शोध सार : आज परिवर्तन का वैश्विक युग चल रहा है। इस दौर में जहाँ हम विकास की तमाम उपलब्धियों के कीर्तिमान स्थापित कर रहें हैं, वहीं हम अपनी लोक विरासत, परंपराओं एवं मान्यताओं से दूर भी जा रहे हैं। ऐसे में अपनी लोक संस्कृति और उसकी मूल भावना को बचाने का नैतिक दायित्व देश की भावी पीढ़ी का है। कजरी इसी प्रकार का एक लोकगायन है जो आज अपनी मौलिकता से, अपनी मिठास से कोसों दूर जा रहा है। इस लोकगीत को संरक्षित करने के साथ ही इसकी मौलिक पहचान को अक्षुण्ण रखने का प्रयास भी हमें करना चाहिए। पूर्वी उत्तरप्रदेश में गाई जाने वाली कजरी केवल एक गीत नहीं है बल्कि यह हमारे त्योहारों और परंपराओं में समाहित है। कजरी से रतजग्गा और हरियाली तीज जैसे स्थानीय पर्व के साथ ही सावन महीने की मिठास भी जुड़ी हुई है। कजरी का इतिहास और वैभव एक समय में इतना था कि बनारस की तवायफ़ हुस्ना बाई अपने प्रेमी के गिरमिटिया मज़दूर बनकर प्रवास के लिए मिर्ज़ापुर से जाने पर एक कजरी गाती हैं जो बड़ा मशहूर होता है। इस कजरी के बोल कुछ इस प्रकार हैं कि "मिर्ज़ापुरी कईल गुलज़ार हो, कचौड़ी गली सुन कइल बलमु, ओहि मिर्ज़ापुर से उड़ेले जहजिया हो, सईंया चली गइल रंगून हो, कचौड़ी गली सुन कईल बलमु"।
बीज शब्द : कजरी, लोकगीत, संस्कृति, इतिहास, प्रासंगिकता, अखाड़े, पहलवान, परंपरा, परिवर्तन और प्रकृति।
मूल आलेख : पूर्वी अचंल में लोक गायन की विधा कजरी की अपनी अलग ही पहचान है। एक कहावत अपने समय में मशहूर हुई 'लीला रामनगर कै भारी, कजरी मिर्ज़ापुर सरनाम' यह कहावत मिर्ज़ापुर की कजरी की लोक अभिव्यंजना है। लोकगीतों की उत्पत्ति कैसे हुई? इस विषय पर आज इतिहासकार और समाज वैज्ञानिक केवल अनुमान का सहारा लेते हैं। लोकगीतों की स्थानीय लोकप्रियता, उसकी जीवंत परंपरा ही इस बात का प्रमाण है कि कोई भी ख़ास लोकगीत जिस क्षेत्र विशेष में गाया जाता है, उसका अपना कोई न कोई पृथक ऐतिहासिक महत्त्व होता है और वह लोकगायन उस क्षेत्र से गहरे रूप से जुड़ा होता है। सावन की बात हो और कजरी छूट जाए तो समझिए सावन महीने का मर्म छूट गया। बड़े बुजुर्ग महीनों के बारे में कहते थे कि बसंत की कोमलता, चैत्र की उदण्डता, बैशाख का बावलापन और जेठ की जवानी, आषाढ़ की आँधी और सावन का उफान बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है। सावन एक ऐसा महीना है जहाँ प्रकृति की तरह मनुष्य भी एकदम हरा होता है। सावन की बूँदें जब मानव हृदय की प्रेम और करुणा से टकराती हैं, तब कजरी की अभिव्यंजना प्रकट होती है। वही कजरी जिसमें चंचलता, करुणा, ज़िरह, रोस और प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। एक कहावत और है कि 'ठुमरी पायल से, दादरा घायल से, सोहर नाउन से, गारी पाहुन से, चैता चेतरन से, फगुआ थेथरन से, पचरा माई से और कजरी शहनाई से ही निखरता है।' बिना शहनाई की कजरी का मतलब बिना सुर की तान ही होता है। जिस प्रकार शहनाई की विकासयात्रा पूर्वी उत्तरप्रदेश से जुड़ी है वैसे ही कजरी की उत्पत्ति भी यहीं हुई।
मिर्ज़ापुरी कजरी का उद्भव- 'कजरी' या 'कजली' के उद्भव व विकास में विंध्य भूमि मिर्ज़ापुर का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उत्तरप्रदेश के ज़िले मिर्ज़ापुर में विंध्यवासिनी देवी का तीर्थ धाम पड़ता है। पहले विंध्यवासिनी देवी को कज्वला देवी के नाम से भी जाना जाता था। समय के साथ कज्वला देवी ही विंध्यवासिनी के रूप में प्रसिद्ध हुई। मिर्ज़ापुर के साहित्यकार अर्जुनदास केशरी कजरी शब्द की उत्पत्ति 'कज्वला' से ही मानते हैं।[i] पहले देवी पचरा की तरह ही देवी कजरी भी गाया जाता था। आज भी मिर्ज़ापुर क्षेत्र के लोकगायक कजरी की प्रथम स्वरांजलि माँ विंध्यवासिनी को ही समर्पित करते हैं। कुछ विद्वान कजरी या कजली को काजल से जोड़कर देखते हैं, काजल जो काला होता है, वैसे ही जैसे सावन की घटा काली होती है। 1963 में भोजपुरी फ़िल्म बिदेशिया के एक गाने में भी बादल का उल्लेख 'कजली बदरिया' से किया गया है। भारतेंदु हरिश्चंद्र भी अपनी कजरी गीतों में कजली बादल का उल्लेख करते हैं। मिर्ज़ापुर की एक प्राचीन नागवंशी राजघराने कंतित की राजकुमारी का नाम भी 'कजली' था। अतः कुछ विद्वान कजरी की उत्पत्ति को वहीं से जोड़कर देखते हैं।[ii] वहीं चुनार के लोक बिरहा गायक डॉ. मन्नू यादव अपनी पुस्तक 'कजरी मीमांसा' में इस विधा के उद्भव को मिर्ज़ापुर से जोड़कर देखते हैं। मिर्ज़ापुर के प्रसिद्ध साहित्यकार बद्रीनारायण प्रेमधन कजरी की उत्पत्ति को तो मिर्ज़ापुर से मानते ही हैं, इसके साथ ही इसकी परंपरा को भी मिर्ज़ापुर से जोड़कर देखते हैं।[iii]
मिर्ज़ापुर में कजरी का विकास- मिर्ज़ापुर की कजरी गायन और उसके विस्तार में अपने समय की तवायफों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। मिर्ज़ापुर की मशहूर तवायफ़ चाँदबाई ने अपने प्रेमी नाहर की याद में कजरी के हजारों छंद लिखे। उनकी कजरी का एक संकलन 'बरसाती चाँद' नामक पुस्तक भी है।[iv] यह पुस्तक अब विलुप्तप्राय है लेकिन इसका उल्लेख कहीं न कहीं मिल
ही जाता है। बात अंग्रेजों के दौर की है जब उत्तर भारत से विदेश जाने वाले गिरमिटिया मज़दूरों का एक केंद्र मिर्ज़ापुर हुआ करता था।[v] यहाँ से गंगा मार्ग से होकर मज़दूर कलकत्ता और फिर विदेशों को जाते थे। बरसाती चाँद में चाँद बाई लिखती हैं 'सबहि के नैया जाले बनारस के घटिया, नाहर नैया जालै परदेश हो रामा'। बनारस की प्रसिद्ध तवायफ़ और ठुमरी गायिका गौहरजान की एक कजरी बड़ा प्रसिद्ध है कि 'मिर्ज़ापुर कईल गुलजार हो कचौड़ी गली सुन कईल बलमु', ओहि मिर्ज़ापुर से उड़ेले जहजिया हो, सईंया चली गइल रंगून हो, कचौड़ी गली सुन कईल बलमु! यहीं से यह गायन देश के बाहर विदेशों में भी गया। फिजी, वियतनाम, मॉरीशस आदि देशों में आज भी यह परंपरा जीवंत है।[vi]
चित्र.2. मिर्ज़ापुर के प्रसिद्ध साहित्यकार एवं कजरी लेखक बाबू बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ |
मिर्ज़ापुर में कजरी की परंपरा- कजरी की इस ऐतिहासिक परंपरा पर बद्रीनारायण प्रेमधन लिखते हैं कि अंग्रेजों के प्रारम्भिक दौर में मिर्ज़ापुर में कजरी का मेला लगता था, तमाम देश-विदेश से रईस, राजे-रजवाड़े, स्वयं काशी नरेश और उनके मित्र राजा यहाँ आते थे।[vii] लेकिन समय के साथ राजाओं की ज़मींदारियाँ जैसे-जैसे नीलाम हुईं, कजरी भी वैसे-वैसे बदनाम हो गया। यह वही दौर था जब रहिसियत का जुड़ाव कोठों से था और कजरी की पहचान उनके पायलों से! तवायफ़ों ने उप-शास्त्रीय गायन की विधा दादरा-ठुमरी और झूला-ठप्पा की तरह ही कजरी गायन की लोकविद्या को आगे बढ़ाने का काम किया। 1880 हरिश्चंद्र चंद्रिका, खण्ड-2, ‘वर्षा विनोद’ में लिखित गीत कुछ इस प्रकार है :-
लावनी, गजल मलार, खेमटा, सोरठा, राग मलार परज, ध्रुवपद मलार, सावनी, बारहमासा, सारंग असावरी, राग बिलावल कान्हरा , सारंग खंडिता, हिंडोला और रायसा ईमन कुछ प्रमुख सावन महीने के लोकगीत हैं।[viii]
कजली के मेले- कजरहिया- नागपंचमी के अपराह्न मिर्ज़ापुर के कजरहिया तालाब पर गाती बजाती जाती हैं और वहाँ से मिट्टी लाती हैं रास्ते में सामूहिक रूप से ढुंनमुनिया (गोलदार घेराव में) गाते हुए अपने गाँव चली आती हैं। उस मिट्टी में जई बोती हैं और फिर प्रतिदिन जई को सींचती हैं, वहीं पर घेराव करके ढुंनमुनिया कजरी गाती हैं, खेलती हैं।[ix] भाद्र कृष्ण द्वितीया को रात भर जिसे रतजग्गा भी कहते हैं विशेष आयोजन होता है जिसमें कुँआरी व सुहागन औरतें सामूहिक रूप से ढुंनमुनिया कजरी खेलती हैं। अगले दिन भाद्र कृष्ण तृतीया को भोर में फिर जई लेकर कजरहिया पोखरे पर जाती हैं, जई को सेरवाती हैं, मतलब पोखर में बहा देती हैं। इस दिन को कजली तीज या हरियाली तीज भी कहते हैं। यह त्योहार माँ पार्वती को समर्पित है। विशेष रूप से औरतें अपने पति की लंबी आयु के लिए और कुँआरी कन्या योग्य पति को पाने के लिए यह व्रत रखती हैं।[x]
रात का मेला- बद्री नारायण प्रेमधन ‘आंनद कादम्बिनी’ में लिखते हैं कि मिर्ज़ापुर में कजरी का विकास कैसे होता है! कजरी की शुरुआत को वो प्राचीन समय से ही मानते हुए उसकी लोकप्रियता व विकास की कथा बताते हैं। प्रेमधन जी कहते हैं कि कजरी की परंपरा धीरे-धीरे जब नाचने वाले समूहों के द्वारा नगर के मालदार बनियों के घर पर आयोजन किया जाने लगा तब इसकी लोकप्रियता बढ़ती है।[xi] धीरे-धीरे, छोटे-छोटे आयोजन वार्षिक रूप से होने लगते हैं तब यह मेलों का रूप ले लेता है। बद्रीनारायण 'प्रेमधन' अपने लेख 'कजरी कौतूहल' में लिखते हैं कि मिर्ज़ापुर में एक चिरकुट पाण्डेय नामक भारी रुई के दलाल व रंगीन मिज़ाज अमीर रईस रहते थे। उन्हीं के द्वारा पहली बार कजरी गायन व नृत्य का आयोजन किया गया। यह बाद में काफ़ी मशहूर हुआ और प्रत्येक दिनांक 11 श्रावण मास शुक्ल से दिनांक भाद्र कृष्ण द्वितीया तारीख़ तक 10 बजे से यह मेला होने लगा। इसका विस्तार सुन्दर घाट से लेकर नारघाट तक फैलता चला गया।[xii] मिर्ज़ापुर में इतने व्यापारी थे कि सौ-सौ, दो-दो सौ ऐसे ही इन नाच-गानों में लुटाते थे। यह मेला इतना प्रसिद्ध हुआ कि देश विदेश से लोग यहाँ मिर्ज़ापुर में आकर मेले का आनन्द लेने लगे। काशीराज भी रात के मेले में रतजग्गे पर पधारने लगे। सैकड़ों वेश्याएं रात को कजरी के मेले में भाग लेती थीं। लेखक प्रेमधन जी कहते हैं कि समय के साथ जब मिर्ज़ापुर का व्यापारिक पतन होने लगता है तब यह परंपरा भी शिथिल पड़ जाती है।
जलसे- रात्रि के मेले के पतन के साथ ही व्यक्तिगत जलसों के आयोजन की शुरुआत होती है। लेखक जिक्र करते हैं कि ऐसे आयोजनों में कई बार वो खुद शामिल थे। यह निज जलसे शहर के ख़ास अमीरों के घर पर आयोजित होते थे जिसमें शहर की मशहूर तवायफ़, रईस सम्मानित लोग शामिल होते थे।[xiii]
महंत जी का मेला- मिर्ज़ापुर के एक रईस व सबसे प्रतिष्ठित अमीर श्रीमान महंत जयराम गिरि द्वारा श्रावणी पूर्णिमा के दिन शाम में उनके पुराने शिवाला वाले बाग में हुजूम का मेला लगता था। सैकड़ों वेश्याओं का जमावड़ा यहाँ देखने को मिलता है। यहाँ चार जगह नाच होते थे,पहला गिरि जी के दीवानखाने में जो दूसरे मंजिल पर था।यहाँ महंत जी प्रतिष्ठित जनों के साथ ऊपर बैठ कर मशहूर वेश्याओं का नृत्य-गायन देखते थे।[xiv] वहीं उसके नीचे मुख्य महाजन लोगों व उनके मित्रों के बीच नाच-गायन करते थे। तीसरे श्रेणी में काम करने वाली शामियाने में लोक गायन करती थीं। चौथे व पाँचवें क्रम में चबूतरे पर गायन होता था जिसमें आमजन के साथ कुछ छोटे व्यापारी भी शामिल होते थे।
मिर्ज़ापुरी कजरी के अखाड़े- संगीत के विभिन्न घरानों की तरह ही कजरी के भी कई अखाड़े हुआ करते थे। अखाड़ों में गुरु के सानिध्य में शागिर्दों की काफ़ी संख्या होती थी। क्षेत्रीय मेलों और त्योहारों पर शहर और गाँव के मंचों पर इन अखाड़ों के बीच मुकाबला होता था। हर अखाड़े की अपनी कुछ अलग तालीम होता था। इन्हीं तालिमों से अखाड़े की अपनी पहचान होती थी। उसकी लोकप्रियता होती थी। कजरी गाने वाले उस्तादों को पहलवान कहा जाता था। मिर्ज़ापुर के कुछ प्रसिद्ध अखाड़े प्रमुख हैं, कवि शिवदास का अखाड़ा, कवि छविराम का अखाड़ा और कवि बफ़त मियां का अखाड़ा।[xv]
कजरी की वर्तमान स्थिति- कजरी की लोक गायन परंपरा के पतन में समय का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पहले लोकगीत मनोरंजन का एकमात्र साधन हुआ करता था। आज लोकगीत बस एक साधन रह गया है। कजरी अखाड़ों का भी समय के साथ पतन हो गया आज अखाड़ों की बानी गाने वाले नहीं रहे। मिर्ज़ापुर के लोक बिरहा गायक मन्नू यादव कहते हैं कि "'इसका प्रमुख कारण सरकारी संरक्षण का अभाव रहा है।" लेकिन मिर्ज़ापुर की कजरी गायन की परंपरा के पतन का मुख्य कारण आधुनिकता व मनोरंजन में अश्लीलता भरे लोकसंगीतों का दौर मुख्य कारण है। आज अश्लील गानों को मिलियन दर्शक देख रहें है वहीं लोकगीतों को सुनने वालों की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है। आमजन रतजग्गा और हरियाली तीज के महत्त्व को भूल रहा है। लोग आधुनिकता के दौड़ में अपनी लोक विरासत से दूर जा रहे हैं। ऐसे में मिर्ज़ापुर लोक कजरी गायक रोजन अली का कहना ठीक ही है कि "साल में ठीक से दो आयोजनों का बयाना नहीं मिलता तो हम अपनी अगली पीढ़ी को कजरी की तालीम भला क्यों दें! बढ़ती बेरोज़गारी और महँगाई के दौर में आज किसी भी लोकविद्या की सेवा कर जीवकोपार्जन करना संभव नहीं है।" फिर भी इन तमाम परिवर्तन के साथ भी कजरी अपनी पहचान बनाए हुए है। मिर्ज़ापुर में कजरी का गायन आज भी होता है। सरकार अब लोकगायन कजरी को प्रोत्साहन देने के लिए 'मिर्ज़ापुर महोत्सव' का आयोजन करती है। जिला प्रशासन के सहयोग से इस सात दिवसीय आयोजन में देशभर के नामी कलाकार शिरकत तो करते ही हैं, साथ ही अपनी माटी की पहचान लोक कजरी गायन का आयोजन भी किया जाता है। जिसमें लोक कलाकारों को सरकार की तरह से सम्मान राशि के साथ ही पुरस्कृत भी किया जाता है। इसी प्रकार के अन्य निजी संस्थानों के द्वारा भी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करके जनपद के लोक गायकों को सम्मानित किया जाता है।
चित्र.3. मिर्जापुर की लोक कजरी गायिका पद्मश्री अजिता श्रीवास्तव |
निष्कर्ष : भोजपुरी में एक कहावत है कि ''सारा जग जीत गइली रीत हो घरहीं में हार होई गईनी, दिववा के चारी ओर अंजोरिया पेनिये अन्हार होई गइली" अर्थात दुनियाँ में नाम कमाकर भी अगर अपनी मूल भाषा, संस्कृति एवं परंपरा को अगर आप भूल रहे हैं तो समझिए यह आपकी सबसे बड़ी हानि है। पेनी ही आपका मूल है। जो मूल है वह हमारी अस्मिता है, वही हमारी पहचान है। इसे भुलाकर बहुत आगे हम बढ़ सकते हैं पर वापस आने का कोई रास्ता नहीं है। जो देश अपनी मौलिकता खो देता है, उसका अस्तित्व सदैव खतरे में रहता है। लोकगीत कजरी की अभिव्यंजना मिर्ज़ापुर से गहरे रुप से जुड़ी हुई है। कजरी के कई रुप हैं जौनपुरिया कजरी, बनारसी कजरी इत्यादि। लेकिन मिर्जापुर की कजरी ‘ढुनमुनियाँ’ कजरी है। ढुनमुनियाँ एक प्रकार का सामूहिक खेल लोक गायन है, जिसमें महिलाएँ एक साथ आगे की ओर फिर वैसे ही पीछे की ओर जाती हैं। यही मिर्ज़ापुर के कजरी की पहचान है। ज़्यादातर मिर्ज़ापुर की कजरी के बोल में टेकी.. ‘हरे रामा’….‘रे हरि’….‘ना’…इत्यादि ही प्रमुख हैं। इस प्रकार की लोक संस्कृति और परंपरा को आधुनिकता के परिवेश में ढालते हुए इसे एक नया कलेवर देने का प्रयास करना चाहिए। अपनी भावी पीढ़ी को अगर हम आधुनिक तकनीक एवं संसाधन से जोड़ सकते हैं तो उसी माध्यम से हम अपनी पीढ़ी को संस्कृति से भी जोड़ सकते हैं। कजरी के संदर्भ में हम कह सकते हैं कि मुल ही मौलिकता है अत: हमें उसे संजोना चाहिए।
[ii] . वही, पृष्ठ.23.
[iii] . यादव,मन्नू.(2021). कजरी मीमांसा:लोक संस्कृति और परंपरा. हिंदी बुक सेंटर, नई दिल्ली.पृष्ठ.42.
[iv] . जैन, शास्त्री. (2014). कजरी, विश्वविद्यालय प्रकाशन.वाराणसी.पृष्ठ.6-9.
[v] . कुमार,प्रमोद, कुमार,आदित्य.(2012).लोकगीत कजरी. जे.पी ग्राम विकास संस्थान, मथुरा.पृष्ठ.21.
[vi] . जैन, शान्ति. (2017). लोकगीतों की प्रकृति.प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली.पृष्ठ. 101.
[vii] . विनीत,विजय. (2020). बनारस लॉकडाउन.पेन अल्टीमेट, कलकत्ता.पृष्ठ.110.
[viii] . बी.ए, ब्रजरत्नदास.(2010).भारतेंदु ग्रंथावली, भाग तीन. नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी.पृष्ठ.487.
[ix] . उपाध्याय, चौधरी बद्रीनारायण.(2007). प्रेमधन सर्वस्व, द्वितीय भाग.हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग.पृष्ठ.330.
[x] . उपाध्याय, कृष्णदेव.(1978). अवधी लोकगीत.भारतीय लोक संस्कृति शोध संस्थान, वाराणसी. पृष्ठ.89.
[xi] . वही.प्रेमधन,पृष्ठ.485.
[xii] . उपाध्याय, कृष्णदेव. (2009).लोक संस्कृति की रूपरेखा. लोक भारती प्रकाशन, नई दिल्ली.पृष्ठ.221.
[xiii] . वार्ष्णेय, श्रीमती मधु.(1997).लोकगीत संग्रह.संजय बुक सेंटर,वाराणसी. पृष्ठ.126-168.
[xiv] . शांडिल्य, राजेश्वरी.(2008). भारतीय पर्व एवं त्यौहार. प्रभात प्रकाशन,नई दिल्ली.पृष्ठ.74.
[xv] . कुलश्रेष्ठ, आशा.(2010).लोकगीत भरतपुर अंचल. आशा कुलश्रेष्ठ स्मृति संस्थान, जयपुर.पृष्ठ.80.
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