शोध सार : धर्मभारतीय संस्कृति का प्राण का तत्व है। यही कारण है कि भारत की लग-भाग सभी लोक-संस्कृतियों के लोक-साहित्य में धर्म की उपस्थिति अनिवार्य रूप से रही है। ओड़िया लोक-साहित्य भी इसका अपवाद नहीं है। ओड़िया लोक-साहित्य की अनेक विधाओं में भारतीय धर्म साधना की एक जीवंत धारा निरंतर प्रवाहित होती रही है। आदिवासी, जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त, वैष्णव आदि सभी धर्मों की अनेक मान्यताओं और आध्यात्मिक तत्वों का प्रकटन ओड़िया लोकगीतों में हुआ है। इन गीतों के माध्यम से सम्पूर्ण भारतीय धर्म साधना के मध्य समन्वय स्थापित करने का सुंदर प्रयास हुआ है।
बीज
शब्द : धर्म, लोक संस्कृति, लोक साहित्य, लोकगीत
मूल आलेख : भारतीय संस्कृति का प्राण धर्म है। भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले वेदों में धर्म का मूल आधार निहित है। ‘धर्म’ शब्द का अर्थ बहुत व्यापक है। जो हमारे अस्तित्व को धारण किये हुए हैं, वह धर्म है। ‘धृ’ धातु से धर्म शब्द की उत्पत्ति हुई है। ‘धृ’ धातु का अर्थ धारण करना या रक्षा करना होता है। धर्म का साधारण अर्थ होता है- विवेक के अनुसार स्व कर्तव्य सम्पादन करना। मनुष्य द्वारा अपने कर्तव्यों का पालन करना ही धर्म है। यह कर्तव्य पालन ही मूल मानव धर्म है, जो समाज को एक सूत्र में बांधने का कार्य करता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करने पुण्य, सुकृत, आचार, यज्ञ तथा अहिंसा आदि अर्थों में धर्म शब्द का प्रयोग किया गया है। किन्तु मानवतावादी दृष्टिकोण से देखने पर धर्म एक मार्ग है, जिस मार्ग से परिचालित होने वाले मानवीय आत्मा तथा दैविक शक्ति की सत्ता का अनुभव करते हुए समाज में लोकमंगल का विधान करती है। अर्थात् मनुष्य द्वारा परमात्मा के अस्तित्व को जानने का मार्ग ही धर्म है। वस्तुतः संसार से मुक्त होकर परमात्मा में विलीन हो जाना धर्म है। समाज में रहने के लिए यह नीति, नियम एवं मार्ग हैं। समाज और धर्म एक दूसरे के पूरक है। समाज में मनुष्य निवास करता है। परिवार, समाज और राष्ट्र में रहने के लिए मनुष्य को धर्म के सूत्र में बंधकर रहना पड़ता है। देखा जाए तो धर्म एक ऐसा तत्व है, जो व्यक्ति को देश तथा काल के अनुसार आचरण की प्रेरणा देता है और समाज में रहने के लिए योग्य तथा सामर्थ्यवान बनाता है।
लोक साहित्य के अंतर्गत लोकगीत, लोक कथा, लोक नृत्य, लोक गाथा, लोक सुभाषित, आदि सम्मिलित हैं। साधारण जनता के हृदय के जो उद्गार गीत के रूप में प्रकट होते हैं, लोकगीत कहलाते हैं। सरलता और स्वाभाविकता लोकगीतों का सबसे महत्वपूर्ण गुण है। इसके विविध वर्ण्य-विषय होते हैं जैसे- सुख-दुःख, प्रेम-करुणा, हर्ष-उल्लास आदि। जन साधारण के आतंरिक हृदय से किसी पहाड़ी झरने के समान लोकगीत के स्वर स्वतः फूटकर निकल पड़ते हैं। लोकसाहित्य और समाज का संबंध हवा-पानी की तरह है। दोनों गहरे रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। लोकसाहित्य में समाज का प्रत्येक अंग स्वच्छंद रूप से प्रतिबिंबित होता है। संस्कृति और समाज को दिशा देने का कार्य धर्म करता है। ओड़िया लोकसाहित्य में धार्मिक चिंतन के अनेक सूत्र बिखरे पड़े हैं।
ओड़िया लोकसाहित्य में धर्म का यशगान सहस्रों लोककंठों से फूट पड़ा है। मानवतावादी एवं आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टिकोण से ओड़िया लोक साहित्य में प्रवाहित धर्मधारा अत्यंत ही गहन व समृद्ध है। प्राचीन ओड़िया समाज ने अनेक आध्यात्मिक मूल्यों को आत्मसात किया है जो ओड़िया समाज की सामाजिक रीति-नीति, रहन-सहन तथा नियम-कानून के रूप श्रृंखलाबद्ध होते हैं। ओड़िया लोक-साहित्य को प्राचीन ओड़िया समाज कि धर्मधूरी, पथप्रदर्शक कहना अतिश्योक्ति न होगा।
ओड़िशा में सभी धर्मों के समन्वय पीठ है। ओड़िशा भूमि में जगन्नाथ संस्कृति के पुजारी, धर्म के उपासक, सर्वधर्म समन्वय के प्रतीक तथा उदार मानवतावादी महापुरुष के रूप में विख्यात हैं। जगन्नाथ मत में विभिन्नधर्मों का समिश्रण हुआ है, जैसे- जैन, बुद्ध, शैव, शाक्त, गाणपत्य, सोर, नाथ, वैष्णव और आदिवासी धर्म आदि। ओड़िया जाति किसी भी कार्य को करने से पहले जगन्नाथ महाप्रभु को स्मरण करती है। ओड़िया समाज की स्त्रियाँ प्रातः काल में तुलसी के पौधे के नीचे विभिन्न प्रकार के रंगों से जगन्नाथ महाप्रभु की रंगोली बनाकर पूजा-अर्चना करती है। जगन्नाथ संस्कृति ओड़ियावासिओं के रक्त में प्रवाहित होती है। धार्मिक चेतना और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करने से जगन्नाथ संप्रदाय इन सबके केंद्र में है। इसलिए ओड़िया लोक- साहित्य का धार्मिक चेतन से परिपूर्ण होना स्वाभाविक-सी बात है। भगवान जगन्नाथ ओड़िया लोक-संस्कृति में धर्म से संबंधित भावना को जागृत करने के मूल हेतु हैं।
आदिवासी धर्म - आदिवासी धर्म की चेतना ओड़िया लोकसाहित्य को बहुत समृद्ध रूप में विद्यमान है। ओड़िशा बहुत से आदिवासिओं की निवास स्थली है। जगन्नाथ संस्कृति को आदिवासी संस्कृति माना जाता है। आर्य और आर्योत्तर संस्कृति के मिलन से जगन्नाथ संस्कृति बनी है। भारत में आदिवासी धर्म और संस्कृति अत्यंत प्राचीन है। प्रकृति-पूजा आदिवासी धर्म का मूल आधार है। नदी, वनस्पति, तालाब, आकाश, जंगल आदि ये सब आदिवासी संस्कृति के उपासना के देवता है। ओड़िशा के पहले निवासी आदिवासी है। द्राविड़ और आर्य परवर्ती समय में इस क्षेत्र में आये। इसका प्रमाण इतिहास में है। ओड़िशा में कुछ ऐसे आदिवासी हैं जो स्वयं को जगन्नाथ के वंशज होने दावा करते हैं। ओड़िशा में आदिवासी और आर्य-संस्कृति ऐसे रूप से मिलि हुई है कि इनको अलग-अलग करना कठिन कार्य है। दोनों ही समाजोंके परम्परा से चले आ रहे हैंलोक साहित्य में धर्म,संस्कृति, नीति-नियम आदि के सुदृढ़ संबंध हैं। दोनों के लोक साहित्य युग-युग से एक सूत्र में बँधे हुए हैं। ओड़िया लोकगीत आदिवासी धार्मिक चेतन को धारण करके बहुत समृद्ध हुआ है।
ओड़िशा में प्रचलित व्रत, उत्सव, पूजा-पद्धति आदि आदिवासी धर्म से प्रभावित है। करमा पूजा पश्चिम ओड़िशा के आदिवासी संप्रदाय का श्रेष्ठ पर्व है। इस पूजा में कुँआरी कन्याएँ एक दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर वाद्य के ताल के साथ नृत्य करती हैं। करमा देवी दुर्गाकी तिरसठी योगिनिओं में से एक हैं। ऐसा लोक विश्वास है। भादों माह की एकादशी तिथि के दिन यह पर्व मनाया किया जाता है। करमा पूजा के जो देवता हैं वह अनार्य समाज में आर्य समाज के आगमन के बाद प्रतिष्ठित हुए। इस पर्व में बलि-प्रथा प्रचलित है। सभी आदिवासी एकत्रित होकर साथ में पूजा-अर्चना करते हैं। आदिवासिओं के धार्मिक विश्वास के अनुसार देवी माँ को मद्य, मांस एवं बलि देकर पूजा-अर्चना की जाती है। देवी माँ को खुश करने के लिए यह सब प्रसाद के रूप में अर्पण किया जाता है। देवी माँ इससे प्रसन्न होकर जनमानस की मनोकामनाएँ पूर्ण करती है। एक ‘करमा गीत’ में इसका वर्णन है। इस प्रकार है-
“जुहार मागो करमा सानि तते
वंदना करूछि पादतते
निपुत्रिकि पुत्र देउ निधनीकि धन देउ
कंठरे बसिण पद कहिदेबु मते।”[1]
अर्थात् भक्त करमा सानी को कोटी-कोटी प्रणाम करते हुए विनती कर रहे हैं कि निःपुत्र को पुत्र प्राप्ति हो, निर्धन को धन प्राप्त हो और मेरे कंठ में बैठकर एक बार यह कह देना। यह मैं आपके समक्ष भिक्षा याचना कर रहा हूँ।
आदिवासी संस्कृति के ‘चइति पर्व’, ‘नूआखाई पर्व’, ‘मानसापूजा पर्व’ आदि का ओड़िशा आर्य संस्कृति के साथ घनिष्ठ संबंध है। लकड़ी से निर्मित मूर्ति की पूजा के माध्यम से आदिवासी संस्कृति में आर्य संस्कृति ने प्रवेश किया है। यह मत विभिन्न विद्वानों ने द्वारा मान्य है। आदिवासी धर्म का ओड़िया के धार्मिक लोक-विश्वास तथा संस्कृति से गहरा अंतःसंबंध है। इसे ओड़िया लोकगीत में जीवंत रूप से में देखा जा सकता है। ‘चइति पर्व’ को चैत महीने में मनाया जाता है। इस पर्व पर ‘चइत परव गीत’ गाये जाते हैं। गंजाम, नवरंगपुर, कोरापुट आदि स्थानों के युवक एवं युवतियाँ इस प्रतियोगिता में भाग लेते हैं। गीत गाने की प्रक्रिया को पर्व में उपस्थित दो पक्षों के मध्य वाद-प्रतिवाद की शैली में प्रस्तुत किया जाता है। जो एक गीत है-
“पुरुष- गाआ, गाआ, मो’र गाआक रतन
गाआ तेबे शुणि देखु।
तमर आमर एकांत हेला
पदे पदे गाइबाकु।
ढुकि जे’ रे धन ! ढुकिला बेले
न मिलिब सबुकाल।”[2] (नवरंगपुर-कोरापुट)
अर्थात् मेरे गायक रत्न तुम गीत गाओ। तुम कैसे गाते हो, जरा गाओ हम सुनते हैं। तुम और हम मिलकर एक पंक्ति हो जाए। गाना है तो बेटा अभी गा लो, यह अवसर हमेशा मिलने वाला नहीं है।
जैन धर्म - ऐतिहासिक दृष्टि से जैन धर्म बौद्ध धर्म से भी प्राचीन धर्म है। प्रलय के बाद जब नई सृष्टि का निर्माण हुआ है तोनये काल में धर्म से संबंधित उपदेश देने के लिए अनेक तीर्थंकरों ने जन्म ग्रहण किए। ओड़िशा में खंडगिरि और उदयगिरि की गुंफाएँ जैन संप्रदाय से संबंधित है। प्राचीन काल से ओड़िशा में प्रचलित जैन धर्म का प्रभाव ओड़िया लोक-साहित्य पर देखने को मिलता है। जैन धर्म के लोगों ने तत्कालीन ब्राह्मणों के अत्याचार के विरोध में आवाज उठायी थी। इन्होंने हिन्दू धर्म को अंधकार से रोशनी की ओर ले जाने के लिए धार्मिक विद्रोह किया था। जैन मुनियों ने सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय तथा अपरिग्रह को अपना मूल तत्व माना है।प्राचीन काल में ओड़िशा के साधारण जन मानस को जैन धर्म के मानववादी विचारों ने बहुत आकृष्ट किया। इसमें देवी-देवताओं की स्थिति में विश्वास नहीं करना, मूर्ति पूजा का विरोध करना, भागवत से प्राप्त ब्राह्मणों की मध्यस्थता को महत्व नहीं देना आदि शामिल है। जगन्नाथ महाप्रभु के प्रति जैन धर्म में प्रगाढ़ भक्ति-भावना निहित है। जगन्नाथ संस्कृति या ओड़िया संस्कृति के साथ जैन संस्कृति अटूट का संबंध है। जैन धर्म के आदर्श, नीति-नियम, मानववादी विचारों के प्रति ब्राह्मणों में विरोध का स्वर नहीं दिखाई पड़ता। ओड़िशा की संस्कृति में प्रचलित अनंत व्रत, दीपावली, लक्ष्मी पूजा और सरस्वती पूजा में जैन धर्म का प्रभाव देखा जा सकता है। नीलकंठ जगन्नाथ का जैन देवता के रूप में चित्रण किया गया है। ओड़िया लोकगीतों में जैन धर्म का प्रभाव मिलता है।
ओड़िशा में निवास करने वाले सपेरा संप्रदाय के लोग सांप को पकड़ते और सांप को नचाते समय गीत गाते हैं। इस गीत में कंस की आज्ञा से श्रीकृष्ण विषाक्त कालिंदी झील में कमल तोड़ने जाते हैं, जैन हरिवंश पुराण में भी इसका वर्णन मिलता है। गीत इस प्रकार है-
“नई न बढुणु जमुना बढिला
कालिंदी ह्रदरे किए से बुड़िमला ?
बुड़िमले नन्द बालक
पुष्प तोलु दंशि देला काली
पद्म पत्र पड़े प्रभु पड़िथीले ढ़लि
भाइ बलराम थइले कोलकरि
गारूड़ि मंत्ररे झाड़िले जोड़ाचारि
उठ उठ जगु हो सहोदर हो
कउठ तले काली कृष्ण मोड़ई निश
जाहार वाहन पक्षी गरुड़
उड़ाऐ दिए विष हो।”[3]
अर्थात् एक बार एक गाय चराने वाले व्यक्ति ने कालिंदी झील का पानी पी लिया तो उसकी मृत्यु हो गई। जब श्रीकृष्ण को इस बात की जानकारी मिली तब उन्होंने अपनी शक्ति से उसको जीवित कर दिया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण उस झील में कूद पड़े। श्रीकृष्ण पानी के बहुत नीचे गए और सांप को जोर-जोर से पुकारने लगे। बहुत समय बीतने पर जब श्रीकृष्ण पानी से निकले नहीं निकले तो गाँव वाले इकट्ठा होकर किनारे उनका इंतजार करने लगे। सभी लोग चिंतित होकर सोच रहे थे कि नन्द बालक मर गए, उनको कमल का फूल थोड़ते समय कालिया नाग ने डस लिया है। कमल के पत्ते से प्रभु गिर गए। भाई बलराम ने दौड़कर उन्हें अपनी गोद में सुलाया और तांत्रिक को झाड़-फूँक करके सहोदर को जगाने के लिए कहा। विष्णु के वाहन गरुड़ पक्षी ने उस विष को उड़ा दिया। श्रीकृष्ण ने कालिया सांप को आश्वासन दिया कि अब उस पर गरुड़ कभी भी आक्रमण नहीं करेगा। क्योंकि कालिया के सिर पर श्रीकृष्ण के पैरों के निशान पड़ चुके हैं।
जैन धर्म में विद्यादात्री सरस्वती देवी की पूजा की जाती है। ‘दंडनाट’ के में इसका वर्णन मिलता है जो निम्नलिखित है-
“पुरीक्षेत्रे विमलाइ पदे पदे
बाणपुरे भगवती।
रणपुरे माणिनाथ पादे वंदे जे
कंठे वंदे सरस्वती।”[4]
अर्थात् श्रीक्षेत्र पुरी में विमल देवी, बाणपुर में भगवती, रणपुर में मणिनाथ आदि का स्मरण करके, एक बार कंठ से उच्चारित करने में सरस्वती देवी की महत्वपूर्ण भूमिका है।
बौद्ध धर्म - बौद्ध धर्म तथा दर्शन का प्रभाव भी ओड़िया लोक-साहित्य और लोक जीवन पर परिलक्षित होता है। भारतीय धर्म चेतना में धर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। इस धर्म ने ब्राह्मणों के आधिपत्य, समाज में बलि प्रथा पर विद्रोह का स्वर उठाया है। बौद्ध धर्म का मूल उद्देश्य निर्वाण प्राप्ति है। इसमें ईश्वर के प्रति विश्वास तथा मूर्ति पूजा का विरोध है। मनुष्य ही देवता के समान है। मनुष्य का जीवन दुःखमय है औरइसका कारण कामना है। कामना का विनाश कर देने से दुःख का भी विनाश हो जाता है। सत्य के मार्ग पर जीवन-यापन करने से कामना का विनाश होता है। यह सब बौद्ध धर्म का मूल मंत्र है।परवर्ती समय में बौद्ध धर्म का विभाजन देखने को मिलता है। जिसमें सहज मार्ग के अंतर्गत मद्य, मांस, मस्य, मुद्रा, मैथुन, तंत्र आदि का प्रवेश हुआ है।
ओड़िशा के राजाओं के द्वारा बौद्ध धर्म को राज धर्म के रूप में सम्मान प्रदान किया गया। ओड़िशा तथा इसके बाहर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार होने से राज्य में इसकी प्रतिष्ठा हुई। अशोक, कनिष्क, शुभक देव, शिवशंकर देव, इंद्रभूति आदि राजाओं ने बौद्ध धर्म प्रचार-प्रसार किया हैं। ओड़िशा में बौद्ध धर्म आज भी बौद्ध पीठों में विद्यमान है। ओड़िशा के रत्नगिरि, उदयगिरि, ललितगिरि, पुष्पगिरि आदि बौद्ध मठ भारत के महान बौद्ध मठों के रूप में विख्यात हैं।
ओड़िशा की संस्कृति में बौद्ध संस्कृति के प्रभाव की झलक मिलती है। जगन्नाथ संस्कृति के साथ बौद्ध संस्कृति का सम्मिश्रण हुआ है। दशावतार में बुद्ध का स्थानांतरित रूप जगन्नाथ महाप्रभु हैं। बुद्ध और जगन्नाथ के मध्य में अंतर नहीं है।
ओड़िशा के गाँवों में निवास करने वाले लोगों की जीवन-शैली में बौद्ध धर्म का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अनेक रोगों तथा जादू-टोना के भय से मुक्ति पाने के लिए बौद्ध-धर्म के सहजयान के ऊपर लोगों का अटूट विश्वास है। ओड़िशावासी जादू-टोना, झाड़-फूँक, अंधविश्वास आदि के ऊपर बहुत विश्वास करते हैं। ओड़िशा के गाँवों में विभिन्न लोकगीतों में बुद्ध देवता को सम्मान दिया गया है। भगवान के दशवातार में बुद्ध का महत्वपूर्ण स्थान है। ओड़िया के ‘गाआणि मंगल बोल’ गीत के अंतर्गत ‘अनुकूल मंगल’ के गीत में दशवातार के वर्णन मिलता है।
“मत्स्य, कच्छ, वहार त्रिविक्रम केशरी
परशुराम बलराम नाम नरहरि।
वाइद कलकी दश अवतार नाम
हृदे धरि यात्रा करि चल ही सुजन।
वार तिथि तारा चंद्र योग लग्न तिथि
किच्छि न विचार मने चिन्ति लक्ष्मीपति ॥”[5] (तिगिरिआ)
अर्थात् ब्रह्मांड का संरक्षण तथा विघटन विष्णु करते हैं। लक्ष्मीपति शुभ मुहूर्त देखकर कुछ चिंता एवं विचार नहीं करते दशवातार के नाम स्मरण करते हुए राजा यात्रा करते हैं।
ओड़िशा के व्रतों में बौद्ध-धर्म के सहजयान का प्रभाव परिलक्षित होता है। ‘निशा मंगल’ व्रत में मांस, मद्य आदि नैवेद्य के रूप में अर्पित किया जाता है। बौद्ध-धर्म की सहजयान शाखा में मद्य, मांस, मत्स्य, मैथुन आदि पंचमकारों का वर्णन नैवेद्य के रूप में किया जाता है। चैत मंगल उषा, बलि प्रथा एवं दांड पहँरा उषा के शुखुआ बहु प्रसंग में बौद्ध धर्म का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त ‘वाउला गाई’ गीत में बौद्ध दर्शन का प्रभाव परिलक्षित होता है।
शैव धर्म - ओड़िशा में शैव धर्म का प्रभाव भी देखने को मिलता है। गाँव-गाँव में शिव मंदिर स्थापित किये गये हैं। ओड़िशा के भुवनेश्वर में स्थित लिंगराज मंदिर को शिव पीठ के रूप में जाना जाता है। शैव-धर्म में शिव की उपासना की जाती है। यह धर्म भारत के सबसे प्राचीन धर्म में से एक है। वेद, पुराण, उपनिषद आदि में शिव परम योगी के रूप में विद्यमान है।
ओड़िशा के कला, इतिहास, पर्व, उत्सव, विश्वास, धार्मिक मान्यताओं तथा सामाजिक विधि-विधान पर शैव धर्म का प्रभाव स्पष्ट रूप से पड़ा है। प्राचीन काल में ओड़िशा के अनेक राजाओं ने शैव धर्म को राज धर्म के रूप में ग्रहण किया है। द्वितीय सात कर्णदेव, अनंत वर्मा, सामंत वर्मा, देवेन्द्र वर्मा, शशांक, उद्येत केशरी, चौड़ागंगदेव आदि राजाओं ने शैव-धर्म को विशेष महत्व दिया है। शंकराचार्य ने शैव-धर्म और जगन्नाथ-धर्म के मध्य समन्वय स्थापित किया। विभिन्न व्रत-गीतिका, दण्डनाच, डाकवचन, पटुआ नाच, छाउ नृत्य, ढगढ़मली, खनवाचन, मंत्र-तंत्र, कृषक गीत, गाड़ीवान गीत, देशीय चिकित्सा संबंधित गीत में शैव धर्म के प्रभाव के स्रोत विद्यमान है।
ओड़िया लोकगीत में शिव और शक्ति लौकिक स्तर पर अवतरित हुए हैं। शक्ति प्रायः पार्वती या उषा नाम से जाना जाता है। लोकगीत के अनुसार शिव और पार्वती करुणा के प्रतीक हैं। दीन-हीन, दुःखी, गरीब, दरिद्र की सहायता के लिए पार्वती सर्वदा करुणामयी होकर उनके समक्ष प्रस्तुत होती हैं। ‘हालिया/कृषक गीत’ में शिव के हल चलते समय पार्वती खाना लेकर खेत में पहुँचती है। पार्वती मन में यह सोच रही हैं कि उनके पतिदेव शिव प्रातः काल से खेती करने के लिए गए हैं, वे भूख से व्याकुल हो रहे होंगे। एक ओड़िया लोकगीत में वर्णन है कि पार्वती यमुना नदी में स्नान करती हैं। उसके बाद दैनिक जीवन चर्या का वर्णन गीत के रुप में आता है, जो निम्नलिखित है-
“रात्र थाउँ थाउँ उठिले पार्वती
यमुना नदीरे स्राहान (स्नान) करंति
सिआली पतर पंचगोटि दान
आंब निम्ब करि बाढ़िले घटना।
पाट पिंधि पाट उपुराण (उढ़णा) देले
चंद्रावली पाट चिमुला नोहिले।
घोटणा धरि पार्वती बाउलमूले ठिआ
ता देखि ईश्वर हल कले ठिआ।”[6]
अर्थात् पार्वती ब्रह्म मुहूर्त के समय नदी में स्नान करने के लिए जाती हैं। उनके पति-देव शिव हल चलाने के लिए जाते हैं। वे उनके पास व्यंजन जे जाने की व्यवस्था करती हैं। नवीन वस्त्र-परिधान करके घूँघट भी डालती हैं। वे अपने पतिदेव के पास पहुँच जाती हैं और एक पेड़ के नीचे खड़ी हो जाती हैं। तब शिव उनको देखने के बाद हल को खड़ा कर देते हैं। यहाँ शिव और पार्वती देवता एवं देवी नहीं है। वे साधारण जनमानस के रूप में प्रस्तुत हुए हैं। ओड़िया घर की बहुएँ भी सुबह स्नान करती हैं। यह रीति लोक में प्रचलित है।
नाउरिआ गीत (नाविक गीत), शगड़िआ गीत (गाड़ीवान गीत) में शैव धर्म के प्रवाह की धारा विद्यमान है। इसके अतिरिक्त विभिन्न व्रत गीतों में शिव और पार्वती का वर्णन मिलता है। जैसे- बेणाटिआ उषा, सोमनाथ व्रत, कुक्कुटी व्रत, शिवरात्रि व्रत, शंकर चउठी व्रत, बालि तृतिया व्रत आदि गितिकाओं में अत्यंत सरल भाषा तथा सुंदर कहानी के माध्यम से शैव धर्म की महत्ता का वर्णन है।
विभिन्न प्रकार के लोक-नृत्यों में भी शैव-धर्म का प्रभाव देखने को मिलता है। जैसे- ‘छउ नृत्य’ शिव से जुड़ा हुआ है। ‘दंडनाच’ और ‘पाटुआ नाच’ में विभिन्न लौकिक चरित्रों के माध्यम से शैव-धर्म की महत्ता का चित्रण किया जाता है। इसके अधिष्ठात्री देवी-देवता शिव और पार्वती हैं।
ओड़िशा के गाँव से लेकर शहर तक शाक्त-धर्म की अक्षुण्ण परम्परा विद्यमान है। ओड़िशा के प्रत्येक घर में शक्ति की उपासना की जाती है। इसलिए ओड़िशा के लोक-साहित्य में शक्ति का रूप अत्यधिक दृष्टिगोचर होता है। ब्रह्मांड की सृष्टि या संसार की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय का मूल कारण शक्ति है। शक्ति को ‘मातृरुपि’ कहा जाता है।
शाक्त धर्म - ओड़िया संस्कृति में शक्ति की उपासना का लोक-धर्म पर प्रभाव पड़ा है। घर के सामने स्थित चौरा में विद्यमान तुलसी वृक्ष की पूजा की जाती है। इसमें वृन्दावती देवी विराजमान है ऐसी लोक मान्यता है। ओड़िया संस्कृति में विभिन्न व्रतों में शक्ति की उपासना की जाति है। ओड़िशा के इतिहास, कलाऔर साहित्य में शक्ति की उपासना प्राचीन काल में होती रही है। विभिन्न पुराणों में ओड़िशा की शक्ति पीठों का उल्लेख हुआ है। ओड़िया लोक-संस्कृति में ‘मंगला स्मृति’ के गीतों में शक्ति की उपासना इस प्रकार की गई है-
“जयतु मंगला मागो जय तु हरचंडी
तोते सुमरिले मागो विपत्ति होये खंडि।
जाजपुररे रहिलु मागे विराज नाम वहि
जय तु भुवनेश्वरी मागे रहिलु एकाम्र होई
संबलपुरे रहिलु मागे नाम तो समलाइ
बउद रहिलु मागो उमा जे बोलइ ॥”[7] (हरिचन्द्रभर)
अर्थात् इस माँ मंगला आप हरचंडी हो, आपकी जय हो। आपको स्मरण करने से विपत्ति दूर हो जाती है। जाजपुर में विराज, भुवनेश्वर में एकाम्र, सम्बलपुर में समलेश्वरी, बौद्ध में उमा देवी आदि के नाम से जानी जाती है।
इसी प्रकार से अन्य गीतों में जैसे- व्रत गीत, पर्व गीत, उत्सव गीत, त्यौहार गीत, पटुआ गीत, चइति घोड़ा गीत, दोलिगीत, शगड़िआ गीत, स्मृति तथा मंत्र संबंधित गीतों में शक्ति का उल्लेख मिलता है।
वैष्णव धर्म - भारतीय धार्मिक संप्रदायों में वैष्णव धर्म प्रमुख है। ओड़िशा में वैष्णव धर्म का प्रभाव अधिक देखने को मिलता है। आज प्रत्येक गाँव में भागवत का पाठ किया जाता है। वैष्णव धर्म में विष्णु की उपासना की जाती है। संहिता, उपनिषदों तथा ब्राह्मणों के धर्म-ग्रंथों में विष्णु की उपासना का वर्णन है। रामायण, पद्मपुरण, विष्णु पुराण, वराह पुराण, स्कन्द पुराण, ब्रह्म पुराण आदि में विष्णु की उपासना का उल्लेख मिलता है। मध्वाचार्य, विष्णु स्वामी, निम्बाकाचार्य, रामानंद, बल्लभाचार्य, कबीर, नानक जैसे अनेक महापुरुषों ने श्री क्षेत्र पुरी धाम में आकर महाप्रभु श्री जगन्नाथ की आराध्य एवं दर्शन किया। इसलिए जगन्नाथ महाप्रभु बुद्ध, राम और कृष्ण हो जाते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु पुरी आकर प्रेम-भक्ति के माध्यम से समाज को सुधारने के लिए कोशिश करते हैं। इसलिए प्रभु जगन्नाथ को केंद्र में रखकर वैष्णव धर्म भारतीय धर्म साधना के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ता है।
श्री चैतन्य महाप्रभु की प्रेम-भक्ति और ओड़िशा के वैष्णव-धर्म की ज्ञान मिश्रित-भक्ति ने भारत तथा ओड़िशा के जन साधरण को प्रभावित किया है। ओड़िशा के कई राजाओं के द्वारा वैष्णव धर्म को राजधर्म के रूप में सम्मान अर्जन दिया गया है। प्रतापरुद्र देव ने श्री चैतन्य के द्वारा वैष्णव धर्म की दीक्षा ग्रहण की। वैष्णव धर्म मुख्यतः तीन धाराओं में दृष्टिगोचर होता है। राम की उपासना, जगन्नाथ की उपासना तथा कृष्ण की उपासना। तीनों धाराएँ एक-दूसरे के पृथक नहीं हैं बल्कि जुड़ी हैं। भारतीय समाज में श्री रामचन्द्र को आदर्श एवं मर्यादा पुरुषोत्तम के चरित्र के रूप में स्वीकार किया गया है। लोक-साहित्य ने रामायण को आख्यानपरक लोक काव्य का रूप दिया है। ओड़िया लोक-साहित्य में राम और सीता को समाज में आदर्श चरित्र के रूप में वर्णित किया जाता है। देवत्व से अपेक्षाकृत मानवत्व को अत्यधिक महत्व दिया गया है। ‘कृषक/हलिआ गीत’, ‘शगड़िआ गीत’, ‘गाआणि मंगलगीत’, ‘विभिन्न स्मृति’, ‘जणाण ओ मंत्र’ में रामायण के विभिन्न प्रसंग परिलक्षित होते हैं।
महाप्रभु जगन्नाथ तो स्वयं पुरुषोत्तम हैं। उनमें श्री राम, श्री कृष्ण, बुद्ध, महायान का शून्य और अद्वैत का ब्रह्म सब शामिल है। उनके अनेक नाम है, उसमें से ‘पतितपावन’ एक हैं। ओड़िया के ‘हलिआ गीत’ में राम के रथ का वर्णन जगन्नाथ के रथ के साथ संबंधित करके किया गया है। एक गीत द्रष्टव्य है-
“राम राम पद गोटि चारि युगे सत
दरिआ भितरे बाहिनेले रथ
ढेणा काटि राम रथ बाहिले ओड़िशा जगन्नाथ रे,
उड़िशा जगन्नाथ रे पड़इ जुड़ा बेत
केउँ कुंदुरार पुअ कुंदिचि ए नंदिघोष रथ रे,
नंदिघोष रथरे नंदेरि नंदन
तालद्वज रथरे भाइ बलराम
विजयारथरे देवी सुभद्रा
गुंडिचा यात्रादिन रे।”[8]
अर्थात् राम नाम के शब्द चार युग में सत्य है। श्री राम का रथ दरिया के भीतर से निकलकर ओड़िशा के जगन्नाथ में स्थापित हुआ है। पुरी जगन्नाथ मंदिर के प्रवेश मार्ग में पंडा या पंडित दो वेत (दो लकड़ी) शिर में स्पर्श करते हैं। किस बढ़ाई ने नंदिघोष रथ का निर्माण किया है ? नंदिघोष रथ में जगन्नाथ, तलद्वज रथ में बलराम में तथा पद्म ध्वज में सुभद्रा विराजमान होकर गुंडिचा यात्रा करते हैं।
श्री चैतन्य महाप्रभु के नाम संकीर्तन के माध्यम से प्रेम भक्ति का प्रचार-प्रसार ओड़िशा में खूब हुआ है। चैतन्य महाप्रभु का प्रेम-भक्ति लोकगीत है-
“हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे,
हरे राम हरे राम राम राम हरे।”[9]
अर्थात् इस गीत के माध्यम से यह बताया गया है कि चैतन्य महाप्रभु श्री कृष्ण के प्रति अनन्य निष्ठा एवं विश्वास करते थे। वे कृष्ण-कृष्ण रटने लगे और उनकी भक्ति में लीन हो गए। ढोलक, मृदंग, झाँझ, मंजीरे आदि वाद्य यंत्र बजाकर, उच्च ध्वनि में गाकर एवं नृत्य करके हरि नाम संकीर्तन आरंभ किया। ओड़िआ लोकगीत में कृष्ण और राम को केंद्र में रख कर गीत गाते हैं। यह गीत अत्यंत समृद्ध है। वैष्णव धर्म में राधा और श्री कृष्ण के प्रेम गीतों में अत्यंत सूक्ष्म भाव का चित्रण किया गया है।
वैष्णव धर्म के आराध्य देवता जगन्नाथ राम, कृष्ण और बुद्ध के अवतार के रूप में विद्यमान हैं। वे साकार और निराकार दोनों हैं। इनका कोई आकार नहीं है, जिसको हम व्यक्त कर सकें। वे समग्र सृष्टि और प्रलय के मूल में हैं। ओड़िया लोक-साहित्य में जगन्नाथ के वंदना गीतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। लोक-कवि जगन्नाथ को पिता और लक्ष्मी को माता के रूप में ग्रहण करते हैं। जगन्नाथ सृष्टि के निर्माण कर्ता हैं। उनके निर्देश से ब्रह्मांड परिचालित होता है। इसके अतिरिक्त वैष्णव धर्म के पिंड-ब्रह्मांड तत्व, शून्य-साधन आदि तत्वों का ओड़िया लोकसाहित्य में वर्णन मिलता है। ओड़िया लोक-संस्कृति में वैष्णव धर्म का प्रभाव विभिन्न व्रतों में भी दिखाई पड़ता हैं। राई दामोदर व्रत, लक्ष्मी नारायण व्रत, राधाष्टमी व्रत, माणवसा गुरुवार व्रत आदि में विष्णु, राधा, कृष्ण, लक्ष्मी और जगन्नाथ की वंदना की जाती है।
ओड़िया लोकसाहित्य नाथ, गाणपत्य, सोर, नाग आदि धर्मों का भी प्रभाव दिखाई पड़ता है। गजानन भारतीय संस्कृति में सर्वदा से पूजे जाते हैं। ओड़िया लोग भादों माह की शुक्ल पंचमी के दिन गणेश चतुर्थी की पूजा करते हैं। नाग देवता की पूजा ओड़िया संस्कृति में‘नागल चतुर्थी’ और ‘वाटउषा’व्रत के रूप में की जाती है। ‘दुतिआ उषा’ और ‘रविनारायण व्रत’ में सूर्य देवता की उपासना की जाती है। नाथ धर्म ओड़िया संस्कृति धर्म धारा में मुख्य है। इस धर्म को मनाने वाले आदिनाथ की पूजा करते हैं। यह ओड़िया संस्कृति की स्वतंत्र जाति के रूप में जानी जाती है। ये लोग गाँव में घूम-घूमकर गीत गाकर और वाद्ययंत्र बजाकर भिक्षा ग्रहण करते हैं। गीत की मुख्य उद्देश्य जन-साधारण और लोक-जीवन में आध्यात्मिक चेतना को जागृत करना है। गीत में वर्णन है-
“भजुकि ना राम नामरे कुमार बोलुकि ना राम नाम
भजि न परिले कुल चंद्रमारे बाँधि नब कालजम
सेहि कालजम बड़रे दारुण न जानइ सुखदुःख
बाछि नब कंचा रखिब पाचला देबरे दारुण दुःख।”[10]
अर्थात् भक्त राम नाम का स्मरण कर रहा है। इनके नाम का जप नहीं करने से यमराज ले जाएंगे। वे बहुत दारुण हैं एवं किसी के सुख-दुःख को नहीं जानते हैं। यमराज किसी को नहीं छोड़ते हैं। सबको स्वर्ग ले जाते हैं। इस संसार में जन्म होने से मृत्यु सुनिश्चित है। इस भव-सागर में जितना दिन तक है, राम नाम का स्मरण करने से कहीं न कहीं मुक्ति मिल जाती है।
निष्कर्ष रूप से हम यह देखते हैं कि ओड़िया लोक-साहित्य धार्मिक भावना से ओत-प्रोत है। इसमें भारत की विविध धर्म साधनाओं के अनेक धार्मिक एवं आध्यात्मिक तत्वों का समन्वय हुआ है। जगन्नाथ महाप्रभु ओड़िया लोक-साहित्य में अभिव्यक्त धार्मिक चेतना की धूरी है। बौद्ध, शैव, वैष्णव आदि धर्मों से जगन्नाथ महाप्रभु का गहरा अन्तः संबंध है। इन सभी संप्रदायों की अनेक धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों ने ओड़िया लोक-साहित्य को धर्म चेतन सम्पन्न बनाने में पाने महत्वपूर्ण भूमिका आदा की है। वास्तव में ओड़िया लोक-साहित्य ने इन सभी धर्मों में समन्वय स्थापित करके मानव जाति को धर्म-प्राण बनाने में अपनी महती योगदान दिया है।
संदर्भ :
[1]दाश, डॉ. कुंजबिहारी, कुंजबिहारी ग्रंथावली, भाग-10,ओड़िया बुक स्टोर, विनोद बिहारी, कटक, 2001 ई., पृ.-608
[2]महापात्र, चक्रधर, उत्कल गाउँलि गीत, विद्या प्रकाशन, बालु बाजार, कटक, 2017 ई., पृ.-606
[3]दाश, डॉ. कुंजबिहारी, कुंजबिहारी ग्रंथावली, भाग-10, ओड़िया बुक स्टोर, विनोद बिहारी, कटक, 2001 ई.,
पृ.-608
[4]दाश, डॉ. कुंजबिहारी, कुंजबिहारी ग्रंथावली, भाग-10, ओड़िया बुक स्टोर, विनोद बिहारी, कटक, 2001 ई., पृ.-601
[5]महापात्र, चक्रधर, उत्कल गाउँली गीत, विद्या प्रकाशन, बालु बाजार, कटक, 2017 ई., पृ.- 109
[6]दाश, कुंजबिहारी, कुंजबिहारी ग्रंथावली, भाग- 10, ओड़िया बुक स्टोर, विनोद बिहारी, कटक, 2001 ई., पृ.-364
[7]महापात्र, चक्रधर, उत्कल गाउँली गीत ओ कथा, साहित्य अकादमी, भुवनेश्वर, 2019 ई.,पृ.- 155-56
[8]दाश, डॉ. कुंजबिहारी, कुंजबिहारी ग्रंथावली, भाग- 10, ओड़िया बुक स्टोर, विनोद बिहारी, कटक, 2001 ई., पृ.-373-374
[9]महापात्र, चक्रधर, उत्कल गाउँली गीत, विद्या प्रकाशन, बालु बाजार, कटक, 2017 ई.,पृ.-270
[10]दाश, कुंजबिहारी, कुंजबिहारी ग्रंथावली, भाग- 10, ओड़िया बुक स्टोर, विनोद बिहारी, कटक, 2001 ई., पृ.-72
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, सूर्यमणिनगर, 799022
kailashpadhan1995@gmail.com, 7386584663
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