हिंदी कविता के वर्तमान को आप किस तरह देखते हैं?
पहली बात तो यह कि कविता की दुनिया में सिर्फ वर्तमान ही नहीं होता वहाँ अतीत भी होता है और भविष्य भी । बड़ी और महान कविता त्रिमुखी और त्रिकालदर्शी होती है। उसमें एक साथ वर्तमान, अतीत और भविष्य समाहित होता है । कविता में अगर वर्तमान न होता तो फिर वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति , माघ, गोरखनाथ ,तुलसीदास ,कबीर, सूर ,रहीम, मीरा आदि को आज क्यों पढ़ते ? हर कवि की एक अक्षर देह होती है जो शरीर के जाने के बावजूद आने वाले हर समय में वर्तमान होती है। उत्तर भारत के आम घरों में आज भी वाचिक तौर पर तुलसी , कबीर बाचे जाते हैं उनको बाँचने के लिए आम मनुष्य का बौद्धिक होना जरूरी नहीं।
व्यापक अर्थों में कविता को आप किस तरह संदर्भित करते हैं ?
कविता देश काल की सीमाओं से परे बे–हद होती है ।
कविता अपने आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे अर्थात दसों दिशाओं में देखती है। वह सिर्फ सामने ही बात नहीं करती है पीठ पीछे भी फुसफुसाती है । धीरे से अनमने आदमी के कान में मित्र जैसा गुरु मंत्र देती है । इसीलिए वह देर तक और दूर तक देखती है । मैं हर महत्त्वपूर्ण कविता को वर्तमान में इसी रूप में देखता हूँ।
कविता और कवि के समक्ष आज की प्रमुख चुनौतियाँ कौन सी हैं ?
निश्चय ही कविता के हर युग में कवि के सामने चुनौतियाँ रही हैं। किसी भी जिम्मेदार कवि के सामने आज भी वे चुनौतियाँ मौजूद हैं । आप साहित्य के इतिहास में भक्ति काल के कवियों के समक्ष आसन्न चुनौतियों का अंदाजा लगाइए ! तुलसीदास ,कबीर, सूर, जायसी ,रैदास ,मीरा आदि की चुनौतियों का आकलन कीजिए - वहाँ तो कवि का जीवन ही दाँव पर लगा था। न खाने का ठिकाना और न कायदे से रहने की सुविधा थी । आधुनिक काल में अपने समय में मैं जब भी नागार्जुन और त्रिलोचन से मिला तो उनके जीवन को देख कर पाया कि हिंदी में अभी भी भक्तिकाल के कवि जिंदा हैं। हमारी परंपरा में जितने भी स्वनामधन्य कवि हैं उनका जीवन वंचित जीवन था । मार्क्सवाद की शब्दावली में कहूँ तो वे सच्चे सर्वहारा थे । उन कवियों से निराला, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन आदि ने जीवन जीना और लिखना सीखा। एक जागरूक कवि नागरिक जीवन जीते हुए सादगी के सौंदर्य को कविता और समाज में स्थापित कर सकता है।
जहाँ तक कविता के वर्तमान सीन में आसन्न चुनौतियों का सवाल है वहाँ सबसे बड़ी चुनौती मनुष्य को बचाने की है ,मनुष्यता को बचाने की है। आज जीवन की हर उस सुंदर चीज को बचाने की जरूरत है क्योंकि उन पर हत्यारों की बुरी नजर है। गौर से देखें तो 21वीं सदी के भारत में मध्यकाल की बर्बरता और हिंसा लौट रही है । पहले वह दर्रा खैबर से आई थी आज वह हमारे भीतर से ही सर उठा रही है । हमारे दैनंदिन जीवन में हिंसा की व्याप्ति चौतरफा है।
आपको नहीं लगता कि धर्म आधारित असहिष्णुता हमारे समाज में लगातार बढ़ती जा रही है ?
देखिए शशि जी ! हमारे यहाँ धर्म के दस लक्षण गिनाए गए थे , वे आज हिंसा की वेदी पर लहूलुहान हो चले हैं । आज की वोट – बटोर राजनीति समाज और देश में हिंसा को पैदा करने का सबसे बड़ा कारखाना बन चुका है । करुणा और प्रेम की जगह घृणा, असहिष्णुता और हिंसा को पनाह दे दी गई है । हमारी सामासिक संस्कृति की अवधारणा ही आज खतरे में है । वह बहुलता की जगह एकरूपता को परोसने की लंबी कवायद में व्यस्त है। तीसरी चुनौती पुनरुत्थानवाद की है। अतीत के पहिए को वर्तमान में घुमाया जा रहा है जो समाज में अंधानुकरण को जन्म दे रहा है।
आप अभी राजनीति की भूमिका के बारे में कुछ और कह रहे थे !
देखिए कि धीरे-धीरे हमारी व्यवस्था बेलगाम होकर फासीवाद के अधिनायकवाद की ओर बढ़ रही है। आम व्यक्ति की आजादी आज खतरे में है। अंधभक्त भले न स्वीकार करें, पर हर जागरूक नागरिक इस खतरे से आए दिन दो – चार हो रहा है ।
धर्म के मूल्यगत पराभव में ‘पूंजी’ की भूमिका के बारे में आप क्या कहेंगे?
आप जिसे पूंजी कह रहे हैं, मैं उसे आवारा पूंजी कहूँगा। आवारा पूंजी के दौर में सभी चीजें बिकाऊ हो चली हैं। हमें धर्म पर नाज़ था पर वह आज सबसे ज्यादा बिकाऊ माल हो चला है। धैर्य और क्षमा जैसे शब्द और मनोभाव आज हमारे भीतर से गायब हो गए हैं । मेरी दृष्टि में आज इसलिए कविता के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती ’मनुष्यता’ को बचाना है। कविता को उसी के पक्ष में हलफ उठाने की जरूरत है।
क्या बाजारवाद से लड़ने में कविता मददगार साबित हुई है? नयी पीढ़ी में इससे लड़ने की तैयारी आपको कहाँ दिखती है?
अगर कविता खुद बाजार का हिस्सा हो जाएगी तो वह बाजारवाद का प्रतिरोध कैसे करेगी? नई पीढ़ी की कविता में बाजारवाद का विरोध तो दिखता है मगर कहीं न कहीं उसके मन में बाजारवाद के प्रति तीव्र आकर्षण भी झलकता है। थोड़ा सा लिखकर आप रातों-रात क्रिकेट के खिलाड़ी की तरह स्टार बन जाना चाहते हैं। सच्चा कवि पॉप सिंगर की तरह लोकप्रिय नहीं हो सकता। सच्ची कविता लोकप्रिय नहीं बल्कि टिकाऊ होती है।
क्या आज के दौर में पूंजीवाद को पराजित किया जा सकता है ! साहित्य और कविता की इसमें किस तरह की भूमिका हो सकती है?
उत्तर - आज के दौर में पूंजीवाद से साहित्य, कला और विचारधारा कैसे लड़ सकेंगी यह गहरे विचार-विमर्श और हौसले का मामला है। 'आवश्यक' आवश्यकताओं के अलावा दिनों दिन आज भौतिक चीजों के प्रति हमारी लालसा तीव्र रूप में बढ़ती जा रही है। यह सभ्यता के संकट का मामला है। आवारा पूंजीवाद आज सबसे ज्यादा निकृष्टतम दौर से गुजर रहा है। उसकी सूरत लुभावनी है जिसके पीछे नई पीढ़ी अनजाने दीवानी है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इस पूंजीवाद का सबसे बड़ा एजेंट है जो चौबीसों घंटे हमारे घरों को अनजाने विज्ञापन की संस्कृति में बदल जाने के लिए विवश कर चुका है। मुझे लगता है कि इससे लड़ने की शुरुआत निम्न मध्यमवर्गीय घरों से करनी होगी। तभी आप सड़क और संसद में पूंजीवादी व्यवस्था से लड़ पाएंगे कहना न होगा कि आज कविता को बुद्ध और गांधी की सबसे ज्यादा जरूरत है। सवाल यह है कि आज की कविता क्या सादगी के सौंदर्य को स्थापित करने के लिए दिलो जां से तैयार है ?
आज के ‘विकासवादी मॉडल’ में गांधीवाद और मार्क्सवाद से कितनी उम्मीद बची है?
बीसवीं सदी का अंतिम दशक मार्क्सवादी व्यवस्थाओं के लिहाज से पराभव का दौर रहा है। सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवादी व्यवस्थाओं के चरम पर पहुँचने का दौर शुरू होता है। मार्क्सवाद के विरोधी सोवियत संघ के विघटन को मार्क्सवाद का अंत मानने लगे, ऐसे लोग भूल गए कि किसी व्यवस्था के बदल जाने से विचारधाराएँ ख़त्म नहीं होती। भारत में ही गांधीवाद को कितना महत्व दिया गया! बल्कि देखा जाए तो आजादी के बाद भारतीय विकास का सारा मॉडल पश्चिम से विकसित होना शुरू हुआ। फलतः देखते-देखते बीसवीं सदी के अंतिम दशक में भूमंडलीकरण और अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की प्रक्रिया आरंभ हुई। उस दौर को गौर से देखें तो ग्लोबल पूंजी, उपभोक्तावाद, टेक्नोलॉजी ने बड़े पैमाने पर हमारे सामाजिक , आर्थिक जीवन पर प्रभाव डालना शुरू किया ।
साहित्य में उत्तर आधुनिकता का क्या प्रभाव रहा?
आधुनिकता की आँधी का दौर उसी समय शुरू हुआ था। उसी दौर में उत्तर आधुनिकता के भाष्यकारों ने कविता के अंत की घोषणा कर दी थी। मुझे याद है कि उत्तर आधुनिकता के प्रमुख भाष्यकार जाक देरीदा का भारत आगमन हुआ था। दिल्ली में उनके तीन व्याख्यान क्रमशः जेएनयू , डीयू और मंडी हाउस के कमानी सभागार में हुए थे। जाहिर है – उत्तर आधुनिक समय और समाज की उन्होंने पश्चिमी समाज के परिप्रेक्ष्य में व्याख्या की थी। उसी दौर में ’पहल’ की ओर से एजाज़ अहमद के तीन व्याख्यान नए जमाने में मार्क्सवाद विषय पर दिल्ली के 'त्रिवेणी सभागार' में दिए गए थे जो बदली हुई स्थितियों में मार्क्सवादी दर्शन और विचार को नए परिप्रेक्ष्य में समझने की कुंजी साबित हुए।
नौवें दशक में आए बदलावों को आप किस तरह देखते हैं? इस दौर में कवियों ने अपनी भूमिका को किस तरह रखने की कोशिश की!
इस परिप्रेक्ष्य में उस दौर की कविता की प्रवृत्तियों पर ग़ौर करें तो नौवें दशक में कोई नया प्रस्थान नहीं था बल्कि वह आठवें दशक की कविता का विस्तार था। जिसमें देश के साधारण जीवन और आम आदमी को केंद्र में रखकर बेहतरीन कविताएँ लिखी गईं। उस दौर की खास उपलब्धि ही कही जाएगी कि सन् 92 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद सांप्रदायिकता के विरोध में कुंवर नारायण से लेकर आठवें , नौवें, दसवें दशक के दर्जनों कवियों ने सामाजिक समरसता के पक्ष में अत्यंत प्रभावशाली कविताएँ लिखीं । उस दौर की कविता में लोकजीवन सबसे बड़ा ट्रांसमीटर था। शहरी जीवन की कविता अपदस्थ हो चुकी थी। ग्लोबल की जगह ’स्थानीयता’ और विशिष्ट की जगह ’साधारण ’ जीवन को व्यापक पैमाने पर व्यक्त किया गया। आंदोलन विहीन दौर में उस समय कविता ही व्यवस्था की प्रतिपक्ष बनी।
अस्सी के दशक के बाद कविता में आप कौन से बदलाव देखते हैं?
कविता हमेशा अपने समय, समाज,प्रकृति के बीच से गुजरती हुई परम्परा और इतिहास से अपना उपजीव्य ग्रहण करती है। कम से कम हिदी कविता में आठवें और नवें दशक की कविता ने परम्परा और इतिहास की नये परिप्रेक्ष्य में व्याख्या की। परम्परा के प्रति उसका दृष्टिकोण अन्वेषण का था - जो हर हाल में क्रिटिकल था।
आपकी नज़र में इक्कीसवीं सदी की कविता के क्या लक्ष्य होने चाहिए?
आज इक्कीसवीं सदी की कविता के लक्ष्यों पर विचार करते हुए किसान जीवन और किसान संस्कृति को छोड़कर कोई अन्य लक्ष्य निर्धारित नहीं किया जा सकता । पराधीन भारत के दौर में कविता के केन्द्र में किसान जीवन ही है। इसलिए इक्कीसवीं सदी की कविता का प्रथम लक्ष्य किसान जीवन की त्रासदी और उसके सामने आसन्न खतरों की ओर कवि कर्म को जाग्रत करना ही युवा पीढ़ी के कवियों का लक्ष्य होना चाहिए। कहना चाहेंगे इधर के दशक में किसान चेतना की कोई भी लहर नई पीढ़ी के कवियों के परिसर से नहीं सुनाई दे रही है। पिछले वर्षो में साल भर चले किसान आन्दोलन के पक्ष में जिस तरह कविताएँ लिखी जानी चाहिए थी वह सामने नहीं आयी । सवाल उठता है कि क्या इक्कीसवीं सदी के भारत में किसान सचमुच अपनी जमीन से बेदखल हो जायेगा? क्या इक्कीसवीं सदी की कविता के एजेंडे में भारतीय किसान की आवाज़ें उनके अधिकार और उनके जीवन की सुरक्षा में कविता की नयी पीढ़ी हलफ उठायेगी? यह देखने की बात है।
बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कविता में उभरे प्रमुख अस्मितामूलक विमर्शों के बारे में आप क्या कहेंगे ?
बीसवीं सदी में शुरू हुए दलित और स्त्री विमर्श के साथ आदिवासी और अल्पसंख्यक जीवन की मुक्ति को लेकर काफी कविताएँ लिखी गईं। जाहिर है ये सभी आवाज़ें व्यापक स्तर पर हिंदी कविता में शामिल हुई हैं। इन विमर्शों से उपजी कविताओं में आदिवासी जीवन पर जो कविताएँ लिखी गई हैं वे बेहद उल्लेखनीय और क्रांतिकारी हैं। पहली बार हिंदी समाज आदिवासी जीवन की दुश्वारियों से परिचित हो रहा है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि आदिवासी जीवन पर सभी महत्त्वपूर्ण कविताएँ स्त्रियों ने लिखी हैं। कहना चाहिए यह इक्कीसवीं सदी की कविता की एक बड़ी परिघटना है जिसे उपलब्धि के रूप में देखा जाना चाहिए। इस अस्मिता दर्शन को एक मूल्य सृष्टि की तरह देखा जाना चाहिए। आखिर इस देश में दस करोड़ आदिवासी जीवन को लेकर व्यवस्था ने उनके विकास के लिए अब तक क्या किया है ? कविता ऐसे सवालों से व्यवस्था को घेर सकती है। कविता में ऐसे सवाल दरअसल जीवन के प्रश्न होते हैं, जिसको उजागर करना ही कवि धर्म है। कहना चाहिए विस्थापन, प्रकृति और मनुष्य के रिश्ते, पर्यावरण संरक्षण जैसे विषयों पर लगातार लिखा जा रहा है। कहना न होगा स्त्री,दलित, आदिवासी प्रकृति के साथ लोक जीवन पर लिखी जा रही कविताओं से हिंदी कविता का रेंज काफी विस्तृत हुआ है, जिसे मैं हिंदी कविता की उर्वरता के रूप में देखता हूँ।
क्या आप मानते हैं कि हमारा लोकतंत्र कई तरह के दबावों में है?
निश्चय ही आज हमारा लोकतंत्र गहरे दबाव में हैं। लोकतंत्र के सभी पाये भयाक्रांत हैं । कई पाये इस बीच चरमरा कर टूट चुके हैं । लोकतंत्र का सबसे बड़ा पहरुआ और प्रवक्ता मीडिया आज अधिकांशतः गोदी मीडिया में तब्दील हो चुका है। इलेक्ट्रानिक मीडिया के दैत्याकार चैनल रात दिन सत्ता पोषण करने में लगे हैं। हिंदी के अनेक नामी अखबारों ने अपनी धार खो दी है।
लोकतंत्र के वर्तमान
स्वरूप के बारे में आप क्या कहेंगे? असहमति और अभिव्यक्ति की आज़ादी की स्थिति पर आपके विचार जानना चाहूँगा !
आपातकाल के दौर में अभिव्यक्ति की आजादी पर जितने खतरे थे आज अघोषित रूप से वे खतरें दिनों दिन बढ़ते जा रहे हैं। लोकतंत्र में विपक्ष का शून्य होना सत्ता को निरंकुश बनाता है फिर चाहे वह कोई भी दौर रहा हो। इसके खतरे हम पिछली सरकारों में देख चुके हैं। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि असहमति को आज देशद्रोह माना जा रहा है जबकि सच्चे लोकतंत्र में असहमति की आवाजें ही सच्चे लोकतंत्र की प्रतिध्वनियाँ हैं जिसे हर हाल में सुना जाना चाहिए। अक्सर हममें से अधिकांश लोग सोचते हैं अभिव्यक्ति की आजादी की जरूरत सिर्फ बुद्धिजीवियों और पढ़े-लिखे लोगों तक सीमित है। जबकि अभिव्यक्ति की आजादी जनता की खुली आवाज़ से पहचानी जानी चाहिए। इस प्रकार जनता की आजादी अलग और बुद्धिजीवी की आजादी अलग नहीं है। वह दोनों के लिए समान है लेकिन ये दोनों समुदाय आज भयवश खामोश हैं। बोलना चाहते हैं पर बोल नहीं पाते। यह विडंबनापूर्ण स्थिति लोकतंत्र के लिए घातक है। कहना न होगा कि आज हमारा समाज दशकों से आंदोलनविहीन दौर से गुजर रहा है। इस बीच का किसान आंदोलन और शाहीन बाग आंदोलन अपवाद हैं।
वर्तमान सन्दर्भ में कवि और कविता की भूमिका को आप किस तरह व्याख्यायित करेंगे?
आज की कविता में विद्रोह और ऊष्मा नहीं बल्कि खामोशी और ठंढापन है जिसे सकारात्मक नहीं कहा जा सकता। चौतरफा निराशा की शक्लें टंगी हुई हैं। ब्रेख्त ने कहा था कि अंधेरे वक्त में अंधेरों के बारे में लिखा जाएगा लेकिन उस अंधेरे की अभिव्यक्ति आज बेहद क्षीण और निराशाजनक है। कविता का बुनियादी काम है व्यवस्था और समाज से प्रश्न पूछना। प्रश्न पूछना अर्थात हस्तक्षेप करना। आज बहुत कम कवि हैं जो प्रश्न पूछने की भूमिका का निर्वाह कर पा रहे हैं। यह आज की कविता का एक गंभीर और चिंताजनक पहलू है जिस पर ग़ौर करने की जरूरत है । हमारी परीक्षा हमेशा कठिन समय में होती है। आज के दौर में कविता की भूमिका हर तरह के अन्याय और दमन के विरुद्ध प्रतिकार करने में होगी। कविता का जन्म ही अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार से हुआ है।
कवि कविता लिखने के अलावा अपने विवेक और साहस से समाज को व्यक्तिगत तौर पर भी जागृत कर सकता है। हिंसा और बर्बरता के क्रूरतम लम्हों में कविता ने कई बार ऐसे सार्थक हस्तक्षेप किए हैं जो इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। कहते हैं कि दिल्ली में तानाशाह नादिरशाह लगातार कत्लेआम में मशगूल था। तब उस दौर में दिल्ली के एक शायर ने अपना एक माकूल शेर सुना कर नादिर शाह को अवाक् कर दिया था। लोग कहते हैं कि कुछ ही देर में क़त्लेआम रुक गया था। कविता की ताकत अकूत
और अपौरुषेय में होती है। कवि को इसे बरतने के लिए सिर्फ विवेक और साहस की दरकार होती है जिसे सहेजना पड़ता है।
हमारी सभ्यता में जिस तरह से हिंसा की जगह बढ़ती जा रही है उसके क्या कारण हो सकते हैं?
हिंसा बढ़ने का सीधा कारण है पूंजीवाद का बेतहाशा विकास। आंकड़े बताते हैं कि आज मुट्ठी भर घरानों के पास इतना पैसा है कि वह चाहे तो पूरे देश को खरीद सकते हैं। यह प्रक्रिया अर्थव्यवस्था के निजीकरण के दौर में बड़ी तेजी से पैर पसार चुकी है। साधारण जीवन के लोग बाग पहले हाशिए पर थे अब वह सड़क की नालियों की ओर फेंक दिए गए हैं। जिस मध्यम वर्ग को हम समाज का हितचिन्तक समझते थे वह खुद आज उच्च वर्ग की पाँत में जा बैठा है। उच्च वर्ग और मध्य वर्ग के सहमेल ने समाज को भोगवाद की ओर अग्रसर किया है। भोग का मनोविज्ञान हमेशा हिंसा की ओर मनुष्य की चेतना को ले जाता है। आज पूरे समाज को बाजारवाद ने आखेट बना लिया है। मुक्तिबोध के शब्दों में ऐसे समाज में मनुष्य के ‘अंत:करण का आयतन’ दिन प्रतिदिन सिकुड़ रहा है, जिसको कविता ही बचा सकती है। व्यवस्था तो आज स्वयं भोगवाद पर टिकी है, वह पूंजीपतियों की रखैल हो चुकी है, ऐसे में कविता की भूमिका अहम हो जाती है।
सूचना और प्रौद्योगिकी, सोशल मीडिया और वर्चुअल माध्यमों के कारण कविता की भाषा और शिल्प पर क्या प्रभाव पड़ा है?
इन माध्यमों के जरिए सबसे ज्यादा दुखद परिणति यह हुई है कि कविता जैसी सूक्ष्म संवेदन की विद्या को इस माध्यम की गतिशीलता ने एक उत्पाद के रूप में बदल दिया है। आंशिक तौर पर ही सही कविता रचने के पहले कवि जो खुद महीनों तैयारी करता है , खुद अपने से लड़ता है , अपनी छाया पर गुर्राता है इस माध्यम की सहज सुलभता ने उसे आतुर बना दिया है। स्टेशनों पर सर्वसुलभ मजबूरी में पी जा रही चालू चाय की तरह। मेरी दृष्टि में इस माध्यम ने कविता की भाषा को काम चलाऊ और एक रस बनाया है। विज्ञापनों की चमकीली भाषा का असर भी कहीं – कहीं साफ दिख रहा है। इस माध्यम के नशे में कई अच्छे कवियों को खराब कविता परोसने के लिए मजबूर कर दिया है। नए कवियों के लिए सीखने के लिए जो मौके थे वे गायब हो गए हैं। नवांकुरों को लगता है कि मुझे क्या जरूरत है दूसरों से सलाह लेने की, हम और हमारी कविता खुद ही पर्याप्त हैं। उन्हें किसी संपादक, आलोचक , प्रकाशक की जरूरत नहीं है क्योंकि उसकी कविता को चाहने वाले सैकड़ों हैं। इससे कवियों में हड़बड़ी, आत्ममुग्धता और झूठी अहमन्यता का अनुपात बढ़ा है। कवियों के सामान्य व्यवहार और विचार में व्यक्तिवाद बढ़ा है जबकि व्यक्तिवाद साहित्य का सबसे बड़ा शत्रु है। इसलिए इस माध्यम को मैं कविता के लिए अपर्याप्त मानता हूँ।
आभासी माध्यमों ने कविता के आस्वाद और प्रसार को किस तरह प्रभावित किया है?
आभासी माध्यमों की
दुनिया में ऐसा लगता है कि कविता लोगों तक पहुंच रही है पर वास्तविकता यह है कि वह असंवेदनशील और आत्मरति से घिरी हुई अपनी अंतिम सांसे गिन रही है। कहना न होगा कि इस माध्यम ने आत्महीन और आत्ममुग्ध लोगों का फैलाव किया है। कच्ची भावुकता और सस्ती लोकप्रियता के इस माध्यम में सचमुच कविता की अर्थवत्ता को कलुषित किया है। मंगलेश डबराल ने अपनी एक कविता में कभी आगाह किया था कि ‘कवियों में बची रहे थोड़ी सी लज्जा’ पर देख रहा हूँ कवियों में कविता के नाम पर निर्लज्जता का भाव बढ़ रहा है। कहना न होगा कि इस निर्जीव माध्यम ने कवि होने के अर्थ को तिरोहित किया है। भाषा में अराजकता और अनाचार बढ़ा है।
तकनीक ने स्मृति को किस तरह प्रभावित किया है?
बीसवीं सदी के चिंतकों ने चिंता जाहिर की थी कि टेक्नोलॉजी का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव और खतरा हमारी संवेदना, भाषा और स्मृति के इलाकों पर होगा। देखा जाए तो कविता वस्तुतः स्मृति का ही निवेश है। टेक्नोलॉजी की कोशिश है कि मनुष्य स्मृतिभ्रंश का शिकार हो जाए। एक दिन वह विचार को खत्म कर देगी। संवेदना के क्षीण तंतु टेक्नोलॉजी के सामने नतमस्तक हो जाएंगे।
और भाषा पर क्या असर पड़ा है?
टेक्नोलॉजी के बढ़ते वर्चस्व से सबसे बुरा असर आज की कविता की भाषा पर पड़ा है। हमारी काव्य भाषा आज एकरस होकर गद्य का चटियल मैदान हो गई है। उसने लोक भाषाओं से अपने को काट लिया है। फलतः कविता में नए शब्दों की आवक खत्म सी हो गई है। कम कवि हैं जिनका नाता लोक भाषा से बना हुआ है। हमारे लोक जीवन में हजारों शब्द हैं, जबकि टेक्नोलॉजी के पास अधिकतम एक दर्जन। कहना न होगा आज कविता के सामने सबसे बड़ी चुनौती नई भाषा की खोज की है। जिसकी ओर कवियों का ध्यान सबसे कम है। यह कविता के स्वास्थ्य के लिए सबसे ज्यादा चिंताजनक पहलू है क्योंकि कवि का सबसे बड़ा अस्त्र शब्द ही होता है।
क्या कविता की सम्मुख आलोचना मौजूद है?
देखिए शशि जी ! आलोचना का बुनियादी काम केवल काव्य समीक्षा या साहित्य समीक्षा करना नहीं है। वह गहरे अर्थों में सभ्यता समीक्षा है। इसलिए वह एक सामाजिक कर्म है। आलोचना कविता की सहयात्री होती है। शिवदान सिंह चौहान ने तो यहाँ तक कहा था कि बड़ी आलोचना रचना से हमेशा तीन कदम आगे चलती है। वह रचना की पथ प्रदर्शक होती है। उसकी बड़ी जिम्मेदारी होती है- रचना के विवेक और सामर्थ्य को पाठक समाज के भीतर जागृत करना।
आलोचना कर्म को आप किस तरह आंकते हैं !
साहित्य की दुनिया में लोकतांत्रीकरण की प्रक्रिया को बनाए रखने में आलोचना की महती भूमिका होती है। आलोचना गहरे अर्थों में साहित्य के भीतर लोकतंत्र को बनाए और बचाए रखने की एक जीवंत प्रक्रिया है। इसलिए उसे ‘साहित्य की आत्मा’ कहा गया है। नामवर सिंह ने कहा था कि आलोचक का सबसे बड़ा अस्त्र होता है-उसका लोचन। लोचन का काम है - पहले खुद देखना फिर पाठक समाज को दिखाना। कहना चाहिए एक सजग आलोचक के लिए यह दुहरी जिम्मेदारी होती है। दुर्भाग्यवश हमारे समय में आलोचना की इस नैतिक और गंभीर जिम्मेदारी को साहित्य में व्याप्त बाजार ने अपदस्थ करने की बेजा कोशिश की है जो गहरी चिंता का विषय है।
आज की युवा आलोचना को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
सच्ची आलोचना बेहतर रचना की सहयात्री होती है जो खराब रचना को आगे बढ़ने से हमेशा रोकती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इधर के दशकों में कविता की आलोचना सर्वाधिक लिखी गई पर कविता का प्रवृत्तिमूलक आकलन छिटपुट हुआ। कविता की प्रवृत्तियों में बदलाव को रेखांकित नहीं किया जा सका। यह काव्यालोचना की सीमा कही जाएगी। देखा जाए तो आलोचना के परिदृश्य को गैर सृजनशील बनाये रहने में प्राध्यापकीय आलोचना की प्रवृत्ति सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। वर्षों पहले देवीशंकर अवस्थी ने आलोचना के क्षेत्र में प्राध्यापकीय आलोचना को सबसे ज्यादा अप्रबुद्ध और जड़ माना था। आज जरूरत इस बात की है कि आलोचना कविता के समक्ष आसन्न खतरों की पहचान करें और उसकी वास्तविक उपलब्धियों का आकलन कर पाठकों के बीच कविता के मर्म और धर्म को उद्घाटित करे। इसके लिए भी आलोचकों में नामवर सिंह जैसा पराक्रम , मलयज जैसी धीरता और अशोक वाजपेयी जैसा रसिक होना चाहिए। आलोचना के बारे में बहुतों को यही भ्रम है कि वह रचनाकारों और साहित्यकारों के बीच का संवाद है। जबकि सच्ची आलोचना का लक्ष्य रचनाकार और बौद्धिक समाज नहीं बल्कि सामान्य पाठक समाज है जो कविता को जीवन पाथेय बनाना चाहता है। कहना न होगा कि सच्ची आलोचना इसीलिए पाठकों को संबोधित होती है। मैंने खुद जो आलोचनाएँ लिखी हैं वह हमेशा पाठकों को संबोधित हैं।
कविता की भाषा की तरह आलोचना की भाषा में भी आज बदलाव की सख़्त जरूरत है क्योंकि आलोचना का वास्तविक कर्म अंततः संवाद है। सवाल यह है कि आज की आलोचना क्या रचना से खुला संवाद करने के लिए तत्पर है ? मैं आलोचना के अवदान से निराश नहीं हूँ पर मुझे इस बात की गहरी चिंता है कि आलोचना व्यापक स्तर पर अपना धर्म निभाने में असमर्थ तो नहीं पर आलसी जरूर हुई है जिससे उबरने की जरूरत है।
शशिभूषण मिश्र
बहोत सुलझे हुए सवाल हैं,उत्तर भी माकूल हैं।कम होता है कि एक बार में कुछ पढ़ या पढ़ा लिया जाए।साधुवाद।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें