शोध सार : लोक-कथाएँ जनमानस का स्वरुप हैं, जिसमें व्यक्ति अपनी भावनाओं, इच्छाओं एवं संवेदनाओं कोप्रकट करता है। शास्त्रीयता से दूर लोक-कथाएँ एक तरफ समाज के एक बड़े वर्ग को मनोरंजन का साधन उपलब्ध कराती हैं, तो दूसरी तरफ लोक संस्कृति के विभिन्न तत्त्वों को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाने का भी कार्य करती हैं। लोक-कथाएं संस्कृति का न केवल महत्वपूर्ण अंग हैं बल्कि लोक-कथाओं के माध्यम से किसी स्थान विशेष की संस्कृति को जाना भी जा सकता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में इस प्रकार की लोक-संस्कृति को विस्तृत क्षेत्र पर देखा जा सकता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश का बलिया जिला लोक-कथाओं के संदर्भ में समृद्ध क्षेत्र है। प्रस्तुत शोध लेख में पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की लोक-कथाओं का प्रतीकात्मक विश्लेषण किया गया है।
बीज शब्द : मानवविज्ञान, लोक संस्कृति, प्रतीकवाद, संस्कृति, प्रतीक, मौखिक परंपरा, मिथक, लोक-कथा, प्रकार्यवाद, संरचना-प्रकार्यवाद।
मूल आलेख : लोक-कथाएँ जनमानस में प्रचलित वह मौखिक कथाएँ है, जो कि अपने उद्गम एवं स्त्रोत के रुप में प्रमाणिक नहीं होती हैं। इनको समाज अपनी सभ्यता, रीति-रिवाज, कला, दंतकथाओं, परम्पराओं इत्यादि के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करता है। प्रत्येक मानव समाज की अपनी लोक-कथाएँ होती है, जिसे समाज के लोग मौखिक रुप से संजोकर रखते हैं। लोक-कथाओं का मुख्य उद्देश्य समाज के ज्ञान, समझ, नैतिक मूल्यों तथा पूर्वजों के ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचाना है। लोक-कथाओं में न केवल समाज की उत्पत्ति से सम्बन्धित जानकारी होती है, वरन् शौर्य, संघर्ष तथा गौरवशाली इतिहास का वर्णन भी होता है। इसके अतिरिक्त मिथक, मुहावरों, लोकोक्तियों तथा पहेलियों के माध्यम से लोक-कथाओं को सजा कर प्रस्तुत किया जाता है। लोक-कथाओं की व्यापकता हमें ग्रामीण क्षेत्रो में बहुतायत में देखने को मिलती है। लोक-कथाएं पौराणिक एवं मिथकों के रूप में देखने को मिलती हैं। हम कह सकते हैं कि लोक-कथा शब्द का प्रयोग किसी भी पारम्परिक, नाटकीय आख्यान को सन्दर्भित करने के लिए किया जाता है, जो मुख्य रुप से मौखिक परम्परा में प्रसारित होता है। इसे किसी विशेष स्थान अथवा समूह के लोग आपस में दोहराते हैं। लोक-कथा, लोक-साहित्य का एक प्रमुख अंग है, जिसे विश्व के एक बड़े समूह के लिए शिक्षा एवं मनोरंजन का मुख्य साधन है।
लोक-कथाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कोई निश्चित प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं। लोक-कथाएँ को दैनिक जीवन के अनुभवों के आधार पर रचित कल्पना माना जाता है। लोक-कथाओं में कल्पना अधिक होती है तथा वास्तविकता कम। कल्पना के माध्यम से मानव अपनी संवेदनाओं को प्रकट करता है। लोक-कथाओं का मानवशास्त्रीय अध्ययन में महत्वपूर्ण स्थान है। लोक-कथाएँ समाज का धार्मिक, सांस्कृतिक प्रतिबिंब होती हैं। मनुष्य की अनेक इच्छाएँ अज्ञात मन में दबी रह जाती है तथा वास्तविक जीवन में उनकी पूर्ति संभव नहीं हो पाती है, तब मनुष्य कल्पित नायक एव नायिकाओं के माध्यम से उन इच्छाओं एवं अभिलाषाओं की पूर्ति करता है। समाज में घटित होने वाली घटनाओं में मनुष्य अपनी कल्पना मिश्रित कर कथा का निर्माण करता है। लोक-कथाएँ समाज के प्रत्येक वर्ग में इस प्रकार फैल जाती हैं कि वे उनकी संस्कृति का अभिन्न अंग हो जाती हैं। मानवविज्ञान में प्रतीकात्मक दृष्टिकोण का आविष्कार बीसवीं शताब्दी में शुरू हुआ। यह अन्य सैद्धांतिक दृष्टिकोणों जैसे कि संरचनावाद, प्रकार्यवाद, उद्वविकासवाद, प्रसारवाद से अपेक्षाकृत नया है।
Evans Pritchard[4] (1940) ने सर्वप्रथम Nuer Religion में व्याख्यात्मक (Interpretative) दृष्टिकोण का उपयोग किया था। Dundes[5] (1986) के अनुसार, “It includes all myths, legends, folktales, ballads, riddles, proverbs and superstitions in it” अर्थात् फोकलोर के अंतर्गत मिथक, किंवदंतियाँ, लोक-कथाएं, गाथा-गीत, पहेलियाँ, कहावतें और अंधविश्वास शामिल हैं। Redfield[6] (1947) अपने लेख The Folk Society में ‘Folk’ को परिभाषित करते हैं, “Folk as small, isolated, non-literate and homogenous with a strong sense of group solidarity” अर्थात् ऐसे समाज लघु, पृथक, असाक्षर एवं समरूपी होते हैं। ऐसे समाज की कुछ निश्चित विशेषता होती है जो अपनी सभ्यता, रीति रिवाज, कला, दंतकथाओं, परंपराओं आदि को पीढ़ी दर पीढ़ी आगे हस्तांतरित करते हैं, जो ‘लोक’ कहलाता है। Geertz[7] (1971) ने Interpretation of Cultures में प्रतीकात्मक दृष्टिकोण अथवा व्याख्यात्मक दृष्टिकोण का उपयोग किया। Geertz का मत है कि छोटे एवं सघन तथ्यों से महत्वपूर्ण तथा वृहद निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इंडोनेशिया के बाली द्वीप में मुर्गों की लड़ाई के दर्शक को यह फुरसत में आयोजित की जाने वाली मनोरंजक गतिविधि प्रतीत हो सकती है। संस्कृति के अध्ययन में अकादमिक रुचि वाले व्यक्ति को यह गैर महत्वपूर्ण प्रतीत हो सकती है। किन्तु Geertz ने मुर्गों की लड़ाई जिसे Balinese Cock Fight कहा गया, इस गतिविधि के माध्यम से उस समाज के गहरे सामाजिक अर्थों को उजागर किया। कोई भी वस्तु जीवित अथवा मृत, दृश्य, गतिविधि, आदि अपने आप में किसी अन्य भावना, सांस्कृतिक अर्थ का प्रतिनिधित्व कर सकती है। इसे प्रतीक माना गया। मुर्गों की लड़ाई में विजेता मुर्गा, एक योद्धा एवं साहसी पुरुष का प्रतीक है। Bascom[8] (1954) ने फोकलोर के चार प्रकार्यों को वर्णित किया है। Grayson[9] (2006) सामाजिक आलोचना को लोक-कथा का पांचवा प्रकार्य मानते हैं। Friedel[10] (1975) ने ईरानी जनजातीय समुदाय में लोक-कथाओं का उपयोग किस प्रकार सांस्कृतिक टिप्पणी करने के लिए किया गया है, यह स्पष्ट किया है। Thompson[11] (1955) Myths and Folktales में स्पष्ट करते हैं कि दुनिया के प्रत्येक हिस्से में पायी जाने वाली लोक-कथाओं में मिथकों का होना सामान्यतः अनिवार्य तत्व है।
फोकलोर अध्ययन में प्रतीकात्मक दृष्टिकोण का उपयोग महत्वपूर्ण है। फोकलोर के अंतर्गत लोक-कथा, लोक-गीत, लोक-कला, लोक-नृत्य आदि शामिल हैं। प्रस्तुत शोध लेख लोक-कथा के प्रतीकात्मक अध्ययन तक सीमित है। लोक-कथा लोक द्वारा रचित वे कहानियाँ हैं जिनमें स्थानीय संस्कृति के तत्व एवं संदर्भ निहित होते हैं। प्रतीकात्मक दृष्टिकोण में लोक-कथा के पात्र, दृश्य, वस्तुओं में छिपे गहरे सामाजिक संदर्भों का अन्वेषण किया जाता है। यह दृष्टिकोण उस समाज एवं संस्कृति का बेहतर नृजाति वर्णन प्रदान कर सकता है। Clements[12] (1977) के अनुसार “ Ideas exist at
various levels beneath the surface meaning of a folksong, folktales, or legend
and are symbolised by the images, narrative elements of the folklore item. The
ideas thus symbolised may reflect fundamental human drives and concerns.” Clements यह सुझाव देते हैं कि किसी भी फोकलोर का प्रतीकात्मक विश्लेषण उसके सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक संदर्भ में किया जाना चाहिए। किसी पूर्व में स्थापित सिद्धांत के आधार पर प्रतीकात्मक विश्लेषण करना उचित नहीं होगा। प्रतीकात्मक अध्ययन हेतु सूचनादाता की पृष्ठभूमि का ज्ञान होना लाभदायक है। लोक-कथाओं में छिपे अर्थ एवं प्रतीक विभिन्न सूचनादाताओं के अलग संदर्भों में अलग-अलग होते हैं। लोक-कथाओं का प्रतीकात्मक अध्ययन क्षेत्र-विशेष के संदर्भ में करना आवश्यक है। भारतीय संदर्भ में इस प्रकार का अध्ययन Sahay[13] (2000) ने बिहार की लोक-कथाओं पर किया है। सहाय अपने लेख The Folktales
of Bihar: An
Anthropological Perspective में बिहार की तीन लोक-कथाओं बावन गंगा, सिंदूर और विवाह, दो दोस्त का विवरण देती हैं। प्रत्येक लोक-कथा अपने समाज में स्थापित नियमों के बारे में जानकारी प्रदान करती हैं। इस शोध पत्र में प्रत्येक लोक-कथा का मानवशास्त्रीय विश्लेषण किया गया है। सिंदूर और विवाह की लोक-कथा में सिंदूर विवाह का प्रतीक है। प्रस्तुत शोध में प्रतीकात्मक अध्ययन हेतु सहाय (2000) तथा Clement (1977) द्वारा प्रयुक्त की गई मानवशास्त्रीय विश्लेषण की पद्धति का उपयोग उपयुक्त होगा।
Kaisii[14] (2021) अपने लेख Oral Tradition and Cultural Memory: Analysis of Dispersal Wild Pear Tree
of the Nagas में रेखांकित करती हैं कि किस प्रकार नागा समुदाय ने मखेल में नागा सभ्यता की उत्पत्ति, वहाँ से उत्तर–पूर्व के अन्य क्षेत्रों में प्रसरण को सांस्कृतिक स्मृति के माध्यम से मौखिक परंपरा में दर्ज कर लिया है। मखेल मणिपुर के सेनापति जिले की माओ क्षेत्र में स्थिति ग्राम है। उदेश्यपूर्ति हेतु नागा समुदाय ने जंगली नासपाति वृक्ष (प्रतीक) को मौखिक परंपरा के हस्तांतरण का स्पृश्य माध्यम बनाया है। यह वृक्ष नागा समुदाय की उत्पत्ति, एकता, प्रसरण एवं पूर्वजों का प्रतीक है। लिखित दस्तावेजों की अनुपस्थिति में वृक्ष एक साक्ष्य एवं प्रतीक के स्वरूप में नागा वंशजों को उनकी सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक पृष्टभूमि से अवगत कराता है। प्रायः समुदायों में मौखिक साहित्य में किसी वस्तु (प्रतीक) का उल्लेख किया जाता है, जो वास्तविक हो। लोक-कथाओं में वास्तविक वस्तु की उपस्थिति कथा की सत्यता प्रदर्शित करती है। श्रोतागण उसे सत्य मान लेते हैं। इस प्रकार मौखिक रूप में भी संस्कृति का हस्तांतरण सुनिश्चित हो जाता है। लगभग सभी समुदायों में किसी वस्तु को सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में स्थापित किया जाता है। उस प्रतीक का उस समाज में सामाजिक, धार्मिक महत्व होता है।
Fischer[15] (1963) The
Socio-psychological Analysis of Folktales में लोक-कथाओं का प्रतीकात्मक, संरचनात्मक, सामाजिक-मनोवैज्ञानिक प्रकार्यवादी अध्ययन किया है । फिशर यह समझने का प्रयास करते हैं कि किस प्रकार लोक-कथाओं का विषय एवं स्वरूप, वाचक के व्यक्तिगत एवं उस सामाजिक व्यवस्था से समानता रखता है जिसमें वह स्थापित है। लोक-कथाओं में निहित प्रतीकात्मक तत्व वाचक एवं श्रोताओं की मनोवैज्ञानिक संरचना का खाका प्रस्तुत करते हैं। प्रकार्यवादी दृष्टिकोण से देखने पर लोक-कथाएं समाज में व्यक्तियों को भावनात्मक समायोजन प्रदान करती हैं।
शोध प्रविधि:प्रस्तुत शोध पत्र लिखने हेतु प्राथमिक आंकड़ों का एकत्रण क्षेत्रकार्य द्वारा किया गया है। एकत्रित आँकड़ों का गुणात्मक विश्लेषण किया गया है। सर्वप्रथम बलिया जिले में उद्देश्यात्मक निदर्शन के माध्यम से दो गांवों नराछ एवं जाम का चयन किया गया। इसके पश्चयात सूचनादाताओं का चयन करने के लिए स्नोबाल निदर्शन का उपयोग किया गया। सूचनादाता से सूचना एकत्रित करने हेतु असंरचित साक्षात्कार, अर्ध-सहभागी अवलोकन एवं केंद्रित समूह चर्चा विधि का उपयोग किया गया। प्रस्तुत शोध आलेख में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के नराछ एवं जाम गाँव से 37 उत्तरदाताओं से आँकड़े एकत्रित किए गए हैं। संबंधित गाँव से जुलाई 2023 से सितंबर 2023 तक क्षेत्रकार्य द्वारा प्राथमिक आंकड़ों को एकत्रित किया गया।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले की दो लोक-कथाओं का मानवशास्त्रीय विश्लेषण निम्नानुसार है-
‘कईलान बाबा’ की लोक-कथा : हमनी की गाँव की पूर्वी छोर पर एगो छोट नदी बहेले। नदियाँ में चार-पाँच गो सोता बड़नस। लकड़ा नदी सावन-भादों में खूब बढ़िया जाले अऊर फागुन ले जात-जात सुखल लगेले। नदिया पार करके जईसे छीवी की ओरि बढ़ब त नदिया के किनरवे पर एगो छोट मंदिर बा। ई मंदिर कैलान बाबा के मंदिर ह। बीच-बीच में हमने देखले बानी जा कि बाबा की स्थान पर पूजा पाठ करे खातिर साधु-महात्मा आके रहेलि सभे। लेकिन केहु बहुत स्थाई रूप से ओइजा (कैलान बाबा के धाम) पर ना रहेला। छीवी गाँव के मेहरारू लोग लगभग रोज़े आके धाम पर पूजा पाठ कजाला लोग। कैलान बाबा के कथा ईहअ की बहुत साल पहिले नदिया के तीरे गाँव के अहीर लोग गोरू चरावत रहे। गोरुआ चरत रहलन स अऊर ओहिज छोट बागईचा नियर रहे जवना के छाहें बईठ अहीर लोग आपस में बतकही करत रहेलोग। थोड़े देर बाद ओइजा एगो लाइका नीयर साधु अइलन बगइचवै में थोड़ी देर आराम कईले के बाद उ अपने गठरी मेंसे सतुआ सान के खातिर पानी दिहल लोग। उ बालक साधु सतुआ सानिके सब सतुआ खाए लगनन तब ई लोग ई देखल कि उ सतुआ के सानि के ओकर बड़-बड़ लोई बना लेले बाड़न। देखि के ये लोग के लागल कि लोईअवा बहुत बड़ बा। अउरी अटक सकेला। लेकिन ई लोग कुछ ना बोलल। थोड़े समय की बाद साधु महाराज लोईअवा खाय लगनी अउरी ओहिमेसे एगो लोइया साधु जी की गला में फंस गइल। अऊर कुछ क्षण में साधु महराज प्राण त्याग दिहले। अहीर लोग ई देखि के बहुत घबड़ा गइल लोग। डर की मारे उ लोग केहु से ई घटना के चर्चा ना कइले। दू- चार साल बितला के बाद जेतना अहीर लोग तहिया वो बगईचा में रहे लोग वो कुल जाना के बहुत गम्भीर बीमारी पकड़ लिहली स। क्षेत्र की डाक्टर, वैद्य, हकीम से देखउला की बादों जब कोउनउ जना के तनिको आराम ना भइल तब उ बगल गाँव की एक ओझा के लगे गइल लोग। ओझा जी अपनी ओझइती की विद्या से थोड़ी देर में बतउनी कि वो समय बगईचा में जवन साधु महराज सतुआ खात रहनी उहेंका तूहूँ लोग के अब परेशान करअतानी। ऐसे मुक्ति के खाली एगो रास्ता बा की तून्हु लोग ओही बगईचा में पूजा पाठ करवा के वो साधु महराज के स्थापना करवा जा। वोहि साधु महराज के स्थापना भइला के बाद से उहाँ का कैलान बाबा की कहानी।
‘कईलान बाबा’ लोक-कथा का मानवशास्त्रीय विश्लेषण : यह बलिया जिले के नराछ ग्राम की लोक-कथा है। इस लोक-कथा में गाँव के पूर्वी छोर पर बहती लकड़ा नदी एवं नदी के किनारे स्थापित मंदिर का ऐतिहासिक संदर्भ प्रस्तुत किया गया है। प्रायः लोक-कथाएं किसी क्षेत्र-विशेष के ऐतिहासिक, भौगोलिक संदर्भों से भरी होती हैं। लोक-कथाएं ग्रामीण समाज की स्थापित मान्यताओं, रीति-रिवाजों, व्यवहार को अर्थ प्रदान करती हैं। यह संस्कृति की भाषा का कार्य करती हैं। लोक-कथाओं में प्रतीक, मिथक, रीति-रिवाज का उपयोग संचार के माध्यम के रूप में किया जाता है। प्रतीकों के दो अर्थ होते हैं- एक स्पष्ट होता है तथा दूसरा अदृश्य। गाँव के अंतिम छोर पर स्थापित नदी के किनारे पर जहां संन्यासी सत्तू के गोले बनाता है तथा चरवाहे अपनी गाय चराने आते हैं। यह स्थान गाँव का महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर पीने का साफ पानी, फल के पेड़, जानवरों के लिए घास है। घुमंतू सन्यासी पानी पीने, भोजन करने के लिए तथा विश्राम करने के लिए इसी स्थान पर आते हैं। गाँव के लोग अपने जानवरों को यहीं लेकर आते हैं। गाँव का यह स्थान प्रकृति-मानव संबंध का चित्रण प्रस्तुत करता है। गाँव के लोग नदी पर कृषि, पीने के पानी, परिवहन, आदि आवश्यकताओं के लिए निर्भर होते हैं। सिंधु-घाटी सभ्यता से लेकर वर्तमान तक नदियों के किनारे सघन बस्तियां स्थापित होती आयी हैं। नदी पर निर्भरता के कारण अनेक सभ्यताओं ने नदी को प्रतीक के रूप में स्थापित किया है। नराछ ग्रामीण क्षेत्र में नदी का यह महत्व स्पष्ट दिखता है। लोक-कथा में भोजन करते समय संन्यासी की मृत्यु हो जाती है। वहाँ पर उपस्थित लोग उनकी सहायता नहीं करते। इसी के दंड स्वरूप सन्यासी उन्हें मृत्युपर्यंत कष्ट देता है। अपने पाप के प्रायश्चित स्वरूप उन्हें उसी स्थान पर मंदिर का निर्माण करवाना पड़ता है जिस स्थान पर सन्यासी की मृत्यु हुई थी। इस लोक-कथा से यह स्पष्ट होता है कि गाँव में लोग आत्मा में यकीन करते हैं। मृत व्यक्ति की आत्मा अपने लिए न्याय मांगती है। न्याय के रूप में संन्यासी के नाम से मंदिर के निर्माण का उद्देश्य मंदिर को शैक्षणिक प्रतीक के रूप में स्थापित करने का है। इस प्रकार गाँव के अंतिम छोर पर स्थापित मंदिर धार्मिक प्रतीक (स्पष्ट अर्थ) के साथ-साथ प्रायश्चित का प्रतीक (अदृश्य अर्थ) भी है।
‘लकड़ा नदी अउरी बारात’ की लोक-कथा : हमरी गाँव की पूर्वी छोर पर एक लकड़ा नाम के एगो छोट नदी सैकड़न साल से बहेले। नदी में बारहूँ महीना पानी ना रहेला। बरसात के दिन में आस-पास के गांवन के पानी से ई बढ़िया जाले। जाड़ा आवत-आवत एकर पानी सूखे लागेला। फागुन आवत-आवत एमे मुश्किल से ठेहुना भर पानी रहेला। चैत- वैशाख ले एमे नहिये के बराबर पानी बचेला। हालांकि नदिया में चार-पाँचगो सोता बा जवना से बारहउँ महीना ऋषि-ऋषि के तनि-तनि पानी आवत रहेला। ई बात सैकड़न साल पुराना ह कोउनउ बारात ईनरपुर की ओर से हड़सरा की ओरी जाति रहे। बारात में सैकड़न लोग रहे अउरी संघे गाजा बाजा अउरी नचनिऔं रहलनस। बारात दुपहरिया में अपनी गाँव से चलल। वो जमाना में आवे जाए के खातिर कोउनउ बहुत सड़क आसाधन ना रहेला। एहीसे बरातियों के लोग पैदले बारात जाव। क्षेत्र में जे बहुत बड़ जमींदार या बबुआंन होखे वो लोग के बारात में कहीं-कहीं हाथी-घोड़ा अउरी बैल गाड़ियों जाव। पहले के लोग कहेलन कि जवनी बारात में घोड़ा जास वो बारात के देखे खातिर आवार-जवार से लोग इकट्ठा हो जाव। काहे से कि जब द्वार पूजा लागे ओकरी पहिले घोड़वन के घोड़ दउर देखे खातिर लईकन से लेके बूढ़-पुरनिया ले सब बहुत उत्सुक रहे काहे से कि घोड़दउर देखे में बहुत मज़ा आवे। एकाधगो घोड़न के त जिला जवार में एतना चर्चा रहे कि अगर कोउनउ बारात में उ घोड़ा जाव तो ओकर घुड़दौड़ देखई के खातिर हजारन आदमी जुटिज़ा। लेकिन ई जवनी बारात के बात होतबा ई सामान्य आदमी के बारात रहे। एसे एमे सब केहु पैदले चलत रहे। चलत-चलत बाराति लगड़ा नदी की तीरे पहुंचल काहे से कि बाराति के लकड़ा नदी पारे कके लइकी के गाँवे जाय के रहे। जब बाराति लकड़ा नदी की तीरे पहुंचल त आचनके खूब जोर से घनघोर बरखा होखे लागल। बारात के लोग नदी के तीरे बइठ गइल। अऊर बरखा के रुके के इंतजार करे लागल। धीरे-धीरे अन्हार होखे लागल अउरी बरखा रुके के नावे ना ले। जब अन्हार होखे लागल अऊर बरखा रुकले ना करे त बारात के लोगन के ई बुझाइल कि बईठल रहला से कुछ ना होई हमनी के धीरे-धीरे पैदले नदी में घुसिके नदी पार करई के चाही। नदी की गहराई के बहुत अंदाजा ना रहला से अउरी दुपहरिए से बरखवा से नदी के बढ़ियाइले से शुरू-शुरू में लोग तनि डेरात रहे लेकिन नदी पार कइले के अलावा उहाँ सबके लगे दुसर कोउनउ रास्ता ना रहे। अंत में थक हारि के उ लोग नदी में घुसे चालू कईनी अउरी लोग कहेलन कि लकड़ा की धारि के अंदाजा ना रहेला की वजह से पूरा बरतिये बहागइल। साब केहु लकड़ा नदी में समा गइल। गाँव के बूढ़ पुरनियाँ बतावेला लोग कि कुछ साल पहिले ले राति खाने लकड़ा की तीरे गइले पर ढोलक बाजा के आवाज सुनाई पड़ेला। लोग कहेला कि जवन बरतिया डूबल रहे ओकरे नाच-बाजा वाला रतिखाने लकड़ा के किनारे निकल के बाजा बजावेलनस। लेकिन अब एने कुछ साल से एहतरह के बाजा नइखे सुनाई पड़त।
‘लकड़ा नदी अउरी बारात’ लोक-कथा का मानवशास्त्रीय विश्लेषण : यह लोक-कथा बलिया जिले के इनरपुर गाँव की है। इसमें गाँव के एक छोर पर बहती नदी का वर्णन किया गया है। ग्रामीण अंचल की अधिकतर लोक-कथाएं प्राकृतिक संसाधनों को केंद्र में रख कर कही गई हैं, नदियां, पहाड़, जंगल आदि। किन्तु बलिया जिले से एकत्रित लोक-कथाओं में नदी केंद्र में दिखती है। उत्तर-भारत के मैदान का यह क्षेत्र गंगा नदी की सहायक नदियों द्वारा सिंचित क्षेत्र है। यहाँ पर नदियां विशाल हो जाती हैं। नदियों का वेग पहाड़ी क्षेत्रों से अपेक्षाकृत रूप से ही कम होता है। नदियों के कारण पूर्वांचाल मीठे जल की उपलब्धता में समृद्ध है। किन्तु इनकी विशालता एवं वेग ग्रामीणों के लिए संकट का विषय भी थीं। प्रस्तुत लोक-कथा लकड़ा नदी और बारात की कथा नदियों के इस पक्ष रोशनी डालती है। एक तरफ नदी को ‘माँ’ कहकर संबोधित किया जाता है। छठ के त्योहार में नदियाँ महत्वपूर्ण होती हैं, वहीं नदियों का भयावह चित्रण भी मिलता है। नदी वह प्रतीक है जो कि द्विचर है। मानव और प्रकृति के मध्य संबंध सर्वदा निर्माणकारी नहीं होते। प्रायः यह विनाशकारी भी होते हैं। नदियों में आने वाली बाढ़ से ग्रामीण क्षेत्र प्रभावित होते हैं। नदियाँ कृषि, परिवहन में सहयोग करती हैं। स्वच्छ पीने के जल का स्त्रोत हैं। विश्व की प्रत्येक सभ्यता नदियों के किनारे ही विकसित हुई है, इस तथ्य की प्रामाणिकता लोककथाओं से सिद्ध होती है। प्रस्तुत लोक-कथा में नदी का चित्रण दो प्रकार से हुआ, पहला चित्रण जिसमें नदी के किनारे उत्सव का आयोजन होता है एवं दूसरा चित्रण जिसमें नदी की भयावहता का चित्रण हुआ है। इसके साथ ही इस क्षेत्र में मृत्यु के बाद जीवन में यकीन किया जाता है। यह विश्वास है कि मनुष्य पृथ्वी पर मृत्यु के बाद भी आत्मा के रूप में जीवित रहता है जब तक वह अपनी आयु पूरी नहीं कर लेता।
निष्कर्ष:मानवशास्त्र में लोक-कथाओं को सदा ही संस्कृति के अध्ययन में उपयोगी माना गया है। लोक-कथाएं मानव कल्पना का परिणाम होती हैं। कल्पना की प्रेरणा रोजमर्रा के जीवन से, सामाजिक नियमों, आकांक्षाओं, भय से मिलती है। इस प्रकार लोक-कथाओं का निर्माण सिर्फ सृजनात्मक नहीं था, यह मनोवैज्ञानिक भी था। जिस प्रकार लिखित साहित्य को समाज का प्रतिबिंब माना जाता है, उसी प्रकार लोक-कथाएं भी मानव समाजों का प्रतिबिंब हैं। लोक-कथाओं के माध्यम से संस्कृतियों का विश्लेषण करने की कोशिश की गई है। यह पूर्वी-उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में सिद्ध हुआ है। लोक-कथाएं मात्र कहानियाँ नहीं हैं अपितु उस क्षेत्र-विशेष की भौगोलिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक सूचना से परिपूर्ण है। इन सूचनाओं को प्रतीकों में पिरो कर लोक-कथा में प्रस्तुत किया जाता है। लोक-कथाओं के प्रतीकात्मक अध्ययन हेतु लोक-कथा को उस क्षेत्र विशेष के संदर्भ में देखना होगा। बलिया जिले की लोक-कथाओं में नदी एक मुख्य विषय है। गंगा के मैदान में स्थित इस क्षेत्र में नदियाँ अधिक हैं। इस क्षेत्र के लिए ये महत्वपूर्ण हैं। नदियों के किनारे गाँव बसे हैं। बगीचे, खेत, मंदिर नदी के किनारे ही होते हैं। यात्रियों के लिए भी यह स्थान महत्त्वपूर्ण होता है, किन्तु यहाँ पर नदियों का सौम्य एवं रौद्र, दो प्रकार का चित्रण किया गया है। इसी कारणवश नदी द्विचर प्रतीक है।
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