शोध सार : सन् 1920 ई. के लगभग भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन जनव्यापी बन रहा था, किन्तु जातीय भेद,साम्प्रदायिक वैमनस्य, भाषायी विविधता आदि ऐसे कई तत्त्व थे, जो राष्ट्रीय-एकता में बाधक थे। इन विभेदक तत्त्वों को पहचानते हुए हिन्दी की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक काव्यधारा के कवियों ने राष्ट्रीय-भावना को मुखरित किया। उनमें राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखन लाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, पं. सोहन लाल द्विवेदी के नाम उल्लेखनीय हैं। इनकी पहचान राष्ट्रीयता के कवि के रूप में हैं, उसका कारण यह है कि उन्होंने समय को पहचान कर जनमानस की मौन वाणी को मुखर रूप में व्यक्त किया। पं. सोहनलाल द्विवेदी स्वतंत्रता आंदोलन युग के एक ऐसे विराट कवि थे, जिन्होंने जनता में राष्ट्रीय चेतना जागृति करने, उनमें देश-भक्ति की भावना भरने और नवयुवकों को देश के लिए बड़े से बड़े बलिदान के लिए प्रेरित करने में अपनी सारी शक्ति लगा दी। वे पूर्णत: राष्ट्र को समर्पित कवि थे। गाँधीवाद से प्रेरित उनकी यशस्वी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अनमोल निधि है। राष्ट्र धर्म उनके काव्य का मूल मंत्र है। राष्ट्र प्रेम से प्रेरित अपने ओजस्वी गीतों द्वारा जन-मानस में राष्ट्रीय चेतना जगाने में उन्हें जो लोकप्रियता मिली, उसी ने उन्हें जन सामान्य में ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में प्रतिष्ठित किया।
बीज शब्द : राष्ट्र का निजत्व राष्ट्रीय-चिंतन, स्वातंत्र्य-चेतना,सांस्कृतिक विरासत,प्रयाण-गीत,मानव कल्याण,स्वदेशी की भावना,अनुशासित राष्ट्र की कल्पना,आह्वान मन्त्र,जागृति का स्वर, राष्ट्रीय सांस्कृतिक संघर्ष,महाभिनिष्क्रमण,राष्ट्रधर्म की रक्षा।
मूल आलेख : मातृभूमि को प्रणम्य बनाने का संकल्प और उसके लिए प्राणों का अर्पण की भावाभिव्यंजना पराधीन राष्ट्र के लिए चेतना की संवाहक होती है।महादेवी वर्मा ने राष्ट्र के स्वरूप को अपने शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा, “राष्ट्र केवल पर्वत-नदीया समतल का सवाल नहीं होता, उसमें उस भूमिखंड में निवास तथा विकास करने वाले मानव-समूह का जीवन अविच्छिन्न रूप से जुड़ा रहता है।“[1] राष्ट्रीय-चिंतन का उद्देश्य समष्टि में आत्म-गौरव की भावना का निर्माण कर उसे उन्नति के पथ पर अग्रसर करने में है। इसी तरह राष्ट्रीय-भावना से आशय है कि जाति या राष्ट्र के व्यक्तियों की एक साथ मिल कर रहने और सामूहिक रूप में अपनी तथा अपने देश को उन्नत बनाने की इच्छा है, इसमें अपने देश के लिए अगाध भक्ति, अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति गौरव, विदेशी शासन के प्रति घृणा और अपने देश की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक दशा में सुधार की भावना निहित होती है। इसी सन्दर्भ में राष्ट्रवादी चिन्तक श्रीराम परिहार लिखते हैं, ”राष्ट्र क्या है? उसकी संस्कृति क्या है? वस्तुतः ये दोनों मिलकर ही तो समूचे विश्व में अपनी पहचान स्थापित करते हैं, अन्यथा छह अरब की दुनिया की भीड़ में खोने के अलावा क्या है? राष्ट्र का निजत्व होता है, गुणधर्म होता है, उसकी पहचान, आकृति, अस्मिता और भूगोल होता है।“[2]
पं. सोहन लाल द्विवेदी
स्वाधीनता आन्दोलन के अत्यधिक ओजस्वी कवि रहे हैं। इनके ‘भैरवी’, ‘विषपान’, ‘वासवदत्ता’, ‘कुणाल’, ‘युगाधार’, ‘वासंती’, ‘झरना’, ‘बिगुल’ आदि अनेक काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। वासवदत्ता, कुणाल, विषपान आदि प्रबंधात्मक रचनाओं के माध्यम से पं. द्विवेदी जी ने अतीत की ओर उन्मुख देश के गौरवशाली इतिहास और भारत की सांस्कृतिक विरासत को राष्ट्रीय-संघर्ष के लिए प्रेरक स्रोत बनाया। पं. द्विवेदी जी को हिन्दी अनन्य प्रेम था। वे किसी भी परिस्थिति में विदेशी भाषा को स्वीकार्य नहीं मानते थे। उन्होंने अंग्रेजों के साथ ही विदेशी भाषा अंग्रेजी को समाप्त कर अपनी भाषा और संस्कृति को अपनाने का आह्वान किया। उनके व्यक्तित्व की विशिष्टता ही है कि जो राष्ट्रप्रेम के संस्कार उन्हें मिले, वैसा ही उनके जीवन का संघर्ष, वैसा ही कार्य क्षेत्र, वैसा ही जीवन और वैसी ही कविता भी।
पं. द्विवेदी ने राष्ट्रीयता का मुक्त कंठ से गान किया था। विप्लवी गीतों में कवि के प्राण राष्ट्रीय भावना में बहते हुए से दिखाई देते हैं। राष्ट्रधर्म की रक्षा तत्कालीन समय की मांग थी। अंग्रेजों के समक्ष निडरता से हृदय की अभिव्यक्ति को प्रकट करना साहस भरा कार्य था। उन्होंने राष्ट्रीय भावों को काव्य का विषय बनाकर भारतीय जनता की स्वातंत्र्य चेतना को विकसित किया। राष्ट्र की चेतना को संपूर्ण रूप में प्रस्तुत करते हुए कवि ने स्वयं अपने स्वरों को राष्ट्र-प्रेम पर समर्पित कर उत्साह का संचार किया। ‘भैरवी’ की उक्त पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-
राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत निडर वाणी से उनका कवि व्यक्तित्व अमर हो गया। उन्होंने अपने समय को पहचाना, तदनुरूप रचनाकर्म का निर्वाह किया, जो तत्कालीन युगीन परिवेश को सार्थकता प्रदान करने वाला था, यही प्रखरता, चिरकाल तक स्मरणीय है। विषपान में समुद्र-मंथन के पश्चात् प्रकट विष का पान कर महादेव ने जगत का कल्याण किया। यहाँ कवि उन आख्यानों से प्रेरणा ग्रहण करता है, जो मानव कल्याण के लिए विष का पान कर सके। आख्यान के आरम्भ में देवताओं और भारतीयों की दशा में समानता स्पष्ट दिखाई देती है-
‘युगाधार’ की सभी कविताओं में राष्ट्रीय-चेतना की जागृति का स्वर विद्यमान है। इसमें बापू के प्रति, रेखाचित्र, बापू गाँधी, गाँधी-ग्राम, सेवाग्राम, भ्रमण, गीत, उगता राष्ट्र, हलधर से, मजदूर, जागो हुआ विहान, हमको ऐसे युवक चाहिए, ओ तरुण, ओ नौजवान, प्रयाण-गीत, अभियान-गीत, जागरण, कणिका, बेतवा का सत्याग्रह, विश्राम, कैसी देरी, अनुरोध, गृह त्याग, राजबंदी राष्ट्रकवि, दीनबंधु ऐंड्रज के प्रति, उद्बोधन, राष्ट्रध्वजा, क्रांतिकुमारी, भारतवर्ष शीर्षक कविताओं का संग्रह है, जो राष्ट्रीय-चेतना का संचार करने में सहायक रही है। ‘अभियान-गीत’ शीर्षक कविता की उक्त पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-
‘पूजागीत’ संग्रह की कविताओं में अपनी मातृभूमि के प्रति कवि की अपार श्रद्धा प्रकट होती है। राष्ट्रीय चेतनात्मक प्रभाव की दृष्टि से कवि की वाणी में में समृद्ध व सशक्त राष्ट्र की कल्पना है, मातृभूमि से अनन्य प्रेम है तो राष्ट्रीय एकता के नियामक तत्त्वों को उजागर किया गया है। संकट के समय राष्ट्र के लिए अपने तन, मन, धन और जीवन के उत्सर्ग का भाव भी रोमांचकारी है। साथ ही स्वदेशी की भावना और अनुशासित राष्ट्र की कल्पना भी सम्मोहित करती है। उसकी दुर्दशा पर क्षोभ है, जिसे वह क्रांति के द्वारा मुक्ति की चाह रखता है। पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-
पं. द्विवेदी का काव्य-संग्रह
‘प्रभाती’ में भी राष्ट्रीय जागरण का स्वर मुखरित हुआ है। इस कृति में उन्होंने साहित्य-सृजन पर टिप्पणी करते हुए कहा कि शताब्दियों से उपेक्षित, तिरस्कृत और बहिष्कृत जनता के लिए हम लिखें ओर उसकी भाषा में लिखें, जिसे वह समझ सके।चिंतन की स्वतंत्रता और उपास्य की अनेकता, वेश-भूषा और खान-पान की विविध स्वरूप के बावजूद अनेकता में एक तत्त्व की प्रधानता ही आर्यावर्त की संस्कृति का सबसे बड़ा सम्बल है। हमारा चिंतन मात्र देह तक सीमित नहीं है। स्थूल जगत् से परे हम यह विचार करते हैं कि मैं कौन हूँ? हमारा प्रत्यभिज्ञा दर्शन स्वयं की पहचान पर बल देता है। हम आत्मतत्त्व की खोज में लगे रहे। जयशंकर प्रसाद के शब्दों में हम कह सकते हैं कि ‘एक तत्त्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन’।[7] आज हमारे राष्ट्र की माँग यही है कि हम जनता के लिए साहित्य-सृजन करें। उन्होंने स्वयं जन-भाषा में प्रभात-फेरी के गीत लिखे, जो जनता का जागरण करते थे तथा देश-प्रेम की भावना का संचार करते थे।
प्रभाती की रचना राष्ट्रीय जागरण के उषाकाल में हुई है, अतः स्वातंत्र्य बोध की उत्कटता भी विलक्षण है वक्तव्य में उनका कथन है, “ये समस्त रचनाएँ तो उस कवि का आह्वान मन्त्र है, जो अपने मूक गीत से, अपने एक स्वर से वह प्राण फूँकेगा, जिससे कोटि-कोटि भारतीयों के ह्रदय में स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने की आग धधक उठेगी।”[8] नींद में सोए भारतीयों को कवि क्रांति का आह्वान ‘प्रभाती’ शीर्षक कविता में करते हुए ओजस्वी स्वर प्रकट करता है-
‘सेवाग्राम’ कवि की रष्ट्रीय रचनाओं का संकलन है, इसमें भैरवी, युगाधार, प्रभाती तथा पूजागीत की स्वातंत्र्य बोध आधारित कविताएँ संगृहीत हैं। ये स्वर राष्ट्रप्रेम से आप्लावित हैं, जननी और जन्मभूमि को स्वर्ग से महान् मानकर वन्दना करते है, राष्ट्र के चरित नायकों से प्रेरणा ग्रहण करते हैं तो सनातन धर्म की जीवन-शैली को भारतीयता का प्राण मानते हैं। वस्तुतः सोहन लाल द्विवेदी की रचनाओं में भारतीय जनमानस की सार्वकालिक अभिव्यक्ति हैं, जो राष्ट्रीय सांस्कृतिक संघर्ष की चेतना को जाग्रत रखने में सहायक है। ‘अभियान-गीत’ में मातृभूमि पर मिटने का प्रण दिखाई देता है-
सांस्कृतिक चेतना को जाग्रत करने की दृष्टि से यदि अवलोकन किया जाय तो ज्ञान होता है कि कवि ने भारतीय सांस्कृतिक गौरव का गुणगान करते सनातन भारतीय चिंतन को विशेष महत्ता दी गई है, सांस्कृतिक मूल्यों के परिष्करण और हस्तांतरण पर जोर दिया गया है। भारतीय जीवन मूल्यों से अनुप्राणित जीवन-शैली निर्मित करने का आह्वान किया गया है। कवि की वाणी समाज, राष्ट्र, संस्कृति, मानवता इत्यादि के व्यापक फलक को चेतनावान बनाने में सफल रही है। यथार्थ रूप से देखा जाए तो आज भारतीय जन-मन सांस्कृतिक परतंत्रता से मुक्ति चाहता है, सशक्त राष्ट्र के साथ स्वाभिमान पूर्वक जीवन की अभिलाषा रखता है। उस दृष्टि से कवि की रचनाएँ नया मार्ग निर्मित करती हैं। कविवर सोहन लाल द्विवेदी ने स्वतंत्रता सेनानियों के चरित्र का गुणगान भी किया, ताकि जनता उनसे प्रेरणा लें। ‘भैरवी’, ‘चेतना’, ‘सेवाग्राम’ आदि काव्य-संग्रहों में महान् राष्ट्रनायकों का गुणगान हुआ है। महाराणा प्रताप को समर्पित कवि की निम्न पंक्तियाँ दर्शनीय हैं-
हल्दीघाटी राजस्थान की वीरभूमि के उस स्थल का नाम है, जहाँ राणा प्रताप और अकबर के मध्य भीषण संग्राम हुआ, परन्तु अकबर की मेवाड़ विजय की कामना अधूरी रही। इस पवित्र भूमि
के माध्यम से प्रताप की स्वातंत्र्य चेतना को देशवासियों के समक्ष रखा-
कवि पं. सोहनलाल द्विवेदी की कविताओं में स्वतंत्रता पश्चात् भी राष्ट्रीय-जागरण के स्वर दिखाई देते हैं। ‘चेतना’ और ‘मुक्तिगंधा’ काव्य-कृतियों में जहाँ उत्सव और उल्लास की कविताएँ हैं, वहीं सम-सामयिक परिस्थितियों और समस्याओं को भी उठाया गया है। युवक और युवतियों को प्रगति-पथ के वरण का संदेश भी दिया है। स्वतंत्रता की ध्वजा को सुरक्षित रखने का आह्वान करते हुए उन्होंने ‘मुक्तिगंधा’ में कहा-
‘मुक्तिगंधा’ के पुरोवाक् में कवि ने लिखा है कि स्वातंत्र्योत्तर काल में देश जिन आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक गतिविधियों के मोड़ से गुजरा है, जनता पर जो उसकी प्रतिक्रिया हुई है, उसकी मानसिक आशा, निराशा, आकांक्षा, आक्रोश के भाव साकार होकर आपसे साक्षात्कार करना चाहते हैं। इसमें प्रकाशित ‘जागरण-गीत’ के माध्यम से कवि ने सजग रहने एवं कर्तव्य के प्रति जाग्रत रहने का संदेश दिया है, पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-
साहित्य को मानवीय अनुभूतियों, भावनाओं और कलाओं का साकार रूप माना गया है। इसे जीवन की व्याख्या भी कहा गया है, क्योंकि यह चेतना को जाग्रत करता है। इन रचनाओं में विघटन, टूटन, निराशा, अनास्था या अविश्वास के लिए कोई स्थान नहीं है। यहाँ संगठन, एकता, आस्था और विश्वास जैसे मानदण्ड हैं। इनकी रचना परतंत्र भारतीय समाज में हुई है, लगभग एक शताब्दी की भारतीय मनोभावना का प्रस्फुटन है। इसीलिए सामयिक राष्ट्रीय घटनाओं पर भी कवि की कलम चली है। सुभाष चन्द्र बोस के सहसा पद त्यागकर चले जाने की घटना को महाभिनिष्क्रमण की संज्ञा दी और उक्त शीर्षक कविता में सुभाष से कवि का यह आह्वान भावभरी वाणी में पुकार करता है-
महात्मा गांधी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अहिंसात्मक आन्दोलन का सफल और कुशल नेतृत्व किया था। अतः उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को रेखांकित करना स्वाधीनता संघर्ष का वन्दन एवं अभिनन्दन माना गया। अपनी अनेक कविताओं के माध्यम से पं. सोहनलाल द्विवेदी ने गांधीजी के प्रति अपने श्रद्धापूर्ण उद्गार अभिव्यक्त किये हैं। ‘भैरवी’ में संकलित
‘युगावतार गांधी’ की निम्नलिखित पंक्तियाँ अवलोकनीय हैं-
निष्कर्ष : समग्रतः राष्ट्रीय-चेतना के गायक कवि पं. सोहन द्विवेदी का गुणगान करते हुए प्रत्येक भारतवासी गौरव का अनुभव करता है, क्योंकि उन्होंने अपने कलम के साथ राष्ट्रीय-आन्दोलन को दिशा व गति प्रदान की। उन्होंने न केवल अपने कवि जनित कर्तव्य का निर्वाह किया, वरन् राष्ट्रप्रेमी सेनानी बनकर दूसरों को प्रेरित किया। उनका जीवन मातृभूमि की स्वाधीनता में लगा था, वहीं उनका कविकर्म इसमें लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग बना रहा था। वे केवल स्वयं ही नहीं, बल्कि अन्य रचनाकारों को भी संदेश दे रहे थे कि युगीन सत्य की उपेक्षा न करें। वर्तमान समय संघर्ष का है तो कवि की वाणी में भी उथलपुथल भरी भावाभिव्यक्ति आवश्यक है, क्योंकि उसकी वाणी से ही जनता जाग्रत होगी और स्वाधीनता की हिलोंरें उठने लगेगी।
सन्दर्भ :
- सं. धर्मवीर भारती, धर्मयुग, फरवरी,1987, पृष्ठ-7
- सं.डॉ. इंदुशेखर तत्पुरुष, राष्ट्रबोध, संस्कृति एवं साहित्य, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर,
2019 पृष्ठ-33
- सोहन लाल द्विवेदी, भैरवी, इंडियन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, 1942, पृष्ठ 1
- सोहन लाल द्विवेदी, विषपान, इंडियन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, 1943, पृष्ठ 1
- सोहन लाल द्विवेदी, युगाधार, साहित्य भवन लिमिटेड, इलाहाबाद,1946, पृष्ठ 56
- सोहन लाल द्विवेदी, पूजागीत, इंडियन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, 1944, पृष्ठ 42
- जयशंकर प्रसाद, कामायनी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,2014,
पृष्ठ-1
- सोहन लाल द्विवेदी, प्रभाती, साहित्य भवन लिमिटेड प्रयाग, 1944, वक्तव्य
- वही,पृष्ठ 6
- सोहन लाल द्विवेदी, सेवाग्राम, इंडियन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, 1946, पृष्ठ 128
- सोहन लाल द्विवेदी, भैरवी, इंडियन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, 1942, पृष्ठ 36
- सोहन लाल द्विवेदी, सेवाग्राम, इंडियन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, 1946, पृष्ठ 28
- सोहन लाल द्विवेदी, मुक्तिगंधा, नेशनल पब्लिशिंग हॉउस, नई दिल्ली,1971, पृष्ठ19
- वही, पृष्ठ 46-47
- सोहन लाल द्विवेदी, सेवाग्राम, इन्डियन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, 1946, पृष्ठ115
- सोहन लाल द्विवेदी, भैरवी, इंडियन प्रेस लिमिटेड, इलाहाबाद, 1942, पृष्ठ 2
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