गुजरे जमाने से
गुजर
रहा
था
कि
एक
याद
ने
बरबस
पास
बिठा
लिया।
कोई
भी
एक
घर
जैसा
घर।
आँगन
जैसाआँगन!
माँ
जैसी
माँ
और
बच्चे
जैसा
बच्चा!
घर
में
आँगन, आँगन
में
माँ, माँ
में
ममता!
ममता
की
छाँव
- माँ
की
गोद।
गोद
में
बच्चा!
अचानक
कोई
आता।
बच्चा
शरमाकर
माँ
के
आँचल
की
ओट
हो
जाता।
फिर
आश्वस्त
होने
के
लिए
कि
आगंतुक
अब
भी
उसकी
ओर
देख
तो
नहीं
रहा, बच्चा
आँचल
की
ओट
से
जरा
सा
झाँकता
और
आंगतुक
हँसता
हुआ
बोलता
- 'त्या!’ और
बच्चा
सकुचाकर
फिर
ओट
हो
जाता।
वह
ओट
आँचल
के
अलावा
किंवाड़
का
पल्ला, तणी
पर
सूखता
हुआ
या
तन
पर
पहना
हुआ
कपड़ा, माँ
की
गोद
या
पीठ
कुछ
भी
हो
सकता
था।
कुछ
भी!
धीरे-धीरे
बच्चा
खुद
भी
'त्या’ बोलने
लगता
और
जब
कोई
ज्यादा
ही
तंग
करता
तो
'त्या’ का
जवाब
होता
- 'हाप्प।
’
बच्चा
ज्यादा
रोता, सोता
नहीं
तो
कहा
जाता, ‘‘अरे
चुप्प
नहीं
तो
'हाऊ’ ले
जाएगा।
बच्चा
सहम
कर
चुपा
जाता।
यही
दो
पाठ
हैं
जो
हम
पीढ़ी
दर
पीढ़ी
हर
बच्चे
को
घुट्टी
के
साथ
घोटकर
पिलाते
आ रहे
हैं
- 'त्या’ माने
अजनबी
द्वारा
देख
लिए
जाने
का
भय, संकोच!
'हाऊ’ माने
अज्ञात
का
भय
और
‘हाप्प’ माने
….हाप्प
सिखाया
नहीं
जाता।
जब
'हाऊ’ का
दबाव
हद
से
ज्यादा
बढ़
जाता
जाता
है
तो
'त्या’ तिलमिलाहट
में
बदलकर
होंठों
पर
'हाप्प’ की
शक्ल
में
आ जाता
है।
पर
यह
तो
अभी
दूर
की
कोड़ी
है
त्या
का
तिलिस्म
टूटना
इतना
आसान
कहाँ
है? अभी
तो
बच्चा
'बच्चा’ है।
कुछ बरस
बाद
वह
संकोची
बच्चा
जब
स्कूल
पहुँचता
तब
उसके
साथ
उसका
अदृश्य
'त्या’ भी
स्कूल
पहुँच
जाता।
जब
भी
कोई
उससे
कुछ
पूछता
जवाब
आने
के
बावजूद
'त्या’ कुछ
बोलने
न देता।
मास्टर
जी
को
'परनाम
गुरजी’ तक
न कहने
देता।
खड़ा
होने
को
कहते
तो
बच्चा
मौन
की
ओट
तलाशता।
गुरुजी
साक्षात
'हाऊ’ नजर
आते
और
बच्चे
का
'हाप्प’ कंठ
तक
पहुँचने
से
पहले
ही
दम
तोड़
देता।
मगर
इसी
'हाप्प’ और
'हाऊ’ के
अदृश्य
संघर्ष
के
बीच
एक
दिन
ऐसा
भी
आता
कि
बच्चा
'त्या’ को
जीतकर
अध्यापक
के
'क्या’ का
जवाब
दे
देता
और
अध्यापक
के
मुँह
से
निकलता
'वाह
स्याबास!’
उस
दिन
बच्चे
को
लगता
कि
अरे
जब
तक
डर
है
तभी
तक
दुनिया
'हाऊ’ है।
एक
बार
अगर
डर
को
जीत
लिया
जाए
तो
'हाऊ’ भी
ताऊ
नज़र
आने
लगेगा।
इतना
डरने
की
जरूरत
नहीं
और
तब…धीरे-धीरे
वह
'त्या’ से
क्या
की
तरफ
बढ़ने
लगता।
इसी
'त्या’ से
'क्या’ तक
के
सफ़र
का
नाम
पढ़ाई
है।
तो
भई
हमारी
क्लास
में
उनतीस
'त्या’ थे।
क्लास
थी
पाँचवीं।
लड़कों
की
ड्रेस
थी
'जाँग्या-चोळ्या
(नेकर-कमीज)'। जैसे
चोली-दामन
का
साथ
होता
है
वैसे
ही
'जाँग्या-चोळ्या’ का
भी
साथ
होता
है।
इज्जत
बचाने
और
लज्जा
ढकने
की
जिम्मेदारी
शुरू-शुरू
में
जांग्या
की
होती
जो
धीरे-धीरे
‘चोळ्या’ के
भी
जिम्मे
आती
जाती।
दरअसल
होता
यह
था
कि
जांग्या
जिसे
खुगन्या
भी
कहा
जाता
था
वह
पीछे
इज्जत
वाली
जगह
से
पहले
तो
जालीदार
होता
फिर
वक्त
गुजरने
के
साथ-साथ
जाली
भी
लुप्त
हो
जाती
और
उसकी
जगह
गाड़ी
की
हेडलाइन
की
तरह
दो
मोखियाँ
खुल
जातीं।
इन
मोखियों
पर
पर्देदारी
का
काम
चोळ्या
को
करना
होता।
हालांकि
चोळ्या
को
यह
अतिरिक्त
प्रभार
अस्थायी
रूप
से
मिलता
था।
महीने-
बीस
दिन
में
जैसे
ही
माँ
को
फुरसत
मिलती
किसी
पुराने
कपड़े
की
'कारी
(थेगली)’ काटकर
वे
मोखियाँ
पैक
कर
दी
जातीं।
लेकिन
वह
महीना-बीस
दिन
बड़ी
मुश्किल
से
निकलता।
मास्टर
साब
किसी
सवाल
का
जवाब
देने
के
लिए
खड़ा
करते
तो
हाथ
सबसे
पहले
पीछे
पहुँच
कर
चोळ्या
को
ड्यूटी
पर
मुस्तैद
करते।
कॉपी
जाँच
करवाने
जाते
वक्त
एक
हाथ
बिना
कहे
जरूरत
की
जगह
पहुँचकर
चोळ्या
को
यथास्थान
खींचकर
ले
आता।
मुश्किल
तब
होती
जब
मास्टर
जी
बच्चे
से
बोर्ड
पर
कुछ
लिखवाते।
और
लिखवाते
भी
हमेशा
बोर्ड
के
अधबीच
या
उससे
भी
ऊपर।
बच्चा
एड़ियाँ
उठाकर
पूरा
'लफकर
(आगे
झुककर)’ लिखता
जिससे
'बुरसेट’ (चोळ्या/
बुश्शर्ट)
अपसेट
हो
जाता
और
‘खुगन्या’ की
खिड़कियों
का
लोकार्पण
हो
जाता।
सारा
करुण
रस
एकाएक
हास्य
रस
में
बदल
जाता।
क्लास
की
आगे
की
दो
पंक्तियाँ
'श्रद्धा’ से
सजदे
में
झुक
जातीं।
जो
'अनावरण
कार्यक्रम’ के
विधिवत
सम्पन्न
होने
के
बावजूद
देर
तक
झुकी
रहतीं।
इन आगे
की
दो
पंक्तियों
में
बैठती
थीं
लड़कियाँ।
जो
लड़कों
के
खाकी
'खुगन्या’ और
सफेद
चोळ्या
की
बजाय
सफेद
कुर्ता
और
स्याही
रंग
का
नीला
घेर
(स्कर्ट)
पहनकर
आती
थीं।
सभी
लड़कियाँ
कपड़े
बड़े
जतन
से
पहनती
थीं।
अनावरण
तो
छोड़िए
यादों
की
खुदाई
में
घेर
के
'कारी’ लगे
होने
या
जालीदार
होने
तक
का
कोई
ऐतिहासिक
साक्ष्य
नहीं
मिलता।
अनावरण
का
अवसर
हम
लड़कों
के
हिस्से
ही
आता।
और
हाँ, यह
अनावरण
कार्यक्रम
ज्यादातर
गणित
के
मास्टर
जी
के
सान्निध्य
में
सम्पन्न
होता
था।
जैसे
अलग-अलग
युग
में
अवतार
लेने
पर
भी
प्रभु
का
एकमात्र
लक्ष्य
'धर्म
का
उद्धार’ करना
होता
है
वैसे
गणित
के
मास्टर
का
किसी
भी
स्कूल
के
क्यों
न हों
उनका
अवतार
गणित
में
कमजोर
और
कामचोर
बच्चों
का
उद्धार
करने
के
लिए
ही
होता
है।
किसी
को
भी
गणित
में
कमजोर
देखते
ही
वे
फौरन
उसके
उद्धार
में
लग
जाते
हैं।
हमारा
युग
भी
इसका
अपवाद
नहीं
था।
हमारे
गणितीय
गुरुजी
को
जैसे
ही
पता
चलता
कि
अमुक-अमुक
बच्चे
का
गणित
में
हाथ
तंग
है
तो
वे
उन
'तंग
हाथ
वाले
बच्चों’ के
'हाथों’ को
ही
तंग
करने
के
लिए
हाथ
धोकर
पीछे
पड़
जाते।
जिन
बच्चों
के
हाथ
में
विद्या
की
रेखा
नहीं
होती
उनके
हथेली
और
पीठ
पर
अपनी
'जादुई
छड़ी’ से
वे
मोटी-मोटी
कृत्रिम
रेखाएँ
बना
देते।
इस
पर
भी
संतोष
नहीं
होता
तो
कभी-कभी
उन
बच्चों
के
गालों
पर
अपनी
हस्तरेखाओं
की
फोटोकॉपी
प्रत्यारोपित
करने
की
कोशिश
करते
मगर
अफसोस
गाल
पर
अंगुलियाँ
जरूर
छपी
नज़र
आतीं
पर
विद्या
वाली
हस्तरेखा
तब
भी
स्थानांतरित
नहीं
हो
पाती।
अच्छा तो
अपन
बात
कर
रहे
थे
लड़कियों
की।
लड़कियाँ
लम्बे
बालों
में
दो
चोटियाँ
बनातीं।
चोटियों
में
फीते
बाँधकर
उन्हें
फुँदने
का
रूप
देतीं।
स्कूल
शुरू
होने
के
समय
दो-तीन
जणी
मिलकर
प्रार्थना
गाने
की
अगुवाई
करती।
लड़के
छोटे
बालों
को
तिल
या
सरसों
के
तेल
से
चुपड़कर
टेढ़ी
टाळ
काढ़ते
हुए
'पट्टे
बाते
(बाल
संवारते)’ और
छुट्टी
से
पहले
'म्हारनी’ बुलवाते
- ‘इकावळी
को
ए..को!
दुवै
का
दो…तीयै
का
तीन।
’
लड़कियों की
लिखावट
सुंदर
होती
तो
लड़कों
की
कलात्मक!
कुछ
लड़के
लिखते
तो
हिंदी
में
मगर
लिखावट
देखनेवाले
को
भ्रम
होता
जैसे
ऊर्दू
में
लिखा
हो।
स्याही
में
डुबोकर
मकोड़े
(चींटे)
को
कागज
पर
छोड़ने
से
जैसी
कलात्मक
आकृतियाँ
कागज
पर
बनने
की
संभावना
होती
है
वैसी
ही
आकृतियाँ
हम
लड़के
कलम
से
अपनी
कॉपी
में
बना
देते।
हालांकि
यह
बात
अलग
है
कि
सिंधुघाटी
सभ्यता
की
लिपि
पढ़ने
में
जैसे
विद्वान
असफल
रहते
आए
हैं
वैसे
ही
हमारी
लिखी
लिपि
को
पढ़ने
में
अध्यापकों
को
भी
सफलता
नहीं
मिलती
थी।
कॉपी
जाँच
करवाते
वक्त
अध्यापक
बेहद
नासमझी
दिखाते।
कहते,’‘ क्या
लिखकर
लाए
हो
पढ़कर
बताओ!’‘
अब
आप
ही
बताओ
जो
चीज
अध्यापकों
को
ही
पढ़नी
नहीं
आती
वह
हमें
कैसे
आ सकती
थी।
हालांकि
वह
लिखी
हमारी
ही
होती।
लड़कियाँ कविताएँ
याद
करने
और
चित्र
बनाने
में
कुशल
समझी
जातीं
तो
लड़के
गणित
में
तेज
समझे
जाते।
इस
तरह
लड़के
और
लड़कियों
के
लिए
स्पष्ट
विभाजन
वाले
उस
युग
में
लड़कों
का
सिर
और
लड़कियों
की
धड़
लेकर
स्कूल
पहुँची
उस
'लड़के
जैसी
लड़की’ को
सबने
विचित्र
प्राणी
के
रूप
में
लिया।
घेर-कुर्ता
तो
ठीक
है
पर
सिर
का
चटल्या
(चोटी)
किसने
कतर
दिया।
छोरों
वाले
से
बाल!
बांयी
तरफ
निकली
हुई
टाळ!
छोरों
वाले
से
ही
पट्टे
बाए
(बाल
संवारे)
हुए।
और
बाल
भी
काले
कहाँ? ऊपर-ऊपर
से
भूरे-
सुनहरे
और
भीतर-भीतर
से
हल्के
काले!
बावजूद
इसके
नाक
में
काँटा, कानों
में
बालियाँ!
बाँयीं
ओर
मुफाड़(होठों
के
एक
कोने
से
दूसरे
कोने
तक
की
माप)
के
नीचे
ठुड्डी
की
तरफ
झुका
हुआ
चोट
या
जले
का
निशान!
गेहुँआ
रंग।
कौन
है
यह!
सब
सोचकर
रह
गए।
भीतर
बैठा
'त्या’ कुछ
भी
पूछने
से
बरजता
रहा।
कौओं
के
झुंड
में
घुस
आई
घुर्सली
(मैना)
की
तरह
ही
उस
नवागत
अजनबी
लड़की
को
महसूस
हुआ
होगा।
क्लास और
स्कूल
का
माहौल
मास्टर
पर
निर्भर
करता
है।
एक
मास्टर
आए।
मास्टर
नहीं
बल्कि
हेडमास्टर।
मूळजी!
पेमली
बैर
की
घुटली
से
भी
अधिक
मजबूत
तो
आकड़े
के
डोडे
से
निकली
रूई
की
फुद्दी
से
भी
ज्यादा
नरमदिल
और
कोमल।
नये-नये
प्रयोग
करें।
स्कूल
में
खूब
दरख़्त
लगवाएँ।
प्रार्थना
में
बच्चों
से
हर
हफ़्ते
एक-एक
बुरी
आदत
छोड़ने
का
संकल्प
दिलाएँ।
पढ़ाएँ
तो
लगे
खिला
रहे
हैं, खिलाएँ
तो
लगे
पढ़ा
रहे
हैं।
एक
दिन
म्हारनी
के
कालांश
में
बोले
आज
म्हारनी
कोई
लड़कियों
में
से
बुलवाओ।
तमाम
लड़कियों
ने
'त्या’ के
वशीभूत
होकर
गर्दन
झुका
ली।
हेडमांट
साब
बोले, ‘‘अरे
उठो, उठो!
कोई
तो
उठो।
’‘
सबने देखा
वही
लड़की
उठी।
छोरों
जैसे
बालों
वाली।
सामने
आई, कमर
से
नीचे
दाएँ-बाँएँ
मुठ्ठियों
में
घेर
(स्कर्ट)
को
कसे
हुए
खड़ी
हो
गई
सबके
सामने।
गुरुजी
की
तरफ
देखा।
उनका
इशारा
पाते
ही
पहाड़े
बुलवाने
शुरू
-
नौ, दस, ग्यारा…बारा…पूरे
बत्तीस
तक
पहाड़े
बुलवाए
उस
लड़की
ने।
कमाल
हो
गया।
अध्यापकों
ने
शाबाशी
दी।
उस
दिन
से
सबकी
निगाहों
में
उसका
रुतबा
बढ़
गया।
किसी
ने
खाली
क्लास
में
कहा
इसका
सिर
ही
नहीं
'दिमाग’ भी
छोरों
वाला
सा
है।
सुनते
ही
उसने
तपाक
से
कहा, ‘‘थे
(आप)
छोरा
ठेको
ले
राखे
है
के
दिमाग
को।
आया
हैं
पिट्या
दिमाग
का!’‘
कुछ
छोरों
ने
आपस
में
बात
की, ‘‘बहुत
हुश्यार
की
पूँछड़ी
बन
रही
है।
’‘
क्लास में
दो-तीन
वरिष्ठ
नागरिक
लड़के
थे।
वे
यदि
परीक्षा
का
भव
सागर
पार
कर
जाते
तो
हमारे
अग्रज
हो
सकते
थे
और
पढ़ाई
की
मोह-माया
छोड़
देते
तो
क्लास
के
पूर्वज
हो
सकते
थे
मगर
वे
हम
नौसीखियों
को
अपने
अनुभव
का
लाभ
देने
के
लिए
दो-तीन
साल
से
उसी
क्लास
में
रुके
थे।
वे
स्वभावतः
कुछ
कुचमादी
(शरारती)
थे।
उन्हें
उस
परंपरागत
खाँचे
में
अनफिट
लड़की
की
प्रशंसा
नहीं
सुहाई।
लड़की
पहाड़ों
ही
नहीं
गणित
के
दूसरे
सवालों
में
भी
तेज
थी।
गणित
के
सवाल
हल
करते
समय
वाक्य
के
शुरू
में
तीन
टिमकियाँ
(बिंदियाँ
. :) लगाते
थे
जिन्हें
'चूंकि’ और
'इसलिए’ कहा
जाता
था।
ये
'चूँकि’ और
'इसलिए’ हमें
हमशक्ल
जुड़वाँ
बहनों
सी
लगती
थी।
आज
भी
ठीक-ठीक
नहीं
पता
कि
'चूँकि’ कौनसी
होती
है
और
'इसलिए’ कौनसी।
बस
यह
पता
था
कि
'चूंकि’ आ गई
तो
'इसलिए’ को
आना
ही
है।
लेकिन
वह
लड़की
बड़ी
चंट
(तेज)
थी।
तकरीबन
हर
सवाल
एक
बार
में
ही
समझ
में
आ जाता।
इसी
कारण
वह
गणित
की
आधी
मास्टर
समझी
जाने
लगी
थी।
एक
दिन
गणित
का
कालांश
पूरा
होते-होते
मांट
साब
तो
चले
गए
पर
एक
अधूरा
सवाल
बॉर्ड
पर
लिखा
छोड़
गए
जिसे
वही
लड़की
हल
कर
रही
थी
तभी
क्लास
में
पीछे
बैठे
एक
वरिष्ठ
नागरिक
लड़का
जो
आयतन
और
क्षेत्रफल
की
दृष्टि
से
कक्षा
का
सबसे
बड़ा
लड़का
था
उसने
बैर
(फल
विशेष)
की
गुठली
उठाकर
लड़की
की
टमचरी
(सिर)
में
मारी।
लड़की
तुरंत
मुड़ी
और
सिर
सहलाते
हुए
रोस
भरे
स्वर
में
बोली, ‘‘अरै
तेरी
माऽऽनै
देऊँ।
”
लड़की
को
लगभग
पता
था
कि
गुठली
किसने
फैंक
कर
मारी
है
मगर
खुद
ने
आँख
से
नहीं
देखा
इसलिए
क्या
कर
सकती
थी।
एक
दिन
आखिर
के
दो
कालांशों
में
खेल
के
लिए
नियत
थे।
दो-
तीन
क्लासों
के
बच्चे
इकट्ठे
थे।
गुरु
जी
ने
पूछा
क्या
खेलोगे? समवेत
स्वर
में
जवाब
मिला, “कोल्डो!”
सब गोल
घेरे
में
बैठे।
गुरुजी
के
गुलीबंद
(मफलर)
को
बँटकर
'कोल्डा’ बनाया
गया।
एक
बच्चा
उस
कोल्डे
(कोड़े)
को
लिए
खिलाड़ियों
के
गोल
घेरे
के
दौड़ते
हुए
चक्कर
लगाने
लगा।
सब
गा
रहे
थे
-
पीछे देखे मार खाई।
कोड़ा है कमाल…। ”
धावक दौड़ते-दौड़ते गोल घेरे में बैठे किसी बच्चे के पीछे चुपके से कोड़ा रख देता। वह बच्चा कोड़ा लेकर पहले धावक के पीछे मारने दौड़ता मगर वह तेज दौड़कर पीछा करते खिलाड़ी द्वारा खाली की गई जगह जाकर बैठ जाता। खेल-खेल में किसी ने उसी नयी लड़की के पीछे कोड़ा रख दिया। वह उठी और अनिच्छुक सी अपने आगे दौड़ते लड़के का पीछा करने लगी। लड़का ने सामान्य गति से दौड़कर भी बिना एक भी कोड़ा खाए गोल घेरे में स्थान ग्रहण कर लिया। साथी खिलाड़ियों ने तंज कसा, ‘‘हुश्यार की पूछड़ी यह कोई जोड़-बाकी थोड़े ही है। ’‘ लड़की चुपचाप दौड़ती रही। एक चक्कर…दो चक्कर…तीन चक्कर….चार…पाँच…छह…। अब सबका ध्यान लड़की मूर्खता पर था। किसी के पीछे तो कोड़ा रखो। सात…आठ…। आठवाँ चक्कर लगाकर लड़की आई और जमीन पर रखा कोड़ा उठाकर लड़के को कोड़े लगाने लगी पूरी ताकत से..हँह्..हँह..हँह्…हँह्….हँह्..। पिटनेवाला कुछ देर तो समझ ही नहीं पाया कि हुआ क्या था। ज्यादातर की तरह उसका ध्यान भी लड़की के निरुद्देश्य दौड़ेने पर था। मगर लड़की ने बड़ी सावचेती से लड़के के पीछे इस तरह कोड़ा रखा था कि लड़के को खुद तो क्या उसके अगल-बगल बैठे खिलाड़ियों को भी भनक तक न लगी। स्थिति समझ में आने के बाद लड़का दौड़ने लगा मगर लड़की ने दौड़ा-दौड़ाकर भी चार-पाँच कोड़े जमा ही दिए। लड़की ने भरपूर हाथ आजमाए और हाँ पिटनेवाला लड़का वही था जिसने क्लास में पीछे से बैर की घुटली फैंक कर मारी थी। पूरी कार्यवाही में जानमाल का कोई नुकसान नहीं हुआ पर यह लड़की की मनौवैज्ञानिक जीत थी। उसने यह साबित कर दिया था कि दिमाग पढ़ाई में ही नहीं खेलों और बाकी तमाम क्षेत्रों में भी मददगार है।
लड़के और उसकी वरिष्ठ मंडली की मात हुई। हालांकि मित्र मंडली ने अपने स्वभाव के मुताबिक कुछ और कोशिशें भी की। वे उस लड़की का नया नाम खोजकर लाए - 'मटरू'। पता नहीं यह नाम आविष्कार था या अनुसंधान पर जल्दी ही यह समूची स्कूल में प्रसिद्ध हो गया। हम 'क्रिया’ की बजाए 'संज्ञा केंद्रित’ समाज हैं। किसी की क्रिया पसंद न हो तो उसकी संज्ञा बिगाड़ दो। आदमी जब-जब अपना नाम सुनेगा - लिखेगा तब- तब शर्मिंदगी और कमतरी महसूस करता रहेगा। 'मटरू’ नामकरण के पीछे व्याकरण का यही नियम था।
साल
के
आखिर
में
जब
फैल-पास
सुनाने
का
दिन
आया
तो
मटरू कक्षा
में
दूसरे
स्थान
पर
थी।
गणित, विज्ञान
और
अंग्रेजी
में
तो
उसके
सबसे
ज्यादा
नंबर
थे।
महज
थोड़ी
'सामाजिक’ में
स्थिति
तुलनात्मक
रूप
से
कमजोर
थी।
मगर
वह
पढ़ती
रही।
डेढ़
कोस
पैदल
चलकर
स्कूल
पहुँचती।
स्कूल
से
पहले
और
बाद
में
उसे
घरेलू
कामों
में
मदद
करनी
होती।
खेती
के
काम
में
हाथ
बटाना
होता, पशुओं
को
भरोटी
(हरा
चारा)
डालने
का
काम
करना
होता।
मटरू
यह
सब
करती
मगर
इस
सब
के
बावजूद
भी
पढ़ती।
स्कूल
में
भी
पढ़ती
ही
नहीं
बल्कि
खेलों
में
भाग
लेती।
सांस्कृतिक
कार्यक्रमों
में
हिस्सा
लेती।
नाचती-गाती।
हिंदी-अंग्रेजी
की
अंत्याक्षरी
में
हिस्सा
लेती।
मुझे
एक
किस्सा
याद
आता
है।
वही मूळ
जी
गुरुजी
थे
क्लास
में।
मुहावरों
का
खेल
खिलवा
रहे
थे।
एक
मुहावरा
लड़कों
से
पूछें, एक
लड़कियों
से।
शुरू-शुरू
में
दोनों
ओर
से
एक-एक
मुहावरे
के
जवाब
के
लिए
कई-कई
हाथ
खड़े
हो
रहे
थे।
मगर
धीरे-धीरे
उत्तर
दाताओं
की
संख्या
सिमटने
लगी।
अंत
वह
संख्या
महज
दो
रह
गई।
लड़कों
में
मैं
था
तो
लड़कियों
में
मटरू।
गुरुजी
बोले
दोनों
खड़े
हो
जाओ।
आगे
आ जाओ।
देखते
हैं
दोनों
में
से
कौन
विजेता
बनता
है।
मैं
आगे
चला
गया
मगर
मटरू
नहीं
आई।
कारण
वही
'त्या!’ लोग
क्या
कहेंगे!
गुरुजी
ने
दो
एक
बार
आग्रह
किया, आओ!
मगर
मटरू
तब
भी
नहीं
उठी।
गुरू
जी
का
चेहरा
तमतमा
गया।
बोले, “खड़ी
हो।
कल
को
छोरे
के
साथ
जाएगी
नहीं
क्या?’‘
मटरू
ने
डबडबाई
आँखों
से
गुरुजी
को
देखा
और
पता
नहीं
क्या
सोचकर
स्वाभाविक
रूप
से
मगर
इंकार
में
सिर
हिला
दिया।
गुरु
जी
ने
फिर
भी
जोर
डाला।
थोड़ा
स्नेह
दिखाया, -’‘
उठो, बेटा!
इसमें
क्या
है!’‘
मटरू
उठी
लेकिन
जैसे
हारने
के
लिए
ही
उठी
हो।
मटरू चार-पाँच साल साथ पढ़ी मटरू। हर बार गणित, विज्ञान, अंग्रेजी में अव्वल आती। कक्षा में पहला-दूसरा स्थान लाती। सब उसे होनहार छात्रा मानते रहे। मगर उसके 'होनहार’ को कुछ और ही मंजूर था। उसकी एक बड़ी बहन थी जो दो छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर चल बसी। 'होनहार’ बलवान होता है किसी का बस नहीं चलता। साल-डेढ़ साल बाद उसी होनहार मटरू को 'होनहार बलवान’ के चलते दो बच्चों के बाप और उम्र में दस-बारह बरस बड़े दुहाजू जीजा के साथ ब्याह दिया गया। बहन के जाने का ग़म अपनी जगह, जीजा की गृहस्थी संभालना, बहन के बच्चों को माँ का प्यार देना अपनी जगह लेकिन मटरू में जो संभावना थी अपने जमाने की लड़कियों से कुछ अलग, कुछ खास कर पाने की वह कहीं भीतर ही भीतर दबा दी गई। संभव है उसे जल्दी कुछ समझ न आया हो कि वह क्या है साली, घरवाली, माँ या युवती होती एक किशोरी जिसे बस एक अदृश्य 'चूँकि’ के स्थान पर चस्पा दिया गया हो। 'चूँकि’ उसकी बहन थी 'इसलिए'...वह..। 'चूँकि’ और 'इसलिए’ का चेहरा गड्डमड्ड है। जैसे दो हमशक्ल बहनें हों..। सपनों के गोल घेरे में बैठी मटरू की पीठ जैसे जिंदगी ने हालात के कोड़े से घड़ दी हो और वह उफ् तक न कर पाने की स्थिति में हो। समाज का…हालात का ..कोड़ा है कमाल भाई!
संस्मरणों द्वारा हमें अपने बचपन की सैर करने के बहाने किसी बड़ी सामाजिक विडंबना की ओर बेहद सफाई से ध्यान आकर्षित करने वाले भाई हेमंत जी के अपनी माटी पत्रिका के 51 वें अंक में प्रकाशित संस्मरण *'मटरू : कोड़ा है कमाल भाई'* से कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र:
जवाब देंहटाएं1. इसी त्या' से 'क्या' तक के सफर का नाम पढ़ाई है।
2. हम क्रिया की बजाय संज्ञा केंद्रित समाज हैं। किसी की क्रिया पसंद ना हो तो उसकी संज्ञा बिगाड़ दो।
3. चूंकि और इसलिए का चेहरा गड्डमड्ड है। जैसे दो हमशक्ल बहनें हो।
4. सपनों के गोल घेरे में बैठी मटरू की पीठ जैसे जिंदगी ने हालात के कोड़े से घड़ दी हो और वह उफ़ तक नहीं कर पाने की स्थिति में हो। समाज का, हालात का... कोड़ा है कमाल भाई।
भाईसाहब के भाषा चयन पर हमेशा दिल लट्टू हुआ रहता ही है।
संपादक माणिक सरकार ने इस बार ठीक ही नामकरण किया है - डॉ. हेमंत के संस्मरण... और साथ में पंचलाइन: 'शेखावाटी की सुगंध'.
लेखक महोदय और पत्रिका के संपादकद्व्य को अकूत बधाई।
विष्णु कुमार शर्मा
दौसा
एक टिप्पणी भेजें