शोध सार : गांधी गिरमिटिया श्रम प्रणाली के उन्मूलन के कार्य के महत्वपूर्ण योद्धाओं में से एक थे। एक राष्ट्रवादी नेतृत्वकर्ता के रूप में गांधी ने कई मोर्चों पर अनुबंध/प्रणालियों के उन्मूलन के कई आंदोलनों का नेतृत्व किया था। यह आलेख गिरमिटिया श्रम प्रणाली के उन्मूलन में गांधी की भूमिका को उजागर करने का एक प्रयास है।
बीज शब्द : गांधी, राष्ट्रवादी आंदोलन, गिरमिटिया श्रम प्रणाली, कुली।
शोध के उद्देश्य- इस आलेख का उद्देश्य गांधी के गिरमिटिया श्रम प्रणाली के उन्मूलन में योगदान को समक्ष लाना है।
शोध प्रविधि- इस आलेख के लिए शोधार्थी ने गांधी के द्वारा दिए गए विभिन्न भाषणों, अखबारों में छपे लेखों तथा पत्रों का अध्ययन करके, गांधी के इस योगदान को उजागर करने का प्रयास किया है। इसके साथ ही शोधार्थी ने द्वितीयक स्रोतों का भी उपयोग किया है।
मूल आलेख :
साहित्य का पुनरावलोकन -
गांधी की गिरमिटिया व्यवस्था के खिलाफ आवाज को लेकर विभिन्न इतिहासकारों में सहमति नहीं है। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि गांधी ने इस व्यवस्था के खिलाफ शुरू से ही आवाज उठाई किंतु, कुछ इतिहासकार इस तर्क से सहमत नहीं हैं, और वे कहते हैं, कि गांधी ने गिरमिटिया व्यवस्था के खिलाफ आवाज बहुत देर से उठाई। गांधी का शुरुआती दिनों में गिरमिटिया व्यवस्था के उन्मूलन का उद्देश्य नहीं था, उन्होंने गिरमिटिया व्यवस्था के खिलाफ आवाज तब उठाना प्रारम्भ किया, जब उनको लगा कि, यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। इतिहासकारों के विभिन्न मतों को समझने के लिए साहित्यिक पुनरावलोकन आवश्यक है।
स्वान, कैथरीन टिड्रिक, जोसेफ़ लेलीवेल्ड जैसे कई विद्वान हैं, जो गिरमिटिया मज़दूरी के मुद्दों को उठाने में देरी के लिए गांधी की आलोचना करते हैं। फ्रेन गिनवाला, अश्विन देसाई और गुलाम वाहेद ने भी दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया दुर्दशा के मुद्दे को उठाने में देरी के लिए गांधी की आलोचना की, वे कहते हैं, हालांकि गांधी ने भारतीयों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को उठाया, लेकिन कुलियों के मुद्दे को नहीं उठाया। दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया भारतीयों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ, गांधी ने 1913 में अपना महान सत्याग्रह अभियान चलाया।1 आशुतोष कुमार,2
गिरमिटिया मजदूरों के मुद्दे को उठाने में देरी और गिरमिटिया भारतीयों के लिए कुछ भी महत्वपूर्ण हासिल करने में, 1913 के अभियान की विफलता के लिए गांधी की आलोचना करते हैं। जोसेफ लेवीवेल्ड का यह भी कहना है कि गिरमिटिया भारतीयों की मुक्ति, दक्षिण अफ्रीका में गांधी का लक्ष्य कभी नहीं था। हालाँकि, भेदभाव के खिलाफ यह प्रारंभिक लड़ाई कुलियों के अधिकारों के लिए नहीं थी, बल्कि स्वतंत्र भारतीयों के साथ कुलियों के रूप में व्यवहार के लिए थी।
हालाँकि, गांधी के भाषणों में गिरमिटिया भारतीयों का लगातार जिक्र होता है, हो सकता है कि उन्होंने गिरमिटिया मुद्दे को सार्वजनिक रूप से उठाने में 1913 तक की देरी कर दी हो, लेकिन भारतीयों के अन्याय और भेदभाव के लिए गांधी की लड़ाई बहुत पहले शुरू हो गई थी।
अध्ययन की आवश्यक्ता
जैसा कि बताया गया कि, कुली प्रथा के उन्मूलन में गांधी की भूमिका को लेकर विभिन्न इतिहासकारों में विभिन्न मत है। शोधार्थी इस आलेख के माध्यम से यह प्रस्तुत करना चाहती है कि, गांधी ने शुरुआती दिनों से ही इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था का विरोध किया था और इसके उन्मूलन के लिए लगातार प्रयास करते रहे।
एंडेंजर्ड सिस्टम एक सशर्त बंद मजदूरी थी, जिसके अंतर्गत भारतीयों को विदेशी कॉलोनी में कार्य करने के लिए भेजा जाता था। भारतीयों का यह प्रवास सामान्यत: 5 वर्ष के लिए होता था परंतु यह इससे अधिक भी हो सकता था। 5 वर्ष से अधिक प्रवास के लिए गिरमिटिया मजदूर की अनुमति आवश्यक थी। वास्तव, में एक बार भारत से जाने के बाद भारत लौटने की प्रक्रिया बहुत जटिल थी, जो सामान्यत: भारतीयों को भारत आने के लिए हतोत्साहित करती थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत भारतीयों को कई विदेशी जमीनों पर भेजा गया, जिनमें मुख्य था - मॉरीशस, त्रिनिडाड, जमैका, ब्रिटिश गयाना, सूरीनाम, फ़िजी इत्यादि। इस गिरमिटिया मजदूरी व्यवस्था का प्रारंभ दासता उन्मूलन के बाद हुआ था। हालांकि, इससे पूर्व भी मॉरीशस में भारतीयों को मजदूर के रूप में भेजा जाता था, परंतु, यह अंग्रेजी सरकार द्वारा सुनियोजित व्यवस्था के अंतर्गत नहीं था। 1842 में दासता के उन्मूलन के पश्चात, यह एक सुनियोजित ढंग से प्रारंभ किया गया। अतः हम यह कह सकते हैं कि, यह एक नए प्रकार की दासता थी, जिसके अंतर्गत गाँव में भर्ती से लेकर कलकत्ता में सब-डिपो तथा, बंदरगाह आगमन तक गिरमिट प्रणाली शोषण, छल, जबरदस्ती से भरी थी। एक बार मेज़बान कॉलोनी में पहुँचने पर भी भारतीयों का जीवन आसान नहीं था। व्यवस्था के आरंभ से अंत तक शोषण और अन्याय ने भारतीयों को अपने पास उपलब्ध साधनों से व्यवस्था का विरोध करने के लिए मजबूर किया। इस प्रथा के उन्मूलन में, भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न विचारवादी नेताओं ने एकता दिखाई। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में जहां विचारधारा के आधार पर कई वर्गों में विभाजन था; इस मुद्दे पर हम देखते हैं कि, सभी राष्ट्रवादी नेताओं ने एकजुट से पुरजोर विरोध किया।
महिलाओं के सम्मान के सवाल पर एक राष्ट्रवादी ने अन्यायपूर्ण व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की मांग रखी -
इस तथ्य को स्वीकार करने के बावजूद कि व्यवस्था में दुर्व्यवहार थे, ब्रिटिश सरकार ने इसमें सुधार के प्रयास किये। हालाँकि, कुली प्रथा को ख़त्म करने की राष्ट्रवादी मांग 1890 के दशक के अंत से ही चल रही थी, जब गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में इस अन्यायपूर्ण प्रणाली के बारे में बात की थी। गिरमिटिया व्यवस्था के खिलाफ सामूहिक राष्ट्रवादी चेतना में मुख्य बिंदु फिजी में कुंती का रोना (kunti's cry)3 बन गया। कुंती, 1913 में फिजी भेजी गई एक गिरमिटिया मजदूर थीं, जिन्होंने वेनिबोकासी नदी में कूदकर खुद को ओवरसियर कोबक्रॉफ्ट के चंगुल से बचाया था। गिरमिट प्रणाली के खिलाफ इस राष्ट्रवादी आंदोलन में महिलाएं भी ब्रिटिश राज के सुदूर उपनिवेशों में अपनी भारतीय बहनों के साथ खड़े होने के लिए एक अग्रणी आवाज बन गईं।4
शुरुआती दिनों में गांधी गिरमिटिया मजदूरों के मामलों में ज्यादा शामिल नहीं थे। 1894 में एक पत्र में उन्होंने लिखा- 5
यदि मैं विभिन्न भूसंपत्ति (estates) पर गिरमिटिया भारतीयों के साथ किए गए व्यवहार के संबंध में मुझे प्राप्त रिपोर्टों के दसवें हिस्से पर निर्भर रहूं, तो यह भूसंपत्ति के स्वामियों की मानवता और की गई देखभाल के खिलाफ एक भयानक अभियोग होगा। भारतीय आप्रवासियों के संरक्षक (Protector of Emigrants), हालाँकि, यह एक ऐसा विषय था, जिस पर मेरा बेहद सीमित अनुभव मुझे आगे टिप्पणी करने से रोकता है। गांधी का यह कथन दर्शता है कि, गांधी की गिरमिटिया व्यवस्था के विरोध में देरी की वजह उनकी इस विषय पर बेहद सीमित अनुभव था।
भारत में गिरमिटिया मज़दूरी को ख़त्म करने की मांग "पहला महत्वपूर्ण अभियान" था, जिसमें राष्ट्रवाद के सभी गुट भारतीय महिलाओं के सम्मान को बचाने के लिए एक साथ आए, क्योंकि यह व्यवस्था सभी भारतीय महिलाओं की स्थिति को प्रभावित कर रही थी। महिलाओं के सम्मान के बारे में ऐसी सामूहिक राष्ट्रवादी चेतना ने ``सभी भिन्न राष्ट्रवादी'' विचारकों को एक साथ कर दिया। राष्ट्रवादी गुटों में हिंदू, मुस्लिम, उदारवादी और उग्रवादी और महात्मा गांधी शामिल थे।6
महात्मा गांधी की भूमिका
गांधी ने दिसंबर, 1915 में समालोचक में इंडेंचर या स्लेवरी शीर्षक से एक गुजराती लेख में गिरमिट शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया था-7
गिरमिट अंग्रेजी शब्द एग्रीमेंट का बिगड़ा हुआ रूप है। वास्तव में यह "समझौता" नहीं है... यह वह दस्तावेज़ है जिसके तहत हजारों मजदूर पलायन करते थे और अभी भी पांच साल के लिए अनुबंध पर नेटाल और अन्य देशों में प्रवास करते हैं, मजदूरों और नियोक्ताओं द्वारा गिरमिट के रूप में जाना जाता है। गिरमिट के तहत पलायन करने वाला एक मजदूर गिरमिटियो (Girmitto) (गिरमिटिया मजदूर) है।
गांधी आगे चलकर अनुबन्धित मजदूरों की तुलना अर्ध-दासता की स्थिति से करते हैं, क्योंकि वह अतीत के दासों की तरह अपनी स्वतंत्रता नहीं खरीद सकते थे। गुलाम की तरह गिरमिटिया श्रमिक को भी एक नियोक्ता से दूसरे नियोक्ता के पास कई बार स्थानांतरित किया जा सकता है। गुलामी और गिरमिटिया के बीच एकमात्र बड़ा अंतर यह था कि गिरमिटिया भारतीयों के बच्चे औपनिवेशिक बागानों में काम करने के लिए बाध्य नहीं थे। लेकिन इन उपनिवेशों में अंग्रेजों द्वारा भारतीय विवाहों को मान्यता नहीं दी गई थी।
महात्मा गांधी, "एक ट्रांसओशनिक प्रवासी",8
का अनुबन्धित श्रमिकों के प्रति लगाव दक्षिण अफ्रीका; जो एक ब्रिटिश उपनिवेश भी था, में, उनके अनुभवों से ही था। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका और कैरेबियन में बिखरे हुए भारतीयों का एक कल्पित समुदाय बनाया और उन्हें भारतीयों के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवस्था के लिए एकजुट किया।9 इन समुदायों के साथ गांधी के जुड़ाव ने इन क्षेत्रों में भारतीयों को अन्य जातीय और राष्ट्रीय विभाजनों के पक्ष में जाने से रोक दिया था, जो गांधी का एक महत्वपूर्ण योगदान है। कुली प्रथा के खिलाफ भारतीयों का असंतोष पहली बार तब सामने आया, जब 1894 में नेटाल नेशनल असेंबली में पारित एक विधेयक द्वारा स्वतंत्र भारतीयों को मताधिकार से वंचित कर दिया गया था। इसका कारण औपनिवेशिक नेटाल में एशियाई ख़तरे (Asiatic
Menace) का डर था।10 भारतीयों के प्रति इस अन्याय से लड़ने के लिए गांधी ने नेटाल इंडियन कांग्रेस का गठन किया।11 दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने भारतीयों के प्रति अन्याय का मुद्दा उठाने के लिए इंडियन ओपिनियन नामक अखबार की शुरुआत की थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी 1905 के अपने बनारस अधिवेशन में भारतीयों के खिलाफ अन्याय की आवाज को ऊंचा किया और दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों को नागरिकता से वंचित करके तथा उनके प्रति भेदभाव के खिलाफ एक प्रस्ताव पारित किया।
गांधी गुजरात में, विचार सृष्टि में “गोखले के जीवन का संदेश”12 शीर्षक से लिखा, उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने नेटाल में गिरमिटिया श्रम के मुद्दे पर भारत के नेताओं के साथ चर्चा की थी। हो सकता है कि उन्होंने गिरमिटिया मजदूरों के व्यापक समर्थन में देरी की हो, लेकिन वे भारतीयों की स्थितियों के बारे में चिंतित थे। गांधी मुद्दे को व्यापक रूप से समझे बिना जन आंदोलन नहीं कर सकते थे। जन आंदोलन ऐसे शून्य में शुरू नहीं किया जा सकता। भले ही 1913 का आंदोलन वांछित उद्देश्यों को पूरा करने में विफल रहा, लेकिन यह विफलता नहीं थी, क्योंकि इसने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए भारतीय कुलियों का एक कल्पित समुदाय, पहचान और ताकत की धारणा तैयार की। दक्षिण अफ्रीका में ही गांधी की मुलाकात एंड्रयूज से हुई, जो बाद में गिरमिट-विरोधी अभियान की अग्रणी आवाज बन गए थे।
16 जून, 1915 को जे.बी. पेटिट को लिखे एक पत्र में गांधी ने कहा था-13
कि "गिरमिटिया प्रवासन की व्यवस्था एक बुराई है, जिसे सुधारा नहीं जा सकता, बल्कि ख़त्म ही किया जा सकता है।"
गांधी ने अपनी सार्वजनिक सभाओं में भी गिरमिट प्रथा पर लगातार प्रहार किया। 28 अक्टूबर, 191514
को बंबई में गिरमिटिया भारतीय श्रमिकों पर अपने भाषण में उन्होंने इस व्यवस्था की आलोचना की। अपने बंबई भाषण में उन्होंने एंड्रयूज और पियर्सन को भारत का सच्चा मित्र बताया। उन्होंने कुछ सुझावों के साथ प्रणाली को जारी रखने के लिए मैकनेल और लाल रिपोर्ट की निंदा की। गांधी ने बागान मालिकों के वर्ग के साथ हितों के टकराव और भारतीय गिरमिटिया मजदूरों के शोषण में उनके बीच सांठ-गांठ के लिए प्रवासियों के संरक्षक की आलोचना की। उन्होंने प्रवासियों के संरक्षक
(Protector of Emigrants) की निरपेक्ष शक्तियों की भी आलोचना की, क्योंकि यदि प्रोटेक्टर ऑफ़ इमीग्रांट्स का कोई निर्णय गलत होता था तो उनके निर्णय पर पर कोई सवाल नहीं खड़ा किया जा सकता था।
26 फरवरी, 1916 को द लीडर में प्रकाशित अपने लेख में उन्होंने सर विलियम विल्सन हंटर को उद्धृत किया, जिन्होंने इंडेंचर व्यवस्था की तुलना गुलामी व्यवस्था से की थी, इस लेख में गांधी ने गिरमिटिया व्यवस्था का विरोध जताया, गांधी के इस व्यवस्था के विरोध की दो मुख्य वजह थी, एक तो अनैतिकता दूसरी भारतीयों को विदेशी भूमियों पर असमान रूप से मानना तथा उन्हें समानता के अधिकार से वंचित करना था। इस लेख में उन्होंने भारतीयों के साथ होने वाले अनैतिक और असमान व्यवहार के लिए व्यवस्था पर सवाल उठाए -
सबसे पहले, इस पूरी व्यवस्था में भारतीय महिलाओं की स्थिति, वे कहते हैं, महिलाओं के बारे में यह व्यवसाय (गिरमिटिया व्यवस्था) बुराई का सबसे कमजोर हिस्सा है।16 उन्होंने उपनिवेशों में मौजूद नाजायज और अनैतिक विवाहों के लिए भी इस व्यवस्था की आलोचना की। उन्होंने भारतीय महिलाओं के साथ रखैल जैसा व्यवहार करने की व्यवस्था की आलोचना की। उनका कहना है कि "विवाह एक दिखावा है"17
क्योंकि इसकी वैधता केवल आप्रवासियों के संरक्षक
(Protector of Emigrants) की सहमति पर निर्भर करती है। भारत की विवाह प्रणाली के बारे में बागानों की ऐसी स्थितियों ने पारंपरिक भारतीय परिवार प्रणालियों को बाधित कर दिया, "विवाह और पारिवारिक संरचनाएं प्रवाह (flux) की स्थिति में थीं।"18
कुमकुम संगारी आगे कहती हैं कि श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी, जिसमें अनुबंध भी शामिल है, "गैर-अंतर्विवाह और गैर-वैवाहिक घरों और पितृसत्तात्मक प्रथाओं को चुनौती दी जा रही थी।"19
नारीत्व और विवाह के संबंध में, गांधी और एनी बेसेंट के पतिव्रता महिलाओं की विचारधारा एक सामान है। उनके आदर्श सावित्री, सीता, दमयंती और शकुंतला थे।20 इस प्रणाली पर सवाल उठाने का एक अन्य कारण भारतीयों और अंग्रेजों के बीच असमान व्यवहार था।
गांधी ने 23 अक्टूबर 191621
को अहमदाबाद में बॉम्बे प्रांतीय सम्मेलन में इस प्रणाली के उन्मूलन के लिए प्रस्ताव पेश किया और इस प्रणाली को तत्काल समाप्त करने की मांग की।
गांधी ने आगामी वर्ष में इसके उन्मूलन के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के लखनऊ सत्र में 28 दिसंबर 1916 को गिरमिटिया मजदूरी पर संकल्प संख्या IX भी पेश किया।22
वर्ष 1917 में 4 फरवरी को अहमदाबाद में गिरमिटिया विरोधी बैठक हुई, जिसमें उन्होंने महिला गिरमिटिया मजदूरों की दुर्दशा को उजागर करने में एंड्रयूज और पोलाक के योगदान के बारे में बात की।23 उनका भाषण 11 फरवरी 1917 को प्रजाबन्धु में प्रकाशित हुआ।
9 फरवरी 1917 को सर जमशेदजी की अध्यक्षता में बंबई में एक और गिरमिट-विरोधी बैठक हुई, जहां सर एन.जी. चंदावरकर ने गिरमिट को समाप्त करने का प्रस्ताव पेश किया।24 2 मार्च 1917 को कराची में गिरमिट-विरोधी बैठक हुई, जहाँ उन्होंने गिरमिट प्रणाली के उन्मूलन के लिए 31 मई की तारीख तय की।25 यदि यह मांग नहीं मानी गई तो गांधी ने उपस्थित सदस्यों से भारतीयों को देश छोड़ने से, रोकने के लिए कहा।26 जैसा कि अमृत-बाज़ार पत्रिका27 में बताया गया है, गांधी ने कलकत्ता में आयोजित एक गिरमिट-विरोधी बैठक में 31 मई की तारीख को गिरमिटिया व्यवस्था उन्मूलन के तारीख़ के रूप में दोहराया। यह उस चुनौती की तरह थी; जो गांधी ने रौलट सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन से पहले ब्रिटिशों को दी थी।
एंड्रयूज गांधी के सहयोगी रहे थे और उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भी उनके साथ काम किया था। सी. एफ. एंड्रयूज उन प्रखर आवाजों में से एक थे, जिन्होंने अनुबंध की इस प्रणाली पर सवाल उठाया था। उन्होंने भर्ती से लेकर बागान तक इसमें प्रचलित दुर्व्यवहारों के लिए इस प्रणाली की आलोचना की, जिससे भारतीय परिवार प्रणाली का नैतिक पतन हो रहा था। उन्हें विलियम पियर्सन के साथ फिजी भेजा गया था। उन्होंने मैकनील और लाल रिपोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि इस रिपोर्ट ने समस्या की जड़ तक पहुंचने के लिए प्रयास नहीं किया है ।28
उन्होंने भारतीय गिरमिटिया मजदूरों की स्थिति की तुलना "अर्ध-दास"29
अस्तित्व से की थी। उन्होंने हार्डिंग को सिस्टम के अन्याय और मैकनील और लाल की रिपोर्ट में कमियों के बारे में समझाने की भी कोशिश की थी। उन्होंने 28 जून, 1915 को हार्डिंग को लिखा -
वह (मैकनील) चीजों की जड़ तक नहीं पहुंचे...उनकी कहानियां प्रत्येक रूप से एक तरफा थीं। कुली मूक और मवेशियों की तरह हैं, बोलने के लिए बहुत घबराए हुए हैं। मैंने इन भयभीत, कांपते, डरे हुए भारतीय कुलियों की आँखों में अत्यन्त पीड़ा देखी है। मैंने उनकी कहानियाँ उन्हीं के मुँह से सुनी है। मैकनील ने स्पष्ट रूप से नहीं कहा था अगर कहा होता तो, उसके रिपोर्ट के पन्ने आग से जल जाते। ”30 फिजी में अनुबंध प्रणाली और महिलाओं की स्थिति पर एंड्रयूज की रिपोर्ट का उपयोग राष्ट्रवादियों द्वारा अनुबंध विरोधी अभियान में बहुत किया गया था।31
निष्कर्ष : अत: गिरमिटिया मज़दूरी के खिलाफ अभियान में गांधी के उपर्युक्त चर्चित योगदान से हम कह सकते हैं कि, व्यवस्था के खिलाफ अभियान में गांधी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। गिरमिटिया व्यवस्था के ख़िलाफ़ उनका लेखन और भाषण भारत की आज़ादी की माँग से कम मुखर और स्पष्ट नहीं था। उन्होंने गिरमिटिया महिलाओं और कॉलोनी में उनके सामने आने वाली कठिनाइयों का मुद्दा उठाया, जो इस अमानवीय व्यवस्था को ख़त्म करने में महत्वपूर्ण बन गया।
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