- शशांक कुमार
शोध सार : मनुष्य
ने
अपने
विचारों
को
एक-दूसरे तक
पहुँचाने
के
लिए
सूचना
प्रौद्योगिकी
को
निरंतर विकसित
किया
है।
यह
एक
महत्वपूर्ण
विषय
है
क्योंकि
सूचना
प्रौद्योगिकी
और
भूमंडलीकरण
ने
दुनिया
भर
के
समुदायों
को
जोड़ने
और
बदलने
के
तरीके
में
क्रांतिकारी
बदलाव
किया
हैं।
पहले
भी
ग्रामीण
समाज
एक-दूसरे से
जुड़
रहे
थे
पर
भूमंडलीकरण
के
दौरान
हुए
तकनीकी
विकास
ने
इसके
रफ्तार
को
और
भी
बढ़ाया
है।
भूमंडलीकरण
ने
ग्रामीण
अर्थव्यवस्थाओं
को
वैश्विक
बाजारों
से
जोड़ा
है, जिससे नए
अवसर
और
चुनौतियां
पैदा
हुई
हैं।
किसान
अब
अपने
उत्पादों
को
सीधे
अंतरराष्ट्रीय
खरीदारों
को
बेच
सकते
हैं, इस प्रकार
से
ग्रामीण
कारीगरों
ने
वैश्विक
बाजार
में
अपनी
उपस्थिति
दर्ज
की
है।
हालांकि, भूमंडलीकरण ने
स्थानीय
उद्योगों
पर
प्रतिस्पर्धात्मक
दबाव
भी
डाला
है, जिससे कुछ
ग्रामीण
समुदायों
को
बहुराष्ट्रीय
कंपनियों
के
शोषण
का
सामना
करना
पड़
रहा
है।
जैसा
कि
हमें
विदित
है
कि
भूमंडलीकरण
के
चुंगल
से
समाज
का
कोई
भी
हिस्सा
चाहे
वह
गाँव
हो
या
शहर
हो, बच नहीं
पाया
है।
इस
दौर
के
हिंदी
उपन्यासों
ने
भूमंडलीय
व्यवस्था
से
उपजी
विषमताओं
को
प्रमुखता
से
जगह
दी
है।
निम्नलिखित
विवेचना
कुछ
उपन्यासों
पर
ही
आधारित
है।
ऐसा
नहीं
है
कि
इस
दौर
में
लिखे
गए
अन्य
उपन्यासों
में
इन
प्रवृत्तियों
का
जिक्र
नहीं
होगा।
पर
शोध
आलेख
में
शब्दों
की
सीमा
को
ध्यान
में
रखते
हुए
चयनित
उपन्यासों
के
माध्यम
से
इसे
विश्लेषित
किया
गया
है।
बीज
शब्द : भूमंडलीकरण, ग्रामीण विकास, ग्रामीण समाज, सूचना-प्रौद्योगिकी, सूचना-क्रांति, संचार उद्योग, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, विज्ञापन, हिंदी उपन्यास, इंटरनेट, सिनेमा।
मूल आलेख : सूचनाओं
के
आदान-प्रदान करने
के
लिए
मनुष्यों
के
द्वारा
प्रौद्योगिकी
को
निरंतर
विकसित
किया
गया
है।
बीसवीं
सदी
के
अंतिम
दशक
में
हुए
संचार
और
तकनीकी
विकास
ने
‘भूमंडलीकरण की
प्रक्रिया’
को
और
भी
आसान
बना
दिया
है।
संकेत
चिह्नों, लिपियों के
विकास
से
लेकर
मुद्रण
प्रणाली
से
होते
हुए
रेडियो, टेलीविजन, टेलीफोन, कंप्यूटर, मोबाइल और
इंटरनेट
तक
की
यह
यात्रा
अनिर्वचनीय
रही
है।
सूचना
प्रौद्योगिकी
के
अंतर्गत
केवल
नवीन
उपकरण
ही
नहीं
बल्कि
वे
सभी
सूचना
को
प्रसारित
करने
वाली
गतिविधियां
अर्थात
प्रकाशन, मुद्रण, टेलीफोन नेटवर्क
और
कंप्यूटर-इंटरनेट इत्यादि
भी
आते
हैं।
सूचना
और
संचार
की
क्रांति
और
आवागमन
के
विकसित
साधनों
ने
आज
के
युग
को
मुख्य
रूप
से
परिभाषित
किया
है।
ऐसा
अनुमान
लगाया
जा
रहा
है
कि
इस
तरक्की
ने
दो
देशों
के
बीच
की
दूरियों
को
मिटा
दिया
है
ऐसे
में
संपूर्ण
विश्व
एक
‘वैश्विक गाँव’ के
रूप
में
तब्दील
हो
गया
है।
इस
बात
का
स्पष्टीकरण
‘दूरस्थ गाँवों तक
सूचना
की
पहुँच’
से
दिया
जा
सकता
है।
आज
सूचना
प्रदान
करने
वाले
प्रमुख
साधन
दूरस्थ
गाँवों
और
बस्तियों
में
उपलब्ध
तो
है
ही
साथ
ही
इन
क्षेत्रों
को
ग्रामीण
विकास
के
विभिन्न
कार्यक्रमों
के
तहत
मोबाइल, कंप्यूटर और
इंटरनेट
से
जोड़ने
का
कार्य
भी
जारी
है।
जिसके
माध्यम
से
पलक
झपकते
ही
कोई
भी
सूचना
विश्व
के
किसी
भी
कोने
में
आसानी
से
पहुंच
रही
है।
प्रख्यात
समाजशास्त्री
अभय
कुमार
दुबे
भूमंडलीकरण
को
सूचना
क्रांति
में
नयापन
लाने
का
हाथ
मानते
हैं।
वे
लिखते
हैं, “भूमंडलीकरण पर
चिंतन
करने
वालों
में
इस
बात
पर
खासा
विवाद
है
कि
उसने
जिस
पूंजीवाद
का
प्रवर्तन
किया
है
वह
पुराने
पूँजीवाद
से
किस
मायने
में
भिन्न
है।
लेकिन
शायद
ही
कोई
अध्येता
भूमंडलीकरण
द्वारा
लाई
गयी
सूचना
क्रांति
के
नयेपन
पर
शक
करता
हो।
इस
बात
को
इस
तरह
कहना
ज्यादा
सही
होगा
कि
संचार
की
इस
नई
क्रांति
को
विकास
की
प्रक्रिया
के
तीसरे
तरंग
के
रूप
में
देखी
जा
रही
है।”[1] सच्चिदानंद
सिन्हा
भी
अपनी
पुस्तक
में
भविष्य
की
संभावनाओं
का
अध्येता
आल्विन
टॉफलर
के
माध्यम
से
‘संचार की क्रांति’
को
‘थर्ड वेव’ अभिहित
करते
हैं।
उनका
मानना
है
कि, “इस तीसरे
तरंग
की
ख़ासियत
संचार
व्यवस्था
का
विकास
है, जिसके माध्यम
से
व्यक्तिगत
और
व्यावसायिक
संबंधों
के
परिवर्तन
अपेक्षित
है।
पहले
और
दूसरे
तरंग
से
उपजी
समस्याओं
का
निराकरण
तीसरे
तरंग
के
माध्यम
से
होना
चाहिए
और
साथ
ही
इसे
मनुष्य
को
बाजार
के
दबाव
से
मुक्त
होने
के
लिए
पहल
करनी
चाहिए।”[2] औद्योगिक
देशों
में
संचार
क्रांति
का
उद्भव
औचक
नहीं
हुआ
है
इसके
पीछे
औद्योगीकरण
के
पश्चात
वृहत
पैमाने
पर
हुए
उत्पादन
से
उपजे
समस्याओं
का
होना
है।
वैश्विक
स्तर
पर
उत्पादनों
का
विनिमय
करना
आवश्यक
हो
गया।
व्यापक
परिवहन
व्यवस्था
ने
विनिमय
को
बढ़ाने
में
महत्त्वपूर्ण
भूमिका
अदा
किया।
विनिमय
के
इस
बढ़ती
रफ्तार
ने
आगे
चलकर
सूचनाओं
के
आदान-प्रदान की
चाल
को
भी
और
भी
तीव्र
होने
को
विवश
किया।
इस
तरह
से
संचार
व्यवस्था
विकसित
होने
के
साथ
एक
उद्योग
के
रूप
में
स्थापित
हो
गयी।
प्रतिस्पर्धा
होने
की
वजह
से
अन्य
उद्योगों
की
तरह
इसे
भी
सस्ता, टिकाऊ और
आकर्षक
बनाने
के
अनवरत
प्रयास
हो
रहे
हैं।
विकसित
दूरसंचार
की
प्रणाली
के
माध्यम
से
लोगों
को
घर
बैठकर
ही
दुनिया
के
किसी
भी
कोने
से
व्यापार
करने
में
सक्षम
बनाया।
विकास
की
इस
प्रक्रिया
को
केवल
शहरों
में
ही
नहीं
अपितु
गाँवों
में
भी
देखा
जा
सकता
है।
1990 के
बाद
से
लिखे
गये
उपन्यासों
में
सूचना प्रौद्योगिकी
की
ग्रामीण
क्षेत्रों
तक
की
पहुँच
को
देखा
जा
सकता
है।
वीरेन्द्र
जैन
के
उपन्यास
‘डूब’
में
समाचार
पत्र
तथा
रेडियो
के
माध्यम
से
गाँव
के
लोगों
तक
सूचनाओं
की
पहुँच
का
चित्रण
हुआ
है, “हम तक
खबर
पहुँची
कैसे? हाँ, महाराज, आपको इस
बात
पर
हैरानी
होनी
ही
थी।...वहीं रेडुआ
पर
सुनी
थी
हमने
यह
खबर।
उसी
पर
सुनते
रहते
हैं
हम
सपनों
के
सच
होने
के
किस्से।”[3] रामधारी
सिंह
दिवाकर
के
उपन्यास
‘अकाल संध्या’
में
रिक्शेवाला
के
माध्यम
से
तत्कालीन
राजनीतिक
स्थिति
को
बयाँ
करते
हैं।
“महेसर ने कहा, तुम तो
कुछ
पढ़े
लिखे
हो
जी।…“नै
मालिक, लिखल-पढ़ल नहीं
है, मुदा ई
सब
बात
छिपती
है? बरगाही सायं
इतना
टीभी
हो
गया
है
घरे-घरे कि
कोनो
बात
छिपाए
नहीं
छिपती
है।”[4] यहाँ
एक
और
चीज
जो
हमें
देखने
को
मिलती
है
कि
सूचना
प्राप्त
करने
के
साधन
के
रूप
में
रेडियो
और
टेलीविजन
की
पहुँच
सभी
लोगों
तक
हुई
ही
थी
तब
तक
भूमंडलीकरण
ने
सूचना
प्राप्त
करने
के
लिए
विकसित
रूप
कंप्यूटर
और
इंटरनेट
के
रूप
में
ईजाद
कर
लिया।
सूचनाओं
की
विकसित
प्रणाली
की
पहुँच
होने
से
गाँव-देहात के
निम्न
जीवन
स्तर
वाले
लोग
भी
लाभांवित
हो
रहे
हैं।
वर्तमान
समय
में
हम
आज
किसी
प्रकार
के
अपडेट, जानकारी या
समाचार
प्राप्त
करने
के
लिए
इस
पर
निर्भर
है।
हम
कह
सकते
हैं
कि
सभी
के
जीवन
में
यह
एक
महत्त्वपूर्ण
घटक
के
रूप
में
विद्यमान
है।
टेलीविजन
के
आने
से
लोगों
में
अपनी
संस्कृति
के
प्रति
लोगों
के
रुख
में
बदलाव
देखने
को
मिला
है।
लोगों
में
पर्व-त्योहारों के
प्रति
रूचि
कम
होने
लगी
है।
त्योहारों
को
पहले
लोग
खुद
ही
गाते-बजाते हुए
मनाते
थे, पर अब
लोग
उत्सवों
को
मनाना
छोड़कर
टेलीविजन
पर
प्रसारित
हो
रहे
गाना-बजाना देखने
लगे
हैं।
रामदरश
मिश्र
ने
अपने
उपन्यास
‘बीस बरस’
में
इस
बदलाव
को
इस
प्रकार
से
चित्रित
करते
हैं, “आपको सब
याद
है
दामोदर
चाचा।
अरे
वो
दिन
अब
कहाँ
रहे? अब आज
के
लड़कों
को
गाना
होगा
तो
सिनेमा
के
गीत
गायेंगे, नाचना होगा
तो
विदेशी
कमर-मटकाऊ नाच
नाचेंगे।
सचमुच
अंगद
चाचा
के
साथ
नाचने
में
और
होली
खेलने
में
जो
मजा
आता
था, अब दुर्लभ
हो
गया
है।
जिस
दिन
अंगद
चाचा
नहीं
रहेंगे
उस
दिन
गाँव
समझेगा
कि
ये
क्या
थे?”[5] त्योहार
मनाने
के
साथ
समाज
में
रह
रहे
लोगों
के
बीच
आपसी
समरसता
बढ़ती
है।
पर
सूचना
तंत्र
के
इस
माध्यम
से
समरसता
को
समाप्त
करने
का
कार्य
किया
जा
रहा
है।
समाज
के
महत्वपूर्ण
तत्व
‘आपसी समरसता’ के
ह्रास
का
चित्रण
सुनील
चतुर्वेदी
के
उपन्यास
‘कालीचाट’ में
इस
प्रकार
हुआ
है, “अब शाम
को
चौपाल
नहीं
जुटती
थी।
लोग
घंटो
टीवी
के
सामने
बैठे
रहते।
लोगों
के
दुःख
दर्द
साझा
करने
और
मनोरंजन
के
चौपाल
जैसे
मंच
धीरे-धीरे समाप्त
हो
रहे
थे।”[6] सामाजिक
समस्याओं, खेती-गृहस्थी की
समस्याओं, पारिवारिक कलह, आपसी वाद-विवाद आदि
का
निपटारा
चौपालों
के
माध्यम
से
होता
था।
आधुनिक
संचार
के
माध्यमों
ने
लोगों
को
घर
में
कैद
करके
रख
दिया
जिससे
लोगों
के
बीच
की
दूरी
बढ़ी
है।
इस
प्रकार
से
आपसी
सद्भावना
भी
खत्म
हो
रही
है
और
गाँव
के
लोग
अकेलेपन
का
जीवन
जीने
के
लिए
विवश
हो
रहे
हैं।
भूमंडलीकरण
के
तहत
जिस
समानता
की
कल्पना
की
गयी
थी, इस तकनीकी
विकास
उसे
शत-प्रतिशत पूरा
नहीं
कर
पाया
है।
आम
आदमी
अभी
भी
इस
तकनीकी
विकास
के
व्यापक
लाभ
से
वंचित
है।
सूचना
के
महत्त्व
को
केवल
ज्ञान, मनोरंजन और
देश
की
अर्थव्यवस्था
तक
सीमित
करके
देखना
उसकी
उपयोगिता
को
संकीर्ण
दृष्टि
मानी
जाएगी, जबकि सूचना
प्रौद्योगिकी
के
माध्यम
से
हमारे
जीवन
के
सभी
प्रमुख
आयामों
अर्थात
सामाजिकता, राजनीतिक भूमिका, अस्मिता आदि
के
जुड़ाव
को
चिह्नित
करना
होगा
क्योंकि
इसके
माध्यम
से
समाज
और
मानवीयता
दोनों
को
दिशा
प्राप्त
होती
है।
सूचना
के
अनेक
माध्यमों
के
विकसित
होने
से
आज
का
मनुष्य
विविध
सूचनाओं
के
अंबार
से
घिरा
हुआ
है।
सूचनाओं
के
इस
बाढ़
में
से
विश्वसनीय
सूचनाओं
को
प्रसारित
करने
में
उन्नत
तकनीक
असमर्थ
साबित
हो
रही
है।
इस
संदर्भ
में
सच्चिदानंद
सिन्हा
लिखते
हैं, “सूचना क्रांति
के
नाम
पर
जिस
तरह
के
सूचनाओं
का
अंबार
लोगों
के
सामने
लगाने
की
कोशिश
हो
रही
है
उससे
इसके
चहेते
लोगों
में
‘इन्फ़ॉर्मेशन ओवर
लोड’
(सूचनाओं
के
असह्य
बोझ) से विक्षिप्तता
की
स्थिति
ही
पैदा
होगी।”[7] इस
पर
गंभीरता
से
विचार
करने
की
आवश्यकता
है।
कमल
नयन
काबरा
लिखते
हैं, “एक लोकतांत्रिक
व्यवस्था
में
सूचना
महज
अधिकार
ही
नहीं, एक चुनौती
भरी
जिम्मेदारी
भी
है।
यह
सही
है
कि
सूचना
और
सूचनातंत्र
पर
एकाधिकारी
नियंत्रण
शक्ति
और
सत्ता
की
लड़ाई
का
एक
बड़ा
हथियार
है।
परन्तु
प्राप्त
या
उपलब्ध
सूचना
की
तह
में
जाना, ख़ास कर
विभिन्न
स्रोतों
से
आई
सूचनाओं
के
झूठ-सच का
पता
लगाना
दिनों-दिन मुश्किल
होता
जा
रहा
है।”[8] तकनीक
विकास
के
विकसित
होने
से
सूचनाओं
को
तीव्रता
से
प्रसारित
करने
में
सुविधा
हुई
है।
भारत
जैसे
विशाल
क्षेत्रफल
वाले
देश
में
विश्वस्त
सूचनाओं
को
प्राप्त
करना
सहज
नहीं
है।
ऐसे
में
यदि
भूलवश
कोई
गलत
सूचना
को
प्रसारित
कर
दिया
जाता
है
तो
उसके
विश्वसनीयता
का
ज्ञात
करने
से
पहले
समाज
में
उपद्रव
फैलने
का
अवसर
बढ़
जायेगा।
मीडिया
को
लोकतांत्रिक
देशों
में
चौथे
खंभे
की
संज्ञा
प्राप्त
है।
सरकार
के
कार्यक्रमों
और
उनकी
गतिविधियों
की
रिपोर्टिंग
करने
के
साथ-साथ जनता
की
मांग
और
उसकी
आवाज
को
सरकार
तक
पहुँचाने
का
कार्य
मीडिया
के
द्वारा
किया
जाता
है।
इस
दौर
में
मीडिया
भी
भूमंडलीय
प्रभावों
से
अछूता
नहीं
रह
पाया
है।
कॉर्पोरेट
जगत
ने
अपने
हितों
की
पूर्ति
करने
के
लिए
इस
पर
कब्जा
कर
लिया
है।
रणेन्द्र
अपने
उपन्यास
‘गायब होता
देश’ में
मीडिया
के
जन
विरोधी
स्वरूप
का
चित्रण
करते
हैं।
इस
उपन्यास
में
झारखंड
के
मुंडा
आदिवासी
समाज
के
जल, जंगल तथा
जमीन
को
पूंजीवादी
ताकतों
द्वारा
जबरन
अधिग्रहित
करते
हुए
दिखाया
गया
है।
उपन्यास
में
मीडिया
रिपोर्टर
अमरेन्द्र
मिश्रा, पुलिस और
पूंजीवादी
ताकतों
के
साथ
मिलकर
पुलिस
फायरिंग
में
हुई
हत्या
को
सही
ठहराते
हुए
कहता
है
कि
केवल
तीन
कोल
ही
मरे
हैं, मनुष्य नहीं।
“आप सोचिए सर
कि
दुलमी
नदी
पर
दो
सौ
करोड़
का
बाँध।
दो
सौ
करोड़
सर! यह तो
अग्रवाल
साहब
की
ग्रीन
एनर्जी
कंपनी
की
ही
औकात
थी
सर! क्या नहीं
है
इस
प्रोजेक्ट
में? बिजली भी, नहर भी, फैक्ट्री और
खेतों
के
लिए
पानी
भी।
विकास
ही
विकास।
ये
साले
कोल्ह
कहते
हैं
जान
देंगे
जमीन
नहीं
देंगे।
दे
दे
जान।
अभी
तो
तीने
लोग
मराया
है।”[9] मीडिया
बाँध
की विशेषता को
बढ़ा-चढ़ा कर
पेश
करते
हुए
यह
भूल
जाती
है
कि
एक
तो
आदिवासियों
को
साधारण
मनुष्य
की
दर्जा
नहीं
मिल
रहा, दूसरा उन्हीं
आदिवासियों
के
जमीन
पर
यह
परियोजना
शुरू
हो
रही
है
जिससे
होने
वाले
लाभ
का
दश्मांश
भी
उनके
हिस्से
नहीं
आने
वाला।
समाजशास्त्री
कमल
नयन
काबरा
सूचनातंत्र
को
एक
उद्योग
के
रूप
में
देखते
हैं।
जिसे
नित्य
रूप
से
आधुनिक
और
महँगे, उपकरणों की
जरूरत
होती
है।
इस
जरूरत
को
पूरा
करने
के
लिए
सूचनातंत्र
का
झुकाव
पूंजी
की
ओर
रहता
है
“सूचना उद्योग एक
विशाल, केंद्रीकृत संगठन
होता
है
जिसके
साथ
अनेक
छोटे
व्यवसायी
और
मेहनतकश
लोग
जुड़ते
हैं।
इसके
कार्यकर्ताओं
के
द्वारा
सूचनाओं
के
संकलन
और
प्रसारण
परोक्ष
रूप
से
अपने
उद्देश्यों
को
पूर्ति
करने
के
लिए
किया
जाता
है।”[10] उपन्यास
‘गायब होता
देश’
में
सूचना
के
तंत्र
पर
पूंजीपतियों
के
पकड़
का
स्पष्ट
चित्रण
हुआ
है, “किशनपुर एक्सप्रेस
का
प्रबंधन
सदमे
में
आ
गया
जब
उसे
फुसफुसाहटों
के
जरिए
यह
मालूम
हुआ
कि
इन
आलेखों
का
भुगतान
विज्ञापन
की
दरों
पर
ग्रीन
एनर्जी
द्वारा
किया
गया
है।
ये
एडिटोरियल
के
तौर
पर
छापे
जा
रहे
थे।
विश्वविख्यात
अर्थशास्त्रियों, रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स, वित्त-फाइनेंस एक्सपर्ट्स, चैम्बर ऑफ
कॉमर्स
और
सरकारी
महकमे
की
फैलाई
धुंध
से
पाठक
भ्रमित
हो
रहे
थे।
नगर
के
मध्यवर्गीय
पाठकों
का
मन
डोलने
लगा।
किशन
एक्सप्रेस
का
सर्कुलेशन
कुछ
सौ
घटा
कि
हम
सतर्क
हो
गए।
रणनीति
बदली।
हर
हाल
में
ट्राइबल
मिडिल
क्लास
पाठक
को
टूटने
नहीं
देना
है।
यह
मीटिंग
का
सर्वसम्मत
निर्णय
था।
प्रबंध
संपादक
ने
ही
शहर
में
आदिवासी
जमीन
की
लूट
पर
केन्द्रित
होने
का
निर्देश
दिया
ताकि
‘निवेश-विकास-प्रगति’ के
गुब्बारों
की
हवा
निकाली
जाए।”[11] इस
उद्धरण
से
मीडिया
पर
पूंजीपतियों
के
प्रभाव
को
देखा
जा
सकता
है
जो
कि
इन
दिनों
लगातार
बढ़
रहा
है।
वे
समाचार
पत्रों, टेलीविजन चैनलों, रेडियो स्टेशनों
और
ऑनलाइन
मीडिया
प्लेटफार्मों
के
मालिक
हैं।
इसका
तात्पर्य
है
कि
पूंजीपति
यह
निर्धारित
करते
हैं
कि
कौन-सी खबरें
प्रसारित
होंगी, कैसे प्रस्तुत
होंगी, और किस
दर्शक
तक
पहुंचेंगी।
इस
प्रकार
से
सूचना
के
तंत्र
पर
पूंजीपतियों
का
पकड़
मीडिया
के
चरित्र
को
बदल
रहा
है।
संचार
उद्योग
भी
अन्य
उद्योगों
की
तरह
अपने
लाभ
को
बनाए
रखने
के
लिए
आपसी
प्रतिस्पर्धा
करता
है।
वह
ऐसी
खबरों
को
प्रसारित
करता
है
जिससे
कि
उसकी
टीआरपी
में
बढ़ोतरी
हो।
संजीव
ने
अपने
उपन्यास
‘फाँस’
में
मीडिया
के
इस
आधुनिक
कार्यप्रणाली
का
चित्रण
इस
प्रकार
किया
है, “किसान की
आत्महत्या
कोई
खबर
नहीं
बन
पाती।
मीडिया
की
हजार-हजार आत्महत्याएं
कोई
खबर
नहीं
बन
पातीं।
खबर
बनती
है
मुंबई
में
चल
रही
लक्मे
फैशन
वीक
की
प्रतियोगिता।”[12] इस
संदर्भ
में
प्रभा
खेतान
लिखती
हैं
कि, “दुःख की
बात
तो
यह
है
कि
भूमंडलीकृत
प्रयोगों
के
द्वारा
उत्पन्न
असंतुलन
और
पक्षधरता
से
होने
वाले
नुकसान
की
पूरी
रिपोर्टिंग
मीडिया
नहीं
करता
या
बड़े
निगमों
के
दबाव
में
मुख्यधारा
की
मीडिया
ऐसा
कर
नहीं
पाता।”[13] अन्य
उद्योगों
की
तरह
प्रतिस्पर्धा
कई
बार
मीडिया
संस्थानों
को
पूंजीवाद
के
हितों
के
अनुकूल
काम
करने
के
लिए
प्रेरित
करती
है, जिसके परिणामस्वरूप
भ्रष्टाचार
और
पक्षपात
जैसी
समस्याएं
पैदा
हो
सकती
हैं।
संचार
उद्योग
और
पूंजीवाद
के
बीच
का
संबंध
जटिल
है, जबकि पूंजीवाद
मीडिया
को
विकसित
होने
और
लोगों
तक
पहुंचने
में
मदद
करता
है।
यह
पक्षपात, भ्रष्टाचार और
गलत
सूचना
जैसी
समस्याओं
को
भी
जन्म
दे
सकता
है।
सूचना
प्रौद्योगिकी
के
माध्यम
से
पाश्चात्य
संस्कृति
का
अंधानुकरण
बढ़ा
है।
जिसने
भारतीय
समाज
के
भीतर
बाजारीकरण, उपभोक्तावाद को
गुंफित
किया
है, इस संस्कृति
ने
अनेक
समस्याओं
को
उत्पन्न
किया
है।
इस संदर्भ में
प्रभा खेतान लिखती
हैं, “भूमंडलीकरण ने
पूंजी
के
प्रवाह
को
ही
उन्मुक्त
नहीं
किया, बल्कि सांस्कृतिक
सीमाओं
को
भी
छिन्न-भिन्न कर
दिया
है।
स्वतंत्र
बाजार
ने
विज्ञापन
द्वारा
प्रत्येक
देश
की
संस्कृति
को
प्रभावित
किया
है।
विज्ञापनों
की
हवा
पर
सवार
हो
कर
उपभोक्तावाद
दूर-दूर
तक
यात्रा
करता
है।
हर
कहीं
विशिष्ट
वर्ग
पश्चिमी
सुख-साधन का
सामान
आयात
कर
रहा
है।
यदि
इस
पर
रोक
लगाई
जाती
है
तो
मानव
अधिकार
और
मानव
स्वतंत्रता
का
हवाला
दिया
जाता
है।”[14] इस
प्रकार
से
नव
उदारवादी
युग
में
व्यापारिक
समाज
ने
उपभोक्तावादी
लिप्सा
को
बढ़ाने
का
कार्य
किया
है।
जिससे
अनावश्यक
वस्तुओं
की
माँग
और
उत्पादन
बढ़
रहा
है।
इन
प्रभावों
को
भारतीय
ग्रामीण
समाज
में
भी
देखा
जा
सकता
है।
रामधारी
सिंह
दिवाकर
‘दाखिल खारिज’
उपन्यास
विज्ञापन
के
माध्यम
से
बढ़
रहे
उपभोक्तावाद
का
चित्रण
करते
हैं, “संचार क्रांति।
घर-घर मोबाइल
फोन! मोबाइल कंपनियाँ
करोड़पति
से
अरबपति
और
अरबपति
से
खरबपति
बन
रही
हैं
और
यह
सब
देखते-देखते हुआ
है।
बाजार
में
परचून
की
दुकानों
की
तरह
मोबाइल
फोन
की
दुकानें
हैं।
नई-नई कंपनियाँ
आ
रही
हैं
अपने
मोहक
विज्ञापन
लेकर।
रिचार्ज
कूपन
नमक-हल्दी-मसाले की
तरह
जरूरी
हो
गए
हैं।
बाजार
भरे
हैं
ऐसी
दुकानों
से।
कितनी
छोटी
हो
गई
है
दुनिया! टीवी, इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर..। विज्ञापन
की
नई
भाषा...आभासी दुनिया
का
स्वप्निल
यथार्थ।
कर
लो
दुनिया
मुट्ठी
में!..सरायगंज बाजार
में
साइबर
कैफे
है।
प्रतियोगी
छात्र
ऑनलाइन
रिजल्ट
देखते
हैं
प्रतियोगिता
परीक्षाओं
के।’[15] उपभोक्तावाद
ने
बहुराष्ट्रीय
कंपनियों
को
बेइंतहा
लाभ
पहुँचाया
है।
विज्ञापन
के
माध्यम
से
बहुत-सी अनावश्यक
वस्तुओं
को
उपभोग
करने
की
बढ़
रही
प्रवृत्ति
को
लक्षित
करते
हुए
प्रभा
खेतान
लिखती
हैं, “यह स्वाभाविक
है
कि
बहुराष्ट्रीय
कंपनियां
जनता
को
विज्ञापन
के
माध्यम
से
पुरानी
चीजों
को
छोड़
नई
को
खरीदने
की
प्रेरणा
दें।
आज
समृद्ध
घरों
में
ऐसी
बहुतेरी
चीजों
के
अंबार
लगे
रहते
हैं
जो
किसी
काम
की
नहीं, जिन्हें काम
लायक
बनाना
भी
मुश्किल
है।
चीजें
खराब
होने
से
पहले
व्यक्ति
मानसिक
रूप
से
उसे
बेकार
साबित
कर
देता
है।”[16] यह
कहा
जा
सकता
है
कि
आने
वाली
पीढ़ियाँ
अनेक
प्रामाणिक
वस्तुओं
के
प्रयोग
से
वंचित
रह
जाएंगी।
सुनील
चतुर्वेदी
अपने
उपन्यास
‘कालीचाट’
में
गाँवों
में
टेलीविजन
के
माध्यम
से
पहुँच
रहे
नए
तरह
के
परिधानों
की
बढ़ती
पहुँच
का
चित्रण
इस
प्रकार
से
करते
हैं, “नए-नए तरह
के
पहनावे
टीवी
से
बाहर
निकलकर
हाट-बाजार और
गाँव
में
पहुँचने
लगे
थे।”[17] दूरस्थ
पहाड़ी
गाँवों
के
बाजार
तक
आधुनिक
वस्त्रों
की
पहुँच
को
एस.आर.हरनोट अपने
उपन्यास
‘हिडिम्ब’
में
प्रस्तुत
करते
हैं, “शावणू समझता
था
कि
समय
पहले
जैसा
नहीं
रहा।
ऊन
तो
उनकी
संस्कृति
है।
साथी
है।
जरूरत
है।
घर
की
खेती
है।
मर्द
हो
या
औरत, सभी अपनी-अपनी तरह
से
पहनते
हैं।
हाथ
से
काती
ऊन
के
कितने
ही
सूट
उनकी
दरोठियों
में
पड़े
होंगे।...पर अब
तो
न
कोई
ऊन
कातता
है, न पहले
जैसे
कारीगर
ही
रहे
थे।
नया
जमाना।
सब
काम
मशीनी
हो
गए।”[18] ऊन
गर्म
वस्त्रों
के
रूप
में
पुराने
समय
से
प्रयोग
में
लाया
जाता
रहा
है।
पर
जींस
और
लेदर
के
जैकेट, और रेडीमेड
वस्त्रों
के
बढ़ते
उपभोग
ने
ऊन
के
प्रयोग
को
खत्म
कर
दिया
है।
उपभोक्तावाद
ने
समरूपीकरण
को
विश्व
के
विविध
समाजों
पर
थोपने
का
कार्य
किया
है।
इस
प्रकार
से
कहा
जा
सकता
है
कि
आधुनिक
मशीनों
का
देशी
हस्तकरघा
उद्योग
पर
विनाशकारी
प्रभाव
पड़ा
है।
आधुनिक
मशीनों
से
देशी
हस्तकरघा
उद्योग
प्रतिस्पर्धा
न
कर
पाने
से
बंद
हुईं, इस तरह
से
देशी
परंपरा
विलुप्त
हुई
है।
उपभोक्तावाद
से
उपजे
अर्थ
लिप्सा
की
प्रवृत्ति
ने
मानवीय
संबंधों
को
प्रभावित
किया
है।
रामधारी
सिंह
दिवाकर
के
उपन्यास
‘अकाल संध्या’
में
बदलते
हुए
पारिवारिक
संबंधों
का
चित्रण
हुआ
है।
अच्छी
नौकरी
और
अधिक
धन
कमाने
की
इच्छा
लिए
नन्दू
अपने
परिवार
को
पीछे
गाँव
में
छोड़कर
अमेरिका
जाता
है, वहां जाने
के
साथ
ही
भावनात्मक
रूप
से
सभी
से
उसका
लगाव
धीरे-धीरे कम
होने
लगता
है।
“माई ने फोन
पर
बात
करते
हुए
पूछा
था।
नंदू
का
जवाब
था, यह सोचने
का
समय
कहाँ
मिलता
है
माई, कि मन
लगता
है
या
नहीं।”[19] संचार
के
माध्यम
हमें
दूसरों
से
जुड़ने
और
सूचनाओं
का
आदान-प्रदान करने
में
मदद
करता
है, लेकिन यह
हमेशा
उस
गहरे
लगाव
और
आत्मीयता
को
पैदा
नहीं
कर
सकता
जो
साहचर्य
से
विकसित
होती
है।
साहचर्य
से
उपजे
लगाव
की
आत्मीयता
ही
कुछ
अलग
होती
है।
आभासी
संबंधों
में
अक्सर
शारीरिक
और
भावनात्मक
अंतरंगता
की
कमी
होती
है
जो
साहचर्य
से
उपजे
संबंधों
में
होती
है।
संचार
और
साहचर्य
दोनों
ही
मानवीय
संबंधों
में
महत्वपूर्ण
भूमिका
निभाते
हैं।
संचार
हमें
दूसरों
से
जुड़ने
और
विचारों
का
आदान-प्रदान करने
में
मदद
करता
है, जबकि साहचर्य
हमें
गहरे
स्तर
पर
दूसरों
से
जुड़ने
और
आत्मीयता
विकसित
करने
में
मदद
करता
है।
विकसित
संचार
क्रांति
के
दौर में सूचनाओं
के
प्रसारण
के
साथ
मनोरंजन
के
साधनों
में
बढ़ोतरी
हुई
लेकिन
इसके
साथ
अनेक
कुप्रवृत्तियों
को
भी
प्रश्रय
मिला।
सिनेमा
के
माध्यम
से
अपराध
की
घटनाओं
में
इजाफा
हुआ
है।
सिनेमा
ने
स्त्रियों
को
पहचान
दिया
पर
उसके
भोग्या
रूप
को
बदल
नहीं
पाया।
उनके
साथ
होने
वाली
हिंसा
और
छेड़खानी
की
घटनाएँ
भी
बढ़
गयीं।
रामदरश
मिश्र
ने
‘बीस बरस’
उपन्यास में
इस
दुष्प्रवृत्ति
का
चित्रण
इस
प्रकार
करते
हैं, “अपनी बेटी
से
कह
दो
कि
घोड़ी
की
तरह
चौकड़ी
मारती
न
घूमे।
मुझे
क्या
मालूम
था
कि
यह
तेरी
बेटी
है।
मेरे
लिए
तो
वह
एक
जवान
खूबसूरत
लड़की
दिखाई
पड़ी
थी
और
हर
जवान
खूबसूरत
चीज
पर
अपना
हक
समझता
हूँ।...अरे यह
तो
फिल्मी
डायलाग
हो
गया।”[20] सिनेमा
में, महिलाओं को
अक्सर
पुरुष
दृष्टिकोण
से
वस्तुओं
के
रूप
में
दर्शाया
जाता
है।
उनकी
शारीरिक
सुंदरता
और
यौन
आकर्षण
को
कहानी
के
केंद्रीय
तत्वों
के
रूप
में
उपयोग
किया
जाता
है, जबकि उनकी
बौद्धिक
क्षमता, भावनात्मक तत्व
और
व्यक्तित्व
के
अन्य
पहलुओं
को
हाशिए
पर
रखा
जाता
है।
महिलाओं
को
अक्सर
पुरुष
दर्शकों
को
आकर्षित
करने
के
लिए
उनकी
शारीरिक
बनावट
को
अत्यधिक
रूप
से
फोकस
किया
जाता
है, और उन्हें
अक्सर
यौन
रूप
से
उत्तेजक
कपड़े
और
पोज़
में
दिखाया
जाता
है।
सिनेमा
में
महिलाओं
को
अक्सर
यौन
उत्पीड़न, हिंसा और
दुर्व्यवहार
का
शिकार
दिखाया
जाता
है।
इस
प्रकार
महिलाओं
को
कमजोर
और
असहाय
के
रूप
में
चित्रित
किया
जाता
है।
इस
तरह
के
चित्रण
से
महिलाओं
और
समाज
पर
नकारात्मक
प्रभाव
पड़ता
है।
यह
महिलाओं
को
यौन
वस्तुओं
के
रूप
में
देखने
और
उनका
मूल्यांकन
करने
के
लिए
प्रोत्साहित
करता
है, इसके साथ
ही
यौन
उत्पीड़न
और
हिंसा
को
भी
बढ़ावा
मिलता
है
जिससे
महिलाओं
की
आत्म-सम्मान में
कमी
आती
है।
आज
इंटरनेट
सबके
लिए
सुलभ
हो
गया
है।
इसके
माध्यम
से
मानव
जीवन
को
समृद्ध
करने
का
कार्य
किया
है।
परंतु
इंटरनेट
पर
मौजूद
पोर्न
वेबसाइटों
पर
मौजूद
अश्लील, फूहड़ और
कामोत्तेजक
सामग्री
के
माध्यम
से
हिंसात्मक
घटनाओं
को
बढ़ावा
मिला
है।
जिसके
कारण
समाज
में
अपराध
की
प्रवृत्ति
बढ़
गयी
है।
इसकी
प्रमुख
शिकार
हर
उम्र
की
स्त्रियाँ
हैं।
इस
प्रवृत्ति
को
रणेन्द्र
के
उपन्यास
‘गायब होता
देश’
में
देखा
जा
सकता
है, “नयं तो
दु-चार ठो
फिलिम
देखला
के
बाद
दू
बजे-तीन बजे
रात
में
कुकुर
जैसन
झोपड़ी
में
चमड़ा
सूंघते
घूमते
रहते।
कौन
कोठरी
में
मरद
नहीं
है! कौन झोपड़ी
का
बांस
की
झंझड़ी
ढीली
है! कहाँ का
प्लास्टिक
का
छावन
उखड़
सकता
है!”[21] दारू-शराब के
नशे
में
युवक
पहले
से
ही
इस
प्रकार
के
अपराध
की
घटनाओं
का
अंजाम
दे
रहे
थे, पर संचार
के
इस
विकसित
क्रांति
इंटरनेट
ने
इसे
और
भी
बढ़ावा
दिया
है।
अपराध
और
बलात्कार
की
घटनाएँ
भी
इन
दिनों
बढ़
गयी
हैं।
हालांकि
इंटरनेट
के
माध्यम
से
इन
घटनाओं
का
निदानों
को
भी
बढ़ावा
मिला
है, अपराधों के
खिलाफ
शिकायत
करने
के
लिए
इंटरनेट
के
माध्यम
से
एक
क्लिक
में
हो
जाता
है।
इस
तरह
से
शिकायत
दर्ज
करने
के
लिए
थाने
में
जाने
की
जरूरत
समाप्त
हो
गयी
है।
ग्रामीण
क्षेत्रों
में
यह
चेतना
धीरे-धीरे पहुँच
रही
है।
निष्कर्ष
: निष्कर्ष के
रूप
में
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
संचार
के
विकसित
प्रणाली
ने
अपनी
पहुँच
ग्रामीण
क्षेत्रों
में
सफलतापूर्वक
स्थापित
किया
है।
इसके
माध्यम
से
सूचना
और
शिक्षा
प्रसार
हुआ
जिससे
ग्रामीण
जनता
की
चेतना
का
विस्तार
हुआ
है।
अब
वे
भी
अपने
हक
को
पहचानते
हुए
अपने
लिए
परस्पर
सहभागिता
के
अवसरों
की
मांग
कर
रहे
हैं।
ऐसे
में
उनके
भीतर
प्रतिरोध
का
स्वर
पनप
रही
है।
इन
सबके
अलावा
कुछ
दुष्प्रवृतियाँ
जिनके
मूल
में
भूमंडलीकरण
की
प्रक्रिया
है, इसके सहारे
बढ़
रही
हैं।
लोगों
में
अपने
त्योहार, संस्कृति, कलाओं, के प्रति
मोह
कम
हुआ
जिससे
उत्सव
धर्मिता
की
प्रवृत्ति
खत्म
हो
रही
है।
विविध
साधनों
के
सूचनाओं
का
अंबार
लगने
लगा
है, जिससे इसकी
विश्वसनीयता
संदेहास्पद
हो
गयी
है।
मीडिया
में
पूंजी
के
गठजोड़
होने
से
इसके
जन-सरोकारों का
ह्रास
हुआ
है।
मीडिया
विज्ञापनों
के
द्वारा
उपभोक्तावाद
और
बाजारवाद
को
बढ़ावा
देता
है, जिसके माध्यम
से
समाज
में
अनेक
परिवर्तन
लक्षित
हो
रहे
हैं।
कुल
मिलाकर
यह
कहा
जा
सकता
है
कि
भूमंडलीय
दौर
के
विकसित
तकनीकि
प्रणालियों
का
समाज
पर
पड़ने
वाले
प्रभावों
को
लेखकों
ने
अपने
कृतियों
के
माध्यम
से
उजागर
करने
में
पर्याप्त
सफलता
हासिल
की
है।
[1] अभय कुमार, दुबे, भारत का भूमंडलीकरण, वाणी प्रकाशन, 2021, पृष्ठ. संख्या.50
[2] सच्चिदानंद, सिन्हा, भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ, वाणी प्रकाशन, 2022, पृष्ठ. संख्या.39
[3] वीरेन्द्र, जैन, डूब, वाणी प्रकाशन, 1991, पृष्ठ. संख्या.251
[4] रामधारी सिंह, दिवाकर, अकाल संध्या, भारतीय ज्ञानपीठ, 2006, पृष्ठ. संख्या.155
[5] रामदरश, मिश्र, बीस बरस, वाणी प्रकाशन, 1996, पृष्ठ. संख्या.21
[6] सुनील, चतुर्वेदी, कालीचाट, अंतिका प्रकाशन, 2015, पृष्ठ. संख्या.44
[7] सच्चिदानंद, सिन्हा, भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ, वाणी प्रकाशन, 2022, पृष्ठ. संख्या.49
[8] कमल नयन, काबरा, भूमंडलीकरण के भँवर में भारत, प्रकाशन संस्थान, 2018, पृष्ठ. संख्या.59
[9] रणेन्द्र, गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स, 2014, पृष्ठ. संख्या.41
[10] कमल नयन, काबरा, भूमंडलीकरण के भँवर में भारत, प्रकाशन संस्थान, 2018, पृष्ठ. संख्या.60
[11] रणेन्द्र, गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स, 2014, पृष्ठ. संख्या.77
[12] संजीव, फाँस, वाणी प्रकाशन, 2015, पृष्ठ. संख्या.190
[13] प्रभा, खेतान, बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ, वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ. संख्या.40
[14] प्रभा, खेतान, बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ, वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ. संख्या.12
[15] रामधारी सिंह, दिवाकर, दाखिल खारिज, राजकमल प्रकाशन, 2014, पृष्ठ. संख्या.207
[16] प्रभा, खेतान, बाजार के बीच : बाजार के खिलाफ, वाणी प्रकाशन, 2007, पृष्ठ. संख्या.196
[17] सुनील, चतुर्वेदी, कालीचाट, अंतिका प्रकाशन, 2015, पृष्ठ. संख्या.44
[18] एस.आर., हरनोट, हिडिम्ब, आधार प्रकाशन, 2004, पृष्ठ. संख्या.53
[20] रामदरश, मिश्र, बीस बरस, वाणी प्रकाशन, 1996, पृष्ठ. संख्या.36
[21] रणेन्द्र, गायब होता देश, पेंगुइन बुक्स, 2014, पृष्ठ. संख्या.160
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, असम विश्वविद्यालय, दिफू परिसर, दिफू, कार्बी आंगलोंग, असम-782462
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