शोध सार : ‘भड़ौ’ उत्तराखंड की विलुप्तप्राय लोकनाट्य विधा है। इस विधा के अंतर्गत उत्तराखंड के ऐतिहासिक और अनैतिहासिक पात्रों की वीर गाथाओं का प्रस्तुतीकरण विभिन्न लोक वाद्य यंत्रों के माध्यम से किया जाता है। लोकनाट्य की इस शैली में वीरों अथवा राजाओं की प्रशस्तिगान करता हुआ ‘भाट’ एकल अभिनयात्मक प्रस्तुति देता है। ‘भड़ौ’ एक मौखिक परंपरा है जिसका अभिनय मेलों तथा विवाह आदि अवसरों पर किया जाता है। ‘भड़ौ’ लोक मनोरंजन की एक सशक्त परंपरा थी, जो अब समाप्ति की ओर है। इस लोकनाट्य विधा के संरक्षण और संवर्धन में अनेक लोक कलाकारों ने अपना योगदान दिया है किंतु इसे पुष्पित पल्लवित करने में झूसिया दमाई का सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। झूसिया दमाई को वीरगाथाएं सुनाने में महारत हासिल थी। झूसिया दमाई का वीरगाथा गायन इतना चर्चित होने का मुख्य कारण था- उनकी अभिनयात्मक व नृत्यात्मक अभिव्यक्ति। भड़ौ के अंतर्गत सकराम कार्की, अजीत बोरा, रणजीत बोरा, सालदेव, जगदेव पवार आदि वीर पुरुषों की गाथाओं का वर्णन किया जाता है।
बीज शब्द : भड़ौ, भड़ा, अभिनय, लोक नाट्य, लोक संस्कृति, वीरगाथा, झूसिया दमाई, हुड़का, पंवाडे़, कटकू, हुड़किया।
मूल आलेख : लोक संगीत आम जनमानस विशेषकर ग्रामीण परिवेश के लोगों के भावों की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है। उत्तराखंड का लोक संगीत भी यहां के इतिहास, संस्कृति तथा भौगोलिक परिदृश्य से जुड़ा हुआ है। उत्तराखंड का लोक संगीत यहां प्रस्तुत किए जाने वाले लोकगीतों, लोक नृत्यों तथा लोकनाट्यों में दृष्टिगोचर होता है। उत्तराखंड की ऐसी ही संगीत प्रधान लोक विधा है-
‘भड़ौ गायकी’,
जो बाद में ‘भड़ौ लोकनाट्य’ के रूप में विकसित हुई। भड़ौ ऐसी लोकनाट्य शैली है जिसमें अभिनय के साथ-साथ संगीत की सभी विधाओं गायन, वादन तथा नृत्य का समावेश रहता है। हालांकि भड़ौ मुख्य रूप से वीरों के गाथा गायन की परंपरा थी, जिसमें अभिनय पक्ष बाद में जोड़ा गया है। भड़ौ में वीरगाथा गायक का लयबद्ध होना तथा सुरीला होना अत्यंत आवश्यक है। किसी भी भड़ौ गायक को सुने तो यह स्वत: अनुमान हो जाता है कि यह भड़ौ गायन वर्षों की कठिन मेहनत का परिणाम है। स्वरों को अनवरत लंबा खींचने तथा गले की विभिन्न हरकतों के द्वारा स्वरों को ऊंचा नीचा करने में यह गाथा गायक अच्छे खासे गायकों को भी मात दे सकते हैं।
“वीरगाथा काव्य, जिन्हें कुमाऊंनी में भड़ौ (भटों-वीरों की गाथाएं) कहा जाता है, में बाफौल, सकराम कार्की, कुंजीपाल, चंद बिखेपाल, दुलासाही, नागी भागीमल, पंचूद्योराल, भामद्यो आदि की गाथाओं को सम्मिलित किया जा सकता है। ऐतिहासिक घटनाओं से संबंधित गाथाओं में कत्यूरी और चंद राजाओं- धामद्यो, समणद्यो, उदैचंद, रतन चंद, भारती चंद की ऐतिहासिक गाथाओं को लिया जा सकता है। उत्तराखंड के इतिहास से संबंधित यह वीरतापूर्ण गाथाएं, वीरोचित चरित्रों तथा उनके पराक्रम तथा रोमांच का प्रतिनिधित्व करती जनमानस को तत्कालीन शौर्यगाथा से परिचित कराती हैं।”1
वीरगाथा : इतिहास और परंपरा - वीरगाथाओं को गढ़वाल में 'पंवाडे़' तथा कुमाऊं में 'भड़ौ' या ‘कटकू’ के नाम से जाना जाता है। यह वीरगाथाएं मध्यकालीन उत्तराखंड की संस्कृति एवं इतिहास की मौखिक परंपरा को समझने और जनसामान्य के सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। मुख्य रूप से यह वीरगाथाएं कत्यूरी और चंद राजाओं से संबंधित हैं। मध्यकालीन उत्तराखंड में सामंत या राजा अपनी सत्ता के लिए परस्पर लड़ा करते थे। वह स्वयं भी वीर होते थे और वीरों को जागीर या वेतन देकर सेना में भी रखते थे। यह वीर मल्ल या भड़ कहलाते थे। गढ़वाल और कुमाऊं के राजाओं के मध्य कई पीढ़ियों तक निरंतर संघर्ष होते गए। इन युद्धों में जिन वीरों या भड़ों ने अपने अद्वितीय शौर्य का परिचय दिया, उनके नाम आज भी उत्तराखंड में क्षेत्रवार सम्मान से लिए जाते हैं और उनकी वीर गाथाओं का गायन और मंचन किया जाता है। “कुमाऊं गढ़वाल की उपलब्ध गाथाओं के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि सामंतवादी व्यवस्था के आरंभ होने से पूर्व ही इनकी रचना लोक में व्याप्त थी। पवाड़ा और भड़ौ को उत्तराखंड में कत्यूरी शासन के बाद हुए अनेक सामंतों के प्रशस्ति गीत कहा जा सकता है। इस पूरे क्षेत्र में प्रचलित वीर गाथाएं 7वीं से 17वीं सदी ईस्वी के बीच रची गई प्रतीत होती है।”2 चूंकि मध्यकाल में कुमाऊं और गढ़वाल के राजा युद्ध काल में सैनिकों में वीर भाव जगाने के लिए गाथा गायक या हुड़का वादकों को भी अपने साथ रखते थे, जो सैनिकों में वीर भाव जगाने के लिए हुड़का आदि लोक वाद्यों को बजाकर वीरता की गाथा गाते थे या राजा का प्रशस्तिगान करते थे। कालांतर में यह लोग इन वीर गाथाओं, जिनमें प्राचीन काल की घटनाओं और चरित्रों का उल्लेख होते रहा, को लेकर जनमानस के बीच चले गए। वर्तमान में उन्हीं की पीढ़ी के लोग तत्कालीन राजाओं तथा उस समय के वीरों या भड़ों पर आधारित गाथा गीत विभिन्न अवसरों पर प्रस्तुत कर अपना जीवन यापन करते हैं। “इन जातियों के पुरुष आर्थिक उपार्जन हेतु थोकदारों, जमीदारों, सामंतों के घर जाकर गाते, बजाते और नाचते थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी स्त्रियों को भी इस व्यवसाय में लगाया। यह प्रथा अब तक प्रचलित रही है, इसलिए प्रेम प्रधान गीतों में कहीं-कहीं रीतिकालीन अश्लीलता के दर्शन भी होते हैं। इन स्त्रियों को नचाने की प्रथा पिछले कुछ दशकों तक दिखाई देती थी। यह जाति इसी पेशे से आजीविका अर्जित करने के कारण निम्न मानी जाती रही। लेकिन यहां के सामाजिक इतिहास को समेटने वाले गीतों और गाथाओं को सजीव और सुरक्षित रखने का श्रेय भी इसी जाति को जाता है।”3 "कत्यूरी शासनकाल में बिजुला नैक (हुड़का वादक) तथा उसकी मां छमनापातर (नर्तकी) का नाम विख्यात रहा है। चंपू हुड़किया और तीलू रौतेली के साथ रणभूमि में उपस्थित घिमडू का नाम भी यहां के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है।"4
“मध्यकाल तक हुड़किया (लोक वाद्य हुड़का धारण किए हुए वीरगाथा गायन करने वाला) शब्द का जिक्र किसी जाति के लिये किये जाने के साक्ष्य नहीं मिलते हैं। इस काल तक उनकी आर्थिक स्थिति और समाज में स्थान दोनों ही अच्छे कहे जा सकते हैं, जो पूरी तरह से राजाओं पर निर्भर थे। मध्यकाल के अंत तक कुमाऊं में उपरी तौर पर तो राजनैतिक स्थिरता आती है, लेकिन नीचे स्थित छोटे-छोटे राजाओं में दरिद्रता की शुरुआत होती है। राजाओं में शुरू हुई इस दरिद्रता का प्रभाव हुड़कियों पर भी पड़ा। अब तक युद्ध में सेना के साथ भेजे जाने वाले हुड़कियों को राजा ने अब कृषि बेगारों के बीच भेजना शुरू कर दिया। राजाओं के खेतों में बेगार देने आई प्रजा के मनोरंजन और उनसे तेजी से काम कराने के लिये हुड़कियों का प्रयोग किया जाने लगा। गाथाओं को जब बिना सजाये संवारे कही गद्य में कहीं पद्य में जल्दी-जल्दी कहानी ख़त्म करने की भावना से जब हुड़किया गाता, तो इसे ‘बौल तारना’ कहते, यहीं से गायन की चम्पू-प्रवृत्ति ‘हुड़किया बौल’ की शुरुआत हुई। इस तरह राज दरबारों से हुड़किया आम जनता के बीच आया। यहीं से हुड़किया एक जाति के रूप में भी समाज में प्रवेश पाता है। आधुनिक काल में हुड़किया गायकों की स्थिति और ख़राब होती गई और उन्हें अछूतों में शामिल कर दिया गया। गांव के बाहर उनके रहने का स्थान बनाया गया। यह स्थिति इतनी ख़राब हो गयी कि एक समय उन्हें अपनी पत्नी और किशोर युवतियों तक को हुड़किया बौल के गायन के दौरान नचाना पड़ा। हुड़किया बौल का गायन करने वाला दम्पति हुड़क्या-हुड़क्यानि कहे जाने लगे। यह परम्परा उत्तराखण्ड के गांवों में नब्बे के दशक तक एक बेहद आम दृश्य में एक थी। वर्तमान में हुड़क्या बौल के दौरान हुड़क्यानि के नाचने के परम्परा स्वतः समाप्त हो गयी है। भारत की आजादी के बाद पहाड़ी क्षेत्रों में पुरुष नौकरी के लिये मैदानी भागों में जाने लगे। ऐसे में खेती का पूरा भार महिलाओं पर आ गया। पहाड़ में महिलाओं ने जब खेती का भार संभाला तो ‘हुड़किया बौल’ में भी परिवर्तन आ गया। अब ‘हुड़किया बौल’ में भड़ौ और कटकू से हटकर न्यौली, चांचरी जैसे गीतों ने प्रवेश लिया। वर्तमान में भी रोपाई के दौरान भड़ौ और कटकू से अधिक विरह गीतों को गाया जाता है। आज भले ही हुड़क्या बौल का जिक्र केवल धान की रोपाई के दौरान आता है लेकिन कुछ दशक पहले तक ‘हुड़क्या बौल’ खेतों में गुड़ाई के दौरान भी गाये जाते थे, जिसे ‘गुड़ौल’ कहते थे। ‘गुड़ौल’ के समय ही अधिकतर भड़ौ और कटकू गाये जाते थे। मडुए के खेतों में गुड़ाई के समय सबसे अधिक रूप से ‘हुड़क्या बौल’ गाये जाते थे। पहले मडुए की खेती पहाड़ों में बहुत ज्यादा की जाती थी इसके कारण कामगारों की हौसलाअफजाई के लिये हाथ में हुड़का लिये हुड़किया ‘हुड़क्या बौल’ का गायन करता था।”5
“हुड़क्या बौल में जिन भड़ौ और कटकू को गाया जाता था, उसमें लोक जीवन के अलावा अपने क्षेत्र का भी सुंदर वर्णन रहता का सुंदर चित्रण रहता था। नरसिंह धौंनी भड़ौ का यह हिस्सा अग्रलिखित है -
उपरोक्त भड़ौ में नरसिंह धौनी (भड़/वीर) डोटी की बालारानी हियाँ से विवाह के लिये जा रहा है और ढोल, दमाऊं जैसे वाद्य यंत्रों तथा निशान (ध्वजा) के साथ बारात के कुमाऊं से प्रस्थान कर काली कुमाऊं, लोहाघाट, रामेश्वर, सोर (पिथौरागढ़, चौपख्या, झूलाघाट आदि स्थलों से गुजरने का वर्णन किया गया है। नरसिंह धोंनी भड़ौ में ही हियाँ रानी के रूप का वर्णन निम्नलिखित प्रकार से किया गया है-
अर्थात् जेठ के आडू से लदे डोके जैसी, सूर्य की ज्योति जैसी, कच्ची हल्दी जैसी, पालक की कली जैसी हियाँ रानी इतनी नाजुक है कि सीते भर भात (चावल का एक पका हुआ दाना) भी खा ले तो उल्टी कर देती है। अंजुली भर पानी पी ले तो उसे जुकाम हो जाता है।”6
भड़ौ लोकनाट्य : वेशभूषा और प्रदर्शन – "भड़ौ एकल नाट्य रूप है। भड़ौ को प्रस्तुत करने वाला व्यक्ति भाट, रैभाट, रणचंप्या, दमैं आदि नामों से जाना जाता है। यह उत्तराखंड की विशिष्ट लोक नाट्य शैली है। इसमें वीरों अथवा राजाओं का प्रशस्ति गायन करता हुआ भाट या चारण एकल अभिनय करता है। इसकी तुलना पंडवाणी से की जा सकती है।"7 "भड़ौ गाथा गायन प्रस्तुत करते समय प्रस्तुतीकार की निश्चित वेशभूषा होती है। रंग बिरंगा घेरदार पेटीकोटनुमा झगुला, कुर्ता, वास्कट, पगड़ी, पैर में घुंघरू, कमर में फेटा और हाथों में लोक वाद्य हुड़का।"8
"भड़ौ में कभी कभी मुख्य प्रस्तुतिकार के पीछे एक या दो हुड़का लिए वादक और सह गायन हेतु 3 से 5 सहगायक होते हैं। भाट द्वारा गाथा गायन के वर्णनानुसार विभिन्न ध्वनियों हावभावों द्वारा आंगिक, वाचिक और कायिकादि अभिनय का प्रदर्शन करता है। उसका अभिनय तब अपने चरम पर होता है, जब सहगायक लंबे आलाप के साथ समूहगान गा रहे होते हैं। इसमें अभिनय केवल मुख्य पात्र (भाट) करता है। एकल अभिनय उसके अभिनय कौशल पर निर्भर करता है। भड़ौ को अभिनय का ऐसा जीवंत संस्पर्श देने वाले झूसिया दमाई का विशेष योगदान रहा है। भड़ौ का आयोजन मेलों, पुत्र जन्मोत्सव तथा विवाह आदि अवसरों पर होता थाI यह लोक मनोरंजन की बड़ी स्वस्थ और सशक्त परंपरा थी, जो अब समाप्त प्राय है। भड़ौ की गायन शैली गद्य पद्यात्मक है। गायन के बीच मुक्तक गीतों का प्रयोग करता हुआ गायक नृत्य भी प्रस्तुत करता है। पहले यह अभिनय और गायन संध्याकाल में भोजन के उपरांत उषाकाल तक अनवरत संपादित होता था। भड़ौ के मंचन के लिए विशेष रंगमंच की आवश्यकता नहीं होती। बस 100 से 500 लोगों के बैठने का स्थान चाहिए। मुख्य पात्र के पीछे खड़े होने के लिए 5 व्यक्तियों का स्थान एवं उसके घूमने फिरने व अभिनय के लिए 12 से 14 फीट का खाली स्थान, यही भड़ौ का मंच है। इसी मंच पर वह अपने एकल अभिनय द्वारा गाथा के पात्रों और घटनाओं का कुशलतापूर्वक अभिनय करता है। इसमें मुख्य पात्र का अभिनय में दक्ष होना अनिवार्य हैI उसमें 4 से 6 घंटे तक दर्शकों को बांधे रहने की क्षमता होनी चाहिएI गीत, नृत्य और अभिनय की त्रिवेणी में दर्शकों को स्नान कराते रहने का सामर्थ्य ही इसकी विशेषता है।"9
“चारकों के द्वारा गायी जाने वाली वीरों की गाथा, भड़ा या भड़ौ का गायक, राजा व योद्धा के प्रशस्ति गायन के साथ ही विभिन्न ध्वनियों, हाव-भाव व संकेतों के द्वारा प्रबंध में सजीवता और नाटकीयता की सर्जना करता है। अभिनव के अन्य प्रकारों के समावेश के कारण भड़ा या भड़ौ, लोकनाट्य के अधिक निकट प्रतीत होता है।”10
झूसिया दमाई और भड़ौ लोकनाट्य- "अपने जीवन के
30 से 35 वर्ष उत्तराखंड राज्य के पिथौरागढ़ जिले के बलुवाकोट कस्बे के ढूंगातोली में बिताने वाले झूसिया दमाई का जन्म
1913 में नेपाल के ग्राम बसकोट में हुआ था।"11
"झूसिया दमाई रणसैनी मंदिर (नेपाल) के खानदानी दमुवां (दमाऊं) वादक और वीर गाथा गायक थे, तो ढूंगातोली (पिथौरागढ़, उत्तराखंड) में वह मंदिर में जाकर द्यौल (नौबत) बजाते और चैत के महीने में घर-घर जाकर ऋतुरैण गाते-सुनाते थे।"12
झूसिया दमाई मुख्यत:
'भड़ौ' गायक के रूप में प्रसिद्ध थे। कुमाऊं और नेपाल में वीरों की गाथा को भड़ौ कहा जाता है।
"16 नवंबर 2005 को झूसिया दमाई की मृत्यु के साथ ही कुमाऊं में भड़ौ गायकी, वीरगाथा गायन की एक परंपरा का भी अंत हो गया। अपनी लोक गायन की कला से उन्होंने उत्तराखंड और नेपाल की सांस्कृतिक पहचान को भी जीवित रखा ही था, साथ ही यहां की इतिहास की मौखिक परंपरा को भी जीवित रखा था। इसलिए उनका निधन भारत और नेपाल दोनों की साझी विरासत के लिए आघात था। नेपाल के ग्राम बसकोट में जन्मे झूसिया दमाई की जीवन यात्रा
92 वर्ष की आयु में उनकी जन्मभूमि ग्राम बसकोट में ही समाप्त हुई, जहां वे हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी देवगाथा गायन के लिए गए हुए थे।"13
झूसिया दमाई को वीरगाथाओं का ज्ञान विरासत में मिला था तथा संग्राम कार्की उनकी प्रिय वीरगाथा थी। संग्राम कार्की (सकराम कार्की) उत्तराखंड के चंद वंशीय शासक विजय चंद और त्रिमल चंद के समय का वीर था।
"संग्राम कार्की की वीर गाथा को झूसिया दमाई जहां से चाहे शुरू कर सकते थे, जहां से चाहे समेट सकते थे। झूसिया का संग्राम कार्की सुन लिया, तो समझिए झूसिया पूरे सुन और देख लिए। इसलिए कि झूसिया वीरगाथा सिर्फ सुनाते नहीं, बल्कि सुनाने के साथ-साथ उसकी नृत्यात्मक अभिनयात्मक अभिव्यक्ति भी करते थे। मौखिक परंपरा की जितनी भी शैलियां झूसिया जी के पास थी, लोकाभिव्यक्ति की बहुरंगी अभिव्यंजना और स्पष्टता, सौंदर्य बोध की गहराई, मुहावरों और ध्वनि के बिम्बों का खजाना, लोक संगीत, लयकारी की विविधता इन सब का प्रयोग झूसिया संग्राम कार्की की गाथा को सुनाने में करते थे।”14
"झूसिया के अनुसार, इस अंचल में
22 भड़ौ (वीर) खास तौर पर प्रसिद्ध हैं। जिनमें छुराखाती, भीम कठायत, संग्राम कार्की, सौन रौत, रन रौत, लाल सौन, सौन माहरा, कालू भंडारी, उदाई छपलिया, नर सिंह धौनी आदि शामिल हैं। झूसिया दमाई कहते हैं कि कुमाऊं और नेपाल में महाभारत गाथा, जागर गाथा, त्रिमल चंद, विक्रम चंद, मुनशाही, खांशाही, पैक सोन, भनारी कठायत,
12 ठकुरी पैक, कालिका देवता,
33 कोटि देवता, ध्वज, थल केदार, शिवनाथ, छिपलाकेदार, लटपापू, ननपापू, ठगुरी चंद, गुंसाई गाथा, अलाई मल, छुरमल, भागी मल, गंगनाथ, गोलू देवता और भूत आत्माओं के जागर व गाथाएं प्रचलित हैं।"15
झूसिया दमाई का वीरगाथा गायन इतना चर्चित होने का एक मुख्य कारण है, उनकी अभिनयात्मक नृत्यात्मक अभिव्यक्ति, जो इस वीरगाथा को एक लोकनाट्य का रूप देती है। लोकनाट्य की यह शैली भड़ा या भड़ौ कहलाती है। गिरीश तिवारी 'गिर्दा' के अनुसार,"झूसिया दमाई का यह 'भड़ौ' उन्हें छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध पंडवानी गायिका तीजन बाई के नजदीक ले जाता है। अभिनयात्मक नृत्यात्मक अभिव्यक्ति में झूसिया, तीजन से अपने हुड़का वादन के कारण आगे ठहरते हैं। आगे वह कहते हैं कि मैं झूसिया को तीजन से महान साबित नहीं कर रहा हूं, यह न मेरा उद्देश्य है और न ही वास्तविकता। मैं बस अपनी बात को समझाने के लिए तीजन का सहारा भर ले रहा हूं। यह सच्चाई है कि नाचते नाचते हुड़का बजाना, उस पर लयकारी दिखाना तथा ताल से खेलना झूसिया अद्भुत तरीके से करते थे।"16
भड़ौ लोकनाट्य का महत्व - भड़ौ लोकनाट्य लोक संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से अवगत होने का एक सशक्त माध्यम है। जिसमें संगीत के तीनों तत्वों गायन, वादन तथा नृत्य के समावेश के साथ साथ अभिनय पक्ष का भी समावेश रहता है, जो इसके महत्व को और बढ़ा देता है। दर्शक या जनमानस गाथा के साथ एक अपनापन अनुभव करते हैं। गाथा गायक जब वीर रस में गाथा को गाता है तो जनमानस में भी वीरता का भाव उत्पन्न होता है। गाथा में किसी स्थान पर भावुक क्षण आने पर आम जनमानस भी भावुक हो जाता है। इस प्रकार ग्रामीण अंचलों में जहां आधुनिक संसाधनों की कमी है, वहां यह लोकनाट्य उनके मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम बन जाता है। इसमें गाथा को गद्य तथा पद्य रूप में एक कहानी के समान प्रस्तुत किया जाता है। जिसके फलस्वरूप यह गाथा प्रस्तुति की पूरी समयावधि में दर्शकों को बांधे रखती है। “इन वीरगाथाओं में हिमालय क्षेत्र के विभिन्न राजाओं, सरदारों और योद्धाओं के बीच हुए युद्धों का वर्णन मिलता है। साथ ही इनमें मध्य युग के सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन का इतिहास भी मिलता है। कुछ गाथाएं यहां के ऐतिहासिक राजाओं जैसे- ज्ञानचंद, भारती चंद, अजय पाल, मानशाह तथा प्रीतम देव आदि से भी संबंधित हैं। इन गाथाओं को ढोल, दमामा, डोर, थाली अथवा हुड़के आदि बजाते हुए गाया जाता है। इन्हें मौखिक रूप से जीवित रखने का श्रेय मुख्य रूप से यहां की शिल्पकार जातियों को जाता है। ये लोकगाथाएं इस हिमालयी क्षेत्र के लोक जीवन और लोक संस्कृति की सर्वांगीण झांकी प्रस्तुत करती हैं।”17
भड़ौ लोकनाट्य सामाजिक सौहार्द बनाए रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है। शिल्पकार वर्ग के औजी लोगों द्वारा इस लोक नाटक की प्रस्तुति की जाती है तथा समाज के अन्य वर्गों द्वारा इसके मंचन के समय अपनी भागीदारी दी जाती है और प्रस्तुतिकार का उत्साहवर्धन किया जाता है तथा उन्हें अपनी क्षमता के अनुरूप भेंट प्रदान की जाती है। तत्कालीन युद्धों का वर्णन, वीरों तथा राजाओं की वेशभूषा, उस समय की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति आदि का वर्णन इन वीर गाथाओं में देखने को मिलता है। कई गाथाओं में वीर कन्याओं को युद्ध में जीत कर ले आते हैं तथा कई वीर गाथाओं में प्रेम प्रसंगों का भी उल्लेख मिलता है। राजा या वीर ने अपने जीवन काल में किन संकटों का सामना किया, किन किन युद्धों में विजय प्राप्त की, उसका स्वभाव कैसा था, उसका राज्य कैसा था, इन सब का उल्लेख वीर गाथाओं में किया जाता है। हालांकि इसमें तत्कालीन वीरों और राजाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन प्राप्त होता है, लेकिन इसके बावजूद यह हमारे इतिहास की मौखिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। मेलों, विवाह तथा अन्य सामूहिक उत्सवों पर भड़ौ लोकनाट्य आकर्षण का महत्वपूर्ण केंद्र बन जाता है।
निष्कर्ष एवं सुझाव : भड़ौ के अध्ययन से पता चलता है कि यह वाचिक परंपरा के मूल स्रोत हैं तथा इस क्षेत्र के इतिहास को सामने लाने का काम करते है। साथ ही इसमें इस क्षेत्र की भौगोलिक संरचना, संस्कृति और लोक जीवन का वर्णन भी प्राप्त होता है। हालांकि इन भड़ौ/वीरगाथा के रचयिता अज्ञात है बावजूद इसके यह हमारे लिए ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इसमें स्थानीय तत्वों का समावेश भी मिलता है। क्षेत्र विशेष का वर्णन, रीति रिवाज, रहन-सहन, अनुष्ठान, अंधविश्वास, रूढ़ियों आदि का उल्लेख भी इनमें देखने को मिलता है। इस लोकनाट्य में संगीत और नृत्य का अद्भुत संगम भी दिखाई देता है तथा वाद्य यंत्र के रूप में कांसे की थाली, हुड़का, ढोल, दमाऊं जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। लोक विधा भड़ौ के प्रस्तुतीकारों ने ना केवल वीरों की गाथाओं का गायन कर जनमानस का मनोरंजन किया, बल्कि मध्यकालीन कुमाऊं (उत्तराखंड) के इतिहास को संजोने तथा आने वाली पीढ़ी को सौंपने का भी काम किया। लेकिन वर्तमान में हमारा ग्रामीण परिवेश भी आधुनिकता से अछूता नहीं रहा है। वहां भी अब धीरे धीरे आधुनिक संसाधनों की पहुंच होने लगी है। इस वजह से भड़ौ लोकनाट्य और इस तरह के जन सामान्य के मनोरंजन के अन्य रुपों में कमी आई है। भले ही भड़ौ के रचनाकारों के बारे में हमें कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती, फिर भी उनके द्वारा रची गयी जाने वीरगाथाओं से हमें उत्तराखंड के चंद राजवंश, कत्यूरी राजवंश के साथ ही नेपाल के मल्ल राजवंश तथा पाल वंशीय राजाओं की वीरगाथाओं का भी ज्ञान होता है। भारत और नेपाल की साझा लोक संस्कृति को दिए गए इन रचनाकारों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। अतः वर्तमान में आवश्यकता है कि इन गाथाओं को संकलित किया जाए। मात्र वीर गाथाओं का संकलन करके ही लोक संस्कृति का संरक्षण नहीं किया जा सकता क्योंकि गाथा गायन तथा गाथा की प्रस्तुति का भी अपना अलग महत्व है। चूंकि ढोल और दमाऊं वादकों तथा गाथा गायकों द्वारा इतिहास की मौखिक परंपरा को बढ़ाने तथा संस्कृति संरक्षण का काम किया जा रहा है, इसलिए सरकार को इनके लिए मासिक वेतन की व्यवस्था करनी चाहिए। वर्तमान में शिल्पकार वर्ग के इन परिवारों को अपनी आजीविका के लिए अपना यह परंपरागत पेशा छोड़ना पड़ रहा है, क्योंकि उनके सामने रोजी रोटी का संकट है। अगर उन्हें सरकार द्वारा मासिक वेतन या सहायता प्रदान की जाती है तो वह अपना यह परंपरागत पेशा बिना किसी दुविधा के आगे बढ़ा सकते हैं। भड़ौ गायकों तथा ढोल, दमाऊं व हुड़का वादकों की प्रतिभा को आगे बढ़ाने के लिए जगह-जगह पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जा सकता है। जिससे एक तरफ इनकी कला का प्रचार प्रसार होगा वहीं क्षेत्र विशेष में पर्यटन की संभावनाएं भी बढ़ेंगी।
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