शोध सार : प्रस्तुत शोध-आलेख में ऑक्सफोर्ड निर्धनता और मानव विकास पहल (OPHI) और संयुक्त राष्ट्रविकास कार्यक्रम (UNDP) द्वारा जारी ‘वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक’ तथा नीति आयोग द्वारा जारी ‘राष्ट्रीय बहुआयामी गरीबी सूचकांक’ के दृष्टिकोण से आदिवासी समाज में व्याप्त निर्धनता का शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन स्तर के अन्तर्गत-पोषण, पेयजल, स्वच्छता, बिजली जैसे संकेतकों के आधार पर आदिवासी केंद्रित उपन्यासों में चित्रित आदिवासी जीवन का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। निर्धनता को कम करने हेतु सरकार द्वारा लागू की गई विभिन्न योजनाओं का आदिवासी समाज संतोषजनक लाभ नहीं उठा पा रहा है जिनके कई कारण हैं। आदिवासी क्षेत्रों में विभिन्न बाहरी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों द्वारा प्राकृतिक संपदा का दोहन किया जा रहा है किंतु ये शक्तियाँ उन क्षेत्रों में निवासित आदिवासी समाज को गरीबी से उभारने के स्थान पर और अधिक गरीब बना देती हैं। इन क्षेत्रों में शिक्षा हेतु उठाए गए कदमों के फलस्वरूप जारी योजनाओं में व्यापक भ्रष्टाचार होता है और स्वास्थ्य की स्थिति तो और भी दयनीय होती है। स्वास्थ्य सुविधाओं में गुणवत्ता का नामोनिशान नहीं होता है। जीवनस्तर के अन्य संकेतकों में भी आदिवासी समाज प्रगति नहीं कर पा रहा है। अत: आदिवासी समाज की निर्धनता को पहचानने हेतु इन संकेतकों के अलावा अन्य पहलुओं का भी विश्लेषण आवश्यक है क्योंकि आदिवासी समाज का जीवन पृथक और भिन्न तो है ही, साथ-साथ वहाँ बाहरी शक्तियों का भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इसलिए आदिवासी विकास हेतु एक व्यापक संरचनात्मक प्रगतिशील अवधारणा की तथा सरकार द्वारा लिए जा रहे निर्णयों के उचित क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
बीज शब्द : निर्धनता,
बहुआयामी
निर्धनता,
बहुआयामी
गरीबी
सूचकांक,
राष्ट्रीय
निर्धनता,
निर्धनता
की
तीव्रता,
जीवनस्तर,
शिक्षा,
स्वास्थ्य,
प्राचीन
चिकित्सा
पद्धति,
प्राकृतिक
दोहन,
रेडियोधर्मी
विकिरण,
प्रदूषण,
अवसंरचना,
खाद्य
सुरक्षा,
कुपोषण,
पर्यावरणीय
हानि,
भ्रष्टाचार।
मूल आलेख : आज
इक्कीसवी
सदी
में
भी
निर्धनता
संपूर्ण
विश्व
में
सामाजिक
समस्या
के
रूप
में
खड़ी
है।
निर्धनता
की
समस्या
न
केवल
विकासशील
देशों
बल्कि
विकसित
देशों
में
भी
व्याप्त
है।
निर्धनता
का
संबंध
निम्न
जीवन
स्तर
से
है
अर्थात्
विभिन्न
देशों
द्वारा
निर्धनता
के
मानदंड
भी
भिन्न-भिन्न
हैं।
कुछ
देश
निर्धनता
को
इस
रूप
में
परिभाषित
करते
हैं
कि
एक
व्यक्ति
ऐसी
स्थिति
में
निर्धन
है,
जिसमें
वह
अपने
जीवनस्तर
को
सुधारने
हेतु
निम्नतम
सुविधाओं
को
प्राप्त
करने
में
असमर्थ
है।
अर्थात्
उसकी
आय
निम्न
है
किंतु
केवल
आय
के
आधार
पर
हम
निर्धनता
का
निर्धारण
नहीं
कर
सकते
क्योंकि
निर्धनता
व्यक्ति
के
जीवन
को
व्यापक
रूप
से
प्रभावित
करती
है।
इसलिए
समकालीन
बहुआयामी
निर्धनता
की
अवधारणा
का
विकास
हुआ
है।
आक्सफ़ोर्ड
विश्वविद्यालय
की
शोध
समिति
द्वारा
स्पष्ट
किया
गया
कि
“एक
व्यक्ति
जो
गरीब
है,
वह
एक
ही
समय
में
कहीं
नुकसानों
से
पीड़ित
हो
सकता
है-
उदाहरण
के
लिए
उसका
स्वास्थ्य
खराब
हो
सकता
है
या
कुपोषण
हो
सकता
है,
साफ़
पानी
या
बिजली
की
कमी
हो
सकती
है,
काम
की
गुणवत्ता
खराब
हो
सकती
है
या
स्कूली
शिक्षा
कम
हो
सकती
है।
अत:
एकमात्र
आय
जैसे
एक
ही
कारक
पर
ध्यान
केंद्रित
करना
गरीबी
की
वास्तविकता
को
पकड़ने
के
लिए
पर्याप्त
नहीं
है।”1
कहने
का
तात्पर्य
यह
है
कि
बहुआयामी
गरीबी
की
अवधारणा
के
अन्तर्गत
व्यक्ति
के
जीवन
को
प्रभावित
करनेवाले
विभिन्न
कारकों
को
इस
अवधारणा
के
अन्तर्गत
सम्मिलित
किया
गया
और
निर्धनता
को
व्यापक
दृष्टिकोण
से
देखने
का
प्रयास
हुआ।
इस प्रकार
गरीबी
उन्मूलन
के
व्यापक
दृष्टिकोण
के
साथ
भारत
में
भी
प्रयास
हुआ।
वैश्विक
अवधारणाओं
के
आधार
पर
‘नीति
आयोग’
द्वारा
‘राष्ट्रीय
बहुआयामी
निर्धनता
सूचकांक’
के
अन्तर्गत
भी
व्यक्ति
के
जीवन
स्तर
को
प्रभावित
करनेवाले
विभिन्न
कारकों
को
सम्मिलित
किया
गया
जिसके
अंतर्गत
शिक्षा,
स्वास्थ्य,
जीवन
स्तर
तथा
इनके
अन्तर्गत
अनेक
उपकारकों
को
भी
सम्मिलित
किया
गया
है।
निर्धनता
पहचान
के
इस
व्यापक
दृष्टिकोण
में
आदिवासी
समाज
की
वास्तविकता
और
उनकी
निर्धनता
को
प्रभावित
करनेवाले
विभिन्न
कारकों
का
विश्लेषण
का
प्रयास
इस
शोध-आलेख
में
किया
गया
है।
भारतीय आदिवासी
समाज
अपने
आप
में
भाषा,
संस्कृति
तथा
भौगोलिक
विविधताओं
से
युक्त
हैं।
फलत:
आदिवासी
समाज
की
निर्धनता
का
मापन
केवल
उन
मानकों
द्वारा
नहीं
किया
जा
सकता
जो
‘नीति
आयोग’
द्वारा
संपूर्ण
देश
हेतु
समान
रूप
से
अपनाया
जाता
है।
इस
शोध-आलेख
में
इन्हीं
विभिन्न
मुद्दों
पर
विश्लेषण
करते
हुए
आदिवासी
समाज
की
बहुआयामी
निर्धनता
को
आदिवासी
उपन्यासों
के
संदर्भ
में
प्रस्तुत
करने
का
प्रयास
किया
गया
है।
बहुआयामी निर्धनता सूचकांक की परिभाषा : बहुआयामी निर्धनता के संदर्भ में विचारक, बुद्धिजीवी तथा विभिन्न देशों के सूचकांकों की परिभाषाओं में व्यापक विभिन्नताएँ विद्यमान हैं। “एक ऐसा सूचकांक जो किसी देश में गरीबी की व्यापक तस्वीर खींचने के लिए तीन आयामों - मौद्रिक गरीबी, शिक्षा और बुनियादी ढाँचागत सेवाओं से वंचित परिवारों के प्रतिशत को मापता है। यह गरीबी की जटिलता को पकड़ने का एक साधन है, जो मौद्रिक गरीबी से परे कल्याण के आयामों पर विचार करता है।”2 OPHI और UNDP के अनुसार बहुआयामी निर्धनता सूचकांक “यह प्रत्यक्ष रूप से किसी व्यक्ति के जीवन और कल्याण को प्रभावित करनेवाले स्वास्थ्य, शिक्षा एवं जीवन स्तर के परस्पर संबंधित अभावों को मापता है।”3
बहुआयामी निर्धनता सूचकांक के आयाम :
बहुआयामी
निर्धनता
की
अवधारणा
और
उनकी
परिभाषाओं
में
विभिन्नताएँ
विद्यमान
हैं
लेकिन
वैश्विक
स्तर
पर
निर्धनता
को
मापने
हेतु
कुछ
कारकों
को
विश्व
समुदाय
ने
अपनाया
है।
इन
कारकों
में
मुख्यतः
शिक्षा,
स्वास्थ्य,
और
जीवनस्तर
को
प्रधानता
दी
गई
है।
शिक्षा
के
अन्तर्गत-
स्कूल
के
वर्ष,
स्कूल
में
उपस्थिति,
गरीबी
की
तीव्रता
और
हेडकाउंट
दर
को
शामिल
किया
गया
है।
स्वास्थ्य
के
अन्तर्गत-
पोषण
स्तर
और
शिशु
जन्म
दर
को
शामिल
किया
गया
है।
जीवनस्तर
के
अंतर्गत-
अन्य
उपकारकों
को
भी
सम्मिलित
किया
गया
है
जो
व्यक्ति
के
जीवन
स्तर
को
ऊपर
उठाने
में
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाते
हैं।
इन
संकेतकों
में
मकान,
बिजली,
रसोई,
ईंधन,
स्वच्छता,
पेयजल,
संपति
को
रखा
गया
है।
“भारत
के
राष्ट्रीय
बहुआयामी
गरीबी
सूचकांक
के
तीन
समान
महत्व
वाले
आयाम
हैं:
शिक्षा,
स्वास्थ्य,
जीवन
स्तर
जो
12 संकेतकों
द्वारा
दर्शाए
जाते
हैं।”4
सूचकांक का आयाम शिक्षा और आदिवासी समाज : बहुआयामी
निर्धनता
को
सर्वाधिक
प्रभावित
करने
वाला
कारक
है
शिक्षा।
शिक्षा
जीवन
की
गुणवत्ता
को
सकारात्मक
रूप
से
प्रभावित
करती
है।
शिक्षा
व्यक्ति
के
समक्ष
जीवनस्तर
को
सुधारने
एवं
गुणवतापूर्ण
जीवन
शैली
को
ऊपर
उठाने
हेतु
कई
अवसरों
एवं
तरीकों
का
सृजन
करती
है।
शिक्षित
व्यक्ति
के
समक्ष
निर्धनता
से
उभरने
हेतु
रोज़गार
के
अनेक
अवसर
उपलब्ध
होते
हैं।
अत:
निर्धनता
पहचान
में
शिक्षा
महत्वपूर्ण
संकेतक
है।
2001 की
भारतीय
जनगणना
के
अनुसार
“आदिवासी
साक्षरता
दर
24 प्रतिशत
थी,
जो
राष्ट्रीय
साक्षरता
दर
64 प्रतिशत
से
काफ़ी
नीचे
थी।”5
लेकिन
2011 की
जनगणना
में
आदिवासी
साक्षरता
दर
में
तेजी
से
सुधार
हुआ।
जनजातीय
कार्य
मंत्रालय
के
द्वारा
2020 में
जारी
एक
पी.
आई.
बी.
के
अनुसार
“2011 की
जनगणना
के
अनुसार
अनुसूचित
जनजातियों
की
साक्षरता
(ST) दर
59 प्रतिशत
थी
जबकि
अखिल
भारतीय
स्तर
पर
समग्र
साक्षरता
दर
73% प्रतिशत
थी।”6
कहना
न
होगा
कि
21 वीं
सदी
के
प्रथम
दशक
में
सरकार
द्वारा
किए
गए
प्रयासों
के
कारण
आदिवासी
साक्षरता
वृद्धि
दर
राष्ट्रीय
वृद्धि
दर
से
तेज
रही
है
किंतु
आदिवासी
केंद्रित
हिन्दी
उपन्यासों
में
शिक्षा
की
वास्तविकता
संतोषजनक
नहीं
है।
आदिवासी केंद्रित
हिन्दी
उपन्यासों
में
शिक्षा
की
स्थिति
का
खुलासा
मुख्यतः
रणेंद्र
द्वारा
रचित
‘ग्लोबल
गाँव
के
देवता’
राकेश
कुमार
सिंह
द्वारा
रचित
‘पठार
पर
कोहरा’
और
महुआ
माजी
द्वारा
रचित
‘मतंग
गोड़ा
नीलकंठ
हुआ’
आदि
उपन्यासों
में
व्यापक
रूप
से
हुआ
है।
आदिवासी
क्षेत्र
में
शिक्षा
की
मौलिक
सुविधाएँ
भी
उपलब्ध
नहीं
है।
यदि
व्यापक
दृष्टि
से
विचार
करें
तो
भारत
में
आदिवासियों
के
संदर्भ
में
शिक्षा
के
तीन
रूप
दृष्टिगोचर
होते
हैं।
एक
है
शहरी
शिक्षा
व्यवस्था,
दूसरी
मुख्य
धारा
हेतु
आदिवासी
क्षेत्र
में
बनाई
गई
शिक्षा
व्यवस्था
और
तीसरी
आदिवासियों
के
लिए
बनाई
गई
व्यवस्था
और
इन
तीनों
व्यवस्थाओं
की
यथार्थ
स्थिति
में
व्यापक
अंतर
है।
इस
व्यापक
अंतर
का
चित्रण
‘ग्लोबल
गाँव
के
देवता’
उपन्यास
में
चित्रित
हुआ
है।
शिक्षा
व्यवस्था
में
सरकार
द्वारा
किए
गए
प्रयासों
का
भी
अधिक
लाभ
नहीं
हुआ
है।
आदिवासी क्षेत्र में मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था : ‘ग्लोबल
गाँव
के
देवता’
में
इस
व्यवस्था
के
स्कूल
का
चित्रण
हुआ
है
“पाथरपाट
स्कूल
का
गेट
सामने
था।
स्कूल
का
इतना
बड़ा
कैंपस
कि
हम
लोगों
के
भौंरापाठ
जैसे
दो-तीन
गाँव
समा
जाए।
हरा-भरा
सुंदर
व्यवस्थित
कैंपस।
कैंपस
में
घुसते
ही
सबसे
पहले
हाट
जाती
हुई
एक
आदिवासी
स्त्री
की
मूर्ति
पर
नज़र
पड़ती
है।
पीठ
पर
बंधा
हुआ
बच्चा,
एक
हाथ
में
मुर्गी,
माथे
पर
लकड़ी
का
छोटा-सा
गट्ठर….इन्हीं
विशालकाय
भवनों
में
राज्य
के
सबसे
मेधावी
लड़के
पढ़ते
जिन्हें
सबसे
ज्यादा
वेतन
पाने
वाले
सुयोग्य
शिक्षक
पढ़ाया
करते।
आख़िर
उन्हें
ही
शासक
बनना
था,
छात्रावास
की
व्यवस्था
भी
अनूठी
थी।
एक
शिक्षक
परिवार
एक
छात्रावास
से
जुड़ा
था।….खेल-कूद,
चित्र-संगीत,
वाद-विवाद
यानी
हर
पहलु
के
विकास
की
चिन्ता।
एक
दम
ठीक
कहा
था
डॉक्टर
ने,
असल
स्कूल
यहीं
है।……असुरों
के
सौ
से
ज्यादा
घरों
को
उजाड़कर
बना
था
यह
स्कूल……पिछले
तीस
वर्षों
के
रजिस्टर
उठाकर
देख
लीजिए
जो
एक
भी
आदिम
जाति
परिवार
के
बच्चे
ने
स्कूल
में
पढ़ाई
की
हो।”7
इस
चित्रण
से
स्पष्ट
होता
है
कि
शिक्षा
की
व्यवस्था
अति
उत्तम
है
किंतु
जिनकी
भूमि
पर
यह
स्कूल
बना
है,
उन्हीं
के
बच्चों
को
पढ़ने
का
अवसर
नहीं
दिया
जा
रहा
है।
अर्थात्
सुव्यवस्थित
शिक्षा
व्यवस्था
में
आदिवासी
समाज
की
जानबूझकर
उपेक्षा
की
जा
रही
है।
यह
तो
हुई विकसित
शिक्षा
नीति
के
अनुसार
चलते
स्कूल
की
बात
जिनमें
आदिवासियों
के
लिए
कोई
स्थान
नहीं
है।
आदिवासी क्षेत्र की शिक्षा व्यवस्था : आदिवासी
क्षेत्र
में
सरकार
के
द्वारा
आदिवासी
हेतु
शिक्षा
सुधार
के
माध्यम
से
जिन
स्कूलों
की
स्थापना
हुई
थी
उनकी
स्थिति
दयनीय
है।
ये
स्कूल
सरकार
की
फ़ाइलों
में
सर्वोत्तम
होते
हैं
किंतु
वास्तविकता
पूर्णतः
विपरीत
होती
है
“पाथरपाठ
विद्यालय
…..असली
स्कूल
और
फुसलवान
स्कूल
का
फर्क।….भौरापाठ
स्कूल
सुअर
का
बखार
नज़र
आता
है।
आधी-अधूरी
बिल्डिंग
जैसे-तैसे
बना
हॉस्टल
मुर्गी
खाना
जैसा
शिक्षक
आवास।
जहाँ
साफ़-सफ़ाई
होनी
चाहिए
वही
सबसे
ज्यादा
गंदगी।
बच्चियों
के
मेस
में
कभी
झाड़ू-पोछा
लगता
भी
था
कि
नहीं,
कोई
जिम्मेदारी
लेने
को
तैयार
नहीं।
केवल
मेस
की
खरीददारी
के
लिए
मारामारी।
असल
कमाई
वहीं
थी।
हेडमिस्ट्रेटर
मुझ
पर
ही
झल्लायी,
इन
मक्काई
के
घट्टा
खानेवालों
को
यहाँ
काम-धाम
मिल
जाता
है,
वही
बहुत
है।
आप
अपने
हिसाब
से
क्यों
सोचते
हैं?
कौन
इन्हें
अपने
घरों
में
खीर-पूड़ी
भेंटता
है
कि
आप
मेस
की
व्यवस्था
में
सुधार
के
लिए
मरे
जा
रहें
हैं।”8
‘ग्लोबल
गाँव
के
देवता’
उपन्यास
में
किसी
प्रकार
स्कूल
का
ढाँचा
तो
दिखाता
है,
भले
वहाँ
गुणवत्ता
का
नामोनिशान
नहीं
है
लेकिन
‘पठार
पर
कोहरा’
उपन्यास
में
तो
उससे
भी
दयनीय
स्थिति
का
चित्रण
हुआ
है।
वहाँ
की
स्कूल
केवल
फ़ाइलों
में
ही
हैं
और
सरकार
द्वारा
प्रदान
किए
जा
रहे
वित्तीय
संसाधनों
का
विकास
भी
फाइलों
में
ही
हो
जाता
है
“वैसे
तो
कई
महत्वपूर्ण
सरकारी
फैसले
वर्षों
तक
फाइलों
में
ही
दबे
पड़े
सड़े
रहते
हैं,
परंतु
विद्यालय
में
फर्नीचर
की
खरीद
योजना
बड़ी
तेजी
से
पाखान
चली
थी।”9
यहाँ
शिक्षा
व्यवस्था
में
भ्रष्टाचार
का
बोलबाला
है
और
इस
भ्रष्टाचार
में
“सरकार
में
बैठे
लोग,
वरिष्ठ
अधिकारी,
जिला
शिक्षा
पदाधिकारी
एवं
अधीक्षक
जैसे
मध्यम
स्तर
के
अधिकारी
और
मध्यम
स्तर
के
बाबू
लोग
मिल-जुलकर
सरकारी
खजाने
का
अंधाधुंध
दोहन
कर
रहे
हैं।”10
कहना
न
होगा
कि
शिक्षा
की
यह
दयनीय
स्थिति
किसी
भी
रूप
में
आदिवासी
समाज
को
बहुआयामी
निर्धनता
से
ऊपर
उठाने
हेतु
पर्याप्त
नहीं
है
लेकिन
सरकारी
आंकड़े
हमे
सुंदर
स्वप्नमय
दुनिया
की
तस्वीर
दिखाते
हैं।
आदिवासी शिक्षा की दयनीय स्थिति के कारण : आदिवासी
शिक्षा
के
इस
निम्न
स्तर
का
कोई
एक
कारण
नहीं
है
बल्कि
सारी
एक
चैन
सिस्टम
व्यवस्था
है,
जो
इस
स्थिति
को
अंजाम
देती
है।
फिर
भी
कुछ
वास्तविक
कारण
अवश्य
दृष्टिगोचर
होते
हैं।
योजनाओं
के
उचित
क्रियान्वयन
का
अभाव,
भ्रष्टाचार,
शिक्षकों
का
अभाव,
आधारभूत
संरचनाओं
का
अभाव,
नौकरशाही
की
उदासीनता
जो
सबसे
बड़ा
कारण
है,
मुख्यधारा
की
संकुचित
मानसिकता,
संचार
का
अभाव,
शिक्षा
के
प्रचार
प्रसार
का
अभाव
आदि
अनेक
बुनियादी
कारण
हैं
लेकिन
सरकारी
समितियों
और
नौकरशाही
अफसरों
द्वारा
बताए
जानेवाले
कारण
कुछ
और
ही
हैं।
उनका
मानना
है
कि
आदिवासी
अभिभावक
अपने
बच्चों
को
पढ़ाने
में
उत्साही
नहीं
हैं,
उनकी
आर्थिक
स्थिति
ठीक
नहीं
है,
वे
अज्ञानी
हैं,
प्रकृति
से
बहुत
अधिक
प्रेम
करते
हैं,
इसलिए
वे
प्रकृति
से
बाहर
नहीं
आना
चाहते
हैं
आदि,
आदि।
लेकिन
विचार
करने
जैसी
बात
है
कि
जितने
भी
कारण
इनके
द्वारा
बताए
जा
रहे
हैं,
सभी
कारणों
में
केवल
आर्थिक
कारण
किंचित्
मात्र
सही
है,
बाकी
सारे
कारण
अप्रामाणिक
कोरे
झूठे
हैं,
जो
अपने
भ्रष्टाचार
को
छुपाने
हेतु
कहे
जाते
हैं।
इस
प्रकार
यदि
झूठ-झाठ
चलता
रहेगा
तब
तो
आदिवासी
समाज
को
निर्धनता
से
बाहर
लाने
हेतु
और
पता
नहीं
कितने
वर्ष
लग
जाएँगे।
सूचकांक का आयाम स्वास्थ्य और आदिवासी समाज :
बहुआयामी
निर्धनता
सूचकांक
में
व्यक्ति
की
स्वास्थ्य
स्थिति
को
एक
संकेतक
के
रूप
में
स्वीकार
किया
गया
है।
आदिवासी
समाज
का
स्वास्थ्य
प्रकृति
से
ही
उतना
बुरा
नहीं
होता
है
परंतु
वे
लगातार
संक्रमण
की
बीमारियों
से
पीड़ित
भी
रहते
हैं।
मानवाधिकार
के
अनुच्छेद
पच्चीस
में
तथा
बहुआयामी
निर्धनता
सूचकांक
में
भी
कहा
गया
है
कि
“प्रत्येक
व्यक्ति
को
अपने
ऐसे
जीवन
स्तर
को
प्राप्त
करने
का
अधिकार
है
…जिसके
अन्तर्गत….चिकित्सा
संबंधी
सुविधाएँ
और
आवश्यक
सामाजिक
सुविधाएँ
सम्मिलित
हैं।
सभी
की
बीमारी,
बेकारी,
असमर्थता,
वैधव्य,
बुढ़ापे
या
अन्य
किसी
ऐसी
परिस्थिति
में….
सुरक्षा
का
अधिकार
प्राप्त
है।”11
मूलभूत
सवाल
यह
है
कि
राज्य
द्वारा
प्रदान
की
जा
रही
स्वास्थ्य
संबंधी
सेवाओं
का
किस
प्रकार
अनुपालन
जनजातीय
क्षेत्रों
में
हो
रहा
है?
सवाल
का
जवाब
संतोषजनक
प्राप्त
नहीं
होता
है।
2014 फरवरी
की
‘योजना’
पत्रिका
के
अनुसार
“लगभग
44 मिलियन
आदिवासी
आबादी
में
से
50 प्रतिशत
लोग
मलेरिया
की
चपेट
में
हैं।
आश्चर्य
की
बात
यह
है
कि
मलेरिया
से
होनेवाली
कुल
मृत्यु
इस
आबादी
का
50 प्रतिशत
शामिल
होता
है।”12
पिछले
कुछ
वर्षों
से
औद्योगिक
प्रदेशों
के
समीपवर्ती
क्षेत्रों
में
निवासित
आदिवासी
समाज
नई-नई
बीमारियों
का
सामना
कर
रहा
है।
यदि
स्पष्ट
शब्दों
में
कहा
जाए
तो
छत्तीसगढ,
झारखंड,
उड़ीसा,
दक्षिणी
बिहार
और
पूर्वी
मध्यप्रदेश
के
क्षेत्र
अदृश्य
ज़हर
से
विषाक्त
हो
चुके
हैं।
आदिवासी क्षेत्रों में व्याप्त बीमारियाँ : भारत
में
सर्वाधिक
प्रदूषण
तथा
प्रदूषण
से
प्रभावित
लोग
और
भिन्न-भिन्न
प्रकार
की
बीमारियाँ
जिनके
इलाज
का
अभी
शोध
भी
नहीं
हुआ
है,
फैल
रही
हैं।
अपंग,
अपाहिज
शिशु
का
जन्म,
मन्द
बुद्धि
शिशु
का
जन्म,
विकलांगता,
अपाहिज
बूढ़ें,
टी.
बी.
के
रोगी,
थेलेशेमिया,
थायरॉयड,
दमा
केंसर,
स्केलिटन,
रिफ़ॉर्मिटिस
त्वचा
के
रोग,
पेट
में
उभरी
बड़ी
गाँठ
(आबूर्द),
छोटे
आकार
के
शिरवाले
शिशु
(माइक्रो
कैथेली),
बड़े
आकार
के
सिर
वाले
बच्चे
(मेगाकैथेली),
अपने
नित्य
कर्मों
से
निपटने
की
सुध
नहीं
(डाउन
सिंड्रोम),
बांझपन,
प्रदूषित
और
गंदे
जल
से
होनेवाली
बीमारियों
में
पेट
की
बीमारी,
आँत
की
बीमारी,
चर्मरोग,
कालरा,
पेचिस,
अतिसार,
नहरूमा,
कैंसर
तथा
पोषक
तत्वों
के
कमी
के
कारण
कई
समुदाय
क्षय
रोग
के
शिकार
हैं।
ऐसी
अनेक
बीमारियों
के
नाम
गिनाए
जा
सकते
हैं।
उपर्युक्त
आदिवासी
क्षेत्र
आज
इन
तमाम
बीमारियों
से
ग्रस्त
हैं।
‘धेबर
आयोग’
ने
आदिवासी
समाज
की
स्वास्थ्य
स्थिति
पर
प्रकाश
डालते
हुए
कहा
था
कि
आदिवासी
क्षेत्रों
में
सरकार
द्वारा
स्वास्थ्य
संबंधी
प्रयासों
के
बावजूद
परिणाम
संतोषजनक
नहीं
है
और
इन
बीमारियों
की
सम्भावनाएँ
और
अधिक
बनती
जा
रही
हैं।
बीमारियों के प्रमुख कारण : ये
विभिन्न
प्रकार
की
बीमारियाँ
ऐसे
ही
उत्पन्न
नहीं
हो
रही
हैं।
इनके
पीछे
व्यापक
कारण
हैं
जिन
पर
आज
गंभीर
रूप
से
विचार
करने
की
आवश्यकता
है।
इन
क्षेत्रों
में
निर्मित
कारख़ाने,
फैक्ट्रियों,
खदाने
जिनमें
तेजाब,
यूरेनियम,
कोयला
जैसे
विषैले
उत्पादनों
का
नकारात्मक
प्रभाव
आदिवासी
समाज
पर
पड़
रहा
है
और
हैरानी
की
बात
यह
है
कि
ऐसे
गंभीर
चिंताजनक
विषयों
पर
कोई
विचार
भी
नहीं
कर
रहा
है,
यहाँ
तक
कि
सरकार
भी।
“इन
बीमारियों
की
असली
वजह
यूरेनियम
से
होने
वाला
विकिरण
है।”13
इन
कारणों
के
अलावा
औद्योगिक
कचरों
का
उचित
निपटान
का
अभाव,
गैर-कानूनी
खनन
तथा
प्रबंधन
का
अभाव
हैं।
“एक
तरफ
इन
खानों
में
उचित
मजदूरी
नहीं,
दूसरी
तरफ
बरबादी
के
सरंजाम
भी
खड़े
किए
गये।
पिछले
पच्चीस-तीस
सालों
में
खान
मालिकों
ने
जो
बड़े-बड़े
गड्ढे
छोड़े
हैं,
बरसात
में
इन
गड्ढों
में
पानी
भर
जाता
है
और
मच्छर
पलते
हैं
और
सेरेब्रल,
मलेरिया
यहाँ
की
महामारी।”14
प्राय:
आदिवासी
समाज
में
चिकित्सा
की
कई प्राचीन
विधियाँ
और
पद्धतियाँ
प्रचलित
हैं,
जिसे
आयु
ज्ञान
कहते
हैं।
ये
सारी
वैज्ञानिक
रूप
से
प्रमाणित
विधियाँ
हैं
किंतु
सरकार
द्वारा
इन
विधियों
के
विकास
हेतु
कोई
ठोस
प्रयास
नहीं
हुआ
है।
जहाँ तक
आदिवासी
क्षेत्रों
में
औपचारिक
स्वास्थ्य
सेवाओं
की
सुविधाओं
की
बात
है,
इन
क्षेत्रों
में
स्वास्थ्य
आधारित
संरचना
भी
उपलब्ध
नहीं
है
जो
भी
है
वह
भी
न
के
बराबर
है।
इन
क्षेत्रों
में
प्रत्येक
लाख
लोगों
पर
0.16 के
लगभग
प्राथमिक
चिकित्सा
केंद्र
हैं
और
इन
प्राथमिक
चिकित्सा
केंद्रों
में
आवश्यक
जाँच
सुविधाएँ
भी
उपलब्ध
नहीं
हैं।
इन
केंद्रों
में
डॉक्टरों
की
कमी
तथा
नर्स
की
तो
नियुक्ति
ही
नहीं
होती
है
और
जहाँ
भी
केंद्र
हैं
एक
ही
डॉक्टर
जो
महीने
में
कुछ
ही
दिन
अपने
काम
पर
आता
है
और
जब
काम
पर
आता
है
तब
मरीज़
अथवा
उनके
संबंधियों
के
साथ
अमानवीय
व्यवहार
करता
है।
‘काला
पहाड़’
उपन्यास
में
चित्रित
डॉक्टर
का
व्यवहार
विचारणीय
है।
“अबे
ओ
बोसा!
मादरचोद
फटाफट
स्टेंड
पर
ग्लूकोज़
लगा…..उल्लू
के
पट्ठे
…. ठीक
है….,
घबराने
की
कोई
बात
नहीं,
मादचो….
को
लू
लग
गई
है।”15
इन
तमाम
समस्याओं
के
कारण
सरकारी
प्रयासों
का
संतोषजनक
परिणाम
नहीं
आ
पाता
है
और
बहुआयामी
गरीबी
में
सुधार
नहीं
हो
पाता
है।
सूचकांक का आयाम जीवन-स्तर और आदिवासी समाज : बहुआयामी
निर्धनता
सूचकांक
के
अन्तर्गत
जीवन-स्तर
को
संकेतक
के
रूप
में
स्वीकार
किया
गया
है।
हालाँकि
जीवनस्तर
को
सर्वाधिक
रूप
से
शिक्षा
तथा
स्वास्थ्य
स्थिति
प्रभावित
करती
है
किंतु
वे
संकेतक
अधिक
महत्वपूर्ण
हैं,
इसलिए
उन्हें
अलग
से
देखने
का
प्रयास
हुआ
है।
जीवनस्तर
को
पहचानने
हेतु
इसके
अन्तर्गत
कुल
सात
उपसंकेतकों
को
सम्मिलित
किया
गया
है,
जिनमें
पोषण,
घरेलू
ईंधन,
मकान,
बिजली,
स्वच्छता,
पेयजल
तथा
बैंक
खाता
आदि
सम्मिलित
हैं।
‘नीति
आयोग’
द्वारा
जारी
‘राष्ट्रीय
बहुआयामी
गरीबी
सूचकांक-2023’
में
कहा
गया
कि
सरकार
द्वारा
उठाए
गए
कदमों
जैसे
‘पोषण
अभियान’,
‘समग्र
शिक्षा’,
‘उज्ज्वला
योजना’,
‘प्रधानमंत्री
आवास
योजना’,
‘प्रधानमंत्री
जन-धन
योजना’,
‘सौभाग्य
योजना’,
‘स्वच्छ
भारत
मिशन’
आदि
का
व्यापक
सकारात्मक
प्रभाव
पड़ा
है।
“मंत्रालय
ने
इन
सुधारों
को
लागू
करना
शुरू
कर
दिया
है।
वर्ष
2015-16 और
वर्ष
2019-21 के
बीच
राष्ट्रीय
बहुआयामी
सूचकांक
पर
भारत
की
शानदार
प्रगति
लोगों
के
जीवन
की
गुणवत्ता
में
सुधार
के
लिए
सरकार
की
प्रतिबद्धता
को
दर्शाती
है।16
किंतु
यह
प्रगति
वास्तविक
धरातल
पर
दृष्टिगोचर
नहीं
होती
है।
मुख्यधारा
के
समाज
में
ही
वास्तविकता
विपरीत
है,
तो
आदिवासी
समाज
तक
इन
योजनाओं
और
प्रयासों
का
पहुँचना
तो
और
भी
कठिन
है।
पोषण स्तर : जीवनस्तर
के
अंतर्गत
जिन
पोषण,
आवास
आदि
को
संकेतक
के
रूप
में
स्वीकार
किया
गया
है,
उन्हीं
को
‘मानवाधिकार
घोषणापत्र’
में
मानवाधिकारों
के
रूप
में
स्वीकार
किया
गया
है।
घोषणापत्र
के
अनुच्छेद
25 में
कहा
गया
है
कि
“भोजन,
कपड़ा,
आवास
व्यक्ति
की
मूलभूत
आवश्यकता
है।
उन्हें
प्राप्त
करना
सभी
मनुष्यों
का
प्राकृतिक
अधिकार
है।”17
इन्हीं
उद्देश्यों
की
पूर्ति
हेतु
सरकार
द्वारा
‘सार्वजनिक
वितरण
प्रणाली’
PDS लागू
की
गई।
इस
प्रणाली
में
अधिकांश
आदिवासी
समाज
शामिल
नहीं
हो
पाया
है,
हालाँकि
वह
इसका
हक्क़दार
है।
अधिकांश
परिवार
इस
प्रणाली
से
बाहर
हैं।
आदिवासी
समाज
में
पोषण
तो
क्या,
दो
वक्त
की
रोटी
मिल
पाना
भी
कठिन
होता
जा
रहा
है।
भूक
और
खाद्य
सुरक्षा
से
सर्वाधिक
अभावग्रस्त
आज
आदिवासी
समाज
है।
उनकी
अर्थव्यवस्था
संग्रह
प्रधान
नहीं
बल्कि
निर्वाह
प्रधान
है।
इसलिए
वर्ष
के
कुछ
महीने
की
ही
खाद्य
सामग्री
का
वे
भंडारण
कर
पाते
हैं।
खाद्य
सामग्री
समाप्त
होने
पर
उन्हें
वनोपज
और
शिकार
हेतु
जंगलों
में
भटकना
पड़ता
है।
“पेट
के
लिए
चारा
तलाशते
है
हुज़ूर!
यहाँ
खाने
का
ठिकाना
कहाँ
है।
थोड़ासा
‘मक्का’
पैदा
होता
है।
कुछ
‘कुदई’
और
‘कुटकी’
पर
चार-छह
माह
से
ज्यादा
पेट
नहीं
चल
सकता।
इसलिए
हम
सब
जंगल
जाते
हैं।”18
सरकार
द्वारा
खाद्य
सुरक्षा
एवं
पोषण
संबंधी
किए
गए
प्रयासों
का
लाभ
आदिवासी
समाज
को
प्राप्त
नहीं
होता
है।
‘ग्लोबल
गाँव
के
देवता’
उपन्यास
का
पात्र
अपनी
भूख
को
व्यक्त
करते
हुए
कहता
है
कि
“भूख
और
गरीबी
ने
अंदर
से
इतना
खोखला
कर
दिया
है
कि
सामाजिक
व्यवस्था
भरभरा
गई
है।”19
आदिवासी
समाज
के
समक्ष
मुख्य
समस्या
आजीविका
के
अभाव
के
परिणामस्वरूप
उपजी
भूख
की
है।
भूख
और
गरीबी
आदिवासियों
से
क्या-क्या
नहीं
करवाती।
‘कब
तक
पुँकारू’
उपन्यास
में
नटकार्य,
‘अल्मा
कबूतरी’
उपन्यास
में
चोरी,
डकैती,
‘ग्लोबल
गाँव
के
देवता’
उपन्यास
में
कोठे
पर
काम
करना
आदि
जैसे
अनेक
संदर्भ
दिए
जा
सकते
हैं।
आदिवासी
समाज
की
इस
दयनीय
स्थिति
के
मूल
में-
आजीविका
का
संकट,
अपना
तथा
अपनी
परंपरागत
उत्पादन
विधि
का
नाश
एवं
बाज़ार
पर
कार्पोरेट
कंपनियों
का
नियंत्रण
और
जनजातीय
उत्पादन
हेतु
विपणन
सुविधाओं
का
अभाव
आदि
कई
कारण
विद्यमान
हैं।
पेयजल :
बहुराष्ट्रीय
कंपनियों
द्वारा
आदिवासी
क्षेत्रों
में
अतिक्रमणात्मक
हस्तक्षेप
तथा
विभिन्न
खनिजों
का
दोहन
होता
है।
इसलिए
वहाँ
का
पर्यावरण
विषैला
बनता
जा
रहा
है।
आदिवासी
समाज
कई
प्रकार
के
जल-संक्रमणकारी
रोगों
से
सर्वाधिक
पीड़ित
रहता
है।
पीने
योग्य
जल
का
अभाव
इन
बीमारियों
का
मुख्य
कारण
है।
“अचानक
उस
दिन
तालाब
की
तमाम
मछलियाँ
मर-मरकर
पानी
की
सतह
पर
चली
आयी
थी।
तभी
इतनी
आसानी
से
लोग
उन्हें
पकड़
रहें
थे।…तालाब
में
टेलिंग
डैम
का
ज़हरीला
पानी
कुछ
ज्यादा
ही
चला
आया
था
शायद।”20
जल
प्रदूषण
का
प्रत्यक्ष
प्रभाव
सीधे
स्वास्थ्य
पर
पड़ता
ही
है,
लेकिन
अप्रत्यक्ष
प्रभाव
इससे
भी
भयानक
होता
है,
जो
संपूर्ण
जीवन
को
ही
नकारात्मक
रूप
से
प्रभावित
करता
है।
आदिवासी
समाज
प्राकृतिक
जल
स्रोत
तथा
नदी,
तालाबों
के
जल
द्वारा
कृषि
सिंचाई
करता
है।
“इस
प्रकार
रेडियोधर्मी
पदार्थ
से
दूषित
पानी
को
जब
सिंचाई
के
लिए
इस्तेमाल
किया
जाता
है
तो
उससे
मिट्टी
प्रदूषित
होती
है
और
उस
मिट्टी
में
अपना
अनाज,
उपजी
फसल
भी
ज़हरीली
हो
जाती
है।”21
यह
समस्या
आज
न
केवल
आदिवासी
समाज
के
समक्ष
बल्कि
संपूर्ण
भारतीय
समाज
के
समक्ष
चुनौती
बनकर
खड़ी
है।
यही नहीं
जीवन
स्तर
के
सारे
संकेतक
जैसे
घरेलू
ईंधन,
पेयजल,
मकान
की
स्थिति,
बिजली
की
आपूर्ति,
प्रदूषण
का
संकट,
संपति
पर
अतिक्रमणात्मक
हस्तक्षेप
जैसी
अनेक
समस्याओं
से
आदिवासी
समाज
घिरा
हुआ
है
और
ये
सारी
समस्याएँ
एक-दूसरे
से
संबंधित
हैं।
हम
किसी
एक
संकेतक
को
पृथक
रूप
से
नहीं
देख
सकते
क्योंकि
किसी
एक
संकेतक
को
अन्य
सारे
संकेतक
बल
प्रदान
करते
हैं।
निष्कर्ष : ‘बहुआयामी
निर्धनता
सूचकांक’-2023
हो
अथवा
‘नीति
आयोग’
द्वारा
जारी
‘राष्ट्रीय
बहुआयामी
गरीबी
सूचकांक’-2023
हो,
दोनों
में
यह
स्पष्ट
किया
गया
है
कि
भारत
ने
सराहनीय
प्रगति
की
है।
पता
नहीं
ये
कहाँ
से
डेटा
प्राप्त
करते
हैं
किंतु
वास्तविकता
भिन्न
होती
है।
कम
से
कम
आदिवासी
समाज
के
संदर्भ
में
तो
निश्चित
रूप
से
व्यावहारिकता
भिन्न
है।
आदिवासी
समाज
बहुआयामी
निर्धनता
के
सबसे
निचले
पायदान
पर
खड़ा
है।
उनका
जीवनस्तर
दयनीय
अवस्था
में
है।
उनका
स्वास्थ्य
कई
नई-नई
बीमारियों
से
घिरा
हुआ
है।
आदिवासी
क्षेत्रों
में
पेयजल,
भूखमरी,
कुपोषण,
अशिक्षा,
गरीबी
चरम
पर
है।
स्वच्छता
और
पोषण
स्तर
की
स्थिति
भी
दयनीय
है।
ये
सारे
संकेतक
एक-दूसरे
को
सकारात्मक
अथवा
नकारात्मक
रूप
से
प्रभावित
करते
हैं।
जैसे
यदि
स्वास्थ्य
ठीक
नहीं
है
तो
वह
स्कूल
नहीं
जा
पाएगा,
स्कूल
न
जाने
से
उसके
पास
रोज़गार
के
विकल्प
नहीं
होंगें।
कृषि
उपज
की
कमी
के
कारण
भूखमरी
और
कुपोषण
की
समस्या
गंभीर
होती
जायेगी।
कहना
न
होगा
कि
आदिवासी
समाज
आज
भी
मुख्यधारा
के
समाज
से
कई
वर्ष
पीछे
चल
रहा
है।
सरकार
द्वारा
किए
जा
रहे
जनकल्याण
कार्यक्रमों
का
वे
लाभ
नहीं
उठा
पा
रहे
हैं
क्योंकि
भ्रष्टाचार
जैसी
साँकल
उन्हें
यहाँ
तक
पहुँचने
ही
नहीं
देती
है।
अत:
आदिवासी
समाज
की
निर्धनता
को
कुछ
संकेतकों
से
पहचाना
नहीं
जा
सकता।
उनके
लिए
एक
व्यापक
दृष्टिकोण
युक्त
विकास
अवधारणा
की
आवश्यकता
है।
संदर्भ :
- University of Oxford-OPHI Oxford, गरीबी
और मानव विकास
पहल, https://ophi.org.uk/
- The World Bank-IBRD-IDA, https://www.worldbank.org
- multidimensional-poverty-index-2023, https://en.wikipedia.org/wiki/Multidimensional_Poverty_Index
- www.news-analysis/niti-aayog-67
- कुरुक्षेत्र पत्रिका-सितंबर-2012
पृ.-20, http://kurukshetra.gov.in
- NB/SK/JK आदिवासी मामला-
2/22-09-2020 रिलीज़ ID-1657743 जनजातीय मंत्रालय
- रणेंद्र,
ग्लोबल गाँव के
देवता, भारतीय ज्ञानपीठ,
दिल्ली प्र. सं.
2009 पृ.-19
- रणेंद्र,
ग्लोबल गाँव के
देवता, भारतीय ज्ञानपीठ,
दिल्ली प्र. सं.
2009-पृ.-20
- राकेश
कुमार सिंह, पठार
पर कोहरा, भारतीय
ज्ञानपीठ, दिल्ली प्र.
सं. 2003 पृ.-51
- राकेश
कुमार सिंह, पठार
पर कोहरा, भारतीय
ज्ञानपीठ, दिल्ली प्र.
सं. 2003-पृ.-51
- मानवाधिकार घोषणा पत्र
-1948- www.un.org
- योजना-फरवरी-2014
पृ.48 http://yojana.gov.in/
- महुआ
माजी, मरंग गोड़ा
नीलकंठ हुआ, रामकमल
प्रकाशन नई दिल्ली
प्र. सं. 2012 पृ.-161
- रणेंद्र,
ग्लोबल गाँव के
देवता, भारतीय ज्ञानपीठ,
दिल्ली प्र. सं.
2009 पृ.-13
- भगवानदास
मोरवाल, काला पहाड़,
राधाकृष्ण पेपरबैक्स, दिल्ली
प्र. सं.1999 पृ.-367
- राष्ट्रीय
बहुआयामी गरीबी सूचकांक-
नीति आयोग
- मानवाधिकार घोषणा पत्र-
1948 अनुच्छेद- 25 www.un.org
- राजेंद्र
अवस्थी, जंगल के
फूल, राजपाल एंड
संस, दिल्ली, प्र.
सं. 1996 पृ.-91
- रणेंद्र,
ग्लोबल गाँव के
देवता, भारतीय ज्ञानपीठ,
दिल्ली प्र. सं.
2009 पृ.-39
- महुआ
माजी, मरंग गोड़ा
नीलकंठ हुआ, रामकमल
प्रकाशन नई दिल्ली
प्र. सं. 2012 पृ.-168
- महुआ
माजी, मरंग गोड़ा
नीलकंठ हुआ, रामकमल
प्रकाशन नई दिल्ली
प्र. सं. 2012- पृ.-14
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