असहयोग आन्दोलन एवं चौरी-चौरा काण्ड : सबाल्टर्न अध्ययन
- डॉ. रविन्द्र कुमार गौतम
शोध सार : प्रस्तुत शोध पत्र भारतीय इतिहास के 20वीं शताब्दी के दूसरे दशक की महत्त्वपूर्ण घटना जो आमजनमानस पर अमिट छाप छोड़ती है। चौरी-चौरा कांड ब्रिटिश हुकूमत की शोषणकारी नीतियों के ख़िलाफ़ किसानों, मज़दूरों का एक सशक्त संघर्ष था। चौरी-चौरा कांड पूर्वी उत्तरप्रदेश के गोरखपुर ज़िले की 4 फ़रवरी, 1922 की घटना है। यहाँ पर कोई अनायास आंदोलन खड़ा नहीं हुआ बल्कि अंग्रेज़ों की शोषण और दमनकारी नीतियों के ख़िलाफ़ आंदोलन था। महात्मा गाँधी द्वारा प्रारंभ किए गए असहयोग आंदोलन का प्रभाव भारत के कोने-कोने में देखा गया और इसी क्रम में गोरखपुर ज़िले के चौरी-चौरा नामक स्थान पर आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। असयोग आंदोलन के क्रम में अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए थे जिसमें सरकार को कर न देना महत्त्वपूर्ण था। गोरखपुर के चौरी-चौरा के किसानों ने ब्रिटिश हुकूमत को कर देने से मना कर दिया। कर न देना ब्रिटिश सरकार को रास नहीं आया और उसने हिंसा एवं दमन का रास्ता अख्तियार किए जिसका स्थानीय जनता द्वारा पुरजोर विरोध किया गया।
प्रस्तुत शोध पत्र मुख्यतः इस बात पर अवलंबित है कि किस प्रकार एक छोटे-से कस्बे में अंग्रेज़ों की नीतियों का विरोध किया गया। सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि इस आंदोलन का नेतृत्व भगवान अहीर कर रहे थे तथा इस आंदोलन में अधिकांशत पिछड़े, दलित और मुसलमानों की भागीदारी थी। इस आंदोलन का नेतृत्व कोई बड़ा नेता नहीं कर रहा था बल्कि यह स्थानीय स्तर पर स्वतः स्फुटित आंदोलन था।
चौरी-चौरा कांड के कारण महात्मा गाँधी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया लेकिन जिस तरह से स्थानीय स्तर पर ब्रिटिश हुकूमत का विरोध किया गया वह यह प्रदर्शित करता है कि यह आंदोलन भारत के स्वतंत्रता के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ। प्रस्तुत शोध पत्र में यह दर्शाया गया है कि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सभी वर्ग एवं धर्म के लोगों ने मिलकर जो विरोध किया वह एक मिसाल थी जिसने अंग्रेज़ों को भारत से भगाने तथा भारत की स्वतंत्रता के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। सबाल्टन इतिहासकारों ने इस बात को पुरज़ोर ढंग से उजागर किया कि स्वतंत्रता आंदोलन में पिछड़ा, दलित, मुसलमान वर्ग; जो हमेशा हाशिये पर थे, वह स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका में थे।
बीज शब्द : असहयोग, आन्दोलन, अहिंसा, बहिष्कार, जुलूस, ब्रिटानी, हुकूमत।
मूल आलेख : महात्मा गाँधी द्वारा 01 अगस्त, 1920 को ‘असहयोग आन्दोलन’ की शुरूआत की जाती है। गाँधी जी द्वारा प्रारम्भ किए गए असहयोग आन्दोलन के कई महत्त्वपूर्ण कारण थे; जैसे- रौलेट एक्ट, जलियावाला बाग़ काण्ड, ब्रिटानी हुकूमत द्वारा जारी 1919 ई॰ का मांटेग्य-चैम्सफोर्ड सुधार एवं प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान तुर्की को दिए गए आश्वासन पर खरा न उतरना आदि विशेष उल्लेखनीय है। रौलट एक्ट 1918 ई॰ जस्टिस रौलट की अध्यक्षता में स्थापित ‘सेडीशन’ कमीशन की कुछ सिफारिशें थी। यह क़ानून विशेष न्यायालयों की और किसी पर बिना मुकदमा चलाये दो वर्ष तक बंदी रखने की व्यवस्था थी। हालांकि यह व्यवस्था युद्ध काल की थी लेकिन इसे स्थाई बनाने का प्रयास था।1
जलियावाला बाग़ काण्ड गाँधी एवं अन्य बड़े नेताओं को झकझोर कर रख दिया था। गाँधी जी द्वारा रौलट एक्ट के विरूद्ध प्रारम्भ किए गए सत्याग्रह का परिणाम पंजाब में भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा था। यहाँ पर 30 मार्च एवं 06 अप्रैल को शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहा था। इस प्रदर्शन में हिन्दू-मुस्लिम व सिक्खों की एकता देखने लायक थी। 10 अप्रैल को शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर अमृतसर में ‘हाल बिज’ के पास गोली चलाई गई थी जिसमें 10 लोग मारे गए, 11 अप्रैल को ‘मार्शल लॉ’ लागू कर दिया गया ताकि लोग विरोधी प्रदर्शन न कर सके। मार्शल लॉं की बाग़डोर जनरल ओ डायर के हाथों में थी। 13 अप्रैल को मेले के दिन जलियावाला बाग़ में शांतिपूर्ण विरोध के लिए जनता एकत्र हुई थी, बिना कोई चेतावनी के जनरल डायर ने गोलियाँ चलवाई, लगभग 1650 राउण्ड गोलियाँ चली थी। सरकारी आँकड़ों के अनुसार 379 लोग मारे गए थे।2 किन्तु गैर-सरकारी अनुमानों के अनुसार यह संख्या अधिक थी। गाँधी जी ने 21 जुलाई, 1919 ई॰ को सत्याग्रह आन्दोलन स्थगित कर दिया। गाँधी जी को आशा थी कि हत्याकाण्ड के अपराधियों को दण्ड दिया जाएगा। ब्रिटिश सरकार ने ‘हण्टर कमेटी’ का गठन भी किया लेकिन ‘हण्टर कमेटी’ ने कोई कार्रवाई नहीं की। भारत मंत्री मांटेग्यू ने इसे केवल ‘निर्णय की भूल’ कहा। सरकार ने दोषियों को संरक्षण प्रदान किया। जनरल डायर के विरूद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गई बल्कि उसके कार्यो की प्रशंसा की गई। लार्ड सभा ने जनरल डायर को दोषमुक्त माना। डायर को पुरस्कार देने के लिए इंग्लैड में 20 हजार पौण्ड एकत्रित किए गए। पूरे देश में अशांति एवं भय का माहौल व्याप्त हो गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 30 अप्रैल, 1919 ई॰ को ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त ‘नाइट हुड’ की उपाधि का परित्याग कर इस घटना का सार्वजनिक रूप से विरोध दर्ज कराया।3
ख़िलाफ़त आन्दोलन हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक था। भारत में ख़िलाफ़त आन्दोलन मुख्यतः अली बन्धुओं, मौलाना आज़ाद, हकीम अजमल खाँ और हसरत मोसानी के नेतृत्व में एक ख़िलाफ़त कमेटी बनाकर की गई। यह आन्दोलन मुख्यतः तुर्की को प्रथम विश्वयुद्ध के बाद हुई संधि के द्वारा तुर्की को विभाजित करके इंग्लैड मित्र राष्ट्रों द्वारा ‘थ्रेस’ को लेना, तुर्की के प्रति किए गए दुर्व्यवहार से दुःखी थे। भारतीय मुसलमान तुर्की के सुल्तान को अपना खलीफा अथवा धार्मिक गुरु मानते थे। तुर्की के सुल्तान से किए गए अपमानपूर्ण व्यवहार से भारत में ख़िलाफ़त आन्दोलन शुरूआत हुआ। गाँधी ने ख़िलाफ़त आन्दोलन का समर्थन किया। उनका मानना था कि इंग्लैड का यह क़दम मुसलमानों के साथ धोखा है। अतः 30 जून, 1920 ई॰ को हिन्दू मुसलमानों का इलाहाबाद में संयुक्त अधिवेशन हुआ जिसमे ‘असहयोग आन्दोलन’ का निर्णय लिया गया। 1919 ई॰ का मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार लागू होने से भारतियों में निराशा व्याप्त हो गई क्योंकि प्रथम विश्व युद्ध में मित्र राष्ट्रों ने घोषणा की थी कि यह युद्ध प्रजातंत्र के लिए लड़ा जा रहा है। इससे भारतियों को लगा कि उन्हें भी स्वशासन प्राप्त होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। असहयोग आन्दोलन प्रारम्भ होने के पीछे देश की आर्थिक स्थिति दयनीय होना भी प्रमुख कारण था। देश में बढ़ती बेकारी, महँगाई, गिरता हुआ कृषि एवं औद्योगिक उत्पादन व प्रथम विश्वयुद्ध के बाद आर्थिक दुर्व्यवस्थाओं से लोगों में असंतोष था। युद्ध के दौरान भेजे गए भारतीय सैनिकों पर व्यय लगभग 2.5 अरब पौण्ड भारतियों द्वारा ही वहन किया गया जिससे आर्थिक स्थिति और खराब हो गई। खाद्यान्नों के मूल्यों में 93 प्रतिशत की वृद्धि हो गई थी। युद्ध के उपरान्त सेनाओं को विघटित किए जाने से लाखों लोग बेकार हो गए। कारखाने बंद हो गए, हड़तालों के दौर प्रारम्भ हो गए। देश में बहुत सारी यूनियन बनने लगीं और पूरे देश में एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ।
असहयोग आन्दोलन-
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1920 ई॰ के कलकत्ता अधिवेशन में गाँधी जी द्वारा ‘अहसयोग’ प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया जो 884 मतों के विरूद्ध, 1886 मतों से पारित हो गया। गाँधी जी द्वारा 1920 ई॰ में प्रारम्भ किया गया असहयोग आन्दोलन नवीन ऊर्जा से लबरेज था तथा यह गाँधी जी का पहला व्यापक जन आन्दोलन था जिसके तहत निम्नलिखित प्रमुख कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए-
(1) सरकार से प्राप्त उपाधियों तथा वैतनिक, अवैतनिक पदों को त्यागना।
(2) सरकारी स्कूलों या सरकारी अनुदान प्राप्त स्कूलों का बहिष्कार।
(3) सरकार के सभी न्यायालयों का बहिष्कार।
(4) विदेशी माल का बहिष्कार।
(5) सरकार को कर देने से इनकार।
(6) मद्यपान का निषेध।
(7) सभी सरकारी तथा अर्द्ध-सरकारी समारोहों का बहिष्कार।
(8) सैनिक, कर्मचारियों द्वारा विदेशों में नौकरी करने से इनकार।
गाँधी जी द्वारा उक्त असहयोग आन्दोलन के साथ ही बहुत सारे रचनात्मक कार्यक्रम भी प्रस्तुत किए गए जैसे- राष्ट्रीय स्कूलों एवं कालेजों की स्थापना की गई, पंचायतों की स्थापना, स्वदेशी का स्वीकार एवं प्रचार करना, हथकरघा एवं बुनाई उद्योग को प्रोत्साहित करना, अस्पृश्यता का उन्मूलन करना एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्थापित करना।
गाँधी जी ने आन्दोलन के कार्यक्रम के अनुरूप अपना कैसर-ए-हिन्द’, ‘जुलू युद्ध पदक’ लौटा दिए। सेठ जमनालाल बजाज ने अपनी ‘राय-बहादुर’ की उपाधि वापस कर दी। इसी क्रम में मद्रास प्रेसिडेंसी में छह सदस्यों ने अपनी उपाधियों का परित्याग किया। 36 तमिल और 103 आंध्राई वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ी, 92 राष्ट्रीय विद्यालय स्थापित किए गए जिसमें 5000 के लगभग विद्यार्थी थे।4 जुलाई 1921 ई॰ तक संयुक्त प्राप्त में 137 राष्ट्रीय शिक्षण संस्थायें स्थापित हो चुकी थी, जिसमें सबसे प्रमुख काशी विद्यापीठ, वाराणसी था। इस प्रकार आन्दोलन शुरू होने के पहले महीने में ही लगभग 90,000 छात्रों ने स्कूल कॉलेजों का बहिष्कार किया। इसी क्रम में बंगाल में जून 1922 तक 41 हाईस्कूल, 600 प्राथमिक और माध्यमिक राष्ट्रीय विद्यालय खोले गए जिसमें 21500 विद्यार्थी पढ़ते थे।5 बहिष्कार के क्रम में राष्ट्रीय नेताओं ने सी॰ आर॰ दास, मोतीलाल नेहरू, एम॰ आर॰ जयकर, सरदार वल्लभभाई पटेल, सी॰ राजगोपालाचारी, किचलू, जवाहरलाल नेहरू, टी प्रकाशन, राजेन्द्र प्रसाद, विट्ठलभाई पटेल, आसफ अली आदि ने वकालत छोड़ दी। असहयोग आन्दोलन में राष्ट्रवादियों ने स्वंयसेवकों के जत्थे बनाए तथा मध्यस्थता न्यायालय गठित किए गए। अनेक स्थानों पर जनता की अदालत स्थापित की गई तथा पंचायतों के माध्यम से न्याय किया जाना प्रारम्भ हुआ
असहयोग आन्दोलन की हिंसा पूर्ण प्रतिकार 4 फ़रवरी, 1922 ई॰ को गोरखपुर के चौरी-चौरा नामक स्थान पर हुई। इस प्रतिकार घटना ने सहयोग आन्दोलन को समाप्त करने के लिए महात्मा गाँधी को बाध्य किया।
चौरी-चौरा काण्ड- 4 फ़रवरी, 1922
असहयोग आन्दोलन का ज्वार गोरखपुर में अपने चरम पर 4 फ़रवरी 1922 को पहुंचा हालांकि महात्मा गाँधी 8 फ़रवरी 1921 ई॰ को गोरखपुर गए थे और वहाँ पर ‘वाले मिया’ मैदान में भाषण भी दिये थे और वहाँ पर लगभग 6-7 घण्टे रूके भी थे।6 वहाँ पर उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जोर दिये थे। गोरखपुर की साप्तहिक पत्रिका ‘स्वदेश’ ने गाँधी के भाषणों को ‘महात्मा गाँधी’ के उपदेश की संज्ञा दी। असहयोग आन्दोलन के क्रम में जो अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत किए गए थे उन्हीं कार्यक्रमों में से 4 फ़रवरी, 1922 ई॰ स्वयंसेवकों ने यह तय किया था कि थानेदार दरोगा गुप्तेश्वर सिंह से बातचीत करने के उपरान्त मुंडेरा बाजार जाकर वहाँ पर मांस-मछली, ताड़ी, शराब, गांजा की ब्रिक्री रोकेंगे।7 वास्तव में चौरी-चौरा काण्ड की तात्कालिक शुरूआत भगवान अहीर(जो सेना से रिटायर्ड सिपाही थे) को दरोगा गुप्तेश्वर सिंह द्वारा पीटे जाने से होती है। भगवान अहीर स्वयंसेवकों के साथ मिलकर सरकार के ख़िलाफ़ असहयोग करता तथा जुलूस निकाल नारे लगाता था, जिससे दरोगा काफ़ी नाराज़ था। दरोगा का कहना था कि सरकार द्वारा प्रदत्त पेंशनधारी व्यक्ति को सरकार के ख़िलाफ़ कार्य नहीं करना चाहिए।
01 फ़रवरी, 1922 को भगवान अहीर अपने साथियों के साथ निजी कार्य से मुंडेरा बाज़ार आए थे। दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने भगवान अहीर और उनके साथियों रामरूप बरई, महादेव को पकड़वाकर छावनी में बंद कर बेंत एवं थप्पड़ से बुरी तरह मारा। भगवान अहीर के पीठ पर दो घाव बन गए थे, शेष दोनों साथियों को सामान्य चोटें आई थीं।8 उक्त सभी घटनाओं की प्रतिक्रियास्वरूप 4 फ़रवरी, 1922 ई॰ को डुमरी खुर्द में एक सभा का आयोजन सुनिश्चित किया गया। दरोगा एवं ज़मीदारों द्वारा की गई ज्यादतियों से स्थानीय जनमानस परेशान था। अतः इस सभा में लगभग 4000 से 5000 लोग शामिल हुए, जिसमें 400 से 500 लोग गेरूआ वस्त्र धारण किए हुए थे।9 हालांकि जुलूस में उपस्थित भीड़ के आँकड़े अलग-अलग प्राप्त होते हैं। स्वयंसेवकों की भीड़ नारे लगाते हुए आगे बढ़ रही थी थाने के पास पहुँचने पर भीड़ रूकी नहीं बल्कि आगे बढ़ गई थी। वहीं पर कुएं के पास दरोगा भी खड़ा था। भीड़ में से ऊँची आवाज़ में दरोगा से श्यामसुन्दर ने पूछा आपने हमारे भाइयों को क्यों मारा। दरोगा ने उत्तर दिया कि भगवान अहीर सिर्फ़ आपका भाई नहीं बल्कि पेंशन प्राप्त भूतपूर्व सैनिक के नाते मेरा भी भाई है। इस वार्तालाप से कुछ स्वयंसेवक संतुष्ट थे लेकिन ज़्यादा असंतुष्ट थे। कोर्ट में हरचरण सिंह द्वारा दिये गए बयान के अनुसार उग्र भीड़ को शांत करने के लिए दरोगा ने चौकीदारों को लाठीचार्ज का आदेश दिया जिससे स्थिति अनियंत्रित हो गई। भीड़ ने रेल पटरी के किनारे पड़े पत्थरों द्वारा थाने और सिपाहियों पर बौछार शुरू कर दी।
गाँधी जी की जय हो, मारो, काटो और जलाओ के नारे के उपरान्त पुलिस ने पुलिस ने हवा में गोली चलाई। गोली से कोई हताहत नहीं हुआ, लोगों ने इस पर शोर मचा दिया कि ‘गाँधी के प्रताप से गोली पानी हो रही है।10 अब पुलिस ने भीड़ पर सीधे गोली चला दी जिसमें ‘खेली भर’ और ‘बुंध अली’ मारे गए। जबकि राममूर्ति के अनुसार इस घटना में 26 लोग मारे गए और 50 से ज़्यादा गोलियों से घायल हुए थे।11 साथियों के मारे जाने पर भीड़ और उग्र हो गई तथा थाने को चारों से घेर कर कंकड़ों द्वारा बौझार करने लगी। सिपाहियों के पास बचाव का कोई विकल्प नहीं था फलतः सभी ने थाने में शरण लेने का प्रयास किया। अनिल कुमार श्रीवास्तव तथा राममूर्ति के अनुसार सिपाहियों की गोलियों समाप्त हो गई थी इसलिए उन्होंने थाने में छुपकर अपने आप को सुरक्षित किया। उग्र भीड़ ने थाने में आग लगा दी। थाने में आग लगाने के लिए चौरा बाजार के सेठ गोपी राम की दुकान से केरोसिन तेल लाया गया था। थाना भवन में दरोगा सहित 22 पुलिस वालों और चौकीदारों की मृत्यु उसी दिन हो गई। एक चौकीदार की मृत्यु बाद में हुई थी इस प्राकर कुल 23 पुलिसकर्मी मारे गए।12 इसमें से एक सिपाही जिसका नाम सिद्धिकी था तथा एक चौकीदार भगेलू भागने में सफल रहे।
चौरी-चौरा काण्ड से महात्मा गाँधी काफ़ी दुःखी हुए। इस घटना की सूचना 8 फ़रवरी, 1922 को अपने साथियों द्वारा सुनी वैसी ही अहसयोग आन्दोलन वापस लेने का निर्णय ले लिया और 11-12 फ़रवरी 1922 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इस निर्णय पर स्वीकृति भी मिल गई। 12 फ़रवरी से गाँधी 5 दिनों के लिए उपवास पर चले गए। 9 फ़रवरी, 1922 ई॰ को गाँधी ने अपने पुत्र देवदास गाँधी को चौरी-चौरा विद्रोह की पूरी जानकारी के लिए भेजा। गाँधी जी द्वारा लिए गए इस निर्णय की घोर निंदा की गई। गाँधी जी ने राजनैतिक बंदियों की रिहाई की परवाह किए बिना यह निर्णय लिया थे। उस समय जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू तथा लाला लाजपत राय जैसे महत्त्वपूर्ण नेता कारागार में थे। 4 फ़रवरी, 1922 ई॰ की घटना के बाद पुलिस प्रशासन हरकत में आ गया। 5 फ़रवरी को नेतृत्वकर्ता स्वयंसेवको में सर्वप्रथम लाल मुहम्मद को उसके घर से गिरफ्तार कर लिया। महेन्द्र सिंह और सोहन लाल श्रीवास्तव ने अपनी जाँच पूरी करते हुए 24 मार्च, 1922 ई॰ को 273 अभियुक्तों को दोषी मानते हुए भारतीय आचार संहिता की विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज करने हेतु अपनी रिपोर्ट कमिटिंग मजिस्ट्रेट को सौपा। 273 में से एक अभियुक्त की मृत्यु हो गई। 272 में केवल 228 लोगों पर गोरखपुर सेशन कोर्ट में भारतीय आचार संहिता की विभिन्न धाराओं में मुकदमा चलाने की संस्तुति की गई। 44 लोगों को इस आधार पर बरी कर दिया गया कि उन्होंने ने कोई अपराध नहीं किया था बल्कि मौके से फरार होने के वजह से गिरफ्तार किया गया था।
इस प्रकार 228 लोगों पर मुकदमा चलाना निश्चित किया गया। सेशन कोर्ट में मुकदमा प्रारम्भ होने के पूर्व दो लोगों की मृत्यु हो गई तथा एक अभियुक्त पुलिस का मुखबिर था इसलिए उस पर से मुकदमा वापस ले लिया गया। इस प्रकार कुल 225 अभियुक्तों पर मुकदमा चलाया गया।13 तमाम जांच एवं कागजी कार्यवाही को पूरा करते हुए 21 जून, 1922 ई॰ से सुनवाई की कार्यवाही प्रारम्भ हुई। इसमें दो महत्त्वपूर्ण स्वंयसेवकों- ठाकुर अहीर पुत्र रामफल एवं शिकरी पुत्र कुर्बान सैयद को सरकारी गवाह बनाया गया।14 सेशन कोर्ट के जज एच॰ ई॰ होम्स तमाम बहस एवं गवाही के बाद 9 जनवरी, 1923 को 430 पृष्ठों में अपना निर्णय सुनाया। निर्णय सुनाने के पूर्व 225 अभियुक्तों में से 4 अभियुक्तों की मृत्यु हो गई थी, इस प्रकार कुल 221 बचे हुए अभियुक्तों पर निर्णय सुनाया गया। 221 में से 45 अभियुक्तों को साक्ष्य के अभाव में रिहा करने का निर्णय लिया गया तथा अब बचे 174 में 2 अभियुक्त घटना के पूर्व घायल से इसलिए उन्हे कम अपराध को दोषी मानते हुए मात्र 2-2 वर्ष की सज़ा सुनाई गई। इस प्रकार शेष 172 अभियुक्तों को विभिन्न अपराधों जिसमें प्रमुखत: दंगे के समय थानाकर्मियों, चौकीदारों की हत्या का दोषी मानते हुए उन्हे सेशन कोर्ट के जज एच॰ ई॰ होल्म्स द्वारा फाँसी की सज़ा सुनाई गई।15 उन्हे उच्च न्यायालय में अपील करने के लिए मात्र 7 दिन वक़्त दिया।
सेशन कोर्ट द्वारा 172 लोगों को दी गई फाँसी की सज़ा से पूरे देश में अंसतोष था। तमाम क्रांतिकारी किसानों एवं मज़दूरों के संगठनों ने विरोध दर्ज किए। इस फैसले के ख़िलाफ़ भारत ही नही बल्कि पूरे विश्व में विरोध प्रदर्शन हुए। 11 फ़रवरी, 1923 ई॰ को पूर्वाञ्चल के किसान नेता बाबा राघवदास ने चौरी-चौरा में एक विशाल सभा को संबोधित किया। पुलिस ने उन्हें उत्तेजनात्मक भाषण देने की वजह से गिरफ्तार कर नज़रबंद कर दिया था।
हाईकोर्ट इलाहाबाद में अपील दाखिल हुई तब पंण्डित मदनमोहन मालवीय ख़ुद इस मुकदमे में हाईकोर्ट में पैरवी करने को तैयार हो गए थे। पं॰ मदनमोहन मावलीय की मांग पर हाईकोर्ट ने सुनवाई के लिए पूर्व में निर्धारित दिनांक 29 जनवरी से बढ़ाकर 19 फ़रवरी, 1923 कर दी। लेकिन मुकदमे की सुनवाई 6 मार्च, 1923 को प्रारम्भ हुई। सत्ता पक्ष (ब्रिटिश हुकुमत) की ओर से मुकदमे की पैरवी मिस्टर एल॰ एम॰ बनर्जी, डी॰ आई॰ जी॰ सैड कर रहे थे। आरोपियों पर भारतीय दण्ड संहिता के तहत विभिन्न धाराओं में जैसे धारा 302, 395,
436, 332, 149 तथा 26 आरोपियों पर रेलवे एक्ट ऑफ 1890 की धारा 126 के तहत तथा इन 26 में से 12 पर एक अन्य धारा भारतीय टेलीग्राफ एक्ट ऑफ 1885 की धारा 25 के तहत दाखिल मुकदमे की सुनवाई प्रारम्भ हुई।16
हाईकोर्ट इलाहाबाद में मुकदमे की सुनवाई मुख्य न्यायधीश एडवर्थ ग्रीमबुड मीयर्स तथा सर थियोडोर पिगाड की बेंच में हुआ जिसमें पं॰ मालवीय यह बताने का प्रयास कर रहे थे यह भीड़ शांतिपूर्ण घटना के लिए था। लेकिन जज एक भी तर्क मानने के लिए तैयार नहीं थे। हाईकोर्ट में केवल 170 अभियुक्तों की अपील पर सुनवाई हुई। हालांकि सेशन कोर्ट से 172 को फाँसी की सज़ा मुकर्रर की गई थी। इन 172 अभियुक्तों में से एक नस्सू पुत्र साहिबदीन पठान की 13 जनवरी, 1923 तथा नगीना पुत्र शिवनन्दन की 16 जनवरी, 1923 को कारागार अस्पताल में मृत्यु हो गई थी। इस 30 अप्रैल, 1923 ई॰ हाईकोर्ट ने 170 अभियुक्तों को सज़ा सुनाई, 38 अभियुक्तों को साक्ष्यों एवं गवाहों के अभाव में दोष मुक्त कर दिया। अभियुक्त को मात्र 2-2 वर्ष की सज़ा कारावास की सज़ा सुनाई गई क्योंकि इन्हें भारतीय दण्ड संहिता की धारा 147 के तहत मात्र दंगे में भाग लेने का दोषी पाया गया। 19 अभियुक्तों को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 302/149 के तहत थाने पर आक्रमण करने एवं सिपाहियों व दरोगा की हत्या का दोषी मानते हुए फाँसी की सज़ा सुनाई गई। 14 अभियुक्तों को भारतीय दण्ड संहिता 302/149 के अंतर्गत दोषी मानते हुए भी फाँसी की जगह आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई। 19 अभियुक्तों को 8 वर्ष की सश्रम कारावास की सज़ा सुनाई गई। 57 अभियुक्तों को सश्रम 5 साल की सज़ा सुनाई गई। 20 अभियुक्तों को 3 साल की सश्रम सज़ा सुनाई गई। इस 20 अभियुक्तों में से ज़्यादातर 16-21 वर्ष के नौजवान से तथा एक 53 वर्ष तथा दो 60-60 वर्ष के वृद्ध होने के कारण यह सज़ा कम कर दी गई थी।17
जिन 19 अभियुक्तों को फाँसी की सज़ा दी गई थी उनके नाम निम्नलिखित है-
1. अलाउददीन अलियाश सुखी 2. भगवान अहीर 3.विक्रम 4.दुधई 5. काली चरन 6.लाल मुहम्मद 7. लातू 8. महादेव 9. नजर अली 10. मेघू अलियास लाल बिहारी 11. रघुवीर 12. रामलगन 13. रामरूप 14. रूदौली 15. सहदेव 16. रामपत पुत्री मोहन 17. श्यामसुन्दर 18. सीता राम18
हाईकोर्ट ने सभी 19 कैदियों को 1 जून, 1923 को प्रातः 6 बजे फाँसी देने निर्णय सुनाया था। लेकिन यह फाँसी 1 जून, 1923 को नहीं हो पाई। बल्कि फाँसी की सज़ा पाए कैदियों के द्वारा भारत के गवर्नर जनरल के यहाँ दया अपील की गई। अन्ततः किसी की भी दया अपील स्वीकार नहीं हुई। जुलाई 1923 की विभिन्न तिथियों पर प्रातः 6 बजे संयुक्त प्रान्त के विभिन्न कारागार में फाँसी की सज़ा दे दी गई।
फाँसी की सज़ा के अलावा अन्य प्रकार की सज़ा पाए हुए कैदियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया गया तथा उन्हें देश की विभिन्न जेलों में रखा गया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पं॰ मदनमोहन मालवीय ने आजीवन कारावास भोग रहे कैदियों के लिए क्षमादान के लिए 20 अगस्त, 1935 को गवर्नर संयुक्त प्रान्त, आगरा, और अवध को एक पत्र लिखा था लेकिन कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला।19
चौरी-चौरा काण्ड के क्रांतिकारियों को असहयोग आन्दोलन से बहिष्कृत किया गया तथा आज़ादी के बाद भी उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा/ सम्मान नहीं मिला बल्कि उन्हें गुण्डे, लुटेरे और हत्यारा माना गया। इस काण्ड में सक्रिय भूमिका या शहीद होने वाले क्रांतिकारियों में मुख्यतः कथित निम्न जातियों के गाँव डुमरी खुर्द के लोग थे जबकि शहीद का शिलालेख जमीदार बलदेव दूबे की चतुराई के वजह से इसे ब्रह्मपुर गाँव में स्थापित किया गया।20
1. सुमित सरकार: आधुनिक भारत, नई दिल्ली, 1992, पृ0-207।
2. उपरोक्त-पृ0-210।
3 . रामलखन शुक्ला: आधुनिक भारत का इतिहास, नई दिल्ली, पुनमुर्द्रण 2002, पृ॰-573।
4 . सुमित सरकार: आधुनिक भारत, नई दिल्ली, 1992, पृ0-233।
5. वहीं, पृ0- 241।
6. सुभाष चन्द कुशवाहा: चौरी -चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन, पेगुइन रैडम हाउस इण्डिया पुनमुर्द्रण, 2019, पृ0- 67।
7. जजमेंट ऑफ हाईकोर्ट, पैरा-12।
8. सुभाष चन्द कुशवाहाः चौरी -चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन, पेगुइन रैडम हाउस इण्डिया पुनमुर्द्रण, 2019, पृ0-107।
9. द लीडर, 12 फ़रवरी, 1922, उ॰प्र॰ शासकीय अभिलेखागार, लखनऊ।
10. सर थियोडोर पिगाड-आउट्लाज अर्मू हैव नोन एण्ड अदर रेमिनिसेंस ऑफ एण्ड इण्डिया जज, विलियम ब्लैक बुक एण्ड संस, लिमिटेड, एडिनबरा, लन्दन, 1930।
11. राममूर्ति, चौरी -चौरा 1922, साजदी प्रेस, गोरखपुर, 1982 पृ॰-17-19।
12. सुभाष चन्द कुशवाहा: चौरी -चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन, पेगुइन रैडम हाउस इण्डिया पुनमुर्द्रण, 2019, पृ0-143।
13. शाहीद अमीन: इवेंट मेटाफर मेमोरी चौरी -चौरा 1922-1992 पेंगुइश रेण्डम हाउस इण्डिया, 2006, पृ0-119।
14. सुभाष चन्द कुशवाहा: चौरी -चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन, पेगुइन रैडम हाउस इण्डिया पुनमुर्द्रण, 2019, पृ0- 223।
15. शाहिद अमीन: इवेंट मेटाफर मेमोरी चौरी -चौरा 1922-1992 पेंगुइश रेण्डम हाउस इण्डिया, 2006, पृ॰-119।
16. हिमाशु चतुर्वेदी- चौरी -चौरा राष्ट्रीय आयाम की स्थानीय घटना, किताब वाले नई दिल्ली, 2023, पृ0 210-224
18. सुभाष चन्द कुशवाहा: चौरी -चौरा विद्रोह और स्वाधीनता आन्दोलन, पेगुइन रैडम हाउस इण्डिया पुनमुर्द्रण, 2019, परिशिष्ट (9) पृष्ठ सं॰ 316-317।
19. वहीं पृ॰- 268।
20. वही पृ॰- 278।
डॉ. रविन्द्र कुमार गौतम
एसोशिएट प्रोफेसर, इतिहास विभाग, महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ,वाराणसी
ravindragautam95@gmail.com 9235702206
एक टिप्पणी भेजें