शोध सार : आदिवासी साहित्य से तात्पर्य आदिवासी दर्शन (आदिवासियत) पर आधारित साहित्य से है। वैसे तो आदिवासियत का मूल स्रोत पुरखा साहित्य है और इसे मौखिक साहित्य भी कहा जा सकता है। आदिवासी चिन्तक मौखिक और लिखित साहित्य के भेद को नहीं मानते तथा इसे ही पुरखा साहित्य अथवा ‘ऑरेचर’ कहना पसंद करते हैं। समकालीन कथा साहित्य लेखन में हाशिये के समाजों को जगह मिली और विभिन्न आधुनिक विमर्शों का जन्म हुआ जिसमें आदिवासी विमर्श का प्रमुख स्थान है। आदिवासी कथा साहित्य आदिवासी समाज के जीवन-संघर्ष की अभिव्यक्ति है। आदिवासी समाज सदियों से सामुदायिकता, सहजीविता, समानता तथा स्वतंत्रता की पद्धति पर जीवन यापन करता आया है, यही जीवन उनके साहित्य के केंद्र में है। इन्हें ही आदिवासियत का मूल तत्त्व कहा जा सकता है।
बीज शब्द : आदिवासियत, आदिवासी साहित्य, जीवन-मूल्य, जीवन-संघर्ष, अस्तित्व, अस्मिता, सामुदायिकता, संस्कृति, संस्कृतिकरण, वैश्वीकरण, पूंजीवाद, विस्थापन, प्रकृति, पर्यावरण, रचाव-बचाव, पुरखा साहित्य।
मूल आलेख : आदिवासी कथा साहित्य में विस्थापन की समस्या कहानी और उपन्यास दोनों विधाओं में देखने को मिलती है। समकालीन कथा साहित्य के साहित्यकारों ने विभिन्न विषयों एवं मुद्दों पर अपनी लेखनी चलायी है। आज उन विषयों पर भी लेखन कार्य किये जा रहे हैं जिन विषयों को सदियों से नज़रअंदाज किया गया था। मुख्यधारा के समाज और साहित्य में दलित, स्त्री और आदिवासी प्रश्न हाशिये पर रहा है, किन्तु आज इन सभी विषयों पर साहित्य रचा जा रहा है। आदिवासी समाज की अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपने जीवन-मूल्य और अपने जीवन संघर्ष रहे हैं, जिनका आदिवासी कथा साहित्य में यथार्थ चित्रण देखने को मिलता है। आदिवासी कथा साहित्य में कथा या गल्प की मात्रा न के बराबर होती है। उनमें आदिवासी समाज की विभिन्न परिस्थितियों का सजीव चित्रण मिलता है। आदिवासी कथाकारों में रोज केरकेट्टा, वाल्टर भेंगरा तरुण, पीटर पॉल एक्का, हरिराम मीणा, मंगल सिंह मुंडा, रणेंद्र, संजीव, राकेश कुमार सिंह, मधु कांकरिया, श्रीप्रकाश मिश्र, तेजिंदर, पुन्नी सिंह आदि का नाम लिया जा सकता है।
विस्थापन आदिवासियों के लिये किसी अभिशाप से कम नहीं है। भारत सरकार के द्वारा जारी रिपोर्ट ‘रिपोर्ट ऑफ़ द हाई लेवल कमेटी ऑन सोशियो इकॉनोमिक, हेल्थ एंड एजुकेशन स्टेटस ऑफ ट्राइबल कम्युनिटी’ 2014 के अनुसार भूमि अधिग्रहण और विस्थापन के सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी (47 प्रतिशत) हुए हैं। विस्थापन की समस्या इस अर्थ में भी सबसे भयावह है कि इससे उनके अस्तिव और अस्मिता पर सीधा खतरा उत्पन्न हो जाता है। उनकी आदिवासियत पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है क्योंकि विस्थापन अस्मिता या सांस्कृतिक पहचान को ही संकट में डाल देता है। संस्कृति खतरे में इस अर्थ में आती है कि जब आदिवासी दूसरी जगह विस्थापित होकर जाते हैं तो मुख्यधारा की संस्कृति और भाषा के साथ समन्वय करने की कोशिश व संघर्ष के क्रम में उनकी अपनी भाषा तथा रहन-सहन, सबकुछ प्रभावित होना शुरू हो जाता है। इसके कई कारण हैं जिसमें मुख्यधारा के समाज द्वारा आदिवासी संस्कृति व भाषा को हीनता की दृष्टि से देखना भी शामिल है। इस सन्दर्भ में शम्भुनाथ का कहना है कि “उत्तर-आधुनिक बुद्धिजीवी ‘उच्च संस्कृति’ और ‘निम्न संस्कृति’ का नव- औपनिवेशिक मुहावरा उठा कर बिना सोचे- समझे लोक संस्कृति को ‘निम्न संस्कृति’ में फेंक देते हैं- इसे सामाजिक नरक के समान समझते हैं।”1
हालाँकि मुख्यधारा के समाज द्वारा आदिवासियों की संस्कृति को औपनिवेशिक या नव-औपनिवेशिक दोनों ही दौर में निम्न समझा गया। औपनिवेशिक काल के दस्तावेज हमें यह बताते हैं कि आदिवासियों को उस काल में असभ्य, जंगली और बर्बर समझा जाता था।
चूँकि विस्थापन आदिवासियों के अस्तित्व और अस्मिता के संघर्ष का सबसे बड़ा कारण है, इसलिए विस्थापन की त्रासदी को आदिवासी कथा साहित्य में प्रमुखता से जगह दी गयी है। विस्थापन और उसके बाद मुआवजे की स्थिति के बारे में ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ में कथन है- “भले ही मुआवजा देकर कंपनी ने कुछ लोगों का भला किया हो पर इसके कारण हमारा वातावरण तो प्रदूषित होता ही रहेगा न! हमारी आने वाली पीढियां तो बीमार होती ही रहेंगी न! हमारी विकलांगता, हमारी असामयिक मौत देख वैसे भी हमारे पुरखों की आत्मा रो रही है। कंपनी चाहे कितना भी मुआवजा क्यों न दे दे, बीमारों के इलाज की व्यवस्था कर दे मगर हमारे स्वास्थ्य, हमारी स्वच्छ हवा को, जो हम गरीबों की एकमात्र पूंजी थी, तो वापस नहीं ला सकती है न! जब इन तमाम मुसीबतों की जड़ ये खदानें, ये मीलें हैं तो क्यों न इन्हें ही बंद करने की हम मांग करें।“2 दरअसल इस उपन्यास के द्वारा उपन्यासकार ने मरंग गोड़ा (जादूगोड़ा) में यूरेनियम खनन और रेडियोधर्मिता के दुष्प्रभाव के कारण विस्थापित और पीढ़ियों तक उसके दुष्प्रभाव झेलते आदिवासियों के संघर्ष का विशद चित्रण किया है। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’, ‘पार’, ‘डूब’ आदि उपन्यास विस्थापन की समस्या पर आधारित हैं। पीटर पॉल एक्का की ‘परती जमीन’, ‘छोटी नदी बड़ी नदी’ आदि कहानियों में भी विस्थापन का दर्द झलकता है।
भूमंडलीकरण के आगमन के पश्चात् आर्थिक विकास की अंधी दौड़ ने मशीनों पर आधारित जीवन-शैली को जन्म दिया जिसके कारण प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हो रहा है। आज जिस तेजी से पर्यावरण और पारिस्थितिकी-तंत्र की क्षति हो रही है उसमें संतुलन की आवश्यकता है। पर्यावरण संतुलन के बिना जीवनचक्र समाप्त हो जाएगा इस बात को आदिवासी समुदायों से बेहतर शायद ही कोई समझता है। यही कारण है कि आदिवासी समाज प्रकृति में मौजूद प्रत्येक तत्व का सम्मान करता है और उसने अपने जीवन मूल्य भी उसी के अनुरूप बनाये हैं। मसलन आदिवासी जंगलों में या जंगलों के आस-पास रहते आये हैं। उनका जीवन वनोपज, कंदमूल और शिकार आदि पर निर्भर रहा है किन्तु आदिवासी वनों से उतना ही लेते हैं जितने में उनका जीवन सुलभता से चलता रहे। वे वन-संरक्षण को अपना कर्तव्य मानते हैं ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए एक बेहतर दुनिया छोड़ कर जाएँ। यही कारण है कि देश भर में आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों में ही जंगल और वन्य जीव बचे रह गये हैं| आदिवासी समाज की तरह आदिवासी कथा साहित्य में भी रचाव-बचाव की संस्कृति को प्रमुखता से देखा जा सकता है। ‘मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ’ उपन्यास में विकिरण-प्रदूषण तथा विस्थापन जैसी समस्या को केंद्र में रखा गया है। उपन्यासकार महुआ माजी ने विकिरण के दुष्प्रभाव से होने वाली खतरनाक बिमारियों की ओर हमारा ध्यान दिलाया है। “सगेन टोकता, मगर कोई इस मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेता। या फिर लेता भी तो देशद्रोही का आरोपी बनने से कतराता। तो क्या अब तक जान बूझकर विकिरण के मुद्दे को दबाये रखा गया? सगेन सोचता है, ऐसा कैसे हो सकता है कि किसी नेता को, किसी अफसर को, या इलाके के किसी उच्च शिक्षित व्यक्ति को विकिरण और उसके दुष्प्रभाव के बारे में पता ही न हो? यह कैसा षड्यंत्र है? आखिर क्यों यहाँ के अशिक्षित, अल्पशिक्षित आदिवासियों को इतनी बड़ी और भयानक सच्चाई से अब तक अनजान रखा गया? क्यों उन्हें सावधान नहीं किया गया? क्यों नहीं बताया गया कि टेलिंग डैम के ऊपर से नंगे पांव चलना या बच्चों का वहां खेलना स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त घातक है? क्यों खुदाई के दौरान निकलने वाले ऐसे पत्थरों को जिनमें कम मात्रा में यूरेनियम होता है, सड़क किनारे यूँही फेंक दिया जाता है? अज्ञानतावश कितने ही लोग उन्हें उठा कर ले जाते हैं और घर की दीवार, छत या चहारदीवारी बनाने के काम लाते हैं। उनसे लगातार निकलने वाली गामा किरणों, रैडोन गैस के शिकार होते रहते हैं बेचारे... . क्यों खदान या मिल में काम करने वाले मजदूरों को यूरेनियम की धूल लगे कपड़ों को पहन कर घर जाने से मना नहीं किया गया? यह क्यों नहीं बताया गया कि इससे घर भर के लोग विकिरण से प्रभावित हो सकते हैं? खास करके वह पत्नी, जो इसे नंगे हाथों से धोती है? क्यों नहीं बताया गया कि खदान से विस्फोट करके निकाले गये यूरेनियम अयस्क वाले पत्थरों से धुल-धुल कर आते बरसाती जल के कारण उनके कुओं, तालाबों और नदी के पानी में, उनकी मिटटी में, उनके खेतों की फसल में जहर घुल चुका है? क्यों खनन कार्य के लिए, मिल या टेलिंग डैम के लिए उनकी जमीन लेते वक़्त उन्हें यह नहीं बताया गया कि उनसे न सिर्फ उनकी जमीन ली जा रही है या उनका जंगल लिया जा रहा है बल्कि उनका स्वास्थ्य, उनका खुशहाल जीवन भी छीना जा रहा है। स्वयं सगेन ने अपने प्रिय ततंग और जियंग को खोया है इस जहर के कारण। भाई और पिता इस लाइलाज बीमारी से ग्रस्त हैं। बेचारी ताई डाइन होने का लांछन लेकर अपमानजनक जीवन जी रही है। सगेन जितना सोचता, उतना ही तिलमिलाने लगता। सोचता- पिताजी को यूरेनियम से होने वाले कुप्रभाव के बारे में कुछ भी पता नहीं था, उन्होंने मजदूरों की छोटी- छोटी समस्याओं के लिए आवाज़ उठाई। आज जब हमें इतनी बड़ी त्रासदी के बारे में पता चल गया है तो हम चुप कैसे रह सकते हैं? अगली पीढ़ी को बचाने के लिए हमें लड़ना ही होगा।”3
आदिवासी कथाकार वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ के साहित्य में प्रकृति अपने नैसर्गिक रूप में मौजूद है। उनकी कहानी ‘जंगल की ललकार’ में चानो और पांडू गाँव के रैयती जमीन में पेड़ लगा रहे हैं। एक तरह से वे अपने लिए अलग जंगल का निर्माण कर रहे हैं जिस पर कोई सरकार भी अपना हक न जता पाए। कहानी का पात्र पांडू का कथन है- “हम अपना जंगल लगा रहे हैं आबा! यह गाँव का जंगल होगा। इसे सरकार भी नहीं ले सकती है यह हमारी रैयती खूंटकटी जमीन है। अब हमें तुम्हारे समान जेल जाना नहीं पड़ेगा। हम अपने पेड़ों की लकड़ियाँ काटेंगे। कोई सिपाही मंगरी और चानो को पकड़ कर नहीं ले जाएगा।”4
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि आदिवासी स्वस्थ प्रकृति और स्वस्थ जीवन के लिए हमेशा से संघर्षरत रहे हैं। वे अपने आस पास के पर्यावरण और समूचे सृष्टि जगत के संरक्षण के लिए तत्पर रहते हैं।
वैश्वीकरण अर्थात जिसमें विभिन्न देश अपनी राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टियाँ निर्बाध रूप से अदान-प्रदान कर पाते हैं। कहा गया कि भूमंडलीकरण अथवा वैश्वीकरण से व्यापार, शिक्षा, रोजगार और विभिन्न देशों के आपसी सम्बन्धों में मजबूती आयेगी, जिसमें पूरा विश्व एक गाँव बन जाएगा जो सबकी पहुँच में होगा। सबके लिए समान अवसर होंगे। वैश्वीकरण का प्रचार ‘वैश्विक कुटुंब’ के रूप में किया जा रहा और कई गंभीर खामियों के बावजूद भूमंडलीकरण विश्व के लिए अनिवार्य बनता जा रहा है। सबके लिए समान अवसर तो बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वैश्वीकरण का प्रभाव प्रत्येक समाज पर अलग है। वस्तुस्थिति ये है कि आदिवासी समाज के लिए यही भूमंडलीकरण वरदान से ज्यादा अभिशाप साबित हो रहा है। औद्योगीकरण, रेलवे, बाँध निर्माण आदि के लिए आदिवासियों की जमीन ली गयी। “आज कुछ लोग यह कहकर पिछड़े इलाकों में आदिवासी किसानों की जमीन हड़पने की बात कहते हैं ताकि क्षेत्र में औद्योगिकीकरण को और विकास व रोजगार का आधार तैयार हो। नंदीग्राम में टाटा कार-प्लांट के लिए किसानों की जमीन भी यही कहकर छीनने की गलती वहां के खुद को वामपंथी मानने वाली सरकार ने की थी। उसका खामियाजा भी हाल के चुनाव में उठाना पड़ गया। जो लोग इस तर्क के झांसे में आते हैं, उन्हें झारखण्ड की वास्तविकता से अवगत कराना चाहिए जहाँ बड़े पैमाने पर निजी व सार्वजानिक परियोजनाएं लायी गयी पर उनका लाभ वहां के स्थानीय लोगों तक नहीं पंहुचा।”5 अर्थात वैश्वीकरण और तथाकथित विकास परियोजनाओं से आदिवासी समाज में विस्थापन जैसी समस्या बढ़ गयी। विस्थापन ने आदिवासी समाज के अस्तित्व और अस्मिता पर खतरा उत्पन्न कर दिया। अब आदिवासी समाज अपने अस्मिता व अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्षरत है। यह निर्विवाद है कि वैश्वीकरण और विस्थापन का चोली-दामन का साथ है। चूँकि साहित्य और समाज एक दूसरे से अभिन्न होते हैं खासकर अस्मितावादी साहित्य। अतः आदिवासी कथा साहित्य के मूल स्वर के रूप में भूमंडलीकरण के दुष्प्रभाव का प्रमुखता से चित्रण मिलता है। ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ आदिवासी समाज (असुर जनजाति) पर भूमंडलीकरण के दुष्प्रभाव पर लिखा गया एक सशक्त उपन्यास है। इस उपन्यास में कथाकार रणेंद्र ने वैश्वीकरण के आगमन और आदिवासी समुदायों के लिए उसके निहितार्थ का बेजोड़ चित्रण किया है, “हम दोनों इस बात से सहमत थे कि ग्लोबल गाँव के आकाशचारी देवता और राष्ट्र-राज्य, दोनों एक दूसरे में घुल-मिल गये हैं। दोनों को अलगाना अब मुश्किल है। रंगमंच की कठपुतलियों की डोर किनके हाथों में है यह बात छुपी नहीं रही। सामान्य तौर पर इन आकाशचारी देवताओं को जब अपने आकाश मार्ग से या सेटेलाइट की आँखों से छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, झारखण्ड आदि राज्यों की खनिज सम्पदा, जंगल और अन्य संसाधन दिखते हैं तो उन्हें लगता है कि अरे, इनपर तो हमारा हक है। उन्हें मालूम है कि राष्ट्र-राज्य तो वे ही हैं, तो हक तो उनका ही हुआ। सो इन खनिजों पर, जंगलों में, घूमते हुए लंगोट पहने असुर-बिरजिया, उरांव-मुंडा आदिवासी, दलित-सदान दिखते हैं तो उन्हें बहुत कोफ़्त होती है। वे इन कीड़ों-मकोड़ों से जल्द निजात पाना चाहते हैं। तब इन इलाकों में झाड़ू लगाने का काम शुरू होता है।”6
पीटर पॉल एक्का रचित उपन्यास ‘पलाश के फूल’ में भी विकास परियोजनाओं के फलस्वरूप होने वाले विस्थापन के दर्द को देखा जा सकता है- “बेहिसाब खदान, कोलियारी खुलेगी। नदियों में पुल बनेंगे। बिजली तैयार होगी, नहरें खुलेंगी! वर्षों की मेहनत से बनी-बनाई जमीन डूब जाएगी। मुआवजे के नाम पर दिखावे की रकम मिलेगी। घर-बार छोड़ना होगा। घर के आदमी विस्थापित कर दिए जाएँगे। दूर के इलाके से आए लोगों का राज हो जाएगा। स्थानीय आदिवासी चाय बागानों, ईंट-भट्ठों की राह लेंगे।”7
‘गायब होता देश’ – रणेंद्र, ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’- श्री प्रकाश मिश्र इत्यादि रचनाओं में आदिवासी समाज पर वैश्वीकरण के प्रभाव को प्रमुखता से अभिव्यक्त किया गया है।
आदिवासी समाज हमेशा से उत्सवधर्मी समाज रहा है| आदिवासियत और उत्सवधर्मिता दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं| आदिवासी अपने जीवन संघर्ष के बीच जीवन को जीना नहीं भूलते| कथाकार संजीव आदिवासियों के उत्सवप्रियता पर अपने उपन्यास ‘पांव तले की दूब’ में लिखते हैं- “आदिवासी लोगों की दो कमजोर नसें हैं- अरण्यमुखी संस्कृति और उत्सवधर्मिता| अरण्यमुखी संस्कृति उन्हें सभ्यता के विकास से जुड़ने नहीं देती और उत्सवधर्मिता उन्हें कंगाल बनाती रहती है| हँड़िया या दारू ये पियेंगे ही और हर उत्सव को मस्त होकर मनाएंगे|”8 उत्सवधर्मिता आदिवासी समुदायों के जीवन मूल्य में है अतः आदिवासी कथा साहित्य में इसका भरपूर चित्रण देखने को मिलता है| लगभग सभी आदिवासी कथाकारों ने अपने साहित्य में आदिवासियों के पर्व त्योहारों एवं उनके उत्सवप्रेमी प्रकृति को प्रमुखता से जगह दी है|
आदिवासी समाज का वास्तविक इतिहास क्या है या था इससे ज्यादा हमारा जोर इस बात पर है कि लम्बे समय तक इतिहास लेखन परंपरा में आदिवासी समाज एक सिरे से गायब कैसे और क्यों है? आदिवासी हमेशा से अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्षरत रहे हैं। आर्यों के आगमन से ही आदिवासियों को विभिन्न प्रकार के संघर्ष का सामना करना पड़ा। आर्यों से बचने के लिए आदिवासी जंगलों और घाटियों में अंदर पीछे हटते गये। आदिवासियों ने अपने खिलाफ हो रहे अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध समय समय पर अनेक विद्रोह व आन्दोलन किये हैं किन्तु उनका इतिहास में नामों निशान नहीं मिलता। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के बाद पहाड़िया विद्रोह (1766), तिलका मांझी का विद्रोह (1784), चुआड़ विद्रोह (1769), तमाड़ विद्रोह (1819-20), कोल विद्रोह (1831-32), भील विद्रोह (1881), गोविन्द गिरी:भील आन्दोलन (1913) आदि आन्दोलनों का इतिहास में कहीं जिक्र तक नहीं मिलता। बिरसा आन्दोलन और हूल विद्रोह का छिट-फुट जिक्र मिल जाता है किन्तु आन्दोलन की व्यापकता की तुलना में इतना काफी नहीं है। इन आन्दोलनों को पहले ब्रिटिशों द्वारा और अब अपने ही देश के इतिहास लेखन में बहुत ही चालाकी से साइडलाइन कर दिया गया। अतः कथा साहित्य में आदिवासियों के इस (इतिहास लेखन परम्परा में नजरअंदाज करने के) दर्द की अभिव्यक्ति हुई है। हिंदी साहित्य में ‘हूल विद्रोह’ को केंद्र में रखकर दो उपन्यास लिखे गये हैं- एक राकेश कुमार सिंह द्वारा ‘जो इतिहास में नहीं हैं’(2005)
और दूसरा मधुकर द्वारा ‘बाजत अनहद ढोल’
(2005)। ‘जो इतिहास में नहीं हैं’ उपन्यास में ‘हूल विद्रोह’ के कारणों का प्रमुखता से पड़ताल करते हुए विद्रोह के अंजाम का विशद चित्रण मिलता है। ‘हूल विद्रोह’ की वजहों में प्रमुख रूप से जमींदारों और महाजनों की लूट और अत्याचार के साथ आदिवासी स्त्रियों का शोषण-बलात्कार, पुलिस-प्रशासन की अनदेखी आदि थी। एक और बड़ी वजह थी संथालों की स्वाभिमानी जीवन शैली। ‘हूल’ का नारा ही था-‘अबुआ दिसोम, अबुआ राज’। “उपन्यासकार राकेश कुमार सिंह ने महाजनों की लूट, जमींदारों के अत्याचार, पुलिस-प्रशासन द्वारा शिकायतों की उपेक्षा व उसके गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार को ‘हूल’ की वजहों में स्वीकार किया है। ऐतिहासिक ग्रंथों व दूसरे दस्तावेजों के अध्ययन से भी इन वजहों का पता चलता है।”9 उन दिनों आदिवासी महिलाओं के साथ इस तरह की ज्यादतियां आम हो गयी थी। पुलिस, वन-अधिकारी, ठेकेदार- जमींदार आदि दिकु इन भोले-भाले आदिवासी महिलाओं पर अपना हक मानते थे जिनका यथार्थपूर्ण और मार्मिक ढंग से इस उपन्यास में अभिव्यक्ति मिला है। केदार प्रसाद मीणा ‘हूल क्रांति’ पर लिखी दोनों किताबों ‘जो इतिहास में नहीं हैं’ और ‘बाजत अनहद ढोल’ की समीक्षा करते हुए लिखते हैं- “मधुकर सिंह ने अपने उपन्यास ‘बाजत अनहद ढोल’ संथाल आदिवासी समाज की जानकारियाँ लगभग गलत रूप में प्रस्तुत की हैं। उन्होंने संथाल हूल के ऐतिहासिक तथ्यों व सन्दर्भों की भी उपेक्षा की है। उपन्यासकार ने ‘हूल’ के घटनाक्रमों का मनमाना वर्णन किया है। इससे पाठकों के बीच ‘हूल’ के बारे में या तो कोई समझ ही नहीं बनती है या फिर गलत समझ बनती है।”10
वहीं ‘जो इतिहास में नहीं हैं’ उपन्यास के बारे में उनका (केदार प्रसाद मीणा) निष्कर्ष है कि “राकेश कुमार सिंह का उपन्यास ‘जो इतिहास में नहीं है’ अपने कुछ अंतर्विरोधों के बावजूद हिंदी में आदिवासी विद्रोहों पर लिखा गया एक श्रेष्ठ उपन्यास है। उपन्यासकार ने ‘हूल’ का लगभग वैसा ही वर्णन किया है, जैसा वह इतिहास ग्रंथों में है। लेखक को आदिवासी समाज की भी ठीक ठाक जानकारी है, इसलिए उनके समाज व भौगोलिक परिस्थितियों के बारे में किया गया काफी संवेदनशील व सर्जनात्मक बन पड़ा है। जमींदारों के अत्याचार व महाजनों की लूट के प्रसंग सजीव दृश्य बन जाते हैं। उपन्यास में तथ्यात्मक गड़बड़ियाँ एकाध ही हैं।”11
‘धूणी तपे तीर’- हरिराम मीणा द्वारा राजस्थान के बाँसवाड़ा जिले के मानगढ़ में हुए आदिवासियों के जनसंहार को आधार बना कर लिखा गया उपन्यास है। इसकी भूमिका में उपन्यासकार ने अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए लिखा है- “स्पष्ट है कि मनुष्य के हक की लड़ाई के इतिहास को मनुष्य-विरोधी शोषक-शासकों ने दबाया है और उनके आश्रय में पलने वाले इतिहासकारों ने उनका साथ दिया है।”12
‘ग्लोबल गाँव के देवता’ उपन्यास में भी असुर जनजाति का इतिहास झलकता है। डॉ. आशीष त्रिपाठी अपने लेख ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ का राजनैतिक परिप्रेक्ष्य’ में लिखते हैं- “इक्कीसवीं सदी के युवा रचनाकार रणेंद्र आदिवासी शोषण और संघर्ष की पूरी ऐतिहासिक श्रृंखला को सामने रखते हैं। कोई उपन्यास या कहानी आदिवासियों के जीवन के विषाद या दुःख-दर्द को बयाँ करने से आगे 3000 वर्षों से भी ज्यादा समय से चले आ रहे संघर्ष को आज के संघर्ष से जोड़ कर देखती है, तब एक सम्पूर्ण आदिवासी इतिहास दृष्टि उसके भीतर से झलकती है। रणेंद्र के पास यह उन्नत इतिहास-बोध है, जो ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ को आदिवासी चिंताओं का मुकम्मल उपन्यास बनाता है। इस इतिहास-बोध के कारण ही लालचन असुर के चाचा का कटा हुआ सिर देखकर अमेरिकी आदिवासी राजा मैटकोम का कटा हुआ सर कल्पना में उभरता है।”13 श्री प्रकाश मिश्र द्वारा रचित उपन्यास ‘जहाँ बाँस फूलते हैं’ पूर्वोतर भारत मिजोरम की ‘मिजो’ जनजाति के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन का दस्तावेज है। मिजोरम में 1958 ई. में अकाल पड़ा था। भारत सरकार ने उस अकाल में भूख से बिलखते आदिवासियों को नज़रअंदाज किया। जिसके फलस्वरूप वहां की जनता ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह का नेतृत्व वहां के ही एक युवक लालडेन्गा ने किया। मिजो नेशनल आर्मी और फ़ौज के मध्य हुए मुठभेड़ का विशद चित्रण इस उपन्यास में मिलता है। इस विद्रोह के दौरान पहले से ही अकाल से पीड़ित मिजोरम की जनता को अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। लड़ाई सालो-साल चलते जा रही थी और आम-जन जीवन त्रस्त था- “तीन वर्षों से ये लोग वाई से लड़ रहे हैं। पर अपना देश आज़ाद नहीं हुआ। हम जैसे जीते थे, उससे बदतर होते चले गये। आखिर कब वह आजाद होगा?... और फिर यह आजादी क्या है? अपना वतन क्या है?”14
इसके अलावा मधु कांकरिया ने पश्चिम बंगाल में 1967 ई. हुए ‘नक्सलबाड़ी आन्दोलन’ को केंद्र में रखकर ‘खुले गगन के लाल सितारे’ नामक उपन्यास की रचना की। इस प्रकार आदिवासी कथाकारों में आदिवासी समाज और उनके इतिहास के प्रति एक जिम्मेदाराना भाव मिलता है। उन्होंने कथा साहित्य के द्वारा आदिवासियों के इतिहास को मुख्यधारा के नोटिस में लाने का महत्वपूर्ण काम किया है। अपने इतिहास-बोध के परिणामस्वरूप ही आदिवासी चिन्तक और आदिवासी साहित्यकार पुरखा साहित्य की भी बात करते हैं।
मुख्यधारा के समाज की तुलना में आदिवासी समाज में स्त्री पुरुष सम्बन्धों में असमानता कम है| आदिवासी स्त्रियाँ अपने समाज में उतनी असुरक्षित महसूस नहीं करतीं जितनी की बाहरी समाज के सामने। बाहरी समाज के संपर्क में आते ही आदिवासी स्त्रियों की स्वतंत्र व स्वछन्द प्रवृत्ति उनके लिए मुसीबत बन जाती है क्योंकि बाहरी समाज में आदिवासी स्त्रियों को देह से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाता है तथा उनके भोलेपन और स्वछन्द प्रवृत्ति का हरसंभव फ़ायदा उठाने की कोशिश की जाती है। अश्विनी कुमार पंकज द्वारा रचित ‘गाड़ी लोहरदगा मेल’ आदिवासी समाज के बाहरी दुनिया के संपर्क में आने के बाद की संघर्ष की कहानी कहती है। इस कहानी की आदिवासी नायिका सुसाना अपने गाँव से सब्जी बेचने रांची आई थी। रात हो जाने पर आराम करने के लिए स्टेशन पर ही सो जाती है किन्तु यहाँ रातभर रुकने के लिए भी गार्ड या पुलिस वालों को रिश्वत देना पड़ता है। और जैसा कि एक स्त्री के साथ रिश्वत के रूप में रूपये पैसे से होती हुई बात देह तक आ पहुँचती है सुसाना के साथ भी ऐसा ही होता है। मना करने पर बात जबरदस्ती तक आ पहुँचती है। पुलिसवाले की जबरदस्ती से छुटकारा पाने के लिए सुसाना संघर्ष करती है और किसी तरह अपनी आवाज़ दूसरों तक पहुंचा देती है। सुसाना तो बच जाती है किन्तु सुसाना जैसी कितनी लड़कियों और महिलाओं के साथ इस तरह की दुर्घटना घटित होती है इसका अनुमान लगाया जा सकता है। सुसाना तो पहली बार सब्जी बेचने आई थी उसके पहले उसकी माँ सब्जी बेचने ट्रेन रांची आतीं रहीं हैं और उनके जैसे कितनी और आदिवासी महिलाओं को इन कुत्सित मानसिकता का शिकार होना पड़ता है ये कहानी के इन पंक्तियों में देखा जा सकता है- “...कानून तो कानून है। बूझी की नइ.... सभी औरतों को हियां देना ही पड़ता है। जोर-जबरजस्ती में कोउनो मज़ा थोड़े आता है ....”15
‘जो इतिहास में नहीं हैं’ उपन्यास 1855 की ‘हूल’ विद्रोह पर आधारित है। इसके रचयिता राकेश कुमार सिंह है। इस उपन्यास में गैर-आदिवासियों अथवा दिकुओं के संपर्क में आने बाद आदिवासी स्त्रियों की दयनीय व मार्मिक स्थिति स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है- “आदिवासी किशोरियों-युवतियों को प्रायः अपने तम्बू में खींच ले जाते थे। अकेली आदिवासिनें मद्यप ठेकेदार और वर्षों से स्त्री सुख को तरसते रेल अधिकारियों की वासना पूर्ति हेतु उठा ली जातीं थीं। राजमहल क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति टुक-टुक ताकती रहने वाली उस बकरी की भांति थी जिसकी आँखों के सामने से उसके छौने उठा ले जाता है कसाई। रिरियाती-गिड़गिड़ाती आदिवासी स्त्रियों को खींचते देख माथे पर हाथ रखे मूक ताकते रहते थे निर्बल वनवासी। प्रायः घायल स्तनों, खरोचों से भरे चेहरों और रक्त के थक्कों से लिथड़े योनिकेशों के साथ तम्बुओं के बाहर फेंक दी जाती थीं।”16 हालाँकि उपन्यास में आदिवासी समाज का इस स्थिति पर असहाय, मूकपन और इससे निकलने के लिए संघर्ष रहित आदिवासी स्त्री एक विवादास्पद मामला है क्योंकि आदिवासी स्त्रियाँ मूलतः जुझारू होती हैं। पीटर पॉल एक्का ने भी ‘मौनघाटी’ उपन्यास में बाहरी दिकुओं द्वारा आदिवासी स्त्री- पुरुषों के शोषण को केंद्र बिंदु बनाया है। उन्होंने भी दिखाया है कि किस तरह फोरेस्टर, अस्पताल कर्मचारी आदि आदिवासियों का शोषण करते हैं और आदिवासी स्त्रियों को भोग की वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं समझते हैं।
वरिष्ठ आदिवासी लेखिका रोज केरकेट्टा की कहानी संग्रह ‘पगहा जोरी जोरी रे घाटो’ है। भंवर, केराबांझी, कोंपलों को रहने दो, घाना लोहार आदि कहानियों में स्त्री चेतना और स्त्री अधिकारों की कहानियां हैं। ‘भंवर’ कहानी में एक ऐसी आदिवासी विधवा की कहानी है जिनको कानूनन अधिकार मिलने के बावजूद आदिवासी समाज में व्याप्त सामाजिक कमियों के कारण वह अपने अधिकारों से वंचित रह जाती है। इस कहानी संग्रह में लेखिका झारखण्ड के ग्रामीण समाज को पृष्ठभूमि में रखकर वहां के सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन का यथार्थ चित्रण करती हैं। इसके अलावा वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ द्वारा रचित कहानियाँ ‘अपना अपना युद्ध’, देने का सुख’, ‘जंगल की ललकार’ तथा उपन्यास ‘लौटते हुए’ में आदिवासी स्त्री जीवन की विभिन्न विडम्बनाओं का चित्रण मिलता है।
आदिवासी दर्शन की अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों में सामुदायिकता, समानता,स्वतंत्रता आदि हैं। साथ ही साथ आदिवासी समाज की अपनी अलग जीवन-संस्कृति, गीत-संगीत, श्रम का महत्व आदि जीवन-मूल्यों को आदिवासी कथाकारों ने अपनी रचनाओं में प्रमुखता से जगह दी है। खासकर पीटर पॉल एक्का और वाल्टर भेंगरा ‘तरुण’ के सम्पूर्ण कथा साहित्य में इन जीवन मूल्यों का सहज-सरल अभिव्यक्ति देखा जा सकता है। आदिवासी कविता की तरह ही रामदयाल मुंडा जी की कहानियों में भी आदिवासी जीवन-मूल्य व आदिवासी दर्शन को सहज व मौलिक रूप में देखा जा सकता है। गंगा सहाय मीणा जी उनकी कहानियों के बारे में लिखते हैं- “उनकी चिंता आदिवासियत को बचाने की है, जिनको बाहर से ही नहीं, भीतर से भी खतरा उपस्थित हो गया है। अपनी कहानी ‘खरगोशों का कष्ट’ में उन्होंने बहुत ही दिलचस्प ढंग से इस बात को रखा है कि जिन दिकुओं से आदिवासियों को खतरा है, उनकी संगत में जाकर एक आदिवासी भी उनकी भाषा बोलने लगता है। जिस तरह माजिद मजीदी आदि ईरानी फिल्मकार बच्चों पर केन्द्रित फिल्मों के माध्यम से भी समाज के अंतर्विरोधों को बहुत मार्मिक ढंग से उकेरते हैं, वैसे ही रामदयाल मुंडा ने खरगोशों और सिंहों की कथा के माध्यम से आदिवासी और दिकुओं की कहानी कही है।”17 ‘खरगोशों का कष्ट’ कहानी प्रतीकात्मक है। इस कहानी के द्वारा लेखक ने आदिवासियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार को सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया है।
निष्कर्ष : आदिवासी कथा साहित्य अब काफी समृद्ध हो चुका है। इसमें आदिवासी एवं गैर आदिवासी साहित्यकारों ने आदिवासी समाज और संस्कृति के विभिन्न पक्षों का सजीव चित्रण किया है। आदिवासी कथा साहित्य में आदिवासी समाज के विभिन्न समस्याओं जैसे- विस्थापन की समस्या, अस्तित्व और अस्मिता की समस्या, भाषा- संस्कृति पर खतरा, नक्सलवाद की समस्या, भूमंडलीकरण और पूंजीकरण से उत्त्पन्न समस्या, संस्कृतिकरण आदि का संवेदनात्मक एवं यथार्थपरक अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। आदिवासियों के जीवन संघर्ष के इन तत्वों में भी उनके जीवन-दर्शन को हम बखूबी देख सकते हैं। रचाव-बचाव, सहजीविता, समानता, प्रकृति प्रेम, आदिवासियों की उत्सवधर्मिता आदि आदिवासी जीवन-दर्शन के मूल तत्वों का आदिवासी कथा साहित्य में सुन्दर समाहार मिलता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आदिवासी समाज की तरह आदिवासी कथा साहित्य में भी आदिवासियत का अद्भुत सामंजस्य है।
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