शोध सार : हिंदी कहानी की सौ-सवा सौ साल की इस यात्रा का अवलोकन करें तो ज्ञात होगा कि इधर प्रेम कहानियाँ कम लिखी गई हैं। अच्छी प्रेम-कहानियाँ उँगलियों पर गिनने लायक ही हैं। किसी एक कहानीकार के रचना-कर्म को देखें तो उनके यहाँ प्रेम-कहानियों की संख्या दहाई के आँकड़ें को न छू सकेगी। ऐसे में एक से एक नायाब अठारह प्रेम-कहानियाँ लिखना अचरज से भरता है। कुल जमा लगभग पचास कहानियों में से अठारह-बीस प्रेम-कहानियाँ क्रिकेट की भाषा में बढ़िया स्ट्राइक रेट है। प्रियंवद ने अपनी इन प्रेम कहानियों के द्वारा प्रेम में देह को अपनी मुकम्मल जगह दिलाई है। उनके यहाँ प्रेम और देह एक सिक्के के दो पहलू हैं। अवैध संबंधों की पैरवी करते प्रियंवद देह को महिमामंडित नहीं करते बल्कि वे बहुत साफगोई से स्वीकार करते हैं कि प्रेम में देह की उपस्थिति उतनी ही है जितना नींद में स्वप्न।
बीज शब्द : प्रेम-कहानियाँ,
प्रेम, देह, खाल, अवैध संबंध, नैतिकता, अनैतिकता, विवाह, दाम्पत्य, विवाहेतर
संबंध, समाज।
मूल आलेख :
“प्रेम से बड़ी हैं प्रेम की
कहानियाँ,
प्रेम के या खुदा के बारे
में सबसे
खूबसूरत बात ये ही है :
आदमी ने गढ़ा उनको या
उन्होंने आदमी को-
ताल ठोंककर आप कह ही नहीं
सकते।”[1]
हिंदी में गद्य के आविर्भाव के बाद जितनी भी
विधाएँ अस्तित्व में आईं उनमें सर्वाधिक लोकप्रियता कहानी ने हासिल की। हिंदी
कहानी की सौ-सवा सौ साल की इस यात्रा का अवलोकन करें तो ज्ञात होगा कि इधर प्रेम
कहानियाँ कम लिखी गई हैं। अच्छी प्रेम-कहानियाँ उँगलियों पर गिनने लायक ही हैं। किसी
एक कहानीकार के रचना-कर्म को देखें तो उनके यहाँ प्रेम-कहानियों की संख्या दहाई के
आँकड़ें को न छू सकेगी। ऐसे में एक से एक नायाब अठारह प्रेम-कहानियाँ लिखना अचरज से
भरता है। ‘बोसीदिनी’ से ‘दिलरस’ तक की इस प्रेम-यात्रा में प्रियंवद के यहाँ प्रेम
के बहुविध रूप देखने को मिलते हैं। ‘दिलरस’ में दो किशोरों के निश्छल प्रेम के
मनहर दृश्य इस तरह अंकित किए गए हैं कि जी जुड़ा जाता है। कुल जमा लगभग पचास
कहानियों में से अठारह-बीस प्रेम-कहानियाँ क्रिकेट की भाषा में बढ़िया स्ट्राइक रेट
है। ये प्रेम-कहानियाँ क्यूँ लिखी गईं, इस पर कहानी संग्रह ‘उस रात की वर्षा में’ की भूमिका में प्रियंवद
ने विस्तार से अपनी बात रखी है। यह प्रियवंद की प्रेम
कहानियों का संग्रह है जिसे उनकी कहानियों का
प्रतिनिधि संग्रह कहा जा सकता है। हालाँकि प्रेम से इतर भी उन्होंने कुछ शानदार
कहानियाँ लिखी हैं लेकिन प्रियंवद इस अखाड़े के उस्ताद हैं। प्रेम और देह के संतुलन
को इन कहानियों में बेहद कुशलता से साधा गया है, बिलकुल रस्सी पर चलते कुशल नट की
भाँति। प्रेम-कहानियों में यह संतुलन बेहद जरूरी है। असल में प्रेम और देह की इस
अबूझ कहानी को बूझना ही इन कहानियों का मुख्य उद्देश्य है। इस संग्रह को उन्होंने ‘प्रेम के रहस्यलोक की सीढ़ियाँ बनते शब्द’ उप-शीर्षक भी
दिया गया है। प्रियवंद के प्रेमियों
का यह लोक वास्तव में रहस्य से भरा हुआ है। “उस रात की वर्षा के बाद
मुझे विश्वास हो गया है कि मनुष्य के मन से अधिक विराट और रहस्यमय कुछ भी नहीं है।
हम अपना कितना अंश अजनबियों की तरह मन के गहरे तहख़ाने में जीते हैं, हम स्वयं नहीं जानते। अचानक किसी क्षण जब
हमारा वह से उसको देखते रहते अपरिचित अंश हमारे सामने खड़ा होता है,तब हम चमत्कृत हैं... ‘क्या यह मैं हूं?”[2]
एक ख़ास तरह का रहस्य, जिसकी शुरुआत
एक ख़ास तरह के परिवेश से होती है। उसमें पुरानी
दीवारें और उन दीवारों की सीलन, चूने की पपड़ियाँ, अँधेरे बंद कमरे
जिनमें रौशनी नहीं आती बल्कि किसी रोशनदान से
धूप का एक टुकड़ा तैरता है। ये कमरे इस
कहानी संग्रह के प्रेमियों के जीवन को प्रतिबिंबित करते हैं। उनके जीवन में रौशनी
नहीं है, धुंधलका है। उनकी आँखें
उदास या गीली हैं और कईयों की तो कीचड़ से भरी
रहती हैं। वे सब गहरे
प्रेमी हैं और किसी मंजिल की तलाश में न होकर ज़िंदगी के किसी
मोड़ पर ठहर कर प्रेम को भोगते हैं। पतझर की पीली पत्तियाँ प्रियवंद को
उतनी ही प्रिय है जितना निराला को ‘बादल’ और महादेवी
को ‘दीपक’। “टूटी हुई गीली
पत्तियां मेरे चारों ओर फैली हैं। तालाब के ऊपर परिंदों का एक झुंड चीख़ रहा है।
गेस्ट हाउस की छत पर बैठा मैं सामने देख रहा हूं। आकाश से एक झरने की तरह गिरती
हुई चांदनी,
अपने पूरे
हत्यारेपन के साथ जहाज़ महल के पुराने खंडहरों के ऊपर फैली है। महल के टूटे विशाल
बुर्ज... गलियारे... चौड़ी छत... अंधे तहखाने... पतली ऊंची सीढ़ियां, जो अब सिर्फ एक
युग के अवशेष हैं ,
सब उस सफ़ेद ज़हर
में डूबे हैं। रात के सन्नाटे और अंधेरे में उन लाल पत्थरों का जादू अपने पूरे
पैनेपन के साथ मेरे सामने तना खड़ा है। ऐसा ज़ादू जो अंदर और बाहर दोनों तरफ़ बर्फ
के फाहे उड़ा रहा है... ठंडे,
शांत और उदास।” इस संग्रह की
लगभग कहानियाँ एक उदास और
धीमे संगीत की तरह शुरू होती है जिसमें कोई प्रेमी अपनी नाकाम और लिजलिजी ज़िंदगी के ढेर में
सुनहरी वस्तु खोजता प्रतीत होता है। यह सुनहरी वस्तु
कुछ और नहीं बल्कि ‘प्रेम’ ही है। लेकिन इस सुनहरी वस्तु तक पहुँचने का रास्ता
धूसर देह से होकर गुजरता है। देह... देह को उत्सव का उत्स और सभी धर्मों का साधन
मानने वाले भारतीय समाज में एक समय बाद तुच्छ, त्याज्य और पाप मान लिया गया... और
कमोबेश आज भी माना जा रहा है। देह से सर्वथा पृथक प्रेम को (अ)धर्म ने भी
महिमामंडित किया। साहित्य में भी अलौकिक प्रेम के गीत गाए जाने लगे। प्रेम में
देहाकांक्षा को वासना कहकर देह की हरसंभव भर्त्सना की गई। प्रियंवद ने अपनी इन
प्रेम कहानियों के द्वारा प्रेम में देह को अपनी मुकम्मल जगह दिलाई है। उनके यहाँ
प्रेम और देह एक सिक्के के दो पहलू हैं। स्त्री-देह के सौन्दर्य को उद्घाटित करते
प्रियंवद लिखते हैं- “गहरे दुख में स्त्री देह एक शरण है। चूल्हे की आंच में जैसे
कोई कच्ची चीज़ परिपक्व होती है... उसी तरह पुरुष के क्षत-विक्षत,खंडित अस्तित्व को वह देह सम्हालती है...
धीरे-धीरे अपनी आंच में फिर से पका कर जीवन देती है। स्त्री-देह कितनी ही बार,चुपचाप,कितनी तरह से
पुरुष को जीवन दे देती है, पुरुष को नहीं पता होता।”[3] अधिकांश
प्रेम कहानियों में प्रियंवद ने स्त्री-देह को बहुत खूबसूरती चित्रित किया है
लेकिन पुरुष-देह के सौन्दर्य के चित्र अनुपस्थित हैं। यदि होते तो एक मुकम्मल तस्वीर
बनती। गौरतलब है कि इन कहानियों का हर मुख्य पात्र अपने जीवन से
पूरा रस खींचकर, प्राणों में उत्साह
भरकर किसी ‘खाल’ तक पहुँचता है। इस संग्रह
में प्रियवंद की ऐसी कोई कहानी नहीं जिसमें ‘खाल’ नहीं हो। खाल जो चूसने, चाटने, रगड़ने, मसलने और काट लेने से लेकर रति प्रक्रिया
तक में सम्मिलित
है- ‘खाल जो तनी
हुई है, खाल जो लटकी हुई है, खाल जो खिंची हुई है’। मसलन कोई
चरित्र खाल की नाप से बाहर नहीं है। बहुत खूबसूरत लड़की की
‘त्वचा’ या ‘चमड़ी’ की जगह ‘खाल’ शब्द का
प्रयोग अजीब तो लगता है लेकिन यह एक अलग तरह की उत्तेजना भी पैदा करता है। प्रियवंद की कहानियों
में ‘खाल’ के इतना उत्कर्ष पा
लेने का एक कारण कानपुर का प्रसिद्ध चमड़ा उद्योग भी हो सकता है। चमड़ा उद्योग उनका पैतृक
व्यवसाय भी रहा है जिससे उनका आरंभिक दिनों में नाता रहा। छोटे से छोटा
शहर अथवा गाँव, बड़े से बड़े
साहित्यकार की जुबान को बनाता है तो प्रियवंद इसके अपवाद कैसे हो सकते हैं? और इस तरह कहानी की नसों
में रक्त का संचार होने लगता है। देह और प्रेम में
एकमेक होती कहानी एक सुनहरी आभा से दीप्त होने लगती है। कई जगह यह सुनहरा उजाला
इतना चमकदार हो उठता है कि पाठक विस्फीरित नेत्रों से देखता हुआ उस दशा में पहुँच
जाता है जिस दशा में कृष्ण के विराट स्वरूप को देख अर्जुन पहुँच गया था- ‘गिरा
अनयन, नयन बिनु बानी’। इस संबंध में आलोचक राहुल सिंह का कहना है- “प्रियंवद की
कहानियों में कथाप्रवाह को उद्गम से मुहाने तक बहता हुआ महसूस किया जा सकता है...
प्रियंवद में कहन की अद्भुत क्षमता है (इसे देखना हो तो ‘बूढ़े का उत्सव’ 1997,
अकेले पर्याप्त है)। कहन की अपनी इस भंगिमा से वह पाठकों को बहा ले जाने में सक्षम
हैं।”[4]
कई जगह पाठक बिस्मिल्लाह खान की शहनाई वादन के मुरीद की तरह मंत्रमुग्ध-सा दिखाई
पड़ता है तो कई जगह वह ज़ाकिर हुसैन के तबले की थापों से चमत्कृत श्रोताओं की तरह कह
उठता है- वाह ! उस्ताद वाह !
बहरहाल बात यह हो रही थी कि अपनी पूरी शक्ति बटोर कर प्रेमी अपने प्रेम तक एक मोड़ पर कुछ देर के लिए ठहरता है और वहीं हमें एक ठहराव आता दीखता है। यही ठहराव प्रियंवद की कहानियों की जीवनी शक्ति है। इनके अधिकांश प्रेमी अकेले, अस्त-व्यस्त जीवन जीने वाले और अधिकांश किसी पहाड़ी क्षेत्र अथवा अकेली-दुकेली जगह पर रहते हैं। इस संग्रह की कोई कहानी ऐसी नहीं जिसमें मुख्य पात्र भरे-पूरे परिवार में अपने परिजनों के साथ रहता हो और पारिवारिक-सामाजिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करता हो। हालाँकि यह व्यवस्था अब समाज से भी नदारद होती दिख रही है तो साहित्य में इसकी सायास उपस्थिति अस्वाभाविक भी नहीं लगती। इस संबंध में एक पहलू यह भी हो सकता है कि इस संग्रह की सभी कहानियाँ प्रेम-कहानियाँ है और चूँकि इन कहानियों का प्रेम किसी परिणति तक नहीं पहुँचता, इसलिए हो सकता है कि परिवार की उपस्थिति इन कहानियों में नहीं मिलती हो या संभव है कि प्रियंवद को कहानी कहने में परिवार बाधा उत्पन्न करता हो। प्रियंवद के पात्र खाने-कमाने की चिंता से मुक्त हैं। क्या इसे यथार्थ से पलायन के रूप में देखा जाए? क्या यह एक समाज की मुकम्मल तस्वीर है? दूसरी ओर इन कहानियों के पात्र मध्यमवर्गीय कस्बाई पाठक के मस्तिष्क में एक फैंटेसी की रचना करते हैं कि किस तरह बरसात की रात में सूनी सड़कों में बेवजह भटकने के सुरूर में सुकून हासिल होता है। “गर कहानी के स्तर पर बात की जाए तो अवैध संबंधों पर आधारित प्रियंवद की यह प्रेम कहानियाँ उनके स्वीकार के साहस के कारण बेजोड़ हो सकी हैं।”[5] प्रेम और देह का जटिल अंतर्गुम्फन इन कहानियों की केंद्रीय वस्तु है। ये कहानियाँ इसी अंतर्गुम्फन को चीन्हने का प्रयास है। ‘उस रात की वर्षा में’ संग्रह की नायिकाएँ विवाहेतर संबंध हों या विवाह पूर्व संबंध इन सभी को वह बहुत सहजता से जीती हैं। उनके भीतर इन्हें लेकर कोई अपराध-बोध प्रियंवद नहीं दिखाते। “सेक्स और प्रेम को लेकर प्रियंवद की कहानियाँ एकदम विशिष्ट हैं। इन्हें लेकर उनके यहाँ जो खुलापन है, न सिर्फ सहज है बल्कि उनके पात्रों में किसी प्रकार का कोई गिल्ट या गाँठ नहीं है।”[6] विवाहेतर या विवाह पूर्व संबंध जिन्हें नैतिकता के चश्मे से देखता समाज अवैध-संबंध कहता है। इस संबंध में कथाकार प्रियंवद ‘अधेड़ औरत का प्रेम’ कहानी की शुरुआत में ही लिखते हैं- “अवैध संबंधों का प्रेम मुझे आकर्षित करता है। मेरा विश्वास है कि प्रेम अपनी पूरी चमक, पूरे आवेग के साथ ऐसे संबंधों में ही रहता है। आत्मा के एक खाली, अंधेरे कोने में बचाकर रखे हुए आलोकित हीरे की तरह ! ऐसे संबंधों का प्रेम बहुत गंभीर और अर्थपूर्ण होता है, प्रेम के इन्हीं क्षणों में मनुष्य अपनी असली और पूरी स्वतंत्रता का उपभोग करता है। उसका पूरा जीवन, व्यक्तित्व, शरीर सब तरह की वर्जनाओं, समाज के घिनौने और निर्मम अंकुशों से मुक्त होता है। इन सबसे विद्रोह की एक मूक अंतर्धारा भी उसके अंदर ऐसे ही क्षणों में बहती है... मैं मनुष्य की स्वतंत्रता, प्रेम और जीवन से अंतिम बूंद तक सुख निचोड़ लेने के उसके अधिकार को मानता हूं और मनुष्य का यह अधिकार, मुझे अवैध संबंधों में बहुत साफ़ तरीके से पूरा होता दिखता है।”[7] अवैध संबंधों की पैरवी करते प्रियंवद देह को महिमामंडित नहीं करते बल्कि अपनी कहानियों और आपसी बातचीत में वे बहुत साफगोई से स्वीकार करते हैं कि प्रेम में देह की उपस्थिति उतनी ही है जितना आटे में नमक; लेकिन बेहद जरूरी। “प्रेमविहीन देह या देहविहीन प्रेम भी, या तो संभव नहीं है या निरर्थक है।”[8] “यह तो तय है कि प्रेम में देह बहुत-बहुत उपस्थित होकर भी... एक मक़ाम पर आकर अस्तित्वविहीन हो जाती है।”[9] प्रेम कहानी लेखन में प्रेम की अमूर्तता और देहवाद दोनों से बचे जाने की जरुरत है। दिक्कत यह है कि प्रेम व देह के समीकरण को समझे बिने ही लोग प्रेम को समझने और लिखने का दावा कर बैठते हैं और अपनी अधूरी समझ से पाठकों का भी भारी नुकसान करते हैं क्योंकि प्रेम को लेकर जनसामान्य की बहुत सारी समझ साहित्य और फिल्मों की ही निर्मिति है। ‘उस बरस के मौसम’ कहानी में कहानीकार नीलाक्षी सिंह लिखती हैं कि “जब उसकी देह प्रेम में सराबोर थी, तभी उसने सोचा कि शरीर प्रेम को व्यक्त करने का माध्यम है जरूर, पर अनिवार्य माध्यम कतई नहीं।”[10] देखा जाए तो प्रेम मनुष्य का सर्जक ईश्वर से प्रतिरोध है। प्रेम संसार की नश्वरता के प्रति अनश्वरता का उद्घोष है। “प्रेम मनुष्यता का सबसे बड़ा दुस्साहस है : नश्वरता के एक प्राकृतिक तर्क का उल्लंघन।”[11] प्रेम अमरत्व है। तभी तो कबीर, मीरा, सूर, तुलसी, खुसरो से लेकर आधुनिक लेखकों तक ने प्रेम को जीवन का सबसे बड़ा सत्य स्वीकार किया है; प्रेम को ईश्वर का पर्याय घोषित किया है। प्रेमिल व्यक्ति को बुद्ध की संज्ञा दी जाती है या कह सकते हैं कि जो भी बुद्ध हुए हैं वे सब महान प्रेमी थे। कवि गीत चतुर्वेदी लिखते हैं- “प्रेम में डूबी स्त्री का चेहरा बुद्ध जैसा दिखता है।”[12] प्रेम बुद्धों की ही शै है। वहीं दुनियादारों ले किए तो प्रेम भी एक सौदा है। और सौदे में तो हमेशा नफा-नुकसान देखा जाता है। जिस समाज में प्रेम से बड़ी जात और मजहब हों वहाँ खुलकर प्रेम कैसे किया जा सकता है? “जिस दुनिया में बारिश को भी इंचों और सेंटीमीटरों में नापा जाता है, वहाँ प्यार चोरी के सिवा क्या हो सकता था?”[13] जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ जीवन नहीं। जहाँ जीवन नहीं वैधता का सवाल तो वहाँ उठाया जाना चाहिए। क्या ये लाखों-करोड़ों दाम्पत्य संबंध अवैध नहीं कहे जाएँगे? “विवाह की ग्रंथि दो के बीच की ग्रंथि नहीं है, वह समाज के बीच की भी है।”[14] समाज ने अरेंज मैरिज द्वारा एक व्यवस्था निर्मित करने का प्रयास किया है। “विवाह के आधार पर चल रहा यह संसार ऊपर से एक व्यवस्था बनाए रखने में सफल मालूम होता है, किन्तु भीतर ही भीतर वह विषाद से भर गया है- इस विषाद का निराकरण मनुष्य की प्लैटोनिक, रोमेंटिक और एरोटिक जरूरतों की पूर्ति बिना नहीं हो सकता-यह जितना जल्दी समझ लिया जाए उतना ही बेहतर है।”[15] स्त्री हो या पुरुष विवाह से बाहर यदि वे जा भी रहे हैं तो जरूरी नहीं कि दैहिक आवश्यकताओं के लिए ही वे जा रहे हों, भावात्मक या बौद्धिक आवश्यकता के लिए भी दाम्पत्य से बाहर किसी साथी से उनका रागात्मक संबंध हो सकता है। क्यूँकि देह की जरूरत ज्यादा है भी नहीं। जिसने स्वयं को जान लिया या प्रेम को समझ लिया वह यह भी जान लेता है कि देह में काम की जरूरत उतनी ही है जितना नींद में स्वप्न। प्रेम में देह कितनी, आटे में नमक जितनी।
निष्कर्ष : विवाहेतर संबंध, समाज की भाषा में जिन्हें हम अवैध संबंध कहते हैं। जरा गौर करें कि समाज द्वारा ठहराए गए संबंध भी तो ठीक नहीं हैं, उनमें भी प्रेम नहीं है, वहाँ भी स्त्री-पुरुष घुटन भरा जीवन जीने को अभिशप्त हैं... या अनकिये समझौते के बोझ को ढो रहे हैं। इसीलिए वे अपने दाम्पत्य जीवन से बाहर जाकर प्रेम ढूंढ रहे हैं। ये दाम्पत्य संबंध मवाद भरे फोड़े हैं, समाज इन पर ऊपरी टीम-टाम कर हैप्पी-हैप्पी दिखाना चाहता है जबकि प्रियंवद ने इस फोड़े को तथाकथित अनैतिकता की सुई से फोड़ दिया है। इनसे बहता द्रव नैतिकता के आग्रही पाठकों में जुगुप्सा अवश्य जगाता है- “चार्ली जब जेनी से अलग हुआ तो उसकी जांघ मवाद और खून से सनी थी। जेनी फूट-फूटकर रो रही थी। सुख और आनंद जेनी की आँख से आंसू और जांघ से फूटे हुए फोड़े के मवाद के रूप में बह रहे थे।”[16] लेकिन फोड़ों को सहलाने से तो वे ठीक नहीं होंगे न? जड़ से इलाज के लिए तो उन्हें कुरेद कर (कुंठा के) द्रव को बाहर निकालना ही पड़ेगा। प्रियंवद का लेखन इसी दिशा में एक सार्थक प्रयास है।
[1] अनामिका : टोकरी में दिगंत, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण 2021, पृ.सं. 85
[5] वही, पृ.सं. 140
[6] प्रियंवद: आईनाघर (भाग-2), संवाद प्रकाशन, 2008, पृ.सं. 162
[9] सं. मनीषा कुलश्रेष्ठ : कहानियाँ रिश्तों की – प्रेम, (भूमिका में), राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली, पेपरबैक सं. पृष्ठ सं. 09
[10] सं. मनीषा कुलश्रेष्ठ : कहानियाँ रिश्तों की – प्रेम, (नीलाक्षी सिंह : उस बरस के मौसम), संस्करण वही, पृ.सं. 163
[11] सुशोभित : दूसरी कलम, रुख पेपरबैक्स, प्रथम संस्करण, 2021, पृ.सं. 69
[13] सुशोभित : माया का मालकौंस, यश पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2020, पृ.सं. 100
बहुत ही सटीक और यथार्थ आदरणीय आचार्य द्व्य 🙏💯
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
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