नई खेती - रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’
- आँचल पारीक
‘नयी खेती’ रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ का कविता संग्रह हैं। जिसे ‘नवारूण प्रकाशन’ ने प्रकाशित कियाहै। ‘नयी खेती’ कविता संग्रह सबाल्टर्न लिट्रेचर जगत का एक चमकता नक्षत्र है। जन साधारण के कवि (जनकवि) रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ प्रतिवाद, प्रतिरोध से बढ़कर प्रतिशोध के कवि हैं। विद्रोही की कविताएँ भी नागार्जुन की कविताओं की भांति सत्ता पर करारा प्रहार करती हुई जनमानस की आवाज है। ‘विद्रोही’ सत्ता के नाना रूपों द्वारा शोषित किसानों, मजदूरों, दलितों व अपवंचित वर्गों के हिमायती कवि रहे है। इनकी कविताओं में औरतों, वंचितों व शासन व्यवस्था द्वारा शोषित जनता की पीडा़ओ की खालिस अभिव्यक्ति है। ‘विद्रोही’ अपनी कविता के माध्यम से सत्ता के चरित्र को उकेरते हैं, साथ ही समाज में विद्यमान विद्रूपताओं को बेनकाब करते है। लेकिन जिस प्रकार हमारे समाज की परम्परा रही है कि जो शोषितों के हितों की मांग करता है, जो भूखों के लिए रोटी की मांग करता है, हो रहे अत्याचार व शोषण के विरुद्ध बोलता है तथा सत्ता पर प्रश्न चिन्ह लगाता है उसे निश्चय ही ‘विद्रोही’ का तमगा दे दिया जाता है। ‘रमाशंकर यादव’ को भी इसी श्रेणी में शामिल कर दिया गया। वे कबीर की परंपरा के कवि रहे है, वे एक ऐसे कवि रहे हैं, जिनकी कविताओं में समाज की कुरूप जाति व्यवस्था, पूंजीवादी व्यवस्था, ब्रह्माणवाद व सामंतवादी व्यवस्था पर तंज सहज रुप से देखने को मिलते है। ‘विद्रोही’ जी अपनी कविताओं के माध्यम से ‘दुष्यंत कुमार’ व ‘गोरख पाण्डे’ की परंपरा का विकास करते नजर आते है। ‘विद्रोही’ की कविता अपने समकालीन ‘अदम गोंडवी’ के ज्यादा निकट खड़ी होती है लेकिन जहाँ ‘अदम’ का मैदान उर्दू ग़ज़ल हैं, वहीं विद्रोही की भूमि हिंदी कविता। वे कम्युनिस्ट थे। उनकी लाल झंडे में आस्था हैं, क्योंकि वह गुलामी और शोषण के समूल नाश के लिए जारी संघर्षों का झंडा है। वह कहते हैं-
"लाल झंडा हर इमारत पर गाडा़ जाएगा
आपके इस धर्म के कांटे को उखाडा़ जाएगा।"
सुचेता डे कहती है कि ‘विद्रोही सिर्फ एक व्यक्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है और वह एक साझी कल्पना के प्रतीक व प्रगतिशील कवि हैं।’ इस कविता संग्रह में संकलित कविताओं को पढ़ने पर कवि की प्रगतिशील संवेदना के साथ साथ पितृसत्ता, धर्मसत्ता, ब्रह्माणवाद, धार्मिक आडम्बरों, जेंडर डिसक्रिमिनेशन, रूढ़िवादी परंपराओं व कुरूप व्यवस्था के प्रति प्रतिशोध के साथ-साथ चिंताग्रस्त भाव को भी अनुभव किया जा सकता हैं। इनकी चिंताएँ समग्र दुनिया की चिंता है। यह चिंता मनुष्यता को बचाने कि चिंता है। भ्रष्टाचार, गरीबों के शोषण व औरतों पर हुए अत्याचार व शोषण के खिलाफ व्यक्त की गयी चिंताएँ हैं। हर उस व्यक्ति की चिंता है जो अपने हक के लिए जूझ रहा हैं।
वह इतिहास के एक-एक पन्ने की बर्बरता को अपनी कविता के माध्यम से उजागर करते हैं, और कहते हैं चाहे सामंतवाद हो या पूंजीवादी व्यवस्था समाज में मिलने वाले न्याय का आधार धर्म की पोथियाँ ही रही हैं। समाज में व्याप्त धर्म आधारित न्यायिक व्यवस्था के प्रति असंतोष इनकी कविता ‘धर्म’ में सहज रूप से देखने को मिलता हैं-
"धर्म आखिर धर्म होता है
जो सुअरों को भगवान बना देता है
हर अदालत बंद कर लेती है दरवाज़ा
अदालतों के फैसले आदमी नहीं
पुरानी पोथियाँ करती है।"
कवि अपने शब्दों से अन्याय के खिलाफ न्याय की लड़ाई लड़ने का बिगुल बजाते नज़र आते है। वह कहते है कि औरत की जली हुई लाश केवल प्राचीन सभ्यता के मुहाने पर ही नहीं, वरन् आधुनिक साम्राज्यवादी अमेरिका में भी मिल जाएगी क्योंकि नारी हर जगह शोषक वर्ग द्वारा उपेक्षित रही है। ‘विद्रोही’ सतही कवि नहीं थे, वे प्रथाओं की स्थापना से अंतिम मुहाने तक जाते और पितृसत्ता की स्थापना का चित्रण स्पष्टवादिता के साथ अपनी एक कविता ‘मोहनजोदड़ो’ में दर्ज करते हैं। हम वर्तमान परिदृश्य पर नजर डाले तो भारतीय समाज की लड़कियाँ क्षीण मानसिकता से ग्रस्त सामाजिक मूल्यों को आत्मासात करती जा रही है और वयस्क होने के क्रम में ‘लकड़ी’ बनती चली जा रही है और अंत में परिवार व्यवस्था के चूल्हे में भसम हो रही है। जिसके विरुद्ध विद्रोही जी अपनी कविता के माध्यम से स्त्री चेतना को जाग्रत कर उन्हें क्रांति के लिए प्रेरित करते हैं। केवल इतना ही नहीं, बल्कि इस स्थिति को बदलने व पितृसत्ता का अंत करने की चेष्ठा भी हम इनकी कविता ‘औरत’ में देख सकते हैं, जहाँ कवि कहता है-
"इतिहास में वह पहली औरत कौन थी जिसे सबसे पहले जलाया गया?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही हो मेरी माँ रही होगी,
मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा?
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी
और यह मैं नहीं होने दूँगा।"
इनकी कविता मेहनतकश किसान वर्ग (मजदूर वर्ग) की कविता है, जो की जमींदारों व जागीरदारों द्वारा सताया हुआ वर्ग है। कवि ‘नयी खेती’ शीर्षक कविता में स्वयं को एक ‘किसान’ की उपमा देते है। लेकिन विद्रोही जी एक सामान्य किसान नहीं वरन् पूरी व्यवस्था को समझने वाले एक अत्यंत जागरुक किसान है। वह ईश्वर के नाम पर गहरी हो रही सामंतवादी जड़ों व हो रही राजनीति की शिनाख्त करते हैं। जिसके प्रति प्रतिरोध हम इसी कविता संग्रह के एक कविता में सहज रुप से देख सकते हैं, जहाँ कवि कहता हैं-
"मैं एक किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ
अगर जमीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनो मे से कोई एक होकर रहेगा
या तो जमीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।"
इतना ही नहीं ‘विद्रोही’ जी अपनी कविता के माध्यम से लोगों को जागरूक कर अगुवाई करते नजर आते हैं। कहीं अधिकारों से वंचित महिला वर्ग की रहनुमाई करते, तो कहीं शोषितों की जमात में खड़े मजदूर वर्ग को संगठित कर उनका नेतृत्व करते है। कवि मेहनतकश वर्ग को संगठित कर शासक वर्गों की सता को समाप्त कर सामाजिक न्याय से परिपूर्ण एक सता गढ़ना चाहते हैं, इसलिए कवि अपनी एक कविता ‘यह लाल निशान आखिरी है’ में कहते हैं-
"कँपने दो कम्युनिस्ट क्रांति से
शासक वर्ग को डर से थर्राने दो/
और अंत में अपनी सता तंज लेंगे
दुनियाभर के मेहनतकश! तुम एक हो।"
सच्चा कवि सत्ता का पोषक नहीं, बल्कि न्यायसंगत आलोचक होता है। ‘विद्रोही’ जी भी उसी प्रवृत्ति के कवि रहे हैं। वे केवल कविता के माध्यम से ही नहीं, बल्कि आंदोलनों में अहम् भूमिका निभाकर शासन व्यवस्था की निरंकुशता की मुखालफत करते थे। जनता के बीच रहकर जनता के हित की बात करते थे इसलिए ‘विद्रोही’ जी जनकवि कहलाये। कवि अपनी कविता के माध्यम से जनता में निर्भीकता को उजागर कर उन्हें हक की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित करते नजर आते हैं। कवि को इस दौर में भगतसिंह, फिदेल कास्त्रो व चे ग्वेरा जैसे क्रांतिकारी प्रासंगिक नजर आते हैं, जो कि सर्वहारा वर्ग के हिमायती रहे हैं। कवि कहता है -
"भगत सिंह भगत सिंह कॉमरेड!
जिसमें लिखा हो इकलांब हो अवश्य
इकलांब हो अटल
इकलांब हो सरल।"
फिदेल कास्त्रो कहते है कि ‘क्रांति गुलाबों की सेज नहीं है, क्रांति भविष्य और अतीत का संघर्ष है, क्रांति शोषित का शोषक के विरुद्ध एक अधिनायकत्व है।‘ ‘विद्रोही’ की कविता क्रांति की कविता हैं और वह इस लडा़ई को गुलामी की अंतिम हदों तक लड़ना चाहते हैं,क्योंकि विद्रोही जानते हैं कि क्रांति के बिना शांति की कल्पना करना असंभव हैं।
‘विद्रोही’ जी अंधविश्वास, रूढ़िवादिता और ईश्वर के अस्तित्व की भ्रांति से परे, तार्किकवाद के परिचायक है। कवि पाखंडवाद व पुरोहितवाद का खण्डन करते है। हमारे समाज में परंपरा से विद्यमान एक गंभीर बीमारी ‘जातिवाद’, जिससे वर्तमान परिदृश्य में भी लोग संक्रमित नजर आ रहे हैं, के प्रति कवि अपने शब्दों से प्रतिशोध रचता है। जातिगत आधार पर समाज में लोगों को श्रेष्ठ व हेय का दर्जा देकर एक विशेष तबके का शोषण किया जाता है। जिसके विरूद्ध कवि के वैमनस्य भाव की अनुभूति इनकी कविता में भलीभाँति की जा सकती हैं, जहाँ वह कहते हैं-
मर्यादा पुरुषोत्तमों के वंशज
उजाड़ कर फेंक देते हैं शम्बूकों का गाँव
और जब नहीं चलता इससे भी काम
तो धर्म के मुताबिक
काट लेते हैं एकलव्यों का अँगूठा
और बना देते हैं उनके ही खि़ला़फ
तमाम झूठी दस्त़ख़तें।"
विद्रोही जी जैसे कवि वर्तमान के दौर में भी प्रासंगिक नजर आते है। जब औरतों के साथ हो रहे अत्याचार व हाथरस के मामले को एक दुर्घटना का नाम देकर उनकी न्याय के लिए उठायी गयी आवाज को कुचल दिया जाता है। जब रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या कर दी जाती है। जब वर्तमान मे ‘धर्म’ के नाम का कीड़ा जो कि दीमक की भांति वर्तमान युवा पीढ़ी की सोच को खोखला करता जा रहा है। जिसकी वजह से वे बिना चिन्तन के दंगो की भीड़ का हिस्सा बन नफरत की आग में जल रहे हैं, तब विद्रोही जी की कविता शीर्षक ‘दंगो के व्यापारी’ की गुंज सुनाई पड़ती हैं। वह स्वयं को अहीर का बच्चा मानकर ब्राह्मणवादी, सामंतवादी व पूंजीवादी तंत्र के खिलाफ अपनी कविताओं जैसे ‘जन-गण-मन’, ‘पुरखे’, ‘जन प्रतिरोध’ आदि के माध्यम से एक से बढ़कर एक प्रतिशोध रचते है। इनकी कविता में नूर मियाँ, नानी-दादी, कन्हई कहार जैसे चरित्र की व्यथाओं का वर्णन हैं, जिन्हे पढ़कर पाठकों के मन में संवेदना जाग उठती है। कवि वर्गविहीन समाज की कल्पना कर समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहते हैं। ‘विद्रोही’ जी की कविताएँ पाठक के मन में जिज्ञासा को जागृत कर एक गहरा प्रभाव छोड़ती है। इनकी कविताओं में राजनीतिक चिन्तन, आधुनिकता व प्रगतिशीलता का भाव निहित है। प्रेमचंद कहते है कि साहित्य मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं हैं। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतेरगा जिसमें चित्रण की स्वाधीनता का भाव हो, जो हममें गति, संघर्ष और बेचेनी पैदा करे, सुलावे नहीं। विद्रोही इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। विद्रोही जी भी नागार्जुन की भांति शासन की ताकत से निर्भिक होकर कविता कहते थे। ‘रमाशंकर यादव विद्रोही’ एक सच्चे कवि थे और सच्चे कवि कभी मरते नहीं, वह अपने कृतित्व से हमेशा विद्यमान रहते हैं।
बहुत सुंदर समीक्षा। आज के दौर में जब विद्यार्थी केवल अंकों की दौड़ में लगे है और सोशल मीडिया की तीस सेकंड रील्स में उलझे है। ऐसे मैं अध्ययन लेखन में संलग्न टीम जैसे प्रशिक्षणार्थी उम्मीद की किरण के रूप में नजर आते है। उज्ज्वल अकादमिक भविष्य हेतु ढेर सारी शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंVery nice 👍❤️keep it up ❤️
जवाब देंहटाएंबहोत सुन्दर प्रस्तुति दी है
जवाब देंहटाएंविद्रोही जी के काव्य में लिप्त सभी बिंदुओं को ठीक ठीक स्थान प्रदान करते हुवे एक बहुत ही संतुलित समीक्षा ।। Well done Anchal ☺️
जवाब देंहटाएंरचनात्मक कार्य की शानदार पहल।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें