शोध आलेख : औपनिवेशिक उत्तरी भारत (1900-1947 ई.) में आयुर्वेद एवं महिलाएं / डॉ. पूजा

औपनिवेशिक उत्तरी भारत (1900-1947 ई.) में आयुर्वेद एवं महिलाएं

- डॉ. पूजा


शोध सार : औपनिवेशिक उत्तरी भारत में बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में स्वदेशी चिकित्सा आयुर्वेद एवं महिलाओं का संबंध एक नए परिवेश के रूप में देखने को मिलता है। जिसके संबंध में स्त्री आयुर्वेदाचार्यों का प्रकाश में आना, जो स्वयं में एक स्त्री पक्ष में क्रांति के रूप में देखा जा सकता है। औपिवेशिक उत्तरी भारत में अहर्ता प्राप्त व बगैर अहर्ता प्राप्त स्त्री वैद्य के रूप में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में जनस्वास्थ्य के संबंध में अपनी सेवाएँ मुहैया प्रदान करती हुईं विभिन्न महिलाएँ देखी जा सकती हैं। जिसमें विशेषतः दाईयों के रूप में महिलाओं का योगदान प्रसव पूर्व व प्रसवोत्तर स्थिति में देखा जा सकता है। लैंगिक पूर्वाग्रह व आयुर्वेदिक साहित्य के विज्ञापन में महिलाएँ अब धीरे-धीरे (माता) के रूप में सामने आने लगी। स्त्री पक्ष को संबोधित करते हुए विभिन्न पत्रिकाएं भी प्रकाश में आने लगी।


बीज शब्द : स्वदेशी चिकित्सा, आयुर्वेद, औपनिवेशिक, महिलाएँ, दाईयों, स्त्री आयुर्वेदाचार्या, लैंगिक पूर्वाग्रह


मूल आलेख : चिकित्सकीय कर्म चाहे वह पाश्चात्य हो या स्वदेशी दोनों में ही महिलाओं की भागीदारी को उतना नहीं दिखाया गया, जितना कि पुरुषों को दिखाया गया है। औपनिवेशिक भारत के संदर्भ में तो इस प्रकार की जटिलता को विशेष तौर पर आंका जा सकता है। इस प्रकार की पुरुष एवं स्त्री पक्ष की जटिलता का प्रादुर्भाव जोकि हमें औपनिवेशिक काल में भी देखने को मिला, कहीं न कहीं भारत का प्राचीन काल से चले आ रहे पुरुष प्रधान होने का प्रतिफल माना जा सकता है, हालाँकि औपनिवेशिक भारत में सन् 1875 तक सरकार, जिला बोर्डों व नगरपालिकाओं द्वारा संचालित व्यापक स्तर पर कार्यरत स्वास्थ्य केंद्र तो थे, परंतु महिलाओं एवं शिशु चिकित्सा अभी भी उपेक्षित वर्ग में शामिल थी। कुछ ऐसे सामाजिक पूर्वाग्रह जिनमें कठोर पर्दा प्रथा एवं चिकित्सा क्षेत्र में पुरुषों का वर्चस्व महिलाओं की दुर्दशा को बढ़ावा दे रहा था।


स्वास्थ्य केन्द्रों में महिला चिकित्सकों का न पाया जाना भी एक ऐसी स्थिति को प्रदर्शित करता है, जहाँ स्त्रियों को केवल पारंपरिक चिकित्सा से लिप्त स्वदेशी दाईयों पर ही निर्भर रहना पड़ता था, जो कहीं न कहीं उनके स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ को दर्शाता है।(¹) इस संदर्भ में महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए स्त्री आयुर्वेदाचार्यों व दाईयों का प्रकाश में आना अवश्यंभावी हो गया। जिनमें कुछ अर्हता प्राप्त स्त्री चिकित्सक थी व कुछ आयुर्वेद के पारंपरिक ज्ञान से अनुभवी चिकित्सक के रूप में सामने आयी।

दाईयों के संबंध में हिंदू सुधारवादियों ने यह तर्क दिया, “कि दाईयां गंदी व संदिग्ध यौनिकता वाली होती हैं, इसलिए उच्च घरों की महिलाओं एवं बच्चों को स्वर्था बचकर रहना चाहिए।“ (²)


आयुर्वेद में भी लैंगिक पूर्वाग्रह कहीं न कहीं अवश्य ही देखने को मिलता हैं, जिसमें पितृ सत्तात्मक समाज तत्कालीन आयुर्वेदिक साहित्य में देखने को मिलता है। वैद्य प्रिया, जो की 1924 में लखनऊ से नवल किशोर द्वारा प्रकाशित ग्रंथ में पुत्र प्राप्ति के उपाय बताए गए, जिनमें सुहागा, धतूरे के बीज व कबूतर की बीट इत्यादि के उपयोग की चर्चा देखने को मिली। इनका सेवन पुत्र रत्न की प्राप्ति में सहायक होगा।(³)


इलाहाबाद से स्त्री आयुर्वेदाचार्य द्वारा भारतीय चिकित्सा कर्म आयुर्वेद में एक नई जगह मिली। जिसके द्वारा भारतीय लैंगिक पूर्वाग्रह की जंजीरों पर चोट करने का अवसर प्राप्त हो सका। उनके द्वारा ‘वीर्य रक्षा’ को बढ़ावा मिला, जिससे तत्कालीन समाज में व्याप्त व्याभाचारी स्थिति पर क़ाबू पा सकने में मदद मिली। उन्होंने अपनी रचना ‘विवाह विज्ञान काम शास्त्र’ के अंतर्गत यह भी बताया है कि "वीर्य शरीर का राजा होता है, जो पुरुष उसकी क़दर नहीं करता वह आयु पर्यन्त भाँति भाँति के रोग में फँसा रहता है।() वीर्य रक्षा के बारे में श्री वैद्यनाथ आयुर्वेद भवन प्राइवेट लिमिटेड पुस्तक में भी लिखा गया है, “कि वीर्य हीन बालकों का देश भी ग़ुलामी की स्थिति में होगा”।() यशोदा देवी की कुछ पुस्तकों की सूची चारू गुप्ता ने अपने लेखन में दी है, जिससे ज्ञात होता है कि, यशोदा देवी ने न केवल अपने चिकित्सा कर्म में स्त्री पक्ष को रखा वरन् पुरुष एवं बाल रोगों की चर्चा भी उनमें देखने को मिल। जिससे तत्कालीन समाज की सामाजिक संरचना को भी समझने में मदद मिली, जिनमें नारी- नीति शिक्षा, घर का वैद्य, कन्या कर्तव्य, नारी स्वास्थ्य रक्षा, शिशु रक्षा विधान अर्थात बाल रोग जैसी पुस्तकें शामिल हैं।() यशोदा देवी द्वारा उनका स्वयं का अपना मुद्रण एवं प्रकाशन केंद्र भी था, जो कि 'देवी पुस्तकालय' के नाम से जाना गया जहां मातृ भाषा, हिंदी में महिला पत्रकरिता एवं महिला शिक्षा व्यापक तौर पर विकसित हो सकी। इलाहाबाद में ही उनके द्वारा वर्ष 1908 में स्त्री औषधालय की स्थापना की। इसके बाद भारत के अन्य जगहों जैसे संयुक्त प्रान्त के अन्य शहरों जैसे बनारस व बिहार स्थित पटना इत्यादि क्षेत्रों में भी उनके आयुर्वेदिक केंद्र स्थापित होने लगे।()


आयुर्वेद ग्रंथों में दिए गए विज्ञापनों में निहित छायाचित्रों में भी अब महिलायें, जो कि (माता) के स्वरूप में आयुर्वेद के बखान के रूप में दिखाई देने लगा लगी थी। जिसका उदाहरण हमें जनवरी, 1943 ई. के आयुर्वेद महासम्मेलन पत्रिका के रूप में देखने को मिलता है। प्रस्तुत ग्रंथ में साधना औषधालय ढाका द्वारा विभिन्न आयुर्वेदिक औषधियों की चर्चा शामिल की गई, जो कि 'जीवनसंरक्षण' एवम् 'देहपुष्टि' के नाम से थी। जिनमें आयुर्वेद की महिमा का बखान ‘माता’ के रूप में दर्शाने का प्रयास किया गया है। जैसे एक माता अपने शिशु को अनेकों विपत्तियों से बचाती है, उसी प्रकार आयुर्वेद भी संपूर्ण मानव जीवन की स्वास्थ्य रक्षा एवं अकाल मृत्यु से बचाने में मदद प्रदान करता है।()


चित्र: 1 स्रोत - आयुर्वेद महासम्मेलन पत्रिका (संपा), श्री किशोरी दत्त शास्त्री, भाग-30, संख्या-I जनवरी, 1943 ई., कानपुर, उत्तर प्रदेश नामक पत्रिका में वर्णित ’साधना’, औषधालय, ढ़ाका द्वारा वर्णित (जीवन संरक्षण और देह पुष्टि साधन) नामक विज्ञापन


इसी प्रकार शांता देवी वैघा द्वारा भी आयुर्वेद के पुनरुत्थान में मदद प्रदान हो सकी। उन्होंने ‘आयुर्वेद केसरी’ नामक पत्र की संपादिका के रूप में कार्यभार संभाला। जो कि लखनऊ से वर्ष 1940 ई. के दौरान निकलना आरंभ हुआ था। उनके द्वारा प्रांतीय चतुर्दश वैद्य सम्मेलन के दौरान उनके ससुर पंडित शिवराम द्विवेदी (एम.एल.ए) ज़ी के आज्ञापालन स्वरूप बंगाल पीड़ितों के लिए तत्कालीन निर्वाचित राष्ट्रपति के लखनऊ आगमन पर स्वयं के चिकित्सालय से संचित राशि को आयुर्वेद-राष्ट्रपति कोश में चेक प्रदान किया, जो उनकी नवंबर माह की बचत का 30 रुपये राशि थी।()


चित्र: 2 स्रोत - 1 जनवरी, 1943 ई. की आयुर्वेद महासम्मेलन पत्रिका, भाग-30, संख्या-1, में वर्णित श्रीमती  शान्ता देवी वैद्या, संपादिका, ‘‘आयुर्वेद केसरी’’ लखनऊ, पृ. 435


हेमंत कुमारी देवी द्वारा भी आयुर्वेद के प्रोत्साहन एवं स्त्री रोग एवं उनके निदान को 'अभ्‍युदय' नामक सामाचार पत्र के माध्यम से बतलाने की कोशिश की। जिसके अंतर्गत उन्होने कुछ शारीरिक मुद्राएँ, जिनमें मुख्य तौर पर योग व कुछ अच्छे प्रकार के व्यायामों की चर्चा भी की है, ताकि महिलाओं के शरीर को आकर्षक, स्वास्थ्यवर्धक व सुंदर बनाया जा सके।(¹)


तारादेवी, जोकि टिहरी गढ़वाल के गाँव भैम, जौनपुर में 1914 ई. को जन्मी। जिन्होंने वैद्य सम्बंधी ज्ञान अपने पिता वैद्य, तुला नाई द्वारा प्राप्त किया। तारा देवी द्वारा जन स्वास्थ्य सेवाओं जैसे, प्रदर, दादरा, दंत एवम् नेत्र रोगों का ईलाज किया जाता था। विभिन्न रोगों से सम्बंधित औषधियों को अपने पिता की भाँति जंगल जाकर एकत्रित कर उन्हें घर पर ही तैयार किया जाता था। इन सभी औषधियों को तैयार करने का आधार उनका प्रायोगिक ही था। महिलाओं के श्वेत प्रदर रोग के लिए उन्होंने एक तोला सेमल के बीज के चूर्ण को प्रतिदिन सुबह शाम लेने व लाल दूब का प्रयोग उनके रस को दूध के साथ लेने से महामारी की स्थिति पर क़ाबू पाया जा सकता है। इसी प्रकार बाल रोगोपचार के बारे में भी उन्होंने बताया कि बालको में मूत्र रोग की समस्या के लिए बालकों की नाभि पर मरुआ के बीज को पीसकर लगाने से लाभ होता है।(¹¹)

गढ़वाल हिमालय क्षेत्र के उन्नीसवीं सदी के प्रारंभिक लोक-चिकित्सा के बारे में प्रोफ़ेसर दिनेश प्रसाद सकलानी का भी मानना है कि, वैद्यजन प्रायः आयुर्वेदिक चिकित्सा कर्म में सभी अहर्ता प्राप्त लोगों ने ही भूमिका नहीं निभायी अपितु कुछ ऐसे वैद्यों ने अपने पूर्वजों से प्रायोगिक आधार पर इसे ग्रहण किया। जिसमें उन्होंने अपने साक्षात्कार के दौरान कुछ वृद्ध महिलाओं का ज़िक्र किया है, जिनका संबंध टिहरी जनपद से था। जिसमें उनमें से एक ने अपने ससुर से वैद्य चिकित्सा का ज्ञान प्राप्त किया।(¹²) इस संबंध में आयुर्वेद चिकित्सा संबंधी ज्ञान औपनिवेशिक भारत के सुदूर क्षेत्रों तक कोने-कोने में फैला हुआ था।


इसी प्रकार भारत की प्रथम महिला डॉक्टर आनंदीबाई जोशी द्वारा भी अपने अंतिम दिनों में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को महत्व दिया न कि पश्चिमी चिकित्सा पद्धति को। जिसका उदाहरण उनके कुछ शोध प्रबंधों में गर्भावस्था के संबंध में प्राचीन शरीर विज्ञान के नियमों के संबंध में देखा गया।(¹³)


औपनिवेशिक काल में अगर दाईयों की बात की जाए तो कहीं न कहीं उन्हें चिकित्सा क्षेत्र में प्रायः उपेक्षित भाव के रूप में ही आंका गया है। इसका मुख्यतः कारण दाईयों का स्वास्थ्य क्षेत्र में अज्ञानता व अंधविश्वास के रूप में देखा गया, जो कहीं न कहीं औपनिवेशिक विचारधारा के व्यापक विस्तार का प्रतिफल है।(¹) अधिकांशत: डोम और बागड़ी जाति की महिलाओं द्वारा ही दाईयों के कार्य को बढ़ावा दिया गया। जिनका कार्य प्रसवपूर्व (बच्चे के जन्म से पहले) व प्रसवोतर (जन्म के बाद) में माता व शिशु की देखभाल संबंधी कार्य करना होता था। कुछ ऐसी भी दाईयां प्रकाश में आयी जिन्होंने अपने अनुभव से इस कार्य को आगे बढ़ाया। किन्तु अधिकांश मामलों में यह ज़रूर सामने आया की प्रसूति संबंधी कार्यविधि का उन्हें अच्छे ढंग से ज्ञान प्राप्त नहीं था। जिसके कुछ भयावह परिणाम देखे गए। जिसका ज्वलंत उदाहरण बंगाल था, जहाँ मातृ व शिशु मृत्यु दर इंग्लैंड की तुलना में ज़्यादा पाई गई। इंग्लैंड में अगर शिशु मृत्यु दर की बात की जाए तो 1885 के अंतिम दशको में 142 प्रति 1000 पाई गई (¹) और यह 1921 ई. में भद्रलोक में शिशु मृत्यु दर अन्य यूरोपियन देशों की तुलना में दोगुनी पाई गई। अगर बीसवीं सदी के प्रारंभिक दो दशकों को आंका जाए तो क़रीब 5 में से एक बच्चा अपने प्रथम जन्मदिवस से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो चुका होता था।(¹)


बीसवीं सदी के आरंभिक दौर की शृंखला में अधिकतर घरेलू गाइडों जिन्हें गृहलक्ष्मी के रूप में जाना जाता रहा है, प्रकाश में आयी। जिनका सीधा संबंध अधिकतर 'घर' से माना जाता जा सकता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में विशेषत: औपनिवेशिक उत्तरी भारत में इनका प्रचलन व्यापक तौर पर देखने को मिला। जिसमें महिलाओं के लिए घरेलू काम - -काज से लेकर दैनिक दिनचर्या शामिल थी। प्रजनन के साथ- साथ नवीन विषयों की सूची में अब कामुकता व बच्चों की देखभाल भी शामिल होने लगी।(¹) 

वर्ष 1940 के दौरान महिलाओं के लिए एक बहुत ही प्रसिद्ध पत्रिका ‘माधुरी’ में वर्णित विज्ञापन सामने आए, जोकी महिलाओं पर आधारित थे, हालाँकि इसमें 'गोनोकिल्लर' नामक यौन बीमारी पर पुरुषों को भी दर्शाया गया है।(¹)


अप्रैल, 1941 ई. की कानपुर, न्यायगंज की महासम्मेलन पत्रिका में भी स्वदेशी चिकित्सा क्षेत्र में महिलाओं की शिक्षा की बात की गई। जिसमें यह महसूस किया गया कि, आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में स्त्री आयुर्वेदाचार्यों को तैयार करना परम् आवश्यक हो गया है, जिसके लिए उचित पाठ्यक्रम की परीक्षा आयोजित की जानी चाहिए। देश को शिक्षित परिचारिकाओं एवं धात्री की आवश्यकता है। दाईयों के संबंध में भी यह बताया गया कि, शिक्षित समाज पढ़ी-लिखी एवं साफ सुथरी दाईयों को पसंद करता है, भले ही वे अपने परंपरागत चिकित्सा कार्य में कितनी भी चतुर ही क्यों ना रही हो।(¹)


निष्कर्ष; उपरोक्त विवरणों के आधार पर कहा जा सकता है, कि स्वदेशी चिकित्सा ‘आयुर्वेद’ का संबंध औपनिवेशिक उत्तरी भारत की महिलाओं से बड़ा ही गहरा पाया गया, जिसके अंतर्गत एक नवीन सामाजिक संरचना को जन्म मिला। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में अब पुरुष चिकित्सकों के साथ-साथ स्त्री आयुर्वेदाचार्यों का उद्भव भी देखने को मिला। जिसका मुख्य कारण औपनिवेशिक काल में भी पाए जाने वाली प्रदा प्रथा थी, जिस कारण स्त्री ईलाज हेतु पुरुष आयुर्वेदाचार्यों के पास जाने से कतराती थी। स्त्री आयुर्वेदाचार्यों का प्रकाश में आना, जो स्वयं में स्त्री जगत में क्रांति का प्रतीक बनकर समाज के सम्मुख उपस्थित हुआ। भारतीय महिलाओं के मन में आयुर्वेद को लेकर कहीं न कहीं अवश्य ही सरोकार देखने को मिला, चाहे वे स्वदेशी चिकित्सक के रूप में रही हों या पाश्चात्य चिकित्सक के रूप में। इसका उदाहरण भारत की प्रथम महिला डॉक्टर आनंदीबाई जोशी द्वारा भी विशेषत: महिलाओं के गर्भाधान के संबंध में आयुर्वेद के महत्व के रूप में देखा गया। औपनिवेशिक काल में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को ज़िंदा रखने में कार्य अहर्ता प्राप्त स्त्रियों के साथ- साथ बिना अहर्ता प्राप्त स्त्रियों, द्वारा भी किया गया। जिसका जवलंत उदाहरण दाईयों के रूप में देखा जा सकता है। जो अपने प्रायोगिक आधार पर चिकित्सा संबंधित कार्यों को आगे बढ़ाती थी। जिसमें वो प्रसवपूर्व व प्रसवोत्तर स्थिति में महिलाओं के साथ-साथ शिशु की देखभाल करती प्रतीत हुई। परंतु इस स्थिती में चिकित्सकीय ज्ञान का पूर्ण अभाव महिलाओं के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ के रूप में भी सामने आया। जातिगत दृष्टिकोण के आधार पर दाईयों का अधिकांशत: निम्न जाति के रूप में पाया जाना भी कहीं न कहीं चिकित्सा पद्धति के क्षेत्र में दाईयों की दयनीय स्थिति के साथ-साथ जटिल सामाजिक संरचना को दर्शाता है।


आयुर्वेदिक विज्ञापनों में आयुवेद की महिमा का बखान महिला चित्र को माता कि रूप में प्रदर्शित किया गया। महिलाओं को संबोधित करते हुए गृह लक्ष्मी, माधुरी जैसी पत्रिकाएं निकाली गई, जोकी आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के साथ-साथ महिलाओं की समाज में स्थिति एवम् भागीदारी को भी प्रदर्शित करती है। तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त लैंगिक पूर्वाग्रह जिसके अन्तर्गत आयुर्वेद में पुत्रत्न को प्राप्त करने के विभिन्न तौर-तरीक़ों को दर्शाया गया, जो कहीं न कहीं तत्कालीन समाज की पितृसत्तात्मक समाज को इंगीकृत करता है।


संदर्भ :
  1. अनिल कुमार ‘मेडिसिन एंड दी राज’ : ब्रिटिश मेडिकल पॉलिसिस इन इंडिया, 1835-1911, दिल्ली 1998, पृ. 54.
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  3. जवाहिर सिंह श्रीवास्तव, वैद्य प्रिया, नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ, 1924, पृ. 241-42. 
  4. यशोदा देवी, विवाह विज्ञान, काम शास्त्र, आनंद मंदिर (प्रकाशन वर्ष; अज्ञात), इलाहाबाद, पृ.146.
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  6. चारू गुप्ता; ‘‘प्रोक्रएशन एंड प्लेजरः राईटिंग ऑफ ए वूमेन आयुर्वेदिक प्रैक्टिशनर इन कॉलोनियल नार्थ इंडिया, स्टडीज, इन हिस्ट्री 21, 2005, पृ. 39.
  7. वही, पृ. 26, 27. 
  8. श्री किशोरी दत्त शास्त्री; (संपा), आयुर्वेद महासम्मेलन पत्रिका, “साधना”, औषधालय ढाका द्वारा वर्णित (जीवन संरक्षण एवं देह पुष्टि साधन), नामक विज्ञापन, भाग-30, संख्या-1, जनवरी, 1943 ई. कानपुर, उत्तर प्रदेश, पार्श्व पृ.
  9. वही, पृ. 435.
  10. ’अभ्युदय’ (इलाहाबाद), 30 नवंबर 1936, पृ. 21 (एस. वी. एन.), सिलेक्शन फ्रॉम वर्नाकुलर न्यूज़पेपर रिकॉर्ड.
  11. नीलम नेगी; गढ़वाल मे आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति तथा उस पर आधुनिक चिकित्सा का प्रभाव (सन् 1815-2000 ई.), रिगी पब्लिकेशन, पंजाब, 2019, पृ. 165.
  12. दिनेश प्रसाद सकलानी; लेख, ट्रांसमिशन ऑफ आयुर्वेदिक ट्रेडिशन, इन गढ़वाल हिमालय, गलोरी ऑफ संस्कृत एडिशन, भाग-2, प्रतिभा प्रकाशन, शक्ति नगर, दिल्ली-2008, पृ. 703.
  13. अनिल कुमार ‘मेडिसिन एंड दी राज: ब्रिटिश मेडिकल पॉलिसिस इन इंडिया, 1835-1911, दिल्ली 1998, पृ. 61, 62.
  14. सुप्रिया गुप्ता; ‘डिफेमिंग दि दाईः दि मेडिक्लाइजे़शन ऑफ चाल्डबर्थ इन कोलोनियल इंडिया, फिफथ नेशनल कॉन्फ्रेस ऑफ दि इड़ियन एसोशिएशन फॉर वूमेन्स स्टडीज़ एट जावेदपुर यूनिवर्सिटी, फरवरी, 1991, पृ. 9-12.
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  16. चित्ताब्राता पालित , अचिन्तय दत्ता, (सपा.); हिस्ट्री ऑफ मेड़िसन इंन इंडिया, दि मेडिकल एनकाउंटर, कालपज़ पब्लिकेशन, दिल्ली, 2005, पृ. 236.
  17. रसेल बर्गर; आयुर्वेद मेड मॉडर्न पॉलिटिक्स हिस्ट्री ऑफ इंडीजीनस मेडिसन इन नॉर्थ इंडिया 1900-1955, पल्ग्रेव मैकमिलन, इंग्लैंड, यूनाटेड किंगडम, प्रथम संस्करण, 2013, पृ. 90, 93.
  18. (विज्ञापन), गोनोंकिल्लर, माधुरी, नवम्बर, 1940, पृ. 213.
  19. श्री किशोरी दत्त शास्त्री (संपा), श्री वैद्यनाथ (प्रकाशक); आयुर्वेद महासम्मेलन पत्रिका, नयागंज, कानपुर, आयुर्वेद भवन प्रा. लि. कलकत्ता, 31 जनवरी 1941, पृ. 222.

Dr. Pooja

Ph.D. History, Department of History including Ancient Indian History, Culture and Archaeology, Hemvati Nandan Bahuguna Garhwal University, ( A Central University ), Srinagar – 246174 Dist. Garhwal (Uttarakhand) India – 246174

poojarajotiya24@gmail.com, 9999491041, 9810233260


चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) अंक-52, अप्रैल-जून, 2024 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक-जितेन्द्र यादव चित्रांकन  भीम सिंह (इलाहाबाद विश्वविद्यालय)

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