शोध सार : भारतीय संस्कृति आदिकाल से चिन्तन प्रधान रही है। चिन्तन का फल, विचारों की अनुभूति पर निर्भरकरता है यदि अनुभूति सरल, सहज और सघन है तो फल भी सशक्त और चिर कालिक होगा। किसी भी देश, समाज, जातियाँ व्यक्ति का दर्शन चिरकालिक चिन्तन का परिणाम होता है, इसलिए इसे देशकाल की सीमा में बाँधना उचित नहीं है। जगत् का रहस्य हो, आध्यात्मिक रहस्यों के गुप्त अनुभव हो या मृत्यु को जीतने की इच्छा हो इन सभी का समाधान दर्शन में करने का प्रयास किया गया है। दर्शन न तो प्राचीन है और न ही नवीन, न भारतीय है न अभारतीय। इसका स्वरूप तो सार्वदेशिक, सार्वभौमिक तथा चिर नवीन, शाश्वत और सनातन माना गया है। इसे न तो भूगोल-खगोल की मर्यादाओं में कैद किया जा सकता है और न ही इतिहास और युग की सीमाओं में बाँधा जा सकता है।
बीज शब्द :
आदिकाल,
सार्वदेशिक, सार्वभौमिक, शाश्वत, सनातन,
भूगोल-खगोल,
साक्षात्कार,
आत्मतत्व,
दर्शनशास्त्र,
आविर्भाव
मूल आलेख :
दर्शन
कार्य
कारण
के
सम्बन्ध
के
आधार
पर
वह
तर्कयुक्त
चिन्तन
प्रक्रिया
है;
जिसके
द्वारा
जीवन
जगत
तथा
सर्वशक्तिमान
सत्ता
को
समझा
जा
सके।
दर्शन
का
सम्बन्ध
समाज
की
वास्तविक
आवश्यकताओं
और
इच्छाओं
के
साथ-साथ
प्रकृति
और
समाज
के
यर्थाथ
ज्ञान
से
भी
है।
जिससे
मनुष्य
की
आवश्यकताओं
और
इच्छाओं
की
पूर्ति
होती
है।
दर्शन
शब्द
का अर्थ
व परिभाषा
: ’दर्शन’ शब्द
की
उत्पत्ति
संस्कृत
की
दृश्
धातु
से
करण
अर्थ
में
ल्युट्
प्रत्यय
लगकर
हुई
है।
इस
उत्पत्ति
के
अनुसार
दर्शन
का
अर्थ
हुआ
देखना।
यहाँ
देखा
जाए
का
अर्थ
है
“दृश्यते
अनेन
इति
दर्शनम्’ अर्थात्
जिसके
द्वारा
देखा
जाए।“1
हिन्दी
संस्कृत
कोश
में
दर्शन
का
अर्थ
है;
“वह
ज्ञान
जो
देखने
से
हो’, साक्षात्कार
तत्त्व
सम्बन्धी
या
वह
ज्ञान
जो
ब्रह्म, जीव, जगत्
व मोक्ष
का
ज्ञान
कराए।“2 कुछ
विद्वानों
के
अनुसार
“दर्शन
का
अर्थ
ज्ञान
प्राप्त
करना
भी
है।
स्थूल
तथा
सूक्ष्म
दोनों
प्रकार
के
पदार्थ
दर्शनशास्त्र
के
विषय
है;
और
परमतत्त्व
की
प्राप्ति
के
लिए
दोनों
का
साक्षात्कार
करना
आवश्यक
है।
इसलिए
चार्वाक, न्याय, वैशेशिक
आदि
दर्शनों
में
स्थूल
पदार्थों
के
तथा
सांख्य
योग, वेदान्त
आदि
दर्शनों
में
सूक्ष्म
पदार्थों
को
देखने
के
उपाय
बताए
गए
हैं।“3
भारतीय दर्शन
अवधारणा
के
अनुसार
दर्शन
का
मुख्य
लक्ष्य
मनुष्य का आत्मिक
विकास
कर
उसके
जीवन
में
आने
वाले
कष्टों
व मूल
तत्त्वों
को
जानना
है।
मनुष्य को आध्यात्मिक
दुःखों
से
मुक्ति
दिलाना
है।
इस
दुःख
का
मूल
कारण
अज्ञान
है।
क्योंकि
जब
मनुष्य इस दुःख
रूपी
सागर
को
पार
कर
जाता
है
तो
उसे
आत्मतत्त्व
का
ज्ञान
हो
जाता
है।
इसके
बाद
उसे
परम
षान्ति
और
सुख
की
प्राप्ति
होती
है।
जो
कि
जीवात्मा
का
परम
लक्ष्य
होता
है।
इसी
प्रकार
दर्शन
ही
वह
सम्यक्ष
ज्ञान
है
जो
मोक्ष
का
साधन
है।
कुछ
दर्शनों
के
अनुसार
मोक्ष
से
केवल
दुःखों
का
नाश
ही
नहीं
होता
अपितु
आनन्द
की
प्राप्ति
भी
होती
है।
संत
शब्द का
अर्थ - हिन्दी
में
संत
शब्द
का
प्रयोग
एकवचन
के
रूप
में
होता
है।
किन्तु
संस्कृत
में
सन्
षब्द
बहुवचन
रूप
में
मूलतः
अस्
धातु
लगकर
पुल्लिंग
शब्द
सत्
बना
है।
शतृ
प्रत्यय
लगकर
साहित्य
में
संत
शब्द
प्रचलित
हुआ
है।
यदि
संत
की
व्युत्पति
’सत’ से
मानी
जाए
तो
इसका
अर्थ
है-“नित्य
और
अव्यय।“
4
ऋग्वेद में
’सत्य’ शब्द
का
प्रयोग
“उस
व्यक्ति
के
लिए
किया
जाता
है;
जिसने
सत्य
का
अर्थात्
परमात्मा
को
जान
लिया
है।“
5
हिन्दी
साहित्य
कोश
में
“संत
शब्द
का
अर्थ
किसी
भी
पवित्रात्मा
और
सदाचारी
पुरूष
के
लिए
किया
जाता
है।
इसका
एक
अन्य
पर्याय
’साधु’ और
महात्मा
भी
माना
जाता
है।“
6
डॉ.
राजदेव
सिहँ
ने
“निर्गुण
ब्रह्म
की
उपासना
करने
वाले
भक्तों
को
संत
कहा
है।
हिन्दी
साहित्य
में
कबीर, रैदास, नानक, दादू, रज्जबदास
आदि
के
लिए
सन्त
शब्द
का
प्रयोग
किया
जाता
है।“
7
आचार्य
परशुराम
चतुर्वेदी
ने
’उत्तरी
भारत
की
संत
परम्परा’ में
संत
शब्द
का
सर्वप्रथम
प्रयोग
“उन
भक्तों
के
लिए
किया
था
जो
बिट्ठल
या
बारकरी
सम्प्रदाय
के
प्रवर्तक
थे।
इन
भक्तों
में
ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ
और
तुकाराम
का
नाम
लिया
जाता
है।
बाद
में
इन्हीं
भक्तों
के
समान
गुण
होने
के
कारण
उत्तरी
भारत
के
कबीरदास
और
उनके
अनुयायी
अन्य
कवियों
को
भी
संत
कहा
जाने
लगा।“
8
निर्गुण
सम्प्रदाय, निर्गुण
पंथ, निर्गुण
धारा
आदि
के
स्थान
पर
अब
संत
सम्प्रदाय, संतमत, संत
साहित्य
आदि
शब्दों
का
प्रयोग
होने
लगा
है।
भक्ति
आन्दोलन
के
समय
संत
शब्द
का
प्रयोग
ऐसे
महापुरूषों, साधकों
एंव
कवियों
के
लिए
किया
जाता
था
जो
आत्मशुद्धि
के
सहारे
ईश्वर
की
खोज
में
लगे
हुए
थे।
हिन्दी साहित्य
के
इतिहास
में
भक्तिकाल
की
दो
धाराएं
प्रवाहित
हुई
है।
निर्गुण काव्यधारा और
सगुण काव्य धारा। निर्गुण काव्यधारा
की
भी
ज्ञानाश्रयी
व प्रेमाश्रयी
दो
शाखाएं
है।
ज्ञानाश्रयी
शाखा
के
संत
कवियों
ने
ज्ञान
को
तथा
प्रेमाश्रयी
शाखा
के
कवियों
ने
प्रेम
को
महत्त्व
दिया।
ज्ञानाश्रयी
शाखा
के
कवियों
को
ही
संत
या
संत
कवि
कहा
जाता
है।
हिन्दी
की
यह
काव्यधारा
दक्षिण
भारत
के
संत
नामदेव
से
आरम्भ
होकर
उत्तर
भारत
में
अनवरत
रूप
से
बही
है।
कबीर, गुरूनानक, रैदास, दादू, रज्जबदास, सुन्दरदास, लालदास, चरणदास
आदि
इसी
काव्यधारा
के
महान्
संत
महापुरुष हुए हैं।
संत परम्परा
का
प्रारम्भ
आदि
संत
कबीर
से
माना
जाता
है।
संत
साहित्य,
हिन्दी
साहित्य
में
नहीं
बल्कि
सम्पूर्ण
विश्व
साहित्य
में
अपना
विशिष्ट
स्थान
रखता
है।
इतिहास
इस
बात
का
साक्षी
है
कि
मध्यकालीन
संतों
के
आविर्भाव
का
समय
धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक
व सांस्कृतिक
दृश्टि
से
पतनोन्मुखी
था।
इसके
उत्थान
के
लिए
इन
संत
महात्माओं
ने
अपना
सर्वस्व
योगदान
दिया
था।इन
संत
महात्माओं
की
अभिव्यक्ति
का
मुख्य
साधन
साहित्य
ही
था।
इन्होंने
युग
के
अनुरूप
अपनी
वाणी
का
अनुदान
समाज
को
दिया।
ये
संत
भक्त
भारतीय
समाज
के
कोने-कोने
में
फैले
हुए
थे
और
अपने-अपने
ढंग
से
समाज
सुधार
के
कार्य
में
लगे
हुए
थे।
ये
संत
निर्गुण
ब्रह्म
के
उपासक
थे
और
दर्शन
की
दृष्टि से ये
संत
अद्वैतवादी
भी
थे।
एक
ओर
तो
ये
संत
इस्लाम
के
एकेश्ववाद
से
प्रभावित
थे
तो
दूसरी
ओर
उपनिषदों
के
तत्त्व
चिन्तन
से
भी।
इनकी
साधना
में
ज्ञान, भक्ति
और
योग
तीनों
का
समन्वय
था।
संतों
की दार्शनिक
विचारधारा - भक्तिकाल
के
संत
मूल
रूप
से
दार्शनिक
नहीं
थे।
लेकिन
इनकी
बानियों
में
दार्शनिक
तत्त्वों का अनायास
निरूपण
हो
गया।
इन
सन्तों
की
दार्शनिक
मान्यताओं
सम्बन्धी
धारणा
पुस्तकीय
व शास्त्रीय
ज्ञान
पर
आधारित
न होकर
उनके
द्वारा
अनुभूत
किये
गए
विभिन्न
प्रकार
के
विचारों
के
चिन्तन
व मनन
पर
आधारित
है।
इन्होंने
अपने
दर्शन
का
आधार
तत्कालीन
समाज
में
प्रचलित
विचारधारा
को
बनाया
है
क्योंकि
जो
दर्शन
अपनी
समसामयिकता
को
छोड़
देता
है
वह
कभी
चिरकालिक
नहीं
हुआ
करता।
इन
संत
कवियों
के
दार्शनिक
विचारों
का
मूल
आधार
है-
आत्मशुद्धि।
चित्त
की
वृत्तियों
का
अहंकार
रहित
होकर
ब्रह्म
के
साथ
तदात्कार
हो
जाना
ही
सन्तों
का
अभीश्ट
है।
इन
संतों
ने
ईश्वर
के
सगुण
रूप
का
विरोध
करते
हुए
उसके
निर्गुण
रूप
को
अपनाया
है।
ब्रह्म, जीव, जगत्, माया, मोक्ष
आदि
के
विशय
में
इन
संतों
के
विचारों
में
एकरूपता
दिखाई
देती
है
किन्तु
उनकी
अभिव्यक्ति
शैली
अलग-अलग
है।
इन संतों
ने
ब्रह्म, जीव, जगत्, माया
व मोक्ष
के
विषय
में
जिन
दार्शनिक
विचारों
का
निरूपण
किया
है
वो
इस
प्रकार
से
है
:
ब्रह्म
सम्बन्धी विचारधारा
- भारतीय
दर्शन
साहित्य
में
बल्लभाचार्य
ने
ब्रह्म
को
सत्+चित्+आनन्द
स्वरूप
माना
है।
उपनिषदों
में
ब्रह्म
को
परमसत्, एक, अद्वैतरूप, सत्य, ज्ञान, अनन्त
स्वरूप
कहा
है।
और
ब्रह्म
ही
जगत्
की
उत्पत्ति, स्थिति
और
संहार
का
कारण
है।
सब
जगह
व्याप्त
होने
के
कारण
उसे
सर्व
भूमा
कहा
है।
9
अद्वैतवादियों की
तरह
कबीर
ने
भी
ब्रह्म
को
अनिर्वचनीय, निर्गुण, निराकार
कहा
है
उनके
अनुसार
वह
ब्रह्म
सत्, रज, तम
तीनों
गुणों
से
परे
है।
कबीर
ने
ब्रह्म
को
सहज, निरंजन
अथवा
अलख
भी
कहा
है।
उस
निर्गुण, निराकार
ब्रह्म
की
परमसत्ता
की
गति
को
कोई
नहीं
जान
पाता
है
उनके
ब्रह्म
तो
बाहर-भीतर
सर्वत्र
व्याप्त
है
:
“निर्गुण राम जपहु रे भाई,
अविगत की गति लखि न जाई।“
10
इसी प्रकार
संत
दादू
ने
भी
ब्रह्म
को
पुष्प
की
सुगंध
के
समान
अदृश्य, अजन्मा
और
निराकार
कहा
है।
दादू
ने
उस
परमतत्त्व
को
सर्वव्यापक
और
अव्यक्त
कहते
हुए
कहा
है
कि
वह
ईश्वर
एक
है
परन्तु
उसके
पास
पहुँचने
के
मार्ग
अलग-अलग
है।
वह
हमेशा
हमारे
साथ
ही
रहता
है।
“दादू
अैसा
बड़ा
अगाध
है, सूशि
जैसा
अंग,
पुहप
वास
थैं
पतला, सो
सदा
हमारै
संग।“
11
संत रविदास
ने
उस
परमतत्त्व
को
घट-घटवासी
व अंतर्यामी
कहा
है-
“सब
में
हरि
है, हरि
में
सब
है, हरि
आनौ
जनि
जाना,
आपनि
आपि
साशी
नहिं
दूसर, जाननहार
सयाना।“
12
गुरु नानक
ने
उस
ब्रह्म
के
विशय
में
कहा
है
कि
उसको
कोई
देख
नहीं
सकता
है।
उसका
कोई
एक
नाम
रंग, रूप
और
चिह्न
भी
नहीं
है।
उसके
दर्शन
तो
सच्चे
शब्द
से
किये
जा
सकते
है
:
“ना
तिसु
रूप
वरनु
नहीं
रेखिआ
साचै
सबदि
नीसाणु।“
13
इसी प्रकार
वह
ब्रह्म
पूरी
तरह
से
निराकार, रूपहीन
होकर
संसार
के
कण-कण
में
व्याप्त
रहता
है।
उस
ब्रह्म
का
कोई
स्वरूप
नहीं
है
किन्तु
जब
साधक
उसके
मूल
तत्त्व
को
समझ
लेता
है।
तो
वह
पुनः
ब्रह्म
के
समान
हो
जाता
है।
जीव
सम्बन्धी विचारधारा
- संत साहित्य
में
जीवात्मा
शब्द
का
प्रयोग
जीव
के
लिए
हुआ
है।
संतों
ने
जीवात्मा
को
परमात्मा
का
अंश
माना
है।
उस
जीव
के
अंदर
जो
आत्मा
है।
वही
चैतन्य
शक्ति
है।
मूल
रूप
में
आत्मा
और
परमात्मा
में
कोई
भेद
नहीं
है।
सभी
सन्तों
ने
आत्मा
को
ही
ब्रह्म
माना
है।
आत्मा
के
बिना
जीव
नहीं
और
जीव
के
बिना
आत्मा
नहीं।
जीव
और
आत्मा
के
मध्य
माया
के
कारण
अन्तर
दिखाई
देता
है।
जब
जीव
पर
माया
का
आवरण
आ जाता
है
तो
वह
जीवात्मा
कहलाती
है।
और
जब
वह
इस
आवरण
से
मुक्त
हो
जाता
है
तो
ज्ञान
के
प्रकाश
से
जीव
ब्रह्म
रूप
धारण
कर
लेता
है।
संत कबीर
ने
जीव
और
ब्रह्म
को
एक
मानते
हुए
उसमें
कोई
भेद
नहीं
किया
है।
जिस
प्रकार
कस्तूरी
मृग
की
नाभि
में
ही
निवास
करती
है।
अज्ञानवश
मृग
उसे
बाहर
समझकर
ढूढ़ता
है,वैसे
ही
प्रत्येक
घट
में
जीवात्मा
के
साथ
परमात्मा
का
निवास
है
किन्तु
अज्ञानजनित
आवरण
के
कारण
उसका
स्पष्ट
बोध
नहीं
होता
है।
“कस्तूरी
कुण्डल
बसै
मृग
ढूढै़
बन
माहि
ऐसे
घट-घट
राम
है
दुनिया
देखे
नाहि।“
14
इसी
प्रकार
जीव
को
चैतन्य
आत्मा
मानते
हुए
उसे
सत्
स्वीकार
किया
है-
हम
सब
माहि
सकल
हम
माहीं
हम
थैं
और
दूसरा
नाहीं।
15
इसी
प्रकार
रैदास
ने
भी
ब्रह्म
और
जीवात्मा
में
कोई
भेद
न मानते
हुए
दोनों
को
एक
ही
माना
है।
“कनक
कुटक
सुत
पट
ज्यों, रजु
भुअंग
भ्रम
जैसा,
जल
तंरग
पाहन
प्रतिमा
ज्यों, ब्रह्म
जीव
दुति
ऐसा।“
16
गुरूनानक
ने
जीव
को
परमात्मा
से
ही
उत्पन्न
माना
है
और
अंत
में
वह
उसके
अंदर
ही
समा
जाता
है
–
“तुझ
में
तो
उपजहिं, तुझ
माही
समावहि
नानक
साच
कहै, बेनती
मिलि
साचे
सुख
पाइदा।“
17
संत
कवि
दादू
ने
जीव
और
ईश्वर
के
भेद
को
स्पष्ट
करते
हुए
कहा
है
कि
जो
कर्मों
के
वश
में
रहता
है
वह
जीव
है
और
जो
कर्म
रहित
है।
वह
ब्रह्म
है।
कर्म
बन्धन
से
मुक्त
हो
जाना
ही
ब्रह्म
रूप
हो
जाना
है।
जहाँ
आत्मा
है
वहीं
परमात्मा
का
भी
निवास
है।
जीव
और
ब्रह्म
की
स्थिति
का
अंतर
करते
हुए
दादू
ने
कहा
है
कि
–
“कर्मों
के
बसि
जीव
है, कर्म
रहित
सो
ब्रह्म
जहँ
आतम
तँह
परमात्मा, दादू
भागे
भ्रम्भ।“
18
इसी प्रकार
आत्मा
निराकार, अनन्त
व निर्विकार
है
वह
न जन्म
लेता
है
और
न ही
मरता
है।
वह
शरीर
में
व्याप्त
रहता
है।
दादू
ने
जल
और
सागर
के
समान
आत्मा
और
परमात्मा
को
एक
मानते
हुए
कहा
है
कि-
“पर
आतम
सो
आतमा, ज्यौं
जल
उदधि
समाना”
19
इसी प्रकार
जब
तक
जीव
के
मन
में
अहंकार
रहता
है;
तब
तक
परमात्मा
उससे
दूर
रहता
है।
अहंकार
के
नष्ट
होने
पर
ही
जीव
ब्रह्म
में
लीन
हो
जाता
है।
अतः
अहम्
को
त्यागकर
ही
उस
ब्रह्म
को
सहज
रूप
में
पाया
जा
सकता
है।
जगत्
सम्बन्धी विचारधारा
:
उपनिषदों
के अनुसार-
“ब्रह्म
से
जगत्
की
उत्पत्ति
होती
है
जगत्
को
स्थिर
भी
वही
करता
है
और
निर्माण
और
विनाश
भी
वही।“
20
सांख्यदर्शन
के मतानुसार
“पुरुष
और
प्रकृति
के
संयोग
से
ही
सृष्टि की उत्पति
होती
है।
जब
प्रकृति
पुरुष
के
संसर्ग
में
आती
है
तभी
संसार
की
उत्पत्ति
होती
है।“
21
अद्वैतवादियों के
समान
कबीर
ने
ब्रह्म
को
सत्य
तथा
जगत्
को
मिथ्या
माना
है।
उन्होंने
संसार
की
सत्ता
को
नश्वर
मानते
हुए
कहा
है
कि
–
“पाणी
ही
तैं
हिम
भया, हिम
है
गया
बिलाइ
जो
कुछ
था
सोई
भया, अब
कछु
कह्या
न जाई।“22
इसी प्रकार
रैदास
ने
संसार
को
कुसुंभ
के
रंग
जैसा
मानते
हुए
कहा
है
कि-
“जैसा
रंग
कुसुंभ
का, तैसा
इह
संसार
मेरे
रमईए
रंग
मजीठ
का, कहु
रविदास
चमार।“23
गुरु नानक की
दृष्टि
में
यह
जगत्
धुएं
का
धवलहार
है।
जिस
प्रकार
धुएं
का
पहाड़
क्षणिक
है, नश्वर
है
उसी
प्रकार
यह
जगत्
भी
नश्वर
है।
“ढंढोलिमु
डिठु
मैं
नानक,
जगु
धूए
का
धवलहारू।“
24
सन्त दादू
पर
शंकराचार्य
का
प्रभाव
अधिक
दिखाई
पड़ता
है।
दादू
ने
ब्रह्म
को
सत्य
मानते
हुए
जगत्
की
सभी
वस्तुओं
को
असत्य
माना
है।
दादू
ने
इस
जगत्
को
स्वप्न
के
समान
माना
है।
अज्ञान
के
कारण
हमें
यह
सत्य
प्रतीत
होता
:
“सुपिनै
सब
कुछ
देखिये, जागै
तो
कहु
नांहि
ऐसा
यहु
संसार
है, समझि
देखि
मन
मांहि।“25
इसी प्रकार
इस
संसार
में
कोई
भी
वस्तु
स्थिर
नहीं
है
यहाँ
सब
परिवर्तनशील
है।
दादू
ने
इस
संसार
को
दुःख
का
सागर
कहा
है।
इस
संसार
रूपी
सागर
से
केवल
राम
रूपी
नाव
से
ही
बाहर
निकला
जा
सकता
है।
“दुश
दरिया
संसार
है, सुश
का
सागर
राम
सुश
सागर
चलि
जाईए, दादू
तजि
बेंकाम।“26
इसी प्रकार
ब्रह्म
ही
जगत्
का
सर्जक, पालक
व संहारक
है।
सभी
संतों
ने
ब्रह्म
को
सत्य
व जगत्
को
मिथ्या
व नश्वर
कहा
है।
जगत्
के
सारे
तत्त्व
नाशवान्
है।
केवल
वह
ब्रह्म
ही
अविनाशी
है।
माया
सम्बन्धी विचारधारा
- शंकराचार्य
के
अनुसार
ईश्वर
की
बीज
शक्ति
का
नाम
माया
है।
और
माया
के
कारण
ही
ईश्वर
जगत्
का
स्रष्टा
सिद्ध
होता
है।
इस
संसार
में
जो
कुछ
भी
घटित
होता
है
वह
सब
इस
माया
रूपी
शक्ति
से
ही
होता
है।
माया
को
त्रिगुणात्मक, नाम
रूपमय
और
सम्पूर्ण
संसार
की
बीज
शक्ति
के
रूप
में
जाना
जाता
है।
यह
सम्पूर्ण
जगत्
माया
का
ही
परिणाम
है।
सामान्यतः
माया
के
लिए
भ्रम, संशय, अज्ञान
आदि
शब्दों
का
प्रयोग
किया
जाता
है।
सन्तों
ने
माया
को
प्रपंचकारिणी
तथा
सांसारिक
प्रलोभनों
से
युक्त
बताया
है।
इन्हीं
प्रलोभनों
के
कारण
जीव
संसार
के
आवागमन
के
चक्र
से
मुक्ति
प्राप्त
नहीं
कर
सकता
है।
यह
माया
अपने
नाना
रूपों
से
जीवों
को
ठगती
रहती
है।
संतों
ने
माया
को
इन्द्रजाल
के
समान
बताया
है।
जो
इसमें
एक
बार
फंस
जाता
है
वह
इसके
आकर्षण
से
बाहर
नहीं
निकल
पाता
है।
कबीर
दास
ने
माया
को
मोहिनी
व महाठगिनी
कहा
है।
यह
माया
समूचे
संसार
को
अपने
वश
में
करके
चरित्र
भ्रष्ट
कर
देती
है।
यह
संसार
में
अज्ञान
का
अंधकार
फैलाती
है।
आत्मा
संसार
में
आकर
इसी
के
जाल
में
फंसती
है।
सृष्टि
के
सारे
सम्बन्ध
माया-जन्य
ही
है।
इससे
छुटकारा
पाना
सामान्य
व्यक्ति
के
वश
की
बात
नहीं
है।
अतः
सतगुरु
की
कृपा
से
ही
इससे
छुटकारा
पाया
जा
सकता
है
:
“कबीर
माया
मोहिनी, जैसी
मीठी
खाँड,
सतगुरु
की
कृपा
भई, नही
तो
करती
भाडँ।“27
संत रविदास
ने
जीव
और
ब्रह्म
के
द्वैत
भाव
का
कारण
माया
को
बताया
है।
और
इससे
छुटकारा
पाने
के
लिए
उन्होंने
’राम
नाम’ के
जाप
का
उपाय
बताते
हुए
कहा
है
कि
’कहै
रविदास
राम
जपि
रसना, माया
कैसे
संग
रहै
रे’। इसी
प्रकार
संत
रविदास
ने
जीव
को
अपने
वश
में
करने
वाली
माया
को
प्रंपच
कहते
हुए
कहा
है
कि-
“माया
मोहिला
काना, मैं
जन
सेवक
तेरा”
28
गुरु
नानक
ने
जगत्
को
मोहित
करने
वाली
माया
को
मोहिनी
शक्ति
कहते
हुए
कहा
है
:
“इनि
माइया
जगु
मोहिआ
विरला
बूझे
कोई”
29
अर्थात्
इस
माया
ने
जगत्
को
मोह
लिया
है।
कोई
विरला
व्यक्ति
ही
इसके
भेद
को
जान
सकता
है।
एक
अन्य
जगह
पर
गुरु
नानक
ने
माया
को
सर्पिणी
एंव
धोखा
कहते
हुए
कहा
है
कि
इससे
कोई
भी
मनुष्य
नहीं
बच
सकता
:
“बाबा
माइआ
रचना
धोहु,
इउ
सरपणि
कै
बसि
जी
अड़ा।“30
इसी प्रकार
दादू
ने
इस
जगत्
की
सभी
वस्तुओं
को
माया
जनित
माना
है।
दादू
ने
भी
अन्य
संतों
की
भांति
माया
को
सर्पिणी
का
रूप
धारणा
करने
वाली
कनक
और
कामिनी
के
रूप
में
वर्णन
किया
है।
यह
सब
जीवों
को
डसती
है।
यह
किसी
को
भी
नहीं
छोड़ती
है।
यहाँ
तक
कि
ब्रह्म, विष्णु, महेश
भी
इससे
बच
नहीं
पाते
है
–
“माया
सांपणी
सब
डसे, कनक
कामनी
होई,
ब्रह्मा, विश्न, महेस, लौं
दादू
वंचै
न कोई।“31
इसी प्रकार
जब
तक
घट
रूपी
हृदय
में
ब्रह्म
की
अनुभूति
नहीं
होती
तब
तक
वह
माया
से
मुक्त
नहीं
हो
सकता।
जब
साधक
को
सच्चा
ईश्वरीय
ज्ञान
प्राप्त
हो
जाता
है
तो
वह
माया
से
छुटकारा
पा
लेता
है।
मोक्ष
सम्बन्धी विचारधारा
- मोक्ष
का
साधारण
अर्थ
है
- जीवात्मा
को
जीवन
या
पुनर्जन्म
के
आवागमन
से
छुटकारा
दिलाना।
अर्थात्
जन्म
और
मृत्यु
के
बन्धन
से
जीव
को
मुक्त
करना
ही
मोक्ष
है।
मुक्ति
की
दशा
में
जीव
सब
प्रकार
के
दुःखों
से
मुक्त
हो
जाता
है।
अद्वैतवादियों की
तरह
कबीर
ने
दुःख
निवृत्ति
को
ही
मोक्ष
माना
है।
कबीर
ने
मोक्ष
के
लिए
मुक्ति, परमपद, अभय, पद, निर्वाण
आदि
अनेक
शब्दों
का
प्रयोग
किया
है।
उनका
मत
है
कि
विकारों
के
परित्याग
से
अपने
स्वरूप
का
ज्ञान
हो
जाने
पर
जीव
समदर्शी
हो
जाता
है।
उस
समय
उसे
परमशान्ति
प्राप्त
होती
है।
इस
प्रकार
से
कबीर
ने
अपने
आपको
पूर्ण
रूप
से
भगवान
को
समर्पित
कर
उससे
सायुज्य
होने
में
ही
मुक्ति
माना
है।
कबीर
ने
मुक्ति
में
जल
में
तंरग
का
लीन
होना
बताया
है
:
“जैसे जलहि तरंग तंरगनी, ऐसैं हम दिखलांवहिगे।“ 32
संत रविदास ने आत्मा का परमात्मा में और परमात्मा का आत्मा में लीन होना ही मुक्ति माना है :
“तोही
मोही, मोही
तोही
अन्दर
अैसा
कनक
कुटिक
जल
तरंग
जैसा।“33
गुरु नानक
के
अनुसार
“मुक्ति
ईश्वर
प्राप्ति
में
ही
है
और
ईश्वर
की
प्राप्ति
गुरु
की
कृपा
से
हो
सकती
है।
गुरु
की
कृपा
ईश्वर
की
दया
से
होती
है।
अतः
मोक्ष
की
प्राप्ति
के
लिए
ईश्वर
की
करूणा
का
होना
आवश्यक
है।“34
दादू
ने
मुक्ति
शब्द
का
प्रयोग
जीवन
मुक्ति
के
लिए
किया
है।
जब
जीव
जीवितावस्था
में
ही
जन्म
व मृत्यु
के
बन्धनों
से
मुक्त
होकर
ब्रह्म
के
साथ
तादात्म्य
स्थापित
कर
लेता
है
तो
वह
जीवन
मुक्ति
की
अवस्था
कहलाती
है।
जीव
को
जीवितावस्था
में
ही
सांसारिक
बंधनों
से
छुटकारा
मिल
सकता
है।
मृत्यु
के
बाद
नहीं।
मृत्यु
के
बाद
मुक्ति
संभव
होती
तो
सब
उसे
मृत्यु
बाद
ही
प्राप्त
कर
लेते।
“दादू
छूटै
जीवतां, मूवां
छूटै
नांहि,
मूवां
पीछै
छूटिए, तौ
सब
आए
उस
मांहि।“35
इसी प्रकार
जब
तत्त्व
ज्ञान
के
द्वारा
समस्त
दुःखों
का
अन्त
हो
जाता
है;
तो
मुक्ति
प्राप्त
होती
है।
मुक्त
होने
पर
आत्मा
चैतन्य
रहित
हो
जाती
है
और
उसे
सुख-दुःखादि
की
अनुभूति
नहीं
होती
है।
परमपद
की
प्राप्ति
तभी
होती
है।
जब
आत्मा
और
परमात्मा, जल
और
सागर
के
समान, पानी
व नमक
के
समान
एक
हो
जाते
है।
इसी
प्रकार
आत्मा
का
परमात्मा
में
लीन
हो
जाना
ही
मोक्ष
है।
निष्कर्ष:
इसी
प्रकार
सभी
सन्तों
की
दार्शनिक
विचारधारा
पर
वेदों, उपनिषदों
व अद्वैतवादियों
का
प्रभाव
दिखाई
पड़ता
है
। सभी
सन्तों
ने
अपने-अपने
साहित्य
में
उस
ईश्वर
का
वर्णन
किया
है
जो
एक
है, अद्वैत
है, असीम
है, परब्रह्म
है
और
सृष्टि
का
सर्जक, पालक
और
संहारक
है
। वह
जगत्
को
उत्पन्न
कर
जीव
का
निर्माण
करता
है
। उन्होंने
जीव
को
आत्मा
का
स्परूप
मानते
हुए
आत्मा
और
परमात्मा
में
एकत्व
भाव
को
स्वीकार
किया
है
। माया
को
कल्पित
भ्रम
मानते
हुए
उससे
मुक्त
हो
जाने
को
ही
मोक्ष
माना
है
। इसी
प्रकार
सन्त
साहित्य
की
दार्शनिक
विचारधारा
किसी
विशेष
शास्त्र
पर
आधारित
न होकर
आत्मानुभूति
पर
विशेष
रूप
से
आस्थावान
थी
। अतः
कबीर, रैदास, नानक, दादू
आदि
सन्तों
ने
ब्रह्म, जीव, जगत्, माया, मोक्ष
आदि
के
गहन
तत्वों
की
खोज
करते
हुए
दार्शनिक
सत्यों
को
उद्घाटित
किया
है
1. पाणिनी अष्टाध्यायी, 04/04/56
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