शोध-सार : अतिशय भौतिकतावाद, अनास्था, प्रकृति का दोहन, सत्ता-व्यवस्था के अतार्किक स्वरूप के मध्य नया भारत अपने वास्तविक स्वरूप को नए सिरे से जानने-समझने का प्रयास कर रहा है। अपनी पहचान अपने ‘स्व’ की तलाश कर रहा है। वह दुनिया के विकास को दो प्रमुख सत्ता केंद्रों, जिन्हें अज्ञेय ‘यंत्र’ कहते हैं, तक सीमित मानने का पक्षधर नहीं हैं। उन सत्ता केंद्रों द्वारा प्रचारित विकास के स्वरूप को आज का भारत ‘आर्थिक और संस्थानिक विकास’ तक सीमित कर के नहीं देखता है। अपितु ‘मानवीय विकास’ को भी विकास की परिभाषा में अनिवार्य रूप से शामिल करना चाहता है। इस परिप्रेक्ष्य में अज्ञेय का निबंध ‘कला भाषा और औपनिवेशिक मानस’ विशेष रूप से विचारणीय है। बातचीत को आधार बनाकर लिखे गए इस निबंध की पृष्ठभूमि है कि अज्ञेय एक व्याख्यान के लिए विदेश में विदेशी साहित्यकारों के साथ मौजूद हैं। वहीं, बातचीत के क्रम में वे भारत और तीसरी दुनिया को लेकर विदेशी साहित्यकारों की समझ पर प्रश्न उठाते हैं।
बीज शब्द : व्यक्तिवाद, सत्ता, औपनिवेशिकता, मानव विकास, तीसरी दुनिया, मार्क्सवाद, पूँजीवाद, आधुनिकता, संस्कृति, श्रेष्ठताबोध, चिति, अवधारणा
मूल आलेख : समय विशेष की अपनी बहु-स्तरीय संरचना होती है। उसमें अनेक सत्ताएँ सक्रिय रहती हैं, जिनका हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ता रहता है। उस प्रभाव का अनुभव, प्रत्येक व्यक्ति, रचनाकार का अलग हो सकता है। महत्वपूर्ण है उसका सरोकार, जिसमें वह, एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य से बनने वाले संबंधों का अन्वेषण करता है। सत्ताओं के व्यवहार करने के तरीकों को परखता है और अपने समय के मनुष्य को संवलित करने का प्रयास करता है। अज्ञेय का चिंतन अपने समय को ठीक-ठीक पकड़ने तथा उसे मनुष्य के पक्ष में बनाए रखने की जद्दोज़हद है। आधुनिक दौर के चिंतन-मनन पर औपनिवेशिकता की छाप इतनी गहरी है कि एक खास साँचे में ढलना ही विद्वता और आधुनिकता का प्रतीक माना जाने लगा है। भाषा, पहनावा, खास ढब की मानसिकता और यूरोप केंद्रित विचार, श्रेष्ठता का पैमाना हैं। विजित विजेता से स्वयं को जोड़कर श्रेष्ठता का बोध करे, औपनिवेशिक मानस के लिए यह स्वाभाविक है। अज्ञेय का साहित्य इस चलन के ख़िलाफ़ है। पश्चिम के पर्याप्त प्रभाव के बावजूद वह इसे अनुचित मानते हैं और भारत की ‘चिति’ को अपनी तरह से प्रशस्त करने का कार्य करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में अज्ञेय अपने निबंध ‘कला भाषा और औपनिवेशिक मानस’ के माध्यम से दो प्रमुख विचारधाराओं के श्रेष्ठताबोध को चुनौती देते हुए उसकी अपूर्णताओं को रेखांकित करते हैं। वैचारिक टकराव के लिए कम से कम दो विचारों का होना आवश्यक है। इस टकराव के भी दो वैचारिक आधार हैं। पश्चिम का दृष्टिकोण और भारतीय दृष्टिकोण। भारतीय चिंतनधारा ‘एकात्मकता’ पर बल देती है। वह आधारभूत तत्त्व को ‘एक’ मानते हुए अनेक विविधतामूलक संरचनाओं को स्वीकार करती है, उनका सम्मान करती है। किसी को लेकर तात्त्विक रूप से कोई विरोध का भाव नहीं है, क्योंकि मूल एक है। विद्यानिवास मिश्र इस ‘समेटने और समेटकर बड़ा होने’ को ही भारतीयता की संज्ञा देते हैं। “समेटना और समेटकर बड़ा होना भारतीयता है। भारतीयता की गंगा में अनेक स्रोतों के जल मिले हैं, उसमें असंख्य-असंख्य लोगों को पोषित करने की क्षमता है। असंख्य-असंख्य लोगों के प्यार से वह नदी आगे बढ़ती रही है। हमारी संपदा अकूत है, जो भी इतने लंबे अरसे में संगृहीत हुआ, एक दूसरे को प्रभावित करने में समर्थ हुआ, वह सब हमारा है, या और ठीक कहें, हम उन सबके हैं।”1 विभिन्न अस्मिताओं के समन्वय से उपजी इस संस्कृति को ‘भिना हुआ भाव’ कहते हैं। अज्ञेय इसे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक समग्र अनुभव के रूप में देखते हैं। हजारीप्रसाद द्विवेदी इसे अविशुद्धता की संज्ञा देते हैं। यहाँ विचार, ज्ञान, अनुभव, जीवन-पद्धति, दर्शन सभी कुछ एकमेक होकर एक दूसरे को समृद्ध करते रहे हैं और इस प्रकार आज ‘सब में सब जीवित हैं’। मूल्यों, नैतिकताओं में एकरसता नहीं अपितु समरसता का भाव है। यह एक्य-भाव, सामान्य मूल्य की स्थापना से लेकर प्राणी मात्र की एकता तथा समानता तक विस्तारित होता है। दूसरी तरफ यूरोप और अमेरिका केंद्रित विचार हैं, जिसने दुनिया को कई-कई हिस्सों में बांटकर अपनी वैचारिक और सांस्कृतिक श्रेष्ठता प्रचारित की है। ऐसा ही पाश्चात्य प्रयोग है- दुनिया को तीन हिस्सों में बाँटकर देखना। प्रस्तुत शोध-लेख अज्ञेय के इसी विचार को आधार बनाकर लिखा गया है।
अज्ञेय ‘तीसरी दुनिया’ शब्द को ख़तरनाक अवधारणा मानते हैं। “मुझे इस नाम ‘तीसरी दुनिया’ पर ही आपत्ति है। मैं अपने को तीसरी दुनिया का नहीं मानता, बल्कि सोचता हूँ कि तीसरी दुनिया की बात ख़तरनाक बात भी हो सकती है।”2 विदेशी विद्वानों से बहस करते हुए कहते हैं कि दुनिया तो सिर्फ एक है, जिसे अपने निहित स्वार्थों के कारण तीन भागों में बाँट दिया गया है –“आप तीसरी दुनिया की बात कैसे करते या सहते हैं? दुनिया तो सिर्फ एक है, जिसे हिस्सों में बांट लिया गया है।”3 अज्ञेय इस प्रकार के चिंतन को स्वाभाविक नहीं मानते हैं बल्कि इसे संकट पैदा करने का उपकरण कहते हैं, इलाकों में बांटने की साज़िश मानते हैं। वह कहते हैं कि ‘दुनिया में संकट पैदा करने वाले ऐसे विशाल यंत्र खड़े हो गए हैं जिनकी टक्कर से सारी दुनिया को संकट है। ये दो दुनियाएँ नहीं, दो यंत्र हैं और इनसे संकट तीसरी दुनिया नाम के अंश को ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को है। ध्यान देने की बात है कि अज्ञेय तथाकथित ‘दोनों दुनिया’ को यंत्र का नाम देते हैं। इसके अपने निहितार्थ हैं। यहाँ अज्ञेय एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि- “ये दो यंत्र काफ़ी बड़े भूभाग पर छाये हुए हैं, इसलिए आगे जो संकट है वह मुख्यतः तीसरे शेष भाग पर ही है। तो क्या मैं यह भी नहीं कह सकता कि असल में तो तीसरी दुनिया ही वह एक ऐसी दुनिया है जिसे हम बची हुई दुनिया कह सकते हैं।”4 यहाँ दो बात प्रमुख रूप से कही गई है। एक, इन दोनों यंत्रों से तथाकथित तीसरी दुनिया को या दुनिया को खतरा है। दूसरे वह (तीसरी दुनिया) इन दोनों से अलग, बची हुई और शायद वैकल्पिक दुनिया भी है। इसलिए वही असली दुनिया का प्रतिनिधित्व करती हुई यथार्थ दुनिया है। “आप देखेंगे कि है यह भी परिभाषा की ही बात। लेकिन परिभाषा से ही दुनिया बदल गई है। क्या आप यह मानने को तैयार हैं और अपनी सोच यहां से आरंभ करने को तैयार हैं कि जिसे पश्चिम की दो मशीनी आवाजें तीसरी दुनिया कह रही हैं वही असली दुनिया है? या सोच यहाँ से आरंभ करने को न भी तैयार हों तो क्या इतना पहचानने को तैयार हैं कि ऐसे सोचने वाले भी हो सकते हैं।”5 असली इसलिए क्योंकि वह दुनिया को दुनिया के रूप में देखती है, मनुष्यता को इकाई के रूप में देखती है। उसे बांटकर किसी भी तरह से उस भेदभाव को प्रश्रय नहीं देना चाहती है, जिसकी शिकार वह स्वयं रही है। कम से कम अज्ञेय जिस चिंतन परंपरा का प्रतिनिधित्त्व करते हैं, वह ऐसा ही सोचती है। पश्चिम ने यह विभाजन यांत्रिक व्यवस्था के आधार पर किया है। सामान्य तौर पर कहें तो यंत्रोद्योग, शासन और लोकव्यवस्था के विकास के आधार पर किया है और उन देशों के समूह को, जिनमें भारत भी आता है, जो इस दृष्टि से कम उन्नत हैं, उसे तीसरी दुनिया का देश कह दिया है। उपर्युक्त पैमाने को आधार बनाएं तो स्वाभाविक रूप से दोनों दुनिया कुछ अधिक विकसित दिखाई पड़ती हैं। दरअसल विकास को मापने का पैमाना इन्ही दो यंत्रों द्वारा दुनिया के समक्ष प्रस्तुत किया गया है। वह पैमाना है औद्योगिक और तकनीकी विकास । विगत वर्षों में जिसका नेतृत्त्व पश्चिम ने किया है। दुर्भाग्यवश हम स्वयं उसी दृष्टि से स्वयं को देखते रहे और हीन भावना का शिकार होते रहे। अज्ञेय अपने विदेशी साहित्यकार मित्रों से कहते हैं “क्या आपने उन्नति की भी उसी तरह केवल एक ही कसौटी नही रख ली जो आप की कसौटी है? आप ही लोग जब मानव जाति के विकास या उसकी उन्नति की बात करते हैं तो इन शब्दों का अर्थ बिल्कुल दूसरा होता है। वहां आप सांस्कृतिक विकास की बात करते हैं। क्या यह कहने का कोई आधार है कि यूरोप या अमेरिका या रूस सांस्कृतिक दृष्टि से भारत या चीन या दक्षिण-पूर्वी एशिया से ज्यादा उन्नत हैं।”6 यानि दुनिया को लेकर, उसके विकास के पैमाने को लेकर, उन्नति के रास्ते को लेकर जो परिभाषाएं गढ़ी गई हैं वह पश्चिम के हित में रही हैं, साथ ही तकनीकी और आर्थिक विकास के चलते पूर्व को प्रभावित करने की स्थिति में रही हैं।
दुनिया के दो हिस्से ‘यूरोप-अमेरिका’ और ‘रूस’ हैं। अज्ञेय इन्हें यंत्र और मशीनी सभ्यता मानते हैं। दुनिया इनके लिए महज जल जंगल जमीन का टुकड़ा मात्र है, जिसे तकनीक और मशीनों द्वारा जीता जाना चाहिए, कब्जाया जाना चाहिए। इस यांत्रिक सोच के आधार पर अज्ञेय इन्हें यंत्र का नाम देते हैं। इसे विचारधारा के स्तर पर पूंजीवाद और मार्क्सवाद के रूप में समझा जा सकता है। ये दोनों व्यवस्थाएं यूरोप केंद्रित हैं। दोनों बड़ी पूँजी और बड़े उद्यम से संचालित होती हैं। अपने कार्यक्रम, विचार और रणनीति में अलग दिखने के बावजूद दोनों के व्यावहारिक चरित्र में कोई विशेष तात्त्विक अंतर नहीं दिखाई पड़ता है। विगत वर्षों में बहुत ‘पहुँची हुई’ दोनों विचारधाराएं अलग-अलग रास्तों से एक ही जगह पहुँची हैं। किंतु दुनिया के ये दोनों हिस्से न सिर्फ तथाकथित तीसरी दुनिया को प्रायः अविकसित, निर्बल और असभ्य मानते हैं, अपितु समय-समय पर ऐसा विमर्श गढ़ने की कोशिश करते हैं कि तथाकथित तीसरी दुनिया के देश असहाय होकर शरणागत हो जायें। बिडंबना है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था, हमारा बौद्धिक समाज उनके इस औपनिवेशिक नैरेटिव को सत्य मानकर अक्सर स्वीकार कर लेता है। हमारे समय की वैचारिक दुनिया भी प्रायः दो भागों में विभाजित दिखाई पड़ती है- पूंजीवाद और मार्क्सवाद। ये दोनों विचारधाराएँ दुनिया के इन्ही दो हिस्सों का प्रतिनिधित्त्व करती रही हैं। ज्यादातर बुद्धिजीवी इन्हीं में से किसी एक के प्रति पक्षधरता स्वीकार करते हैं। किंतु इस बुद्धिजीवी वर्ग ने यदि भारतीय चिंतन परंपरा का भी समय के अनुरूप संस्कार किया होता तो भारत के साथ पश्चिम भी समृद्ध होता। अज्ञेय लिखते हैं- “कुछ देश विकसित संस्कृतियों वाले हैं और कुछ दूसरे देश विकसित अर्थ तंत्रों वाले और दोनों को सहारे की जरुरत है या कि दोनों पर कुछ पाने की ही नहीं, कुछ देने की भी जिम्मेदारी आती है।”7 दरअसल अज्ञेय एक ऐसी दुनिया की संकल्पना करते हैं जो भौगोलिक रूप से एक दूसरे से अलग होने पर भी भावनात्मक एकता के सूत्र से बंधी हो। जहाँ पूर्व और पश्चिम अपनी-अपनी उपलब्धियों के साथ दुनिया को बेहतर और बेहतर बना सकते हैं। किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि तथाकथित रूप से तीन भागों में बाँटी गई दुनिया को बराबरी के स्तर पर एक स्वीकार किया जाए।
अज्ञेय आधुनिक हिंदी साहित्य के ऐसे रचनाकार हैं, जो पश्चिम से आक्रांत नहीं हैं, न प्रत्येक रूप में उसे गलत या श्रेष्ठ मानते हैं और न ही पूर्व की अकर्मण्यता और कमजोरी के लिए उसे अच्छा मानते हैं। पश्चिम, वैज्ञानिक और तकनीकी दृष्टि से चाहे जितनी तरक्की कर चुका हो, अज्ञेय उसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा और अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने वाला मानते हैं। “सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़े न होते तो सदियों तक लूट-पाट और हिंसा के आधार पर ही अपनी प्रभुता और संपन्नता बढ़ाने में कैसे लगे रहते।...पश्चिम में दोनों यंत्र अपने कुकर्मों पर परदा डालना चाहते हैं, कुछ पुराने कुकर्मों पर और कुछ ऐसे भी जो पुराने नहीं हैं, जो हमारे जीवन काल में किए गए हैं,बल्कि कुछ तो इस समय किए जा रहे हैं ; और पूर्व अपनी कमजोरियों पर पर्दा डालना चाहता है।”8 सवाल मात्र विकास का नहीं है अपितु विकास की दिशाओं और आग्रहों का भी है। पश्चिम ने लूटपाट और हिंसा के आधार पर अपनी प्रभुता और संपन्नता को बढ़ाया है। उनके यांत्रिक विकास के आधार पर हम उनकी बौद्धिक गुलामी चाहे जितनी कर लें, मनुष्य की विकास यात्रा में पश्चिम बिना पूर्व के योगदान के अधूरा है। इसलिए सवाल ‘समग्र व्यापक परस्पर निर्भरता’ का है –“दुनिया पहली, दूसरी और तीसरी नहीं है; दुनिया एक है और उसका कोई हिस्सा दूसरे हिस्सों के सहारे के बिना नहीं जी सकता। और यह बात अकेले एक आर्थिक स्तर की नहीं है। रिश्तों में हमें यह भी पहचानना होगा कि आर्थिक संतुलन भी प्राकृतिक, जैविक और सांस्कृतिक संतुलनों से अलग या उसके बिना नहीं है। कोई संतुलन ही नहीं है जब तक कि मानव के समग्र विकास, समग्र आकांक्षा, समग्र उपलब्धि को ध्यान में न रखा जाए।”9 अज्ञेय यहां मनुष्य के समग्र विकास, समग्र आकांक्षा और समग्र उपलब्धि की बात करते हैं। एक मानवीय संस्कृति की बात करते हैं। अलग-अलग संस्कृतियाँ अपनी मौलिक उपलब्धियों के साथ मिलकर कैसे मनुष्यता को प्रशस्त कर सकती हैं, की बात करते हैं। दरअसल, दुनिया को परस्पर आत्मनिर्भर मानने के पीछे अज्ञेय का विशिष्ट दृष्टिकोण है। वह चाहते हैं कि दुनिया के प्रत्येक अंश का आपसी संबंध समानता के स्तर पर विकसित हो और सब एकात्म भाव से ‘एक मानव संस्कृति’ की ओर अग्रसर हों। किंतु यह तभी संभव होगा, जब हम अपनी मौलिक दृष्टि विकसित कर सकेंगे। अपनी कला-परंपरा, स्थापत्य, आख्यानों पर अपनी समझ से विचार कर सकेंगे तथा दुनिया को भी सोचने समझने का नया मार्ग दे सकेंगे। दूसरों की आंख से देखने पर खजुराहो सेक्स सिम्बल ही दिखाई पड़ेगा, उसका गौरवशाली इतिहास और कला-रूप की उपलब्धियाँ नहीं दिखाई पड़ेगी। पौराणिक आख्यान और चरित्र गैरजरूरी दिखाई पड़ेगा, नितांत झूठा या कल्पना मात्र प्रतीत होगा। इन्होंने अभी तक हमें क्या दिया है? हमें कैसे रचा है? का विचार हमारी चिंतन परिधि से बाहर ही रहेगा। अज्ञेय स्वयं को ‘मर्यादावान विद्रोही’ कहते थे। वे परंपरा के पोषक थे और परंपरा को बदलते रहने तथा उसे निरंतर विकसित करने के पक्षधर थे, जबकि रूढ़ियों को निर्ममता से तोड़ने में विश्वास करते थे। विजयेन्द्र स्नातक ने उचित ही लिखा है - “बीसवीं शताब्दी में गुरुदेव रवींन्द्रनाथ के बाद अज्ञेय दूसरे व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय मनीषा और साहित्य चिंता को पूरी जातीय अस्मिता के साथ विश्व के लिए बोधगम्य बनाया।”10 जातीय अस्मिता के आधार पर मनुष्यता को संवलित करने का सामर्थ्य अज्ञेय को भारतीय चिंतन परंपरा, आख्यानों और पौराणिक कथाओं में दिखाई पड़ता है।
अब, मनुष्य के समग्र विकास में समग्र आकांक्षा और समग्र उपलब्धि की बात पर आते हैं। अज्ञेय इसके लिए सांस्कृतिक परंपरा के वाहक आख्यानों, पौराणिक कथाओं और चरित्रों का मूल्यांकन करते हैं। जिसे उन्होंने मिथक की संज्ञा दी है। मिथक का प्रश्न अज्ञेय के लिए सांस्कृतिक अतीत से जुड़ा प्रश्न है, अपने होने और अपनी पहचान से जुड़ा विषय है, इसलिए वे मिथक को ‘झूठी कल्पना’ या ‘व्यापक प्रचारित झूठ’ की संज्ञा मानने के बजाय उसे एक तरह का ‘रहस्यमय शक्ति स्रोत’ मानते हैं। उसे संचित या समग्र अनुभव का मूल स्वीकार करते हैं, जो किसी संस्कृति की पहचान और उसके स्वरूप को निर्धारित करता है। उन्होंने लिखा है- “हर संस्कृति के लिए अपनी पहचान आवश्यक होती है। इस पहचान के लिए स्वरूप प्रत्यभिज्ञा के लिए, जिस समाज की वह संस्कृति है, उसका समूचा अनुभव, उसकी पूरी परंपरा, उसके आरंभ से, प्रागैतिहासिक काल में उसके उदय से लेकर आज तक उसकी जितनी जानकारी है, जितना संचय है, सबका महत्व होता है। इस बात का योग किसी भी संस्कृति में किसी भी मिथक का रूप निर्धारित करने में महत्व रखता है।”11 अर्थात मिथक के निर्माण में जानकारी, परंपरा, अनुभव का योगदान प्रमुख रहता है। मिथक जातीय स्मृति का प्रतीक हैं। उसे काल्पनिक या वायवीय न मानकर अज्ञेय उसे अनुभव और ज्ञान की परंपरा के रूप में व्याख्यायित करते हैं। अर्थात वह पुरातन और नूतन एक साथ है। वह आधुनिकता से परे नहीं है। अज्ञेय मानते थे कि आधुनिकता और भारतीयता में कोई बुनियादी विरोध नहीं है। ‘आधुनिक होने का अर्थ नहीं है कि हम पश्चिम की नक़ल करें।
मिथक अपने प्रचलित रूप में इतिहास नहीं हैं, किंतु वह मिथ्या हैं, यह धारणा भी उचित नहीं हैं। मानव जाति ने लंबी यात्रा के काल-क्रम में मिथकों का निर्माण किया है। नायकों में, पौराणिक आख्यानों में अपने सपनों, अपनी आकांक्षाओं का रंग भरा है, शाश्वत मूल्यों के साथ समय की जरुरत के अनुसार नवीन मूल्यों की प्रतिष्ठा की है। मिथक किसी भी जाति की सोच, सपनों और उसकी जीवन शैली का प्रतिनिधित्व करते हैं। डॉ. राममनोहर लोहिया ‘राम,कृष्ण,शिव’ नामक लेख में जनमानस की इसी विशेषता की तरफ संकेत करते हुए लिखते हैं- “आप यही सुना करते हो कि राम और कृष्ण और शिव ने हिंदुस्तान या हिन्दुस्तानियों को बनाया। किसी हद तक, शायद, यह बात सही भी हो, लेकिन ज्यादा सही यह बात है कि करोड़ों हिन्दुस्तानियों ने युग-युगांतर के अंतर में हजारों बरस में, राम, कृष्ण और शिव को बनाया। उनमें अपनी हँसी और सपने के रंग भरे।”12 मानव संस्कृति का प्रतिनिधित्व केवल इतिहास नहीं करता है। इतिहास की आँखे उसे पूरी तरह देख भी नहीं पाती हैं। उसे संपूर्णता में पकड़ने के लिए पौराणिक आख्यान, हितोपदेश और पंचतंत्र जैसी कहानियां हैं, परी कथाएं हैं, चरित काव्य और पौराणिक नायक होते हैं। और भी बहुत कुछ मिलकर किसी देश के मनुष्य की विकास यात्रा, उसकी सृजनशीलता और उसके सपनों की पूरी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं। उन मूल्यों और नैतिकताओं की शक्ल गढ़ते हैं, जिन पर वह समाज चलना चाहता है। चूंकि इनके केंद्र में मनुष्य रहता है, इसलिए उसके गतिशील जीवन की भांति इनमें भी नैरंतर्य होता है। इस प्रकार संस्कृति का निर्माण, परिष्कार चलता रहता है। जो ठहर गया वो संस्कृति नहीं, विकृति हो जाती है। आवश्यक मूल्यों और प्रेरक प्रतीकों, आख्यानों को लेकर संस्कृति निरंतर आगे बढ़ती रहती है। “संस्कृति जड़ नहीं होती है, गतिशीलता उसकी एक उल्लेखनीय विशेषता है। मानव जीवन की आवश्यकताओं और समय-समय पर प्राकृतिक एवं सामाजिक पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों में सामंजस्य बनाये रखना उसका एक मुख्य उद्देश्य है। अतः यह स्वाभाविक ही है कि संस्कृति के गठन और उसके मूल्यों में समय-समय पर परिवर्तन हों। गतिशीलता का अभाव संस्कृतियों को विघटन की दिशा में उन्मुख कर उनके क्रमिक ह्रास और मृत्यु का कारण होता है।”13 कालांतर में कोई जाति, संस्कृति जब आत्म और अस्मिता की तलाश करती है तब स्वयं को स्मृति के आधार पर इन्ही से पहचानती है। सांस्कृतिक टकराहटों के दौर में जब अनुभव और चिंतन की कोटियों में दूरी आ जाती है तब उसे निरस्त करने के लिए सांस्कृतिक स्मृति का सहारा लिया जाता है। अज्ञेय लिखते हैं –“संस्कृतियों की टकराहट होने पर अनुभव और चिंतन की इन कोटियों में दूरी आ जाना स्वाभाविक है। जितना ही वह स्वाभाविक है उतना ही उसको निरस्त करना आवश्यक है। यह विभाजन दीर्घकालीन अथवा स्थायी हो जाने पर दोनों ही पक्षों की गहरी क्षति होती है। समाज का व्यक्तित्व विघटित होने लगता है और क्रमशः एक तरफ चिंतन जड़ अथवा गतानुगतिक होता जाता है, दूसरी तरफ सांस्कृतिक स्मृति-भ्रंश के कारण हमारे अनुभव का क्षेत्र संकुचित और हमारा अनुभव शिथिल और निर्जीव होता जाता है।...स्मृति का विघटन बुद्धि और व्यक्तित्व के नाश का कारण बनता है।”14 इसलिए अज्ञेय मिथकों को ‘प्रकटन तर्क’ और ‘शक्ति का आदि स्रोत’ कहते हैं। “हमारा होना, हमारा सचमुच होना, हमारा समर्थ होना मिथक के साथ जुड़ा है,इन तीनों की पहचान भी मिथक के साथ जुड़ी है और मिथक के द्वारा ही हम उनकी रक्षा करते हैं, अर्थात नई सृष्टि करते हैं।”15 इसलिए मिथक स्वयं को पहचानने, नये नये संदर्भों में व्याख्यायित करने के लिए महत्त्वपूर्ण तो होते ही हैं साथ ही उसे दूसरी संस्कृति से अलग और विशिष्ट भी बनाये रखते हैं। - “हर संस्कृति के जो मिथक होते हैं वे जहां एक तरफ़ उस संस्कृति के पूरे अनुभव संचय से काम लेते हैं, वहां उसके साथ-साथ एक ऐसी रहस्यमय भाषा भी गढ़ते हैं जो उस संस्कृति की अस्मिता को और सब संस्कृतियों से अलग बनाये रखने में योग दे।”16 यह अलगाव उसे विशिष्टता प्रदान करता है। कई बार इतना विशिष्ट कि विश्व को मनुष्यता का मार्ग दिखाने में समर्थ होता है। भारत का समग्र अनुभव और ज्ञान मानवीय संस्कृति की विराट मूर्ति प्रस्तुत करते हुए मनुष्यता का पथ प्रशस्त करता रहा है, वर्तमान समय में दुनिया को बांटने और अधिकृत करने का जो विविध प्रयास महत्वपूर्ण सत्ता संरचनाओं द्वारा किया जा रहा है, उसका प्रत्युत्तर संस्कृति के अनुसरण से दिया जा सकता है। उसके मूल्य, आध्यात्मिक चेतना और समाज-बोध के स्तर पर दुनिया को एक वैकल्पिक मार्ग दिखाया जा सकता है। किन्तु प्रश्न वही है कि क्या कोई समाज या उसका बुद्धिजीवी वर्ग अपनी संस्कृति की विशिष्टता को विशिष्ट और आवश्यक मानता भी है अथवा नहीं ? दूसरों से अलग होने को अपनी कमजोरी मानने के बजाय ताकत मानता है कि नहीं ?
भारतीय संस्कृति के पक्षधर लोगों को भी स्वीकार करना चाहिए कि संस्कृति की समसामयिक व्याख्या आवश्यक है, जिससे वह मानवीय और तार्किक बनी रहे। ‘मानवीय काल: अनुभव का क्रम’ में अज्ञेय मानवीय अनुभव में काल की प्रतीति को ‘डमरू’ की आकृति के रूप में समझाते हैं, जो काल की निरंतरता, समसामयिक बोध, स्मृति और आकांक्षा से सहज रूप से जुड़ता है और यह तथ्य प्रस्तुत करता है कि काल पर विजय वर्तमान के आत्मसाक्षात्कार में ही संभव है। “डमरू की मूल आकृति एक दोहरे शंकु की है जिसमें दोनों शंकुओं के शिखर एक दूसरे से मिले हुए हैं। यह संधि-स्थल डमरू की कटि है, जहाँ से बढ़ कर उस के डोरे की गाँठ दोनों ओर,दोनों शंकुओं के तल पर, आघात कर सकती है। यह संधि-स्थल ही वह बिंदु है जहाँ से डमरू को बजाते समय उसे पकड़ा जाता है। काल के प्रतीक डमरू में, काल डमरू में, यही क्षण वर्तमान का क्षण है। वास्तव में शुद्ध वर्तमान यही हो भी सकता है: एक संधि का सूक्ष्मतम बिंदु। दोनों शंकु अतीत और भविष्य हैं। हम, हमारी चेतना, सर्वदा वर्तमान के बिंदु पर स्थिर रहती है: परिभाषा से ही अस्तित्त्व वह स्थिति है। निरंतर इसी एक बिंदु पर टिके रहते हुए हमें अतीत और भविष्य की प्रतीत होती है, बजाये जाने पर डमरू की कौड़ी जिस भी पक्ष पर आघात करती हैं। यह कौड़ी हमारे चित्त का प्रतीक है। डमरू की गति काल की गत्यात्मकता या प्रवाहमयता को प्रतिरूपायित करती है और प्रवाह के इस बोध से हमें नैरंतर्य अथवा सातत्य की प्रतीति होती है। उन्मुखता की प्रतीति से भविष्य का और प्रतिमुखता से अतीत का बोध होता है”।17 नकारवादियों और अतिशय श्रद्धाजीवियों से उसे बचाना चाहिए। रमेश चन्द्र शाह ने ‘अज्ञेय : बागर्ध का वैभव’ में बहुत सटीक ढंग से लिखा है कि आज़ादी की माला जपने वाले और अतिरिक्त श्रद्धाजीवियों, दोनों से संस्कृति को खतरा है। “ऊपर से बड़े खुले और उदार दीखने वाले लोग ही भीतर से सबसे ज्यादा बंद और असहिष्णु हुआ करते हैं। एक श्रद्धाजीवी और अधिकांशतः भावुक संस्कार वाले परिवेश में अक्सर ही न केवल इन बुराइयों को, बल्कि काहिली, कामचोरी, गैरजिम्मेदारी और झूठ-कपट जैसी अनर्थकारी प्रवृत्तियों को एक आसान आड़ मिल जाती है।”18 ग़ौरतलब है कि ये दोनों दुनिया या अज्ञेय की भाषा में कहें तो दोनों यंत्र हमें वहीं लेकर जाते हैं, जहां पर नकारवादी और अतिशय श्रद्धावादी लेकर जाते हैं। अज्ञेय के चिंतन के केंद्र में साधारण मनुष्य की स्वाधीन चेतना का विकास रहा है। उस स्वाधीन मनुष्य को ही नये मन और नए भारत का प्रतिनिधित्व करना है। इसलिए वर्तमान के बिंदु पर रहते हुए अतीत और भविष्य दोनों से, सीख और स्वप्न के माध्यम से जुड़े रहना है। समय के अनुरूप नये-नये तथा प्रासंगिक मूल्यों की तलाश करते रहना है और उन शाश्वत मूल्यों तथा नैतिकता को भी बचाए रखना है, जो भारत की संस्कृति और जीवन का आधार है।
बुद्धिजीवियों के वर्ग विशेष में यह धारणा प्रचलित है कि यथार्थवादी साहित्य पारंपरिक मूल्यों से निरपेक्ष हो सकता है। मूल्यपरक साहित्य का दौर अब नहीं रहा, खासकर पारंपरिक मूल्यों के, नैतिकताओं के संदर्भ बदल गए हैं। किंतु, यदि कोई साहित्य वास्तव में यथार्थवादी है तो वह मूल्य निरपेक्ष हो ही नहीं सकता है। मूल्य अलग हो सकते हैं, नये समय की जरुरत के अनुरूप हो सकते हैं किंतु साहित्य मूल्यविहीन नहीं हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि नये मूल्य और नैतिकताओं की सृष्टि हर रचना करे ही, वह शाश्वत मूल्यों की स्थापना के माध्यम से भी अपने दायित्व का निर्वाह कर सकती है और इसमें कोई बुराई भी नही है। अज्ञेय मानते हैं कि पुराने साहित्य में मूल्यों की स्थापना हेतु दृष्ट्रांत, उपदेश जैसे विशेष प्रयोजन होते थे, जो आधुनिक साहित्यकार शायद न अपनाए, किंतु वह अपने तरीके से इसकी संकल्पना करता है- “इसका यह अर्थ नहीं है कि मानवीय संबंधों की नैतिक आधारभूमि से साहित्यकार का सरोकार नही रहा है। यथार्थवादी साहित्य भी मूल नैतिक प्रतिज्ञाओं से मुक्त नहीं होता। नैतिकताओं को विविध और सापेक्ष और वर्गगत मानकर भी उससे छुटकारा नहीं मिलता, क्योंकि वर्ग-युद्ध पर बल देने वाली विचारधारा भी उस आदर्श अर्थात सम्पूर्णतया वांछनीय स्थिति की ओर बढ़ने का दावा करती है, जिसमें वर्ग नहीं होंगे और इसलिए टकराने वाली वर्गीय नैतिकताओं के बदले एक व्यापक सर्वमान्य नैतिकता होगी।”19 नैतिकताओं पर इतना बल इसलिए होता है क्योंकि वह हर हाल में लोकमंगल से जुड़ी रहती है। इसलिए नैतिकताओं के स्रोत का सम्मान आवश्यक है और आवश्यक है उन मूल्यों की स्थापना, जो मनुष्य को मुक्त करता हुआ उसे जोड़े। तथा मनुष्य बिना किसी को जीते हुए निरंतर विस्तार करे। नैतिकता न तो देश-काल निरपेक्ष होती है और न ही सांस्कृतिक रूप से विमुख होती है। विज्ञान, पुराण, साहित्य इस रूप में एक स्तर पर समानधर्मा हो जाते हैं कि वे सभी अपने-अपने ढंग से नैतिकता की तलाश करते हैं। एक साहित्यकार के लिए भी सृजन का यही अभिप्राय है। इसलिए अज्ञेय साहित्यकार को समाज में ऊँचे पद का अधिकारी मानते हैं। “कुछ अधिक देख पाना,कुछ अधिक दूर तक देख पाना,कुछ अधिक गहराई तक या गहराई से देख लेना, कुछ समय से पहले देख लेना, जो स्पष्ट दीख रहा है उससे भिन्न या उसके प्रतिकूल भी कुछ देखना अथवा भाँप लेना, गति की जो दिशा स्पष्ट है अथवा स्वीकृत है उससे भिन्न दिशा में होने वाली गति को देख लेना या उसके प्रतिकूल दिशा का संकेत दे देना,ये सभी उस दृष्टि का अंग हैं जिसका श्रेय हम सर्जक को देते हैं,जिसकी अपेक्षा उससे रखते हैं और जिसके आधार पर ही इसका निर्णय करते हैं कि उसकी कृति कहाँ तक सर्जना है, रचना है।”20 संस्कृति परंपरा का, सामूहिक अनुभव के नित्य पक्ष का भंडार होती है। वह सृष्टि करती है। मनुष्य पशु से इसी संदर्भ में अलग है कि वह मूल्यों की सृष्टि करता है, नैतिकताओं को रचता है। इसे मानने के साथ यह मानना भी आवश्यक है कि वह एक गत्यात्मक प्रक्रिया है, स्थिर नहीं। मूल्यदृष्टि की चेतना वास्तव में ‘मूल्यों की अर्थवत्ता की अनवरत खोज’ की प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में पुनर्मूल्यांकन और प्रमाणीकरण की प्रक्रिया भी सम्मिलित है। कोई भी चेतनासंपन्न संस्कृति एक जिज्ञासु भाव अथवा प्रश्नाकुलता लिए रहती है, जो उसकी चैतन्यता और सर्जनात्मकता का प्रमाण होती है। अज्ञेय ‘आत्मनेपद’ में लिखते हैं- “जिसे हम भारत की आत्मा कहते हैं, वह वास्तव में आत्म और अनात्म का, जीवित और जड़ का एक पुंज है, जिसकी परीक्षा की आवश्यकता है, परीक्षा करके जड़ को अलग रख देना होगा, चाहे पुरातत्व संग्रहालय में ही, और जीवित को आगे बढ़ाना होगा।”21 अज्ञेय समय की आवश्यकता के अनुरूप आचार की नयी अवधारणा की बात करते हैं। “छुआछूत तो बिलकुल मैं अग्राह्य मानता हूँ। अपने जीवन में मैंने उसके लिए कोई स्थान नहीं रखा। जात-पांत को भी बहुत बड़ा एक सामाजिक अन्याय मानता हूँ। इस सब चीजों को तोड़ना चाहिए और बड़े सहज भाव से तोड़ी भी जा सकती है, अपने से आरंभ करते हुए।”22 व्यक्तिगत रूप से वह छुआछूत, जाति-पाति, ऊँच-नीच और कर्मकांड को धर्म के विरुद्ध मानते हुएकहते हैं कि समग्र मानवता से जुड़ने के लिए समाज के दूसरे प्राणियों के बीच हमें कैसे आचरण करना चाहिए, इसका विचार करते रहना चाहिए। यह काम राजनीति अपने हिसाब से करती है, धर्म और संस्कृतियाँ अपने हिसाब से करती हैं और कलाएं तथा विज्ञान अपने अनुसार करता है।
निष्कर्ष : समग्र अनुभव का संयोजन तभी सार्थक रूप से हो सकता है, जब समस्त का समायोजन भाव भी विकसित हो। इसलिए जाति-पांति, ऊँच-नीच के भेद से जितनी शीघ्रता से निकल सकें, निकलना चाहिए। एक चिंतक और सामाजिक के तौर पर अज्ञेय मानते हैं कि संस्कृति के नाम पर प्रचलित गलत अवधारणाओं को, जिसको कुछ लोग जिन्दा रखना चाहते हैं, या वो लोग, जो जाने-अनजाने गलत तत्वों को भारतीय संस्कृति का प्रतीक मानकर उसकी आलोचना करते हैं, वो दोनों इसी भावभूमि पर पहुँचते हैं कि बंटवारा और अलगाव कैसे सुनिश्चित हो? वे वहीं लेकर जाते हैं जहां दोनों दुनिया के पैरोकार पहुंचना और पहुँचाना चाहते हैं। दुनिया एक है। उसकी एकता ही दुनिया का मूल भाव है। संस्कृतियों की विविधता एक मानव संस्कृति में किसी प्रकार से बाधा उत्पन्न नहीं करती है। वरन उसे अधिक संभावनाशील बनाती है। जैसे भारत की संस्कृति विश्व को बहुत कुछ सार्थक प्रदान करने का सामर्थ्य रखती है। इसलिए अज्ञेय चेतना के स्तर पर साहचर्य, समायोजन और संवाद जैसे लोकतांत्रिक मूल्यों पर बल देते हुए सर्वसमावेशी दृष्टिकोण अपनाते हैं। संस्कृति के ही स्तर पर जाति, धर्म, वर्ण कर्मकांड से मुक्ति का प्रश्न उठाते हैं। इस स्तर पर वे आधुनिक भी हैं और पारंपरिक भी। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि उनकी आधुनिकता और परंपरा मनुष्य की पक्षधरता के स्तर पर एक हो जाती है। इसी रूप में वे भारतीय संस्कृति के व्याख्याता हैं और इसी रूप में सभ्यता समीक्षक भी। और इसी रूप में वह दोनों यंत्रों के नैरेटिव और मंतव्यों के बरक्स ‘एक दुनिया’ के पैरोकार हैं। साझी मानव संस्कृति के समर्थक हैं। वह मनुष्यता की एकात्मकता के गायक हैं, उसी रूप में दुनिया की एकता के भी। क्योंकि समग्र का हित संयोजन ही मानव संस्कृति का मूलाधार है।
1. चयन और संपादन- गिरीश्वर मिश्र, भारत की पहचान, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, पहला संस्करण- 2019, पृष्ठ- 7
2. संकलन-कृष्णदत्त पालीवाल, अज्ञेय प्रतिनिधि निबंध (कला भाषा और औपनिवेशिक मानस), राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, संस्करण-2011, पृष्ठ-2
3. वही, पृष्ठ-2
4. वही, पृष्ठ- 2-3
5. वही, पृष्ठ– 3
6. वही, पृष्ठ– 4
7. वही, पृष्ठ-5
8. वही, पृष्ठ-5
9. वही, पृष्ठ-6
10. विजयेन्द्र स्नातक, स्मृतिशेष : मेरे समकालीन, भारतीय साहित्य प्रकाशन,1993, पृष्ठ- 91
11. वही, पृष्ठ-170
12. संपादक, ओंकार शरद, भारतमाता धरतीमाता (राम,कृष्ण,शिव) लोकभारती प्रकाशन, चतुर्थ संस्करण-2002, पृष्ठ-55
13. श्यामाचरण दूबे, मानव और संस्कृति, ( संस्कृति-परिवर्तन ), राजकमल प्रकाशन, पहला पेपरबैक संस्करण-1993, पृष्ठ-216
14. अज्ञेय, संवत्सर, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, प्रथम संस्करण- 1978, पृष्ठ- 18-19
15. संकलन-कृष्णदत्त पालीवाल, अज्ञेय प्रतिनिधि निबंध (मिथक) पृष्ठ-172
16. वही, पृष्ठ-170
17. अज्ञेय, संवत्सर, पृष्ठ-78
18. रमेश चन्द्र शाह, वागर्थ का वैभव, प्रभात प्रकाशन, संस्करण-1994, पृष्ठ-69
19. वही, पृष्ठ-404,
20. वही, पृष्ठ-411
21. चयन और संपादन, नंदकिशोर आचार्य, अज्ञेय के उद्धरण, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण 2019, पृष्ठ-15
22. वही, पृष्ठ- 53
डॉ. सत्यप्रकाश सिंह
एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग. राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
मकान नंबर- 69, तरुण विहार अपार्टमेंट, सेक्टर- 13, रोहिणी , दिल्ली- 110085
satyaraghuvanshi@gmail.com 9811870076
अज्ञेय की वैचारिकता का एक आयाम आपने सम्यक रूप में विश्लेषित किया है | हार्दिक बधाई |
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