के राजकीय संग्रहालय से प्राप्त ‘जहाजपुर अभिलेख’ का जिक्र करते हुए उन्होंने महाराणा पृथ्वीराज द्वितीय के समय में निर्मित सतीस्तंभ जिसका समय वि.सं. 1226 है, का विवरण दिया है- ‘‘इस अभिलेख में सामूहिक रुप से सती होने वाली स्त्रियों के नाम दिए गए हैं। इनमें सतुन देवी, जिलिन देवी, पातलदेवी, सिरिलदेवी....के नाम अंकित हैं।’’ (पृ.57) उदयपुर के राजकीय संग्रहालय से प्राप्त एक दूसरे ‘सतीस्तंभ’ का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘‘यह सतीस्तंभ वि.सं. 1471 का है। एक पुरुष योद्धा को इस स्तंभ में अंकित किया गया है जो तीव्र गति से दौड़ते हुए घोड़े पर बैठा हुआ है एवं उसके हाथ में भारी भाला है। उसकी आँखों से रोष टपक रहा है। इस पुरुष के नीचे नागरी लिपि में खुदे लेख में बताया गया है कि आषाढ़ वदी 14 संवत 1471 को नाथीबाई सती हुई जिसका पति कोई राठौर राजपूत लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।’’ (पृ. 56)

बीकानेर के राजकीय संग्रहालय से प्राप्त दो अन्य सती स्तंभों का उल्लेख करते हुए अरविन्द ने बताया है कि इनका संबंध मंडला जी तथा सवाई सिंह जी की मृत्यु से है। (पृ.56) इसके अतिरिक्त अरविन्द ने मालवा के चंदेरी दुर्ग में स्थित एक ‘सतीस्तंभ’ तथा एक ‘छतरी’ का उल्लेख किया है। आक्रमणकारियों द्वारा चंदेरी दुर्ग पर आक्रमण के साथ ही इस दुर्ग की राजपूत स्त्रियों ने ‘जौहर’ अथवा सामूहिक सती उत्सव का आयोजन किया था।’’ (पृ. 57)

इतिहासकार लेफ्टिनेन्ट जनरल टॉड ने भी इस बात की पुष्टि की है कि सन् 1799 ई. में जब वे भारत आए तब बाल विवाह और सतीप्रथा दोनों अपने चरम पर थे। ऐसे में मीरा द्वारा सती होने से अस्वीकार कर देने पर क्या स्थिति उत्पन्न हुई होगी, इसकी कल्पना कर पाना असंभव नहीं है।

मीराँबाई का अगला विरोध भक्ति के उन विभिन्न संप्रदायों से था जो उस समय के अनेक भक्तों और ब्राह्मणों द्वारा चलाए जा रहे थे। ‘चौरासीवैष्णवन की वार्ता’ तथा ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के आधार पर ऐसी अनेक घटनाओं के प्रमाण मिलते हैं जिनमें साचौरा ब्राह्मण गोविन्द दुबे, अष्टछाप के कवि कृष्णदास तथा स्वयं मीराँबाई के पुरोहित रामदास की कथा है। रामदास जिसको मीराँबाई ने जागीर देकर बसाया था। उन्होंने तो मीराँबाई को  ‘अरे दारी रांड’ अर्थात् ‘व्यभिचारिणी स्त्री’ (पृ. 189, चौरासी वैष्णन कीवार्ता) तक कह कर संबोधित किया था।

भक्ति मनुष्य को कुल, जाति, धर्म, संप्रदाय आदि की सीमाओं से ऊपर उठाता है और ‘‘प्रेम स्वभाव से ही सत्ता विरोधी और स्वतंत्र होता है। वह अपने प्रिय को छोडक़र और किसी की सत्ता स्वीकार नहीं करता।’’ (हिन्दी कविता का अतीत और वर्तमान पृ. 42) जिसे नाभादास जी ने भी रेखांकित किया है-‘‘सदृश गोपिको प्रेम प्रगट कलियुगहिं दिखायो। निर अंकुश अति निडर रसिक यश रसना गयो।।’’ जहाँ एक ओर मीराँबाई किसी संप्रदाय में बंधकर भक्ति के शुद्ध सात्विक स्वरूप को खोना नहीं चाहती थीं वहीं दूसरी ओर इन संप्रदायों के गद्दीधारी संत तथा राजपुरोहित उनको अपने अधीन रखने के लिए हर संभव प्रयत्न कर रहे थे। अत: मीराँबाई से उनका विरोध होना स्वाभाविक था।

हम सभी जानते हैं कि मीराँबाई, कृष्ण को अपना पति मानती थीं पर साथ ही यह भी उतना ही सच है कि मीराँबाई का न तो उनसे वैवाहिक संबंध हो सकता था, न संतान की प्राप्ति हो सकती थी और न ही जागीर (संपत्ति) में बंटवारा हो सकता था, तो फिर मीराँबाई से इतनी घृणा, उनका इतना विरोध क्यों? मीराँबाई पर बात करते हुए हमें अपने चिंतन के दायरा को बढ़ाना होगा। मीराँबाई मात्र एक परिवार विशेष का विरोध नहीं कर रही थी और न ही वह मामला परिवार तक सीमीत था, बल्कि सबकुछ होते हुए भी तत्कालीन समाज में एक अकेली स्त्री के लिए जीवन कितना कठिन और दुभर था वे उस बात को महसूस कर पा रही थीं। भारतीय समाज में मीराँबाई की भूमिका इतनी ही नहीं है कि वह एक भक्त थीं, उनके जीवन का उद्देश्य उन सब बातों से कहीं और बड़ा था।

मीराँबाई का लोकतंत्र और महात्मा गांधी का स्वाधीनता आंदोलन -

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के ऐतिहासिक, राजनीतिक परिदृश्य और गांधी की भूमिका पर नजर डालें तो यह साफ देख सकते हैं कि गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन के लिए मीराँबाई का जिस प्रकार प्रयोग किया, उससे मीराँबाई की एक अलग पहचान सामने आई। परिता मुक्ता ने पहली बार इस विषय पर विस्तार से लिखा। उन्होंने लिखा है कि यह कहना मुश्किल है कि गांधी कब और कैसे मीराँ से प्रभावित हुए लेकिन दक्षिण अफ्रीका में गांधी के आश्रमों में मीराँ के भजन गाए जाते थे। ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई’ गांधी आश्रमों में गाया जानेवाला एक लोकप्रिय भजन था। गांधी जी ने मीराँबाई के जीवन की कई बातों को ज्यों-का-त्यों ग्रहण किया जैसे- अत्याचारी शासन का निडरता से विरोध, सत्य के प्रति निष्ठा, सादा जीवन आदि। (परिता मुक्ता, पृ. 183-84)

एक सत्य यह भी है कि मीराँबाई का जैसा विरोध राजस्थान में था, वैसा विरोध गुजरात में प्रारंभ से ही नहीं था। यह अलग बात है कि वहाँ भी मीराँबाई आम जन के बीच ही ज्य़ादा लोकप्रिय थी और आम लोग ही उनके भजन गाते थे। गांधी ने पहली बार मीराँबाई के लोकतांत्रिक पक्ष को पहचाना और उन्हें प्रथम सत्याग्रही के रूप में स्थापित किया। यही कारण है कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को धार देने और आम लोगों को स्वाधीनता आंदोलन से जोडऩे  के लिए गांधी जी ने मीराँबाई के सिद्धान्तों और भजनों का सहारा लिया। उस समय गुजरात के प्रसिद्ध चित्रकारों रविशंकर रावल तथा कानु देसाई से मीरांबाई के भजनों के साथ मीराँबाई के ऐसे चित्रों का निर्माण करवाया जिससे स्त्रियाँ अपनी शक्ति को पहचान सकें और मीरांबाई के विद्रोही रूप से प्रेरणा ले सकें। गांधी के कहने पर उन चित्रों को घर-घर बंटवाया। गांधी ने ‘सत्याग्रह’ पर शंकर लाल को लिखे एक पत्र में लिखा कि ‘‘अंग्रेजी शब्द खंड ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ उस शक्ति को प्रस्तावित नहीं करता जिस शक्ति के बारे में मैं लिखना चाहता हूँ, उसके लिए बल की अपेक्षा ‘सत्याग्रह’ सही शब्द है। चूंकि यह अनिवार्यत: एक नैतिक अस्त्र है, अत: नैतिक जीवन शैली का पालन करने वाले व्यक्ति ही इसका बुद्धिमता पूर्वक प्रयोग कर सकते हैं। प्रहलाद, मीराँबाई तथा अन्य लोग ‘सत्याग्रही’ थे। (गांधी वांगमय— खंड XXXIII, 1915-1917: पृ 517, ‘आइडियाज अबाउट सत्याग्रह’)’’

मीराँबाई एक रानी थीं। उन्हें यदि मात्र भक्ति ही करनी होती तो वह राजमहल में रहकर भी सादा जीवन जी सकती थीं अथवा जीवन की सभी सुख-सुविधाओं को भोगते हुए भी भक्ति कर सकती थीं लेकिन; उन्होंने ऐसा नहीं किया। ज़ाहिर-सी बात है कि उसी महल में रहते हुए, राजसी सुख-सुविधाओं को भोगते हुए वहीं की सत्ता का विरोध नहीं कर सकती थीं। इसलिए मीराँबाई, कृष्ण के एक ऐसे रूप को लेकर सामने आईं जो शुद्ध रूप से उनका अपना गढ़ा हुआ रूप था जिसके सहारे निडर होकर वे उन सब बातों का विरोध कर सकीं, जिनसे उन्हें घृणा थी। उन्हीं से प्रेरणा लेकर गांधी ने नि:शस्त्र होकर सशस्त्र और दमनकारी ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध किया और वे सफल भी हुए।

मीराँबाई की मृत्यु और कुछ अधूरे सवाल -

यह बात कुछ अजीब लगती है कि जिन लोगों (राणा के प्रतिनिधि और पुरोहित वर्ग) ने बार-बार मीराँबाई का अपमान किया, उनका तिरस्कार किया तथा उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकने के लिए मजबूर कर दिया, उन्हीं लोगों ने द्वारका से मीराँबाई को लौटा लाने के लिए अनशन किया होगा! चूँकि, मीराँबाई पुन: मेवाड़ लौटना नहीं चाहती थीं, अत: प्रार्थना करते हुए कृष्ण की मूर्ति में समाहित हो गईं- इस बात का उल्लेख लगभग विद्वानों ने किया है। ‘मीराँबाई रीपरची’ के 174वें छंद में भी इसका संकेत है लेकिन; आश्चर्य की बात है कि ऐसी किसी बात का उल्लेख नाभादास जी ने नहीं किया है!

आचार्य शुक्ल के अनुसार नाभादास ‘‘वि. सं. 1657 के लगभग वर्तमान थे’’ (हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ.80) और भक्तमाल की रचना सन् 1592 में मानी जाती है। महावीरसिंह गहलोत इसे सन् 1658 में पूर्ण हुआ मानते हैं। (हिन्दी साहित्य कोश-भाग-2 पृ.301)। यदि मीरांबाई की मृत्यु सन् 1540-50 के आस-पास हुई होगी तो भी नाभादास जी के समय में मीराँबाई के समकालीन अनेक लोग जीवित होंगे और नभादास ने प्रमाणिकता की पुष्टि की होगी। अत: मीराँबाई को जानने के लिए ‘भक्तमाल’ से प्रारंभिक और प्रमाणिक कोई अन्य स्रोत है, यह कहना मुश्किल है।

नाभादास ने बड़ी सावधानी से दो बातों का जिक्र किया है। पहली बात यह कि जब वे लिखते हैं कि ‘‘भक्ति निशान बजाय कै, काहूतैं नाहिन लजी। लोकसमाज कुलश्रृंखला, तजि मीरा गिरधर भजी।।’’- तो वे यह नहीं कहते हैं कि मीराँबाई ने किसी मर्यादा का उलंघन किया, बल्कि; वे यह कहते हैं कि मीराँबाई डंके की चोट पर अपने प्रेम एवं भक्ति का ऐलान करती हैं और इसके मार्ग को रोकनेवाले समाज के बंधनों को अस्वीकार करती हैं। दूसरी बात, वे लिखते हैं कि- ‘‘दुष्टिन दोष विचारि मृत्यु को उद्यिम कीयो।’’ उन्होंने ‘उद्यिम’ शब्द का प्रयोग किया है जिसका किसी भी शब्दकोश में सीधा और सटीक अर्थ-‘कार्य’ यानी ‘वर्र्क ’ होता है। संभव है कि इस शब्द का प्रयोग उन्होंने मीराँबाई को मारने के अर्थ में किया हो। यानी साफ है किजो लोग मीराँबाई को दुष्ट, पापिन अथवा कुल-कलंकिनी समझते थे उन्होंने मीराँ को मारने का प्रयास किया। यह भी हो सकता है कि राणा के जो प्रतिनिधि और पुरोहित मीराँबाई को मेवाड़ लौटा लाने गए थे, उन्होंने राज्य की सहमति से  मीराँबाई की हत्या कर दी हो और मूर्ति में समा जाने की कथा फैला दी हो। परन्तु दुर्भाग्यवश किसी पुरातत्त्ववेत्ता अथवा किसी अध्येता ने इसकी खोज नहीं की। ऐसा करना या करवा देना राजपूताने के लिए कोई नई या बड़ी बात नहीं थी। उदयपुर का इतिहास भाग-2 से संदर्भ लेते हुए ब्रजेन्द्र कुमार सिंघल ने लिखा है कि ‘‘राजपूतों के इतिहास में अनेकों ऐसे वर्णन मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि राणा, राजा अपने विरोधी या अधीनस्थों को विषपान करने, जल में डूब मरने, कटारी खा-मरने का आदेश दे देते थे। और वे विरोधी या अधीनस्थ निरुपाय होकर वैसा ही कर लेते थे। एक बार उन्होंने मीराँबाई को भी जल समाधि लेने के लिए विवश किया था पर सफल न हो सके। (मेरे तो गिरधर गोपाल पृ. 88) इसी तरह अरविन्द ने ‘विजय (कीर्ति) स्तंभ’ चित्तौड़ दुर्ग का हवाला देते हुए लिखा है कि चित्तौड़ दुर्ग के अन्दर ही एक श्मशानघाट है, जिसके बगल में ही एक महासती स्थल है जहाँ राजपूत स्त्रियों को सती किया जाता था। (मीराँ का जीवन पृ. 58) इनमें कयादातर वे स्त्रियाँ होती थी, जिनसे राजनीतिक हस्तक्षेप अथवा संपत्ति के बंटवारे का डर होता था। जाहिर है कि ऐसी स्त्रियाँ कभी स्वेच्छा से सती नहीं होती होंगी, उन्हें अनेक तरह यातनाएँ देकर सती होने के लिए विवश किया जाता होगा। मीराँबाई ने अवश्य ही ऐसे वीभत्स दृश्यों को अपनी आंखों से देखा होगा और उनकी चीत्कार भी सुनी होगी। अत: उनके द्वारा मेवाड़ पुन: लौटने से मना कर देना स्वाभाविक था। इसी प्रकार ‘मीराँबाई वृहद पदावली’-भाग-1 पदांक 422 को देखते हुए लगता है कि यह पद मीराँबाई द्वारा रचित न होकर किसी प्रत्यक्षदर्शी अथवा मीराँबाई की किसी सखी द्वारा रचित है। पद इस प्रकार है -

‘‘काढ कटारौ राणाजी भेज्यो, दूजी भेजी तरवार।
एक मीरां की दो करां कोई, दो की हो गई चार।।
राणों मीरां से यों कहे जी, कस्यो थारो भगवान।
राजपाट सब छोडस्यां कोइ, म्हें भी भजाँ भगवान।।
कचो रंग उड़ जाय छै जी, पको रंग नहिं जाय।
मीराँ के रंग गोपाल को जी, अब छूटण को नाँय।।’’

एक बार के लिए यदि यह मान भी लिया जाए कि कोई चमत्कार हुआ हो और मीराँबाई मूर्ति में समाहित हो गई हों, तब तो राजपूताने में मीराँबाई की में पूजा होनी चाहिए कि भगवान ने उन्हें स्वयं में समाहित कर लिया जो कि किसी काल के अन्य किसी भक्त के साथ नहीं हुआ, न कि उनका विरोध नहीं किया जाना चाहिए।

मैं जब भी मीराँबाई की मृत्यु पर सोचती हूँ, तो आँखों के सामने ‘साहब बीबी और गुलाम’ फिल्म का पहला और दूसरे अर्थों में अंतिम दृश्य घूम जाता है जहाँ छोटी बहू को उसी महल के नीचे दफ़ना दिया जाता है और किसी को कानों कान खबर नहीं होती है।

कविता केवल सौन्दर्य की ही सृष्टि नहीं करती, बल्कि; जीवन के साथ उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरती हुई उसके राग-विराग, सुख-दु:ख को महसूस करती हुई जीवन की पुनर्रचना भी करती है। मीराँबाई का काव्य उनके उन्हीं अनुभवों को सजीव करता है। उनके साहस की अग्रगामिता की आज और अधिक आवश्यकता है।


संदर्भ :
 
1. भक्तमालनाभादास, गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास प्रकाशन, कल्याण, मुंबई
2. मिश्रबंधु विनोद अथवा हिन्दी साहित्य का इतिहास तथा कवि कीर्तन-भाग-1, गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र, शुकदेव बिहारी मिश्र (गंगा पुस्तकमाला कार्यालय, 29-30, अमीनाबाद पार्क, लखनऊवि.सं. 1983)
3. हिन्दी साहित्य का इतिहास -आचार्य रामचंद्र शुक्ल (नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी वि.सं. 2051)
4. हिन्दी साहित्य की भूमिका- . हजारी प्रसाद द्विवेदी (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-1991-97)
5. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास- रामस्वरुप चतुर्वेदी (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद-2011)
6. हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास- विश्वनाथ त्रिपाठी (एन.सी..आर.टी.-1986)
7. अपहोल्डिंग कॉमनलाइफ: कम्यूनिटि ऑफ मीराँबाई- परिता मुक्ता (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस-1994)
8. रीलिजन एण्ड राजपूत वूमन : एथिक ऑफ प्रोटेक्शन इन कन्टेम्परेरी नरेटिव्स - लिंजी बी. हरलान (यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया प्रेस, बर्कली-1992)
9. हिन्दी कविता का अतीत और वर्तमान- मैनेजर पाण्डेय (वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली-2013)
10. राजश्री- जयशंकर प्रसाद (लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद-2013)
11. हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 सं. धीरेन्द्र वर्मा, ब्रजेश्वर वर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी (ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी)
12. एनाल्स एण्ड एन्टीक्यूरिज ऑफ राजस्थान और सेन्ट्रल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ इण्डिया-भाग-1, 2 एवं 3 जेम्स टॉड (मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन, दिल्ली-1986)
13. चौरासी वैष्णवनकी वार्ता (गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, कल्याण-बम्बई)
14. मेरे तो गिरधर गोपाल- ब्रजेन्द्र कुमार सिंघल (भारतीय विद्या मंदिर, बीकानेर-2008)
15. मीराँ का जीवन -अरविन्द सिंह तेजावत (लोक भारती प्रकाशन, इलाहाबाद-2015)


रेखा पाण्डेय
एसोसिएट प्रोफेसर सी. एस. यू. जयपुर
dr.rekhapandey009@gmail.com, 9928624777

चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-50, जनवरी, 2024 UGC Care Listed Issue
विशेषांक : भक्ति आन्दोलन और हिंदी की सांस्कृतिक परिधि
अतिथि सम्पादक : प्रो. गजेन्द्र पाठक सह-सम्पादक :  अजीत आर्यागौरव सिंहश्वेता यादव चित्रांकन : प्रिया सिंह (इलाहाबाद)

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