शोध सार : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जन जागृति में साहित्य का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। साहित्य अपने समय का इतिहास है जिसमें तत्कालीन समाज प्रतिबिंबित होता है। औपनिवेशिक दौर में जब्त हुए हिंदी कथा साहित्य का अध्ययन करने पर उसमें तत्कालीन युग चेतना उजागर होती है। प्रतिबंधित उपन्यासों की एक प्रमुख विशेषता यह रही कि इसका प्रधान स्वर राष्ट्रीयता है। इन उपन्यासकारों ने अपनी लेखनी से विपरीत परिस्थितियों में भी राष्ट्रीयता के ज्वार को कम नहीं होने दिया। भारत के औपनिवेशिक दौर में ऐसा कोई भी साहित्य है जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन में लिखा गया, ब्रिटिश शासन द्वारा उसे प्रतिबंधित कर दिया गया। यह शोधालेख हिंदी के प्रतिबंधित कथा साहित्य के अंतर्गत प्रतिबंधित उपन्यास ‘पैरोल पर’ एवं ‘गद्दर’ पर आधारित है। हिंदी के ये प्रतिबंधित उपन्यास भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का वह दस्तावेज़ है जिसने ब्रिटिश सत्ता को हिलाकर रख दिया। ग़ुलामी से मुक्त होने की छटपटाहट एवं जन जागृति इन प्रतिबंधित उपन्यासों में देखने को मिलती है।
बीज शब्द : प्रतिबंधित, औपनिवेशिक, स्वतंत्रता
संग्राम, राष्ट्रीय चेतना, क्रांति, संघर्ष, साहित्य, सेंसरशिप, ज़ब्त, सात्विक प्रेम, त्याग, बलिदान।
मूल आलेख : 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से अंग्रेज़
शासक बौखला गए जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने देशवासियों पर अनेक जुल्म किए। इस
संग्राम का जो भारतीय समाज पर प्रभाव पड़ा उसे हम साहित्य में देख सकते हैं। ‘साहित्य के इतिहास में यह स्थिति आश्चर्य पैदा करती
है की इतना विपुल मात्रा में साहित्य लिखा गया है जो इस बीच में प्रतिबंधित कर
दिया गया और हम सबके सामने नहीं आ सका जिसका ज़िक्र ना हिंदी साहित्य के इतिहास में
मिलता है और ना ही नवजागरण के अध्येताओं के यहाँ मिलता है फिर भी आधुनिक युग की
राष्ट्रीय चेतना एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में मौजूद है इस बात से अब इनकार नहीं
किया जा सकता कि यदि यह रचनाएँ भी सम्मिलित कर ली जाए तब साहित्य का स्वरूप कुछ और
बन पड़ेगा।’[1]
हिंदी के
प्रतिबंधित उपन्यासों को देखें तो दो उपन्यासों के प्रतिबंधित होने की जानकारी
प्राप्त होती हैं, हालाँकि
बांग्ला और अन्य भाषाओं से अनुदित उपन्यासों
की सूची लंबी है। हिंदी के प्रतिबंधित उपन्यासों में प्रथम उपन्यास ‘गद्दर’ है। इसके
लेखक ऋषभ चरण जैन है और दूसरा उपन्यास ‘पैरोल पर’ है जिसके लेखक ब्रजेंद्रनाथ गौड़ हैं। “आधुनिक युग की सांस्कृतिक चेतना का प्रतिनिधि कला
रूप बनने के लिए उपन्यास को कठिन संघर्ष करना पड़ा है। आधुनिक युग के प्रतिबंधित
और तरह-तरह के सेंसरशिप के शिकार साहित्य का अगर कोई ब्योरा तैयार किया जाए तो
उसमें सबसे अधिक संख्या उपन्यासों की ही होगी। उपन्यास के विरोध के अनेक कारण रहे
हैं। आरंभ से ही उपन्यास की कला में निहित लोकतांत्रिक चेतना का विरोध सामंती
चेतना की ओर से होता रहा है।”[2]
‘गद्दर’ उपन्यास-
ऋषभ चरण
जैन के प्रतिबंधित उपन्यास ‘गद्दर’ प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित है। ऋषभ
चरण जैन की अमर कृति ‘गद्दर’ उपन्यास सन 1857 की
क्रांति पर आधारित है । यह उपन्यास प्रकाशित होते ही अंग्रेज़ी सरकार द्वारा ज़ब्त
कर लिया गया । भारत के औपनिवेशिक काल के दौरान प्रतिबंधित इस उपन्यास को दिग्दर्शन
चरण जैन, ज्ञान पब्लिकेशन दिल्ली के सौजन्य से पाठको के समक्ष
सन 1952 में पुनर्प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है।
पुनर्प्रकाशित इस उपन्यास की प्रकाशकीय भूमिका में लिखा है- “ऋषभचरण जैन हिंदी के पुराने लेखक हैं। उनका यह
उपन्यास आज से प्राय 20 वर्ष
पहले प्रथम बार प्रकाशित हुआ था। परंतु तत्कालीन सरकार ने इसे अपनी नीति के
विरुद्ध समझकर प्रकाशित होने के साथ-साथ ही ज़ब्त कर लिया और इसका प्रचार रुक गया।
विदेशी शासकों ने क्रांतिकारी तथा 1857 के प्रथम
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित प्राय: सभी साहित्य को जब तब ज़ब्त कर लेना अपनी
एक नीति बना ली थी। इसीकी चपेट में श्री ऋषभचरण जी की अनेक पुस्तकें भी आई।
प्रस्तुत उपन्यास गद्दर भी उनमें से एक था।”[3]
संपूर्ण
उपन्यास 11 अध्यायों- मेम की फ़रियाद, गदर का सूत्रपात, दिल्ली की
खबर, प्रणय का
मूल्य, गदर योजना, मराठों
का प्रण, नाना साहब का विवेक, अंग्रेज़
का हृदय, रंग में भग, पागल-खूनी, हार की खबर शीर्षकों में विभक्त है। उपन्यास का आरंभ
मेम की फरियाद प्रसंग से होता है जिसमें नाना साहेब अपने यहाँ अंग्रेज़ी अफसर को
भोज में आतिथ्य सत्कार हेतु बुलाते हैं परंतु अचानक उन्हें यह समाचार मिलता है कि
मेरठ में गदर हो गया है। “नाना साहब
ने कहा- मेरठ में गद्दर हो गया”[4] इस समाचार
से नानासाहेब चिंतित होते हैं और इससे भी ज़्यादा उन्हें इस बात का दुख होता है कि
उनके अंग्रेज़ मित्र भोज में सम्मिलित नहीं हो पाएँगे। नाना साहेब का अंग्रेज़ शासकों
के प्रति श्रद्धा रखने का एक प्रमुख कारण
यह भी था कि उन्होंने मुगल शासन व्यवस्था में शोषण, अत्याचार, अव्यवस्था और उन्हें भारतीयों पर जुल्मों को करते
देखा इसीलिए उन्हें अंग्रेज़ शासन को देश के लिए श्रेयस्कर माना और वे उनके लिए
आदरणीय थे। अजीमुल्ला खान और नानासाहेब में अभी वार्तालाप हो ही रहा था कि अंग्रेज़ी
मेम आकर न्याय की पुकार करती हैं कि रामचंद्रराव ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया है
और उन्हें इसकी सज़ा दी जाए। प्रत्युत्तर में नानासाहेब रामचंद्र राव को 3 वर्ष के कारागार का दंड देते हैं। उपन्यास की कथा शृंखला
में गद्दर का सूत्रपात को दिखाया गया है कि नानासाहेब अंतिम पेशवा बाजीराव के
दत्तक पुत्र और उत्तराधिकारी थे परंतु अंग्रेज़ी शासन की कूटनीति और धूर्तता के
कारण बाजीराव जब पूना के सिंहासन से पदच्युत हुए और उनकी मृत्यु होते ही नानासाहेब
को पेंशन मिलनी बंद हो गई। अंग्रेज़ी शासको के प्रति अंधश्रद्धा और विश्वास होने के
कारण नाना साहेब के मन में यह आश्वासन था कि उनके अंग्रेज़ मित्र पेंशन प्राप्ति
में उनका सहयोग करेंगे। इस हेतु वे अपने मंत्री अजीमुल्ला खान को लंदन भेजते हैं परंतु
अजीमुल्ला खान को वहाँ किसी भी प्रकार का सहयोग नहीं मिलता जिससे उन्हें अंग्रेज़ों
के कपट का पता चला और यही समय यूरोप और
क्रीमिया युद्ध का समय था। अजीमुल्ला खान वहाँ संग्राम क्षेत्र में जाते हैं तो वह
देखते हैं- “भारतवर्ष से आया हुआ करोड़ों मन अनाज
संग्राम भूमि में जमा है। उसी के बल पर अंग्रेज़ फ्रांसीसियों को मानो मोल ख़रीदे
हुए थे। उसी के बल पर रूस की तोपों से मर मरकर भी जी रहे थे, उसी के बल पर वे
युद्ध भूमि में अपनी शक्ति अक्षुण्ण बनाए हुए थे और भारतवर्ष से छिनी हुई रोटी के
बल पर ही उन्होंने यूरोप में अपना आतंक जमा रखा था।”[5] अजीमुल्ला
खान उस युद्ध क्षेत्र में खड़े होकर मातृभूमि को ग़ुलामी के बंधनों से मुक्त कर
स्वतंत्र करने के लिए प्रतिज्ञा करते हैं और ऐसी क्रांति और विद्रोह की भावनाएँ
लेकर भारत में आते हैं। उनके नेतृत्व में गद्दर दल का संगठन कानपुर में, बिठूर में होता है जिसमें टीकमसिंह, दामोदरदास, नाना
साहेब के भाई बलराव, बाबा
भट्ट, तात्या टोपे, रामचंद्र
राव और अन्य अनेक देशभक्त गद्दर दल के सदस्य सम्मिलित है। समिति के सदस्य
सिपाहियों के वेश में अंग्रेज़ी छावनियों में सम्मिलित हो गए और अंग्रेज़ी हुकूमत को
भारत से उखाड़ फेंकने के लिए देश सेवा में तैयार होने लगे। कथाक्रम में अजीमुल्ला
खान व युवक के मध्य वार्तालाप के माध्यम से 1857 की
क्रांति के आरम्भ और उसकी असफलता के कारणों का पता चलता है कि संगठन एकता, नेतृत्व
कौशल का अभाव, सीमित संसाधन, मध्यवर्ग की भागीदारी न होना आदि ऐसे कारण थे जिससे
1857 की क्रांति एक दिन पहले ही प्रारंभ हो गई जो इसकी
असफलता का कारण बनी। कथाक्रम की शृंखला में ‘प्रणय का
मूल्य’ शीर्षक में मैना और अजीमुल्ला खान के सात्विक प्रेम
तथा देश के प्रति प्रेम, त्याग, समर्पण के मूल्यों की उद्भावना की गई है। “मैना मालती से कहने लगी- कैसी दुर्दशा है? कैसी विडंबना है? रियासत
छिनी, गद्दी छिनी, पेंशन
छिनी, अब रहे-सहे को भी ये पापी फिरंगी हड़प किया जा रहे
हैं।”[6] मैना का यह कथन विदेशी शासन ने किस प्रकार से भारतवर्ष
को पराधीन कर खोखला कर दिया गया है; को संकेतित करता है, वही उसके
भारतीय नारी के उदात्त चरित्र की सृष्टि करता है। “जब अजीमुल्ला खान मैना से कहता है. एकबार फिर बता दो, कब तुम्हें पाऊंगा? तो
प्रतिउत्तर में मैना कहती है- अच्छा सुनो, जिस दिन
तुम भारत-वसुंधरा को विदेशियों के शासन से मुक्त करोगे और विजय का सेहरा बाँधकर
मेरे पास आओगे, उसी दिन मुझे पाओगे।”[7] मैना का
चरित्र सामान्य भारतीय नारी के चरित्र से भिन्न न होते हुए भी असाधारण हैं। वह
जितनी सरल, सहज, सुंदर है
वही अवसर आने पर उतनी ही कठोर, साहसी भी
है। उसमें जहाँ एक ओर नारी हृदय की कमज़ोरियाँ हैं, वहीं उन पर विजय प्राप्त करने
की क्षमता तथा अपने हदय की दिव्यता की रक्षा करने के लिए आत्म बलिदान से भी वह
पीछे नहीं हटती हैं। “मैना बोली-
एक तरफ़ कर्तव्य है, दूसरी तरफ़
प्रेम; एक तरफ़ देश की भलाई है, दूसरी तरफ़ अपनी; एक तरफ़
वीरता-पूर्ण मृत्यु है, दूसरी तरफ़
कायरतापूर्ण जीवन; समझ में
नहीं आता, किस रास्ते को पकडू और मोह के फंदे से किस प्रकार
निकलूं।”[8] मैना का
यह कथन व्यक्तिगत प्रेम और राष्ट्र प्रेम के द्वंद्व को दर्शाता है और राष्ट्रप्रेम पर व्यक्तिगत प्रेम की आहुति
और त्याग पर बल देता है। उपन्यास के कथा क्रम में दिखाया जाता है कि मेरठ में
क्रांति की असफलता के बाद स्वतंत्रता सेनानी, क्रांतिकारी
निराश न होकर देश को आज़ाद कराने के लिए प्रतिबद्ध रहते हैं और तात्या, बालराव, बाबाभट्ट, टीकम सिंह, अजीमुल्ला
खान आदि युवक क्रांति की व्यूह रचना का
निर्माण करते हैं। गद्दर योजना के निर्माण
में तात्या बोला- “अभी कुछ
नहीं बिगड़ा है। दस अंग्रेज़-अफसर
इस समय कमरे में है। उन्हें कैद कर लिया जाए। टीकमसिंह जाए और सेना सहित फिरंगियों
के अस्पताल*धावा बोल दे…।”[9]
गद्दर योजना के निर्माण के दौरान अजीमुल्ला खान सभी
को मैना के साथ अंग्रेज़ सैनिक द्वारा किए गए दुर्व्यवहार के बारे में बताते हैं और
कहते हैं कि वह दिन दूर नहीं जब नानासाहेब की अंग्रेजों के प्रति जो श्रद्धा है वह
समाप्त हो जाएगी और फिरंगियों के कपट और उनका गिरगिटिया व्यवहार उनके समक्ष आ
जाएगा। वही मैना अपने पिता नानासाहेब पर स्वयं के साथ हुए अभद्र व्यवहार पर कटाक्ष
करती है। “मैना उत्तेजित होकर बोली- बाबा तुमने इन
अंग्रेज़ों की हद से ज़्यादा ख़ातिर करके अपना मान खो दिया। तुम उन्हें अपना मित्र
समझते हो, वे तुम्हें अपना गुलाम, अपना आश्रित, अपना
कुत्ता समझते हैं! बाबा-तुम बड़े अंधेरे में हो।”[10] मैना के साथ अंग्रेज़ सैनिक द्वारा किए
गए दुर्व्यवहार से नाना साहेब आहत थे, वहीं अजीमुल्ला खान से जब उन्हें यह पता
चलता है कि अंग्रेज़ सेनापति द्वारा गोरे सैनिक को क्षमा कर दिया गया है तब नाना साहब
के समक्ष अंग्रेजों की न्यायप्रियता का महत्त्व समाप्त हो जाता है। “नानासाहेब
क्रोध से बिलबिलाने लगते हैं। तलवार घुमाते
और यह कहते कमरे से बाहर निकल गए- फिरंगियों का नाश होगा, सेनापति का गला काटूँगा, चार्ल्स का कलेजा फाड़ेगा।”[11] नाना
साहेब1857 की क्रांति के दौरान कानपुर के दृश्य से विचलित हो
जाते हैं और अजीमुल्ला खान से कहते हैं कि फिरंगियों से कहो कि वह आत्मसमर्पण कर
सेनापति व्हीलर को हमें सुपुर्द कर दे। नाना साहेब की दयाशीलता के कारण सिपाहियों
द्वारा गोलाबारी बंद कर दी जाती है, अंततः अंग्रेज़ 27 जून को
आत्मसमर्पण कर देते हैं परंतु अंग्रेज़ी सैनिकों और भारतीय सिपाहियों के मध्य एक ग़लतफहमी
से भीषण नरसंहार होता है और सेनापति व्हीलर की गोली लगने से मृत्यु हो जाती है।
फिरंगियों के साथ युद्ध में एक तरफ़ भारतीय स्वतंत्रता सेनानी स्वतंत्रता की वेदी
में अपने प्राणों की आहुति देते हैं तो दूसरी तरफ़ देश के प्रति अपने कर्तव्य
निर्वाह के लिए मैना अपनी प्राणों का बलिदान देती है।
उपन्यास के अंत में एक तरफ़ तो 1857 की क्रांति के दर्दनाक दृश्य को दिखाया जाता
है- “27 जुलाई को
हज़ारों असफल देशभक्तों का नाम-निशान मिट गया और एक खूनी अत्याचारी जनरल; जनरल हैवलॉक का नाम अंग्रेज़ी इतिहास में सदा के लिए
अमर हो गया इस अत्याचारी के अत्याचार का दिग्दर्शन निम्न उद्धरण से करते हैं- ‘‘जनरल हैवलॉक ने सर ह्यू व्हीलर की मृत्यु के लिए
भयंकर बदला चुकाना शुरू किया।
हिंदुस्तानियों के गिरोह के गिरोह फाँसी पर चढ़ गए….।”[12]
मैना अजीमुल्ला खान को कर्तव्य पथ पर बढ़ने में
स्वयं को बाधा मानती है और देशप्रेम पर अपने व्यक्तिगत प्रेम को न्यौछावर कर अपने
प्राणों की आहुति देती है; इस समाचार
से अजीमुल्ला खान आहत हो फिरंगियों को मृत्युलोक भेज रहे थे और अंत में उन्होंने
एकबार कातर होकर ज़ोर से कहा- “मैना!...
प्यारी! मैं आया…..!! तब
उन्होंने दाएं हाथ में कटार ली, बाएं हाथ
से सिर के बाल कसकर पड़े.और एकबार- फिरंगियों का नाश! कहकर कटार ज़ोर से गर्दन पर
फेर ली!! एक हाथ में अपना कटा हुआ सिर था, दूसरे में कटार और रक्त की तीन लंबी
मोटी पिचकारिया छूट रही थी!!।”[13]
‘पैरोल पर’ उपन्यास-
उपन्यास ‘पैरोल’ पर
ब्रजेंद्रनाथ गौड़ द्वारा लिखा गया था जिसे 1943 में
प्रकाशित होते ही प्रतिबंधित कर दिया गया था। कोई भी ऐसी रचना जिसे ब्रिटिश हुकूमत
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समर्थन में
लिखा हुआ मानती थी या जिसमें अंग्रेज़ी सत्ता के प्रति विद्रोह प्रतिबिंबित होता है
ऐसी हर रचना को प्रतिबंधित कर दिया जाता था। ‘पैरोल पर’ उपन्यास का आरंभ रस्तोगी, कपूर, अमिता की
बातचीत से होता है जिसमें मिल में मज़दूरों द्वारा की गई हड़ताल पर बातचीत होती है
। “अखबार मेज़ पर रखकर उसने भेद भरी दृष्टि से अमिता की
मुस्कराती हुई आँखों के मादक भोलेपन को देखा और कहा- जी हाँ, उम्मीद भी है कि हड़ताल के इतिहास में इस हड़ताल का
ख़ास महत्त्व होगा। हमें इतनी सफलता की तो आशा भी नहीं थी। इसबार मज़दूरों ने निश्चय
कर लिया है कि भूखों मर जायेंगे, पर अधिकार
लेकर मानेंगे। रस्तोगी
ने कहा- तो आप लोगों ने निश्चय कर लिया है कि हमें चैन से न बैठने देंगे? कपूर ने
उपहास की हँसी हँसते हुए कहा- और आपने भी तो ग़रीब मज़दूरों को भूखे मारने का निश्चय किया है। आप यह नहीं
सोचते कि जिनकी मेहनत से आप लाखों रुपए कमाते हैं, उन्हें आप उसे मेहनत के एवज में देते ही
क्या है ।”[14]
कथाक्रम
आगे बढ़ता है जहाँ कपूर मज़दूर के श्रम एवं उसके मूल्य पर बात करते हुए कहता है कि मज़दूरों
से अधिक काम लिया जाता है परंतु पारिश्रमिक उसे अनुपात में नहीं मिलता उनको अपनी
आवश्यकताओं को पूरी करने के लिए इतना मेहनताना भी नहीं मिलता कि वह अपनी
आवश्यकताओं को पूरा कर सकें और जब अपने आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपने श्रम के
मूल्य के लिए वे माँग करते हैं, हड़ताल पर
जाते हैं तो उनकी माँगों को, हड़ताल को दबाने के लिए उनका दमन किया जाता है, पुलिस बुलाई जाती है, गोलाबारी
होती है जिसमें मज़दूर मारे भी जाते हैं; बाद में
संपूर्ण घटनाक्रम पर मशविरा बनाया जाता है, समझौते के
लिए बुलाया जाता है और कोई मध्यम मार्ग निकालने के लिए, इस प्रकार से संवाद के दौरान रस्तोगी के समक्ष कपूर
हड़ताल को समाप्त करने के संबंध में सुझाव देता है परंतु रस्तोगी उन सुझावों को
नहीं मानता और कपूर वहाँ से चला जाता है। अमिता रस्तोगी को समझाते हुए कहती हैं कि
कपूर को वापस बुलाकर इस हड़ताल को समाप्त करना उचित है क्योंकि अगर समझौता नहीं
हुआ तो मिल बंद होगी जिससे मज़दूर को तो नुकसान होकर ही होगा उतना ही तुम्हें भी
नुकसान होगा। इन बातों को सोचते हुए रस्तोगी कपूर को वापस बुलाता है और विचार
विमर्श करते हुए माँगों को मान लिया जाता है और हड़ताल खत्म कर दी जाती हैं।
उपन्यास में अमिता के कपूर की तरफ़ आकर्षित होने और उसके प्रेम के भावों को स्पष्ट
किया गया है और दूसरी तरफ़ शंकर भी अमिता को चाहने लगा है परंतु अमिता उसके प्रति
आकर्षित नहीं होती जिससे शंकर, कपूर के ख़िलाफ़
संगठन को बढ़ाता है और उस पर आरोप लगाता है की कपूर ने रस्तोगी से मिलकर आंदोलन को
कमज़ोर किया और और अपनी जेब भारी की है और इस प्रकार से वह स्वयं को मज़दूर नेता
घोषित कर देता है। इस संपूर्ण घटनाक्रम से कपूर बहुत दुखी होता है और कानपुर शहर
छोड़कर बनारस चला जाता है और बनारस से मिर्जापुर चला जाता है दूसरी तरफ़ रस्तोगी को
भी मिल से निकाल दिया जाता है। उधर कपूर मज़दूरों के लिए चिंतित है किसी कार्य से
कपूर मिर्जापुर से लखनऊ जाने के लिए रेल में बैठता है तो वहाँ दो व्यक्तियों की
बातचीत से कानपुर के घटनाक्रम के बारे में पता चलता है कि शंकर में नेतृत्व शक्ति
नहीं कि वह मज़दूर संगठन को संभाल सके, उनके
विवादों को खत्म कर सकें। वह उनकी बातें सुनता रहता है और कुछ भी नहीं बोलता हैं।
आगे जब ट्रेन बहराइच पहुँचती है तो वहाँ पर बंगाल कम्युनिस्ट पार्टी की नेत्री
शीला उन व्यक्तियों से बात करती है और कहती है कि कपूर इसी ट्रेन में है उसे खोजो
क्योंकि लखनऊ में पुलिस उसको गिरफ्तार करने के लिए खड़ी है इसके पश्चात कपूर व
मार्क्सवादी संगठन में बहस होती है जिस पर शीला कहती है कि “हमारा प्रांत इस ओर शीघ्रता से आगे बढ़ रहा है
मिस्टर कपूर! हम लोग गुप्त रूप से संगठन कर रहे हैं। वहाँ हमारी पार्टी में तीन सौ
से ज़्यादा ऐसे सदस्य हैं जो प्राणों को हथेली पर लेकर काम करने को तैयार हैं। देश
अहिंसा से स्वतंत्र न होगा।”[15]
आरंभ में
रस्तोगी मिल मालिक है, सामंती व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है, वहीं कपूर मज़दूरों
का नेता है जो गांधीवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है। कथा में दिखाया गया
संघर्ष केवल मालिक और मज़दूर का संघर्ष न रहकर देश को ग़ुलामी के बंधनों से आज़ाद कर
समाज के हर वर्ग में समानता की स्थापना करना बन जाता है। इस संबंध में जमीर का कथन– “आप जानते
हैं कि हमारा मुल्क गुलाम है मज़दूरों को मज़दूरी ज़्यादा दिलाने के लिए हड़तालें
करवाने से ही ग़ुलामी दूर नहीं होगी, हमें अपने मुल्क के बच्चे-बच्चे के लिए
काम करना है।”[16] इधर रस्तोगी शीला, विजय, अनिल, जमीर आदि मिलकर देश को स्वतंत्र करवाने के लिए
संघर्षरत है। शीला का यह कथन कि देश प्रेमियों के लिए देश से बढ़कर कुछ भी नहीं को
संकेतित करता है- “वे देश के
लिए गोलियों का शिकार होकर जीवनभर का वेतन एक साथ पाए जाते हैं।”[17] रस्तोगी, विजय को अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा गिरफ्तार कर लिया
जाता है और कपूर सांप्रदायिक दंगों को रोकने के प्रयास में पुलिस द्वारा पकड़ लिया
जाता है। दूसरी तरफ़ अमिता के घर पुलिस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित
देशभक्तों एवं मार्क्सवादी पार्टी के सदस्य को पकड़ने के लिए पहरा बिठाए है। अमिता
अनिल को बचाने के लिए भागती है और सीढियों से गिरकर उसकी मौत हो जाती है और उसकी
अंतिम विदाई देने के लिए रस्तोगी पन्द्रह दिन की परौल पर जेल से छोड़ा जाता है।
निष्कर्ष : 1857 की क्रांति पर आधारित ‘गद्दर’ उपन्यास में मैना और अजीमुल्ला खान के सात्विक प्रेम, त्याग, बलिदान के माध्यम से मानवीय मूल्यों की स्थापना कर देश के प्रति अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए आत्मोसर्ग करने वाले वीरों को जहाँ श्रद्धांजलि दी गई है वहीं दूसरी ओर विदेशी सत्ता से देश को स्वतंत्र करने के लिए रची गई योजनाओं, विदेशी शासन के षडयंत्रों, जनता पर, अंग्रेज़ी शासन द्वारा किए गए अत्याचारों और शोषण का बड़ा यथार्थवादी चित्रण किया गया है। ‘पैरोल पर’ संपूर्ण उपन्यास में सामंतवादी, अंग्रेज़ी शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष में किस प्रकार गांधीवादी विचारधारा और मार्क्सवादी विचारधारा आदि विचारधाराएँ एक साथ संघर्ष करती हैं, को दिखाया गया है। उपन्यास में मिल मालिक और मज़दूरों के मध्य का संघर्ष का चित्रण तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों की ऐतिहासिकता तथा प्रामाणिकता के पक्ष का द्योतक है। उपन्यास का प्रत्येक पात्र अपने वर्ग, विचारधारा, दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है। इन उपन्यासों में स्वातंत्र्य आंदोलन में स्त्री वर्ग की भूमिका मुखर होकर आई है। अमिता एवं शीला नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है-परिस्थितियों से निपटना, उनकी राजनीतिक चेतना, मनोदशा आदि का चित्रण कर उपन्यासकार द्वारा नारी चेतना के तार्किक स्वरूप को परिणीति दी है। उपन्यासकार द्वारा इस उपन्यास में हड़ताल की पृष्ठभूमि से कथा का आरंभ कर उसकी परिणति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े संघर्ष के रूप में करते हुए क्रांतिकारी पात्रों की सृजना की है जहाँ पुरुष पात्रों में रस्तोगी, कपूर, शंकर, विजय, अनिल, जमीर आदि राजनीति के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन करते हैं वही स्त्री पात्रों में अमिता, शीला आदि नारी पात्रों की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को प्रस्तुत करते हैं। उपन्यासकार द्वारा इन पात्रों के माध्यम से क्रांति का शंखनाद कर जनमानस को स्वतंत्रता का मंत्र दिया है वहीं क्रांतिकारियों के देश-प्रेम की बड़ी हृदयग्राही, मार्मिक अभिव्यक्ति की है। हिंदी के इन उपन्यासों को प्रतिबंधित क्यों किया गया? यह विषय सोचने को मज़बूर करता है। इन उपन्यासों की राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत विषयवस्तु ही इस प्रश्न का उत्तर देती है। राष्ट्रीयता के ज्वार से युक्त यह साहित्य ब्रिटिश हुकूमत के साम्राज्य की नीवों को हिला देने वाला था जिसके भय से अंग्रेज़ी हुकूमत द्वारा स्वातंत्र्य चेतना से युक्त इस साहित्य को जब्त कर लिया गया। इन प्रतिबंधित उपन्यासों ने अंग्रेज़ी साम्राज्य के अन्याय, शोषण,अत्याचारों को उजागर करते हुए स्वाधीनता संग्राम का चित्रण कर जन जागृति का कार्य किया।
सन्दर्भ :
1. निरंजन कुमार यादव: स्वदेश : स्वराज का स्वप्न, अपनी माटी पत्रिका, अंक 44, चित्तौड़गढ़, संस्करण 2022, पृ. सं. 158
4. वही, पृ. सं 10
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