(नायक दो_सान एक विद्यार्थी है जो अपनी रोचक भाषा शैली और बंधन
मुक्त वैचारिकता को यहाँ प्रस्तुत करता है। लेखन शैली के क्षेत्र में यह एक नया
प्रयोग माना जा सकता है।)
टोंक फाटक से राजस्थान यूनिवर्सिटी
कॉलेज जिसे सब राजस्थान कॉलेज ही कहते हैं, जाने के कितने रास्ते हैं, यह बताना मुश्किल है। बनाने में रास्ता बनाना सबसे आसान है, इसलिए नए रास्ते बनते रहते हैं। लेकिन 'दो_सान' सामान्यत: दो रास्तों से ही जाता है, जिसमें एक गांधीनगर मोड़ से गांधी सर्किल होते हुए जाता
है। गांधीनगर मोड़ पर बसें रूकती हैं, कैलाश टावर पर लड़के उतरते हैं। पीछे मुड़ते हुए चौराहा
पार करते हैं और चल पड़ते हैं कॉलेज की तरफ। बहुत लंबा चलना पड़ता है। बायी तरफ न देखें तो भी टोडरमल स्मारक भवन दिख ही जाता
है।
दूसरा रास्ता मज़ेदार है, रेलवे फाटक पार करना पड़ता है। दो_सान हमेशा चाहता है कि फाटक बंद हो ताकि वो गाड़ियों के
बगल में होता हुआ निकल जाए। होता भी ऐसा ही है, लेकिन कभी-कभी ट्रेन आ
जाती है और उसे गाड़ियों के आगे खड़ा होकर ट्रेन के जाने का इंतज़ार करना पड़ता
है। तब उसे डर सताता रहता है कि ट्रेन में बहुत सारे मानव कौल जैसे लेखक होंगे जो
दरवाजे पर खड़े-खड़े सिगरेट का धुआं उड़ाते हुए उसे अपनी कहानी का पात्र बना देंगे।
वह कहानियों का पात्र बन जाएगा, फिर उसे अपनी ही कहानी पढ़ने के लिए पैसे देकर
किताब खरीदनी पड़ेगी। रेलवे फाटक पार करने के बाद उस पुल के नीचे से गुजरना पड़ता
है जिसके ऊपर टोंक रोड है। सड़क पुल के नीचे से गुजरने वाले रास्ते को पता नहीं
क्या कहते हैं, लेकिन दो_सान के लिए वह सुरंग है जिसे पार करना मुश्किल काम लगता
है। उस सुरंगनुमा सड़क को पार करते ही तिराहा (यहाँ तीन सड़कें मिलती हैं) है जिस
पर देवताओं के लिए या भूतों के लिए कुछ बना हुआ है। हालांकि वहाँ डर कभी नहीं लगता है। फिर वह शहीद अभिमन्यु रोड पर पहुँचता
है जिसके बाएं किनारे पर शुरुआत में ही केंद्रीय विद्यालय है, जिसकी तरफ वो देखता नहीं है, देखें तो स्कूल की यादें आ
जायेंगी और सड़क पर रोता हुआ अच्छा नहीं लगेगा। दो_सान चलते हुए दूसरी तरफ
देखता है, सड़क की दूसरी तरफ खादी ग्रामोद्योग भवन है जिसकी दीवार पर एक छोटी-सी टोंटी लगी हुई है और उससे कुछ
ही दूरी पर दीवार पर ही दो जगह पर सुपारी और पान मसाला टंगा हुआ है। खास बात यह है
कि उन दोनों जगहों पर चाय बनती है, उनके बीच में खड़े होने पर जो चाय की खुशबू आती
है उससे सिर दर्द ठीक हो जाता है। इसलिए दो_सान लौटते वक्त जब उस तरफ होता है, क्योंकि लौटते वक्त
वह बायां किनारा हो जाता है और नियम सड़क की बाईं तरफ चलने का है, तब वह उन दोनों के बीच खड़े होकर चाय की खुशबू चखता है।
उसी रोड पर आगे बजाज नगर पुलिस स्टेशन भी है, जहाँ कभी कबाड़ हो चुकी
मोटरसाइकिलों का ढेर था। आगे दोनों किनारों पर मंदिर ही मंदिर हैं, जयपुर में बनारस की ही तरह जगह-जगह पर मंदिर हैं, लेकिन दो_सान कभी जान नहीं पाया कि
ये किन भगवान के मंदिर हैं, क्योंकि ज़्यादातर मंदिरों का नाम भगवान के पर्यायवाची
शब्द में लिखा होता है और मूर्तियां भी बहुत सारे भगवानों की एक
साथ रखी होती हैं। इसी सड़क पर चलते-चलते जब सड़क खत्म करते हैं और जवाहर कला केंद्र के पास पहुँचते
है जो शायद जयपुर के कलाकारों की बची-खुची निशानी है, के पास तिराहा है। बहुत सारी गाड़ियों की आवाजाही के
बावजूद उसे पार करना जयपुर की बाकी सड़कों की अपेक्षा आसान है। इसके बाद जवाहर रोड
के किनारे थोड़ा चलना और दो कॉलेजों, वर्धमान महावीर खुला
विश्विद्यालय और कॉमर्स कॉलेज के बाद राजस्थान कॉलेज है।
राजस्थान कॉलेज के सामने ही जवाहर
रोड के दूसरे किनारे पर सौम्य मार्ग के अंदर घुसते ही डॉक्टर राधाकृष्णन लाइब्रेरी
है। शहीद अभिमन्यु रोड पर ही जहाँ एक मंदिर है, उसके दूसरे किनारे सड़क
खुलती है और उस सड़क के शुरू होते ही दोनों तरफ भारतीय रिजर्व बैंक के अधिकारियों का कार्यालय है। उस सड़क की गलियों में
घूमते-घूमते 'डॉ.राधाकृष्ण लाइब्रेरी' पहुंचा जा सकता है। टोंक
रोड के उस तरफ का जयपुर भीड़ भरा है, क्योंकि अधिकतर कोचिंग संस्थान वहीं है। एक तरह की घुटन है वहाँ। वहाँ रहते हुए जयपुरवासियों पर दया आती है लेकिन दो_सान जब टोंक फाटक से इस तरफ़ गलियों के अंदर से खासकर
राधाकृष्णन लाइब्रेरी से लौटते वक्त इन गलियों में चलता है तो जयपुर के लोगों से
जलन होती है। गालिब ने बनारस के बारे में कहा है कि बनारस को देखकर दिल्ली के
लोगों को ईर्ष्या होती है, ये कहना तो बेअदबी होगी लेकिन एक तरह का रश्क़ जरूर है। रश्क़ माने वो मीठी सी जलन
कि काश मैं भी उसके जैसा होता। इन गलियों में लोग कम ही रहते हैं। ज्यादातर सरकारी इमारते हैं। पेड़-पौधे हैं, उनकी खुशबू है और हवा में
उड़ते पत्ते हैं। शाम के वक्त जब दो_सान उन गलियों में चलता है
तो दिल तेजी से धड़कता है। सीने में मीठा-मीठा दर्द उठता है। दिल की धड़कन की ही
तरह दो_सान के पैर जल्दी-जल्दी चलते हैं।
‘डॉ. राधाकृष्णन लाइब्रेरी' सरकारी लाइब्रेरी है, जिसे देखकर सरकारी
संस्थानों के प्रति विचार बदल जाता है। उसके बाहर गार्डन है, जहाँ सर्दियों की धूप में लड़के और लड़कियाँ पढ़ते रहते
हैं। बाहर दुकान है जहाँ चाय भी मिलती है।
दो_सान ने सुन रखा था कि
भारतीय संस्कृति में स्त्रियों को उच्च स्थान प्राप्त है। लेकिन देखा पहली बार, क्योंकि 'सावित्रीबाई फुले वाचनालय' में लड़कियों के पढ़ने के लिए फर्स्ट फ्लोर में टेबले
लगी हैं और लड़के ग्राउंड फ्लोर पर पढ़ते हैं। ऊपरी मंजिल का बरामदा इस तरह से बना
है कि नीचे बैठे लड़कों को लड़कियाँ दिख सकती हैं। लड़कियों को देखने के लिए गर्दन
ऊपर उठानी पड़ती है जिसका मतलब है, सब की नजर में आना। लेकिन लड़कियाँ ऊपर
से नीचे आराम से देख सकती हैं। अगर दो_सान पेंटर होता और उसे
राधाकृष्णन लाइब्रेरी में पढ़ती हुई किसी लड़की का चित्र बनाने को कहा जाता तो वह
जो चित्र बनाता उसमें टेबल पर रखे बैग और उस पर किताब पर लड़की का सिर टिका होता। वह किताब पर दोनों हाथ बांधकर बायी कोहनी पर सिर झुका कर
दाहिनी तरफ नीचे किसी को देख रही होती। कोहनी पर सिर टिकाकर बायां हाथ रखने से
बाईं आँख बंद हो जाती। तब दो_सान को अपनी स्कूल की याद आती जिसमें उसे टीचर कहते हैं कि "दो_सान, एक आँख से कैसे नींद ली जाती है?" तब दो_सान अपने स्थान पर खड़ा हो जाता है और मुस्कुराते हुए
पानी पीने चला जाता है। चित्र अधूरा ही छूट जायेगा।
शाम होते-होते दो_सान उन खूबसूरत गलियों और शहीद अभिमन्यु रोड पर चलते हुए, चाय की खुशबू चखते ट्रेन में सफर करने वाले लेखकों को
अपनी कहानियाँ देता हुआ, टोंक फाटक पर जाता है, जहाँ स्टूडेंट्स की बहुत
भीड़ होती है। वहाँ पर वह लड़कियाँ भी मिल जाती है जिनके कंधों पर बैग
टंगा होता है। कंधे पर बैग टांग कर चलती हुई लड़कियाँ बहुत सुंदर लगती है, क्योंकि वे जान चुकी हैं कि शरीर की खुबसूरती से ज्यादा
महत्त्वपूर्ण है दिमागी ख़ूबसूरती। उनके कंधों पर किताबों का वजन गवाही देता है कि
लड़कियाँ अब ख़ुद तय करेगी ख़ूबसूरत होने की परिभाषा।
फिर कई तिलिस्मी गलियों में भटकता
हुआ दो_सान कमरे पर पहुँचता है। कमरे पर पहुँचकर बस्ते के साथ-साथ वह ढेर सारी कहानियाँ
भी पटक देता है। उसका कमरा कहानियों की क़ब्रगाह है, जहाँ कई कहानियाँ दफन है।
जयपुर में दो_सान आज तक जिन-जिन कमरों में रहा है, वहाँ एक बार जाना तो बनता है । उन कमरों में बनी कब्रों
को खोदने से कई कहानियाँ मिलेगी, जो आज भी वैसी ही होंगी। वो दो_सान को देखते ही फिर से जिंदा हो जाएंगी, जिन्हें वह बाहर निकालकर दुनिया के हवाले करेगा।
दो_सान की ही तरह राजस्थान
कॉलेज के जो लड़के दूर से आए थे, (कहानियाँ इक्कठी करने के लिए और जिन्हें फिर से
नई कहानियाँ इक्कठी करने के लिए दूर जाना होता है) वो शायद कॉलेज का आखरी समय
राधाकृष्ण लायब्रेरी में ही गुजारते होंगे। शायद, क्योंकि दो_सान ने अपने कॉलेज का आखरी समय वहीँ गुजारा था तो उसके
जैसे लड़कों ने भी वही किया होगा। एक से स्वाद सी कहानियों से जब मन हल्का-हल्का
ऊबने लगा तो वह राधाकृष्ण लायब्रेरी की शरण में आ गया, सीयूईटी पीजी की तैयारी के
लिए। लायब्रेरी में जहाँ पर नौकरी की किताबें पढ़ने के लिए भी लोग आते हैं और ज़िंदगी
की किताबें पढ़ने के लिए भी। दो_सान जिंदगीनुमा नौकरी की किताबें पढ़ने के इरादे से दो-तीन
किलोमिटर चलकर लायब्रेरी आता और उन किताबों को छोड़कर साहित्य की पत्रिकाओं को
टटोलता रहता। पत्रिकाओं में लिखे का भार जब दिमाग में चक्कर लगाने लगता तो वह
लायब्रेरी छोड़कर चल देता कैम्पस की गलियों में, कहानियों के लिए। कॉलेज के
शुरुआती समय में दो_सान टोंक फाटक पर ट्रेन में गुजरते लेखकों को अपनी कहानियाँ
देते हुए और उस गुफानुमा रास्ते से नहीं गुजरता था। शुरुआती दिनों में बस जो
राजस्थान कॉलेज से छह-सात किलोमीटर दूर खिरनी फाटक से आती थी, उसे गांधी नगर मोड़ पर उतारती थी। गांधीनगर मोड़ से
टहलता हुआ दो_सान गांधी सर्किल होता हुआ राजस्थान कॉलेज पहुँचता था।
दो_सान ने ट्वेल्थ कोराना की
पहली मार में यानी सन 2020 में पास की थी और राजस्थान यूनिवर्सिटी में एडमिशन भी
उसी वर्ष हो गया था, लेकिन कॉलेज खुलने के लिए उसे मार्च, 2021 तक का इंतजार करना पडा। उस इंतजार का समय गाँव में बकरियों
के बच्चों के लिए कंटीले देसी बबूलों की फळिया इक्कठी करने में बीता। मार्च, 2021 में जब कॉलेज खुले तो दो_सान अपने गाँव के लड़कों
के साथ खिरनी फाटक में रहने लगा। वहाँ से राजस्थान कॉलेज सात नंबर बस से बैठ कर जाता था। राजस्थान कॉलेज जो राजस्थान
यूनिवर्सिटी का संघटक कॉलेज है, के बाहर पहली बार से लेकर आख़िरी बार जब भी जाओ, हाथ
मिलाने को बैचेन छात्र नेताओं की भीड़ मिलेगी। छात्र नेता जिनकी जाति ही विचारधारा
है और खुद का व्यक्तित्व ही पार्टी। राजस्थान कॉलेज में एक ख़ूबसूरत सी छोटी सी
लायब्रेरी है। और भी बहुत सारी ख़ूबसूरत चीज़े हैं। दूसरी खूबसूरत चीजों के बारे में बताया जा सकता है लेकिन
एक खूबसूरती का नियम कहता है कि सबसे ज्यादा ख़ूबसूरत चीज़ के बारे में बताने के
बाद बाकी ख़ूबसूरत चीजों के बारे में नहीं बताया जाता है और सबसे ख़ूबसूरत तो वह
छोटी सी लायब्रेरी ही है। बहुत से लड़कों को राजस्थान कॉलेज आने के बाद पता चलता
है कि इस कॉलेज में लड़कियाँ नहीं पढ़ती हैं। लड़कियाँ तो महारानी कॉलेज में पढ़ती
है। महारानी कॉलेज के सामने ही महाराजा कॉलेज है। यहाँ साइंस के लड़के पढ़ते हैं।
राजस्थान कॉलेज में आर्ट्स के और उसी के चिपके हुए कॉमर्स कॉलेज में कॉमर्स के लड़कें।
राजस्थान, महारानी, महाराजा और कॉमर्स ये
चारों कॉलेज राजस्थान यूनिवर्सिटी के संघटक कॉलेज है, जिनके विद्यार्थी राजस्थान यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ
चुनावों में हिस्सा लेते हैं।
राजस्थान कॉलेज में कहानियाँ
ढूंढ़ने वाले को बड़ी मेहनत करनी पड़ती है क्योंकि लड़कियों के न होने से लड़कों
की आँखों में ऐसी ख़ूबसूरत कहानियाँ कम दिखती हैं जो सामने से दिख जाएं। खुबसूरत कहानियाँ
होती हैं, बहुत सारी होती हैं लेकिन वो इतनी गहरी होती हैं कि
जिन्हें इक्कठा करने के लिए लड़कों की काली आँखों में देर तक तैरना होता है जो मज़ेदार
तो है लेकिन आसान नहीं।
राजस्थान कॉलेज रोहिड़े के फूल की
तरह है। रोहिड़े का फूल राजस्थान का राज्य पुष्प है। राजस्थान कॉलेज भी आर्ट्स के
विद्यार्थियों के लिए राजस्थान का सबसे बड़ा कॉलेज है, जहाँ कला के विद्यार्थी, इतिहास और राजनीति के
विद्यार्थी, समाज शास्त्र के विद्यार्थी पढ़ते है लेकिन...। रोहिड़े
का फूल दिखने में सुर्ख़ और कसूमल रंग का होता है। जब रोहिड़े पर फूल लग जाते हैं
तो वह लाल और कसूमल रंग से चमकता रहता है। रोहिड़े का फूल दिखने में ख़ूबसूरत होता
है लेकिन उसके उपर हमेशा चिपचिपा पानी लगा रहता है जो खारा सा होता है। रेगिस्तान
के धोरों पर खड़ा रोहिड़ा अपनी जड़ें पाताल तक भेजता है। उन फूलों को रसभरा करने
के लिए ठीक वैसे ही जैसे राजस्थान कॉलेज राजस्थान के कोने-कोने से विद्यार्थियों
को अपने पास बुलाता है। रोहिड़े के फूल का रस इतना खारा होता है कि लगता नहीं है
उसमें मधुमक्खियों को कहानियाँ मिलती होंगी, लेकिन कहानियाँ तो मिलती
हैं। दो_सान ने राजस्थान कॉलेज से ढ़ेर सारा शहद इक्कठा कर लिया
है।
राजस्थान कॉलेज के लड़कों के लिए बने हॉस्टल का नाम विवेकानंद के नाम से है। महाराजा कॉलेज के लड़कों के लिए गोखले और कॉमर्स कॉलेज के लड़कों के लिए महाराणा प्रताप के नाम से। दो_सान के 12th में अंक अच्छे नहीं आए थे तो उसे कोई उम्मीद नहीं थी कि हॉस्टल मिलेगा इसलिए उसने फॉर्म ही नहीं भरा। बाद में पता चला कि फॉर्म भरता तो देर से ही सही हॉस्टल मिल जाता, क्योंकि वहाँ इत्ती रैगिंग होती है, इत्ती रैगिंग होती है कि लड़के हॉस्टल छोड़ देते है। कहानियों की तलाश में पुनः नए लड़के हॉस्टल आते हैं, जिनके कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेवारी लाद दी जाती है, सीनियर लडकों के द्वारा, वह होती है दूसरे हॉस्टल के लड़कों से लड़ाई करने की।
मार्च, 2021 में पहुँचे दो_सान को अगले महीने ही
जयपुर छोड़ना पड़ता है क्योंकि कोरोना की दूसरी लहर आ चुकी थीं। बहुत लम्बे वक्त
तक गाँव में रहने के बाद लौटता है। खिरनी फाटक छोड़कर गोपालपुरा में रूम लेता है
फिर वही राजस्थान विश्वविद्यालय के कैम्पस की ख़ूबसूरत गलियाँ, ख़ूबसूरत गलियों में घूमता दो_सान और ढ़ेर सारी कहानियाँ जो उन कमरों में आज भी दफ़न
है जहाँ कभी न कभी वह रहा था।
जब दो_सान राजस्थान कॉलेज छूटने के दौरान आख़िरी वक़्त पर पहुँचता
है और इक्कठी की गई तमाम कहानियों का वज़न दिमाग़ में छटपटाने लगता है तो वह टोंक
फाटक पर गुज़रती ट्रेन के सामने खड़ा हुआ सोचता है कि अब ट्रेन में गुज़रते लेखक
के अतीत को किसी उपन्यास की चित्रलेखा धक्का दे ही दे। ट्रेन से गिरकर लेखक पटरी
पर आ जाए जिसे दो_सान ले चले अपने साथ युनिवर्सिटी कैम्पस और सुना दे भोगी
हुई सारी कहानियाँ जिससे वो ख़ूबसूरत सी कहानियाँ आए किताबों में और उन्हें
पैसे देकर ख़रीदा जाए, पढ़ा जाए और पढ़कर कहा जाए कि ये कहानी तो बिल्कुल मेरी
ही कहानी है। ये कहानियाँ किसी दूसरे लेखक को ही लिखनी होंगी क्योंकि ये इतनी
व्यक्तिगत हैं कि ख़ुद नहीं लिखी जा सकती हैं। व्यक्तिगत कहानियों से जब प्यार हो
जाए तो उन्हें कैसे लिखा जा सकता है? व्यक्तिगत कहानी जब स्मरण
में रहती है तो पूरी की पूरी रहती है, जब वो काग़ज़ पर उतरती है
तो उसके कई हिस्से ख़त्म हो जाते हैं। वैसे भी राजस्थान कॉलेज तो रोहिड़ा है।
रोहिड़े के ऊपर चढ़कर उसके फूलों को अॅंगौछे में भरकर ले जाया जाता है तो बकरी का बच्चा
खा लेता है, लेकिन जब रोहिड़े को धंधोंण देकर फूल रेत पर गिराए जाते है और फिर
इक्कठा करके ले जाते है, तब वो नन्हा सा बच्चा नहीं खाता है, क्योंकि उन पर रेत
चिपक जाती है। अब उन्हें वह बकरी ही खायेगी जो बहुत भूखी हो, बच्चा नहीं। रोहिड़े पर चढ़कर फूलों को इक्कठा कर के ले
जाना राजस्थान कॉलेज की कहानियों को स्मरण में ले आना है।
रोहिड़े के फूल गिरा कर रेत से चुगकर ले जाना कहानियों को काग़ज़ पर लिखा जाना है।
खिरनी फाटक से कॉलेज पहुँचने तक की कहानी लिखी जा सकती है। कॉलेज पहुँचकर जैसे ही
दोस्तों से बात होने लगती है तो कहानी व्यक्तिगत हो जाती है। राजस्थान कॉलेज और
महारानी कॉलेज के बीच की दूरी को लिखा जा सकता है लेकिन जैसे ही महारानी कॉलेज के
बाहर कोई दिखता है, वो लिखने के हिस्से से बाहर हो जाता है।
इन व्यक्तिगत क़िस्सों में वही
लिखा जा सकता है जो अच्छा नहीं है। अच्छें किस्सों को स्मरण से बाहर करने की
हिम्मत भावुक लड़कों में नहीं होती है। बुरे किस्सों को भी भारी मन से स्मरण से
बाहर करके काग़ज़ पर उतारा जाता है। ऐसा ही एक क़िस्सा है। कॉलेज में एनुअल फंक्शन होने वाला होता है। नोटिफिकेशन
आती है। दो_सान भी स्टैंडअप कॉमेडी का ट्रायल देने जाता है। सामने
दो मैडम आकर बैठती हैं। दो_सान मंच पर जाता है और कॉलेज के बारे में जितना भी बुरा
कहा जा सकता था, कहता है।
" 'यूनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान कॉलेज' कितना स्वीट नाम है, अगर सलीक़े से इंग्लिश में
कोई कह दे न कि 'आई एम बिलॉन्ग टू राजस्थान कॉलेज' या 'युनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान कॉलेज' तो सामने वाला फिदा हो जाए।
वेलेंटाइन डे पर सिर्फ कॉलेज का नाम सुनकर ही लड़की गुलाब देकर चली जाए। ऐसा लगता
है, होता नहीं है। इस कॉलेज के मनहूस लड़के, जिनकी नियति है अखण्ड
सिंगल होना। सिर्फ़ गाँव में एटिट्यूड झाड़ने के लिए ही इस कॉलेज का नाम लेते
हैं।...
इस कॉलेज में लड़की नाम का कोई जीव
है ही नहीं, घास सूख रही है, क्लासेज़ हम लेते नहीं है
फिर किस बात का गर्व है। अपने इंस्टाग्राम के बायो में लिखते हैं, 'फ्रॉम युनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान कॉलेज।' प्राउड के साथ व्हाट्सएप के अबाउट में लिखा होता है, 'राजस्थान कॉलेज' या सिर्फ 'आर यू।' यह जो 'आर यू' है इस पर मेरा रिसर्च है। यह दो अल्फाबेट राजस्थान
यूनिवर्सिटी के अर्थ में नहीं लिखते हैं। आर यू का मतलब है, 'आर यू एस' 'एस' साइलेंट है, जिसका अर्थ है, सिंगल। ये
पूछना चाहते हैं कि 'आर यू सिंगल? बिकॉज आई एम आलसो सिंगल।' क्योंकि हम जिस यूनिवर्सिटी के कालेजों में पढ़ते हैं वहाँ
एक ही लिंग के प्राणी पाए जाते हैं।”
अब दो_सान मंच पर जमने लगा था, आगे कहता है, “जो रेगुलरली
कॉलेज आते हैं वो पक्का गे हैं, क्योंकि लड़कियाँ न होने से कोई कारण नहीं बचता है कॉलेज
आने का।” इतना काफ़ी होता है मैडम को ग़ुस्सा दिलाने के लिए। उनका मुँह ग़ुस्से से चिड़चिड़ा हो जाता है। चिड़चिड़ेपन
से भरे हुए ग़ुस्से के बारे में लिखा जा सकता है। वो ख़ूबसूरत स्मरण नहीं है। अगर
उन मैडम ने कभी दो_सान को पढ़ाया होता तो उनके ग़ुस्से में चिड़चिड़ापन
नहीं होता, भावुकता होती, जिसकी यादें ख़ूबसूरत होती, जिनके बारे में नहीं लिखा जा सकता है।
दोस्तों से हुए झगड़ों के बारे में नहीं लिखा जा सकता, क्योंकि वो झगड़े चिड़चिड़े नहीं, भावनाओं से भरे हुए हैं। स्मृति भवन की प्रेम कहानियाँ भी ख़ूबसूरत ही हैं। चारों ओर से पुलिस से घिरे कॉलेज में विवेकानंद हॉस्टल और मीणा हॉस्टल के लड़के जो एक दूसरे को गालियाँ निकालते हुए पत्थर फेंक रहे होते हैं, के बारे में भी नहीं लिखा जा सकता, क्योंकि उसमें दो_सान की उपस्थिति नहीं होती है। वो यादें जिनमें ख़ुद की अनुपस्थिति होती है, त्रासदी होती है। ऐसे में कॉलेज को याद करते हुए त्रासदी लिखना ठीक नहीं है। कभी जयपुर जाना हो तो राजस्थान विश्वविद्यालय के आस पास टहलने चले जाना, वहाँ मिल जाएंगें चाय की ख़ुशबू चखते हुए दो_सान सरीखे लडकें। उन लड़कों की आँखों में छिपीं कहानियाँ दो_सान के कमरों में दफ़न कहानियों जैसीं ही होंगी।
बधाई जशवंत
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जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत और जीवित चित्रण 😍❤️
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हटाएंबेहद शानदार अभिव्यक्ति ✨
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हटाएंशुक्रिया, ख़ूबसूरत टिप्पणी के लिए। बहुत कुछ स्मरण में है जो लिखे में नहीं आया है, चाय की थड़िया भी उसी में है। वो भी कभी लिखे में आ जाएंगी।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
Bhaut Sundar ❤️
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