- शेषांक चौधरी
भारतीय परिदृश्य में वाल्मीकि रामायण का प्राकट्य एक अश्रुतपूर्व एवं विलक्षण घटना है। इस महाकाव्य ने भारतीय काव्य-दृष्टि को अद्वितीय उन्मेष प्रदान किया। ऐसा नहीं था कि इससे पहले इस महादेश में कविता लिखी नहीं गई; लेकिन वह काव्य ‘देवस्य काव्य’ था। मनुष्य की आकांक्षाएँ, उसके द्वारा धारणीय मर्यादाओं की अभिव्यक्ति उस काव्य में नहीं थी । इसलिए यह प्रथम महाकाव्य लोक की चिंता से ही आरंभ होता है क्योंकि लोक इस काव्य के केंद्रीय पीठिका है । ‘को न्वस्मिन् सांप्रतं लोके’ से इस महाकाव्य को आरंभ करने का गंभीर आशय यह भी है कि पराजित या हताश मनुष्यता देवताओं के गौरवगान से संबल नहीं पाती । उसके सांप्रतिक ऊर्ध्वारोहण के लिए ऐसा आदर्श चाहिए जिसका विकसन मानुषी-जीवन के संघर्षों के बीच हुआ हो, न कि किसी अतीन्द्रिय लोक में । यही कारण है कि स्वपथ से विचलित मनुष्यता को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए महर्षि वाल्मीकि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को अपने काव्य का आधार बनाते हैं । इस महाकाव्य को उपजीव्य बनाकर न केवल भारतीय भाषाओं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में विपुल साहित्य की रचना हुई । क्षेत्रीय परंपराओं और लोकभाषाओं में रामकथा का आख्यान प्रस्तुत किया गया है; पंजाब में दशमेश गुरु गोविंद सिंह जी ने ‘रामकथा’ लिखी, पूर्व में ‘कृतिवास रामायण’ तो महाराष्ट्र में ‘भावार्थ रामायण’ का प्रचलन है । बाबा तुलसी द्वारा अवधी भाषा में लिखी गई ‘श्रीरामचरितमानस’ तो सर्वत्र विख्यात ही है । सुदूर दक्षिण में महाकवि कम्बन कृत ‘कंब रामायण’ व महाकवि रंग कृत ‘रंग रामायण’ आदि विख्यात भक्तिपूर्ण ग्रंथ हैं । यही नहीं विश्व के अनेक देशों के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पटल पर हर देश की अपनी-अपनी ‘राम काव्य’ परम्पराएं हैं । अलग-अलग संस्कृतियों, लोक-जीवन, कहानी, किंवदंतियों में राम-काव्य परम्परा विविध स्वरूपों में मिलती है । उदाहरणार्थ- ‘रामकियन’ थाईलैंड में रामायण का एक विख्यात स्वरूप है, वहीं ‘काकविन रामायण’ इंडोनेशिया में रामायण का प्रसिद्ध प्रचलित स्वरूप है । स्वयं गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में राम ग्रन्थों के विस्तार का वर्णन करते हुए लिखा है -
‘नाना भांति राम अवतारा । रामायण सत कोटि अपारा ।।’ (बालकाण्ड, रामचरितमानस)
आधुनिक काल में भी अनेक रचनाकारों ने रामचरित पर अपनी लेखनी चलाई है । इन रचनाकारों में एक महत्वपूर्ण नाम श्री राधेश्याम कथावाचक का है, जिन्होंने ‘राधेश्याम रामायण’ नामक ग्रंथ का सृजन किया । राधेश्याम कथावाचक को नेपाल सरकार से ‘कथावाचस्पति’ की उपाधि मिली थी । इसके अतिरिक्त ‘कीर्तनकलानिधि’, ‘काव्यकलाभूषण’, ‘श्री हरि-कथा-विशारद और ‘कविरत्न’ भी वे कहे जाते थे । २५ नवंबर १८९० को संयुक्त प्रांत के बरेली शहर के बिहारीपुर मोहल्ले में पंडित बांकेलाल के घर जन्मे राधेश्याम कथावाचक ने महज १७-१८ वर्ष की आयु में ही राधेश्याम रामायण की रचना कर ली थी, हालाँकि यह ग्रन्थ १९२४ ई. में प्रकाशित हुआ जब वे ३४ वर्ष के थे। निश्चित ही इस अंतराल में उन्होंने इस पुस्तक की संरचना में व्यापक परिवर्तन किया होगा। इस काव्य की प्राथमिक पांडुलिपि अप्राप्त है अन्यथा इसके अद्यतन संस्करण से मिलान कर उसका रोचक अध्ययन किया जा सकता है। राधेश्याम जी की तत्कालीन प्रसिद्धि का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी रामकथा वाचन शैली पर मुग्ध होकर पंडित मोतीलाल नेहरू ने उन्हें प्रयागराज (तब इलाहाबाद) अपने निवास ‘आनंद भवन’ पर बुलाकर चालीस दिनों तक कथा सुनी थी । यही नहीं स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने भी उन्हें राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर उनसे पन्द्रह दिनों तक राम कथा का आनंद लिया था। उनकी सामाजिक संलग्नता का अंदाजा इस बात से लगता है कि जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना हेतु धन जुटाने महामना मदन मोहन मालवीय बरेली पधारे तो राधेश्याम कथावाचक ने उनको अपनी साल भर की कमाई दान दे दी थी।
राधेश्याम कथावाचक कृत ‘राधेश्याम रामायण’ अपनी मधुर गायन शैली के कारण शहर, कस्बे से लेकर गाँव-गाँव और घर-घर आम जनता में इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उनके जीवन काल में ही इस कृति की लाखों प्रतियाँ छपकर बिक चुकी थीं । अपने एक आलेख में पंडित राधावल्लभ त्रिपाठी इस रामायण की प्रसिद्धि के संबंध में लिखते हैं- “राधेश्याम रामायण के अलग-अलग काण्डों के कई-कई पुनर्मुद्रण हुए । मेरे पास राधेश्याम रामायण की श्री राधेश्याम पुस्तकालय से १९६० में प्रकाशित प्रति है, जो उनतालीसवीं बार दो हजार की संख्या में छापी गई है । संभवत: इसके पहले इसकी अड़तीस आवृत्तियों में मुद्रित प्रतियों की संख्या दो-दो हजार से ऊपर ही रहती आई होगी । इससे राधेश्याम रामायण की अपार लोकप्रियता, जो हमारे समय में अब अकल्पनीय है, का अंदाजा लगाया जा सकता है ।”१
राधेश्याम रामायण की प्रभावान्विति से सिर्फ भारतीय जनमानस ही नहीं, अपितु नेपाल की धर्मप्राण जनता भी उससे अनुरंजित एवं अनुगूँजित है । श्रीरामचरितमानस के बाद कदाचित राधेश्याम रामायण ही वह पुस्तक है जिसे राम भक्तों ने अपना कण्ठहार बनाया है । हिंदी भाषी क्षेत्र में अधिकांश रामलीला-मण्डलियाँ इसी का आधार लेकर अपने अभिनयों के संवाद प्रस्तुत करती हैं ।
राधेश्याम रामायण में सम्पूर्ण रामकथा को आठ काण्डों में विभाजित कर लिखा गया है । इन आठ काण्डों को भी कई-कई खण्डों में पुनर्विभाजित किया गया है, जो इस प्रकार है- १) बाल-काण्ड (रामजन्म, पुष्पवाटिका, धनुष यज्ञ, विवाह खण्ड), २) अयोध्या-काण्ड (दशरथ का प्रतिज्ञा पालन, कौशल्या माता से विदाई, वन-यात्रा, सूनी अयोध्या, चित्रकूट में भरत-मिलाप खण्ड), ३) अरण्य-काण्ड (पंचवटी, सीता-हरण खण्ड), ४) किष्किंधा-काण्ड (राम-सुग्रीव की मित्रता खण्ड), ५) सुंदर-काण्ड (अशोक-वाटिका, लंका-दहन, विभीषण की शरणागति, अंगद-रावण का संवाद खण्ड), ६) लंका-काण्ड (मेघनाथ का शक्ति प्रयोग, सती-सुलोचना, अहिरावण-वध, रावण-वध खण्ड), ७) उत्तर-काण्ड (राज-तिलक खण्ड), ८) लव-कुश-काण्ड (सीता-वनवास, रामाश्वमेध, लव-कुश की वीरता, सतवंती सीता की विजय खण्ड) ।
उक्त आठों काण्डों में से अंतिम काण्ड ‘लव-कुश काण्ड’ को छोड़ दिया जाये तो शेष सातों काण्डों का नामकरण श्रीरामचरितमानस के काण्डों के नामकरण के समान ही है । इसके आठवें काण्ड ‘लव-कुश काण्ड’ के रचनाकार के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है । मेरे पास उपलब्ध श्री राधेश्याम पुस्तकालय बरेली से प्रकाशित प्रति में आठवें काण्ड के लेखक के रूप में श्री राधेश्याम कथावाचक का नाम लिखित है, मगर डॉ. अनंतराम मिश्र के अनुसार- “२१ खण्ड (सात काण्डों के) राधेश्याम कथावाचक द्वारा रचित हैं और लव-कुश काण्ड के चार खण्ड संपादित, जिन्हें पंडित मदनमोहन लाल शर्मा ने उनकी ही शैली में प्रणीत किया है ।”२
राधेश्याम रामायण की विलक्षणता इस बात में भी है कि यह प्रामाणिकता के लिए संस्कृत रामकाव्य की परंपरा के बजाय, अवधी के रामकाव्य को अपने काव्यस्रोत के रूप में स्वीकार करता है । यह खड़ी बोली में रामकाव्य के विकास की स्वाभाविक गति का संकेत है। जहाँ गोस्वामी तुलसीदास को भाखा में रामकथा लिखने पर तत्कालीन काशी में उपस्थित संस्कृत एवं परंपरा के मूर्धन्य विद्वानों यथा स्वामी मधुसूदन सरस्वती से सम्मति प्राप्त करनी पड़ी थी, वही हिंदी के रामभक्त कवि को संस्कृत का मुँह नहीं जोहना पड़ा है। वह अत्यंत सहजता से रामचरितमानस को उपजीव्य स्वीकार करता है। जिसे हम साहित्य में देशज आधुनिकता कहते हैं, क्या वह यही नहीं है। अपने काव्य के मंगलाचरण में ही रचनाकार राधेश्याम कथावाचक ने स्पष्ट कर दिया है -
श्रद्धेय तुलसीदास के पद, मार्ग सुगम बनाएंगे ।
अनुवाद ‘राधेश्याम’ अपना, आप वही कराएंगे ।।३
हालांकि श्रीरामचरितमानस से अत्यधिक प्रभाव ग्रहण करने के बावजूद लेखक ने कई ऐसी स्वतंत्र, मौलिक उद्भावनाएं भी की हैं, जिनका कोई उल्लेख श्रीरामचरितमानस में नहीं मिलता है । बाल-काण्ड के ‘रामजन्म’ खण्ड में गुरु द्वारा राम आदि को आत्मा-विषयक उपदेश, बाल-काण्ड के ही ‘पुष्प-वाटिका’ खण्ड में फूलों के नाम, अयोध्या-काण्ड के ‘दशरथ का प्रतिज्ञा पालन’ खण्ड में दशरथ की वैराग्य भावना, इसी काण्ड के ‘कौशल्या माता से विदाई’ खण्ड में लक्ष्मण का वनगमन से पूर्व उर्मिला से वार्तालाप, अयोध्या-काण्ड के ही ‘सूनी अयोध्या’ खण्ड में श्रवण कुमार का प्रसंग एवं भरत-शत्रुघ्न की ननिहाल से घर वापसी और अयोध्या के सारे घटनाक्रम से वाकिफ होने के बाद भरत का आत्मघात के लिए उद्धत होना, अरण्य-काण्ड के ‘पंचवटी’ खण्ड में राम द्वारा सीता का पुष्प शृंगार, सुंदरकाण्ड के ‘लंका दहन’ खण्ड में लंका दहन के पश्चात हनुमान का शनैश्चर से मिलन, लंका-काण्ड के ‘सती सुलोचना’ व ‘अहिरावण वध’ खण्ड तथा ‘रावण वध’ खण्ड में रावण का मरण से पूर्व लक्ष्मण को उपदेश देना, उत्तर-काण्ड में अयोध्या लौटने पर लक्ष्मण का पुनः उर्मिला से मिलन इत्यादि प्रसंग या तो गोस्वामी तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस में वर्णित नहीं हैं और अगर हैं भी तो सर्वथा भिन्न हैं । आठवां काण्ड (लव-कुश काण्ड) तो सर्वथा नवीन ही है । मानस में तो इस काण्ड का कोई जिक्र ही नहीं है।
पंडित राधेश्याम कथावाचक ने ‘काव्येर उपेक्षिता’ उर्मिला को भी अपने काव्य में यथास्थान स्मरण किया है । न केवल स्मरण किया है बल्कि उर्मिला के त्याग,तप और विरह को भली प्रकार से अभिव्यक्त भी किया है । हिंदी जगत में यह तथ्य सम्यक विश्रुत है कि सर्वप्रथम महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने एक भावपूर्ण निबंध में महर्षि वाल्मीकि से लेकर आधुनिक कवियों की काव्य में उर्मिला की उपेक्षा करने की निंदा की। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने उस लेख से प्रेरणा लेते हुए सरस्वती (१९०८ ई.) में भुजंग भूषण भट्टाचार्य के छद्म नाम से ‘कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता’ लेख लिखा; जिससे प्रेरित होकर राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने १९३१ ई. में ‘साकेत’ की रचना की, जिसमें उन्होंने उर्मिला से सम्बन्धित वर्णन को स्थान दिया है, जबकि ‘राधेश्याम रामायण’ तो वर्ष १९२४ ई.४ में ही प्रकाशित हो गया था। इस तरह राधेश्याम कथावाचक हिंदी काव्य परंपरा में उर्मिला को स्थान देने वाले पहले कवि ठहरते हैं। हो सकता है, उन्होंने भी द्विवेदीजी का वह आलेख पढ़ा हो और उससे प्रेरणा पाई हो। राधेश्याम रामायण के वनगमन-प्रसंग में लक्ष्मण के वनगमन का समाचार सुनने के बाद उर्मिला अपने दु:ख को अपने ही अंतर में समेट लेती है । उर्मिला के अंतर में सिमटे दु:ख को लक्ष्मण ही नहीं बाद के कवियों द्वारा भी अनदेखा किया गया । पंडित जी लिखते हैं -
भीतर ही भीतर आग लगी-पर प्रकट धुँए का पता नहीं ।
बुझ गई वहीं की वहीं ज्वाल, बाहर तक आई हवा नहीं ।।
वह रोई पर ऐसी रोई-पति ने भी नहीं सजल देखा ।
पति तो क्या, कवियों तक की भी, प्रतिभा ने नहीं विकल देखा ।।५
लक्ष्मण जब उर्मिला से वनगमन की अनुमति लेने जाते हैं तो वह सहज ही उनको अग्रज राम की सेवा में जाने की आज्ञा दे देती है -
हे हृदयेश्वर ! प्रस्थान करो- श्री रघुराई की सेवा में ।
भाई का जीवन सार्थक है, भाभी-भाई की सेवा में ।।६
अपनी अर्धांगिनी की ऐसी वाणी सुनकर लक्ष्मण के नयन सजल हो गए, वे सहज ही बोल उठे-
तुम कहती हो कृतकृत्य हुई, मैं कहता हूँ धन्या हो तुम ।
उर्मिले, न तुम भी हो मनुजा, साक्षात् देवकन्या हो तुम ।।७
पंडित जी ने यथावसर प्रसंगानुकूल सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़ियों पर भी कुठाराघात किया है । बाल-काण्ड के ‘विवाह’ खण्ड में विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले शिष्ट हास-परिहास के गीतों के स्थान पर अश्लील, फूहड़ गानों के चलन पर आपत्ति करते हुए वे लिखते हैं -
कितनी भद्दी! कितनी गंदी! कितनी अपवित्र प्रथा है यह ।
क्या जाने क्यों घर के भीतर, अश्लील विनोद चला है यह ।।८
इसके अतिरिक्त किष्किंधा-काण्ड के ‘स्वार्थनिष्ठ मैत्री प्रसंग’ आदि में पंडित जी की सामाजिक दुष्प्रवृत्तियों के परिहार के सरोकारों को देखा जा सकता है ।
राधेश्याम रामायण के संवाद बड़े ही सहज, सरल, चुटीले व मर्मस्पर्शी हैं । अपने विलक्षण संवादों के कारण ही यह ग्रंथ आज भी जनमानस का कण्ठहार बना हुआ है । वैसे तो इसके सम्पूर्ण संवादों में ही बड़ी सहजता व गतिशीलता है, मगर कुछ संवाद अत्यधिक मनोहरी व कुतूहलवर्धक बन पड़े हैं । इस दृष्टि से इस रामायण के परशुराम-लक्ष्मण, भरत-कौशल्या, लक्ष्मण-उर्मिला, भरत-राम, रावण-हनुमान, व अंगद-रावण संवाद अवलोकनीय हैं । अनेक प्रसंगों में जीवन के सत्य को सूक्ति-सुभाषित के रूप में प्रस्तुत किया गया है । इस रामायण में ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं जो दैनन्दिन जीवन में गाँव-समाज के लोग लोक-व्यवहार में प्रयोग करते हैं । इसके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं -
- जो करनी करने वाला है, वह करता है, कहता कब है ?
यह जो मशहूर कहावत है, जो गरजा है, बरसा कब है ?९
- बेढब पछुआ के चलते ही- बादल छितराते जाते हैं ।
जैसे कपूत के होते ही- सब धर्म बिलाते जाते हैं ।।१०
- सच्चे परखैय्या के आगे, हीरा न रलाए रलता है ।
यह मसला सभी जानते हैं- कब मुश्क़ छुपाए छुपता है ।।११
- जो बने इमारत बरसों में- घण्टों में वह गिर पड़ती है ।
मण्डन में उम्र गुजर जाती, खण्डन में देर न
लगती है ।।१२
इसके अतिरिक्त राम, उर्मिला, भरत, वशिष्ठ, विश्वामित्र, अनसूया, सुलोचना प्रभृत पात्रों द्वारा स्थान-स्थान पर ऐसे कई कथन आए हैं, जो भारतीय नीति, धर्म एवं दर्शन को परिपुष्ट करने वाले हैं ।
किसी भी रचना के प्रभावान्विति की रफ्तार हमेशा सम पर ही नहीं होती है, उसमें आरोह-अवरोह होता ही है । इस कृति में भी कुछ ऐसे स्थल हैं जो अत्यंत मनोहारी बन पड़े हैं । जिनमें- ‘केवट की नाव पर सवार राम की छवि देखने के लिए सूरज और बादलों का विवाद’, ‘मृत्यु से पूर्व दशरथ का एकालाप’, ‘वनगमन के समय नगर की स्त्रियों का सीता से संवाद’, ‘चंद्र विषयक वार्ता’ इत्यादि प्रसंग इस दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय हैं । उदाहरण स्वरूप, ‘केवट की नाव पर सवार राम को देखने के लिए सूर्य व मेघों के बीच विवाद का प्रसंग’१३- दृष्टव्य है-
सूरज ने कहा बादलों से, इस छवि को हमें निरखने दो ।
क्यों तुम आ गए बीच में हो ? हट जाओ दर्शन करने दो ।।
उत्तर में बादल गरज उठे- ‘मत बको, कौन हो ? टोक रहे ।
हम दर्शन करने आए हैं- दर्शन से हमको रोक रहे ।।
तब कहा सूर्य ने- ‘दर्शन का- पहले हक़ नहीं तुम्हारा है ।।
हैं सूर्यवंश में रामचंद्र- इससे अधिकार हमारा है ।।
बादल बोले- ‘रहने भी दो, यह फ़िक़रे नहीं ढंग के हैं ।
हक़ तुमसे ज्यादा हमको है, हम दोनों एक रंग के हैं ।।
वह भी घन श्याम कहाते हैं, हम भी घनश्याम कहाते हैं ।
इस श्याम रंग के नाते से- हम एक बखाने जाते हैं ।।
बढ़ गई रार, तो हवा चली- उसने यों बीच-बचाव किया ।
थोड़ा-थोड़ा मौका देकर- दोनों का पूरा चाव किया ।।
इसके अतिरिक्त कुछेक वर्णन ऐसे भी हैं, जिनमें थोड़ा रस भंग होता है । हालांकि ऐसे प्रसंग पूरी राधेश्याम रामायण में दो-चार ही हैं । जहाँ भी रचनाकार ने ‘वस्तु-परिगणन शैली’ अपनाई है, वहाँ ही ऐसे रसभंग की स्थिति उत्पन्न हुई है । ‘पुष्पवाटिका’ खण्ड में लगभग पचास-पचपन प्रकार के फूलों के नाम का वर्णन, ‘राम-सुग्रीव मित्रता’ खण्ड में पर्वतों के नाम का गणन आदि ऐसे स्थल हैं जहाँ पर काव्य की उदात्तता तनिक मलिन हुई है । उदाहरण हेतु ‘राम-सुग्रीव मित्रता’ खण्ड का अंश प्रस्तुत है-
रोहितगिरि, व्याहितगिरि, शिवगिरि, नीलागिरि, मैनागिरि पहुँचे ।
कश्यपगिरि, कदलीवन होते विंध्याचल, धवलागिरि पहुँचे ।।
अर्जुनगिरि, धुन्धुमारगिरि जा, आए सुमेरुगिरि के वन में ।
अञ्जनिगिरि होके अञ्जनिसुत, धाए हिमगिरि के कानन में ।।१४
भाषा की दृष्टि से राधेश्याम रामायण को देखें तो इस ग्रंथ में खड़ी बोली का सरलतम रूप देखने को मिलता है । कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉसएंजेलिस में हिंदी की सहायक प्रोफेसर पामेला के अनुसार- “राधेश्याम कथावाचक ने हिंदी भाषा को एक विशिष्ट शैली की रामायण लिखकर काफ़ी समृद्ध किया ।”१५ पामेला अपने शोध ग्रंथ ‘द राधेश्याम रामायण एंड संस्कृटाइजेशन ऑफ़ खड़ी बोली’ में १९३९ से १९५९ के बीच आए राधेश्याम रामायण के संस्करणों में उर्दू शब्दों को शुद्ध हिंदी शब्दों से बदल करने की प्रवृत्ति का जिक्र करती हैं । उनके अनुसार इसके मूल में हिंदी के शुद्धीकरण आंदोलन का असर हो सकता है । अपने दावे के समर्थन में वे ‘अशोक-वाटिका’ खण्ड के एक दोहे को उद्धारित करती हैं-
‘इत्तेफ़ाकिया नज़र से गुज़रा एक मुक़ाम ।
द्वारे जिसके लिखा था- राम राम श्रीराम ।।१६
बाद के संस्करणों में यही दोहा कुछ इस प्रकार छपा-
अकस्मात देखा तभी, एक मनोहर धाम ।
द्वारे जिसके लिखा था- राम राम श्रीराम ।।१७
इस बदलाव पर मेरा मानना है कि उर्दू का शुद्ध हिंदीकरण करने से ज्यादा दोहे के द्वितीय पंक्ति से भाषाई साम्य में रखने की आवश्यकता ज्यादा महत्वपूर्ण मानी होगी लेखक ने इसीलिए उसने उक्त दोहे की प्रथम पंक्ति में थोड़ा भाषाई बदल किया होगा । इस बदलाव में लेखक की उर्दू के प्रति दुर्भावना का लक्ष्य करना न्यायसंगत नहीं होगा । राधेश्याम रामायण में अनेक ऐसे स्थान हैं, जहाँ पर रचनाकार ने धड़ल्ले से उर्दू, फारसी शब्दों का प्रयोग किया है, जिसके कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं -
1.
भ्राता से बढ़कर नहीं आफ़ताब की ताव ।
(पुष्पवाटिका खण्ड, पृष्ठ-५१)
2.
बाग़-बाग़ थी बाग़ में, फैली हुई बहार ।
फूल-फूल कर फूल भी, लुटा रहे थे प्यार ।। (पुष्पवाटिका खण्ड, पृष्ठ-४०)
3. फ़र्ज़न्द दुचंद वहाँ होकर- आनंद सहित घर आएंगे । (पुष्पवाटिका खण्ड, पृष्ठ-३२)
राधेश्याम रामायण की भाषा के सम्बन्ध में वाल्मीकि दशरथ सूर्यवंशी लिखते हैं-“भाषा विषयक अनेक कमियों के होते हुए भी, गाँव-गाँव में इसका व्यापक प्रसार हुआ । अतः इस ग्रंथ का हिंदी के प्रति एक उपकार है । इसने हिंदी के प्रचार में बड़ा सहयोग दिया है । इस दृष्टि से यह ग्रंथ ‘श्रीरामचरितमानस’ से होड़ लेता है ।”१८ इस ग्रन्थ की भाषा में ओज, माधुर्य व प्रसाद गुण का यथोचित अनुप्रयोग किया गया है । इस ग्रंथ की भाषा में मुहावरों व कहावतों का भरपूर समावेशन किया गया है । यही इसकी जनप्रियता के विशिष्ट कारणों में से भी एक है । छन्द की दृष्टि से पूरी कथा एक ढर्रे पर चली है । ३२, ३३ मात्राओं के छन्द का प्रयोग, बीच-बीच में दोहा के साथ हुआ है । आगे चलकर यह शिल्प ‘तर्ज राधेश्याम’ के नाम से विख्यात हुआ । ग्रंथ में प्रसंगानुकूल गीतों का अनुप्रयोग अत्यंत सुंदर बन पड़ा है । इस ग्रन्थ में श्रीरामचरितमानस की भांति भगवान की बहुत सारी स्तुतियां संस्कृत में भी रचनाकार ने लिखी हैं । कथा के प्रारंभ व अंत में प्रायः सर्वत्र दोहे का ही प्रयोग किया गया है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पण्डित राधेश्याम कथावाचक ने ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ के मर्म के अनुरूप अपनी प्रखर प्रतिभा से उसे एक नवीन आयाम दिया । आलोचक मधुरेश अपने एक आलेख ‘प्रेमचंद और राधेश्याम कथावाचक की जुगलबंदी’ में लिखते हैं- “राष्ट्रीय आंदोलन में सांप्रदायिक सद्भाव की आवश्यकता, आंदोलन में स्त्रियों और सामान्य जनता की भूमिका, जनता को दीक्षित एवं संस्कारित करने में साहित्यकार का दायित्व- ये वस्तुतः कुछ ऐसे कार्यभार थे, जो प्रेमचंद को राधेश्याम कथावाचक की ओर आकर्षित करते होंगे ।”१९
राधेश्याम कथावाचक की राधेश्याम रामायण को भले ही साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा में समुचित स्थान न प्राप्त हुआ हो, परंतु वह जन-जन के गले का कण्ठहार बनने में सफल रही । इस ग्रंथ की महत्ता का अनुमान इस बात से सहजता से लग जाता है कि इसी रचना ‘शिल्प-‘शैली’ (तर्ज राधेश्याम) पर अनगिनत लोगों ने अन्य कथाएँ पद्यबद्ध कर डाली हैं और उनका गायन कर अपनी आजीविका चलाते हैं । राधेश्याम रामायण के सतत निकल रहे नूतन संस्करण समाज में उसकी लोकप्रियता को ही द्योतित करते हैं । आज भी रामलीला एवं अन्य नाट्य-मंडलियों द्वारा राधेश्याम रामायण के संवादों का ही मंचन में प्रयोग किया जाता है । इस पुस्तक ने न केवल हिंदी काव्यभाषा के निर्माण में योग किया, अपितु उसकी लोकोन्मुखता का भी स्पष्ट रेखांकन किया। इसकी प्रसिद्धि इस बात का प्रमाण है । ठाकुर प्रसाद, रूपेश जैसे छोटे प्रकाशकों से अत्यंत निम्नस्तरीय कागज पर छपने वाली इस पुस्तक की हजारों प्रतियाँ आज भी हाथों-हाथ बिक जाती हैं । यह चिंतनीय विषय है कि इस ग्रंथ के अवदान को ठीक-ठीक रेखांकित नहीं किया जा सका है । यदि इस पर ढंग से शोध हो तो आधुनिक रामकाव्य एवं हिंदी काव्यभाषा के विकास को समझने में एक नई दृष्टि मिल सकेगी।
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