शोध सार : मिश्मी जनजाति अरुणाचल प्रदेश की प्रमुख जनजतियों में से एक है। इस जनजाति की अधिकतर आबादी लोहित, अंजव, दिबांग घाटी क्षेत्र में लगभग 11,402 वर्ग कि. मी. पर्वतीय भू-भाग में निवास करती है। यह जनजाति मुख्य रूप से तीन भागों मे विभाजित है- इदु मिश्मी, दिगारु मिश्मी (ताराओं) और मीजू मिश्मी (कमान)। मिश्मी की तीनों भाषाओं में कुछ भिन्नता दिखाई पड़ती है। मिश्मी जनजाति कृषि जीवन पर आश्रित है,स्त्री-पुरुष सभी मिलकर खेतों में काम करते हैं, वे पहाड़ों को काटकर खेती करते हैं। ये पहले पत्तों और टहनियों को भली प्रकार से जलाते हैं, तत्पश्चात् खेत तैयार करते हैं, जिसे झूम खेती कहते हैं। वे खेतों में काम करते समय गीत भी गुन-गुनाते हैं, तथा श्रम को भूलते जाते हैं। मिश्मी क्षेत्र कृषि से संबन्धित है। इस क्षेत्र में श्रम कृषिपरक है, जो पूर्ण रूप से ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। धूप, वर्षा, गर्मी, ओला ये प्रकृति एवं ईश्वर की इच्छा पर हैं, मिश्मी जनजाति स्थानीय देवता, प्राकृतिक शक्तियों, जंगल की देवी आदि को केंद्र में रखकर अपने विचार रखते हैं। वे ईश्वरीय शक्ति को प्रसन्न करने के लिए गीत गाते हैं तथा लहलहाती फसल एवं विभिन्न जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा की कामना तथा विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं।
बीज शब्द : मिश्मी, धार्मिक,लोकसाहित्य, लोकगीत, धर्म, संस्कृति, मौखिक परंपरा, जनजाति, वृष्टि, आयू-यू, मेलाया, प्रार्थना, उपासना,नानी इंतिया, ऐबो, प्रेम, श्रम, भक्ति, परमशक्ति, प्रकृति, श्रद्धा।
मूल
आलेख : लोकसाहित्य प्राचीन काल की धरोहर का
साहित्य है। लोकसाहित्य को हम जन- जीवन के लघु दर्शन के रूप में देख सकते हैं। लोक’ शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की ‘लोक दर्शने’ धातु में ‘धन’ प्रत्यय जोड़ने से हुई है। ‘लोक दर्शने’
धातु का अर्थ है- ‘देखना’। अत: लोक शब्द का मूल अर्थ हुआ- ‘देखने वाला’। परंतु व्यहार में लोक शब्द का प्रयोग
सम्पूर्ण जनमानस के लिए होता है। ‘लोक’
शब्द अंग्रेजी के ‘folk’
शब्द का ही रूपांतरण है। डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘लोक’ के संबंध में लिखा है कि “लोक शब्द का अर्थ ‘जनपद’ या ग्राम्य नहीं है बल्कि नगरों और
गाँवों में फैली हुई वह समूची जनता है जिनके व्यवहारिक ज्ञान का आधार पोथियाँ नहीं
हैं। यह लोग नगर में परिष्कृत,
रुचि सम्पन्न तथा सुसंस्कृत समझे जाने वाले लोगों की अपेक्षा अधिक सरल और अकृत्रिम
जीवन के अभ्यस्त होते हैं।”1 डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय के अनुसार “आधुनिक
सभ्यता से दूर, अपने प्राकृतिक परिवेश में निवास करने
वाली, तथाकथित अशिक्षित एवं असंस्कृत जनता
को लोक कहते हैं जिनका आचार-विचार एवं जीवन परंपरायुक्त नियमों से नियंत्रित होता
है।”2 इससे स्पष्ट होता है कि जो लोग संस्कृत तथा परिष्कृत लोगों के
प्रभाव से बाहर रहते हुए अपनी पुरातन स्थिति में वर्तमान हैं, उन्हें ‘लोक’ की संज्ञा प्राप्त है।
लोकसाहित्य
के अंतर्गत लोकगीतों का प्रमुख स्थान है। जन-जीवन में अपनी प्रचुरता तथा व्यापकता
के कारण इनकी प्रधानता स्वाभाविक है। प्रत्येक क्षेत्रीय भाषा या बोली में ऐसे गीत
पाये जाते हैं, जो परंपरा से लोककंठ में समाये हुए
हैं और जिनका गायन विभिन्न लोकाचारों, उत्सवों, ऋतुओं
के अनुसार जनसमान्य करता है। इन गीतों को ही ‘लोकगीत’ की
संज्ञा दी जाती है। इनकी रचना काव्यशास्त्र के नियमों के अनुसार नहीं होती और न तो
इसमें काव्यगुणों को विशेष महत्व दिया जाता है। इसमें वैदिक व्यवहार की भाषा में
लय- सुर का समावेश होता है। सामान्य जीवन में सुख -दु:ख, आशा-निराशा और उत्साह का वर्णन होता
है। पेरी ने लिखा है कि “लोकगीत आदिमानव का उल्लासमय संगीत है”3 वही डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है “लोकगीत की एक-एक बहू के चित्रण पर
रीतिकाल की सौ-सौ मुग्धाएँ और खंडिताएँ न्योछावर की जा सकती हैं, क्योंकि ये निरलंकार होने पर भी प्राणमयी
हैं और वे अलंकारों से विभूषित होने पर भी निष्प्राण हैं। ये अपने जीवन के लिये
किसी शस्त्रविशेष की मुखापेक्षी नहीं हैं, ये अपने आप में परिपूर्ण हैं।”4
“लोकगीत उस जनसमूह की संगीतात्मक काव्य
रचनाएँ हैं, जिसका साहित्य लेखनी अथवा छपाई से
नहीं वरन् मौखिक परंपरा से आवरित है अज्ञात कलाकारो द्वारों रचित एवं मौखिक परंपरा
से संप्रेषित संगीत ही लोक गीत है”5 अन्य लोकभाषाओं की तरह मिश्मी में भी लोकगीतों की एक समृद्ध परंपरा है। ये
लोकगीत विभिन्न अवसरों पर गाये जाते हैं। मिश्मी संस्कृति का चित्रण इन लोकगीतों
में पाया जाता है मिश्मी समाज के प्राय: प्रत्येक पहलू का वर्णन इन लोकगीतों में
दृष्टिगोचर होता है विभिन्न विद्वानों ने लोकगीतों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण
किया है । डॉ. कृष्णदेव उपाध्याय ने “लोकगीतों को छ: भागों में विभक्त किया है-
संस्कार संबंधी, ऋतु सम्बन्धी गीत, व्रत सम्बन्धी गीत, देवता सम्बन्धी, जाति सम्बन्धी, श्रमसम्बन्धी गीत।”6 मिश्मी क्षेत्र में प्रमुख रूप से निम्नलिखित प्रकार के लोकगीत पाये जाते हैं-
संस्कार गीत, ऋतु एवं उत्सव गीत, व्रत गीत, जाति गीत, श्रम गीत।
“श्रम
गीत वे गाने हैं जो किसी काम को करते समय गाये जाते हैं ऐसा देखा जाता है कि मजदूर
लोग अपनी शारीरिक थकावट को दूर करने के लिए काम करते समय गाने भी गाते जाते हैं।
इससे काम करने में मन लगा रहता है और परिश्रम का पता नहीं चलता। इस प्रकार के
गीतों में जँतसार,
रोपनी, सोहनी, आदि के गीत प्रधान हैं।”7 मनुष्य के हाथ और मस्तिष्क का अद्भुत
मेल है। गीत और श्रम के इस संबंध को नृत्य
और गाने के रूप में जोड़ा जा सकता है, श्रम की प्रत्येक क्रिया के साथ गीत जुड़ा हुआ है क्योंकि श्रम की
नीरसता एवं कठोरता का निवारण उनके द्वारा संभव होता है। स्त्री वर्ग के मुख्य
क्रिया कलाप, जो लोक जीवन में प्रचलित हैं जैसे- चक्की पीसना, चरखा चलाना, ओखली कूटना, खेती करना, पानी भरना आदि। इन अवसरों पर गाये
जाने वाले गीत का वर्ण्य विषय मुख्यत: सामाजिक, पारिवारिक और दैनिक समस्या होता है। पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा
है “जब से पृथ्वी पर मनुष्य है तब से गीत
भी है। जब तक मनुष्य रहेगा, तब
तक गीत भी रहेंगे। मनुष्य की तरह गीतों का भी जीवन-मरण साथ चलता रहेगा। कितने ही गीत
सदा के लिए मुक्त हो गए हैं कितने ही गीतों ने देशकाल के अनुसार का चोला तो बदल डाला, पर अपने असली स्वरूप को कायम रखा बहुत
से गीतों की आयु हजारो वर्षो की होगी। वे थोड़े फेर-फार के साथ समाज में अपना
अस्तित्व बनाए हुए हैं।”8
श्रमपरिहारपरक लोकगीतों के स्वरूप की विशेषता
होती है कि वे परिश्रम करने हेतु प्रेरणा प्रदान करते हैं। प्रत्येक समुदाय अपनी
लोकभाषा और उसमें अभिव्यक्त सांस्कृतिक मूल्यों के माध्यम से ही अपने समाज के
मूल्यों, परम्पराओं एवं
मान्यताओं को अभिव्यक्त करता है। यही नहीं इसके अतिरिक्त समस्त लोकगीत जीवन की
कठिनाइयों को सरल बनाने और जीवन की भावनात्मक समस्याओं से मुक्ति प्राप्त करने के
लिए होते हैं,
इसीलिए विश्व के अधिकांश लोकगीत सुखपरक होते हैं, क्योंकि ये जीवन के कष्टों को दूर
करने के लिए होते हैं।
मिश्मी के श्रमपरिहारपरक लोकगीतों में ईश
वंदना एवं धार्मिक भावना की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। गीतों में ईश्वर की
वंदना की बात की गयी है,
क्योंकि मिश्मी क्षेत्र कृषि से संबन्धित है। इस क्षेत्र में श्रम कृषिपरक है, जो पूरी तरह
ईश्वर की कृपा पर निर्भर है। धूप,
बारिश, गर्मी, ओला ये प्रकृति
एवं ईश्वर की इच्छा पर है और इन सब से बचकर ही श्रम को सफल किया जा सकता है। अत:
उस परमशक्ति के प्रति भक्ति,
प्रेम, श्रद्धा और भय
लोकगीतों में सर्वाधिक पाया जाता है,
क्योंकि यह वह परमशक्ति प्रसन्न है तभी जीवन का श्रम सफल हो सकता है। इसलिए वे
निरंतर प्रार्थना करते हैं,
परिस्थितियाँ अनुकूल होने की बात करते हैं।
यह सभी भाव मिश्मी लोकगीतों में देखे जा सकते हैं। मिश्मी जनजाति स्थानीय देवता, प्राकृतिक शक्तियों, जंगल की देवी
आदि को केंद्र में रखकर अपनी बात कहती है। वे ईश्वरीय शक्ति को प्रसन्न करने के
लिए गीत गाते हैं तथा स्वस्थ फसल एवं विभिन्न जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा
की कामना हेतु विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं।
“विद्वानों ने धर्म को संस्कृति का प्रमुख
अंग माना है, क्योंकि
धर्म उच्चतम मूल्यों का प्रत्यक्षीकरण है,
यह उचित भी है क्योंकि धर्म के अंदर ये
समाहित हो जाते हैं। धर्म कर्तव्य है,
धर्माचरण है,
केवल नैतिक मूल्य नहीं। समाज में यह सभी हमारे जीवन के प्रतिमान स्वरूप हैं।”9 लोकजीवन
धार्मिक भावना से ओत-प्रोत है। इस प्रकार से मिश्मी जनजाति के लोकगीतो में ईश वंदना
एवं धार्मिक भावना की झाँकी देखने को
मिलती है।
किसान
प्रसन्न तब होता है जब उसकी फसल स्वस्थ होती
है, वह विभिन्न
प्रकार के सुख तो प्राप्त करता है किन्तु अपने खेत को देखकर उसे जो सुख प्राप्त
होता है उसका वर्णन करना कठिन है। वे भली
फसल की कामना करने हेतु देवी-देवताओं की पूजा करते हैं, मिश्मी समाज
में भी भली फसल की मनोकामना हेतु जानवरों की बलि या उसका रक्त ईश्वर को चढ़ाया जाता
है। मिश्मी के श्रमपरिहारपरक गीतों में ईश वंदना, धार्मिकता की अनुभूति व प्रत्येक स्तर
पर ईश्वर के प्रति आस्था का वर्णन मिलता
है।
मिश्मी जनजाति फसल संबंधी पूजन के दौरान ईश्वर की वंदना
स्वस्थ फसल,
विभिन्न जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा की कामना हेतु विभिन्न लोक देवी-देवताओं
की पूजा अर्चना करती है। इस संदर्भ में इन्द्र देवता को संबोधित कर विशेष गीत गाये
जाते हैं। वर्षा हेतु प्रार्थना की जाती
है। जब लगातार वर्षा होती है,
तब ईश्वर से फसल नष्ट न होने तथा उसकी
रक्षा हेतु प्रार्थना की जाती है।
नयी फसल घर लाने पर त्योहार मनाया जाता
है। मिश्मी जनजाति प्रकृतिपूजक है। वे सूर्य,
चाँद तथा जल की पूजा करते हैं और उन्हें प्रसन्न करने के लिए त्योहारों पर जानवरों की बलि चढ़ाते हैं। इन देवी-देवताओं की पूजा किसी न
किसी स्वार्थ से ही प्रेरित होती है। कहीं
उनसे अन्न,
धन, जन की मांग
होती है, तो कहीं खुशहाल जीवन, सुख-समृद्धि, संपन्नता की
आकांक्षा हेतु उनकी पूजा होती है। मिश्मी समुदाय में सूर्य एवं वर्षा की पूजा की
जाती है। कुछ गीतों में आत्मीय स्वजन के रक्त को भी चढ़ाने का उल्लेख मिलता है
उदाहरणत:
(अर्थात् पृथ्वी सर्वप्रथम जलकर राख हो चुकी
थी कुछ भी भोजन हेतु नहीं बचा था। कृषि होना भी बंद हो गयी। जब धान नहीं था तब
साधारण जन ‘ऐपा’ (एक प्रकार का
फल जो काले रंग का होता है) और ‘इथू’(ऊपर के छिलके को
उतार कर खाया जाने वाला फल)
यही खाकर जीवित रहते थे। तत्पश्चात् इन लोगों ने स्वयं ही उपाय ढूँढने आरंभ किए। इस
प्रकार जिसका भी रक्तउन्हें मिला उसे सूर्य देवता को चढ़ाना उन्होंने आरंभ कर दिया।
मुर्गा, सूअर, मिथुन, गाय आदि
जानवरों एवं ‘ऐबो’ (घर के नौकर)
का खून चढ़ाया गया तब जाकर सूर्य की किरणें हल्की सी दिखाई दीं। किन्तु यह किरणें जहाँ
खेत के लिए जंगल काटा गया था,
वहाँ नहीं आकर दूसरी दिशा में पड़ीं जहाँ
नदी थी। अंत में अपने मातृजनों का रक्त चढ़ा कर सूर्य की उपासना की गई, तब जाकर पूर्ण
रूप से सूरज निकला। तत्पश्चात् कृषि करना आरम्भ किया गया।) परंतु अब यह प्रथा
समाप्त हो चुकी है।
मनुष्य की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार
मिश्मी में ईश वंदना- प्रकृति और प्राकृतिक
दृश्यों से आरम्भ होती हुई देखी जा सकती है। सूर्य इसका प्रथम स्तंभ है, सूर्य उदय के
समय लोग हाथ जोड़कर उसका अभिनंदन करते हैं। मिश्मी में भी सूर्य की उपासना की जाती
है। प्रकृति पूजा के अंतर्गत पृथ्वी का पूजन अत्यंत प्राचीन है। मिश्मी जनजाति प्रत्येक
दो वर्ष में भूमि पूजन,
स्वस्थ फसल,
प्राकृतिक आपदा से बचने हेतु,
सुख समृद्धि,
गाँव की संपन्नता के लिए करती है। यहाँ भूमि देवता को प्रसन्न करने के लिए
जानवरों की बलि चढ़ाई जाती है। अन्न, धन की वृद्धि
हेतु ग्रामीणजन कामना करते हैं तथा नई फसल आने पर धान की कच्ची बालियाँ भी चढ़ाई जाती
हैं।
मिश्मी समुदाय प्रकृति के ऊपर निर्भर होने के
कारण प्रकृति की उपासना अधिक करती है।
प्रकृति संबंधी देवता की उपासना जिस प्रकार अन्य समाज में की जाती है, वैसे ही मिश्मी
जनजाति भी प्रकृति की उपासना करती है। मिश्मी जनजाति देवता को खुश करने हेतु बलि
चढ़ाते हैं। मिश्मी में सूर्य की उपासना स्वस्थ फसलों की मनोकामना हेतु की जाती है।
देखा जाए तो मिश्मी समाज में प्रकृति के देवताओं को लेकर अधिक श्रद्धा है क्योंकि
प्रकृति संबंधी देवता ही किसान के साथी
हैं, उनके प्रति
श्रद्धा होना भी स्वाभाविक है। कृषि प्रधान गीतों में वर्षा का स्वाभाविक महत्व
रहता है, इस प्रकार
मिश्मी वर्षा के लिए ईश्वर और साथ ही नानी इंतिया (लोकदेवी)की पूजा करते हैं। ताकि
फसल अच्छी हो,
यह पूजा बीज बोने के पश्चात् की जाती है तथा इसमें गीतों के माध्यम से ईश्वर की
वंदना भी की जाती है,
यहाँ एक गीत दृष्टव्य है -
(अर्थात्
कुछ दिनों के पश्चात् खेतों में जंगली घास निकल आएगी फिर उन घासों को हटाया जाएगा ताकि
हम अपनी फसल को बचा सकें। यदि घास हटाई नहीं गई तो सारी फसल नष्ट हो जाएगी। घास
हटाने के पश्चात् वर्षा के लिए हम अपनी नानी इंतिया (इदु मिश्मी
की लोकदेवी) की पूजा करें ताकि वर्षा हो तथा हमारी
फसल स्वस्थ हो एवं हम उनसे आशीर्वाद लें।)
वस्तुत: मिश्मी गीतों में ईश्वर की वंदना वृष्टि
हेतु की गई है। वृष्टि के कारण ही फसल अच्छी होती है। ईश्वर के आशीर्वाद एवं
आराधना से ही वे अपनी फसल पर निर्भर हैं। उन्हें पूजते हुए वे अपने को सुरक्षित
महसूस करते हैं। प्रस्तुत गीत में ग्रामीण जन वर्षा हेतु ईश्वर से प्रार्थना करते
हुए देखे जा सकते हैं साथ ही प्रकृति का चित्रण भी गीतों में देखा जा सकता है
मिश्मी जनजाति में ऐसे गीत देखने को मिलते
हैं, जहाँ सामान्य
तौर पर ईश्वर की वंदना करते समय पूजन की तैयारी की जाती है तथा पुजारी आकर किसी
जानवर के रक्त को,
ईश्वर के समक्ष भोग के रूप में चढ़ाता है तथा वर्षा के लिए प्रार्थना भी करता है। मिश्मी
के अंतर्गत अधिकतर गीत कथात्मक रूप में
मिलते हैं। ईश्वर की वंदना के साथ-साथ धार्मिक क्रियाएँ भी गीत में देखी जा
सकती हैं। मिश्मी का एक गीत यहाँ प्रस्तुत है -
(प्रस्तुत गीत कथात्मक रूप में है। धान बोने
के पश्चात् इस गीत में युवतियाँ वृष्टि हेतु ईश्वर से प्रार्थना करती हैं कि हे ईश्वर! हमने
धान के बीज बो दिये हैं। यदि वृष्टि शीघ्र होगी तो हमारी फसल अच्छी होगी हम आपके
लिए बलि चढ़ा रहे हैं। ताकि आप प्रसन्न होकर हमारे लिए वृष्टि करें तथा हमारी फसल
अच्छी हो। पृथ्वी जलकर राख़ हो चुकी थी। कुछ भी खाने-पीने हेतु नहीं बचा था। खेत
में कुछ भी उत्पन्न होना बन्द हो चुका था। ग्रामीणजन ने छोटे मेंढक की आवाज़ सुनकर
यह अनुमान लगाया कि अब फसल होगी तथा इसी समय उन्होंने जंगल काटना आरम्भ कर दिया। जंगल काटने के
पश्चात् भी वृष्टि नहीं हुई। धान के बीज बो दिये गये किन्तु तब भी वृष्टि नहीं हुई।
लोगो ने वृष्टि हेतु ईश्वर से वंदना की और
इसके साथ ही देवता को प्रसन्न करने हेतु मुर्गी, सूअर, मिथुन चढ़ाया गया, तत्पश्चात् देवता
प्रसन्न हुए और वृष्टि हुई,
इसके पश्चात् ग्रामीणजन ने खेत जोतना आरम्भ किया।)
लोकगीतों में धार्मिक भावना को लेकर डॉ. जगमल
सिंह का कथन है -“मानव अपने जीवन को बनाए रखने के लिए सदैव संघर्षशील रहा है। जहाँ
तक मनुष्य की शक्ति की पहुँच हुई,
वहाँ तक उसने स्वयं प्रकृति एवं सामाजिक आचार व्यवहार पर नियंत्रण रखा, किन्तु जहाँ
उसकी शक्ति ने जवाब दे दिया वहीं धार्मिक कर्म-कांड आरम्भ हुआ। सूर्य चंद्रमा, आदि गोचर
प्राकृतिक उपकरणों से नहीं था,
वहाँ उसने अगोचर देवताओं की कल्पना कर ली है। इन्द्र, शीतला आदि अनेक
देवताओं को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं ।”13
श्रम करते समय गीतों के माध्यम से ईश्वर से
यह प्रार्थना की जाती है कि सब कुछ भली प्रकार से रहे, प्रचुर वर्षा हो, समय से सब कुछ
आ जाए, कोई आपदा या
समस्या न हो,
इस प्रकार के भाव मिश्मी गीतों में देखे गये हैं, और इसी भाव से ईश्वर की प्रार्थना की
जाती है कि ईश्वर हमारा सब कुछ भली प्रकार से कर दें ताकि हम सुखी रहें और यह सभी
ईश्वर की सहायता से ही सफल हो रहे हैं।
क्योंकि उससे ही श्रम सफल होता है और श्रम की सार्थकता के लिए हम ईश्वर से निवेदन
करते हैं। मिश्मी का एक गीत पुजारी गीतों के माध्यम से स्वस्थ फसल की कामना करता है।
गीत की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
(अर्थात् अच्छी फसल हेतु ‘आयू यू’(पूजा) कर रहे
हैं, हे ईश्वर!
फसलों की कीड़े-मकोडों से रक्षा हेतु यह ‘आयू-
यू’ किया जा रहा
है। हमने ‘मेलाया’ (कुदृष्टि से
फसलों को बचाना) भी किया है, ताकि हमारी फसल
स्वस्थ हो। हे ईश्वर! धान काट कर जब टोकरी में रखेंगे तो वह भी शीघ्र ही भर जाए,
फसल रखने का गोदाम भी शीघ्र ही भर जाए और हमारा यह खेत पूरा भरा रहे।)
इस प्रकार प्रस्तुत गीतों में धार्मिकता की अनुभूति दृष्टिगोचर होती है। मिश्मी गीत में पुजारी लोकदेवता की पूजा स्वस्थ फसल, कुदृष्टि से बचाने हेतु ‘आयू-यू’ करते हैं।
निष्कर्ष : इस
प्रकार यह देखा जा सकता है कि मिश्मी श्रमपरिहारपरक लोकगीतों में ईश वंदना एवं
धार्मिक भावना दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार के गीतों में जहाँ लोग ईश्वर को
प्रसन्न करने हेतु गीत गाते हैं तथा स्वस्थ फसल एवं विभिन्न जंगली जानवरों से
फसलों की सुरक्षा की कामना तथा विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करते हैं।
मिश्मी के कुछ गीतों में स्वजन के रक्त को भी चढ़ाने का उल्लेख मिलता है, परन्तु अब यह प्रथा
समाप्त हो चुकी है। मिश्मी क्षेत्र में प्रकृति पूजन देखा गया है। इन्द्र एवं
सूर्य की पूजा इस समाज में की जाती है। लोकगीतों में श्रम करते समय ईश्वर से यह भी
प्रार्थना की जाती है कि सब कुछ ठीक रहे,
अच्छी बारिश हो,
कोई आपदा या परेशानी न हो। किसी भी शुभ कार्य को करते समय ईश्वर का स्मरण किया
जाता है। कृषक संबंधी गीतों में अनेक प्रकार के क्रिया विधानों की परंपरा गीतों
में सामने आयी है। मिश्मी समाज में ईश्वर को भोग चढ़ाने का वर्णन हुआ है। इस समुदाय
में जानवरों की बलि भी चढ़ाई जाती है,
ऐसी मान्यता है कि कोई भी शुभ कार्य करने या किसी भी उपासना के दौरान जानवरों की
बलि चढ़ाना अनिवार्य है,
नहीं तो अधूरी रह जाती है। इस कारण देवता उनसे प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद देते
हैं। मिश्मी प्रकृति पूजक हैं। सूर्य,
चाँद, पेड़, पहाड़, जल आदि की
उपासना इस समाज में की जाती है। वे उपासना के दौरान ईश्वर की वंदना करते हैं। ईश
वंदना संबंधी गीतों में सुख-समृद्धि का
भाव परिलक्षित होता है। इन गीतों में अपने परिवार के साथ-साथ गाँव की सुख समृद्धि
की भी मनोकामना की भावना दिखाई देती है।
संदर्भ :
1. उपाध्याय, डॉ. कृष्णदेव; लोक साहित्य की भूमिका, साहित्य भवन
प्रा. लि. इलाहाबाद;
2016 ई. पृ. सं.- 11
2. वही; पृ. सं.- 11
3. वही; पृ. सं.- 1
4. वही; पृ. सं.- 2-3
5. उपाध्याय, अनीता; अवधी और
भोजपुरी लोकगीतों का सामाजिक स्वरूप,
दर्पण प्रकाशन,
2004 ई. पृ. सं.- 32
6. उपाध्याय, डॉ. कृष्णदेव; लोक साहित्य की भूमिका, साहित्य भवन
प्रा. लि. इलाहाबाद;
2016 ई. पृ. सं.- 58
7. वही; पृष्ठ- 91
8. त्रिपाठी,
रामनरेश; कविता-कौमुदी (ग्राम-गीत)
भाग-3, नवनीत प्रकाशन
लिमिटेड, मुंबई,1995 ई. पृ. सं.- 78
9. मिश्र. श्रीधर; भोजपुरी लोकसाहित्य: सांस्कृतिक
अध्ययन, हिन्दुस्तानी अकादमी,इलाहाबाद, प्रथम
संस्करण-1971ई. पृ;
संख्या- 23
10. स्वयं संकलित (10/10/2020), स्थान- केबाली, रोइंग, अरुणाचल प्रदेश
11. स्वयं संकलित (10/10/2020), स्थान- केबाली, रोइंग, अरुणाचल प्रदेश
12.
स्वयं संकलित (10/10/2020),
स्थान- केबाली,
रोइंग, अरुणाचल प्रदेश
13. सिंह, जगमल, राजस्थानी
लोकगीतों के विविध रूप;
बिनसर प्रकाशन, नई दिल्ली, 1980 ई. पृ. सं.-
9
14. स्वयं
संकलित (13/10/2020),
स्थान- केबाली, रोइंग,
अरुणाचल प्रदेश
एक टिप्पणी भेजें