चुनाव सुधार : एक राष्ट्र एक चुनाव के विशेष संदर्भ में
- रत्ना सिंह एवं डॉ. हेमन्त कुमार मालवीय
शोध सार : किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौती रहा है। अगर हम देश में होने वाले चुनावों पर नजर डालें तो पाते हैं कि हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहता है। इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश की निधि पर भारी बोझ भी पड़ता है।
एक राष्ट्र एक चुनाव कोई अनूठा प्रयोग नहीं है क्योंकि 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा हो चुका है। जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाये गये थे। यह क्रम तब टूटा जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभायें विभिन्न कारणों से समय से पहले ही भंग कर दी गयी। अब वर्तमान में इसे लागू करने में क्या समस्या है, यह देश के लिए कितना सही होगा और कितना गलत आदि जैसे विचार को धरातल पर लाने के लिये इसकी विशेषताओं की जानकारी होना जरूरी है, क्योंकि जहाँ कुछ विश्लेषकों का मानना है कि अब देश की जनसंख्या बहुत ज्यादा बढ़ गयी है लिहाजा एक साथ चुनाव करा पाना संभव नहीं है तो वहीं दूसरी तरफ कुछ विश्लेषक कहते हैं कि अगर देश की जनसंख्या बढ़ी है तो तकनीक और अन्य संसाधनों का विकास हुआ है। इसलिये एक देश एक चुनाव की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, किन्तु इन सबसे इसकी सार्थकता सिद्ध नहीं होती, इसके लिये हमें पक्ष और विपक्ष में दिये गये तर्कों का विश्लेषण करना होगा।
बीज शब्द : राष्ट्र, चुनाव, राजनीतिक दल, ईवीएम, लोकसभा, विधानसभा, लागत, आचार संहिता, पक्ष, विपक्ष आदि।
मूल आलेख : चुनाव लोकतंत्र का आधार स्तम्भ है। चुनाव ही वह माध्यम है, जिसके द्वारा जनता देश की राजनीतिक व्यवस्था पर अपना नियंत्रण रखती है और अपनी पसन्द के व्यक्तियों को चुनकर देश की संसद या राज्य विधानसभाओं में भेजती है। परन्तु क्या होगा जब देश में हमेशा चुनाव ही होता रहे? भारत एक विशाल देश है और प्रतिवर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होता रहता है, जिससे विकास कार्य प्रभावित होते हैं। ऐसें में देश में एक साथ चुनाव कराये जाने की चर्चा तेज हो चली है, जिसके पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क दिये जा रहे हैं।
प्रश्न यह है कि एक देश एक चुनाव से क्या आशय है? देश में तीन स्तर के चुनाव होते हैं। पहला लोकसभा चनुाव, दूसरा राज्य विधानसभा का चुनाव और तीसरा पंचायतों एवं नगर निकायों के चुनाव। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्य विधानपरिषद् का चुनाव। परन्तु एक देश एक चुनाव में इन सभी चुनावों को एक साथ कराये जाने की बात नहीं हो रही है बल्कि इसमें केवल लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने की बात हो रही है।
देश में लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराये जाने संबंधी चर्चा लम्बे समय से हो रही है। तत्कालीन माननीय प्रधानमंत्री ने भी इस चर्चा को आगे बढ़ाया है। इस संदर्भ में चुनाव आयोग (1983), विधि आयोग (1999), नीति आयोग (2016), संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं तथा मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चन्द्रा ने भी एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया है। विधि आयोग इस मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिए एक कान्फ्रेंस भी कर चुका है।
भारत में लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का विचार नया नहीं है। स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1952, 1957, 1962 एवं 1967 के चुनाव एक साथ ही हुये थे। यह क्रम तब टूटा जब वर्ष 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभायें विभिन्न कारणों से अपना कार्यकाल पूरे होने से पहले ही भंग कर दी गयी। वर्ष 1971 में लोकसभा चुनाव समय से पहले ही हो गये थे और फिर इसके बाद यह क्रम बिगड़ता चला गया। अब जबकि पुनः एक साथ चुनाव कराये जाने की चर्चा तेज हो रही है तो उसके पक्ष एवं विपक्ष में अनेक तार्किक एवं विचारणीय तर्क दिये जा रहे हैं।
उद्देश्य
एक राष्ट्र एक चुनाव के लाभ और हानि का अध्ययन करना।
एक राष्ट्र एक चुनाव के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं का अध्ययन करना।
शोध पद्धति
प्रस्तुत शोध पत्र ऐतिहासिक, वर्णनात्मक एवं विश्लेषणात्मक शोध पद्धति पर आधारित है। इस शोध पत्र में प्राथमिक एवं द्वितीयक डाटा के द्वारा जानकारी एकत्र की गयी है। जैसे- पुस्तक, समाचार पत्र, सरकारी रिपोर्टस एवं प्रकाशन, शोध पत्र-पत्रिकाओं तथा ई-रिसोर्स आदि।
यदि एक राष्ट्र एक चुनाव के लाभ या सकारात्मक पक्ष की बात की जाये तो इसके अनेक लाभ हैं। पहला कि यह विकासोन्मुखी विचार है, चूंकि भारत एक विशाल देश है जिसके कारण प्रतिवर्ष किसी न किसी राज्य या लोकसभा का चुनाव अवश्य होता है। इससे देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। बार-बार आचार संहिता लगती है। इसके कारण सरकार नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती है। विकास कार्यों में बाधा आती है क्योंकि योजनायें लम्बे समय तक अटकी पड़ी रहती हैं। अतः एक राष्ट्र एक चुनाव से आदर्श आचार संहिता की अवधि में कमी आयेगी, जिससे प्रशासनिक दक्षता बढ़ेगी तथा शासन अधिक समय तक कार्य कर सकेगा और शासन व्यवस्था पर अधिक ध्यान केन्द्रित कर सकेगा न कि हमेशा चुनावी मोड में बना रहेगा।
उदाहरण के तौर पर अगर हम पिछले कुछ चुनावों को देखें तो अलग-अलग चुनाव कराने से आदर्श आचार संहिता के अधिक होने के कुछ आंकड़ें इस प्रकार हैं -
इस प्रकार वर्ष 2014 से 2016 तक मात्र 3 वर्ष में ही चुनाव के लिए कुल 12 महीने आदर्श आचार संहिता लागू रही, जिससे प्रशासनिक कार्यों में बाधा आती है तथा जनकल्याण के कार्य की गति धीमी पड़ जाती है। एक साथ चुनाव कराने पर यह आंकड़ा 5 वर्ष में मात्र 3 से 4 महीने तक कम किया जा सकता है जिससे सरकार प्रशासनिक कार्यों में तेजी ला सके तथा जन कल्याण को प्राथमिकता दी जा सके।
चुनाव आयोग द्वारा अधिसूचना जारी करने के बाद सरकार किसी नयी परियोजना, नयी स्कीमों की शुरुआत, वित्तीय मंजूरी एवं नयी नियुक्तियाँ आदि नहीं कर पाती है। इसके पीछे उद्देश्य यह होता है कि सत्ताधारी दल को कोई लाभ न मिल पाये। ऐसे में विकास कार्य अपने निर्धारित समय में पूरा नहीं हो पाता है। यदि चुनाव एक साथ कराये जाये तो आचार संहिता एक ही बार लगेगी, विकास कार्य समय पर पूरे होंगे।
एक राष्ट्र एक चुनाव के पक्ष में दूसरा सबसे बड़ा तर्क यह है कि चुनाव आयोग के पास अपनी कोई मशीनरी नहीं है। चुनाव कराने के लिये राज्य तथा केन्द्रीय कर्मचारियों तथा अर्ध-सैनिक बलों को ड्यूटी पर लगाया जाता है, जिससे उनके प्राथमिक कार्य (मूल कार्य) में देरी होती है। चुनाव में शिक्षकों की ड्यूटी लगायी जाती है, जिससे शिक्षण कार्य प्रभावित होता है, विद्यालय बंद रहते हैं। इसी प्रकार अर्ध-सैनिक बलों को संवेदनशील क्षेत्र से बुलाना पड़ता है जिससे सुरक्षा चिंताये बढ़ती हैं। यदि एक साथ चुनाव सम्पन्न हो जाये तो 5 वर्ष तक सब अपना कार्य निश्चित होकर करेंगे।
इसके पक्ष में तीसरा तर्क यह है कि इससे संसाधनों की बचत होगी, खर्च में भारी कमी आयेगी। बार-बार चुनाव होने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त बोझ पड़ता है। उदाहरण के लिए 2014 के लोकसभा चुनाव में सरकारी खजाने का कुल 3870 करोड़ रूपये की वित्तीय लागत खर्च हुआ। वहीं 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में कुल सरकारी खर्च 300 करोड़ रूपये के आस-पास रही। जबकि चुनाव आयोग ने एक राष्ट्र एक चुनाव में कुल लागत लगभग 4500 करोड़ रूपये अनुमानित की है। इससे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च में कमी आयेगी, जिसका सदुपयोग राजनीतिक विस्तार एवं जनहित कार्यों में किया जा सकेगा।
इसके अलावा प्रत्याशियों के द्वारा चुनाव में बड़े पैमाने पर काले धन का प्रयोग किया जाता है अतः भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है, जो कि कम होगा एवं लोक लुभावने (Free Beeze) वादों में कमी आयेगी जो देश के ऊपर अर्थव्यवस्था के लिहाज से बोझ बनते हैं। मतदाता पाँच वर्ष में एक बार चुनाव होने की स्थिति में चुनाव को गंभीरता से लेंगे एवं पूरी जिम्मेदारी से सूझ-बूझ के साथ मतदान में भाग लेंगे और अपना कीमती मत देंगे तथा मतदान प्रतिशत में वृद्धि होगी (विधि आयोग के अनुसार)।
इसी क्रम में बार-बार चुनाव होने से सामाजिक समरसता और सौहार्द भंग होता है। समाज में अशांति का माहौल बना रहता है। प्रायः सामाजिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने के लिए नेता भड़काऊ भाषण देते हैं और समाज में वैमनस्य बढ़ता है।
इस प्रकार देश में लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराये जाने के पक्ष में अनेक तर्क दिये जाते रहे हैं जो उचित भी प्रतीत होते हैं परन्तु इसके विपक्ष में भी कम तर्क नहीं हैं, जो कि निम्न हैं -
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के विपक्ष में पहला तर्क यह है, कि चुनाव विश्लेषकों का मानना है कि भारतीय संविधान में संसदीय मॉडल को अपनाया गया है, जिसके तहत लोकसभा एवं राज्य विधानसभा पाँच वर्ष के लिए चुनी जाती है। लेकिन एक साथ चुनाव कराये जाने पर संविधान मौन है। संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं, जो इस विचार के विपरीत दिखायी पड़ते हैं। जैसे - अनुच्छेद 02 के तहत् संसद द्वारा किसी नये राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है, अनुच्छेद 03 के तहत् संसद नया राज्य बना सकती है, जहाँ अलग से चुनाव कराने पड़ सकते हैं।
इसी प्रकार इस विचार के विपक्ष में दूसरा तर्क यह है कि अनुच्छेद 85 (2) (ख) के अनुसार, राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद 174 (2) (ख) के अनुसार, राज्यपाल विधानसभा को पांच वर्ष से पहले भंग कर सकते हैं। अनुच्छेद 352 के तहत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है। इसी प्रकार अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में संबंधित राज्य के राजनीतिक समीकरण में अप्रत्याशित उलट-फेर होने से वहां पुनः चुनाव कराये जाने संबंधी परिस्थिति उत्पन्न हो सकती है।
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के विरोध में तीसरा तर्क यह है कि यह विचार देश के संघीय ढाँचे के खिलाफ है और ऐसा करना संघीय लोकतंत्र के लिये घातक होगा। लेाकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के लिये कुछ विधानसभाओं की मर्जी के खिलाफ उनका कार्यकाल घटाया जायेगा तो कुछ का कार्यकाल बढ़ाया जायेगा। जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है। भारत में संसदीय ढाँचे को अपनाया गया है और संसदीय ढाँचे में बार-बार चुनाव एक अकाट्य सच्चाई है। उदाहरण के तौर पर हम कुछ राज्यों के आगामी चुनाव को देख सकते हैं -
हरियाणा, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, 2024
बिहार, दिल्ली विधानसभा चुनाव, 2025
पंजाब, हरियाणा एवं गुजरात विधानसभा चुनाव, 2027
इसके अलावा एक तर्क यह है कि एक साथ चुनाव होने से राष्ट्रीय पार्टियाँ प्रभावी होंगी, क्योंकि उनके पास संसाधन अधिक है, उनका संगठन अधिक मजबूत है। बड़ी राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियाँ धनबल एवं जनबल का प्रयोग कर चुनाव अपने पक्ष में कर सकती हैं। छोटे राजनीतिक दलों को ‘लेबल प्लेइंग फील्ड’ नहीं मिलेगा। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत के राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा है। यदि एक साथ चुनाव होता है तो इन पार्टियों को अपने अस्तित्व का खतरा महसूस होगा। जैसे- द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (DMK), ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (AIADMK), तेलगू देशम पार्टी (TDP), युवा जना श्रमिका रैतु कांग्रेस पार्टी (YSR CONGRESS), बीजू जनता दल (BJD) जैसी पार्टियाँ अपने क्षेत्र में क्षेत्रीय मुद्दों के कारण ही प्रभावी हैं। अतः एक साथ चुनाव होने पर क्षेत्रीय मुद्दे दब सकते हैं। इसी प्रकार पूर्वोत्तर भारत में ‘नेशनल पीपुल्स पार्टी (NPP)’, ‘नागा पीपुल्स फ्रंट’ इत्यादि अनेक क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं, जो पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए महत्वपूर्ण हैं। एक साथ चुनाव होने पर क्षेत्रीय पार्टी एवं क्षेत्रीय मुद्दों का गौण होना पूर्वोत्तर भारत के लिए विशेष कर सही नहीं है क्योंकि यह क्षेत्र उग्रवाद की समस्या से ग्रस्त होने के साथ-साथ अन्तरराष्ट्रीय सीमाओं से भी जुड़ा हुआ है। अतः यहाँ दोहरे प्रकार की चुनौतियाँ मौजूद हैं, जिस पर विचार करने की आवश्यकता है।
इसके अलावा क्या भारतीय वोटर इतना जागरूक है कि वह एक ही साथ लोकसभा एवं राज्य विधानसभा के चुनावों के मुद्दें को ध्यान रखकर वोट कर सके।
इसमें सबसे बड़ा डर छोटे राजनीतिक दलों का है कि उनका अस्तित्व खतरे में आ जायेगा। इसके साथ ही साथ चुनाव आयोग की मशीनरी न तो इतनी मजबूत है न ही इसके पास इतना संसाधन है कि एक साथ मजबूती से निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव करा सके।
लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने पर इस बात का भय है कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जायेंगे या क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे फींके पड़ जाये। परन्तु वास्तविकता यह है कि लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव के स्वरूप अलग-अलग होते हैं इनके मुद्दे अलग होते हैं। लोकसभा चुनाव में जहाँ राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी होते हैं तो विधानसभा चुनावों में स्थानीय मुद्दों का अधिक प्रभाव होता है। क्षेत्रीय मुद्दे प्रभावित होंगे तथा सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही में कमी आयेगी। उदाहरण के लिए वर्ष 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले किसान बिल को वापस लेना तथा वर्ष 2015, 2020 में दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत, जबकि 2014 एवं 2019 में लोकसभा में भारतीय जनता पार्टी द्वारा दिल्ली की सभी सात सीटों पर जीत दर्ज करना दर्शाता है कि क्षेत्रीय एवं केन्द्र के मुद्दे अलग-अलग हैं।
प्रस्तुत आंकड़े वर्ष 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के हैं, जिसमें आम आदमी पार्टी को 70 में 62 सीट तथा बीजेपी को केवल 8 सीट मिली, कांग्रेस तथा अन्य के खाते में एक भी सीट नहीं आयी, जबकि वर्ष 2019 के आम चुनाव में दिल्ली की सभी सात लोकसभा सीट पर भारतीय जनता पार्टी की जीत हुयी थी। यह क्षेत्रीय एवं केन्द्रीय मुद्दों को लेकर जनता के मतदान व्यवहार के बदलते स्वरूप का स्पष्ट उदाहरण है। इसी प्रकार कुछ अन्य उदाहरण भी हम देख सकते हैं जहाँ एक साथ चुनाव होने पर जनता का मतदान व्यवहार दिल्ली से भिन्न रहा।
राजस्थान चुनाव-
वर्ष 2018 के चुनाव में जहाँ राजस्थान में कांग्रेस पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला, वहीं वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में राजस्थान की 24 सीटों पर बीजेपी ने जीत दर्ज की। यह आंकड़ा भी जनता के बदलते मतदान व्यवहार का स्पष्ट उदाहरण है, जो केन्द्रीय एवं क्षेत्रीय मुद्दों पर अलग-अलग दिखाई पड़ता है।
लेकिन कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं, जहाँ एक साथ चुनाव कराये जाने पर विधानसभा एवं लोकसभा दोनों ही जगह एक ही पार्टी की जीत होती है।
उपरोक्त प्रस्तुत आंकड़े यह दर्शाते हैं कि एक साथ चुनाव कराने पर मतदान व्यवहार लगभग 77 प्रतिशत एक ही पार्टी की तरफ होता है। यहाँ मुद्दे का विभाजन क्षेत्रीय एवं केन्द्रीय आधार पर दिखाई नहीं देता। उदाहरण के तौर पर हम ओडिशा राज्य के वर्ष 2014 चुनाव के आंकड़े देख सकते है।
प्रस्तुत आंकडे़ से स्पष्ट है कि वर्ष 2014 में एक साथ चुनाव कराये जाने पर मतदान व्यवहार अधिकतर विधानसभा एवं लोकसभा दोनों में बीजेडी की तरफ ही रहा। वहीं बीजेपी और कांग्रेस पार्टी को भी लोकसभा में लगभग उतना ही प्रतिशत मतदान प्राप्त हुआ जितना उन्हें विधानसभा में मिला। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि एक साथ चुनाव कराने पर जनता का मतदान व्यवहार पार्टी पर ही निर्भर करता है ना कि क्षेत्रीय एवं केन्द्रीय मुद्दों में विभाजन पर निर्भर करता है।
हालांकि कांग्रेस पार्टी और बीजेपी को विधानसभा की अपेक्षा लोकसभा में कुछ प्रतिशत अधिक मत मिलना यह जरूर दर्शाता है कि कुछ जनता का मतदान व्यवहार मुद्दों के आधार पर बदलता है परन्तु इसकी संख्या काफी कम है। (लगभग 23 प्रतिशत ही मत व्यवहार बदलते है।)
उपरोक्त वर्णित आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि एक साथ चुनाव कराने पर मतदान व्यवहार एक ही पार्टी को जाता है।
परन्तु कुछ राज्यों में चुनाव (विधानसभा एवं लोकसभा) अलग-अलग वर्ष में कराये जाने पर भी मतदान व्यवहार एक ही पार्टी की तरफ अधिकांश दिखाई पड़ता है। उदाहरण के लिए तेलंगाना राज्य का वर्ष 2018 का विधानसभा चुनाव एवं वर्ष 2019 में सम्पन्न लोकसभा चुनाव परिणाम स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं कि अलग-अलग चुनाव कराये जाने पर भी मतदान व्यवहार एक ही पार्टी को जा सकता है।
तेलगांना चुनाव (वोट शेयर)
प्रस्तुत आँकड़ों के आधार पर हम कह सकते हैं कि जहाँ वर्ष 2018 में विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय मुद्दे हावी रहते हैं वहाँ राज्य में क्षेत्रीय पार्टी भारत राष्ट्र समिति (BRS) को 46.9 प्रतिशत मत के साथ विधानसभा की 88 सीट पर जीत दर्ज हुई थी, वहीं वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में भी जहाँ केन्द्रीय मुद्दे हावी होते हैं, वहाँ राज्य में भारत राष्ट्र समिति (BRS) को 41.7 प्रतिशत मत एवं 9 लोकसभा सीट के साथ सर्वाधिक मत प्राप्त हुआ।
इस आंकड़े के आधार पर यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि एक राष्ट्र एक चुनाव कराये जाने पर ही मत व्यवहार एक पार्टी की तरफ अधिक नहीं होता। यह व्यवहार अलग-अलग चुनाव कराये जाने पर भी कुछ राज्यों में विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों में देखने को मिलता है। जैसे- तमिलनाडु, केरल इत्यादि।
इसी प्रकार विपक्ष के तर्क के रूप में एक पक्ष यह भी है कि एक साथ चुनाव कराने पर 30 लाख EVM (Electronic Voting Machine) एवं VVPAT (Voter Verifiable Paper Audit Trail) की आवश्यकता होगी, जो कि चुनौतीपूर्ण है। प्रत्येक 15 वर्ष पर EVM एवं VVPAT मशीन खरीदने की लागत (अतिरिक्त लागत) कुल 9284.15 करोड़ होगी। अतः एक साथ चुनाव कराने पर मशीनों के भण्डारण एवं रख-रखाव हेतु खर्च बढ़ेगा।
इसी क्रम में ध्यान देने योग्य है कि 2014 के चुनावों पर कुल 3870 करोड़ रूपये खर्च किये, जबकि 1952 में खर्च सिर्फ 10 करोड़ रूपये था। 2014 के चुनावों के खर्च में 2009 के पिछले चुनावों की तुलना में बड़ा उछाल देखा गया, जो कि चुनावी खर्च में लगातार वृद्धि को दर्शाता है।
Election Expenditure Per Elector
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक लोकसभा चुनाव के दौरान करीब 55,000 करोड़ रूपये यानी 8 अरब डॉलर खर्च हुये। रिपोर्ट में कहा गया है ‘‘20 वर्षों में 1998 से 2019 के बीच छः लोकसभा चुनावों को मिलाकर चुनाव खर्च 9,000 करोड़ रूपये से लगभग छह गुना बढ़कर लगभग 55,000 करोड़ रूपये हो गया है।
Election Commission's Resource Requirement Projection for 2024
नीति आयोग की 2017 की रिपोर्ट के अनुसार एक साथ चुनाव कराये जाने पर जहाँ हमें 2024 के चुनाव में 430000 अतिरिक्त पोलिंग स्टेशन बनाने होंगे। साथ ही ईवीएम की संख्या में भी वृद्धि करनी होगी। ईवीएम मशीन के बैलेट यूनिट में 0.86 की अतिरिक्त वृद्धि करनी पड़ेगी, वहीं 0.8 की अतिरक्ति वृद्धि कन्ट्रोल यूनिट की करनी पड़ेगी।
इन अतिरिक्त मशीनों की खरीद का खर्च प्रत्येक चुनावों में बढ़ता ही जायेगा, जिसे हम निम्न आंकड़ों से देख सकते हैं-
उपर्युक्त आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि हमें चुनाव का बजट भी बढ़ाने की आवश्यकता होगी, जो निम्न आधार पर बढ़ने की सम्भावना है।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि एक साथ चुनाव कराने से मशीनों की व्यवस्था करना एवं उनके रखरखाव पर खर्च अधिक होगा, जो अलग-अलग चुनाव कराने से होने वाले अतिरिक्त खर्च की अपेक्षा बहुत कम नहीं है।
निष्कर्ष एवं सुझाव : इस प्रकार उपर्युक्त वर्णित ऐसे विचारणीय सवाल है जिन पर बिना विचार किये किसी ठोस निर्णय तक पहुँचना उचित नहीं होगा। बेशक एक साथ चुनाव कराना स्वागत योग्य है। जैसा कि हमारे समक्ष कुछ उदाहरण भी हैं जो यह दर्शाते हैं कि क्षेत्रीय मुद्दे एक साथ चुनाव कराने पर दब नहीं सकते हैं। जैसे - वर्ष 2019 के आम चुनाव के साथ उड़ीसा एवं आंध्रप्रदेश का विधानसभा चुनाव भी हुआ। इन दोनों राज्यों में क्रमशः बीजू जनता दल (BJD) एवं युवाजना श्रमिक रैतू कांग्रेस (YSR CONGRESS) की ही जीत हुई न कि किसी राष्ट्रीय पार्टी की। यही हाल वर्ष 2014 के चुनाव में भी रहा जब तेलंगाना को नया राज्य बनाया गया तब ‘तेलगु देशम पार्टी’ (TDP) की सरकार बनी जबकि चुनाव एक साथ ही सम्पन्न हुए थे अर्थात् कहने का तात्पर्य यह है कि एक साथ चुनाव कराने का विचार उचित है परन्तु सम्बन्धित चुनौतियों का लोकतांत्रिक दृष्टि से समाधान करते हुए हमें ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव' की ओर बढ़ना चाहिए, जिससे संविधान का संघीय ढाँचा भी बना रहे और चुनाव सुधार भी जनता के पक्ष में लागू हो सके।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यह एक संवेदनशील मुद्दा है और इसकी जड़ें लोकतंत्र से जुड़ी है। ऐसे में कोई भी निर्णय सर्वसम्मति से लिया जाना चाहिये। भारत जिस सबसे बड़े एवं मजबूत लोकतंत्र को दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दम भरता है। एक गलत कदम उसे कमजोर कर सकता है, देश को गलत दिशा में पहुँचा सकता है। भारत के सामने ऐसे अनेक उदाहरण पड़ोस में उपस्थित हैं, जहाँ कुछ गलत फैसलों तथा कुछ गलत लोगों के नेतृत्व ने देश को कहां पहुँचा दिया।
अतः दुनिया का सबसे लोकप्रिय, प्रचलित एवं बेहतर राजनीतिक व्यवस्था है, लोकतंत्र और उस लोकतंत्र का प्राणवाद है चुनाव, जिसे उच्चतम न्यायालय ने भी संविधान का आधार स्तम्भ माना है। परन्तु क्या हो जब देश में हर समय चुनाव ही चुनाव हो। इसी लगातार चुनावी मोड़ से देश को बाहर निकालने हेतु वर्तमान में ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ का विचार चर्चा में आ गया है।
सुझाव : एक राष्ट्र एक चुनाव एक आकर्षक अवधारणा है यद्यपि इसके व्यवहारिक पक्ष से सम्बन्धित अनेक चुनौतियाँ हैं, जिसका समाधान किया जाना अपेक्षित है। एक राष्ट्र, एक चुनाव के व्यवहारिक पक्ष से जुड़ी चुनौतियों के समाधान के सन्दर्भ में निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिए;
- ऐसी व्यवस्था या नियमों का प्रावधान करना जिसमें लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के लिये एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय और राज्य विशेष के मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी ना होने पायें क्योंकि इस तंत्र के कारण राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को क्षेत्रीय दलों पर महत्वपूर्ण अपेक्षित लाभ होगा।
- जैसा कि भारत विविधताओं से भरा देश है इसलिये हर राज्य की स्थानीय/क्षेत्रीय विशेषताओं, मुद्दों एवं जरूरतों के मद्देनजर उनकी स्वायत्तता को बरकरार रखते हुये, मुद्दों को प्राथमिकता देते हुये नियम/कानून का निर्माण करना क्योंकि अगर पाँच साल में एक बार ही चुनाव होंगे तो इसका असर इस प्रक्रिया पर पड़ सकता है। यह हमारे देश की संघीय भावना के लिये हानिकारक होगा, जिसे संविधान की मूल संरचना के रूप में घोषित किया गया है।
- पाँच वर्ष में होने वाले सभी चुनावों को दो भागों में बाँट कर तथा उसके आस-पास पड़ने वाले चुनावों को एक साथ कराया जाय।
- प्रत्येक वर्ष किसी एक माह का निर्धारण किया जाय तथा उस वर्ष में होने वाले सभी चुनावों को उसी माह में करा लिया जाय।
- आम सहमति का निर्माण किया जाना चाहिए।
- अविश्वास प्रस्ताव, समयपूर्व विधानसभा का विघटन या त्रिशंकु संसद जैसी आकस्मिकताओं से निपटने के लिये विधिक ढाँचा स्थापित किया जाना चाहिए।
- एक साथ चुनाव कराने से पूर्व अवसंरचनात्मक ढाँचा मजबूत किया जाना चाहिए जिसके लिए निवेश बढ़ाया जाना चाहिए।
- जागरूकता एवं मतदाता शिक्षा पर जोर दिया जाना चाहिए क्योंकि अधिकांश भारतीय मतदाताओं में जागरूकता का अभाव है वे इतने जागरूक नहीं हैं कि एक ही साथ लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनावों के मुद्दों को ध्यान में रखकर मतदान कर सकें। चूंकि एक राष्ट्र, एक चुनाव प्रथम प्रयोग होगा इसके लिए विभिन्न विषयों एवं मुद्दों पर पूरी सूझ-बूझ के साथ काम करना होगा।
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रत्ना सिंह
शोध छात्रा राजनीति विज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005
ratnasingraur@gmail.com 8318473664
डॉ. हेमन्त कुमार मालवीय
आचार्य राजनीति विज्ञान विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी-221005
hemant.malviya12@gmail.com 9793589663
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