अफ़लातून की डायरी
आज तुम घर आई जबकि इन दिनों तुम्हारे बारे में गहराई से सोचा भी नहीं था. इन दिनों तो मैं अध्यात्म में डूबा हूँ. आचार्य प्रशांत के गीता भाष्य के तीन वॉल्यूम मंगवाएं हैं. उन्हीं में लगा रहता हूँ. यू-ट्यूब पर उनके वीडियोज सुनता हूँ. इस सबके के बीच आज अचानक तुम चली आई. किंडल पर हजारी बाबू का ‘अनामदास का पोथा’ पोथा पढ़ रहा हूँ. जिस तरह ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के लिए उन्होंने कैथराइन दीदी का प्रसंग गढ़ा उसी तरह इस उपन्यास के लिए उनके शहर के एक अनाम साहित्यकार का रूपक रचा है. हजारी बाबू हैं पूरे गपोड़ी लेकिन गप्प के बीच जीवन-दर्शन और उसके सूत्रों को इस तरह पिरोते हैं कि लाजवाब. ‘अनामदास का पोथा’ में उपनिषद् के रैक्व ऋषि की कहानी को आधार बनाया है. रैक्व निरे तपस्वी हैं उन्हें संसार का कोई ज्ञान नहीं होता. उनकी भेंट एक राजकुमारी से होती है. राजकुमारी जाबाला एक झंझावत में घायल है. रैक्व ने पहली बार स्त्री को देखा है. वह उसे छूकर देखता है तो वह उसे बहुत मुलायम प्रतीत होती है. रैक्व उसे अपनी पीठ पर लादकर उसके घर पहुँचा आने प्रस्ताव रखते हैं. राजकुमारी मना कर देती है कि यह प्रस्ताव लोक-व्यवहार के प्रतिकूल है. एक युवा स्त्री का एक अनजान पुरुष की पीठ पर बैठकर जाना उचित नहीं. राजकुमारी चली जाती है और रैक्व की पीठ में एक सनसनाहट बनी रह जाती है. रैक्व वहीं राजकुमारी के टूटे रथ से अपनी पीठ खुजलाते साधना में रत हो जाते हैं. उनकी पीठ में बार-बार खुजली मचती है. इसी प्रसंग को अपनी कल्पना से हजारी बाबू ने विस्तार दिया है. उपन्यास का सार है कि एकांत साधना निरा स्वार्थ है. लोकमंगल के बिना तप व्यर्थ है. ...आज तुम आई. और आश्चर्यजनक बात यह रही कि माँ ने तुमसे बिना तनाव में आये बात की. छोटे भाई ने तुमसे चुहल की. संगिनी घर पर नहीं थी. मैं चाह रहा था कि उसके आने से पहले तुम चली जाओ. तभी वह लौट आई और सपना टूट गया. सपना... हाँ, सपना ही तो था. लेकिन आज तुम सपने में क्यूँ आई? कहते हैं ना कि जिसके बारे में दिन में ज्यादा सोच-विचार करते हैं वही रात को सपने में दिख जाता है. नींद के सपनों पर मैं ज्यादा यकीन नहीं करता. बहुत लोग करते हैं. मैं नहीं करता. मुझे अक्सर ऊलजलूल सपने आते हैं, बे-सिरपैर के और जब सपना टूटता है तो पता चलता है कि गला सूख रहा है या टॉयलेट जाना है. आज गला ही सूख रहा था. पानी पीने के बाद नींद नहीं आई. और भई, तुम मिलती क्यों नहीं हो? हर बार कुछ बहाना? अब तो मैंने तुमसे मिलने की उम्मीद भी छोड़ दी. मैं कहूँगा ही नहीं अब. जाओ, मैं नाराज हूँ तुमसे. हुँह... पता है तुम्हारा जन्मदिन मैं भी तुम्हारे पहले प्रेमी की तरह ही याद रखता हूँ. “दस दिसंबर को आएगा मानवाधिकार दिवस और उससे पाँच दिन पहले तुम्हारा जन्मदिन.” हाहाहा... सब पुरुष एक से होते हैं, निरे भुलक्कड़. पत्नी और प्रेमिकाओं के जन्मदिन भूलने वाले. और तुम लोग हो कि भूलने नहीं देतीं. माया कहीं की... संसार से भागते पुरुष को संसार में खींचकर लाने वाली. सब स्त्रियाँ जाबाला-सी नहीं होती, लोकमंगल चाहने वाली. पत्नी या प्रेमिका का तो समझ में आता है लेकिन तुम लोग माँ होकर अपनी ममता को विस्तारित क्यूँ नहीं कर पाती? क्यूँ तुम्हें सब बच्चों में अपने बच्चे नहीं दिखते? क्यूँ सिर्फ तुम अपने बच्चों का ही भला चाहती हो? क्यूँ अपने बच्चों के दोस्तों का भला भी नहीं सोच पाती? तुम्हारा प्रेम संतान-मोह से आगे क्यूँ नहीं बढ़ पाता? बोलो...?
अपनी केवल धार (
‘संगत’ में कल एक और शानदार शख्सियत का इंटरव्यू अंजुम ने लिया- अरुण कमल का. अरुण जी की इन पंक्तियों में स्वीकृति है, आभार है. यह आभार देर सबेर हम सबको स्वीकार करना ही चाहिए. यह सच है. हमारा कुछ नहीं, सब तो लिया उधार. हमारे पास कुछ नहीं होते हुए भी कर्म करने की स्वतंत्रता हमारी सबसे बड़ी ताकत है. मनुष्य के पास जो है कर्म स्वातंत्र्य वह ही धार है. कुछ न होकर भी सबकुछ मनुष्य के पास है. लेकिन एक अर्थ में अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए मनुष्य ने ईश्वर का अविष्कार कर लिया. हालाँकि ईश्वर मनुष्य की अब तक की सारी कल्पनाओं में सबसे शानदार और जानदार कल्पना है. वह एक बड़ा भरोसा है, आसरा है लेकिन इस आसरे ने कहीं मनुष्य को कमजोर तो नहीं बनाया? कहीं इसी कारण अपने जीवन के चुनावों और निर्णयों को हमने रामजी की मर्जी या किस्मत का तमगा दे दिया? अभी थोड़ा ही सुन पाया हूँ लेकिन अरुण जी ने बाँध लिया है. जल्द पूरा सुनूँगा. ‘बया’ पत्रिका का डायरी विशेषांक गौरीनाथ जी ने भिजवाया है, वह भी रुक-रुक कर पढ़ रहा हूँ. इन दिनों आचार्य प्रशांत के मार्फ़त गीता समझने में लगा हूँ. उनके गीता पर भाष्य के तीन अंक मंगवाएँ हैं, उन्हीं में ज्यादा लगा रहता हूँ. आजकल लिखने का मन कम होता है. लगता है कितना कुछ तो बचा है जानने को. कितना कुछ तो है पढ़ने को. कितना अच्छा-अच्छा लोग लिख गए हैं और लिख रहे हैं. कच्चा-पक्का मैं लिखकर क्यों भीड़ बढ़ाऊँ? आचार्य प्रशांत का पूरा काम वेदांत पर है. यूट्यूब पर दो हजार से ज्यादा वीडियोज हैं. हर नए समसामयिक विषय पर उनका वीडियो आ जाता है. वे शानदार शिक्षक और आचार्य हैं.
कभी सगुण-निर्गुण का द्वंद्व बहुत सताता था. मध्यस्थ दर्शन का सात दिवसीय जीवन विद्या शिविर करने के बाद वह जाता रहा. समझ आ गया कि ब्रह्म तत्वतः निर्गुण, निराकार और अकर्ता है. न वह कुछ लेता है, न देता है लेकिन मृत्यु, पुनर्जन्म आदि को लेकर सवाल अभी भी बने रहें. तुलसी की मानस में बालकांड में तुलसी एक जगह जोर देकर कहते हैं कि यही नरदेही दशरथ का बेटा राम ही ब्रह्म है. और यहीं से मैं कबीर को तुलसी से श्रेष्ठ मानने की भूल कर बैठा कि तुलसी नरदेही राम को ही ब्रह्म कह रहे हैं जबकि कबीर के यहाँ ब्रह्म निर्गुण-निराकार है जो तत्त्वतः है ही निर्गुण और अकर्ता. आचार्य प्रशांत ने समझाया कि तुलसी के यहाँ भी तो जो बालकांड में निर्गुण ब्रह्म की स्तुति है वह वेदांत सम्मत ही तो है और कबीर के समकक्ष है. दोनों में कोई भेद नहीं. कबीर जो चार तरह के राम की बात करते हैं-
गौर से देखें तो तुलसी के यहाँ भी यही क्रम है. दृष्टि दोष हमारा ही है. अंजुम ने अरुण जी से पूछा कि आपके यहाँ भक्त कवि तुलसी की उपस्थिति खूब है जबकि आप प्रगतिशील कवि हैं. अरुण जी कहते हैं कि भक्त कवि और प्रगतिशील कवि में कवि हमारा शामिल का है और जो सबमें शामिल है वह है मनुष्य.
मध्यस्थ दर्शन का मृत्यु उपरांत सूक्ष्म शरीर के उस घर या गाँव-शहर के आसपास बने रहने और गर्भ का चुनाव करने का तर्क गले नहीं उतरा. कुछ रविवारीय गोष्ठियाँ भी अटेंड की. वहाँ भी प्रबोधकों का कहना यही था कि “पहले जीवन को समझिए, मृत्यु को छोड़िये. जीवन समझ में आ गया क्या? नहीं ना? फिर? पहले उसे समझिये.” जिस तरह बुद्ध ने इस तरह के सवालों को अव्याकृत कहकर छोड़ दिया, उसी तरह. लेकिन मेरा मन उन्हीं सवालों से ज्यादा जूझता रहा. आचार्य प्रशांत ने जब गीता और शंकर के अद्वैतवाद के मार्फ़त बताया कि यह शरीर पंचमहाभूत के अतिरिक्त मन, बुद्धि, अहम् से बना है और ये तीनों तत्त्व भी भौतिक ही हैं, जड़ हैं. ये भी प्रकृति की सीमा में ही आते हैं. बस केवल सत्य है जो प्रकृति से परे है. सत्य को ही ब्रह्म या आत्मा या परम तत्त्व कहा गया है. मैं यानी अहम् ही जीवात्मा (देही) है. अहम् कर्ताभाव है. पुनर्जन्म देही यानी जीवात्मा मतलब अहम् भाव का होता है न कि किसी व्यक्ति विशेष की आत्मा का. आत्मा निष्कामता से उपजी एक स्थिति विशेष का नाम है. जहाँ सुख है, न दुःख है, बस आनंद है. असल में उसे कोई नाम भी नहीं दिया जाना चाहिए मगर हम दे देते हैं. उसे नाम दिए बिना हमारा काम भी नहीं चलता. जैसे ही आचार्य प्रशांत से ये समझा कि “जीवन एक ही बार होता है. पुनर्जन्म किसी आत्मा का नहीं बल्कि अहम् वृत्ति का होता है. वो भी व्यष्टि विशेष नहीं अपितु समष्टि रूप होती है”, तो बत्ती जल उठी. रोशनी भीतर तक चली गई. मैं उछल पड़ा. क्या शानदार बात कही गयी है? आहा ! अद्भुत ! सोम भैया और विकास दिव्यकीर्ति सर ठीक कहते हैं कि समझने का आनंद अलग ही होता है... गीता की दुर्व्याख्या ही अधिक हुई है... उपनिषद् शानदार हैं. सगुण के कर्मकांड और निर्गुण के ध्यान-मेडिटेशन के घटाटोप में फँसे बगैर सदग्रंथ और सद्गुरु से समझकर भी सत्य तक पहुँचा जा सकता है. आचार्य प्रशांत बेजोड़ हैं.
नींद आ रही है, पलकें भारी हो रही हैं... क्या ये संसार भी नींद में देखा एक सपना ही है? या कोई वीडियो गेम?
ईश्वर का पता चाहते हो तो किसी कवि से मिलो (113 / 15.12.2023)
इन दिनों डायरी कम लिख पा रहा हूँ. पिछले दो महिने विधानसभा चुनाव की आचार संहिता के चलते लगभग नहीं लिखा. चाहता तो लिख सकता था, लिखा नहीं. शायद भीतर से कोई भय काम कर रहा हो. शायद कुछ व्यस्तता भी रही हो. शायद इन दिनों लिखने का कम और पढ़ने का मन ज्यादा बना रहा. शायद बात आलस की रही. अक्सर लिखने के तुरंत बाद उसे व्हाट्सअप ब्रॉडकास्ट या फेसबुक पेज पर प्रकाशित करने का मन रहता है. मित्रों व संपादकों के आग्रह पर प्रकाशित करने से खुद को रोक रहा हूँ. कुछ डायरियाँ रोकी और पत्रिकाओं के संपादकों को भिजवाई. ‘अपनी माटी’ के सितम्बर अंक में डायरी छपी. वहाँ से यात्रा आगे बढ़ी और ‘मधुमती’ के अक्टूबर अंक में डॉ. दिनेश चारण ने छापी. ‘बया’ का दूसरा डायरी विशेषांक कल डाक से मिला उसमें भी ‘अफ़लातून की डायरी’ को जगह मिली है. संभवतः जनवरी में दिल्ली की एक साहित्यिक पत्रिका में भी डायरी प्रकाशित हो. ये डायरी की अपनी यात्रा है, मेरी नहीं. मेरी यात्रा डायरियों में दर्ज होती रहती है लेकिन डायरी की यात्रा को भी तो मैं डायरी में ही दर्ज कर रहा हूँ. क्या ये ऐसा ही है जैसे आचार्य शंकर कहते हैं कि ये संसार हमारे मन का प्रक्षेपण है. यही जगत का मिथ्यात्व है. “ब्रह्मं सत्यं जगत मिथ्या.” लेकिन माया के बस हमें यह संसार सत्य आभासित होता है. शंकराचार्य के हवाले से विकास दिव्यकीर्ति कहते हैं कि “यह संसार विडियो गेम जैसा है. जब तक हम गेम के भीतर हैं यह हमें सत्य आभासित होगा ही, इसका मिथ्यात्व हमें तब पता चलता है, जब हम इस गेम से बाहर आकर इसे देखते हैं.” इसी को गीता में श्रीकृष्ण ‘साक्षी भाव’ कहते हैं.
अद्वैत वेदांत बड़ा शानदार सिद्धांत या कहूँ जीवनचर्या है. यह ज़िन्दगी को देखने, समझने और जीने का अद्भुत तरीका है. इसमें आकर सारे भेद ख़त्म हो जाते हैं. पिछले दो सालों से मैं दक्षिणपंथ व वामपंथ को लेकर बड़ा परेशां रहता आया हूँ, यहाँ आकर लगता है- क्या वाहियात चीजें हैं ये सब जिनके चलते सदियों से दुनिया दो हिस्सों में बँटी रही है और कितना खून-ख़राबा इन विचारधाराओं की लड़ाई के नाम पर हुआ. मेरे मित्रों ने मुझ पर वामपंथी व स्त्रीवादी होने का टैग लगाया. खुद मैंने कितनों को दक्षिणपंथी और रूढ़िवादी कहकर उनका उपहास उड़ाया. अद्वैत वेदांत में आकर दलित, स्त्री, आदिवासी समेत सारे विमर्श दम तोड़ देते हैं. दुनिया यदि बुद्ध, शंकराचार्य, कबीर, तुलसी, नानक, मीरा... के मार्ग पर चली होती तो न किसी दलित का शोषण होता, न किसी स्त्री का और न आदिवासी का. ये पक्का है कि दलितों, स्त्रियों और आदिवासियों का भला इन सेमिनारों से नहीं होगा और न इन उथली सरकारी योजनाओं से.
जीवन को समझे बिना पार नहीं. समझ ही आत्मा है, यही परमात्मा है. इसी को उपनिषद् ब्रह्म कहकर पुकारते हैं. यही अष्टावक्र का सत्य है जिसे पाकर जनक विदेह हो जाते हैं. यही बुद्ध की करुणा है और महावीर का परम धर्म- “अहिंसा परमोधर्म:” सूर का कन्हाई, मीरा का गिरधर गोपाल बस एक वही है- “दूसरो न कोई.” दो नहीं एक. यही अद्वैत है. यही आत्मज्ञान है, इसी बोध को पाकर एक राजकुमार बुद्ध कहलाया. यही तुलसी का राम है. इसी ढाई आखर को पढ़ने की बात कबीर साहब करते हैं और कहते हैं- यह किसी बाड़ी में पैदा नहीं होता, न इसे आप बाजार से खरीद सकते हैं. ये अपने भीतर उगाने की चीज है-
इसके बिना मनुष्य यमपुर जाता है. यमपुर में दुःख ही दुःख है. इसी से बुद्ध महाराज ने निष्कर्ष दिया- “यह संसार दुखमय है”. यमपुर कहीं कोई दूसरा लोक नहीं, यहीं है. हमारा ही जीवन प्रतिपल यमपुर है और प्रतिपल अमरपुर. इसी को पढ़ने वाला पंडित है. इसी को जानने वाला ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है. इसी से विरहिणी नायिका कह रही है- “नैहरवा हमको न भावै... अमरपुर ले चलो सजना”. यमपुर का विपरीत ही अमरपुर है. इस सत्य का विपरीत ही असत्य है. इस ब्रह्म का विपरीत ही जीव कहा गया है. इस ज्ञान का विपरीत ही अज्ञान है. इस समझदारी का विपरीत ही नासमझी है. इस आत्मा का विपरीत ही अहम् है. ये ‘मैं’ का भाव ही कहता है कि दो है. एक मैं हूँ और एक ये संसार है. एक मैं हूँ और एक भगवान है. एक मैं हूँ और एक प्रकृति है. इस प्रकृति से होकर ही अहम् से आत्म की यात्रा संपन्न होती है. यह प्रकृति ही जगदीश की माया है- “श्रुति सेतु पालक राम तुम, जगदीश माया जानकी.” यह झूठा नहीं, सच्चा है क्योंकि यह सियाराममय है- “सियाराममय सब जग जानी, करहुँ प्रनाम जोरी जुग पानी.” कुलमिलाकर ब्रह्म, जीव, जगत और माया सब एक है. न चार, न दो; बस एक. गीता में श्रीकृष्ण उस एक को ही पाने का सूत्र देते हैं- निष्कामता. हनुमानजी कहते हैं- “रामकाज कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम.” दरअसल निष्काम कर्म ही रामकाज है. यही स्वधर्म है. “स्वधर्मे निधनं श्रेयं, परधर्मो भयावह.” न चाहना ही निष्कामता है. न माँगने वाला ही राजा है, वही बादशाह है, वही शहंशाह-
खुद के लिए न चाहना ही सच्ची चाहना है. ऐसे ही मंदिर कुछ माँगने के लिए नहीं जाना है, मंदिर जो मिला है उसके लिए प्रभु को धन्यवाद कहने के लिए जाना है. बेपरवाही ही आनंद है और आनंद ही ब्रह्म है. ईश्वर का पता चाहते हो तो किसी कवि से मिलो. मैं गीत से मिला तो उन्होंने बताया- “ईश्वर हमारे चहरे पर रहता है एक चौड़ी मुस्कान बनकर.”
इसी काश ! के आकाश हो जाने का नाम जीवन है.
रात के साढ़े नौ बजे लिखने बैठा हूँ. मन अजीब-सा हो रहा हूँ. कई बार जब मेरा पेट गड़बड़ होता है तो मन भी गड़बड़ हो जाता है. असल में जीभ पर कंट्रोल नहीं रहता. खुद पर ही खीजता-कुढ़ता हूँ. संकल्पित होता हूँ- आगे ध्यान रखूँगा, ऐसी-वैसी चीजें नहीं खाऊंगा जो पेट ख़राब करती हों लेकिन खाने के चीजें सामने आईं नहीं कि सब ढेर हो जाता हूँ. परसों कॉलेज में मनीष मैम ने पार्टी दी थी. टिक्कड़ और आलू स्पेशल, बथुए का रायता. दो टिक्कड़ खा गया. बाद में पानी पी-पीकर बुरा हाल. रात को यात्रा अलग से करनी थी. कल दिनभर कुछ नहीं खाया. कोई तीन बजे दीक्षांत समारोह के बाद खाने का पैकेट मिला जिसमें चीज़ सैंडविच, कप केक, कुकीज़, चिप्स, और एक छोटी फ्रूटी. एक आइटम कुछ और भी था, नाम याद नहीं. इनमें से भी दो-तीन नाम प्रवीण के भांजे ने बताए. भूख नहीं होती तो इनमें से एक भी चीज नहीं खाता. एक तरफ वहाँ थोड़ी देर पहले मंच से बातें हो रही थीं भारतीय संस्कृति की, उसके गौरवशाली अतीत की, उसे फिर से विश्व गुरु बनाने की और लंच पैकेट में भोजन सारा विदेशी. अरे ! पैकेट में छः पूड़ी, सब्जी और एक लड्डू ही रख देते भई. हम जैसे भुच्च देहातियों का तो काम बन ही जाता. इक्कीस को सुखाड़िया विवि में दीक्षांत समारोह था. प्रवीण जोशी और ज्योति वर्मा से बात हुई, उनके आने का था. पीएचडी एंट्रेस से अब तक मैं, बल्देव और दीपक जी लगभग साथ-साथ ही उदयपुर गए. पिछली साल दिसंबर में मैं और बल्देव वायवा देने साथ गए. उससे पहले दीपक जी अपना वायवा देने अकेले गए. इस बार मैं अकेला था. बलदेव न जाने क्यों नहीं आया? आता तो ठीक रहता. इस सबके अलावा हम जब भी गए साथ ही गए. शुरू करने से पहले हमें पीएचडी का ‘पी’ भी नहीं पता था. बस तीनों अपने-अपने स्रोतों से पूछ-पूछकर मिलजुलकर करते गए और काम हो गया. बल्देव आता तो और ही रौनक रहती.
ट्रेन लेट थी. साढ़े सात बजे ट्रेन मावली जंक्शन थी. उठ तो मैं कोई चार बजे ही गया था. थर्ड एसी का ये हाल की टॉयलेट में पानी नहीं और हम विकसित भारत को लेकर संकल्पित हो रहे हैं. पड़े-पड़े बहुत देर फोन चलाया, कुछ अलसाया, कुछ सोया कि सात बजे तो अपनी सीट से उठकर साइड विंडो सीट पर आकर बैठ ही गया. सूरज चाचू निकलने को थे. काले बादलों की आवाजाही के बीच फूटती सुनहरी आभा. जी जुड़ा गया. शब्दातीत दृश्य. सुना कि ऐसे ही एक बार कपासी बादलों से भरे आकाश में उड़ते धवल बगुलों की पंक्ति को देखकर चैतन्य महाप्रभु मूर्छित हो गए. बगुलों की पाँत में उन्हें उस सत्य के दर्शन हो गए. आकाश में फूटता सूरज, बढ़ती लालिमा, मिटता कलुष, दौड़ते पेड़...
राणा प्रतापनगर स्टेशन पर 8 बजे उतरा. कुच्छ दूर पैदल चला. आसपास कोई होटल नहीं. थोड़ी देर में समझ आया कि ये तो सुंदरवास है. कोर्स वर्क के दौरान यहीं एक पीजी में हम तीनों रुके थे, खिलाड़ी भी था. समय कम था. सोचा यूनिवर्सिटी के आसपास कोई बॉयज पीजी मिल जाएगा या गेस्ट हाउस में नहा-धोकर तैयार ही तो होना है. 9.30 बजे तक पंजीकरण का समय था. मैं समय का पाबंद आदमी. मैं लेट होना और किसी से दो शब्द सुनना पसंद नहीं करता. न बॉयज पीजी मिला न यूनिवर्सिटी गेस्ट हाउस में नहाने की व्यवस्था मिल सके. वहाँ सारे कमरे पहले बुक थे. मुकेश को फोन मिलाया, उसने उठाया नहीं. फिर दौलत को मिलाया, उसने उठा लिया. पास ही वह कमरा लेकर रहता है. वहाँ गया, उसने पानी गर्म लगा दिया, चाय बना दी. इसके लिए पहले जो फॉर्म भरा था उसकी स्लिप ले जाने को भी कहा गया था. स्लिप पूजा के पास थी. उसे भी फोन लगाया. तभी मुकेश भी दौलत के कमरे पर ही आ गया. इनके लाइब्रेरी पढ़ने जाने का था. नौ बजकर पच्चीस मिनट हो गए थे. मुकेश ने अपनी बाइक से यूनिवर्सिटी छोड़ा. तभी पूजा स्लिप लिए मेन गेट तक दौड़ी आई. वहाँ बिना स्लिप के भी पंजीकरण हो गया. मैंने उसे मिलने आने को कहा लेकिन उसे कहीं जाना था. नहीं मिल सके. काश ! मिल पाते तो अच्छा होता. कैलाश से भी मिलना नहीं हुआ. वह गाँव गया है. हरसन का सबमिशन नहीं हुआ. मीनाक्षी का काम बाकी है.
वहाँ बहुत से साथियों से मिलना हुआ. खूब फोटोग्राफी हुई. सब खुश थे. जीवन का एक सुन्दर क्षण. कार्यक्रम में दो परिजनों को साथ ले जाने के ‘पास’ भी मिले थे. कई लोग अपने परिजनों को साथ लेकर आए थे. प्रवीण अपनी माँ, बहन व भांजे को साथ लाया था. दोनों खुश थीं. ज्योति अपने पति और माँ को साथ लाई थी. मुझे पता होता तो मैं भी ले आता पर किसको लाता? माँ आती नहीं, मामाजी आते नहीं. भाई भी नहीं, उन्हें छुट्टियाँ लेनी पड़ती. सबका कहना यही होता कि “हम क्या करेंगे?” संगिनी साथ आती तो बच्चे भी आते. छोटे बच्चे यहाँ अलाउ नहीं थे. और ये सब प्लानिंग पहले से होती. ऐन टाइम पर नहीं. मैं खुद कॉलेज की व्यस्तता से दौड़कर आया हूँ. 22 दिसंबर से एन एस एस का कैम्प लगाना है. और आज तो संगिनी आती भी नहीं. परसों ही उसके मामाजी अचानक चल बसे. अचानक... अचानक नहीं, हमें अचानक लग रहा है उन्हें पहले ही आभास था. किसी को नहीं बताया कुछ. अपनी तैयारी कर ली. सारे कर्जें चुका दिए. अपनी मृत्यु के पश्चात के सारे क्रिया-कर्म के लिए एक लाख की एफडी करवा दी और बहन को नॉमिनी बना दिया था. चार जोड़ी नए कपडे सिलवा लिए, एक जोड़ी जूते खरीद लिए थे. चाँदी का कड़ा पहने का मन था बहुत दिनों से वह बनवा लिया था. एक खास मित्र कह दिया कि दौसा वाले बहन-बहनोई (मेरे सास-ससुर) को जरूर खबर कर देना. और कोई कुछ नहीं करेगा तो वो लोग जरूर करेंगे. अचानक नहीं गए, तैयारी पूरी थी. सुबह छह बजे दिल का दौरा पड़ा. दोस्त को फोन किया. उसे समय लगा तो खुद ई-रिक्शा कर हॉस्पिटल चले गए. एडमिट हो गए, दोस्त पहुँचा तब तक चल पड़े. दोस्त को दुःख है कि मैं पहुँचा इतना इंतजार तो कर लेता. लेकिन नहीं किया. जो कहना था वो उससे रात को ही कह आए थे. अब क्या कहना-सुनना?
दीक्षांत के बाद दौलत के कमरे पर ही गया. दूध ले गया. वो लोग कमरे पर नहीं थे, कमरा खुला था. बगल के कमरे में दो साथी और रहते हैं. उनमें से एक सो कर उठा था. मैंने कहा- चाय बनाओ तो मेरे लिए भी बना देना. उन्होंने बना दी. थोड़ी देर आराम किया. साढ़े पाँच बजे मुकेश, वीरमाराम और भोमाराम आ गए. गौरव को पता चला कि मैं आया हूँ तो वह भी आ आ गया. बातें हुई, खूब हँसी-ठट्ठा हुआ. वीरमाराम और भोमाराम चले गए. इनका भी दीक्षांत था. दौलत आ गया, पुष्पा आ गई. वीरमाराम और भोमाराम मुझसे पिछले बैच के हैं. मुकेश, दौलत, गौरव, पूजा, पुष्पा... ये बाद के बैच के हैं. पीएचडी से खूब दोस्त मिले और अच्छे दोस्त मिले. नए साथी अभी तैयारी कर रहे हैं. आगामी सहायक आचार्य भर्ती परीक्षा पर उनसे कुछ बात हुई. खाना खाने दिल्ली गेट के मीरा होटल गए. लौटे, फिर बातें. आखिर में गौरव ने 10 बजे स्टेशन छोड़ा. अब उदयपुर न जाने कब जाना हो? इन सबसे न जाने कब मिलना हो? काश ! मिल पाएं. इसी काश ! के आकाश हो जाने का नाम जीवन है.
चर्च : भगवान का घर
मैं आजकल भीड़भाड़ वाली खासकर धार्मिक जगहों पर जाने से बचता हूँ. प्राकृतिक स्थलों पर जाने का मन रहता है लेकिन वे भी फेमस टूरिस्ट स्पॉट न हों. थोड़ा एकांत हो. किसी नदी या समुद्र के किनारे घंटों बैठने का मन है.
एक ढोलो दूजी मरवण... तीजो कसूमल रंग
‘संगत’ में अंजुम शर्मा द्वारा लिया गया मनीषा कुलश्रेष्ठ का इंटरव्यू सुना. उनके सौम्य व्यक्तित्व व सधी हुई भाषा ने आकर्षित किया तो मन बना कि उनकी कोई रचना पढूँ. इससे बहुत पहले रेखा कस्तवार के ‘किरदार जिंदा है’ के धोखे से ‘किरदार’ नाम की किताब किन्डल में डाउनलोड कर ली थी. पढ़ी नहीं थी, लाइब्रेरी में पड़ी थी. अभी फिर से नज़र पड़ी और गौर से देखा तो यह रेखा कस्तवार की नहीं मनीषा कुलश्रेष्ठ की किताब थी. पढना शुरू किया. भूमिका में ही उन्होंने स्पष्ट किया कि ये सभी ‘किरदार’ मुकम्मल किरदार हैं, उन्होंने इनको गढ़ा नहीं है वे बस उनकी संवेदना और कल्पना के रंग में डूबकर कागज पर उतरे हैं. वे पचरंगे पहले से हैं; मनीषा कुलश्रेष्ठ की संवेदना और कल्पना से जुड़कर सतरंगे हो गए हैं. कहानी संग्रह की पहली कहानी है- ‘एक ढोलो दूजी मरवण... तीजो कसूमल रंग’. एक बस कंडक्टर और एक स्कूली टीचर की प्रेम कहानी. इस कहानी को कहने वाली नैरेटर की भी अपनी एक प्रेम-कहानी है. वह भी अपने प्रेमी के साथ उसी बस में है. महानगरीय उन्मुक्त वातावरण से आया यह प्रेमी जोड़ा जो बात-बेबात एक-दूसरे की देह टटोलने में ही प्रेम को जी रहा है और जीता आया है. वह देखता है बस कंडक्टर और स्कूल टीचर का प्रेम. ऐसा प्रेम जिसमें देह का लेशमात्र भी स्पर्श नहीं है.
‘आर्किड’ पूर्वोत्तर के राज्य मणिपुर की कहानी है. सेना के एक डॉक्टर कहानी का नायक है जो प्रोटोकॉल तोड़कर सच्चे चिकित्सक का दायित्व निभाते हुए वहाँ के स्थानीय लोगों और मुठभेड़ में घायल विद्रोही युवाओं का भी इलाज करता है. स्थानीय लोग भी उसे खूब प्यार और सम्मान देते हैं. वे डॉ. वाशी के लिए “पॉलीथीन में भरा बकरी का दूध, शलगमों के गुच्छे, जंगली अदरक की ढेरी, भुट्टे, मुर्गाबियों के अंडे, कछुए के सुंदर खोल... कभी-कभी तो कोटरों से पकड़े तोते” उपहार में लाते. कहानी की नायिका है वहीं की एक स्थानीय युवती प्रिश्का. डॉक्टर वाशी उस अर्ध-प्रशिक्षित युवती को नर्सिंग और कंप्यूटर सिखाता है. प्रिश्का वाशी के लिए अनुवादक का काम भी करती है. डॉक्टर तलाकशुदा है, उसकी एक बेटी है. डॉ. वाशी के दिल में अपनी बेटी और प्रिश्का के साथ अपने एक छोटे-से परिवार की रंगीन कल्पना आकार लेने लगती है. वहीं प्रिश्का एलन नाम के युवा से प्यार करती है. राजनीति और उसके द्वारा पालित मीडिया कभी वहाँ की सच्ची तस्वीर नहीं दिखाते. ब्यूरोक्रेसी को लेकर सुरक्षा बलों में आक्रोश है. सुरक्षा बलों के जवानों द्वारा स्थानीय महिलाओं के साथ की जाने वाली बलात्कार की घटनाओं से उनमें आक्रोश है. ऐसे ही एक विरोध प्रदर्शन के दौरान प्रिश्का का प्रेमी एलन आत्मदाह कर लेता है. इस घटना के बाद प्रिश्का भी डॉक्टर के यहाँ से काम छोड़कर एलन के ग्रुप से जुड़ जाती है. सड़क किनारे आर्किड बेचने वाली अनाथ बच्ची जेना को मिशनरी स्कूल वाले ले जाते हैं और उसके भाई को बौद्ध मोनेस्ट्री वाले. प्रिश्का की पंक्तियाँ जेहन में गूँजती रह जाती हैं- “डॉक, हमारा धर्म तो जंगल था, छोटे कबीले थे, गाँव-खेती...! एवरीबडी हैज़ ईटन अस इन पीसेज़ लाईक ए केक !”
‘लापता पीली तितली’ चाइल्ड अब्यूज की कहानी है जो बताती है कि दरिन्दे हमारे घर में या आसपास ही होते हैं. ‘ब्लैक होल्स’ किशोर वय की प्रेम-कहानी है. ‘ठगिनी’ में बालिका-वध की समस्या का चित्रण है. ‘समुद्री घोड़ा’ वायव और रौद्रा की कहानी है जो एक दुर्घटना में अपना फेंफड़ा और बच्चेदानी गँवा चुके हैं. वायव को एक लड़की का फेंफड़ा लगाया जाता है. इसके बाद उसे अजीब-अजीब सपनें आने लगते हैं. वह कभी-कभी स्त्रियोचित व्यवहार करने लगता है. एक सीनियर डॉक्टर का कहना है कि एक कोशिका की भी अपनी एक मेमोरी होती है हालाँकि विज्ञान के लिए अभी इसे पूरी तरह प्रमाणित करना संभव नहीं हुआ है. रौद्रा के लिए मुश्किल तब होती है जब वायव कहता है कि वह गर्भ धारण करना चाहता है. विज्ञान ने कई बार यह संभव कर दिखाया है कि पुरुष भी माँ बन सकते हैं. इससे दोनों के रिश्ते में दरार आ जाती है. मीडिया इस बात को एक पूरा इवेंट बना देता है.
संग्रह की अंतिम कहानी है ‘किरदार’ जो इसका शीर्षक भी है. इसकी नायिका है मधुरा. कहानी का परिवेश जयपुर का है. मधुरा के पिता चित्रकार है. संगीत और चित्रकला में मधुरा के प्राण बसते हैं. मधुरा का विवाह एक पुलिस अधिकारी अधिराज से हो जाता है. अधिराज स्टेटस सिंबल में जीने वाला आदमी है. मधुरा एक अच्छी पत्नी, बहु और माँ के सभी दायित्वों को निभाती है. सब कुछ ठीक चल रहा होता है कि एक दिन एक छोटा-सा पुर्जा “अब और नहीं” लिखकर वह अपनी जीवन-लीला समाप्त कर लेती है. हैरां-परेशां अधिराज यह जानने में जुट जाता है कि आख़िर क्या वजह रही इस “अब और नहीं” की. और अंत में उसके हाथ लगता है एक खौफ़नाक सच.
मनीषा कुलश्रेष्ठ के पास है- सधी हुई भाषा, बेहतरीन शिल्प, विषय वैविध्य, गहरी संवेदना और कहन का रोचक अंदाज़. और इन सबमें नज़र आता है राजस्थान का स्थानीय संस्पर्श.
सच में डायरी लेखन आत्मा की दास्ताँ है जो आत्मा को जानने का सरलतम मार्ग है।।इसमें पाठक की आत्मा लेखक की आत्मा से जुड़ जाती है।।,,,,,,,,,,उम्दा लेख के लिए बहुत बहुत बधाई सर।।❣️🙏
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