शोध सार : हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्ति काल को इतिहासकार जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा स्वर्ण युग की संज्ञा से अभिहित किया गया है। भक्ति काल में ईश्वर को सखा, प्रेमी, स्वामी और प्रेमिका के रूप में देखा गया। प्रेम का अद्वितीय चित्रण यदि हमें भक्ति काल में कहीं दिखाई देता है तो वह सूफ़ी साहित्य में। निर्गुण धारा से सूफ़ी परम्परा समृद्ध है। जायसी, मंझन, नूर मोहम्मद, उस्मान, आदि सूफ़ी कवियों ने प्रेम तत्त्व के माध्यम से सामान्य जन में एकता, समरसता और प्रेम को प्रस्थापित किया। सूफ़ी काव्य में लोक जीवन का विवेचन, उसकी सामाजिक रूपरेखा और लोगों के जीवन की सामान्यता को अद्वितीयता और ईश्वर के साथ एकात्मक भाव में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया। सूफ़ी कवियों ने अपने काव्य के माध्यम से आत्मा के साथ दिव्य रूप से जुड़े जीवन के आदर्शों को अभिव्यक्त किया।
सूफ़ी काव्य लोक जीवन की समृद्धि, सामंजस्य
और समरसता को मानता है। इसमें सामाजिक सहयोग और सहानुभूति को ईश्वर प्राप्ति का रास्ता
माना है। सूफ़ी कविता में लौकिक प्रेम को ईश्वर के प्रति अद्वितीय प्रेम और भक्ति
का प्रतीक समझा है। सूफ़ी कवियों ने जीवन को पवित्रता की
भावना के साथ जोड़ा और लोक जीवन में आत्म-समर्पण और साधना का महत्त्व समझाया। यह
काव्य लोगों को आत्मिक साधना की ओर प्रेरित करता है, जिससे
वे अपने जीवन को एक उच्च और दिव्य दिशा में अग्रसर कर सके। सूफ़ी कविता में लोग
अपनी आत्मा को पहचाने और परमात्मा के साथ एकरूप हो जाए, यही भावना सन्निहित है।
सूफ़ी काव्य लोक जीवन एवं ईश्वरीय संबंध में समन्वयता लाने का सेतु है। इस
आलेख के माध्यम से सूफ़ी कवियों द्वारा अपने काव्य में चित्रित लोक जीवन को उद्धृत
करने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : संत कवि, ईश्वर, भक्ति, प्रेम-तत्त्व, लोकोत्सव, लोक-व्यवहार, तीर्थ,
व्रत, संस्कृति, परंपरा, एकता,
प्रथा आदि।
मूल आलेख : हिंदी साहित्य में निर्गुण काव्यधारा दो शाखाओं में विभाजित हुई- संत काव्य और सूफ़ी काव्य। सूफ़ी काव्य परंपरा हिंदी साहित्य के भक्ति काल की प्रेमाश्रयी शाखा की काव्य परंपरा मानी जाती है। भारत के मध्य युग के इतिहास में जहाँ संत कवियों ने भक्ति के साधारण मार्ग की प्रतिष्ठा की और ईश्वर को ज्ञान का साधन मानते हुए हिंदू-मुसलमानों के बीच भेदभाव को दूर करने का प्रयास किया। उसी समय सूफ़ी फकीरों ने प्रेम द्वारा हिंदू-मुसलमानों की एकता को सुदृढ़ करने का प्रयास किया। सूफ़ी प्रेम काव्य कोमल ह्रदय की सुंदर अभिव्यक्ति है। इस काव्य में सब के प्रति सहिष्णुता, समन्वय और प्रेम की भावना का चित्रण मिलता है। प्रेम काव्य की रचना सूफ़ी कवियों की ही देन कही जा सकती है। हिंदी साहित्य की इस धारा को विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न नामों से पुकारा है- जैसे प्रेम मार्गी सूफ़ी शाखा, प्रेम काव्य, प्रेम कथा-काव्य, प्रेमाख्यान काव्य, सूफ़ी काव्य आदि। वस्तुतः यह नाम इस तथ्य के द्योतक है कि इस परंपरा के काव्य ग्रंथों में प्रेम तत्त्व की प्रमुखता है, परंतु इनका प्रेम तत्त्व परंपरागत भारतीय शृंगार भावना से थोड़ा भिन्न है। “इन सूफ़ी कवियों ने बहुत सी कहानियाँ लिखी जिनमें उनकी प्रेम साधना का
स्पष्टीकरण पाया गया। उनकी यह शैली भी वस्तुतः उसी प्रकार की थी जैसी राधा एवं
कृष्ण की प्रेम-केलि का वर्णन करने वाले वैष्णव कवियों की थी।”1 फारसी प्रभाव या सूफ़ी प्रभाव की देन के रूप में स्वीकार करते हुए इनकी प्रेम पद्धति को भारतीय घोषित कर दिया गया था, किंतु जैसे-जैसे हिंदी में शोध कार्य की प्रगति होती जा रही है, त्यों-त्यों यह स्पष्ट होता जा रहा है कि स्वच्छंदता, सौंदर्य, साहस, कल्पना आदि से मिश्रित प्रणय भावना किसी भाषा विशेष, देश विशेष या संप्रदाय विशेष की विशेषता न होकर एक ऐसी सार्वजनिक प्रवृत्ति है, जो हर भाषा और हर देश के साहित्य में समय-समय पर परिस्थितियों के प्रभाव से उन्मीलित होती रही है। इस प्रवृत्ति को विश्व साहित्य के संदर्भ में रोमांस अर्थात स्वच्छंद प्रेम कहा गया है। अतः हिंदी के मध्यकालीन प्रेमाख्यानों को भी विश्व के इसी रोमांस साहित्य की एक धारा या शाखा के रूप में ग्रहण करना चाहिए।
सूफ़ी शब्द की उत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत है। कुछ लोगों की धारणा है कि यह शब्द सफा से बना है जिसका अर्थ पवित्रता होता है और इसी कारण सूफ़ी उन्हें ही कहना चाहिए जो मन, वचन एवं कर्म से पवित्र कहे जा सकते हैं। एक दूसरे मत के अनुसार सफा शब्द निष्कपट भाव के लिए व्यक्त हुआ है, इसलिए सूफ़ी ऐसे व्यक्ति को कहना चाहिए जो न केवल परमात्मा के प्रति निश्चल भाव रखता है, बल्कि सारे प्राणियों के साथ भी शुद्ध बर्ताव करता है। एक तीसरा मत यह है कि सूफ़ी शब्द सोफिया से निकला हुआ है, जिसका अर्थ ज्ञान है और यदि इसके आधार पर विचार किया जाए तो सूफियों को हम ज्ञानी या परम ज्ञानी समझ सकते हैं। कुछ विद्वानों का कहना है कि सूफ़ी शब्द सफ से निकला है, अर्थात सबसे आगे की पंक्ति अथवा प्रथम श्रेणी। इसके अनुसार सूफ़ी उन व्यक्तियों को कहा जा सकता है, जो कयामत के दिन ईश्वर के प्रिय पात्र होने के कारण सबसे आगे खड़े किए जाएँगे। कुछ दूसरे विद्वान सूफ़ी शब्द को सफा से बना हुआ मानते हैं, जिसका अर्थ चबूतरा हुआ करता है जो अरब देश की किसी मस्जिद के प्रांगण में बने हुए उस उच्चतम चबूतरे को सूचित करता है, जहाँ पर हजरत मोहम्मद के कतिपय प्रिय पात्र बैठा करते थे। एक और मत के अनुसार सूफ़ी शब्द का संबंध उनसे माना हैं जो सूफ़ी पहले मोटे ऊनी कपड़ों को धारण किया करते थे और यह संभवतः उन कतिपय ईसाई संतों के अनुकरण में था, जो संसार को त्याग कर सन्यासियों जैसा जीवन व्यतीत करते थे। इनका आचरण सीधा-साधा और पवित्र था। आधुनिक विद्वान और विशेषकर पाश्चात्य देशों के कुछ लेखक तथा बहुत से मुस्लिम भी आजकल इसी मत को अधिक उचित ठहराते हुए जान पड़ते हैं।
सूफ़ी मत की कई बातें इस्लाम धर्म का उदय होने से पहले से ही चली आ रही थी। उनका मूल स्रोत प्राचीन शामी परंपराओं में पाया जाता है, परंतु सूफ़ी कहे जाने वाले लोगों का परिचय हजरत मोहम्मद साहब के बाद ही मिलता है और तभी से सूफ़ी मत के इतिहास का प्रारंभ भी होता है। सूफ़ी मत के इतिहास के तृतीय युग तक इस्लाम धर्म का प्रचार संसार के प्राय: कोने कोने तक होने लगा था। मुस्लिम विजेता जहाँ कहीं भी पहुँचे वहाँ पर उन्होंने अपने मजहब का प्रभाव डालने का प्रयत्न किया। उनका इस्लाम धर्म अधिकतर तलवार के बल पर फैला, किंतु सूफ़ी मत उसके साथ मुस्लिम उपदेशकों और प्रचारकों के द्वारा शांति से प्रवेश करता गया। सूफ़ी मत का प्रचार करने वालों ने बल प्रयोग की अपेक्षा अपनी चमत्कारपूर्ण रचनाओं से अधिक काम लिया और जहाँ कहीं भी वह पहुँचे, वहाँ पर उन्होंने अपने सांप्रदायिक संगठनों के आधार पर ही अपना प्रभुत्व जमाना चाहा। इस प्रकार भिन्न-भिन्न देशों के अंतर्गत इनकी अपनी संस्थाएँ स्थापित हो गई और अनुकूल वातावरण के अनुसार सहयोग प्राप्त करती हुई वह आगे बढ़ने लगी। 12वीं शताब्दी के लगभग पूर्वार्ध से भारत में इस प्रकार की प्रवृत्ति विशेष रूप से देखी जाने लगती है। सूफ़ी मत इस्लाम धर्म का ही एक अंग है, इसलिए अपनी पृष्ठभूमि के लिए इसे अंततः मुस्लिम धर्म-ग्रंथों का ही आश्रय ग्रहण करना पड़ता है और उन्हीं के वातावरण में उत्पन्न संस्कार इनके स्वभाव को अनुप्राणित भी किया करते हैं। फिर भी भिन्न-भिन्न देशों और अनेक महापुरुषों के प्रभाव निरंतर पडते रहने के कारण इसमें कई बाह्य बातों का भी समावेश हो गया है और इसके मौलिक सिद्धांतों एवं साधना में बहुत कुछ मतभेद आ गया है। “भारत में सूफ़ी मत के प्रचार का प्रारंभ 12वीं शताब्दी के प्रथम चरण में यहाँ के प्रसिद्ध सूफ़ी अल हुज्विरी का आगमन हुआ तब से माना जाता है। वह अपनी लोकप्रियता के कारण ‘हजरत दातागंज’ के नाम से भी प्रसिद्ध थे और उनकी रचना ‘कुश्फुल महजूब’ एक प्रामाणिक सूफ़ी ग्रंथ मानी गई।”2 इस पुस्तक में उन्होंने सूफ़ी मत की अनेक बातों का स्पष्टीकरण करने के अतिरिक्त अपने समय तक प्रचलित विभिन्न सूफ़ी संप्रदायों का भी उल्लेख किया है और उनमें से सर्वप्रथम 12 सम्प्रदायों का वर्गीकरण कर उनकी विशेषताओं का परिचय भी दिया है। उनकी मृत्यु संवत 1128 के लगभग लाहौर नगर में हुई। जहाँ पर उनकी समाधि आज भी वर्तमान है। सूफ़ी संप्रदाय में से कादरी संप्रदाय, सहुरावर्दी संप्रदाय, नक्शबंदी तथा चिश्ती संप्रदाय का प्रचार भारत में अधिक हुआ। इन सब में चिश्ती संप्रदाय सबसे प्रसिद्ध है। इस संप्रदाय की सातवीं पीढ़ी में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी हुए थे जिन्होंने इस संप्रदाय द्वारा सूफ़ी मत का प्रचार सर्वप्रथम भारत में किया। उन्होंने कई प्रसिद्ध सूफ़ी पीरों के व्यक्तिगत संपर्क में रहकर अपने आध्यात्मिक ज्ञान में वृद्धि की। वे कई देशों से होकर घूमते-घूमते लाहौर में हजरत दातागंज की समाधि के निकट ठहरे और फिर संवत 1222 में अजमेर आकर रहने लगे। उनकी मृत्यु अजमेर में हुई थी जहाँ पर उनकी दरगाह बनी हुई है और जो ‘चिश्तियों का मक्का’ के नाम से प्रसिद्ध है।
सूफ़ी प्रेम कथाएँ किसी उद्देश्य के अनुसार लिखी गई है। प्रेम मार्गी सूफ़ी कवियों ने हिंदू-मुस्लिम दोनों में सांस्कृतिक एकता का स्तुत्य प्रयत्न किया और इन कवियों को इस कार्य में अपेक्षाकृत अधिक सफलता भी मिली। विद्वानों के एक वर्ग के मतानुसार दोनों जातियों में एकता के ध्येय का प्रचार का श्रेय सूफ़ी संप्रदाय को अधिक है। सूफ़ी मतवादी प्रकृति के मुलायम थे तथा मानव सुलभ संवेदना और उदारता से वंचित न थे। उन्हें अपने अव्यक्त अल्लाह तथा हिंदुओं के अकथ अगोचर ब्रह्म में कोई विशेष भेद न लगा। उनकी दृष्टि में मुसलमान और गैर मुसलमान में कोई पारमार्थिक भेद न था। वह सब धर्मों की आधारशिला मानवता को ही महत्त्व देते थें। सूफ़ी मत इस्लाम का एक संशोधित संस्करण है, जिसमें ह्रदय की विशालता तथा असीमता है। इन्होंने हिंदू-मुसलमान भाइयों-बहनों के भीतर तात्विक एकता की घोषणा करते हुए कहा है,
“विधिना के मारग है तेते, सगर, नखत, तन, रोवां जेते ।"3
निराकारवादी संतों ने भक्ति के सामान्य मार्ग की प्रतिष्ठा से हिंदू-मुस्लिम जातियों में धार्मिक एकता का श्रीगणेश कर दिया था, किंतु उन्हें अपने उद्देश्य में यथेष्ट सफलता न मिली, क्योंकि उनके स्वर में खंडनात्मक चुभने वाली कर्कशता थी, जिससे हिंदू-मुसलमान दोनों चिढ़ गए। किंतु मुलायम स्वभाव के सूफि़यों ने किसी संप्रदाय विशेष का खंडन नहीं किया। दोनों जातियों की एकता के उद्देश्य से इन्हें अपेक्षाकृत अधिक सफलता मिली क्योंकि इनकी पद्धति मनोवैज्ञानिक थी। सूफ़ी प्रेमाख्यानों में हमें मुसलमान और हिन्दू संस्कृतियों
का समन्वित रूप देखने को मिलता है। सूफ़ी
कवि संस्कारवश अपने आचार-विचार से अन्तरंग स्तर पर जुड़े हुए थे, किन्तु
भारतीय लौकिक प्रेमकथाओं ने उनका ध्यान आकर्षित किया। सूफ़ी
कवियों ने पूरी एकाग्रता और मनोयोग से अपनी रचनाओं के माध्यम से भारतीय जन जीवन के
स्पंदन को अभिव्यक्त किया है। सूफ़ी कवियों को अपने मत का प्रचार करना था और उसके द्वारा लोगों को अपनी ओर आकृष्ट भी करना था। इस कारण उन्होंने न केवल अपने लिए भरसक सरस और मनोहर कथानक चुने, अपितु उसके घटना निर्वाह आदि का विधान करते समय उसे अधिक से अधिक आकर्षक रूप में सजाने की चेष्टा की। वस्तुतः अनेक मुस्लिम कवियों ने अपने प्रेरणा स्रोत एवं काव्य प्रयोजन का निर्देश स्पष्ट रूप में किया है, जिससे यह सिद्ध होता है कि इनका प्रयोजन यश प्राप्ति, अपनी काव्य कला का प्रदर्शन, युवकों का मनोरंजन या जीवन की दुखपूर्ण घटनाओं को भुलाना ही था। जायसी ने पद्मावत
में लिखा है,
“औ मन जानि कबित अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महं चीन्हा।”4
इन कवियों ने रचनाओं की सृष्टि अवधी भाषा में की, जिससे पाठकों की अधिक से अधिक संख्या उन्हें पढ़कर समझ सके और उसका रहस्य सरलतापूर्वक ग्रहण कर सके। इसके सिवाय देश में हिंदुओं की संख्या अधिक पाई जाने के कारण कहानी के पात्रों को भी अधिकतर हिंदू ही रखा। हिंदू देवी-देवताओं का यथा-स्थल वर्णन कराया। उनके प्रति परिस्थिति के अनुसार श्रद्धा भी प्रदर्शित की और हिंदू संस्कृति का वातावरण भी रखा। युग के रीति-रिवाज तत्कालीन समाज की संस्कृति
के प्रतिक होते हैं। यही कारण है कि इनके प्रेम काव्य में लोकजीवन का भी चित्रण है; जैसे हिन्दुओं की परिवार-व्यवस्था, सामाजिकता, धर्म-दर्शन, सर्वसाधारण का अंधविश्वास, मनौतियाँ, यंत्र-तंत्र प्रयोग, जादू टोना, डायनों की करतूतें, विभिन्न लोकोत्सव, लोक-व्यवहार, तीर्थ, व्रत, सांस्कृतिक वातावरण इन्होंने अंकित किए हैं। सूफ़ी प्रेमाख्यानों में चित्रित समाज का स्वरूप चिर-प्रतिष्ठित भारतीय
सामाजिक धारणाओं के पूर्णत: अनुरूप है, जिसका मूलाधार वर्णव्यवस्था है। ‘चंदायन’
का सिरजन वर्ण से ब्राह्मण होते हुए भी व्यवसाय से वैश्य है, परंतु नायक लोरिक उसका ब्राहमण रूप में ही सम्मान करता है। सूफ़ी काव्य में
व्रत-पूजन संबंधी बातों का उल्लेख भी अनेक स्थानों पर मिलता है। हिंदू भाव तथा परंपराओं को यथावत चित्रित करने की चेष्टा द्वारा कथा वर्णन में स्वाभाविकता लाना भी सूफ़ी कवियों के लिए आवश्यक था। जायसी कृत पद्मावत के जन्मखंड में पद्मावती के जन्म
के अवसर पर छठी का आयोजन, पुरोहितों का आगमन, कन्या का नामकरण और जन्म कुंडली बनाने के लिए ज्योतिषों के आगमन आदि का स्पष्ट उल्लेख मिलता है,
सन 1370 ई. में असाईत द्वारा रचित ‘हंसावली’ को प्रथम सूफ़ी काव्य ग्रन्थ कहते हैं। इसमें प्राचीन राजस्थानी भाषा का उपयोग
किया गया था। इसका रचना स्रोत विक्रम- बैताल की कथा है। असाइत ने स्वयं इसका
उल्लेख हंसावली में किया है,
इस प्रेमाख्यान में अनेक कथाएँ गुंफित हैं, जिनमें से प्रमुख कथा का संबंध पाटण की राजकुमारी हंसावली से है। राजकुमारी अद्वितीय सुंदरी थी, किंतु पूर्वजन्म के किसी संस्कार वश उसने पखवाड़े में पाँच पुरुषों की हत्या का भी नियम ले रखा था। इसका नायक राजकुमार स्वप्न में राजकुमारी के दर्शन करके मुग्ध हो जाता है। उसके प्रेम में व्याकुल होकर योगी वेश में अपने मंत्री के साथ उसकी खोज में निकल पड़ता है, अपितु उस पाषाण हृदया को प्रत्येक पखवाड़े में पाँच पुरुषों की हत्या के नियम से विरक्त करने में भी सफल हो जाता है। प्रेमाख्यान परम्परा का दूसरा काव्य ‘चंदायन’ माना जाता है। इसकी रचना
मुल्ला दाउद द्वारा सन 1379 में हुई थी। यह भारतीय परंपरा का कथा काव्य है। इसमें
अवध के मध्यकालीन गाँव का संपूर्ण चित्र उपस्थित है। कथा के आरम्भ में ही गोवर की प्रकृति का वर्णन है। गोवर को कवि ने नगर कहना पसंद किया है। इस प्रेमकाव्य में नायक
लोर एवं नायिका चंदा का उन्मुक्त प्रणय है और प्रथम दर्शन में ही प्रेमोत्पत्ति। ‘चंदायन’
में प्रेम पद्धति का ढंग अनोखा और निराला है। स्वप्न- दर्शन, चित्र-दर्शन अथवा
तोता द्वारा रूप वर्णन से प्रेम का प्रारंभ नहीं होता है, न ही भोग-विलास रंगरेलियों
के रूप में प्रारंभ होता है। वह चंदा के आकुल ह्रदय की पुकार है। चंदा अपनी मनोदशा
को इस प्रकार से प्रकट करती है,
कथा में उनके प्रेम में
विभिन्न व्यक्तियों द्वारा बाधा उत्पन्न की जाना, नायक का योगी होकर घर से निकल
जाना, नायिका चंदा को नाग द्वारा डसा जाना, गारुड़ी द्वारा उसे ठीक करना आदि है। इसमें
यह दिखाया गया है कि जादू-टोना का भयंकर प्रभाव तत्कालीन समाज पर था। साँप काटने
पर मंत्र के प्रभाव पर लोंगों का भरोसा था,
दामो या दामोदर कवि
द्वारा रचित ‘लख़मसेन पद्मावती’ कथा की रचना सन 1459 में की गई। स्वयं कवि ने इसे
वीर कथा कहा है। किन्तु इसमें भी राजा लक्ष्मणसेन एवं राजकुमारी पद्मावती के प्रथम दर्शन जन्य
प्रेम का ही चित्रण है। नायक द्वारा योगी वेश में घर से निकलना और नायिका के पिता से संघर्ष कर उसे
प्राप्त करने की कथा का निरूपण पूर्व परंपरा के अनुसार ही हुआ है। काव्य में कवि का दृष्टिकोण सरस, विलास, कामरस भाव से प्रेरित दिखाई देता है। साम्प्रदायिकता, धार्मिकता या आध्यात्मिकता इस काव्य में दृष्टिगोचर नहीं होती। सन 1501 में ईश्वरदास सगुणोपासक द्वारा रचित ‘सत्यवती’ कथा राजकुमारी सत्यवती एवं राजकुमार ॠतुपर्ण के प्रथम दृष्टि-जन्य प्रेमप्रसंग है। प्रारंभ में राजकुमार को नायिका के शाप से कोढ़ी बन जाना पड़ता है, पर अंत में उसका नायिका से विवाह एवं शाप से मुक्ति हो जाती है। कवि पौराणिक भावना से प्रभावित होने के कारण इसमें सतीत्व के महत्त्व को दिग्दर्शित कराने की चेष्टा की गई है। इसी तरह कुतुबन कृत ‘मृगावती’ (1503) में नायक राजकुमार तथा नायिका मृगावती के प्रेम का निरूपण अत्यंत भावात्मक शैली में हुआ है।
मृगावती की प्राप्ति के लिए नायक योगी वेश में घर से निकल जाता है, तथा मार्ग में एक अन्य सुंदरी को किसी राक्षस के चंगुल से निकाल कर उससे विवाह करता हुआ अंत में मृगावती को पाने में सफल हो जाता है। कुतुबन कृत ‘मृगावती’ में दहेज़ प्रथा का उल्लेख है। राजकुमार और रुक्मिणी के
विवाह के अवसर पर रुक्मिणी के पिता ने अपनी पुत्री को दहेज़ के रूप में अपना आधा
राज्य दे दिया, जिससे उसकी पुत्री दस सहस्त्र वर्षों तक आनंद से रह सकें। कथा की परिणति अपभ्रंश के जैन काव्य की परंपरा के अनुसार शांत रस में होती है क्योंकि नायक की मृत्यु के अनंतर नायिकाओं का सती जाना दिखाया गया है। सन 1540 में जायसी कृत ‘पद्मावत’ में भी चित्तौड़ के राजा रत्नसेन एवं सिंहल की राजकुमारी पद्मावती के प्रेम विवाह एवं विवाहोत्तर जीवन का चित्रण मार्मिक रूप में किया गया है। भारतीय कथा काव्य की प्राय: सभी रुढियों एवं प्रवृत्तियों का नियोजन इसमें सफलतापूर्वक हुआ है। पद्मावती के सौंदर्य, नागमती के विरह, रत्नसेन के साहस, त्याग और शौर्य की व्यंजना इसमें अत्यंत प्रभावोत्पादक शैली में हुई है। जायसी नागमती के वियोग वर्णन को विशेष रूप से चित्रित करने में सफल
हुए हैं,
“कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई । रकत-आंसु
घुँघुची बन बोई ।।”9
नागमती विरह की आग में
तपकर अपने सारे गौरव–गर्व को भूल जाती है और अपनी सौत के पास पक्षी से भिजवाए
संदेशों में कहती है कि यद्यपि मैं रत्नसेन की ब्याहता हूँ। किन्तु मुझे भोग से
कोई वास्ता नहीं है, मैं तो उन्हें अपनी आँखों से देखना चाहती हूँ,
भारतीय संस्कृति में विवाह
एक ऐसा संस्कार है जिसे लोक और वेद दोनों की मान्यता प्राप्त है। सूफ़ी
प्रेमाख्यानों में समकालीन विवाह पद्धति तथा तत्संबंधी लोकरीतियों की पर्याप्त
जानकारी मिलती है। परम्परानुसार विवाह की पहली रस्म ‘वरच्छा’ मानी गयी है, जिसका
उल्लेख प्रेमाख्यानों में भी मिलता है। ‘चंदायन’ में महर ने सिन्दूर पुष्प तथा
मोतियों का हार देकर अपनी कन्या के लिए वर को रोक लिया था,
“सेंदुर फूल चढ़ाए अउ मोतिन्ह गै (गिय) हार ।
दीत चादा वावन कह तीरि लाउ करतार ।।”11
पद्मावत में सबसे पहले
पद्मावती का पिता वरच्छा करता है और रत्नसेन को टिका काढता है, तत्पश्चात विवाह के
अन्य कृत्य आरम्भ होते हैं। पद्मावत में गौना प्रथा का भी उल्लेख है, ‘रत्नसेन-पद्मावती-विवाह-खंड’
में गौना के लिए दिन देखने का सन्दर्भ है,
पद्मावत में दहेज़ प्रथा
का भी उल्लेख मिलता है। पद्मावती के पिता गंधर्वसेन ने विवाह के अवसर पर पुत्री
पद्मावती को हीरे-मोती आदि बहुत धन संपत्ति दहेज़ के रूप में दी। जायसी ने पद्मावत
में जहाँ भी अवसर मिला है, वहाँ लोक जीवन का सजीव चित्रण किया है। भारतीय दर्शन, ज्योतिष, कामशास्त्र, पाक- शास्त्र, बागवानी, शस्त्रविद्या आदि के परंपरागत ज्ञान का गुम्फन इसमें चेष्टा पूर्वक किया गया है, जिसमें कहीं-कहीं अनावश्यक विस्तार एवं अरुचिकर इतिवृत्त्तात्मकता भी आ गई है। भारतीय समाज में लडकी को पराया धन समझा जाता है। मायके में उसे जितनी स्वछंदता मिलती है, उतनी ससुराल में नहीं। ससुराल से
मायके आना भी ससुराल वालों की मर्जी पर निर्भर करता है। इस लोकमत और कटु यथार्थ को जायसी ने कितने सुंदर ढंग से चित्रित किया है,
इससे यह स्पष्ट होता है कि
जायसी के पद्मावत का रूप-विन्यास लोक कथात्मक है और उनकी कथा के आतंरिक सूत्र
लोकजीवन से जुड़े हुए हैं। अंत में पद्मावती भी जौहर करती है। प्रेमाख्यान रचयिताओं ने, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, भारतीय वातावरण एवं हिंदू समाज की मर्यादाओं के अनुरूप ही नायक-नायिका का चित्रण किया है। भारतीय समाज में पुरुष के लिए बहु विवाह की अनुमति थी, अतः इनके नायक भी प्राय: एक से अधिक विवाह करते हैं; ‘चंदायन’ का नायक लोरिक अपनी पत्नी मैना के होते हुए चाँद को भी प्राप्त करता
है। ‘पद्मावत’ में रत्नसेन पद्मावती को पाने के लिए नागमती से दूर जाता है। इसी
प्रकार मृगावती, मधुमालती, चित्रावती, इन्द्रावती के नायक भी बहुपत्नीत्व हैं। जबकि नायिकाएँ भारतीय परंपरा के अनुसार पातिव्रत्य का पालन करती हुई अंत में सती हो जाती है। नायिकाओं के लिए सबसे बड़ा आदर्श उनका सतीत्व ही है, ऐसा इन कवियों ने मान लिया और लोक के सामने यही आदर्श रखा। मृगावती, पद्मावत,
इन्द्रावती में नायक की मृत्यु के पश्चात उनकी नायिकाओं में सती होने का आनंद
दिखाया गया है। रत्नसेन की मृत्यु हो जाने पर उसकी दोनों रानियाँ प्रसन्नतापूर्वक शृंगार
करके गाजे बजे के साथ सती होने जाती हैं। जैसा कि निम्न पंक्तियों में द्रष्टव्य
है,
प्रेमकाव्य में यह दूसरी बात है कि नायक को आकर्षित करने में नायिकाओं के रूप सौंदर्य का ही योग अधिक रहता है। कुछ नायिकाएँ अपनी नृत्य कला, संगीत कला के बल पर भी नायक के ह्रदय पर अधिकार प्राप्त करती है। पात्रों की दूसरी श्रेणी में मानवेतर प्राणी आते हैं, जैसे नायिका के संरक्षक के रूप में असुर या राक्षस। नायक के सहयोगी के रूप में कोई बेताल, हंस, तोता आदि। नायक को सोते हुए उठा ले जाने वाली अप्सराएँ, परियाँ आदि। उसका कारण एक यह भी हो सकता है कि इन कवियों ने अपनी रचनाओं को बहुत कुछ उन आदेशों के अनुसार ढालने का प्रयत्न किया है, जो उनकी शामी परंपरा के फलस्वरूप अलिफ लैला आदि में भरे पड़े हैं। परियों, अजगर, दानवों तथा अलौकिक पुरुषों की भरमार उनकी सभी कथाओं में रहा करती है और कभी-कभी उनमें ऐसी अस्वाभाविक घटनाएँ भी घट जाती है, जिन्हें कोरी कल्पना के बल पर ही हम स्वीकार कर सकते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि जिस काव्य का नायक हिंदू है, जो नाथपंथी वेश में घर से निकलता है, तथा जो शिव पार्वती की सहायता से अपने लक्ष्य में सफल होता है। वह सूफ़ी मत का संदेश किस प्रकार विज्ञापित कर पाता है। यदि पद्मावतकार जायसी के दृष्टिकोण में कहीं भी सांप्रदायिकता या मत प्रचार की भावना होती तो वह अपने ही धर्म भ्राता अलाउद्दीन को शैतान का प्रतिनिधि नहीं बनाता। वस्तुतः जायसी ने अपना प्रयोजन स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखा है,
“प्रेम कथा एहि भांति विचारहु । बूझि लेउ जौ बूझै पारहु ।"16
मंझन कृत ‘मधुमालती’ (1545) में नायक- नायिका के प्रथम दर्शनजन्य प्रेम के साथ-साथ पूर्वजन्म के प्रणय संस्कारों की भी महत्ता दिखाई गई है। आख्यान में नायक के योगी हो कर घर से निकलने, किसी अन्य राजकुमारी को राक्षस से बचाने, माँ के शाप के कारण नायिका के पक्षी हो जाने आदि का निर्वाह मिलता है। इसमें कुछ सामाजिक मूल्य भी देखने को मिलते है, बड़ों के पाँव छूना हमारे
भारतीय समाज एवं संस्कृति का प्रमुख सामाजिक मूल्य है। मंझन ने मधुमालती में इस प्रथा का वर्णन किया है। जब कुँवर का विवाह मधुमालती से और ताराचंद का विवाह प्रेमा से होता है, तब
विवाह के बाद दोनों राजकुमार अपने ससुर के पाँव छूते है और आशीर्वाद प्राप्त करते
हैं,
“फुनि दुवौ निरिप जहाँ
हुत खर । दुवौ कुंवर गे पयिन्ह पर ।।”17
मंझन ने ‘मधुमालती’ में
विवाहपूर्व के शारीरिक संबंध को पाप कहा है। ‘मधुमालती’ प्रेम काव्य में कुँवर एक स्थान पर मधुमालती को विश्वास दिलाते हुए
कहता है कि– हे प्रिया! सुनो, मैंने यह शपथ ली है कि– जब तक हमारा धर्म विवाह नहीं
हो जाता तब तक हमारे बीच पाप संचरण नहीं हो सकता, अर्थात तब तक मैं तुम्हारे रूप
रस का पान नहीं कर सकता,
प्रेमाख्यान रचनाओं के प्रमुख पात्र एक विशेष प्रकार की स्थिति में जन्म लेते हैं। एक विशेष ढंग से प्रेम में फँस कर आतुर हो जाते हैं और एक विशेष प्रकार की ही विरह यातना भोगते हैं। विविध कष्टों को झेलते हुए एक विशेष ढंग से ही उनका पारस्परिक मिलन होता है। उनके जीवन की सभी बातें परंपरागत सी लगती है और नवीन प्रकार के भावों के लिए कभी अवसर ही नहीं आता। प्रेमियों तथा प्रेमिकाओं के प्रेमभाव का अतिशयता की कोटि में पहुँचकर, पारस्परिक मिलन के अभाव में विरह दशा में परिणित हो जाना और उनका अपने दैनिक जीवन के प्रत्येक क्षण में घुल-घुल कर मरा करना, इन रचनाओं का प्रधान विषय है। सूफ़ी प्रेमाख्यानों के नायक अपने प्रेम-सपनों की पूर्ति के लिए अनेक बाधाओं, विपत्तियों एवं संकटों का सामना करते हुए आगे बढ़ते हैं; जिससे उनके प्रणय में अधिकाधिक गाम्भीर्य, औदार्य एवं औदात्य का संचार होता है। यह कहा जा सकता है कि इन कथानकों के नायकों की प्रणय भावना साहस, संघर्ष, शौर्य, आत्महत्या आदि से युक्त होकर एक ऐसा रूप प्राप्त कर लेती है, जिसमें वासना, स्वार्थ एवं अहंकार का लोप हो जाता है। रत्नसेन-पद्मावती के आत्मत्याग पूर्ण प्रेम में राधा-कृष्ण के सम्भोग व्यापार की अपेक्षा अधिक स्वच्छता, सूक्ष्मता, पवित्रता एवं उज्ज्वलता दृष्टिगोचर होती है। इनके काव्य में सामान्यत: प्रेम का अत्यंत उज्ज्वल एवं उदात्त स्वरूप उपलब्ध होता है, जिसे रसराज शृंगार का सर्वोत्कृष्ट रूप भी कहा जा सकता है। इस परंपरा के कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रणय के गंभीर रूप का चित्रण करने के साथ-साथ उनमें परंपरागत ज्ञान विज्ञान को भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया। जिसके कारण उनमें प्रसंगानुसार भारतीय दर्शन, पुराण, ज्योतिष, शकुन-शास्त्र, काम-शास्त्र, वैद्यक, संगीत-शास्त्र, युद्ध-कला, पाक-शास्त्र, नीति-शास्त्र आदि के विभिन्न तत्त्वों का विवरण विस्तार से उपलब्ध होता है। कई बार तो इन्होंने विभिन्न प्रकार के पकवानों, पुष्पों, घोड़ों, शस्त्रात्रों की लंबी सूचियाँ प्रस्तुत की हैं जो पाठकों की ज्ञान पिपासा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
निष्कर्ष : पूर्व-परंपरा के निर्वाह एवं युगीन वातावरण के चित्रण की दृष्टि से सूफ़ी प्रेमाख्यानों का महत्त्व निर्विवाद है। साथ ही शुद्ध काव्यत्व की दृष्टि से भी यह परंपरा कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। रसराज शृंगार के तीन प्रमुख पक्षों-सौंदर्य, प्रणय एवं विरह का चित्रण इन कथाओं में अतिशय रोमांचक रूप में हुआ है। इन आख्यानों के नायक अपने सपनों की पूर्ति के लिए प्राय: अपने प्राणों को भी समर्पित करने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। निश्चय ही उनकी गाथा पाठकों को कामोद्रेक एवं भोगलालसा से ऊपर उठा कर सौंदर्य, शौर्य एवं औदात्य की उच्च भूमि की ओर अग्रसर करती है। इन प्रेमाख्यानों को स्वच्छंद प्रेम की स्वच्छ, गंभीर, भव्य एवं उदात्त व्यंजना के रूप में ग्रहण करते हुए मध्यकालीन हिंदी काव्य में अत्यंत उच्च स्थान प्रदान किया गया है, जो सर्वथा उचित है। अपनी प्रेम कहानियों द्वारा इन कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए सामान्य जीवन की उन दशाओं को सामने रखा जिनका मनुष्य-मात्र के ह्रदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में दोनों हृदयों को आमने-सामने रखकर अजनबीपन मिटानेवालों में उन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। उन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानी को हिंदुओं की बोली में सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शी अवस्थाओं के साथ अपने उदार ह्रदय का सामंजस्य दिखा दिया। सबके प्रति सहिष्णुता, सब में समन्वयता और सब में संग्राहक बुद्धि का उदय इस युग की विशेषता थी और यह सभी तत्त्व इन प्रेमाख्यान कवियों में पूर्णत: स्पष्ट हुए हैं। इसीलिए यह कवि जनजीवन के अधिक निकट पहुँचे थे।
सन्दर्भ :
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